मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13भाग 4

 समत्‍व और एकीभाव


असक्‍तिरभिष्‍वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु।

नित्यं च समीचत्‍तत्‍वमिष्टानिष्टोययीत्तषु।। 9।।

मयि चानन्ययोगेन भाक्तईरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसोईख्वमरतिर्जनसंसदि।। 10।।

अध्यात्‍मज्ञाननित्यन्वं तत्‍वज्ञानार्थदर्शनम् ।

एतज्ज्ञानीमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोउन्यथा।। 11।।


तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्‍ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय—अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित का सम रहना अर्थात मन के अनुकूल और प्रतिकूल के प्राप्त होने पर हर्ष— शोकादि विकारों का न होना। और मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान— योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्‍त मनुष्यों के समुदाय में अरति, प्रेम का न होना।

तथा अध्यात्म— ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्‍वज्ञान के अर्थरूप परमत्मा को सर्वत्र देखना,  यह सब तो ज्ञान है; और जो हमसे विपरीत है, वह अज्ञान है, ऐसा कहा जाता है।



तथा पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय— अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना अर्थात मन के अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्राप्त होने पर हर्ष—शोकादि विकारों का न होना।

इस संबंध में एक बात खयाल ले लेनी चाहिए। समता! दुख हो या सुख, प्रिय घटना घटे या अप्रिय, सफलता हो या असफलता, यश या अपयश, दोनों का बराबर मूल्य है। दोनों में से किंचित भी एक को वांछनीय और एक को अवांछनीय न मानना ज्ञानी का लक्षण है। समत्व ज्ञानी की आधारशिला है।

लेकिन यह होगा कैसे? क्योंकि जब सफलता मिलती है, तो प्रीतिकर लगती है। कोई हम तय थोड़े ही करते हैं कि जब सफलता मिले तो हम खुश हों। हम सफलता मिलते ही खुश हो जाते हैं। यह हमें खुश होने के लिए कुछ करना थोड़े ही पड़ता है, यह हमारा कोई निर्णय थोड़े ही है।

जब प्रियजन घर आए, तो हम प्रसन्न हो जाते हैं। कोई प्रसन्न होने के लिए चेष्टा थोड़े ही करनी पड़ती है। और जब कोई गाली दे, अपमान करे, तो हम दुखी हो जाते हैं। दुखी होने के लिए हमें सोचना थोड़े ही पड़ता है। चुनाव का मौका कहा है? जो होता है, वह जब हो जाता है, तब हमें पता चलता है। जब हम दुखी हो जाते हैं, तब पता चलता है कि दुखी हो गए।

कृष्ण कहते हैं, समता। यह समता कैसे घटेगी? इसके घटने की प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया खयाल में लेनी चाहिए।

कोई भी अनुभव भीतर पैदा हो, उसे अचेतन पैदा न होने दें। उसमें सजगता रखें। कोई गाली दे, तो इसके पहले कि क्रोध आए, एक पांच क्षण के लिए बिलकुल शांत हो जाएं। क्रोध को कहें कि पांच क्षण रुको। दुख को कहें, पांच क्षण रुको। पांच क्षण का अंतराल देना जरूरी है। तो आपके पास पर्सपेक्टिव, दृष्टि पैदा हो सकेगी। पांच क्षण बाद सोचें कि मुझे दुखी होना है या नहीं। दुख को चुनाव बनाएं। दुख को मूर्च्छित घटना न रहने दें। नहीं तो फिर आप कुछ भी न कर पाएंगे।

जैसे कोई बिजली का बटन दबाता है, ऐसे ही आपके भीतर बटन दब जाते हैं। आप सुखी हो जाते हैं, दुखी हो जाते हैं। बिजली का बटन दबाने पर बिजली कह नहीं सकती कि मैं नहीं जलूंगी। मजबूर है, यंत्र है। लेकिन आप यंत्र नहीं हैं।

जब कोई गाली दे, तो क्रोधित होना? तत्‍क्षण बिजली की बटन की तरह काम हो रहा है। आप यंत्र की तरह व्यवहार कर रहे हैं। रुके। उसने गाली दी, ठीक। लेकिन आप अपने मालिक हैं। गाली लेने में जल्दी मत करें। किसी ने सम्मान किया, वह उसकी बात है। किसी ने आपकी खुशामद की, चापलूसी की, वह उसकी बात है। लेकिन आप जल्दी मत करें, और एकदम पिघल न जाएं। रुके, थोड़ा समय दें। थोड़े फासले पर खड़े होकर देखें कि क्या हो रहा है।
और आप पाएंगे कि जितना आप फासला बढ़ाते जाएंगे, सुख—दुख समान होते जाएंगे। जितने करीब होंगे, सुख—दुख में बड़ा फासला है। जितने फासले पर होंगे, सुख—दुख का फासला कम होने लगता है। जब कोई व्यक्ति दूर से खड़े होकर देख सकता है, सुख और दुख एक ही हो जाते हैं। क्योंकि दूरी से दिखाई पड़ता है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन समता उपलब्ध हो जाती है।

कृष्ण कहते हैं, समता ज्ञानी का लक्षण है। और मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान—योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति, प्रेम का न होना।

और मुझ परमेश्वर में एकीभाव। बड़े दंभ की बात है, मुझ परमेश्वर में एकीभाव! कृष्ण कहे ही चले जाते हैं कि मुझ परमेश्वर के साथ तू ऐसा संबंध बना।

अहंकारी पड़ेगा, तो बड़ी अड़चन में पड़ेगा। वह तो अर्जुन का बड़ा निकट संबंध था, बड़ी आत्मीयता थी, इसलिए अर्जुन ने एक भी बार नहीं पूछा कि क्या बार—बार रट लगा रखी है, मुझ परमात्मा में। उसने एक भी बार यह सवाल नहीं उठाया कि क्यों अपने को परमात्मा कह रहे हो? और क्यों अपने ही मुंह से कहे चले जा रहे हो कि मैं परमात्मा हूं?

वह इतना आत्मीय था, इतना निकट था, कि कृष्ण को जानता था कि यह घोषणा किसी अहंकार की घोषणा नहीं है। यह कहना सिर्फ अर्जुन को समर्पण के लिए राजी करने का उपाय है।
मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान—योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति...।

भक्ति अव्यभिचारिणी, इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। व्यभिचार का अर्थ होता है, अनेक के साथ लगाव। व्यभिचारिणी कहते हैं हम उस स्त्री को, जो पति को भी दिखा रही है कि प्रेम करती, और उसके प्रेमी भी है, उनसे भी प्रेम कर रही है। और प्रेम एक खिलवाड है। क्षणभर भी कोई उसे एकांत में मिल जाए तो उससे भी प्रेम शुरू हो जाएगा। मन में किसी एक की कोई जगह नहीं है।
व्यभिचार का अर्थ है, मन में एक की जगह नहीं है। मन खंडित है। बहुत प्रेमी हैं, बहुत पति हैं; उसका अर्थ है व्यभिचार। एक! तो मन अव्यभिचारी हो जाता है।

और बड़े मजे की बात है, समझने जैसी है, कि यह इतना जो जोर है एक प्रेमी पर, यह प्रेमी के हित में नहीं है। असल में प्रेम करने वाला अगर एक व्यक्ति को प्रेम करने में समर्थ हो जाए, तो उसके सारे खंड मन के इकट्ठे हो जाते हैं और वह एकीभाव को उपलब्ध हो जाता है।

जितने आपके प्रेम होंगे, उतने आपके खंड होंगे, उतने आपके हृदय के टुकड़े होंगे। अगर आपके दस—पांच प्रेमी हैं, तो आपके हृदय के दस—पांच स्वर होंगे, दस—पांच टुकड़े होंगे। आप एक आदमी नहीं हो सकते, दस प्रेम अगर आपके हैं; आप दस आदमी होंगे। आपके भीतर एक भीड़ होगी।

यह जो इतना जोर है अव्यभिचारिणी भक्ति पर, कि एक का भाव है तो एक का ही भाव रह जाए इसका अर्थ यह है कि जितना ही एक का भाव रहने लगेगा, उतना ही भीतर भी एकत्व घनीभूत होने लगेगा; इंटीग्रेशन भीतर फलित हो जाएगा। इसलिए प्रेमी भी योग को उपलब्ध हो जाता है, और योगी प्रेमी हो जाता है।

अगर कोई पूरे मन से किसी एक व्यक्ति को प्रेम कर सके, तो उस प्रेम में भी एकत्व घटित हो जाता है। भीतर इंटीग्रेशन हो जाता है; भीतर सारे खंड जुड़ जाते हैं। अनेक स्वर समाप्त हो जाते हैं। एक ही स्वर और एक ही भाव रह जाता है। उस एक भाव के माध्यम से प्रवेश हो सकता है अनंत में। अनेक को छोड्कर एक; और तब एक भी छूट जाता है और अनंत उपलब्ध होता है।

कृष्ण कहते हैं, अव्यभिचारिणी भक्ति!

अनन्य रूप से मुझ एक में ही तू समर्पित हो जा

 तेरे मन में यह खयाल भी न रहे कि कोई और भी हो सकता है, जिसके प्रति समर्पण होना है। अगर उतना—सा खयाल भी रहा, तो समर्पण पूरा नहीं हो सकता।

कई बार ऐसा भी होता है कि गलत गुरु के पास भी ठीक शिष्य सत्य को उपलब्ध हो जाता है। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी।
लेकिन हम जानते हैं, हमने एकलव्य की कथा पढ़ी है। गलत गुरु का सवाल ही नहीं है; गुरु था ही नहीं वहां। वहां तो सिर्फ मूर्ति बना रखी थी उसने द्रोणाचार्य की। उस मुर्ति के सहारे भी वह उस कुशलता को उपलब्ध हो गया जो एकाग्रता है।

कैसे यह हुआ? क्योंकि मूर्ति तो कुछ सिखा नहीं सकती। द्रोणाचार्य खुद भी इतना नहीं सिखा पाए अर्जुन को, जितना उनकी पत्थर की मूर्ति ने एकलव्य को सिखा दिया।
तो द्रोणाचार्य का कोई हाथ नहीं है उसमें। अगर कुछ भी है हाथ, तो एकलव्य के भाव का ही है। वह उस पत्थर की मूर्ति के पास इतना एकीभाव होकर रुक गया, इतनी अव्यभिचारिणी भक्ति थी उसकी कि पत्थर की मूर्ति के निकट भी उसे जीवंत गुरु उपलब्ध हो गया। और गुरु द्रोणाचार्य इस योग्यता के गुरु नहीं थे, जितना एकलव्य ने उनको माना और फल पाया। क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धोखा दिया। और अपने संपत्तिशाली शिष्य के लिए एकलव्य का अगुंठा कटवा लिया।

द्रोणाचार्य की उतनी योग्यता नहीं थी, जितनी एकलव्य ने मानी। लेकिन यह बात गौण है। द्रोणाचार्य की योग्यता थी या नहीं, यह सवाल ही नहीं है। एकलव्य की यह अनन्य भाव—दशा, और एकलव्य की यह महानता, कि इस गुरु ने जब अंगूठा मांगा, तब उसकी भी समझ में तो आ ही सकता था। आ ही गया होगा। साफ ही बात है। अंगूठा कट जाने पर वह धनुर्विद नहीं रह जाएगा। और द्रोणाचार्य ने अंगूठा इसीलिए मांगा कि जब उसके निशाने देखे, और उसकी तन्मयता और एकाग्रता और उसकी कला देखी, तो द्रोणाचार्य के पैर कांप गए। उन्हें लगा कि अर्जुन फीका पड़ जाएगा। अर्जुन की अब कोई हैसियत इस एकलव्य के सामने नहीं हो सकती। थी भी नहीं। क्योंकि अर्जुन का इतना भाव द्रोणाचार्य के प्रति कभी भी नहीं था, जितना भाव एकलव्य का द्रोणाचार्य के प्रति था। और द्रोणाचार्य अर्जुन को तो उपलब्ध थे, एकलव्य को उपलब्ध भी नहीं थे।

यह कथा बड़ी मीठी और बड़ी अर्थपूर्ण है। एकलव्य ने अंगूठा भी काटकर दे दिया। मैं मानता हूं कि उसकी धनुर्विद्या तो खो गई अंगूठा कटने से, लेकिन उसने भीतर जो योग उपलब्ध कर लिया अंगूठा काटकर।

उस एकलव्य के लिए कृष्ण को गीता कहने की जरूरत नहीं पड़ी। वह अंगूठा काटने के क्षण में ही उस परम एकत्व को उपलब्ध हो गया होगा। क्योंकि जरा भी संदेह न उठा! ऐसी असंदिग्ध
अवस्था में अगर परमात्मा उपलब्ध न हो, तो फिर कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। तो बाहर की कला तो खो गई, लेकिन वह भीतर की कला को उपलब्ध हो गया।
इसकी फिक्र छोड़ना; मैं लोगों को कहता हूं इसकी फिक्र छोड़ो कि गुरु ठीक है या नहीं। तुम कैसे पता लगाओगे? तुम हजार के पास घूमकर और कनफ्यूज्‍ड हो जाओगे, तुम और उलझ जाओगे। तुम्हें कुछ पता होने वाला नहीं है। तुम जितनों के पास जाओगे, उतने खंडित हो जाओगे। तुम बेहतर है, कहीं रुकना सीखो। रुकने में खूबी है। बेहतर है, एक के प्रति समर्पित होना सीखो। समर्पण में राज है। वह किसके प्रति, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है।

और कई दफा तो ऐसा होता है कि गलत के प्रति समर्पण ज्यादा कीमती परिणाम लाता है। इसे थोड़ा समझ लें। क्योंकि ठीक के प्रति समर्पण तो स्वाभाविक है। आपकी कोई खूबी नहीं है उसमें। वह आदमी ठीक है, इसलिए समर्पण आपको करना पड़ रहा है। आपकी कोई खूबी नहीं है। लेकिन आदमी गलत हो और आप समर्पण कर सकें, तो खूबी निश्चित ही आपकी है।

तो कभी—कभी बहुत—से गुरु अपने आस—पास गलत वातावरण स्थापित कर लेते हैं। वह भी समर्पण का एक हिस्सा है। क्योंकि अगर उनके बाबत सभी अच्छा हो, तो समर्पण करने में कोई खूबी नहीं, कोई चुनौती नहीं है। वे अपने आस—पास बहुत—सा जाल खड़ा कर लेते हैं, जो कि गलत खबर देता है। और उस क्षण में अगर कोई समर्पित हो जाता है, तो समर्पण की उस दशा में अव्यभिचारिणी भक्ति का जन्म होता है।

कृष्ण कहते हैं, स्वात और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति, प्रेम का न होना..। आप भीड़ खोजते हैं हमेशा। और अक्सर भीड़ खोजने वाला गलत भीड़ खोजता है। क्योंकि भीड़ खोजना ही गलत मन का लक्षण है।
दूसरे से कुछ भी मिल सकता नहीं। आप जरा सोचें, आप क्या करते हैं दूसरे से मिलकर? कुछ थोड़ी निंदा, पास—पड़ोस की कुछ अफवाहें। किसकी पत्नी भाग गई! किसके बेटे ने धोखा दिया! कौन चोरी कर ले गया! कौन बेईमान है! ये सारी आप बातें करते हैं। यह रस अकेले में नहीं आता, इसके लिए दो—चार लोग चाहिए, इसके लिए आप भीड़ खोजते हैं।

एक दिन चौबीस घंटे अपनी चर्चा का खयाल करें। आप कहां बैठते हैं? क्यों बैठते हैं? क्यों बातें करते हैं ये? क्या रस है इसमें? और अगर यह रस आपका कायम है, तो ज्ञान कभी उपलब्ध न होगा, क्योंकि यह सारा अज्ञान को बचाने की व्यवस्था कर रहे हैं आप।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी का लक्षण है, एकांत का रस। ज्ञानी ज्यादा से ज्यादा अकेले रहना चाहेगा।

क्यों? क्योंकि अकेले में ही स्वयं का साक्षात्कार हो सकता है; और अकेले में ही भीड़ के प्रभाव और संस्कारों से बचा जा सकता है। और अकेले में ही आदमी शांत और मौन हो सकता है। और अकेले में ही धीरे— धीरे भीतर सरककर उस द्वार को खोल सकता है, जो परमात्मा का द्वार है।

दूसरे के साथ रहकर कोई कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे मोहम्मद, परमात्मा के पास पहुंचने के पहले एकांत में सरक गए थे। महावीर बारह वर्ष तक मौन हो गए थे। बुद्ध छ: वर्ष तक जंगल में चले गए थे। मोहम्मद तीस दिन तक बिलकुल एकांत पर्वत पर रह गए थे। जीसस को तैंतीस वर्ष की उम्र में उनको फांसी हुई। ईसाइयों के पास केवल तीन साल की कहानी है, आखिरी तीन साल की। बाकी तीस साल चुप मौन साधना में गुजरे।

यह जो मौन में सरक जाना है, एकांत का रस है, यह ज्ञानी का लक्षण है। भीड़ का रस, समूह का रस, क्लब, मित्र की तलाश खतरनाक है।

लेकिन आप यह मत सोचना कि क्लब ही सिर्फ क्लब है। लोग तो धर्म—कथाओं में भी इसीलिए चले जाते हैं। विशेषकर स्त्रियां तो इसीलिए पहुंच जाती हैं धर्म—कथाओं में कि वहा जाकर वे सब चर्चा कर लेती हैं, जिसका कि उन्हें मौका कहीं नहीं मिलता। सब जमाने भर की स्त्रियां वहा मिल जाती हैं। जमाने भर के रोग और कहानियां उन्हें वहा मिल जाते हैं। वहां वे सब चर्चा कर लेती हैं। कथा तो बहाना है।

मंदिर में भी आप जा सकते हैं; हो सकता है, परमात्मा से मिलने न जा रहे हों। वहा भी आप गपशप करने जा रहे हों, जो लोग मंदिर आते हैं उनसे। यह भी हो सकता है, आप किसी गुरु के पास भी इसीलिए जाते हों कि थोड़ा आस—पास के उपद्रव की खबरें सुन आएं। लेकिन कुछ स्वात की तलाश न हो।

ध्यान रखना जरूरी है कि आप अकेले ही सत्य से— मिल सकते हैं, भीड़ को साथ लेकर जाने का कोई उपाय नहीं है। आपका निकटतम मित्र भी आपके साथ समाधि में नहीं जाएगा। आपकी पत्नी भी आपके साथ ध्यान में प्रवेश नहीं कर सकती। आपका बेटा भी आपके साथ भक्ति के जगत में नहीं प्रवेश करेगा। वहा आप अकेले होंगे। इसलिए अकेले होने का थोड़ा रस है! और जब भी मौका मिल जाए, तो अकेले होने का मजा ले!

लेकिन हम तो घबड़ाते हैं। जरा अकेले हुए कि लगता है कि मरे। जरा अकेले हुए कि डर लगता है। जरा अकेले हुए कि लगता है, ऊब जाएंगे, क्या करेंगे!

एक बहुत मजे की बात है। आप अपने से इतने ऊबे हुए हैं कि आप अपने साथ थोड़ी देर भी नहीं रह सकते। और जब कोई आपके साथ ऊब जाता है, तो आप सोचते हैं, वह आदमी बुरा है। जब आप खुद ही अपने साथ ऊब जाते हैं, तो दूसरे तो ऊबेंगे ही। अकेले में थोड़ी देर खुद ही से बातें करिए। एक दिन ऐसा प्रयोग करिए। जापान में एक विधि है ध्यान की। वे साधक को कहते हैं कि जो भी तेरे भीतर चलता हो, उसको जोर—जोर से बोल। भीतर मत बोल, जोर—जोर से बोल। बैठ जा एकांत में और जो भी भीतर चलता हो, उसको जोर से बोल।

आप घबडा जाएंगे, अगर भीतर जो जैसा है, उसको जोर से बोलेंगे। घंटेभर में आप कहेंगे कि मैं भी कहां का बोरियत पैदा करने वाला आदमी हूं!

लेकिन यही आप दूसरों से बोल रहे हैं। और जब दूसरे आपसे बोर होते हैं, तो आप समझते हैं, इनकी समझ नहीं है। जरा समझ का.. मैं तो बड़ी ऊंची बातें कर रहा हूं और ये ऊब रहे हैं! लेकिन जब हर आदमी अपने से ऊबा है, तो ध्यान रहे, वह दूसरे को भी उबाएगा।
और दूसरे आपकी कुछ देर तक बात सुनते हैं, उसका कारण आप जानते हैं? इसलिए नहीं कि आपकी बात में कोई रस है। बल्कि इसलिए कि जब आप बंद हो जाएं, तब वे बोलें। और कोई कारण नहीं होता। कि अब आप उबा लिए काफी, अब हमको भी उबाने दो।

इसलिए सब से ज्यादा बोर करने वाला आदमी वह मालूम पड़ता है, जो कि आपको मौका ही नहीं देता। और कोई कारण नहीं है। वह बोले ही चला जाता है। वह आपको अवसर ही नहीं देता। इसलिए आप कहते हैं, बहुत बोर करने वाला आदमी है। उसका केवल मतलब इतना है कि आप ही बोर किए जा रहे हैं! मुझको भी बोर करने का मौका दें। एक अवसर मुझे भी दें, तो मैं भी आपको ठीक करूं। लेकिन जो असली बोर करने की कला में कुशल हैं, वे मौका नहीं देते।

आदमी अपने साथ इतनी ज्यादा पीड़ा अनुभव करता है, और सोचता है, दूसरों को सुख देगा। पति पत्नी को सुख देना चाहता है, पत्नी पति को सुख देना चाहती है। पत्नी सोचती है कि पति के लिए स्वर्ग बना दे, लेकिन अकेली घडीभर नहीं रह सकती, नरक मालूम होने लगता है। तो जब अकेले रहकर पत्नी को खुद नरक मालूम होने लगता है, तो यह पति के लिए नरक ही बना सकती है, स्वर्ग बनाएगी कैसे!

कोई किसी दूसरे के लिए स्वर्ग नहीं बना पाता, क्योंकि हम अकेले अपने साथ रहने को राजी नहीं हैं।

इस जमीन पर उन लोगों के निकट कभी—कभी स्वर्ग की थोड़ी—सी हवा बहती है, जो अपने साथ रहने की कला जानते हैं। इसे थोड़ा समझ लेना। जो आदमी एकांत में रहने की कला जानता है, उसके पास आपको कभी थोड़े—से रस की बूंदें मिल सकती हैं, कोई अमृत की थोड़ी झलक मिल सकती है। लेकिन जो अपने साथ रहना जानता ही नहीं, उसका तो जीवन से कोई संस्पर्श नहीं हुआ है।

 कृष्ण कहते हैं, शुद्ध देश में, एकांत में, अपने भीतर की शुद्धता में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति..।

अगर कभी जाना भी हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास जाना चाहिए, जो आपको संसार की तरफ न ले जाता हो। जो आपको संन्यास की तरफ ले जाता हो। जो आपको उठाता हो वस्तुओं के पार। जो आपको जीवन के परम मंदिर की तरफ इशारा करता हो। अगर जाना ही हो किसी के पास, तो ऐसे व्यक्ति के पास जाना चाहिए। अन्यथा भीड़ से, समूह से बचना चाहिए।

तथा अध्यात्म—ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है, ऐसा कहा है। परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह तो ज्ञान है। और इससे जो है, वह अज्ञान है।

बड़ा कठिन है परमात्मा को सर्वत्र देखना। अपने ही भीतर नहीं देख सकते, तो बाहर कैसे देख सकेंगे! पहले तो अपने ही भीतर देखना जरूरी है कि परमात्मा मौजूद है। चाहे कितना ही विकृत हो, कितना ही उलझा हो, बंधन में हो, कारागृह में हो, है तो परमात्मा ही। चाहे कितनी ही बेचैनी में, परेशानी में हो, है तो परमात्मा ही। अपने भीतर भी परमात्मा देखना शुरू करना चाहिए, और अपने आस—पास भी देखना शुरू करना चाहिए। धीरे— धीरे यह परमात्मा भाव ऐसा हो जाना चाहिए कि परमात्मा ही दिखाई पड़े, बाकी लोग उसके रूप दिखाई पड़े। यह भाव—दशा बन जाती है। लेकिन अपने से ही शुरू करना पड़े।

और जैसे कोई पत्थर फेंके पानी में, तो पहले छोटा—सा वर्तुल उठता है पत्थर के चारों तरफ। फिर वर्तुल फैलता जाता है, और दूर अनंत किनारों तक चला जाता है। ऐसा पहली दफा परमात्मा का पत्थर अपने भीतर ही फेंकना जरूरी है। फिर वर्तुल उठता है, लहरें फैलने लगती हैं, और चारों तरफ पहुंच जाती हैं।

जब तक आप अपने में देखते हैं पाप, नरक, और आपको कोई परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तब तक आपको किसी में भी दिखाई नहीं पड़ सकता। आप कितना ही मंदिर की मूर्ति पर जाकर सिर पटकें और आपको चाहे कृष्ण और राम भी मिल जाएं, तो भी आपको परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता।

जिस धोबी ने राम के खिलाफ वक्तव्य दिया, और जिसकी वजह से राम ने सीता को निकाल देना पड़ा, वह राम के गांव का निवासी था, उसको राम में राम दिखाई नहीं पड़ा। उसको सीता में सीता दिखाई नहीं पड़ी। उसको तो सीता में भी दिखाई पड़ी व्यभिचारिणी स्त्री। वह खुद व्यभिचारी रहा होगा। जो हमारे भीतर होता है, वह हमें दिखाई पड़ता है।

तो राम भी पास खड़े हों, तो आपको गड़बड़ ही दिखाई पड़ेंगे। आपको तो कुछ अड़चन ही मालूम होगी। आपको लगेगा, कुछ न कुछ बात है।



आप जब तक अपने भीतर परमात्मा को न देख पाएं, तब तक राम में भी दिखाई नहीं पड़ेगा। और जिस दिन आप अपने भीतर देख पाएं उस दिन रावण में भी दिखाई पड़ेगा। क्योंकि अपनी सारी पीड़ाओं, दुखों, चिंताओं, वासनाओं के बीच भी जब आपको भीतर की ज्योति दिखाई पड़ने लगती है, तो आप जानते हैं कि चाहे कितना ही पाप हो चारों तरफ, भीतर ज्योति तो परमात्मा की ही है। चाहे कांच पर कितनी ही धूल जम गई हो, और चाहे कांच कितना ही गंदा हो गया हो, लेकिन भीतर की ज्योति तो निष्कलुष जल रही है। ज्योति पर कोई धूल नहीं जमती, और ज्योति कभी गंदी नहीं होती। ज्योति के चारों तरफ जो कांच का घेरा है, वह गंदा हो सकता है। जब आप अपने गंदे से गंदे घेरे में भी उस ज्योति का अनुभव कर लेते हैं, तत्‍क्षण सारा जगत उसी ज्योति से भर जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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