शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 14 भाग 9

 आत्‍म—भाव और समत्‍व


समदुःखसुखः स्वस्थ: समलोष्टाश्स्फाञ्जन:

तुल्‍याप्रियाप्रियो धीरस्‍तुल्‍यनिन्‍दात्‍मसंस्‍तुति:।। 24।।

मानापमानयोस्‍तुल्‍यस्‍तुल्‍यो मिप्रारियक्षयो:।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते।। 25।।


और जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख— सुख को समान सोचने वाला है तथा मिट्टी पत्थर और सुवर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा— स्तुति में भी समान भाव वाला है।

तथा जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

और जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख—सुख को समान समझने वाला है; तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा—स्तुति में भी समान भाव वाला है, तथा जो मान और अपमान में सम है एवं जो मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

एक—एक शब्द को समझें।

जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ........।

जो निरंतर एक ही बात स्मरण रखता है कि मैं हूं अपने भीतर। जो अपनी छवियों के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ता; जो दर्पणों में दिखाई पड़ने वाले प्रतिबिंबों से अपने को नहीं जोड़ता; बल्कि जो सदा खयाल रखता है उस होश का, जो भीतर है। और जो सदा याद रखता है कि यह होश ही मैं हूं; मैं हूं यह चैतन्य, और इस चैतन्य को किसी और चीज से नहीं जोड़ता, ऐसी भाव—दशा का नाम आत्म— भाव है।

मैं सिर्फ चेतना हूं। और यह चेतना किसी भी चीज को कितना ही प्रतिफलित करे, उससे मैं संबंध न जोडूगा। यह चेतना कितनी ही किसी चीज में दिखाई पड़े......।

रात चांद निकलता है; झील में भी दिखाई पड़ता है। आप झील में देखकर अगर उसको चांद समझ लें, तो मुश्किल में पड़ेंगे। अगर डुबकी लगाने लगें पानी में चांद की तलाश में, तो भटक ही जाएंगे। और दुख तो निश्चित होने वाला है; क्योंकि थोड़ी ही हवा की लहर आएगी और चांद टुकडे—टुकड़े हो जाएगा।

तो जहां भी हम जिंदगी को देखते हैं, वहा हर चीज टूट—फूट जाती है। क्योंकि हम प्रतिबिंब में देख रहे हैं।

जिस दिन आप आत्म— भाव में स्थित होंगे, उस दिन आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जहां से हम अब तक अपने को खोज रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। जहां से हम रस्सियां बांधकर, योजनाएं करके, साधनाएं साधकर और आत्मा को पाने की कोशिश कर रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। चांद तो सदा आकाश में है। वह किसी कुएं में उलझा नहीं है। लेकिन कुओं में दिखाई पड़ता है।

आत्म— भाव का अर्थ है कि हम चांद को आकाश में ही देखें, कुओं में नहीं। आत्म— भाव का अर्थ है कि मेरी चेतना मेरे भीतर है। और किसी और वस्तु से बंधी नहीं है, कहीं भी छिपी नहीं है। मैं कहीं और नहीं हूं मुझमें ही हूं। इसलिए सब तलाश कहीं और की व्यर्थ है। और सब तलाश दुख में ले जाएगी; विफलता परिणाम होगा। क्योंकि वहां वह मिलने वाली नहीं है।


आत्म— भाव में स्थित हुआ

, दुख—सुख को समान समझने वाला......।

जो भी आत्म— भाव में स्थित होगा, उसे दुख—सुख समान हो जाएंगे, समता उसकी छाया हो जाएगी।

हमें दुख और सुख अलग—अलग क्यों मालूम पड़ते हैं? इसलिए अलग—अलग मालूम पड़ते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं, वह हमें सुख मालूम पड़ता है। और जिससे हम बचना चाहते हैं, वह दुख मालूम पड़ता है। हालांकि हमारे सुख दुख हो जाते हैं और दुख सुख हो जाते हैं, फिर भी हमें बोध नहीं आता। जिस चीज को आप आज पाना चाहते हैं, सुख मालूम पड़ती है। और कल पा लेने के बाद छूटना चाहते हैं और दुख मालूम पड़ती है।

 सब सुख दुख के प्रारंभ हैं। लेकिन दुख थोड़ी देर में पता चलेगा, पहले सब सुख मालूम होगा। जिसको हम पकड़ना चाहेंगे, उसमें सुख दिखाई पड़ेगा। और जिसको हम छोड़ना चाहेंगे, उसमें दुख दिखाई पड़ेगा।


आत्म— भाव में स्थित व्यक्ति को न तो कुछ पकड़ने की आकांक्षा रह जाती है, न कुछ छोड़ने की, इसलिए सुख—दुख समान हो जाते हैं। इसलिए सुख—दुख के बीच जो भेद है, वह कम हो जाता है, गिर जाता है। सुख और दुख में उसका कोई चुनाव नहीं रह जाता।

समान का अर्थ है, कोई चुनाव नहीं रह जाता। दुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। सुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। दुख आता है, तो पागल नहीं होता। सुख आता है, तो भी पागल नहीं होता। न उसे सुख उद्विग्न करता है, न दुख उद्विग्न करता है। जैसे सुबह आती है, सांझ आती है; ऐसे सुख आते—जाते रहते हैं, दुख आते—जाते रहते हैं। वह दूर खड़ा, अछूता, अस्पर्शित बना रहता है। आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख—सुख को समान समझने वाला है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है। धैर्यवान है। तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है। निंदा—स्तुति में समान भाव वाला है।

सभी द्वंद्व जिसके लिए समान हो गए हैं। चाहे प्रेम के, अप्रेम के; चाहे स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र के, शत्रु के; स्तुति के, निंदा के; जिसके लिए सभी भाव समान हो गए हैं। जो विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। जो पहचान लिया है कि सुख दुख का ही छोर है, और जो समझ लिया है कि स्तुति में निंदा छिपी है। आज स्तुति है, कल निंदा होगी। आज निंदा है, कल स्तुति हो जाएगी। मित्रता और शत्रुता के बीच जिसको फासला नहीं दिखाई पड़ता; जिसे दोनों एक ही चीज की डिग्रीज मालूम पड़ती हैं।

यह उसी को होगा, जो आत्म— भाव में स्थित हुआ है। उसे यह द्वंद्व साफ दिखाई पड़ने लगेगा, द्वंद्व नहीं है। यह मेरे ही चुनाव के कारण द्वंद्व पैदा हुआ है।

बुद्ध ने कहा है, मैं कोई मित्र नहीं बनाता हूं क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं।

मित्र बनाएंगे, तो शत्रु बनना निश्चित है। आधा नहीं चुना जा सकता। और हम आधे को ही चुनने की कोशिश करते हैं। इससे हम कष्ट में पड़े हैं। अगर मित्र को चुनते हैं, तो शत्रु को स्वीकार कर लें। सुख को चुनते हैं, तो दुख को भी स्वीकार कर लें।

पर यह स्वीकृति, यह  उसी को संभव है, जो अपने में स्थित हुआ हो, जो भीतर खड़े होकर देख सके—दुख को, सुख को, दोनों कों—निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति देख पाता है निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति तराजू की भांति हो जाता है, जिसके दोनों पलड़े एक सम स्थिति में आ गए; जिसका कांटा आत्म— भाव में थिर हो गया।

तथा जो मान—अपमान में सम है। मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

कुंजी है, आत्म— भाव में स्थित होना। जो आत्म— भाव में स्थित है, द्वंद्व में सम हो जाएगा। जो आत्म— भाव में स्थित है, वह कर्तापन से मुक्त हो जाएगा। उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। भूख लगेगी, पर वह भूखा नहीं होगा।

बड़ी मीठी कथा है कृष्ण के जीवन में। जैन शास्त्रों में उस कथा का उल्लेख है।

कृष्ण की पत्नी ने, रुक्मिणी ने कृष्ण से पूछा कि एक परम वैरागी नदी के उस पार ठहरा है। वर्षा के दिन हैं, नदी में पूर है। और कोई भोजन नहीं पहुंचा पा रहा है। आप कुछ करें। तो कृष्ण ने कहा, तू ऐसा कर कि जा और नदी के किनारे नदी से यह प्रार्थना करना—कथा बड़ी मीठी है—नदी से यह प्रार्थना करना कि अगर वह वैरागी, जो उस पार ठहरा है, वह संन्यस्त वीतराग पुरुष सदा का उपवासा हो, तो नदी मार्ग दे दे।

रुक्मिणी को भरोसा तो न आया, लेकिन कृष्ण कहते हैं, तो कर लेने जैसी बात लगी। और हर्ज क्या है; देख लें। और शायद यह हो भी जाए, तो एक बड़ा चमत्कार हो।

तो वह सखियों को लेकर बहुत—से मिष्ठान्न और भोजन लेकर नदी के पास गई। उसने नदी से प्रार्थना की। भरोसा तो नहीं था। लेकिन चमत्कार हुआ कि नदी ने रास्ता दे दिया। कहा इतना ही कि उस पार जो ठहरा संन्यस्त व्यक्ति है, अगर वह जीवनभर का उपवासा है, तो मार्ग दे दो।

नदी कट गई। अविश्वास से भरी रुक्मिणी, आंखों पर भरोसा नहीं, अपनी सहेलियों को लेकर उस पार पहुंच गई। उस वीतराग पुरुष के लिए भोजन वह इतना लाई थी कि पचास लोग कर लेते। वह अकेला संन्यासी ही उतना भोजन कर गया।

भोजन के बाद यह खयाल आया कि हम कृष्ण से यह तो पूछना भूल ही गए कि लौटते वक्त क्या करेंगे। क्योंकि नदी अब फिर बह रही थी। और अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। क्योंकि यह आदमी आंख के सामने भोजन कर चुका। और थोड़ा—बहुत भोजन नहीं कर चुका। निश्चित ही, जीवनभर का उपवासा रहा होगा। पचास आदमियों का भोजन उसने कर लिया! लेकिन अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। और अब कृष्ण से पूछने का कोई उपाय नहीं। तो एक ही उपाय है, इस वीतराग पुरुष से ही पूछ लो कि कोई कुंजी है वापस जाने की!

तो उसने कहा कि तुम किस कुंजी से यहां तक आई हो? तो उन्होंने कहा कि कृष्ण ने ऐसा कहा था, लेकिन वह तो अब बात बेकार हो गई। उस संन्यासी ने कहा कि वह बात बेकार होने वाली नहीं है। कुंजी काम करेगी। तुम नदी से कहो कि अगर यह संन्यासी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे।

पहले ही भरोसा नहीं आया था। अब तो भरोसे का कोई कारण भी नहीं था। अब तो स्पष्ट अविश्वास था। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इसलिए नदी से प्रार्थना करनी पड़ी। और नदी ने मार्ग दिया।

करीब—करीब होश खोई हुई हालत में रुक्मिणी कृष्ण के पास पहुंची। और उसने कहा, यह हद हो गई। यह बिलकुल भरोसे की बात नहीं है। क्योंकि हमने अपनी आंख से देखा है संन्यासी को भोजन करते हुए। उसके जीवनभर के उपवासे होने का कोई सवाल नहीं रहा।

कृष्ण ने कहा कि वही तुम नहीं समझ पा रही हो। भूख शरीर को लगती है, ऐसा जो जान लेता है, फिर भोजन भी शरीर में ही जाता है। ऐसा जो जान लेता है, उसका उपवास कभी भी खंडित नहीं होता। जिसको भूख ही न लगी हो, उसको भोजन करने का सवाल नहीं है। हम भोजन करते हैं, करते मालूम पड़ते हैं। कर्तापन आता है, क्योंकि भूख हमें लगती है, हमारी है।

इस प्रयोग को थोड़ा करके देखें। कल से स्मरण रखें कि भूख लगे, तो वह शरीर की है। प्यास लगे, तो शरीर की है। पानी पीए, तो शरीर में जा रहा है। प्यास बुझ रही, तो शरीर की बुझ रही है।

भूख मिट रही, तो शरीर की मिट रही है। भोजन करते समय, भूख के समय, प्यास के समय, पानी पीते समय, स्मरण रखें।

अगर इस स्मरण को आप थोड़े दिन भी रख पाएं, तो आपको एक अनूठा अनुभव होगा। और वह अनुभव यह होगा कि आपको साफ दिखाई पड़ने लगेगा कि मैं सदा का उपवासा हूं। वहा कभी कोई भूख नहीं लगी। कोई भूख पहुंच नहीं सकती वहा। चेतना में भूख का कोई उपाय नहीं है।

एक बात निश्चित है कि शरीर को भला जरूरत हो या आदत हो, लेकिन भीतर जो चेतना है, उसको न तो जरूरत है और न आदत है। वह भीतर की चेतना परम ऊर्जा से भरी है। उसकी ऊर्जा का स्रोत शाश्वत है। उसको ऊर्जा रोज—रोज ग्रहण नहीं करनी पड़ती।

इसलिए हम उसे सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। उसकी ऊर्जा मूल स्रोत से जुड़ी है। वह स्रोत शाश्वत है। वह कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए उसमें रोज ईंधन डालने की जरूरत भी नहीं है। चेतना के लिए भोजन की कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर के लिए हो या न हो, यह बात विवाद की हो सकती है। समय, भविष्य तय करेगा। लेकिन चेतना के लिए तो कोई भी जरूरत नहीं है। वह चेतना उपवासी है।

ऐसा भाव अगर बनने लगे, निर्मित होने लगे, तो आप में से कर्तापन धीरे— धीरे अपने आप गिर जाएगा। और जब भी आप किसी चीज का आरंभ करेंगे, किसी भी चीज की पहल करेंगे, तो आप जानेंगे यह शरीर के गुण इसकी पहल कर रहे हैं, मैं इसकी पहल नहीं कर रहा हूं।

शरीर को जितनी जरूरत होगी, आप दे देंगे। ज्यादा भी नहीं देंगे, कम भी नहीं देंगे। अभी हम दो ही काम करते हैं, या तो कम देते हैं या ज्यादा देते हैं। क्योंकि ठीक कितना देना, इसका हमें पता ही नहीं चल पाता। हम इतने जुड़े हैं, हमारा संबंध इतना जुड़ गया है शरीर से कि हम निष्पक्ष नहीं हो पाते। हम से ज्यादा निष्पक्ष तो जानवर हैं।

अगर कुत्ते को पेट में खराबी हो, तो वह भोजन नहीं करेगा, आप लाख उपाय करें। लेकिन आपको कितनी ही बीमारी हो, कितनी ही खराबी हो, आप भोजन करेंगे। शायद बीमारी में और ज्यादा कर लें, कि जरा ताकत की जरूरत है। कोई जानवर यह भूल नहीं करेगा। क्योंकि जानवर जानता है कि बीमारी में भोजन करने का मतलब है कि शरीर को और काम देना। शरीर पर बीमारी का काम है। उतना ही काम काफी है। उसको नया काम देना खतरनाक है।

शरीर को भोजन न दिया जाए, तो बीमारी जल्दी समाप्त हो जाती है। क्योंकि शरीर खुद बीमारी को निकालने में लग जाता है। शरीर की पूरी ताकत एक तरफ बहने लगती है, बीमारी खतम करने में। आप भोजन देकर ताकत पचाने में लगा देते हैं। तो भोजन बीमारी को बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता।

कोई जानवर राजी नहीं होगा। साधारण—सा कुत्ता, जिसको हम बहुत समझदार नहीं कहते, वह भी भोजन नहीं करेगा। भोजन तो करेगा ही नहीं, घास—पात खाकर वमन कर देगा। जो पेट में पड़ा है, उसको भी निकाल देगा। ताकि खाली हो जाए; ताकि शरीर की पूरी ऊर्जा पचाने में नष्ट न हो, बीमारी से लड़ने में लग जाए।

और शरीर के पास नैसर्गिक व्यवस्था है बीमारियों से लड़ने की। वह सब बीमारियों के पार उठ सकता है। और अगर आधुनिक आदमी नहीं उठ पाता, तो उसका कारण यह है कि वह शरीर की ऊर्जा को तो भोजन में ही लगाए रखता है।

हम निष्पक्ष नहीं हो पाते, बीमारी में ज्यादा खा लेते हैं। हमें कभी पता भी नहीं चलता, ठीक हमारा, जिसको पता चलने का बोध कहना चाहिए, वह भी क्षीण हो गया है। हमें पता ही नहीं चलता कि कितना खाना, कब खाना, कब नहीं खाना, उसका हमें कोई बोध नहीं रहा है। कोई नैसर्गिक हमारी प्रतीति नहीं रही है कि कितना खाना, कितना नहीं खाना; कब कुछ करना और कब नहीं करना, कहा रुक जाना।

उस सबका कारण इतना है कि हम इतने ज्यादा जुड़ गए हैं शरीर के साथ कि दूर खड़े होने से, दूर से देखने पर जो निष्पक्षता होती है, वह नष्ट हो गई है। साक्षी— भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आत्म— भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आप दूर खड़े होकर देख सकेंगे।

और ध्यान रहे, बहुत—सी समस्याएं सिर्फ इसलिए नहीं हल हो पातीं कि आप दूर नहीं हो पाते।

आपके पास कोई दूसरा आदमी आए और अपनी कोई समस्या कहे, तो आप जो सुझाव देते हैं, वह हमेशा सही होता है। वह दूसरे की समस्या है। आप दूर से खड़े होकर देखते हैं। वही समस्या आप पर आ जाए, फिर आपकी बुद्धि काम नहीं करती। जो दूसरे को सलाह देने में काम कर रही है, वह खुद को सलाह देने में काम नहीं कर पाती। वैसे ही जैसे एक सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन कर रहा हो। सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन करने को राजी नहीं होगा। जब तक कि मार डालने की इच्छा न रखता हो। क्योंकि वह जानता है, पत्नी से इतनी निकटता है, हाथ कंपेगा। वह निष्पक्ष नहीं हो पाएगा। तो सर्जन अपने मित्र को कहेगा कि तू आपरेशन कर। निष्पक्षता न हो, तो सब चीजें कंप जाती हैं। निष्पक्षता हो, तो हम अडिग बने रहते हैं; बोध साफ होता है; चीजें स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं; धुआं नहीं होता।

जितना आत्म— भाव बढ़ेगा, जितना आप अपने को शरीर से अलग और चेतना के साथ एक मानेंगे, देखेंगे, समझेंगे, ठहरेंगे, उतना ही आप पाएंगे कि चीजें उतनी ही होती हैं, जितनी जरूरी हैं।

जरूरत पर रुक जाना, जरूरत से आगे इंचभर न जाना। तो फिर आपके लिए कोई बंधन नहीं है। क्योंकि तब शरीर के चलने योग्य शरीर को देते रहेंगे आप। शरीर अपनी गतिविधि पूरी कर लेगा और समाप्त हो जाएगा। जिस दिन शरीर की गतिविधि पूरी हो जाएगी, जैसे दीए का तेल चुक गया, वैसे ही दीया बुझ जाएगा। और इस शरीर के दीए के बुझते ही आपके जीवन में महासूर्य का उदय होगा। इस दीए पर आंखें बंधी हैं, इसलिए सूरज को देखना मुश्किल है।

कृष्ण कहते हैं, आत्म— भाव में स्थित हुआ, संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।

ऐसा जो व्यक्ति है, ऐसी जो चेतना है, वह गुणों के अतीत है। और गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल


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