शनिवार, 14 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 7


 प्‍यास और धैर्य—

    यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।

इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।

एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।


हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।

है निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्‍त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।


हे भारत, इस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

एक—एक शब्द समझें।

इस प्रकार से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। जिसको भी यह स्मरण आ गया कि परिधि पर शरीर है, मध्य में चेतना है और अंत में केंद्र पर अंतर्यामी पुरुषोत्तम है, जिसको भी यह स्मरण आ गया कि केंद्र परमात्मा है, फिर उसकी परिधि भी परमात्मा के ही गुणगान करने लगती है। फिर उसकी परिधि पर भी परमात्मा का ही स्वर गूंजने लगता है। फिर उसके बाहर भी वही प्रकट होने लगता है, जो भीतर है। फिर वह उठता भी है, तो परमात्मा में, बैठता भी है, तो परमात्मा में। फिर परमात्मा उसके लिए कुछ पृथक नहीं रह जाता, उसके अपने होने का अभिन्न अंग हो जाता है। फिर वह जो भी करता है, वह सब परमात्मा में ही घटित होता है। जैसे मछली सागर में होती है, ऐसा फिर वह परमात्मा में होता है। भजने का यही अर्थ है।

भजने का यह अर्थ नहीं कि आप बैठे हैं, कभी—कभी राम—राम, राम—राम कर लिया। भजने का यह अर्थ है कि आपके जीवन की कोई भी गतिविधि परमात्मा से शून्य न हो। आप जो भी करें, जो भी न करें, सब में परमात्मा का स्मरण सतत भीतर बना रहे। आपके जीवन के कृत्य माला के मनके हो जाएं और परमात्मा आपके भीतर का धागा हो जाए। हर मनके में दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े, वह धागा भीतर समाया रहे। सभी मनके उसी धागे से बंध जाएं, भजन का यह अर्थ है।

पर हम तो हर चीज को विकृत कर लेते हैं। तो हम काम करते जाते हैं और सोचते हैं, भीतर राम—राम करते जाओ। लोग अभ्यास कर लेते हैं उसका। तो वे कार ड्राइव करते रहेंगे और भीतर राम—राम करते रहेंगे! वह अभ्यस्त हो जाता है।

मन जो है, आटोमैटिक किया जा सकता है। तो मन स्वचालित यंत्र बन जाता है। आप अपना काम करते रहें, वहां राम—राम, राम—राम, राम—राम चलता रहे। उसका कोई मूल्य नहीं है। वह मन का एक कोना दोहराता रहता है।

भजन का अर्थ है, अपने जीवन में डूब जाए स्मृति परमात्मा की। कैसे यह हो?



किसी मित्र की आंख में झांकें, तब आपको मित्र तो दिखाई पडे, वह परिधि रहे, लेकिन उसमें पुरुषोत्तम भी दिखाई पड़े, तो वह भजन हो जाएगा। फूल को देखें, फूल तो परिधि रहे और फूल में जो सौंदर्य प्रकट हुआ है, वह जो खिलावट, वह जो जीवन की अभिव्यक्ति हुई है, वह जो पुरुषोत्तम वहां मौजूद है, उसका स्मरण आ जाए। चाहे फूल देखें, चाहे आंख देखें, चाहे आकाश देखें, जो भी देखें वहां आपको पुरुषोत्तम की स्मृति बनी रहे।

ऐसा नहीं कि फूल देखें, तो भीतर राम—राम, राम—राम करने लगें। उसमें तो फूल भी चूक जाएगा। राम—राम करने की शाब्दिक बात नहीं है। फूल के अनुभव में पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। भोजन करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे। स्नान करें, पुरुषोत्तम का अनुभव मौजूद रहे।

 भगवान को अनुभव में जानना है, अनुभव से पलायन करके नहीं। उससे बचना नहीं, उससे भागना नहीं। जैसा भी जीवन है, जहां भी जीवन ले जाए, वहां मेरी आंख परिधि पर ही न रहे, केंद्र पर सदा पहुंचती रहे। जो भी मैं देखूं, उसमें मुझे केंद्र की प्रतीति बनी रहे, वह धारा भीतर बहती रहे कि पुरुषोत्तम मौजूद है। ऐसी अगर प्रतीति हो जाए, तो आपका पूरा जीवन भजन हो जाएगा। वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भजता है। तभी निरंतर भजन हो सकता है। अगर राम—राम जपेंगे, तो निरंतर तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि दो राम के बीच में भी जगह छूट जाएगी। एक दफा कहा राम, दूसरी दफा कहा राम, बीच में खाली जगह छूट गई, तो निरंतर तो हो ही नहीं पाया।

फिर कब तक कहिए! जब तक होश रहेगा कहिए, रात नींद लग जाएगी, वह चूक जाएगा। कोई डंडा सिर पर मार देगा, क्रोध आ जाएगा; वह निरंतर का चूक जाएगा, निरंतर नहीं रह पाएगा। कितनी ही तेजी से कोई राम—राम जपे, तो भी दो राम के बीच में जगह छूटती रहेगी, उतनी खाली जगह में परमात्मा चूक गया। निरंतर तो तभी हो सकता है कि जो भी हो रहा हो, उसी में परमात्मा हो। जो डंडा मार रहा है सिर पर, अगर उसमें भी पुरुषोत्तम दिखे, तो भजन निरंतर हो सकता है। और जो राम—राम के बीच में खाली जगह छूट जाती है, उस खाली जगह में भी पुरुषोत्तम दिखे, तभी पुरुषोत्तम निरंतर हो सकता है।

और जब तक भजन निरंतर न हो जाए, सतत न हो जाए, तब तक ऊपर—ऊपर है, तब तक चेष्टित है, तब तक वह हमारी सहज आत्मा नहीं बनी है।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्यमय—रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

कृष्ण निरंतर अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। कहे चले जाते हैं, निष्पाप! क्योंकि यह हिंदू धारणा है और बड़ी मूल्यवान है कि निष्पापता हमारा स्वभाव है। उससे वंचित होने का उपाय नहीं है। पाप करके भी आपके निष्पाप होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह हिंदू विचार की बड़ी गहन धारणा है।

पश्चिम, विशेषकर ईसाइयत इसको समझने में बिलकुल असमर्थ होती है। क्योंकि जब पाप किया, तो निष्पाप कैसे रहे? पाप किया, तो पापी हो गए।

यहीं हिंदू चिंतन बड़ा कीमती है। हिंदू चिंतन कहता है, क्या तुम करते हो, यह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। जो तुम हो, उसे तुम्हारा कोई भी करना नष्ट नहीं कर पाता। तुम्हारी निर्दोषता तुम्हारा स्वभाव है। तो जिस दिन भी तुम यह समझ लोगे कि कृत्य से मैं दूर हूं? उसी दिन तुम पुन: अपनी निष्पाप स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे। उसे तुमने कभी खोया नहीं है, चाहे तुम भूल गए हो।

तो ज्यादा से ज्यादा संसार एक विस्मरण है। ज्यादा से ज्यादा पाप अपनी निष्पाप दशा का विस्मरण है। हमने उसे खोया नहीं है; हम उसे खो भी नहीं सकते। हमारी निर्दोषता, हमारी जो इनोसेंस है, वह हमारी सहज अवस्था है, वह सांयोगिक नहीं है। उसे नष्ट करने का उपाय नहीं है।

जैसे आग गरम है, ऐसे हम निष्पाप हैं। चेतना का निष्पाप होना धर्म है। अर्जुन को इसीलिए कृष्ण निष्पाप कहते हैं। हे निष्पाप अर्जुन!

अर्जुन को स्मरण नहीं है इस निष्पाप स्थिति का, इसलिए वह भयभीत है। वह डरा हुआ है कि पाप हो जाएगा। युद्ध मैं लडूंगा, काटूंगा, मारूंगा—पाप हो जाएगा। फिर इस पाप के पीछे भटकूगा अनंत जन्मों तक। और कृष्ण कह रहे हैं, तू निष्पाप है।

जैसे ही कोई व्यक्ति पहली पर्त से पीछे हटेगा, वैसे ही निष्पापता की धारा शुरू हो जाती है। और तीसरी पर्त पर सब निष्पाप है।

इसे मैं ऐसा समझ पाता हूं। पहली पर्त पर सभी पाप है। शरीर के पर्त पर सभी पाप है। वह शरीर का स्वभाव है। पुरुषोत्तम के पर्त पर सभी निष्पाप है। वह पुरुषोत्तम का स्वभाव है, केंद्र का स्वभाव है। और दोनों के बीच में हमारा जो मन है, वहा सब मिश्रित है, पाप, निष्पाप, सब वहां मिश्रित है। इसलिए मन सदा डांवाडोल है। वह सोचता है, यह करूं न करूं? पाप होगा कि पुण्य होगा? अच्छा होगा कि बुरा होगा?

अर्जुन वहीं खड़ा है, दूसरे बिंदु पर। कृष्ण तीसरे बिंदु से बात कर रहे हैं। अर्जुन दूसरे बिंदु पर खड़ा है। भीम और दूसरे, पहले बिंदु पर खड़े हैं। उनको सवाल भी नहीं है।

उस महाभारत के युद्ध में तीन तरह के लोग मौजूद हैं। पहली पर्त पर सभी लोग खड़े हैं। वह पूरे युद्ध में जो सैनिक जुटे हैं, योद्धा इकट्ठे हुए हैं, वे पहली पर्त में हैं। उनको सवाल ही नहीं है कि क्या गलत और क्या सही! इतना भी उनको विचार नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, वह ठीक है या गलत है! वह शरीर के तल पर कोई विचार होता भी नहीं। शरीर मूर्च्छित है, वहा सभी पाप है।

अर्जुन बीच में अटका है। उसके मन में संदेह उठा है। उसके मन में चिंतना जग गई है; विमर्ष पैदा हुआ है। वह सोच रहा है। सोचने से दुविधा में पड़ गया है। वे जो पहली पर्त में खड़े लोग हैं, उनकी कोई दुविधा नहीं है, स्मरण रखें। वे निसंदिग्ध लड़ने को खड़े हैं।

उनके मन में कोई संदेह, कोई सवाल नहीं है। लड़ने आए हैं, लड़ना उनका धर्म है, लड़ना नियति है, उसमें कोई विचार नहीं है।

अर्जुन दुविधा में पड़ा है। उसकी बुद्धि अड़चन में है। बुद्धि सदा अड़चन में होगी, क्योंकि वह मध्य में खड़ी है। वह पाप के जगत की तरफ भी जा सकती है और निष्पाप के जगत की ओर भी जा सकती है। वह दोनों की तरफ देख रहा है। और पीछे कृष्ण हैं, वे पुरुषोत्तम हैं, वहां सभी निष्पाप है।

एक बात मजे की है कि जो पाप के तल पर खड़े हैं, उन्हें भी कोई संदेह नहीं। जो निष्पाप के तल पर खड़ा है, उसे भी कोई संदेह नहीं। क्योंकि वहा सभी निष्पाप है। कुछ पाप हो ही नहीं सकता। जो पाप के तल पर खड़े हैं, उसे निष्पाप का कोई पता ही नहीं है, इसलिए तुलना का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन मध्य में खड़ा है।

अर्जुन शब्द का अर्थ भी बड़ा कीमती है। अर्जुन शब्द बनता है ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। अऋजु का अर्थ होता है, तिरछा, डांवाडोल, कंपता हुआ। अर्जुन का अर्थ है, कंपता हुआ, लहरों की तरह डांवाडोल, इरछा—तिरछा। कुछ भी सीधा नहीं है। और दोनों तरफ उसके कंपन हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है।

कृष्ण निष्पाप पुरुषोत्तम हैं। वहा कोई कंपन नहीं है। इसलिए अर्जुन कृष्ण से पूछ सकता है और इसलिए कृष्ण अर्जुन को उत्तर दे सकते हैं। कृष्ण की पूरी चेष्टा यह है कि अर्जुन पीछे सरक आए, निष्पाप की जगह खड़ा हो जाए; वहां से युद्ध करे। यही गीता का पूरा का पूरा सार है। कैसे अर्जुन सरक आए निष्पाप की दशा में और वहा से युद्ध करे!

दो हालतों में युद्ध हो सकता है। एक तो अर्जुन सरक जाए शरीर के तल पर, जहां भीम और दुर्योधन खड़े हैं, वहा; वहां युद्ध हो सकता है। और या वह कृष्ण के तल पर सरक आए, तो युद्ध हो सकता है।

पहले तल पर सरक जाए, तो युद्ध साधारण होगा। जैसा रोज होता रहता है। तीसरे तल पर सरक जाए तो युद्ध असाधारण होगा। असाधारण होगा, जैसा कभी—कभी होता है, सदियों में कभी कोई एक आदमी तीसरे तल पर खड़े होकर युद्ध में उतरता है। और अगर वह बीच में खड़ा रहे, तो वह कुछ भी न कर पाएगा; युद्ध होगा ही नहीं। वह सिर्फ दुविधा में नष्ट हो जाएगा। वह संदेह में डूबेगा और समाप्त हो जाएगा। अधिक लोग संदेह में ही डूबते—उतराते रहते हैं।

हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

सुनकर नहीं; क्योंकि सुन तो अर्जुन ने लिया। अगर सुनकर ही होता होता, तो अर्जुन कहता कि बात खतम हो गई, कृतार्थ हो गया। सुन आपने भी लिया......।

तत्व से जानकर! ऐसा जो कृष्ण ने कहा है, जब अर्जुन ऐसा स्वयं जान ले; जब यह उसकी अनुभूति बन जाए; जब उसकी प्रतीति हो जाए; जब वह कह सके, ही, पुरुषोत्तम मैं हूं तो कृतार्थ हो जाता है। तो फिर जीवन में अर्थ आ जाता है। फिर प्रत्येक किया अर्थवान हो जाती है। फिर व्यक्ति जो भी करता है, सभी में फल और फूल लग जाते हैं। फिर व्यक्ति जो भी, जिस भांति भी जीता है, सभी तरह के जीवन से सुगंध आनी शुरू हो जाती है। उस व्यक्ति में पुरुषोत्तम के फल लगने शुरू हो जाते हैं, पुरुषोत्तम के फूल आने शुरू हो जाते हैं।

और कृष्ण कहते हैं, इस रहस्यमय गोपनीय शास्त्र को मैंने तुझसे कहा।

यह रहस्यमय तो बहुत है, और गोपनीय भी है। रहस्यमय इसलिए है कि जब तक आपने नहीं जाना, इससे बड़ी कोई पहेली नहीं हो सकती कि पाप करते हुए कैसे निष्पाप! संसार में खड़े हुए कैसे पुरुषोत्तम! दुख में पड़े हुए कैसे अमृत का धाम! इससे ज्यादा पहेली और क्या होगी? स्पष्ट उलझन है। इसलिए रहस्यमय।

और गोपनीय इसलिए कि इस बात को, कि तुम पुरुषोत्तम हो, कि तुम निष्पाप हो, अत्यंत गोपनीय ढंग से ही कहा जाता रहा है। क्योंकि पापी भी इसको सुन सकता है। और पापी यह मान ले सकता है कि जब निष्पाप हैं ही, तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है? और जब पाप करने से निष्पाप होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता, तो किए चले जाओ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, गोपनीय भी, गुप्त रखने योग्य भी। हम सब इसी तरह के लोग हैं। हम अपने मतलब का अर्थ निकाल ले सकते हैं। हम सोच सकते हैं, जब निष्पाप हैं, तो बात खत्म हो गई। अब हम चोरी करें, बेईमानी करें, डाका डालें, हत्या करें, कोई हर्ज नहीं। क्योंकि भीतर का निष्पाप तो निष्पाप ही बना रहता है; पुरुषोत्तम को तो कोई अंतर पड़ता नहीं है!

इसलिए बात गोपनीय है। उन्हीं से कहने योग्य है, जो सोचने को, बदलने को तैयार हुए हों। उन्हीं को समझाने योग्य है, जो उसे ठीक से समझेंगे; जो उसे सम्यकरूपेण समझेंगे; जो उसका विपरीत अर्थ निकालकर अपने को नष्ट न कर लेंगे। क्योंकि सभी कुंजिया ज्ञान की खतरनाक हैं। उनसे आप नष्ट भी हो सकते हैं। जरा—सा गलत उपयोग, और जो अग्नि आपके जीवन को बदलती, वही अग्नि आपको भस्मीभूत भी कर दे सकती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह गोपनीय है शास्त्र, रहस्यमय है। क्योंकि जब तक तू अनुभव न कर ले, तब तक यह पहेली बना रहेगा। और इसको तत्व से जानकर ही मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।

सुनकर नहीं, समझकर नहीं; अनुभव करके।

आपने भी सुना। उसमें से थोड़ा कुछ सोचना, पकड़ना, थोड़ा—सा, एक रंचमात्र। और उस रंचमात्र के आस—पास जीवन को ढालने की कोशिश करना। एक छोटा—सा बिंदु भी इसमें से पकड़कर अगर आपने जीवन को बसाने की कोशिश की, तो वह छोटा—सा बिंदु आपके पूरे जीवन को बदल देगा।

छोटी—सी चिंगारी पूरे पर्वत को जला डालती है। चिंगारी असली हो, चिंगारी जीवंत हो। चिंगारी शब्द नहीं जंगल को नहीं जला देगा, चिंगारी जलाएगी।

बहुत—सी चिंगारियां कृष्ण ने अर्जुन को दी हैं। अगर मनपूर्वक सहानुभूति से समझा हो, तो उसमें से कोई चिंगारी आपके मन में भी बैठ सकती है, आग बन सकती है।

लेकिन सिर्फ मुझे सुन लेने से यह नहीं होगा। करने का खयाल मन में जगाए।

जल्दी परिणाम न आएं, घबडाएं मत। आपने शुरू किया, इतना ही काफी है। परिणाम आएंगे; परिणाम सदा ही आते हैं। परमात्मा की तरफ उठाया गया कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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