शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 15 भाग 4

समर्पण की छलांग

   उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्‍जानं वा गुणान्यितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचमुष:।। 10।।

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यज्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यक्यधेतस:।। 11।।


परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी ज्ञानीजन नहीं जानते है केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं।


परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

शरीर छोड़कर जाते हुए को……।

जब शरीर छूटता है, और आपका बहुत बार छूटा है, लेकिन वह घड़ी चूक—चूक जाती है। क्योंकि शरीर छूटने के पहले ही आप बेहोश हो जाते हैं। जब भी कोई मरता है, मरने के पहले ही बेहोश हो जाता है। तो मौत का अनुभव नहीं हो पाता और मृत्यु की जो रहस्यमय घटना है, वह अनजानी रह जाती है।

मरने के पहले आदमी मूर्च्छित हो जाता है। इसलिए मृत्यु में जो भेद घटित होता है, शरीर अलग होता है, आत्मा अलग होती है, इंद्रियों के फूल पीछे पड़े रह जाते हैं, सुगंध, सूक्ष्म वासनाएं, संस्कार आत्मा के इर्द—गिर्द सुगंध की तरह लिपटे हुए नई यात्रा पर निकल जाते हैं। यह घटना हमारी समझ में नहीं आ पाती, क्योंकि हम मूर्च्छित होते हैं। मूर्च्छित हम क्यों हो जाते हैं मरते क्षण में?

एक जीवन की व्यवस्था है कि दुख एक सीमा तक झेला जा सकता है। जहां दुख असह्य हो जाता है, वहीं मूर्च्छा आ जाती है। इसलिए जब आप कभी—कभी कहते हैं कि मैं असह्य दुख में हूं तो आप गलत कहते हैं। क्योंकि असह्य दुख में आप होश में नहीं रह सकते, आप बेहोश हो जाएंगे। तभी तक होश रहता है, जब तक सहने योग्य हो।

इसलिए जब भी कोई पीड़ा बहुत हो जाएगी, आप बेहोश हो जाएंगे। कोई भी आघात गहरा होगा, आप बेहोश हो जाएंगे।

मूर्च्छा दुख का असह्य हो जाना है। और मृत्यु सब से बड़ा दुख है, हमारे लिए। हम डरते हैं मिटने से, इसलिए। मृत्यु के कारण नहीं है दुख, मिटने से डरते हैं इसलिए; कि मैं मिट जाऊंगा, मैं मिटा! इससे जो भय, पीड़ा और संताप पैदा होता है, उसके धुएं में चित्त बेहोश हो जाता है।

लेकिन जिन लोगों ने जीवन में ही समर्पण की कला साधी हो, मृत्यु उन्हें बेहोश नहीं कर पाएगी। क्योंकि मिटने के लिए वे पहले से ही तैयार हैं। वे तलाश कर रहे हैं। वे मिटने का ही विज्ञान खोज रहे हैं। जिन्होंने योग साधा हो, तंत्र साधा हो, जिन्होंने ध्यान के कोई प्रयोग किए हों, प्रार्थना की हो कभी, उनकी तलाश एक ही है कि मैं कैसे मिट जाऊं, क्योंकि मेरा होना पीड़ा है। मृत्यु के क्षण में ऐसे लोग सहर्ष मृत्यु के लिए राजी होंगे।

संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा!

अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है?

चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है।

उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाडी सभी को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब ठीक है, कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो।

चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या लेना—देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है, किसी को मिटाती—करती नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है।

लेकिन नया द्वार उनके लिए खोलती है, जो होशपूर्वक मरते हैं। जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है।

शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि यह चेतन से उतरते—उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास।

इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है, वैराग्य और अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, रोज—रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके।

मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में रहती थीं। वे तो कभी—कभी आते थे। जगह—जगह उनकी बदलिया होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं।

जब भी मित्र आते, तो पत्नी थोड़ी परेशान हो जाती। क्योंकि और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में धुर्राते बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद हराम हो जाती थी।

उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद मुश्किल हो जाती है। या मैं यह कहूं कि मैं दूसरे कमरे में सोऊ, तो भी अशोभन मालूम पड़ता है, इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। और रात में तो सो ही नहीं पाती।

मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो।

तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी, सैनिक हैं। और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी।

तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि अदभुत मंत्र है!

छोटा—सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। मिलिट्री के आदमी। जिदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न, उन्होंने नींद में अपनी करवट बदल ली।

मौत के क्षण में तो आप तभी होश रख पाएंगे, जब जिंदगीभर अभ्यास किया हो। और वह इतना गहरा हो गया हो कि मौत भी सामने खड़ी हो, तो भी चित्त बेहोश न हो। अचेतन तक, अनकांशस तक पहुंच जाना जरूरी है।

इसलिए समर्पण का जितना से जितना प्रयोग हो सके, जितना ज्यादा प्रयोग हो सके, जिन—जिन स्थितियों में आप अपने को खो सकें, खोए। अपने को सम्हाले मत। क्योंकि वह खोना इकट्ठा होता जाएगा। रत्ती—रत्ती इकट्ठा होते—होते उसका पहाड़ बन जाएगा। और जब मौत आएगी, तो आप होशपूर्वक जा सकेंगे।

और जो व्यक्ति होशपूर्वक मर गया, उसका दूसरा जन्म होशपूर्वक होता है। क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही द्वार के दो हिस्से है इस तरफ से जब हम प्रवेश करते है, तो मृत्यु; और जब उसी दरवाजे से उस तरफ निकलते है, तो जन्म। जैसे एक ही दरवाजे पर लिखा होता है, भीतर। तो बाहर से जब हम प्रवेश करते हैं, तो भीतर, वह बाहर जब हम खड़े थे दरवाजे के। लेकिन जैसे ही दरवाजे के भीतर गए, दूसरा जगत शुरू हो गया।

मृत्यु, इस शरीर से बाहर; और जन्म, दूसरे शरीर में भीतर। लेकिन प्रक्रिया एक ही है। अगर आप होशपूर्वक मर सकते हैं, तो आपका जन्म होशपूर्वक होगा। और तब आपको पिछले जन्म की याद रहेगी। और तब पिछले जन्म के अनुभव व्यर्थ नहीं जाएंगे। उनका निचोड़ आपके हाथ में होगा। और तब आपने जो भूलें पिछले जन्म में कीं, वे आप इस जन्म में न कर सकेंगे। अन्यथा हर बार वही भूल है। और यह चक्र दुष्टचक्र  है। हर बार भूल जाते हैं; फिर वही भूल करते हैं।

ऐसा आप बहुत बार कर चुके हैं। यही काम जो आप आज कर रहे हैं, इसको आप अनंत बार कर चुके हैं। यही शादी, यही बच्चे, यही धन, यही पद—प्रतिष्ठा, यही लड़ाई—झगड़ा, कलह, अदालत, दुकान; यह आप बहुत बार कर चुके हैं।

काश, आपको एक दफे भी याद आ जाए कि यह आप बहुत बार कर चुके हैं, तो इसमें जो आज आप इतना रस ले रहे हैं, वह एकदम खो जाएगा। यह पागलपन मालूम पड़ेगा। आप एकदम ठहर जाएंगे।

मृत्यु में जो होशपूर्वक मरे, वह जन्म में भी होशपूर्वक पैदा होता है। और जो मृत्यु और जन्म में होशपूर्वक रह जाए, वह जीवन में होशपूर्वक रहता है। क्योंकि मृत्यु और जन्म छोर हैं; बीच में जीवन है। और हम तीनों में बेहोश हैं।

इसलिए हम कितना ही सुनें कि शरीर नहीं है, आत्मा है, यह बात बैठती नहीं है। कितना ही कोई कहे कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, मान भी लें, तो भी यह बात भीतर उतरती नहीं। क्योंकि हमारा अनुभव नहीं है। लगता तो ऐसे ही है कि शरीर ही होंगे। यह आत्मा हवा मालूम पड़ती है, हवाई बात मालूम पड़ती है।

कृष्ण कहते हैं, परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं। क्योंकि मूर्च्छा सतत है। केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व को जानते हैं।

कौन—सा है ज्ञान—नेत्र जो ज्ञानियों को मिल जाता है? उसको ही मैं अमूर्च्छा कह रहा हूं। होशपूर्वक घटनाओं को घटने देना, मृत्यु को, जन्म को, जीवन को। ये तीन घटनाएं हैं। अगर ये तीनों होशपूर्वक घट जाएं, तो आपके पास ज्ञान—नेत्र उपलब्ध हो गया। जहां आप हैं, वहीं से शुरू करना पड़ेगा। जन्म तो पीछे छूट गया। मौत आगे आ रही है। वह अभी दूर है। जीवन अभी है। जीवन के साथ शुरू करना जरूरी है कि हम जीएं, तो ज्ञानपूर्वक जीएं। जो भी करें, होशपूर्वक करें। बार—बार होश छूट जाएगा, फिर उसे पकड़े।

रास्ते पर चलें, तो होश से। भोजन करें, तो होश से। किसी से बात करें, तो होश से। एक बात सतत बनी रहे कि मेरे द्वारा मूर्च्छा में कुछ न हो। कोई गाली दे, तो पहले होश को सम्हाले, फिर उत्तर दें।

आप चकित हो जाएंगे, होश सम्हल जाए तो उत्तर निकलेगा नहीं। और होश न सम्हला हो, तो जो आप नहीं करना चाहते, वह भी हो जाता है, वह भी निकल जाता है।

जीवन है हाथ में अभी, और अभी ही कुछ किया जा सकता है। वाणी, विचार, आचरण, सब पहलुओं पर होश की साधना। जो भी मैं कहूं जो भी मैं सोचूं जो भी मैं करूं, वह होशपूर्वक हो, इतना भर काफी है। तो धीरे—धीरे आप पाएंगे कि बेहोशी टूटने लगी। और बेहोशी के टूटने के साथ ही दुख टूटने शुरू हो जाते हैं। बेहोशी के कारण ही दुखों को हम निमंत्रण देते हैं। और बेहोशी के कारण ही हम वे क्षण चूक जाते हैं जिनसे आनंद उपलब्ध हो सकता था।

हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, कुछ खयाल आ रहा है। कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है। कुछ सोचा था, कुछ परिणाम आते हैं। कभी भी वही नहीं हो पाता, तो हम चाहते हैं। वह होगा भी नहीं, क्योंकि वह केवल तभी हो सकता है, जब होश पूरा हो।

जिसका होश पूरा है, उसके जीवन में वही होता है, जो होना चाहिए। उससे अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। जिसका जीवन मूर्च्छा में चल रहा है, वह शराबी की तरह है। जाना चाहता था घर, पहुंच गया कहीं और। क्योंकि पैर का उसे कोई पता नहीं कि कहा जा रहे हैं। वह शराबी की तरह है। करना चाहता था कुछ और, हो गया कुछ और।

मैं पढता था एक शराबी के संस्मरणों को। वह एक रात ज्यादा पीकर लौटा। पत्नी से बचने के लिए कि पत्नी को पता न चले..। और ज्यादा पी गया, तो रास्ते पर कई जगह गिरा था। तो चेहरे पर कई जगह खरोंच और चोट लग गई। तो वह बाथरूम में गया और उसने मलहम की पट्टियां अपने चेहरे पर लगाई। जाकर चुपचाप बिस्तर में सो गया। और बड़ा प्रसन्न हुआ कि पत्नी को पता भी नहीं चला; शोरगुल भी नहीं हुआ; खरोंच वगैरह भी सुबह तक काफी ठीक हो जाएगी; पता भी नहीं चलेगा। बात निपट गई।

लेकिन सुबह ही उसकी पत्नी चिल्लाती बाथरूम से बाहर आई कि तुमने बाथरूम का दर्पण क्यों खराब किया है? पति ने पूछा, कैसा दर्पण!

क्योंकि वह रात बेहोशी में जो मलहम—पट्टी चेहरे पर लगानी थी, दर्पण पर लगा आया था। होश न हो, तो यही होगा। करेंगे कुछ, हो जाएगा कुछ। और शराबी को होना बिलकुल आसान है। क्योंकि चेहरा दिखाई दर्पण में पड़ रहा था, वहीं उसने पट्टिया लगा दीं।

कृष्ण कह रहे हैं कि केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं।

केवल वे ही, जो होश से जगे हुए हैं और प्रतिपल जिनका ज्ञान जाग्रत है, वे ही जन्म में, मृत्यु में, जीवन में, भीतर के तत्व को पूरी तरह पहचानते हैं।

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्व से जानते हैं। और जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं।

यत्न ही काफी नहीं है। यत्न जरूरी है, पर्याप्त नहीं है। प्रयास तो करना होगा सघन, लेकिन अकेला प्रयास काफी नहीं है, हृदय की शुद्धि भी चाहिए।

यहां थोड़ा—सा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है कि लोग सिर्फ प्रयास ही करते रहते हैं, बिना इस बात की फिक्र किए कि भाव शुद्ध नहीं है, हृदय शुद्ध नहीं है। तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं। कोई आदमी हृदय को शुद्ध न करे और एकाग्रता को साधे, कनसनट्रेशन को साधे। साध सकता है।

बुरे से बुरा आदमी भी एकाग्रता साध सकता है। एकाग्रता से बुराई का कोई लेना—देना नहीं है, बल्कि बुरा आदमी शायद एकाग्रता ज्यादा आसानी से साध सकता है। क्योंकि बुरे आदमी का एक लक्षण होता है कि वह जिस काम में भी लग जाए, पागल की तरह लगता है। और बुरा आदमी जिद्दी होता है, क्योंकि बुराई बिना जिद्द के नहीं की जा सकती। तो बुरे आदमी के लिए हठयोग बिलकुल आसान है। उसको पकड़ भर जाए उसके खयाल में भर आ जाए। और बुरा आदमी दुष्टता कर सकता है, दूसरों के साथ भी, अपने साथ भी। दुष्टता करने में उसे अड़चन नहीं है।

अगर आप हठयोग साधेंगे, तो ऐसा लगेगा कि क्यों सताओ इस शरीर को! क्यों इतना आसन लगाकर बैठो! पैर दुखने लगते हैं; आंख से आंसू झरने लगते हैं। दुष्ट आदमी इनकी फिक्र नहीं करता। वह दूसरे को भी सता सकता है, उतनी ही मात्रा में खुद को भी सता सकता है।



इसलिए आप हैरान होंगे जानकर कि आपके तथाकथित योगियों में, महात्माओं में आधे से ज्यादा तो दुष्टजन हैं। पर उनकी दुष्टता दूसरों की तरफ नहीं है। इतनी भी उनकी बड़ी कृपा है। अपनी ही तरफ किए हुए हैं। इससे समाज को उनसे कोई हानि नहीं है। अगर हानि है, तो उनको खुद को है।

अगर एक दुष्ट हत्यारा एकाग्रता साधे, तो साध सकता है। लेकिन उसकी एकाग्रता से खतरा होगा। क्योंकि एकाग्रता से शक्ति आएगी, और हृदय शुद्ध नहीं है। उस शक्ति का दुरुपयोग होगा। आपने दुर्वासा ऋषि की कहानियां पढ़ी हैं। बस, वह इस तरह का आदमी दुर्वासा हो जाएगा। उसके पास शक्ति होगी; क्योंकि अगर वह कुछ भी कह दे, तो उसका परिणाम होगा।

अगर कोई व्यक्ति बहुत एकाग्रता साधा हो, तो उसके वचन में एक शक्ति आ जाती है, जो सामान्यत: दूसरों के वचन में नहीं होती। उसका वचन आपके हृदय के अंतस्तल तक प्रवेश कर जाता है। वह जो भी कहेगा, उसके पीछे बल होगा। हमारी जो कथाएं हैं, वे झूठी नहीं हैं, उन कथाओं में सच है।

अगर एकाग्रता साधने वाला आदमी कह दे कि तुम कल मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है। इसलिए नहीं कि उसके कहने में कोई जादू है, बल्कि उसके कहने में इतना बल है कि वह बात आपके हृदय में गहरे तक प्रवेश कर जाएगी। उसका तीर गहरा है, एकाग्र है, और उसने वर्षों तक अपने को साधा है। वह एक विचार पर अपनी पूरी शक्ति को इकट्ठा कर लेता है। तो उसका विचार आपके लिए सजेशन बन जाएगा।

वह कह देगा, कल मर जाओगे! तो उसकी आंखें, उसका व्यक्तित्व, उसका ढंग, उसकी एकाग्रता, उसकी अखंडता, उस विचार को तीर की तरह आपके हृदय में चुभा देगी। अब आप लाख कोशिश करो, उस विचार से छुटकारा मुश्किल है। वह आपका पीछा करेगा। कल आने तक, वह कल आने के पहले ही आपको आधा मार डालेगा। कल आप मर जाएंगे।

अभिशाप इसलिए लागू नहीं होता कि परमात्मा अभिशाप पूरा करने को बैठा है, कि दुर्वासाओं का रास्ता देख रहा है कि अभिशाप दें, और परमात्मा पूरा करे। लेकिन दुर्वासा ने एकाग्रता साधी है वर्षों तक; पर हृदय शुद्ध नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, सिर्फ यत्न काफी नहीं है। अगर अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, तो यत्न करते हुए भी अज्ञानीजन आत्मा को नहीं जानते हैं।

इसलिए दो बातें हैं। प्रयत्न चाहिए और साथ—साथ हृदय की शुद्धि चाहिए।

तो बुद्ध और महावीर जैसे साधकों ने तो हृदय की शुद्धि को पहले रखा है, ताकि भूल—चूक जरा भी न हो पाए। आहार शुद्धि, शरीर शुद्धि, आचरण शुद्धि, सब तरह से शुद्ध हो जाए व्यक्ति, फिर वे कहते हैं, यत्न करो। नहीं तो खतरा है।

हृदय की शुद्धि का अर्थ है, भावों की निर्मलता। बच्चे जैसा हृदय हो जाए। कठोरता छूटे, क्रोध छूटे, अहंकार छूटे, ईर्ष्या—द्वेष छूटे, घृणा—वैमनस्य छूटे और हृदय शुद्ध हो; और साथ में योग का यत्न हो। यत्न और शुद्ध भाव।

इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ योगी होना काफी नहीं है, भक्त होना भी जरूरी है। सिर्फ योगी खतरनाक है, सिर्फ भक्त कमजोर है।

भक्त निर्बल है। वह सिर्फ दीनता—हीनता की प्रार्थना कर सकता है कि तुम पतित—पावन हो और मैं पापी हूं मुझे मुक्त करो। यह सब कह सकता है। लेकिन निर्बल है। उसके पास कोई शक्ति नहीं है। योगी के पास बड़ी शक्ति इकट्ठी हो सकती है, लेकिन उसके पास भाव नहीं है।

जहां भक्त और योगी का मिलन होता है, जहां भाव और यत्न दोनों संयुक्त हो जाते हैं, वहां आत्मा उपलब्ध होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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