तपस्वी वाल्मीकिजी ने तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारदजी से पूछा- 'मुने!इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ प्रतिज्ञ कौन है? सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन सुन्दर पुरुष कौन है? मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कान्तिमान् और किसी की भी निन्दा नहीं करनेवाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित होने पर किस से देवता भी डरते हैं? महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूँ. इसके लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं।'
महर्षि वाल्मीकि के इस वचन को सुन कर तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले नारदजी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नता पूर्वक बोले-'मुने ! आपने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उन से युक्त पुरुष को मैं विचार करके कहता हूँ, आप सुनें ,'इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम-नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रु संहारक हैं। उनके कंधे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शङ्ख के समान और ठोड़ी मांसल पुष्ट है। उनकी छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गले के नीचे की हड्डी हँसली मांस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करने वाले हैं। भुजाएँ घुटने तक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है। उनका शरीर अधिक ऊँचा या नाटा न होकर मध्यम और सुडौल है, देह का रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनका वक्षःस्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं।धर्म के ज्ञाता, सत्यप्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित-साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने वाले हैं। प्रजापति के समान पालक, श्रीसम्पन्न, वैरिविध्वंसक और जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं। स्वधर्म और स्वजनोंके पालक, वेद-वेदांगों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं। वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरणशक्ति से युक्त और प्रतिभासम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदय वाले वे श्रीरामचन्द्रजी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों में प्रिय हैं। जैसे नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सदा राम से साधु पुरुष मिलते रहते हैं। वे आर्य एवं सबमें समान भाव रखने वाले हैं, उनका दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है। सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त वे श्रीरामचन्द्रजी अपनी माता कौसल्या के आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं। वे विष्णु भगवान के समान बलवान् हैं। उनका दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में कालाग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्मराज के समान हैं। इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा।'
तदनन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारियों देख कर रानी कैकेयी ने, जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था, राजा से यह वर माँगा कि राम का निर्वासन (बनवास) और भरत का राज्याभिषेक हो। राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बन्धन में बँध कर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया। कैकेयी का प्रिय करने के लिये पिता की आज्ञा के अनुसार उनकी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले । तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मणजी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्वका परिचय देते हुए नेहवश वन को जाने वाले बन्धुवर राम का अनुसरण किया।और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देवमाया की भाँति सुन्दरी, समस्त शुभ लक्षणों से विभूषित, स्त्रियों में उत्तम, राम के प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा सदा ही पति का हित चाहनेवाली थी, रामचन्द्रजी के पीछे चली; जैसे चन्द्रमा के पीछे रोहिणी चलती है। उस समय पिता दशरथ ने अपना सारथि भेजकर और पुरवासी मनुष्यों ने स्वयं साथ जाकर दूर तक उनका अनुसरण किया। फिर श्रृंगवेरपुर में गंगा-तट पर अपने प्रिय निषाद राज गुह के पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीरामचन्द्र जी ने सारथि को अयोध्याके लिये बिदा कर दिया। निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीता के साथ राम-ये चारों एक वन से दूसरे वन में गये। मार्ग में बहुत जलोंवाली अनेकों नदियों को पार करके भरद्वाज के आश्रमपर पहुँचे और गुह को वहीं छोड़ भरद्वाज मुनि की आज्ञा से चित्रकूट पर्वत पर गये। वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्व के समान वन में नाना प्रकार की लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे। राम के चित्रकूट चले जाने पर पुत्रशोक से पीडित राजा दशरथ उस समय पुत्र के लिये उसका नाम ले-लेकर विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए । उन के स्वर्गगमन के पश्चात् वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्यसंचालन के लिये नियुक्त किये जाने पर भी महाबलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न करके पूज्य राम को प्रसन्न करनेके लिये वन को ही प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर सद्भावनायुक्त भरतजी ने अपने बड़े भाई सत्यपराक्रमी महात्मा राम से याचना की और यों कहा - धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों । परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली राम ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और उन भरताग्रज ने राज्य के लिये चिह्न रूप में अपनी खड़ाऊँ भरत को देकर उन्हें बार-बार आग्रह करके लौटा दिया।
भाग 2
अपनी अपूर्ण इच्छा को लेकर ही भरत ने राम के चरणों का स्पर्श किया और राम के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राम में राज्य करने लगे । भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् राम ने वहाँ पर पुनः नागरिक जनों का आना-जाना देखकर उनसे बचनेके लिये एकाग्रभाव से दण्डकारण्य में प्रवेश किया। उस महान् वन में पहुँचने पर कमललोचन राम ने विराध नामक राक्षस को मार कर शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्य के भ्राता का दर्शन किया।फिर अगस्त्य मुनि के कहने से उन्होंने ऐन्द्र धनुष, एक खंग और दो तूणीर, जिनमें बाण कभी नहीं घटते थे,प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किये। एक दिन वन में वनचरों के साथ रहने वाले श्रीराम के पास असुर तथा राक्षसों के वध के लिये निवेदन करने को वहाँ के सभी ऋषि आये ।उस समय वन में श्रीराम ने दण्डकारण्यवासी अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों को मारने का वचन दिया और संग्राम में उनके वध की प्रतिज्ञा की।वहाँ ही रहते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप बनाने वाली जनस्थाननिवासिनी शूर्पणखा नाम की राक्षसी को लक्ष्मण के द्वारा उसकी नाक कटाकर कुरूप कर दिया ।तब शूर्पणखा के कहने से चढ़ाई करने वाले सभी राक्षसों को और खर, दूषण, त्रिशिरा तथा उन के पृष्ठपोषक असुरों को राम ने युद्ध में मार डाला ।उस वन में निवास करते हुए उन्होंने जनस्थान वासी चौदह हजार राक्षसों का वध किया ।तदनन्तर अपने कुटुम्ब का वध सुनकर रावण नाम का राक्षस क्रोध से क्रोधित हो उठा और उसने मारीच राक्षस से सहायता माँगी ।यद्यपि मारीच ने यह कहकर कि 'रावण! उस बलवान् राम के साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है।' रावण को अनेकों बार मना कियाः परंतु काल की प्रेरणा से रावण ने मारीच के वाक्यों को टाल दिया और उसके साथ ही राम के आश्रम पर गया।
मायावी मारीच के द्वारा उस ने दोनों राजकुमारों को आश्रम से दूर हटा दिया और स्वयं राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया, जाते समय मार्ग में विध्न डालने के कारण उसने जटायु नामक गीध का वध किया। तत्पश्चात् जटायु को आहत देखकर और उसी के मुख से सीता का हरण सुनकर रामचन्द्रजी शोक से पीड़ित होकर विलाप करने लगे, उस समय उनकी सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं । फिर उसी शोक में पड़े हुए उन्होंने जटायु गीध का अग्निसंस्कार किया और वन में सीता को ढूँढ़ते हुए कवन्ध नामक राक्षस को देखा, जो शरीर से विकृत तथा भयंकर दीखने वाला था। महाबाहु राम ने उसे मारकर उसका भी दाह किया, अतः वह स्वर्ग को चला गया। जाते समय उसने राम से धर्मचारिणी शबरी का पता बतलाया और कहा- 'रघुनन्दन ! आप धर्मपरायणा संन्यासिनी शबरी के आश्रम पर जाइये ।
शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम शबरी के यहाँ गये, उसने इनका भलीभाँति पूजन किया। फिर वे पम्पासर के तटपर हनुमान् नामक वानर से मिले और उन्हीं के कहने से सुग्रीव से भी मेल किया।तदनन्तर महाबलवान् राम ने आदि से ही लेकर जो कुछ हुआ था वह और विशेषतः सीता का वृत्तान्त सुग्रीव से कह सुनाया । वानर सुग्रीव ने राम की सारी बातें सुन कर उनके साथ प्रेमपूर्वक अग्नि को साक्षी बनाकर मित्रता की। उसके बाद वानरराज सुग्रीव ने नेहवश वाली के साथ वैर होने की सारी बातें राम से दुःखी होकर बतलायीं। उस समय राम ने वाली को मारने की प्रतिज्ञा की, तव वानर सुग्रीव ने वहाँ वाली के बल का वर्णन किया; क्योंकि सुग्रीव को राम के बल के विषय में बराबर शंका बनी रहती थी। राम की प्रतीति के लिये उन्होंने दुन्दुभि दैत्य का महान् पर्वत के समान विशाल शरीर दिखलाया । महाबली महाबाहु श्रीराम ने तनिक मुसकरा कर उस अस्थि समूह को देखा और पैर के अँगूठे से उसे दस योजन दूर फेक दिया।
फिर एक ही महान् बाण से उन्होंने अपना विश्वास दिलाते हुए सात ताल वृक्षों को और पर्वत तथा रसातल को बींध डाला। तदनन्तर राम के इस कार्य से महाकपि सुग्रीव मन-ही-मन प्रसन्न हुए और उन्हें राम पर विश्वास हो गया। फिर वे उनके साथ किष्किन्धा गुहा में गये ।वहाँ पर सुवर्ण के समान पिंगल वर्ण वाले वीरवर सुग्रीव ने गर्जना की, उस महानाद को सुनकर वानर राज वाली अपनी पत्नी तारा को आश्वासन देकर तत्काल घर से बाहर निकला और सुग्रीव से भिड़ गया। वहाँ राम ने वाली को एक ही बाण से मार गिराया ।
सुग्रीव के कथनानुसार उस संग्राम में वाली को मारकर उसके राज्यपर राम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया। तब उन वानर राज ने भी सभी वानरों को बुलाकर जानकी का पता लगाने के लिये उन्हें चारों दिशाओं में भेजा।तत्पश्चात् सम्पाति नामक गीध के कहने से बलवान् हनुमानजी सौ योजन विस्तार वाले क्षार समुद्र को कूदकर लाँघ गये ।वहाँ रावण पालित लङ्कापुरी में पहुँचकर उन्होंने अशोक वाटिका में सीता को चिन्तामग्न देखा। तब उन विदेहनन्दिनी को अपनी पहचान देकर राम का संदेश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिका का द्वार तोड़ डाला । फिर पाँच सेनापतियों और सात मन्त्रिकुमारों की हत्या कर वीर अक्षकुमार का भी कचूमर निकाला, इसके बाद वे जान-बूझकर पकड़े गये ।
ब्रह्माजी के वरदान से अपने को ब्रह्म पाश से छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमानजी ने अपने को बाँधनेवाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया । तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीता के स्थान के अतिरिक्त समस्त लङ्का को जलाकर वे महाकपि हनुमानजी राम को प्रिय संदेश सुनाने के लिये लंका से लौट आये ।अपरिमित बुद्धिशाली हनुमानजी ने वहाँ जा महात्मा राम की प्रदक्षिणा करके यों सत्य निवेदन किया- मैंने सीताजी का दर्शन किया है । इसके अनन्तर सुग्रीव के साथ भगवान् राम ने महासागर के तटपर जाकर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया। तब नदीपति समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से राम ने नल से पुल निर्माण कराया। उसी पुल से लड्ङ्कापुरी में जाकर रावण को मारा, फिर सीता के मिलने पर राम को बड़ी लज्जा हुई।तब भरी सभा में सीता के प्रति वे मर्मभेदी वचन कहने लगे। उनकी इस बात को न सह सकने के कारण साध्वी सीता अग्नि में प्रवेश कर गयीं । इसके बाद अग्नि के कहने से उन्होंने सीता को निष्कलङ्क माना। महात्मा रामचन्द्रजी के इस महान् कर्म से देवता और ऋषियोंसहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गया।
फिर सभी देवताओं से पूजित होकर राम बहुत ही प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषण को लङ्का के राज्य पर अभिषिक्त करके कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होने के कारण उनके आनन्द का ठिकाना न रहा। यह सब हो जाने पर राम देवताओं से वर पाकर और मरे हुए वानरों को जीवन दिलाकर अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए। भरद्वाज मुनि के आश्रम पर पहुँचकर सबकों आराम देनेवाले सत्यपराक्रमी राम ने भरत के पास हनुमान को भेजा ।
फिर सुग्रीव के साथ कथा-वार्ता कहते हुए पुष्पकारूढ़ हो वे नन्दिग्रामको गये । निष्पाप रामचन्द्रजी ने नन्दिग्राम में अपनी जटा कटाकर भाइयों के साथ, सीता को पाने के अनन्तर, पुनः अपना राज्य प्राप्त किया है।अब राम के राज्य में लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक तथा रोग-व्याधिसे मुक्त रहेंगे, उन्हें दुर्भिक्ष का भय न होगा। कोई कहीं भी अपने पुत्र की मृत्यु नहीं देखेंगे, स्त्रियाँ विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी। आग लगने का किंचित् भी भय न होगा, कोई प्राणी जल में नहीं डूबेंगे, बात और ज्वर का भय थोड़ा भी नहीं रहेगा। क्षुधा तथा चोरी का डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और राष्ट्र धन-धान्य सम्पन्न होंगे। सत्ययुग की भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे।
महायशस्वी राम बहुत-से सुवर्णों की दक्षिणा वाले सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे, उनमें विधिपूर्वक विद्वानों को दस हजार करोड़ (एक खरब) गौ और ब्राह्मणों को अपरिमित धन देंगे तथा सौगुने राजवंशों की स्थापना करेंगे। संसार में चारों वर्णोंको वे अपने-अपने धर्ममें नियुक्त रखेंगे। फिर ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करने के अनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने परमधाम को पधारेंगे ।
'वेदोंके समान पवित्र, पापनाशक और पुण्यमय इस रामचरितको जो पढ़ेगा, वह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा।आयु बढ़ानेवाली इस रामायण-कथा को पढ़नेवाला मनुष्य मृत्यु के अनन्तर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजनवर्ग के साथ ही स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा । इसे ब्राह्मण पढ़ें तो विद्वान् हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वीका राज्य प्राप्त करे, वैश्य को व्यापार में लाभ हो और शूद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे ।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पहला सर्ग पूरा हुआ।