सोमवार, 9 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 12

 आंतरिक सौंदर्य

श्रीभगवानुवाच:

गर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्यम।

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिण:।। 52।।

नाहं वेदैर्न तयसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवंविधो दृष्‍टुं दृष्टवानसि मां यथा।। 53।।

भक्त्‍या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोउर्जुन।

ज्ञातुं दृष्‍टुं च तत्वेन प्रवेष्‍टुं च परंतप।। 54।।

मत्कर्मकृन्मत्यरमो मइभक्त: संगवर्जित:।

निर्वैर: सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 55।।


इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे अर्जुन मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है कि जिसको तुमने देखा है क्योंकि देवता भी सदा इस रूप के दर्शन करने की इच्छा वाले हैं।

और हे अर्जुन न वेदों से न तप से न दान से और न यह से हम प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूं कि जैसे मेरे को तुमने देखा है।

परंतु हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूं।

हे अर्जुन जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सब कुछ मेरा समझता हुआ संपूर्ण कर्तव्य— कर्मों को करने वाला है और मेरे परायण है अर्थात मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्‍ति के लिए तत्पर है तथा मेरा भक्त है और आसक्तिरहित है अर्थात स्त्री पुत्र और धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और संपूर्ण भूत— प्राणियों में वैर— भाव से रहित है ऐसा वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है



इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर कृष्ण बोले, हे अर्जुन, मेरा यह चतुर्भुज रूप देखने को अति दुर्लभ है कि जिसको तुमने देखा है। देवता भी इस रूप के दर्शन की इच्छा रखने वाले हैं।


चतुर्भुज रूप कृष्ण का सहज रूप नहीं है। वे कोई चार हाथ वाले नहीं हैं। वे दो ही हाथ वाले हैं, जैसे सभी आदमी हैं। लेकिन अर्जुन ने चाहा था कि वे चतुर्भुज रूप वाले प्रकट हों, चार हाथ वाले प्रकट हों।

यह चार हाथ एक प्रतीक है। हजार हाथ वाले रूप की भी हमने परमात्मा की कल्पना की है, वह भी एक प्रतीक है। मां बच्चे को उठाती है दोनों हाथों में। ये दो हाथों से उठाने तक तो मनुष्य का प्रेम है। लेकिन जहां परमात्मा चार हाथ से किसी को उठाता है, वहां मनुष्य के ऊपर के प्रेम की खबर लाने के लिए दो हाथ हमने और जोड़े हैं। जैसे परमात्मा दोहरी माता है हमारी, दोहरे अर्थों में। वह इस जगत में तो हमको सम्हाले ही हुए है, उस जगत में भी सम्हालेगा। ऐसे हमने चार हाथ की कल्पना की है।

यह प्रतीक है, काव्य—प्रतीक है, कि परमात्मा हमें इस जगत में भी सम्हाले है और उस जगत में भी। उसके चार हाथ हैं, वह चारों दिशाओं से हमें सम्हाले हुए है। सब ओर से हमें सम्हाले हुए है। उसके हाथ में हम सुरक्षित हैं। हम छोड़ सकते हैं अपने को, वहां कोई असुरक्षा नहीं है।


कृष्ण के तो दो ही हाथ हैं। लेकिन अर्जुन ने जब यह विराट रूप देखा, तो उसने प्रार्थना की कि अब मैं इतना घबड़ा गया हूं कि तुम चार हाथ वाले की तरह प्रकट हो जाओ, तो ही मेरी घबड़ाहट शांत हो सकती है। वह यह कह रहा है कि मैं इतना असुरक्षित हो गया हूं इतनी इनसिक्योरिटी मुझे मालूम पड़ रही है कि मैं मरा; मिट गया। अब मैं इस, जो अनुभव मुझे हुआ है, यह ट्रामैटिक है। अब इस अनुभव से मैं उबार न सकूंगा अपने को कभी। अब यह भय मेरा पीछा करेगा। अब मैं सो न सकूंगा। अब मैं उठ न सकूंगा। यह मौत जो मैंने देखी है, यह अतिशय हो गई। अब तुम्हारे पुराने दो हाथ अकेले काम न करेंगे। अब तुम जैसे थे, उतने से ही काम न चलेगा। अब तुम और भी प्यारे होकर प्रकट हो जाओ।


इसका मतलब यह है कि अब तुम अनंत प्रेम होकर प्रकट हो जाओ। तुमने जो मौत मुझे दिखा दी, उसको संतुलित करने के लिए दूसरे पलड़े पर तुम चारों हाथ फैलाकर मुझे झेल लो, ताकि मैं सुरक्षित हो जाऊं।

यह सिर्फ काव्य—प्रतीक है चार हाथ का। इसका मतलब यह है कि तुम मां का हृदय बन जाओ मेरे लिए। और ऐसी मां का, जो इस जगत में ही नहीं, उस जगत में भी! जिसकी गोद में मैं सिर रख दूं और भूल जाऊं जो मैंने देखा है। जो मैंने देखा है, उसे मैं भूल जाऊं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु से जितना भय आदमी के मन में है, उसी भय के कारण आदमी मोक्ष को खोजता है। और मनोवैज्ञानिक और अनूठी बात कहते हैं, वह शायद समझ में एकदम से न भी आए। वे कहते हैं, मोक्ष की जो धारणा है आदमी की, वह वही है, जो बच्चे को गर्भ की स्थिति में होती है। जब बच्चा गर्भ में होता है, तो पूर्ण सुरक्षित होता है। कोई असुरक्षा नहीं होती गर्भ में। कोई भय नहीं होता। कोई चिंता नहीं। कोई जिम्मेवारी नहीं। कोई नौकरी नहीं खोजनी। कोई मकान नहीं बनाना। कोई भोजन इकट्ठा नहीं करना। कल की कोई फिक्र नहीं है। सब आटोमैटिक है।

बच्चा गर्भ में पूर्ण मोक्ष की हालत में है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं। सब उसको मिल रहा है। बिना मांगे मिलता है। जरूरत के माफिक मिलता है। उसे कुछ करना नहीं पड़ता। वह तैरता रहता है, जैसे कि विष्णु तैर रहे हैं क्षीरसागर में। ऐसा बच्चा मां के पेट के द्रवीय पदार्थों के क्षीरसागर में तैरता रहता है। कोई चिंता नहीं। कोई फिक्र नहीं। कोई उपद्रव नहीं। संसार का कोई पता नहीं। कोई दूसरा नहीं, कोई स्पर्धा नहीं। कोई मृत्यु का पता नहीं। कुछ भी पता नहीं। निश्चिंत, परम शांति में बच्चा रहता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की जो धारणा है, वह मनुष्य के मन में जो गहरा गर्भ का अनुभव है, उसी का विस्तार है। वे थोड़ी दूर तक ठीक कहते हैं। क्योंकि हमें खयाल ही कैसे मिलता है आनंद का? दुख हम जानते हैं। सुख भी थोड़ा—बहुत जानते हैं। लेकिन हम सबके मन में यह भी लगा रहता है कि आनंद मिले। आनंद का हमें अनुभव कहां है? हम सब चाहते हैं, शांति मिले। शांति को हम जानते तो हैं नहीं। इसलिए बिना जाने किसी चीज की वासना कैसे जगती है?

जब तक दुनिया में कार नहीं थी, तो किसी आदमी के मन में वासना नहीं जगती थी कि कार हो। बैलगाड़ी हो, अच्छे बछड़े वाली हो, रथ हो—वह होता था। लेकिन कार हो, ऐसा किसी आदमी के मन में वासना नहीं जगती थी। लेकिन अब जगती है, क्योंकि अब कार दिखाई पड़ती है। चारों तरफ मौजूद है।

शांति को आदमी जानता ही नहीं, अशांति को ही जानता है, तो यह शांति की आकांक्षा कहां से जगती है! मनस्विद कहते हैं कि वह जो गर्भ का नौ महीने का अनुभव है, वह गहरे अचेतन में बैठ गया है। वहां हमको पता है कि नौ महीने हम किसी गहरी शांति में रह चुके हैं। नौ महीने जिंदगी निश्चिंत थी, सुरक्षित थी। मृत्यु का कोई भय न था। हम अकेले थे। और सब तरह से मालिक थे। कल्पवृक्ष के नीचे थे।

हमने कल्पना की कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे आदमी बैठेगा। इच्छा करेगा, करते ही इच्छा पूरी हो जाएगी। आपको अगर कल्पवृक्ष मिल जाए, तो बहुत सम्हलकर उसके नीचे बैठना। क्योंकि आपको अपनी इच्छाओं का कोई भरोसा नहीं है।

मनस्विद कहते हैं कि कल्पवृक्ष की कल्पना गर्भ की ही अनुशइत और स्मृति का विस्तार है। गर्भ में बच्चा जो भी चाहता है, चाहने के पहले— कल्पवृक्ष के नीचे तो पहले चाहना पड़ता है, फिर मिलता है—गर्भ में बच्चा चाहता है, उसके पहले मां के शरीर से उसे मिल जाता है। बच्चे को कभी वासना की पीड़ा नहीं होती। जो मांगता है, मांगने के पहले मिल जाता है। वह तृप्त होता है, पूर्ण तृप्त होता है।

यह जो कृष्‍ण का विराट, विकराल, भयंकर रूप देखकर अर्जुन घबड़ा गया है। वह कह रहा है, तुम चारों हाथ वाले गर्भ बन जाओ। मैं तुममें डूब जाऊं, तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारी सुरक्षा में। जो मैंने देखा है, इसको बैलेंस कर दो। दूसरे पलड़े पर इतना ही प्रेम, इतनी ही सुरक्षा बरसा दो।

कृष्ण कहते हैं, तेरे लिए, जो अति दुर्लभ है और देवता भी जिसे देखने को तरसते हैं, वह मैं तेरे लिए प्रकट करता हूं। हे अर्जुन, न वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से, इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं देखा जाने को शक्य हूं जैसा तू मुझे देखता है। परंतु हे श्रेष्ठ तप वाले अर्जुन, अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूं।

जो छीन—झपट करता है तप से, जो सौदा करता है कि मैं यह देने को तैयार हूं मुझे यह अनुभव चाहिए, उसको तो यह अनुभव नहीं मिल पाता, क्योंकि यह अनुभव प्रेम का है। सत्य को रूखा— सूखा साधक पा लेता है, लेकिन चार भुजाओं वाला, प्रेमपूर्ण, भक्त ही पा पाता है। साधक भी सत्य को पा लेता है। लेकिन उसका जो अनुभव होता है, वह सत्य का होता है, मैथमेटिकल, गणित का। भक्त का जो सत्य का अनुभव होता है, वह होता है काव्य का, प्रेम का। गणित का नहीं, पोएटिकल। भक्त पहुंचता है रस से डूबा हुआ।

और जैसे आप हैं, वैसे ही सत्य का आपको अनुभव होता है। अगर आप रस से भरे हैं, प्रेम से भरे गए हैं, तो सत्य जिस रूप में प्रकट होता है, वह प्रेम होता है। अगर आप गणित, तर्क, विचार, साधना, तप, हिसाब से भरे गए हैं, कैलकुलेटेड, तो जो सत्य प्रकट होता है, उसका रूप गणित होता है।

अरस्तु ने कहा है कि परमात्मा बड़ा गणितज्ञ है। किसी और ने नहीं कहा। क्योंकि अरस्तु बड़ा गणितज्ञ था। और अरस्तु सोच ही नहीं सकता था परमात्मा की और कोई छवि, जो गणित से भिन्न हो। क्योंकि गणित अरस्तु के लिए परम सत्य है। और गणित से ज्यादा सत्यतर कुछ भी नहीं है। इसलिए अरस्तु को लगता है, परमात्मा भी एक बड़ा गणितज्ञ है और सारा जगत गणित का एक खेल है।

मीरा से कोई पूछे, तो मीरा कहेगी, परमात्मा एक नर्तक है। सारा जगत नृत्य का एक विस्तार है।

अगर बुद्ध से कोई पूछे, तो बुद्ध कहेंगे, परम शून्य, शांति, मौन। विराट मौन, जहां कुछ भी नहीं है; न लहर उठती है, न मिटती है। सदा से ऐसा ही है।

यह प्रत्येक व्यक्ति जिस तरह से पहुंचता है, जो उसके पहुंचने की व्यवस्था होती है, जो उसका अपना व्यक्तित्व का ढांचा होता है, उसके अनुकूल परमात्मा उसे प्रतीत होता है। और जब वह उसे भाषा देता है, तब और भी अनुकूल हो जाता है।

कृष्‍ण कह रहे हैं कि तप से तो यह रूप मिलने वाला नहीं, क्योंकि तपस्वी इस रूप की मांग भी नहीं करता।

महावीर की हम सोच भी नहीं सकते कि वे कहें कि सत्य, चार भुजाओं वाला हमारे सामने प्रकट हो! असंभव। अशक्य। अकल्पनीय। महावीर कहेंगे कि क्या मतलब है चार भुजाओं वाले से! ऐसे सत्य की कोई जरूरत नहीं। महावीर के लिए सत्य कभी चार भुजाओं वाला सोचा भी नहीं जा सकता।

अर्जुन कह रहा है कि चार भुजाओं वाला सत्य। प्रेमपूर्ण सत्य। मां के हृदय जैसा, गर्भ जैसा सत्य। जहां मैं सुरक्षित हो जाऊं। मैं भयभीत हो गया हूं। एक छोटे बच्चे की पुकार है, जो इस जगत में अपनी मां को खोज रहा है। इस पूरे अस्तित्व को जो मां की तरह देखना चाहता है।

तो कृष्‍ण कहते हैं, लेकिन अनन्य भक्ति से जिसने पुकारा हो, प्रेम से जिसने पुकारा हो, उसके लिए मैं प्रत्यक्ष हो जाता हूं इस रूप में। न केवल प्रत्यक्ष हो जाता हूं बल्कि वह मुझमें प्रवेश भी कर सकता है और मेरे साथ एक भी हो सकता है।

हे अर्जुन, जो पुरुष केवल मेरे लिए ही सब कुछ मेरा समझता हुआ संपूर्ण कर्तव्य—कर्मों को करने वाला और मेरा परायण है अर्थात मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के लिए तत्पर है तथा मेरा भक्त है और आसक्तिरहित है; स्त्री, पुत्र, धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और संपूर्ण भूत—प्राणियों में वैर— भाव से शून्य है, ऐसा वह अनन्य भक्ति वाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है।

इस अंत में दो—तीन बातें समझ लेने जैसी हैं और बहुत उपयोग की हैं। जो साधक हैं, उनके लिए बहुत काम की हैं।

पहली बात, कृष्‍ण कहते हैं, जो सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दे। प्रेम छोड़ता है, घृणा छोड़ने से डरती है। क्योंकि घृणा में अपने को सुरक्षित खुद ही करना होता है। प्रेम छोड़ता है। प्रेम का मतलब ही है कि हम दूसरे पर सब छोड़ दें।

मैंने सुना है, एक युवक विवाह करके लौट रहा था। पानी के जहांज से यात्रा कर रहा था। जोर का तूफान आया, उसकी प्रेयसी कांपने लगी और घबड़ाने लगी, लेकिन वह युवक शांत था। उसकी प्रेयसी ने कहा कि तुम इतने शांत क्यों हो! यहां तो मौत दिखाई पड़ती है। नाव डूबेगी लगता है। मल्लाह भी घबड़ा गए हैं। उस युवक ने कहा, घबड़ाओ मत। ऊपर जो है, मैंने सब उस पर छोड़ दिया है। उसकी स्त्री ने कहा, कुछ भी हो, छोड़ा हो या न छोड़ा हो, यहां मौत खडी है!

उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार खींच ली। नंगी चमकती हुई तलवार थी, उसने अपनी प्रेयसी, पत्नी के कंधे पर तलवार रखी। पत्नी हंसने लगी। उसने कहा, यह तुम क्या खेल कर रहे हो!

उस युवक ने पूछा कि नंगी चमकती हुई तलवार; जरा—सा धक्का और तेरी गर्दन अलग हो जाए; तुझे मेरे हाथ में तलवार देखकर भय नहीं लगता? तो उसकी पत्नी ने कहा, तुम्हारे हाथ में तलवार देखकर भय कैसा? तुमसे मेरा प्रेम है।

उस युवक ने तलवार भीतर रख ली और उसने कहा कि उससे मेरा प्रेम है। उसके हाथ में तूफान देखकर मुझे कोई भय नहीं लगता। उसकी मर्जी। अगर डुबाने में ही हमें कुछ लाभ होता होगा, तो ही वह डुबाएगा। और अगर बचने में कोई हानि होती होगी, तो वह हमें नहीं बचाएगा। उस पर छोड़ा हुआ है।

प्रेम छोड़ता है पूरा।

तो कृष्‍ण कहते हैं, जिसने पूरा मेरे ऊपर छोड़ा है। और जो प्रत्येक काम को ऐसे करता है, जैसे वह मेरा, कृष्‍ण का काम है, उसका नहीं है; जिसका अहंभाव पूरा समर्पित है और जो— यह बड़ा कठिन मालूम पड़ेगा सूत्र— और जो आसक्तिरहित है। पत्नी में, बच्चे में, धन में जिसकी कोई आसक्ति नहीं है। जिसने अपना सारा प्रेम मेरी तरफ मोड़ दिया है।

इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक खतरनाक मतलब है, जो लोग आमतौर से ले लेते हैं। वह मतलब यह है कि पत्नी को प्रेम मत करो, बच्चे को प्रेम मत करो। सब तरफ से प्रेम को सिकोड़ लो और परमात्मा के चरणों में डाल दो। यह आमतौर से लिया गया मतलब है, जो खतरनाक है। क्योंकि इसका परिणाम, इसका परिणाम एक ऐसा आदमी होता है, जो सब तरफ से सूख जाता है, रसहीन हो जाता है। और यह पत्नी और बच्चे और परिवार और मित्रों से जो प्रेम को खींचता है, इस छीना—झपटी में ही प्रेम मर जाता है।

यह करीब—करीब ऐसा है, जैसे एक लगाए हुए पौधे को कोई उखाड़कर कहीं और लगाने चला। और उखाड़कर प्रेम को पत्नी की तरफ से, परमात्मा में लगाने में ही प्रेम की जड़ें सूख जाती हैं। वह परमात्मा तक कभी पहुंच नहीं पाता। पत्नी से तो उखड़ जाता है, और परमात्मा तक कभी पहुंच नहीं पाता। लेकिन यह आम भाव है, जो लोगों ने लिया है।

मेरी ऐसी दृष्टि नहीं है। मेरा मानना यह है कि पत्नी के प्रति भी तुम्हारा जो प्रेम है, वह भी कृष्‍ण का ही प्रेम है, तुम्हारा प्रेम नहीं है। तुम अपने को हटा लो, प्रेम को मत हटाओ। क्योंकि जब कर्मों में तुम कहते हो कि सब कर्म उसके हैं, तो प्रेम भी उसका है। पत्नी के प्रति तुम्हारा जो प्रेम है, वह भी कृष्‍ण का है, तुम्हारा नहीं है। और पत्नी में तुम्हें जो भी दिखाई पड़े, पत्नी को देखना बंद कर देना और कृष्‍ण को देखना शुरू करना।

बच्चे से हटाना मत प्रेम को। उसमें सूख जाएगा। पौधा बहुत कमजोर है। वैसे ही तो प्रेम नहीं है। बच्चे से क्या खाक प्रेम है! या पत्नी से क्या प्रेम है! ऐसे ही ऊपर—ऊपर तो लगाए हुए हैं। मौसमी पौधा है। उसको उखाड़कर परमात्मा में लगाने गए, उखाड़ की छीना—झपटी में ही टूट जाता है। और जड़ें उसकी इतनी कमजोर हैं कि वह परमात्मा तक पहुंचती नहीं।

बेहतर तो यह है कि पत्नी में ही और थोडे गहरे जड़ों को पहुंचा देना। इतने गहरे पहुंचा देना कि पत्नी ऊपर रह जाए और भीतर परमात्मा हो जाए। और बच्चे में प्रेम को इतना उंडेल देना कि बच्चा दिखना बंद हो जाए और बाल—गोपाल दिखाई पड़ने लगें! तो पत्नी नहीं रही, बच्चा नहीं रहा। सारा प्रेम परमात्मा को समर्पित हो गया।

ये दो रास्ते हैं। पहला रास्ता आमतौर से प्रचलित है, मैं उसके सख्त खिलाफ हूं। मेरी व्याख्या तो यही है कि जहां भी तुम्हारा प्रेम हो, वहां परमात्मा को देखना शुरू करना। प्रेमी को भूल जाना और परमात्मा को देखना। धीरे— धीरे वही पौधा जो तुम्हारी पत्नी पर लगा था, जड़ें फैला लेगा और परमात्मा में प्रवेश कर जाएगा। क्योंकि तुम्हारी पत्नी में काफी परमात्मा है। तुम्हारे पति में काफी परमात्मा है। कोई परमात्मा की वहा कमी नहीं है। और कहीं उखाड़कर ले जाने की जरूरत नहीं है, वहीं गहरा करने की जरूरत है।

प्रेम की गहराई प्रार्थना बन जाती है। और प्रेम अगर पूर्ण गहन हो जाए, तो जहां पहुंच जाता है, वहीं परमात्मा है।

कृष्‍ण कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। वे यह नहीं कहते कि उखाड़ ले कहीं से। वे यह कहते हैं, सारा प्रेम मुझे दे दे। जहां से भी दे, मुझको ही देना। तेरी नदी कहीं से भी गिरे, मेरे सागर में ही गिरे। रास्ता कोई भी हो, किनारे कोई भी हों, किनारों से छूटकर तू सागर तक नहीं पहुंच सकेगा। किनारों में बहना मजे से, लेकिन जानना कि ये किनारे भी सागर में पहुंचा रहे हैं।

जीवन की सारी प्रेम— धारा परमात्मा की तरफ बहने लगे, और कहीं आसक्ति न रह जाए। यह मेरा अर्थ है। सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे। और जिस दिन सारी आसक्ति परमात्मा की तरफ बहने लगे, उस दिन स्वभावत: जगत में कोई वैर— भाव न रह जाएगा। यह मेरी व्याख्या समझें, तो ही खयाल में आएगा।




अगर आप पहली गलत व्याख्या समझते हैं, तो जगत पूरा वैरी हो जाता है। वह पति पत्नी को छोड्कर भागता है, पत्नी वैरी हो जाती है। और जिससे आप प्रेम को तोड़ते हैं, तो तटस्थ होना मुश्किल है। प्रेम को अगर तोड़ते हैं, तो घृणा पैदा करनी पड़ती है, तभी तोड़ पाते हैं। जिस पत्नी को मैंने प्रेम किया है, अगर आज उससे मैं प्रेम को हटाऊं, तो मुझे एक ही काम करना पड़ेगा कि मुझे इसके प्रति घृणा पैदा करनी पड़ेगी!

इसलिए साधु—संत लोगों को कहते हैं कि क्या है तुम्हारी पत्नी में! मांस—हड्डी, मांस—मज्जा, पीप, खून, यही सब भरा हुआ है। इसको देखो। इसको देखने से वितृष्णा पैदा होगी। इसको देखने से घृणा पैदा होगी। किस पत्नी के पीछे दीवाने हो रहे हो, इसमें है ही क्या? सिर्फ कचरे का ढेर है भीतर। उसको जरा देखो।

लेकिन जिस पत्नी में कचरे का ढेर है, और जो साधु—संन्यासी समझा रहे हैं, उनके भीतर क्या है? वही कचरे का ढेर है। और मजा यह है कि वे कचरे के ढेर से ही पैदा हुए हैं। जिस मां से पैदा हुए हैं, उसी कचरे के ढेर से पैदा हुए हैं। उसी का विस्तार हैं। उसी मवाद, उसी खून, उसी हड्डी—मांस का थोड़ा सा और फैलाव हैं। अगर आपको प्रेम हटाना है संसार से, जबरदस्ती, तो आपको घृणा पैदा करनी पड़ेगी। वैर— भाव पैदा करिए, तो आप कहीं प्रेम को हटा पाएंगे।

और कृष्ण का दूसरा सूत्र है कि वैर— भाव किसी से रखना मत। इस संसार में किसी के प्रति वैर— भाव न रह जाए। बड़ी मुश्किल बात है। संसार में वैर— भाव न रहे, यह तभी हो सकता है, जब संसार में प्रेम— भाव इतना गहरा हो जाए कि वैर— भाव न बचे।

तो संसार से प्रेम को मत तोड़ना, संसार में प्रेम की धारा को गहन करना। गहन करना। और खोदना। और खोदना। और संसार के प्राणों तक प्रेम को पहुंचा देना। कोई वैर— भाव न रह जाएगा। और उस प्राण के केंद्र पर ही परमात्मा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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