मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13भाग 12

 अकस्‍मात विस्‍फोट की पूर्व—तैयारी


            यथा प्रकाशयत्‍येक: कृत्‍स्‍नं लोकमिमं रवि:।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्‍स्‍नं प्रकाशयति भारत।। 33।।

स्थ्यैज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचमुवा।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्‍तरं च ये विदुर्यान्‍ति ते परम्।। 34।।


हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्‍मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्‍त प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरूष ज्ञान—नेत्रों के द्वारा तत्‍व से जानते है, वे महात्‍माजन परम ब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्त होते हैं।


हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान—नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

रवींद्रनाथ ने लिखा है कि एक सुबह रास्ते से निकलते वक्त, वर्षा के दिन थे और रास्ते के किनारे जगह—जगह डबरे हो गए थे और पानी भर गया था। कुछ डबरे गंदे थे। कुछ डबरों में जानवर स्नान कर रहे थे। कुछ डबरे शुद्ध थे। कुछ बिलकुल स्वच्छ थे। किन्हीं के पोखर का पानी बड़ा स्वच्छ—साफ था। किन्हीं का बिलकुल गंदा था। और सुबह का सूरज निकला। रवींद्रनाथ ने कहा कि मैं घूमने निकला था। मुझे एक बात बड़ी हैरान कर गई और अकस्मात वह बात मेरे हृदय के गहरे से गहरे अंतस्तल को स्पर्श करने लगी।
देखा मैंने कि सूरज एक है; गंदे डबरे में भी उसी का प्रतिबिंब बन रहा है, स्वच्छ पानी में भी उसी का प्रतिबिंब बन रहा है। और यह भी खयाल में आया कि गंदे डबरे में जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह गंदे पानी की वजह से प्रतिबिंब गंदा नहीं हो रहा है। प्रतिबिंब तो वैसा का वैसा निष्कलुष! सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा है, वह तो वैसा का वैसा निर्दोष और पवित्र! और शुद्ध जल में भी उसका प्रतिबिंब बन रहा है। वे प्रतिबिंब दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। गंदगी जल में हो सकती है, डबरे में हो सकती है, लेकिन प्रतिबिंब की शुद्धि में कोई अंतर नहीं पड़ रहा है। और फिर एक ही सूर्य न मालूम कितने डबरों में, करोड़ों—करोड़ों डबरों में पृथ्वी पर प्रतिबिंबित हो रहा होगा।

कृष्ण कहते हैं, जैसे एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा, एक ही चैतन्य समस्त जीवन को आच्छादित किए हुए है।

वह जो आपके भीतर चैतन्य की ज्योति है, और वह जो मेरे भीतर चैतन्य की ज्योति है, और वह जो वृक्ष के भीतर चैतन्य की ज्योति है, वह एक ही प्रकाश के टुकड़े हैं, एक ही प्रकाश की किरणें हैं।
प्रकाश एक है, उसका स्वाद एक है। उसका स्वभाव एक है। दीए अलग— अलग हैं। कोई मिट्टी का दीया है, कोई सोने का दीया है। लेकिन सोने के दीए में जो प्रकाश होता है, वह कुछ कीमती नहीं हो जाता। और मिट्टी के दीए में जो प्रकाश होता है, वह कोई कम कीमती नहीं हो जाता। और मिट्टी के दीए की ज्योति को अगर आप जांचें और सोने के दीए की ज्योति को जांचें, तो उन दोनों का स्वभाव एक है।


चैतन्य एक है। उसका स्वभाव एक है। वह स्वभाव है, साक्षी होना। वह स्वभाव है, जानना। वह स्वभाव है, दर्शन की क्षमता। प्रकाश का क्या स्वभाव है? अंधेरे को तोड़ देना। जहां कुछ न दिखाई पड़ता हो, वहां सब कुछ दिखाई पड़ने लगे। चैतन्य का स्वभाव है, देखने की, जागने की क्षमता, दर्शन की, ज्ञान की क्षमता। वह भी भीतरी प्रकाश है। उस प्रकाश में सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है।
खतरा एक ही है कि जब भीतर का दीया हमारा जलता है और हमें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं, तो हम चीजों को स्मरण रख लेते हैं और जिसमें दिखाई पड़ती हैं, उसे भूल जाते हैं। यही विस्मरण संसार है। जो दिखाई पड़ता है, उसे पकड़ने दौड़ पड़ते हैं। और जिसमें दिखाई पड़ता है, उसका विस्मरण हो जाता है।

जिस चैतन्य के कारण हमें सारा संसार दिखाई पड़ रहा है, उस चैतन्य को हम भूल जाते हैं। और वह जो दिखाई पड़ता है, उसके पीछे चल पड़ते हैं। इसी यात्रा में हम जन्मों—जन्मों भटके हैं।
कृष्ण कहते हैं सूत्र इससे जागने का। वह सूत्र है कि हम उसका स्मरण करें, जिसको दिखाई पड़ता है। जो दिखाई पड़ता है, उसे भूलें। जिसको दिखाई पड़ता है, उसको स्मरण करें। विषय भूल जाए, और वह जो भीतर बैठा हुआ द्रष्टा है, वह स्मरण में आ जाए। यह स्मृति ही क्षेत्रज्ञ में स्थापित कर देती है। यह स्मृति ही क्षेत्र से तोड़ देती है।

यह सारा विचार क्या का इन दो शब्दों के बीच चल रहा है, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। वह जो जानने वाला है वह, और वह जो जाना जाता है। जाना जो जाता है, वह संसार है। और जो जानता है, वह परमात्मा है।

यह परमात्मा अलग—अलग नहीं है। यह हम सबके भीतर एक है। लेकिन हमें अलग—अलग दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम भीतर तो कभी झांककर देखे नहीं। हमने तो केवल शरीर की सीमा देखी है।
मेरा शरीर अलग है। आपका शरीर अलग है। स्वभावत:, वृक्ष का शरीर अलग है। तारों का शरीर अलग है। पत्थर का शरीर अलग है। तो शरीर हमें दिखाई पड़ते हैं, इसलिए खयाल होता है कि जो भीतर छिपा है, वह भी अलग है।

एक बार हम अपने भीतर देख लें और हमें पता चल जाए कि शरीर में जो छिपा है, शरीर से जो घिरा है, वह अशरीरी है। पदार्थ जिसकी सीमा बनाता है, वह पदार्थ नहीं है। सब सीमाएं टूट गईं। फिर सब शरीर खो गए। फिर सब आकृतियां विलुप्त हो गईं और निराकार का स्मरण होने लगा। इस सूत्र में उसी निराकार का स्मरण है।। हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान —नेत्रों द्वारा तत्‍व से जानते है, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते है।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को......।

बहुत बारीक भेद है और जरा में भूल जाता है। क्‍योंकि जिसे हम देख रहे हैं, उसे देखना आसान है। और जो देख रहा है, उसे देखना मुश्किल है। अपने को ही देखना मुश्किल है। इसलिए बार — बार दृष्टि पदार्थों पर अटक जाती है। बार—बार कोई विषय, कोई वासना, कुछ पाने की आकांक्षा पकड़ लेती है। चारों तरफ बहुत। कुछ है।

गुरजिएफ कहा करता था कि जो व्यक्ति सेल्फ रिमेंबरिग,। स्व—स्मृति को उपलब्ध हो जाता है, उसे फिर कुछ पाने को नहीं रह जाता। साक्रेटीज ने कहा है कि स्वयं को जान लेना सब कुछ है, सब कुछ जान लेना है।

मगर यह स्वयं को जानने की कला है। और वह कला है, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद। वह कला है, सदा जो दिखाई पड़ रहा है, उससे अपने को अलग कर लेना। इसका अर्थ गहरा है।

इसका अर्थ यह है कि आपको मकान दिखाई पड़ता है, तो अलग कर लेने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन आपको अपना शरीर भी दिखाई पड़ता है। यह हाथ मुझे दिखाई पड़ता है। तो जिस हाथ को मैं देख रहा हूं निश्चित ही उस हाथ से मैं अलग हो गया। और तब आंख बंद करके कोई देखे, तो अपने विचार भी दिखाई पड़ते हैं। अगर आंख बंद करके शांत होकर देखें, तो आपको दिखाई पड़ेगी विचारों की कतार ट्रैफिक की तरह चल रही है। एक विचार आया, दूसरा विचार आया, तीसरा विचार आया। भीड़ लगी है विचारों की। इनको भी अगर आप देख लेते हैं, तो इसका मतलब हुआ कि ये भी क्षेत्र हो गए।

जो भी देख लिया गया, वह मुझसे अलग हो गया—यह सूत्र है साधना का। जो भी मैं देख लेता हूं वह मैं नहीं हूं। और मैं उसकी तलाश करता रहूंगा, जिसको मैं देख नहीं पाता और हूं। उसका मुझे पता उसी दिन चलेगा, जिस दिन देखने वाली कोई भी चीज मेरे सामने न रह जाए।

संसार से आंख बंद कर लेनी बहुत कठिन नहीं है। आंख बंद हो जाती है, संसार बंद हो जाता है। लेकिन संसार के प्रतिबिंब भीतर छूट गए हैं, वे चलते रहते हैं। फिर उनसे भी अपने को तोड़ लेना है। और तोड़ने की कला यही है कि मैं आंख गड़ाकर देखता रहूं, सिर्फ देखता रहूं, और इतना ही स्‍मरण रखूं कि जो भी मुझे दिखाई पड़ जाए, वह मैं नहीं हूं।

धीरे— धीरे— धीरे विचार भी खो जाएंगे। जैसे—जैसे यह धार तलवार की गहरी होती जाएगी, प्रखर होती जाएगी, और मेरी काटने की कला साफ होती जाएगी कि जो भी मुझे दिखाई पड़ जाए, वह मैं नहीं हूं एक घड़ी ऐसी आती है, जब कुछ भी दिखाई पड़ने को शेष नहीं रह जाता है। वही ध्यान की घड़ी है। उसको शून्य कहा जाता है, क्योंकि कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

लेकिन अगर शून्य दिखाई पड़ता है, तो वह भी मैं नहीं हूं यह खयाल रखना जरूरी है। क्योंकि ऐसे बहुत से ध्यानी भूल में पड़ गए हैं। क्योंकि जब कोई भी विषय नहीं बचता, तो वे कहते हैं, शून्य रह गया।

यह भी भूल है। यह आखिरी भूल है, लेकिन भूल है। क्योंकि शून्य बचा। लेकिन तब शून्य भी एक आब्जेक्ट बन गया। मैं शून्य को देख रहा हूं। निश्चित ही, मैं शून्य भी नहीं हो सकता।
जो भी मुझे दिखाई पड़ जाता है, वह मैं नहीं हूं। मैं तो वह हूं जिसको दिखाई पड़ता है। इसलिए पीछे —पीछे सरकते जाना है। एक घड़ी ऐसी आती है, जब शून्य से भी मै अपने को अलग कर लेता हूं।

जब शून्य दिखाई पड़ता है, तब ध्यान की अवस्था है। कुछ लोग ध्यान में ही रुक जाते हैं, तो शून्य को पकड़ लेते हैं। जब शून्य को भी कोई छोड़ देता है, शून्य को छोड़ते ही सारा आयाम बदल जाता है। फिर कुछ भी नहीं बचता। संसार तो खो गया, विचार खो गए, शून्य भी खो गया। फिर कुछ भी नहीं बचता। फिर सिर्फ जानने वाला ही बच रहता है।

शून्य तक ध्यान है। और जब शून्य भी खो जाता है, तो समाधि है। जब शून्य भी नहीं बचता, सिर्फ मैं ही बच रहता हूं सिर्फ जानने वाला!

ऐसा समझें कि दीया जलता है। सिर्फ प्रकाश रह जाता है। कोई प्रकाशित चीज नहीं रह जाती। किसी चीज पर प्रकाश नहीं पड़ता। सिर्फ प्रकाश रह जाता है। सिर्फ जानना रह जाता है और जानने को कोई भी चीज नहीं बचती, ऐसी अवस्था का नाम समाधि है। यह समाधि ही परम ब्रह्म का द्वार है।

तो कृष्ण कहते हैं, जो इस भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति से छूटने के उपाय को—यही उपाय है—ज्ञान—नेत्रों द्वारा तत्व जानते हैं.......।

लेकिन शब्द से तो जान सकते हैं आप। मैंने कहा, आपने सुना; और एक अर्थ में आपने जान भी लिया। पर यह जानना काम नहीं आएगा। यह तो केवल व्याख्या हुई। यह तो केवल विश्लेषण हुआ। यह तो केवल शब्दों के द्वारा प्रत्यय की पकड़ हुई। लेकिन ज्ञान—नेत्रों के द्वारा जो तत्व से जान लेता है, ऐसा आपका अनुभव बन जाए।

यह तो आप प्रयोग करेंगे, तो अनुभव बनेगा। यह तो आप अपने भीतर उतरते जाएंगे और काटते चले जाएंगे क्षेत्र को, ताकि क्षेत्रज्ञ उसकी शुद्धतम स्थिति में अनुभव में आ जाए। क्षेत्र से मिश्रित होने के कारण वह अनुभव में नहीं आता।

तो इलिमिनेट करना है, काटना है, क्षेत्र को छोड़ते जाना है, हटाते जाना है। और उस घड़ी को ले आना है भीतर, जहां कि मैं ही बचा अकेला; कोई भी न बचा। सिर्फ मेरे जानने की शुद्ध क्षमता रह गई, केवल ज्ञान रह गया। तो जिस दिन आप अपने ज्ञान—नेत्रों से..।

स्मृति को आप ज्ञान मत समझ लेना। समझ ली कोई बात, इसको आप अनुभव मत समझ लेना। बिलकुल अकेल में आ गई, तो भी आप यह मत समझ लेना कि आप में आ गई। बुद्धि में आ जाना तो बहुत आसान है। क्योंकि साधारणतया जो सोच—समझ सकता है, वह भी समझ लेगा कि बात ठीक है, कि जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं! मैं तो वही होऊंगा, जिसको दिखाई पडता है। यह तो बात सीधी गणित की है। यह तो तर्क की पकड़ में आ जाती है।

यह मेरा हाथ है, इससे मैं जो भी चीज पकड़ लूं एक बात पक्की है कि वह मेरा हाथ नहीं होगा। जो भी चीज इससे मैं पकडूंगा, वह कुछ और होगी। इसी हाथ को इसी हाथ से पकड़ने का कोई उपाय नहीं है।

आप एक चमीटे से चीजें पकड़ लेते हैं। दुनियाभर की चीजें पकड़ सकते हैं। सिर्फ उसी चमीटे को नहीं पकड़ सकते उसी चमीटे से। दूसरे से पकड़ सकते हैं। वह सवाल नहीं है। लेकिन उसी चमीटे से आप सब चीजें पकड़ लेते हैं। यह बड़ी मुश्किल की बात है।

यह दुनिया बड़ी अजीब है। जो चमीटा सभी चीजों को पकड़ लेता है, वह भी अपने को पकड़ने में असमर्थ है। तो आप चमीटे में कुछ भी पकड़े हों, एक बात पक्की है कि चमीटा नहीं होगा वह; वही चमीटा नहीं होगा; कुछ और होगा। जब सब पकड़ छूट जाए, तो शुद्ध चमीटा बचेगा।

जब मेरे हाथ में कुछ भी पकड़ में न रह जाए, तो मेरा शुद्ध हाथ बचेगा। जब मेरी चेतना के लिए कोई भी चीज जानने को शेष न रह जाए, तो सिर्फ चैतन्य बचेगा। लेकिन यह अनुभव से!
तर्क से समझ में आ जाता है। और एक बड़े से बड़ा खतरा है। जब समझ में आ जाता है, तो हम सोचते हैं, बात हो गई।

इधर मैं देखता हूं पचास साल से गीता पढने वाले लोग हैं। रोज पढ़ते हैं। भाव से पढ़ते हैं, निष्ठा से पढ़ते हैं। उनकी निष्ठा में कोई कमी नहीं है। उनके भाव में कोई कमी नहीं है। प्रामाणिक है उनका श्रम। और गीता वे बिलकुल समझ गए हैं। वही खतरा हो गया है। किया उन्होंने बिलकुल नहीं है कुछ भी।

सिर्फ गीता को समझते रहे हैं, बिलकुल समझ गए हैं। उनके खून में बह गई है गीता। वे मर भी गए हों और उनको उठा लो, तो वे गीता बोल सकते हैं, इतनी गहरी उनकी हड्डी—मांस—मज्जा में उतर गई है। लेकिन उन्होंने किया कुछ भी नहीं है, बस उसको पढ़ते रहे हैं, समझते रहे हैं। बुद्धि भर गई है, लेकिन हृदय खाली रह गया है। और अस्तित्व से कोई संपर्क नहीं हो पाया है।

तो कई बार बहुत प्रामाणिक भाव, श्रद्धा, निष्ठा से भरे लोग भी चूक जाते हैं। चूकने का कारण यह होता है कि वे स्मृति को ज्ञान समझ लेते हैं।

अनुभव की चिंता रखना सदा। और जिस चीज का अनुभव न हुआ हो, खयाल में रखे रखना कि अभी मुझे अनुभव नहीं हुआ है। इसको भूल मत जाना।

मन की बड़ी इच्छा होती है इसे भूल जाने की, क्योंकि मन मानना चाहता है कि हो गया अनुभव। अहंकार को बड़ी तृप्ति होती है कि मुझे भी हो गया अनुभव।

अनुभव को निरंतर स्मरण रखना जरूरी है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिनको अपने ही ज्ञान—नेत्रों से तत्व का अनुभव होता है, वे महात्माजन...। और यहां वे तत्क्षण उनके लिए महात्मा का उपयोग करते हैं।

अनुभव आपको महात्मा बना देता है। उसके पहले आप पंडित हो सकते हैं। पंडित उतना ही अज्ञानी है, जितना कोई और अज्ञानी। फर्क थोडा—सा है कि अज्ञानी शुद्ध अज्ञानी है, और पंडित इस भ्रांति में है कि वह अज्ञानी नहीं है। इतना ही फर्क है कि पंडित के पास शब्दों का जाल है, और अज्ञानी के पास शब्दों का जाल नहीं है। पंडित को भ्रांति है कि वह जानता है, और अज्ञानी को भ्रांति नहीं है ऐसी।

अगर ऐसा समझें, तब तो अज्ञानी बेहतर हालत में है। क्योंकि उसका जानना कम से कम सचाई के करीब है। पंडित खतरे में है। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। वे इन्हीं ज्ञानियों के लिए कहते हैं।

यह तो बडा उलटा सूत्र मालूम पड़ता है! उपनिषद के इस सूत्र को समझने में बडी जटिलता हुई। क्योंकि सूत्र कहता है, अज्ञानी तो भटकते हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। तो फिर तो बचने का कोई उपाय ही न रहा। अज्ञानी भी भटकेंगे और ज्ञानी और बुरी तरह भटकेंगे, तो फिर बचेगा कौन?

बचेगा अनुभवी। अनुभवी बिलकुल तीसरी बात है। अज्ञानी वह है, जिसे शब्दों का, शास्त्रों का कोई पता नहीं। और ज्ञानी वह है, जिसे शब्दों और शास्त्रों का पता है। और अनुभवी वह है, जिसे शास्त्रों और शब्दों का नहीं, जिसे सत्य का ही स्वयं पता है, जहां  से शास्त्र और शब्द पैदा होते हैं।

शास्त्र तो प्रतिध्वनि है, किसी को अनुभव हुए सत्य की। वह प्रतिध्वनि है। और जब तक आपको ही अपना अनुभव न हो जाए, सभी शास्त्र झूठे रहेंगे। आप गवाह जब तक न बन जाएं, जब तक आप न कह सकें कि ठीक, गीता वही कहती है जो मैंने भी जान लिया है, तब तक गीता आपके लिए असत्य रहेगी।

आपके हिंदू होने से गीता सत्य नहीं होती। और आपके गीता—प्रेमी होने से गीता सत्य नहीं होती। जब तक आपका अनुभव गवाही न दे दे कि ठीक, जो कृष्ण कहते हैं क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भेद, वह मैंने जान लिया है; और मैं गवाही देता हूं अपने अनुभव से; तब आपके लिए गीता सत्य होती है।

शास्त्रों से सत्य नहीं मिलता, लेकिन आप शास्त्रों के गवाही बन सकते हैं। और तब शास्त्र, जो आप नहीं कह सकते, जो आपको बताना कठिन होगा, उसको बताने के माध्यम हो जाते हैं। शास्त्र केवल गवाहियां हैं जानने वालों की। और आपकी गवाही भी जब उनसे मेल खा जाती है, तभी शास्त्र से संबंध हुआ।

गीता को रट डालो, कंठस्थ कर लो। कोई संबंध न होगा। लेकिन जो गीता कहती है, वही जान लो, संबंध हो गया।

जब तक आप गीता को पढ़ रहे हैं, तब तक ज्यादा से ज्यादा आपका संबंध अर्जुन से हो सकता है। लेकिन जिस दिन आप गीता को अनुभव कर लेते हैं, उसी दिन आपका संबंध कृष्ण से हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 

हरिओम सिगंल

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