गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 19

 


 त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।। 20।।


और जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात कर्तृत्व-अभिमान को त्यागकर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है।


और ऐसा पुरुष, ऐसी चेतना को उपलब्ध पुरुष, ऐसी चेतना को उपलब्ध व्यक्ति संसार के आसरे आनंदित नहीं होता। ऐसे पुरुष का आनंद परमात्मा से ही स्रोत पाता है। ऐसा व्यक्ति संसार के कारण सुखी नहीं होता। ऐसा व्यक्ति सुखी ही होता है--अकारण। जहां तक संसार का संबंध है--अकारण।

अगर कोई रामकृष्ण से पूछे, क्यों नाच रहे हो? तो रामकृष्ण कोई भी सांसारिक कारण न बता सकेंगे। वे यह न कह सकेंगे कि लाटरी जीत गया हूं। वे यह न कह सकेंगे, यश हाथ लग गया है। वे यह न कह सकेंगे कि बहुत लोग मुझे मानने लगे हैं।

अगर कबीर से हम पूछें कि क्यों मस्त हुए जा रहे हो? यह मस्ती कहां से आती है? तो संसार में कारण न बता सकेंगे।

हमारी मस्ती हमेशा सकारण होती है, कंडीशनल होती है। शर्त होती है उसकी। घर में बेटा हुआ है, तो बैंड-बाजे बज रहे हैं। धन-संपत्ति आ गई है, तो फूलमालाएं सजी हैं। हमारा सुख बाहर, हमसे बाहर कहीं से आता है। इसलिए देर नहीं लगती और हमारा सुख तत्काल दुख बन जाता है। बहुत देर नहीं लगती। क्योंकि जिसका भी सुख संसार-आश्रित है, उसका सुख क्षणभर से ज्यादा नहीं हो सकता। क्योंकि संसार ही क्षणभर से ज्यादा नहीं होता है। संसार पर आश्रित जो भी है, वह सभी क्षणभर है।

जैसे कि हवाओं के झोंके में वृक्ष का पत्ता हिल रहा है। यह वृक्ष का पत्ता क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं हो सकता; क्योंकि जिस हवा में हिल रहा है, वही क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं रहती है। वह हवा ही तब तक और आगे जा चुकी है। नदी में जो लहर उठ रही है, वह जिस पवन के झोंकों से उठ रही है, क्षणभर से ज्यादा नहीं रह सकती; क्योंकि क्षणभर से ज्यादा वह पवन का झोंका ही नहीं रह जाता है।

संसार क्षणभंगुरता है। वहां सब कुछ क्षणभर है। उस पर आश्रित सुख क्षण से ज्यादा नहीं है। आया नहीं, कि गया! आने और जाने में बड़ा कम फासला है।


मैं अभी एक कवि की दो पंक्तियां देख रहा था, मुझे बहुत प्रीतिकर लगीं। जरा-सा फासला किया है और पंक्तियों का अर्थ बदल गया है। पहली पंक्ति है: वसंत आ गया। और दूसरी पंक्ति है: वसंत आ, गया। पहली पंक्ति है: वसंत आ गया। आ गया वसंत। और दूसरी पंक्ति है: आ, गया वसंत। वह आ गया को तोड़ दिया है दूसरी पंक्ति में, दो टुकड़ों में! आ को अलग कर दिया है, गया को अलग कर दिया है।

इतना ही फासला है, आ गया सुख; आ, गया सुख। पहचान भी नहीं पाते कि आ गया, और दूसरी पंक्ति घटित हो जाती है। सच तो यह है कि जैसे ही हम पहचानते हैं कि सुख आ गया, सुख जा चुका होता है। इतना ही क्षण, क्षणभर की धुन बजती है और चली जाती है।

कृष्ण कहते हैं, संसार-आश्रित ऐसे पुरुष के सुख नहीं हैं।

ऐसे पुरुष का आनंद आश्रित आनंद नहीं है। अनाश्रित, अनकंडीशनल, बेशर्त, अकारण है। ऐसे पुरुष का आनंद कहीं से आता नहीं, इसलिए फिर कहीं जा भी नहीं सकता। ऐसे पुरुष का आनंद परमात्मा पर, ब्रह्म पर, ब्रह्म से ही स्रोत पाता है। ब्रह्म से अर्थात स्वयं से ही। अपनी ही गहराइयों से उठते हैं झरने। अपने ही अंतस से आता है आनंद। फिर खोता नहीं, क्योंकि ब्रह्म क्षणभंगुर नहीं है।

संसार क्षणभंगुर है, इसलिए संसार से आया सुख क्षणभंगुर है। ब्रह्म शाश्वत है, इटरनल है। इसलिए ब्रह्म से जिसके स्रोत जुड़ गए, उसका आनंद शाश्वत है; लेकिन अकारण। ऐसा व्यक्ति कब हंसने लगेगा, पता नहीं। ऐसा व्यक्ति कब नाचने लगेगा, पता नहीं। ऐसा व्यक्ति कब आनंद के आंसुओं को बरसाने लगेगा, पता नहीं। ऐसे व्यक्ति के भीतर स्रोत हैं, जो अकारण फूटते रहते हैं। और ऐसा व्यक्ति जिसे पा रहा है भीतर से, उसे कभी भी खोता नहीं है।

दो तरह के आश्रय हैं अस्तित्व में। पर-आश्रय; दूसरे के आश्रय से मिला सुख। दूसरे के आश्रय से मिला हुआ सुख, दुख का ही दूसरा नाम है, दुख का ही चेहरा है। उघाड़ेंगे घूंघट और पाएंगे कि दुख आया। एक, स्व-आश्रित। उसे स्व-आश्रित कहें या आश्रयमुक्त कहें। पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी ठीक है; हालांकि स्व-आश्रित दुख होता नहीं। कहता हूं एंफेसिस के लिए, पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी बेहतर है। क्योंकि उघाड़ेंगे घूंघट और पाएंगे सुख।

इस स्व-आश्रित सुख को ही कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं। संसार-आश्रित जिसके सुख नहीं हैं, आनंद नहीं है; संसार-आश्रित झंझावातों पर जिसके चित्त की लहरें आंदोलित नहीं होतीं; जो संसार की बांसुरी पर नाचता नहीं--उस पुरुष को कर्म करते हुए कर्म का अभिमान नहीं आता है।

आएगा भी कैसे! कर्म का अभिमान कब आता है, खयाल है आपको? कर्म का अभिमान तब आता है, जब आप दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल हो जाते हैं। और कर्म का अभिमान तब आहत हो जाता है, पीड़ित हो जाता है, धूल-धूसरित हो जाता है, जब आप दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल नहीं हो पाते; निचोड़ते सुख हैं और दुख निचुड़ आता है।

कर्म का अभिमान सफलता का अभिमान है। सफलता अभिमान है। सफलता किस बात की? दूसरे से सुख निचोड़ लेने की। सारी सफलताएं दूसरों से सुख निचोड़ लेने की सफलताएं हैं। जब आप सफल हो जाते हैं, तब अभिमान भर जाता है; तब आप फूलकर कुप्पा हो जाते हैं; जैसे कि रबर के गुब्बारे में बहुत हवा भर दी गई हो। पर गुब्बारे को बेचारे को पता नहीं कि वह जो फूल रहा है, वह फूटने के रास्ते पर है। ज्यादा फूलेगा, तो फूटेगा।

लेकिन फूलते वक्त किसको पता होता है कि फूटने के रास्ते की यात्रा होती है! फूलते वक्त मन आनंद से भरता जाता है। मन होता है, और हवाएं भर जाएं, और फूल जाऊं; और सफलताएं मिल जाएं, और फूल जाऊं!

लेकिन हमें पता नहीं कि फूलना केवल फूटने का मार्ग है। सफलता अंततः विफलता का द्वार है। तो जो भी सफल होगा, विफल होगा। जो भी सुखी होगा, दुखी होगा। जो भी अभिमान को भरेगा, आज नहीं कल फूटेगा और पंक्चर होगा। और जब अभिमान पंक्चर होता है, जैसे नर्क टूट पड़ा सब ओर से! स्वभावतः, जब अभिमान भरता है, तो ऐसा लगता है, स्वर्ग बरस रहा है सब ओर से।

ऐसा पुरुष, कृष्ण कहते हैं, कर्म के अभिमान से नहीं भरता है। भर ही नहीं सकता; क्योंकि ऐसा पुरुष पर से असंबंधित हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है और थोड़ी सोच लेने जैसी।

अक्सर अभिमान को हम स्व से संबंधित समझते हैं, अभिमान सदा पर से संबंधित है। अभिमान को हम अक्सर स्वाभिमान तक कह देते हैं। हम उसे स्व से संबंधित समझते हैं कि अभिमान जो है, वह स्वयं की चीज है। अभिमान स्वयं की चीज नहीं है। अभिमान पर की है, पर से संबंधित चीज है। इसलिए अकेले में अभिमान को इकट्ठा करना मुश्किल है। अकेले में अभिमान नहीं हो सकता। अदर ओरिएंटेड है। दूसरा चाहिए।

इसलिए आपने देखा होगा, रास्ते पर अकेले जा रहे हों, तो एक तरह से जाते हैं। सुनसान रास्ता हो, तो एक तरह से चलते हैं। फिर कोई रास्ते पर निकल आया कि रीढ़ सीधी हो जाती है। कोई और आ गया रास्ते पर, तो अकड़ आ जाती है। दूसरे को देखा कि अकड़े! दूसरा मौजूद हुआ कि भीतर कुछ गड़बड़ हुई। दूसरा वहां आया कि इधर भीतर भी कोई और आया। वह दूसरे की मौजूदगी तत्काल भीतर मैं को पैदा कर देती है। और फिर अगर दूसरे ने हाथ जोड़ लिए, तो फिर अभिमान का गुब्बारा फूला! या दूसरा भी अकड़कर बिना हाथ जोड़े निकल गया, तो अभिमान का गुब्बारा सिकुड़ा। वह सब दूसरे पर निर्भर है। या दूसरा अगर ऐसा हुआ कि आपको ही हाथ जोड़ने पड़े, तो बड़ी पीड़ा है, बड़ी पीड़ा है!

यह जो अभिमान है, यह पराश्रित भाव है; इसका सुख भी, इसका दुख भी।

जो व्यक्ति स्वयं से संबंधित हो जाता है--स्वयं के मूल स्रोतों से, ब्रह्म से, अस्तित्व से--उसका अभिमान खड़ा नहीं होता फिर। अभिमान खो ही जाता है। जो स्वयं है, उसके पास अभिमान नहीं होता। और जो स्वयं नहीं है, सिर्फ दूसरों के खयालों का जोड़ है, और दूसरे क्या कहते हैं, पब्लिक ओपिनियन ही है जिसका जोड़, अखबार की कटिंग को इकट्ठा करके जिसने अपने को बनाया है--कि किस अखबार में क्या बात छपी है उसके बाबत, पड़ोसी क्या कहते हैं, गांव के लोग क्या कहते हैं, दूसरे क्या कहते हैं--दूसरों के ओपिनियन को इकट्ठा करके जो खड़ा है, वह आदमी अभिमान को बढ़ाए जाता है। बढ़ता है, तो रस आता है।

रस वैसा ही, जैसा खुजली को खुजलाने से आता है। और कोई रस नहीं है। खुजली खुजलाने का रस! बड़ा अच्छा लगता है, बड़ा मीठा लगता है। लेकिन उसे पता नहीं है कि वे सब नाखून जो मिठास ला रहे हैं, थोड़ी देर में लहू ले आएंगे। और वे नाखून जो मिठास ला रहे हैं, थोड़ी देर में ही पायजनस हो जाएंगे। उसे पता नहीं कि वे नाखून जो रस ला रहे हैं और मिठास दे रहे हैं, जल्दी ही सेप्टिक हो जाएंगे। उसे पता नहीं है; खुजला रहा है। जितना खुजलाता है, उतनी मिठास मालूम पड़ती है; उतनी खुजली बढ़ती है। खुजली बढ़ती है, तो खुजलाना पड़ता है। खुजली के भी सुख हैं।

अहंकार का सुख, अभिमान का सुख, खुजली का सुख है। बहुत बीमार, बहुत रुग्ण है, लेकिन है। अंततः पीड़ा है, लेकिन प्रारंभ में सुख का भाव है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष कर्म के अभिमान से नहीं भरता। भर नहीं सकता। ऐसे पुरुष के पास अभिमान नहीं बचता, जिसको भर सके। गुब्बारा ही खो जाता है, जिसमें कि अभिमान को भरा जा सके।

ऐसा पुरुष करते हुए भी अकर्ता होता। ऐसा पुरुष करते हुए भी न करने जैसा होता। ऐसा पुरुष सब करते हुए भी, करने के बाहर होता। ऐसे पुरुष के लिए कर्म का जगत अभिनय का जगत हो जाता। एक्शन का जगत, एक्टिंग का जगत हो जाता।

ऐसा पुरुष सब करता है और सांझ जब सोता है, तो ऐसे सो जाता है किए हुए को झाड़कर, जैसे दिनभर की धूल को वस्त्रों से झाड़कर सांझ सो जाता है। ऐसे किए हुए को झाड़कर सो जाता है। सुबह जब उठता है, तो फिर ताजा, फ्रेश। ताजा, कल के कर्मों के भार से बंधा हुआ नहीं; कल जो किया था, उसकी रेखाओं से दबा हुआ नहीं। कल जो हुआ; उसकी धूल से गंदा नहीं, ताजा, फिर ताजा।

असल में कल भी दूर है। हर क्षण ऐसा पुरुष, हर क्षण अतीत के बाहर हो जाता है। हर क्षण, गए हुए क्षण और गए हुए कर्म के बाहर हो जाता है। कुछ उस पर टिकता नहीं है; सब विदा हो जाता है। क्योंकि टिकाने और अटकाने वाला अहंकार नहीं है। अटकाने वाली चीज उसके ऊपर नहीं है, जहां कर्म अटकते हैं और कर्ता निर्मित होता है। ऐसा पुरुष करते हुए न करता हुआ है। ऐसा पुरुष न करते हुए भी करता हुआ है।

ऐसा पुरुष ठीक ऐसा है, जैसा कबीर ने कहा कि बहुत जतन से ओढ़ी चदरिया, बहुत जतन से ओढ़ी। जतन से! बड़ा प्यारा शब्द है जतन। बड़ी होशियारी से, बड़ी कुशलता से चादर ओढ़ी; और ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं।

कबीर ने मरते वक्त कहा है कि बहुत संभालकर ओढ़ी चादर, जीवन की चादर; और फिर ज्यों कि त्यों धरि दीन्हीं। जैसी मिली थी, वैसी ही रख दी। जरा भी रेखा नहीं छूटी। पूरी जिंदगी के अनुभव की, कर्म की कोई रेखा, कोई धब्बा, कोई दाग चादर पर नहीं छूटा। ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।

ऐसा पुरुष सब करते हुए भी न करता है। वह चादर को ऐसा का ऐसा ही परमात्मा को सौंप देता है कि संभालो! जैसी दी थी, वैसी ही वापस लौटाता हूं।

यह जो कर्म के बीच अकर्म की स्थिति है, बड़ी जतन की है--बड़े होश की, बड़ी अवेयरनेस की, बड़े साक्षी-भाव की। जहां सध जाती है, वहां जीवन मिल जाता है। जहां नहीं सध पाती, वहां जीवन के नाम पर हम सिर्फ धोखे में होते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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