मंगलवार, 10 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 13 भाग 8

 गीता में समस्‍त मार्ग है


  पुरूष प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजानुाणान्।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्यसु।। 21।।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता म्हेश्वर:।

परमात्‍मेति चाप्‍युक्‍तो देहेउस्‍मिन्‍पुरूष: यर:।। 22।।

य एवं वेत्ति पुरूष प्रकृति च गुणै सह।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।। 23।।


परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरूष प्रकृति मे उत्पन्न हुए त्रिगुणत्मक सब पदाथों की भोगता है। और इन गुणों का संग ही इसके अच्छी— बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है। वास्तव में तो यह पुरूष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है,

केवल साक्षी होने से उपदृष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने मे अनुमंता एवं सबको धारण करने वाला होने से भर्ता जीवरूप से भोक्‍ता तथा बह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्‍चिदानंदघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित कृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नही जन्‍मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है।

परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इसके अच्छी—बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है। वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है, केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमंता एवं सबको धारण करने वाला होने से भर्ता  जीव रूप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

परंतु प्रकृति में स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए सब पदार्थों को भोगता है।

वह जो भीतर चैतन्य है, वह जो पुरुष है, उसके बाहर चारों तरफ जो प्रकृति का त्रिगुण विस्तार है, यह पुरुष ही सभी स्थितियों में प्रकृति से संबंधित होता है। प्रकृति किसी भी स्थिति में पुरुष से संबंधित नहीं होती। पहली तो बात यह खयाल में ले लें।

आप अपने मकान में हैं। आप कहते हैं, मेरा मकान। मकान कभी नहीं कहता कि आप मेरे हैं। और आप कल चले जाएंगे, तो मकान रोएगा नहीं। मकान गिर जाएगा, तो आप रोएंगे। बहुत मजे की बात है। मकान धेला भर भी आपकी चिंता नहीं करता, आप बड़ी चिंता करते हैं।

आपकी कार बिगड़ जाए, तो आंसू निकल आते हैं। जिस जमीन पर आप खून—खराबा कर सकते हैं, जान दे सकते हैं, वह जमीन आपकी रत्तीभर भी चिंता नहीं करती। बहुत पहले आप जैसे पागल और भी उस पर जान दे चुके हैं। जिस जमीन को आप अपना कहते हैं, आप नहीं थे, तब भी वह थी। कोई और उसको अपना कह रहा था। न मालूम कितने लोग दावा कर चुके। और दावेदार समाप्त हो जाते हैं और जिस पर दावा किया जाता है, वह बना है।

प्रकृति आपसे कोई संबंध स्थापित नहीं करती। आप ही प्रकृति से संबंध स्थापित करते हैं। आप ही संबंध बनाते हैं, आप ही तोड़ते हैं। संबंध बनाकर आप ही सुख पाते हैं, आप ही दुख पाते हैं। यह निपट आप पर ही निर्भर है। कुछ भी प्रकृति की उत्सुकता नहीं है कि आपको दुख दे कि सुख दे। आप अपना सुख—दुख अपने हाथ से निर्मित करते हैं।

और इसलिए एक मजे कीं घटना घटती है। जिस चीज से आपको सुख मिलता है, आपकी दृष्टि बदल जाए उसी से दुख मिलने लगता है। चीज वही है। जिस चीज से आपको दुख मिलता है, दृष्टि बदल जाए, उसी से सुख मिलने लगता है। चीज वही है। पर आपकी दृष्टि बदली कि सारा अर्थ बदल जाता है। आपका खयाल बदला कि सारा संसार बदल जाता है।

आप वस्तुओं के संसार में नहीं रहते, आप भावों और विचारों के संसार में रहते हैं। वस्तुएं तो बहुत दूर हैं, उनसे आपका कोई संबंध नहीं है। आप अपने भावों को फैलाकर सेतु बनाते हैं, वस्तुओं से संबंधित हो जाते हैं। किसी को पत्नी कहते हैं, किसी को पति कहते हैं, किसी को मित्र कहते हैं। वे सब संबंध हैं, जो आपने निर्मित कर लिए हैं। वैसे संबंध कहीं है नहीं; सिर्फ भावों में है।

कृष्ण कह रहे हैं कि यह जो प्रकृति है चारों तरफ, उससे उत्पन्न हुए ये जो सारे पदार्थ— हैं, इनको आप भोगते हैं अपने ही भाव से। और इन भावों के कारण ही अच्छी—बुरी योनियों में जन्म लेते हैं। आप जैसा भाव करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। भाव जन्मदाता है। आप जैसा भाव करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। आप जो मांगते हैं, बड़े दुख की बात यही है कि वही मिल जाता है। जो कुछ भी आप हैं, वह आपकी ही वासनाओं का परिणाम है।

थोड़ा खयाल करें, कितनी वासनाएं आप करते हैं! और जिन वासनाओं को आप करते हैं, धीरे— धीरे— धीरे उन वासनाओं को पूरा करने के योग्य आप हो जाते हैं। वैज्ञानिक भी कहते हैं, डार्विन ने प्रस्तावित किया है कि मनुष्य के पास जो—जो इंद्रियां हैं, वे इंद्रियां भी मनुष्य की वासनाओं से ही जन्मी हैं।

आपके पास आंख है, इसलिए आप देखते हैं, यह बात ठीक नहीं है। आप देखना चाहते थे, इसलिए आंख पैदा हुई। जिराफ है, उसकी लंबी गर्दन है। तो डार्विन कहता है कि जिराफ की इतनी लंबी गर्दन क्यों है? ऊंट की इतनी लंबी गर्दन क्यों है?

हम तो ऊपर से यही देखते हैं कि ऊंट की इतनी लंबी गर्दन है, इसलिए झाडू पर कितने ही ऊंचे पत्ते हों, उनको तोड़कर खा लेता है। लेकिन विकासवादी कहते हैं कि झाडू के ऊंचे पत्ते पाने के लिए ही जो वासना है उसकी, वही उसकी गर्दन को लंबा कर देती है; नहीं तो उसकी गर्दन लंबी नहीं हो जाएगी। और जंगल में बड़ा संघर्ष है। क्योंकि नीचे के पत्ते तो कोई भी जानवर खा जाते। जिसकी गर्दन जितनी ऊंची होगी, वह उतनी देर तक सरवाइव कर सकता है; उसका बचाव उतनी देर तक हो सकता है।

तो डार्विन और उनके अनुयायी कहते हैं कि यह ऊंट है, जिराफ है, यह सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट, वह जो बचाव करने में सक्षम है अपने को, वह वही इंद्रिया पैदा कर लेता है, जिनकी उसकी वासना है। लंबी गर्दन के कारण ऊंट बड़े वृक्षों के पत्ते नहीं खाता है, बड़े वृक्षों के पत्ते खाना चाहता है, इसलिए उसके पास लंबी गर्दन है। आप जो देखते हैं, वह आंख के कारण नहीं देखते हैं; देखने की वासना है भीतर, इसलिए आंख है। और इसकी बड़ी अदभुत कभी—कभी घटनाएं घटी हैं।

 कुछ पशु हैं, जो पूरे शरीर से सुनते हैं। उनके पास कोई कान नहीं है। पूरा शरीर ही कान का काम करता है। आप रात को चमगादड़ देखते हैं। चमगादड़ कभी दिन में भी घर में घुस आता है। उसे दिन में दिखाई नहीं पडता। उसकी आंखें खुल नहीं सकतीं। लेकिन आपने कभी खयाल किया हो, न किया हो, ठीक चमगादड़ दीवाल के बिलकुल किनारे आकर चार—छ: अंगुल की दूरी से लौट जाता है, टकराता नहीं। टकराने को होता है और लौट जाता है। और आंख उसकी देखती नहीं।

तो वैज्ञानिक उस पर बहुत काम करते हैं। तो उसका पूरा शरीर दीवाल की मौजूदगी को छ: इंच की दूरी से अनुभव करता है। इसलिए वह करीब आ जाता है टकराने के, लेकिन टकराता नहीं। हां, आप उसको घबड़ा दें और परेशान कर दें, तो टकरा जाएगा। लेकिन अपने आप वह टकराता नहीं। बिलकुल पास आकर हट जाता है। राडार है उसके पास, जो छ: इंच की दूरी से उसको स्पर्श का बोध दे देता है। दिन में उसके पास आंख नहीं है, लेकिन बचाव की सुविधा तो जरूरी है। उसका पूरा शरीर अनुभव करने लगा है। उसका पूरा शरीर संवेदनशील हो गया है।

हमारे भीतर वह जो छिपा हुआ पुरुष है, वह जो भी चाहता है, उसके योग्य इंद्रिय पैदा हो जाती है। उसकी चाह की छाया है। यह जरा कठिन होगा। क्योंकि अक्सर हम कहते हैं कि इंद्रियों के कारण वासना है। गलत है बात। वासनाओं के कारण इंद्रियां हैं। इसीलिए तो ज्ञानी कहते हैं कि जब वासनाएं समाप्त हो जाएंगी, तो तुम जन्म न ले सकोगे। जन्म न ले सकने का मतलब यह है कि तुम फिर इंद्रियां और शरीर को ग्रहण न कर सकोगे। क्योंकि इंद्रियां और शरीर मूल नहीं हैं, मूल वासना है। तुम जिस घर में पैदा हुए हो, वह भी तुम्हारी वासना है। तुम जिस योनि में पैदा हुए हो, वह भी तुम्हारी वासना है।

इधर मैं एक बहुत अनूठे अनुभव पर आया। कुछ लोगों के पिछले जन्मों के संबंध में मैं काम करता रहा हूं, कि उनके पिछले जीवन की स्मृतियों में उन्हें उतारने का प्रयोग करता रहा हूं। एक चकित करने वाला अनुभव हुआ। वह अनुभव यह हुआ कि पुरुष तो अक्सर पिछले जन्मों में भी पुरुष होते हैं, लेकिन अक्सर स्त्रियां जन्म में बदलती हैं। जैसे अगर कोई पिछले जन्म में स्त्री थी, तो इस जन्म में पुरुष हो जाती है।

शायद स्त्रियों के मन में गहरी वासना पुरुष होने की होगी। स्त्रियों की परतंत्रता, शोषण के कारण स्त्रियों के मन में वासना होती है कि पुरुष होतीं तो अच्छा था। प्रगाढ़। और जीवनभर का अनुभव उनको कहता है कि पुरुष होतीं तो अच्छा था।

लेकिन पश्चिम में स्त्रियों की स्वतंत्रता बढ रही है। पचास—सौ वर्ष के बाद यह बात मिट जाएगी। स्त्रियां स्त्री योनि में जन्म ले सकेगी, वह वासना क्षीण हो जाएगी।

अक्सर ऐसा होता है कि जो ब्राह्मण घर में है, वह दूसरे जन्म में भी ब्राह्मण घर में है, उसके पीछे भी ब्राह्मण घर में है। क्योंकि ब्राह्मण घर का बेटा एक दफा ब्राह्मण घर का अहंकार और दर्प अनुभव किया हो, तो किसी और घर में पैदा नहीं होना चाहेगा। वह उसकी वासना नहीं है। लेकिन शूद्र अक्सर बदल लेंगे। एक जन्म में शूद्र है, तो दूसरे जन्म में वह दूसरे वर्ण में प्रवेश कर जाएगा। उसकी गहरी वासना उस शूद्र के वर्ण से हट जाने की है। वह भारी है, कष्टपूर्ण है, वह बोझ है, उसमें होना सुखद नहीं है।

तो हम जो वासना करते हैं, उस तरफ हम सरकने लगते हैं। हमारी वासना हमारे आगे— आगे चलती है और हमारे जीवन को पीछे—पीछे खींचती है।

कृष्ण कहते हैं, यह जो प्रकृति से फैला हुआ संसार हैं, हमारे भीतर छिपा हुआ पुरुष ही इसे भोगता है और गुणों का संग ही इसकी अच्छी—बुरी योनियों में जन्म लेने के कारण होते हैं। और फिर जिन चीजों से यह रस का संबंध बना लेता है, संग बना लेता है, जिनसे यह रस से जुड़ जाता है, उन्हीं योनियों में प्रवेश करने लगता है।

अगर कोई इस तरह की वासनाएं करता है कि कुत्ता होकर उनको ज्यादा अच्छी तरह से पूरी कर सकेगा, तो प्रकृति उसके लिए कुत्ते का शरीर दे देगी। प्रकृति सिर्फ खुला निमंत्रण है। कोई आग्रह नहीं है प्रकृति का। आप जो होना चाहते हैं, वे हो जाते हैं। आप अपने गर्भ को चुनते हैं, जाने या अनजाने। आप अपनी योनि भी चुनते हैं, जाने या अनजाने।

आप जो मांगते हैं, वह घटित हो जाता है। जैसे पानी नीचे बहता है और गड्डे में भर जाता है, ऐसे ही आप भी बहते हैं और अपनी योनि में भर जाते हैं। आपकी जो वासनाएं हैं, वे आपको ले जाती हैं एक विशेष दिशा की तरफ। अच्छी और बुरी योनियों में जन्म हमारी ही आकांक्षाओं का फल है।

लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हम भूल ही जाते हैं कि हमारी आकांक्षाए क्या हैं। हम भूल ही जाते हैं कि हमने क्या मांगा था। जब तक हमें उपलब्धि होती है, तब तक हम अपनी मांग ही भूल जाते हैं। अगर हम अपनी मांग याद रख सकें, तो हमें पता चल जाएगा कि फासला चाहे कितना ही हो मांग और प्राप्ति का, जो हमने मांगा था, वह हमें मिल गया है।

इधर मैं देखता हूं, लोग अपनी ही मांगों से दुखी हैं।

आप थोड़े अपने दुखों की छानबीन करना। जो आपने मांगा था, वह आपको मिल गया है।

कुछ लोग कहते हैं कि हमारा दुख इसलिए है कि हमने जो मांगा था, वह नहीं मिला। वे गलत कहते हैं। उनको ठीक पता नहीं है कि उन्होंने क्या मांगा था। असलियत में जो आप मांगते हैं, वह मिल जाता है। मांग पूरी हो जाती है। और तब आप दुख पाते हैं। दुख पाकर आप समझते हैं कि मेरी मांग पूरी नहीं हुई, इसलिए दुख पा रहा हूं। नहीं; आप थोड़ा समझना, खोजना। आप फौरन पा जाएंगे कि मेरी मांगें पूरी हो गईं, तो मैं दुख पा रहा हूं।

हमें पता नहीं है कि हम क्या मांगते हैं, हमारी क्या वासना है; क्या परिणाम होगा। हम कभी हिसाब भी नहीं रखते। अंधे की तरह चले जाते हैं। लेकिन समस्त धर्मों का सार है कि आप जिन वासनाओं से डूबते हैं, भरते हैं, उन योनियों में, उन व्यक्तित्व में, उन ढांचों में, उन जीवन में आपका प्रवेश हो जाता है।

वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर ही है...। अब इस पुरुष की बहुत—सी स्थितियां हैं। क्योंकि पुरुष तो शरीर से भिन्न है, लेकिन जब भिन्न समझता है, तभी भिन्न है। और चाहे तो समझ ले कि मैं शरीर हूं, तो भांति में पड़ जाएगा।

पुरुष शरीर में रहते हुए भी भिन्न है। यह उसका स्वभाव है। लेकिन इस स्वभाव में एक क्षमता है, तादात्म्य की। यह अगर समझ ले कि मैं शरीर हूं तो शरीर ही हो जाएगा। आप अगर समझ लें कि आपके हाथ की लकड़ी आप हैं, तो आप लकड़ी ही हो जाएंगे। आप जो भी मान लें, वह घटित हो जाता है। मानना सत्य बन जाता है। पुरुष की यह भीतरी क्षमता है। वह जो मान लेता है, वह सत्य हो जाता है।

वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ पर ही है। लेकिन साक्षी होने से उपद्रष्टा...।

फिर इसकी अलग—अलग स्थितियां हैं। अगर यह साक्षी होकर देखे अपने को भीतर, तो यह उपद्रष्टा या द्रष्टा हो जाता है।

यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमत हो जाता है..।

अगर इसकी आप सम्मति मांगें, तो यह आपके लिए अनुसंता हो जाएगा। लेकिन आप इससे कभी सम्मति भी नहीं मांगते। कभी आप शांत और मौन होकर अपने भीतर के पुरुष का सुझाव भी नहीं मांगते। आप वासनाओं का सुझाव मानकर ही चलते हैं। इंद्रियों का सुझाव मानकर चलते हैं। या परिस्थिति में, कोई भी घड़ी उपस्थित हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया से चलते हैं।

एक आदमी गाली दे दें, तो वह आपको चला देता है। फिर आप उसकी गाली के आधार पर कुछ करने में लग जाते हैं। बिना इसकी फिक्र किए कि यह आदमी कौन है, जो मुझे गुलाम बना रहा है! मैं इसकी गाली को मानकर क्यों चलूं? यह तो मुझे चला रहा है!

आप यह मत सोचना कि आप गाली न दें, तो बात खतम हो गई। तो आप भीतर इसकी गाली से कुछ सोचेंगे। शायद यह सोचेंगे कि क्षमा कर दो, नासमझ है। लेकिन यह भी आप चल पड़े। वही चला रहा है आपको। आप सोचें कि यह नासमझ है, पागल है, शराब पीए हुए है। इसलिए क्यों गाली का जवाब देना! तो भी इसने आपको चला दिया। आप मालिक न रहे, यह बटन दबाने वाला हो गया। इसने गाली दी और आपके भीतर कुछ चलने लगा। आप गुलाम हो गए।

अगर आप रुककर क्षणभर साक्षी हो जाएं और भीतर की सलाह लें—परिस्थिति की सलाह न लें, प्रतिक्रिया न करें, इंद्रियों की मानकर न पागल बनें— भीतर के साक्षी की सलाह लें, तो वह साक्षी अनुमंता हो जाता है।

सबको धारण करने वाला होने से भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है।

यह जो भीतर पुरुष है, यह बहुत रूपों में प्रकट होता है। अगर आप इस पुरुष को शरीर के साथ जोड़ लें, तो लगने लगता है, मैं शरीर हूं। और आप संसार हो जाते हैं। इसको आप तोड़ लें ध्यान से और साक्षी हो जाएं, तो आप समाधि बन जाते हैं। इसकी आप सलाह मांगने लगें, तो आप स्वयं गुरु हो जाते हैं। इसके और भीतर प्रवेश करें, तो यह समस्त सृष्टि का स्रष्टा है, तो आप परमात्मा हो जाते हैं। और इसके अंतिम गहनतम बिंदु पर आप प्रवेश कर जाएं, जिसके आगे कुछ भी नहीं है, तो आप सच्चिदानंदघन परम ब्रह्म हो जाते हैं।

यह पुरुष ही आपका सब कुछ है। आपका दुख, आपका सुख; आपकी अशांति, आपका संसार, आपका स्वर्ग, आपका नरक; आपका ब्रह्म, आपका मोक्ष, आपका निर्वाण, यह पुरुष ही सब कुछ है।

ध्यान रहे, घटनाएं बाहर हैं और भावनाएं भीतर हैं। भावना का जो अंतिम स्रोत है, वह है परम ब्रह्म सच्चिदानंदघन रूप। वह भी आप हैं।

इसलिए इस मुल्क ने जरा भी कठिनाई अनुभव नहीं की यह कहने में कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर है। आपको पता नहीं है, यह बात दूसरी है। लेकिन परमेश्वर आपके भीतर मौजूद है। और आपको पता नहीं है, इसमें भी आपकी ही तरकीब और कुशलता है। आप पता लगाना चाहें, तो अभी पता लगा लें। शायद आप पता लगाना ही नहीं चाहते हैं।आप परमात्मा से भी कुछ और चाहते हैं। वह भी साधन है, साध्य नहीं है।

सोचें, अगर आपको परमात्मा मिल जाए; यहां से आप घर पहुंचें और पाएं कि परमात्मा बैठा हुआ है आपके बैठकखाने में। आप क्या मांगिएगा उससे? जरा सोचें। फौरन मन फेहरिस्त बनाने लगेगा। नंबर एक, नंबर दो.। और जो चीजें आप मांगेंगे, सभी क्षुद्र होंगी। परमात्मा से मांगने योग्य एक भी न होगी।

तो परमात्मा भी मिल जाए, तो आप संसार ही मांगेंगे। आप संसार मांगते हैं, इसलिए परमात्मा नहीं मिलता है। आप जो मांगते हैं, वह मिलता है। और अभी आप संसार से इतने दुखी नहीं हो गए हैं कि परमात्मा को सीधा मांगने लगें। इसलिए रुकावट है। अन्यथा वह आपके भीतर छिपा है। रत्तीभर का भी फासला नहीं है। आप ही वह हैं।

इस प्रकार पुरुष को और उसके गुणों को, गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है।

यह सूत्र खयाल में ले लेने जैसा है।

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है।

जिस व्यक्ति को यह खयाल में आ जाता है कि प्रकृति अलग है और मैं अलग हूं और जो इस अलगपन को सदा ही बिना किसी चेष्टा के स्मरण रख पाता है, फिर वह सब तरह से बर्तता हुआ भी..। वह वेश्यागृह में भी ठहर जाए, तो भी उसके भीतर की पवित्रता नष्ट नहीं होती। और आप मंदिर में भी बैठ जाएं, तो सिर्फ मंदिर को अपवित्र करके घर वापस लौट आते हैं। आप कहा हैं, इससे संबंध नहीं है। आप क्या हैं, इससे संबंध है।

अगर यह खयाल में आ जाए कि मैं अलग हूं, पृथक हूं तो फिर जीवन नाटक से ज्यादा नहीं है। फिर उस नाटक में कोई बंधन नहीं है, फिर उस नाटक में कोई वासना नहीं है, फिर खेल है और अभिनय है। और जो अभिनय की तरह देख पाता है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर नहीं जन्मता। क्योंकि कोई वासना उसकी नहीं है। फिर जैसे एक काम पूरा कर रहा है। जैसे काम पूरा करने में कोई रस नहीं है। जैसे एक जिम्मेवारी है, वह निभाई जा रही है।

ऐसे जैसे कि एक आदमी रामलीला में राम बन गया है। जब उसकी सीता खो जाती है, तब वह भी रोता है, और वह भी वृक्षों से पूछता है कि हे वृक्ष, बताओ मेरी सीता कहां है! लेकिन उसके आंसू अभिनय हैं। उसके भीतर कुछ भी नहीं हो रहा है। न सीता खो गई है, न वृक्षों से वह पूछ रहा है, न उसे कुछ प्रयोजन है। वह अभिनय कर रहा है। वह वृक्षों से पूछेगा; आंसू बहाएगा; जार—जार रोकर, सीता को खोजेगा। और परदे के पीछे जाकर बैठकर चाय पीएगा। उसको कोई लेना—देना नहीं है। गपशप करेगा। बात ही खतम हो गई। उससे कुछ लेना—देना नहीं है।

अगर असली राम भी परदे के पीछे ऐसे ही हटकर चाय पी लेते हों, तो वे परमात्मा हो गए। अगर आप भी अपनी जिंदगी के सारे उपद्रव को एक नाटक की तरह जी लेते हों, और परदे के पीछे हटने की कला जानते हों..। जिसको मैं कहता हूं, ध्यान, प्रार्थना, पूजा, वह परदे के पीछे हटने की कला है। दुकान से आप घर लौट आए। परदे के पीछे हट गए, ध्यान में चले गए। ध्यान में जाने का मतलब है कि आपने कहा कि ठीक, वह नाटक बंद।

अगर आप सच में ही भीतर के पुरुष को याद रख सकें, तो बंद कर सकेंगे। लेकिन अभी आप नहीं कर सकते। आप कितने ही परदे लटकाएं, दरवाजा बंद करें; वह दुकान आपके साथ चली आएगी

भीतर। वह नाटक नहीं है। उसको आप बहुत जोर से पकड़े हुए हैं।

तो आप बैठकर राम—राम कर रहे हैं और भीतर नोट गिन रहे हैं। इधर राम—राम कर रहे हैं, वहा भीतर कुछ और चला रहे हैं। वहा कोई हिसाब लगा रहे हैं कि वह नंबर दो के खाते में लिखना भूल गए हैं। या कल कैसे इनकम टैक्स वालों को धोखा देना है। वह भीतर चल रहा है। यहां राम—राम चल रहा है।

आप ध्यान रखिए कि राम—राम झूठा है, जो ऊपर चल रहा है। और असली भीतर चल रहा है। उससे आपका काफी तादात्म्य है। आप दुकानदार ही हो गए हैं। आपके पास कोई भीतर पृथक नहीं बचा है, जो दुकानदार न हो।

जैसे ही कोई व्यक्ति प्रकृति और पुरुष के फासले को थोड़ा—सा स्मरण करने लगता है कि यह मैं नहीं हूं.। इतना ही स्मरण कि यह मैं नहीं हूं। दुकान पर बैठे हुए, कि दुकान कर रहा हूं; जरूरी है, दायित्व है, काम है, उसे निपटा रहा हूं। लेकिन घर पहुंचकर, स्नान करके अपने मंदिर के कमरे में आदमी प्रविष्ट हो गया। वह परदे के पीछे चला गया, नाटक के मंच से हट आया, सब छोड़ आया बाहर। और घंटेभर शांति से बैठ गया बाहर दुनिया के।

इसका अभ्यास जितना गहन होता चला जाए, उतना ही योग्य है, उतना ही उचित है। तो धीरे—धीरे— धीरे कोई भी चीज आपको बांधेगी नहीं। कोई भी चीज बांधेगी नहीं। हो सकता है, जंजीरें भी आपको बांध दी जाएं और कारागृह में आपको डाल दिया जाए, तो भी आप स्वतंत्र ही होंगे। क्योंकि वह कारागृह में जो जंजीरें बांधेंगे जिसको, वह प्रकृति होगी। और आप बाहर ही होंगे।

अपने भीतर एक ऐसे तत्व की तलाश ही अध्यात्म है, जिसको बांधा न जा सके, जो परतंत्र न किया जा सके, जो सदा स्वतंत्र है, जो स्वतंत्रता है। यह पुरुष ऐसी स्वतंत्रता का ही नाम है। और सारे आध्यात्मिक यात्रा का एक ही लक्ष्य है कि आपके भीतर उस तत्व की तलाश हो जाए जिसको दुनिया में कोई सीमा न दे सके, कोई जंजीर न दे सके, कोई कारागृह में न डाल सके। जिसका मुक्त होना स्वभाव है।

इसका यह मतलब नहीं है कि आप कृष्ण को जंजीरें नहीं डाल सकते। इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध को कारागृह में नहीं डाला जा सकता। जीसस को हमने सूली दी ही है। लेकिन फिर भी आप जीसस को सूली नहीं दे सकते। जिसको आप सूली दे रहे हैं, वह प्रकृति ही है। और जब आप जीसस के हाथ में खीलें ठोक रहे हैं, तो आप प्रकृति के हाथ में खीलें ठोक रहे हैं, जीसस के हाथों में नहीं।

जीसस के हाथों में खीलें ठोकने का कोई उपाय नहीं है। जीसस को सूली देने का कोई उपाय नहीं है। जीसस जिंदा ही हैं। आप शरीर को ही काट रहे हैं और मार रहे हैं। अगर जीसस भी शरीर से जुड़े हों, तो उनको भी पीड़ा होगी। तो वे भी रोके, चिल्लाएंगे। वे भी छाती पीटेंगे कि बचाओ; कोई मुझे बचा लो। यह क्या कर रहे हो! क्षमा करो, मुझसे भूल हो गई। वे कुछ उपाय करेंगे। लेकिन वे कोई उपाय नहीं कर रहे हैं। उलटे वे प्रार्थना करते हैं परमात्मा से कि इन सब को माफ कर देना, क्योंकि इनको पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं।

किस चीज के लिए जीसस ने कहा है कि इनको पता नहीं है, ये क्या कर रहे हैं? इस चीज के लिए जीसस ने कहा है कि जिसको ये सूली पर लटका रहे हैं, वह तो लटकाया नहीं जा सकता; और जिसको ये लटका रहे हैं, वह मैं नहीं हूं। इनको कुछ पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। ये मेरी भ्रांति में किसी और को सूली पर लटका रहे हैं! यह मतलब है। इनको खयाल तो यही है कि मुझे मार रहे हैं, लेकिन मुझे ये कैसे मारेंगे? जिसको ये मार रहे हैं, वह मैं नहीं हूं। और वह तो इनके बिना मारे भी मर जाता, उसके लिए इतना आयोजन करने की कोई जरूरत न थी। और मैं इनके आयोजन से भी न मरूंगा।

इस भीतर के पुरुष का बोध जैसे—जैसे साफ होने लगेगा, वैसे—वैसे कृष्ण कहते हैं, फिर सब प्रकार से बर्तता हुआ।

इसलिए कृष्ण का जीवन जटिल है। कृष्ण का जीवन बहुत जटिल है। और जो तर्कशास्त्री हैं, नीतिशास्त्री हैं, और जो नियम से जीते और चलते और सोचते हैं, उन्हें कृष्ण का जीवन बहुत असंगत मालूम पड़ता है।

एक मित्र ने सवाल पूछा है कि कृष्ण अगर भगवान हैं, तो वे छल—कपट कैसे कर सके?

स्वभावत:, छल—कपट हम सोच ही नहीं सकते, नैतिक आदमी कैसे छल—कपट कर सकता है! और छल—कपट करके वह कैसे भगवान हो सकता है! और वचन दिया था कि शस्त्र हाथ में नहीं लूंगा और अपना ही वचन झुठला दिया। ऐसे आदमी का क्या भरोसा जो अपना ही आश्वासन पूरा न कर सका और खुद ही अपने आश्वासन को झूठा कर दिया!

हमें तकलीफ होती है। हमें बड़ी अड़चन होती है। कृष्ण बेबूझ मालूम पड़ते हैं। कृष्ण को समझना कठिन मालूम पड़ता है। महावीर को समझना सरल है। एक संगति है। बुद्ध को समझना सरल है। जिंदगी एक गणित की तरह है। उसमें आप भूल—चूक नहीं निकाल सकते।

अगर महावीर कहते हैं अहिंसा, तो फिर वैसा ही जीते हैं। फिर पांव भी फूंककर रखते हैं। फिर पानी भी छानकर पीते हैं। फिर श्वास भी भयभीत होकर लेते हैं कि कोई कीटाणु न मर जाए। फिर महावीर का पूरा जीवन एक संगत गणित है। उस गणित में भूल—चूक नहीं निकाली जा सकती।

लेकिन कृष्‍ण का जीवन बड़ा बेबूझ है। जितनी भूल—चूक चाहिए वे सब मिल जाएंगी। ऐसी भूल—चूक आप नहीं खोज सकते, जो उसके जीवन में न मिले। सब तरह की बातें भुल जाएंगी।

उसका कारण है। क्योंकि कृष्ण की दृष्टि जो है, उनका जो मौलिक आधार है सोचने का, वह यह है कि जैसे ही यह पता चल जाए कि प्रकृति अलग और मैं अलग, फिर किसी भी भांति बर्तता हुआ कोई बंधन नहीं है। फिर कोई जन्म नहीं है।

इसलिए कृष्ण छल—कपट करते हैं, ऐसा हमें लगता है। ऐसा हमें लगता है कि वे आश्वासन देते हैं और फिर मुकर जाते हैं। लेकिन कृष्ण क्षण— क्षण जीते हैं। जब आश्वासन दिया था, तब पूरी तरह आश्वासन दिया था। उस क्षण का सत्य था वह, उस क्षण का सत्य था। उस वक्त कोई न थी मन में, कहीं सोच भी न था कि इस आश्वासन को तोड़ेंगे। ऐसा कोई सवाल नहीं था। आश्वासन पूरी तरह दिया था। लेकिन दूसरे क्षण में सारी परिस्थिति बदल गई। और कृष्ण के लिए यह सब अभिनय से ज्यादा नहीं है। अगर यह अभिनय न हो, तो कृष्ण भी सोचेंगे कि जो आश्वासन दिया था, उसको पूरा करो।

अगर जिंदगी बहुत असली हो, तो आश्वासन को पूरा करने का खयाल आएगा। लेकिन कृष्ण के लिए जिंदगी एक सपने की तरह है, जिसमें आश्वासन का भी कोई मूल्य नहीं है। वह भी क्षण—सत्य था। उस क्षण में वैसा बर्तने का सहज भाव था। आज सारी स्थिति बदल गई। बर्तने का दूसरा भाव है। तो इस दूसरे भाव में कृष्ण दूसरा काम करते हैं। इन दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है। हमें विरोध दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम जिंदगी को असली मानते हैं। आप इसे ऐसा समझें, आपको सपने का खयाल है। सपने का एक गुण है। सपने में आप कुछ से कुछ हो जाते हैं, लेकिन आपके भीतर कोई चिंता पैदा नहीं होती। आप जा रहे हैं। आप देखते हैं कि एक मित्र चला आ रहा है। और मित्र जब सामने आकर खड़ा हो जाता है, तो अचानक घोड़ा हो जाता है, मित्र नहीं है। पर आपके भीतर यह संदेह नहीं उठता कि यह क्या गडबड़ हो रही है! मित्र था, अब घोड़ा कैसे हो गया? कोई संदेह नहीं उठता। असल में भीतर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि यह क्या गड़बड़ है! जागकर भला आपको थोड़ी—सी चिंता हो, लेकिन तब आप कहते हैं, सपना है, सपने का क्या!

सपने में मित्र घोड़ा हो जाए, तो कोई चिंता पैदा नहीं होती। असलियत में आप चले जा रहे हों सड़क पर और उधर से मित्र आ रहा हो और अचानक घोड़ा हो जाए, फिर आपकी बेचैनी का अंत नहीं है। आपको पागलखाने जाना पड़ेगा कि यह क्या हो गया। क्यों? क्योंकि इसको आप असलियत मानते हैं। कृष्ण इसको भी स्वप्न से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए जिंदगी में कृष्ण के लिए कोई संगति नहीं है। सब खेल है। और सब संगतिया क्षणिक हैं और क्षण के पार उनका कोई मूल्य नहीं है।

कृष्ण की कोई प्रतिबद्धता, कोई कमिटमेंट नहीं है। किसी क्षण के लिए उनका कोई बंधन नहीं है। उस क्षण में जो है, जो सहज हो रहा है, वे कर रहे हैं। दूसरे क्षण में जो सहज होगा, वह करेंगे। वे नदी की धार की तरह हैं। उसमें कोई बंधन, कोई रेखा, कोई रेल की पटरियों की तरह वे नहीं हैं कि रेलगाड़ी एक ही पटरी पर चली जा रही है। वे नदी की तरह हैं। जैसा होता है! पत्थर आ जाता है, तो बचकर निकल जाते हैं। रेत आ जाती है, तो बिना बचे निकल जाते हैं।

आप यह नहीं कह सकते कि वहा पिछली दफा बचकर निकले थे और अब? अब रेत आ गई, तो सीधे निकले जा रहे हो बिना बचे, असंगति है!


नहीं, आप नदी से कुछ भी नहीं कहते। जब पहाड़ होता है, नदी बचकर निकल जाती है। तो आप यह नहीं कहते कि पहाड़ को काटकर क्यों नहीं निकलती! और जब रेत होती है, नदी बीच में से काटकर निकल जाती है। तब आप यह नहीं कहते कि बड़ी बेईमान है! पहाड़ के साथ कोई व्यवहार, रेत के साथ कोई व्यवहार!

कृष्ण नदी की तरह हैं। जैसी परिस्थिति होती है, उसमें जो उनके लिए सहज आविर्भूत होता है अभिनय, वह कर लेते हैं। और जिंदगी असलियत नहीं है। जिंदगी एक कहानी है, एक नाटक है, एक साइको ड्रामा। इसलिए उसमें उनको कोई चिंता नहीं है, कोई अड़चन नहीं है।

इस बात को जब तक आप ठीक से न समझ लेंगे, तब तक कृष्ण के जीवन को समझना बहुत कठिन है। क्योंकि कृष्ण बहुत रूप में हैं। और उस सब के पीछे कारण यही है कि कृष्ण का मौलिक खयाल है कि जैसे ही पुरुष का भेद स्पष्ट हो गया, फिर सभी भांति बर्तता हुआ भी व्यक्ति बंधन को उपलब्ध नहीं होता; जन्मों को उपलब्ध नहीं होता। वह सभी भांति बर्तता हुआ भी मुक्त होता है। उसके वर्तन में आचरण और अनाचरण का भी कोई सवाल नहीं है। आचरण और अनाचरण का सवाल भी तभी तक है, जब तक जिंदगी सत्य मालूम होती है। और जब जिंदगी एक स्वप्न हो जाती है, तो आचरण और अनाचरण दोनों समान हो जाते हैं।

लेकिन एक सवाल उठेगा। तो क्या बुद्ध को और महावीर को यह पता नहीं चला? क्या उनको यह पता नहीं चला कि हम अलग हैं? और जब उन्हें पता चल गया कि हम अलग हैं, तो फिर उन्होंने क्यों चिंता ली? फिर क्यों वे पंक्तिबद्ध, रेखाबद्ध, एक व्यवस्थित और संगत, गणित की तरह जीवन को उन्होंने चलाया?

कुछ कारण हैं। वह भी व्यक्तियों की अपनी—अपनी भिन्नता, अद्वितीयता का कारण है।

आपको मैंने कह दिया कि न कुछ गलत है, न कुछ सही है। जैसा चाहो, वैसा बरतो। आप फौरन गए और चोरी कर लाए। न कुछ गलत, न कुछ सही। लेकिन आपको चोरी का ही खयाल क्यों आया सबसे पहले? फिर भी ठीक है। कुछ भी वर्तन करें। आप ज्ञानी हो गए हैं, तो अब कोई आपको बाधा नहीं है। लेकिन कोई आपकी चोरी कर ले गया, तब आप पुलिस में रिपोर्ट करने चले। और रो रहे हैं और कह रहे हैं, यह बहुत बुरा हुआ। मैंने तो सुना है, एक आदमी पर अदालत में मुकदमा चला। नौवीं बार मुकदमा चला। जज ने उससे पूछा कि तू आठ बार सजा भुगत चुका। तू बार—बार पकड़ जाता है। कारण क्या है तेरे पकड़े जाने का? उसने कहा, कारण साफ है कि मुझे अकेले ही चोरी करनी पड़ती है। मेरा कोई साझीदार नहीं है। अकेले ही सब काम करना पड़ता है। तोड़ो दीवार, दरवाजे तोड़ो, तिजोरी तोड़ो, सामान निकालो, बांधो, ले जाओ। कोई सहयोगी, पार्टनर न होने से सब तकलीफ है।

तो उस जज ने पूछा कि तो तू सहयोगी क्यों नहीं खोज लेता, जब आठ बार पकड़ा चुका! तो उसने कहा कि अब आप देखिए जमाना इतना खराब है कि किसी पार्टनर का भरोसा नहीं किया जा सकता। चोर भी भरोसा रखने वाला पार्टनर खोजता है। और दुकानदारी में तो चल भी जाए थोड़ी धोखाधड़ी, चोरी में नहीं चल सकती। चोरी में बिलकुल ईमानदार आदमी चाहिए। इसलिए चोरों में जैसे ईमानदार आपको मिलेंगे, वैसे दुकानदारों में नहीं मिल सकते। डाकुओं में, हत्यारों में जिस तरह की निष्ठा, भ्रातृत्व, भाईचारा मिलेगा, वैसा अच्छे आदमियों में मिलना मुश्किल है। क्योंकि वहां इतनी बुराई है कि उस बुराई को टिकने के लिए इतना भाईचारा न हो, तो बुराई चल नहीं सकती।

इस तरह का विचार पश्चिम के नीति शास्त्रियों को बहुत अजीब लगता है। और वे सोचते हैं कि भारत में जो नीति पैदा हुई, वह इम्मारल है; .वह नैतिक नहीं है।

हमारे पास टेन कमांडमेंट्स जैसी चीजें नहीं हैं। पूरी गीता में बाइबिल जैसी टेन कमांडमेंट्स नहीं हैं, कि चोरी मत करो, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो। बल्कि उलटा यह कहा है कृष्ण ने कि अगर तुमको पता चल जाए कि यह पुरुष और प्रकृति अलग है, तो तुम जो हो, होने दो। फिर कोई बर्ताव हो, तुम्हारे लिए कोई बंधन नहीं है, कोई पाप नहीं है।

ईसाई बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है यह सोचकर, मुसलमान बड़ी दिक्कत में पड़ जाता है यह सोचकर, कि गीता कैसा धर्म—ग्रंथ है! यह तो खतरनाक है।

गीता कहती है, जब पुरुष और प्रकृति का भेद स्पष्ट हो जाए, तो फिर कुछ भी बरतो, कोई पाप नहीं, कोई पुण्य नहीं, कोई बंधन नहीं; फिर कोई जन्म नहीं है। लेकिन पहली शर्त खयाल में रहे। अगर शर्त हटा दें हम, तो निश्चित ही एक अराजकता और अनैतिकता फैल सकती है। 

वह यही तत्व है, अनैतिक मालूम होता है।

अतिनैतिक है गीता का संदेश। सुपर इथिकल है। इथिकल तो बिलकुल नहीं है; नैतिक नहीं है। अतिनैतिक है। और उस अतिनैतिकता को समझने में खतरा है। और जितनी ऊंचाई पर कोई चले, उतना ही डर है, गिर जाए, तो गड्डे हैं बहुत बड़े।

इस सूत्र को ठीक से समझ लेना।

आपके मन में अगर कोई चाह बसी हो; मैं आपसे कहूं कि जो भी करना हो करो, कोई पाप नहीं है; और फौरन आपको खयाल आ जाए कि क्या करना है, तो आप समझ लेना कि आपके लिए अभी यह नियम नहीं है। यह सूत्र सुनकर, कि कुछ भी करो, कोई हर्ज नहीं है, आपके भीतर करने का कोई भी खयाल न उठे। यह सुनकर, कि कोई भी बरताव हो, कोई जन्म नहीं होगा; कोई दुख, कोई नरक नहीं होगा, और आपके भीतर कोई बरताव करने का खयाल न आए, तो यह सूत्र आपकी समझ में सकता है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल



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