जब तक काम के निसर्ग को परिपूर्ण आत्मा से स्वीकृति नहीं मिल जाती है, तब तक कोई किसी को प्रेम कर ही नहीं सकता। काम दिव्य है, डिवाइन है।
सेक्स की शक्ति परमात्मा की शक्ति है, ईश्वर की शक्ति है।
इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्यपूर्ण शक्ति है, वहीं तो सबसे ज्यादा मिस्टीरियस फोर्स है। उससे दुश्मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि कभी आपके जीवन में प्रेम की वर्षा हो जाये तो उससे दुश्मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्वीकार करें, उसकी धन्यता को स्वीकार करें। और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता हुआ चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा।
जब कोई अपनी पत्नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। जब कोई पत्नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्मा के पास जा रहा हो। क्योंकि जब दो प्रेमी काम से निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्मा के मंदिर के निकट से गुजर रह होते है। वहीं परमात्मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्मा की सृजन-शक्ति काम कर रही है।
मनुष्य को समाधि का, ध्यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है।
जिन्होंने सोचा, जिन्होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और मैथुन पर चिंतन किया और ध्यान किया, उन्हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।
तब उन्हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्यवस्थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्यान और सामायिक और मेडिटेशन और प्रेयर (प्रार्थना) इनकी सारी व्यवस्थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। और फिर मनुष्य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्य हो सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्योंकि शक्ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्यान सतत हो सकता है।
एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्होंने कहा कि विषयानंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्होंने जरूर सत्य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। उन्होंने निश्चित ही सत्य कहां है।
अगर चाहते है कि पता चले कि प्रेम क्या है—तो काम की पवित्रता, दिव्यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्वीकार होता है, उतना ही हम बँधते है।
जितना स्वीकार होता है उतने हम मुक्त होते है।
अगर परिपूर्ण स्वीकार है, टोटल एक्सेप्टेबिलिटी है जीवन की, जो निसर्ग है उसकी तो आप पाएंगे.....वह परिपूर्ण स्वीकृति आस्तिकता व्यक्ति को मुक्त करती है।
नास्तिक जीवन के निसर्ग को अस्वीकार करते है, निषेध करते है। यह बुरा है, पाप है, यह विष है, यह छोड़ो , वह छोड़ो। जो छोड़ने की बातें कर रहे है, वह ही नास्तिक है।
जीवन जैसा है, उसे स्वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्वीकृति मनुष्य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन उसके दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। काम अगर कोयला था तो एक दिन हीरा भी प्रकट होता है प्रेम का।
ओशो रजनीश
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