गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 1

 


सत्य एक--जानने वाले अनेक


श्री भगवानुवाच 

 इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। 1।।


श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, मैंने इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु के प्रति कहा।


सत्य न तो नया है, न पुराना। जो नया है, वह पुराना हो जाता है। जो पुराना है, वह कभी नया था। जो नए से पुराना होता है, वह जन्म से मृत्यु की ओर जाता है। सत्य का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। इसलिए सत्य न नया हो सकता है, न पुराना हो सकता है। सत्य सनातन है।


सनातन का अर्थ, सत्य समय के बाहर है, बियांड टाइम है। वस्तुतः समय के भीतर जो भी है, वह नया भी होगा और पुराना भी होगा। समय के भीतर जो है, वह पैदा भी होगा और मरेगा भी; जवान भी होगा और बूढ़ा भी होगा। कभी स्वस्थ भी होगा और कभी अस्वस्थ भी होगा। समय के भीतर जो है, वह परिवर्तनमय होगा; समय के बाहर जो है, वही अपरिवर्तित हो सकता है।

कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत थोड़ी-सी बात में बहुत-सी बात कही है। एक तो उन्होंने यह कहा कि यह जो मैं तुझसे कहता हूं अर्जुन, वही मैंने सूर्य से भी कहा था, समय के प्रारंभ में, आदि में। इसमें दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

समय के प्रारंभ का क्या अर्थ हो सकता है? सच तो यह है कि जहां भी प्रारंभ होगा, वहां समय पहले से ही मौजूद हो जाएगा। सब प्रारंभ समय के भीतर होते हैं, समय के बाहर कोई प्रारंभ नहीं हो सकता, क्योंकि सब अंत समय के भीतर होते हैं। कृष्ण जब कहते हैं, समय के प्रारंभ में, तो उसका अर्थ ही यही होता है, समय के बाहर। समय के भीतर अगर कोई प्रारंभ होगा, तो वह शाश्वत सत्य की घोषणा नहीं कर सकता है।

जब समय नहीं था, तब मैंने सूर्य को भी यही कहा है। इस बात को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि सूर्य को भी यही कहा है, इस मेटाफर का, इस प्रतीक का क्या अर्थ हो सकता है?

जो भी अध्यात्म की गहराइयों में उतरे हैं, उन सबका एक सुनिश्चित अनुभव है और वह यह कि अध्यात्म की आखिरी गहराई में प्रकाश ही शेष रह जाता है और सब खो जाता है। जब व्यक्ति अध्यात्म में शून्य होता है, अहंकार विलीन होता है, तो प्रकाश ही रह जाता है, और सब खो जाता है। व्यक्ति जब अध्यात्म की गहराई में उतरता है, तो वह वहीं पहुंच जाता है, जब समय के पहले सब कुछ था। गहरे अनुभव, प्रथम और अंतिम, समान होते हैं।

यही मैंने सूर्य को कहा था, कृष्ण जब यह कहते हैं, तो वे यह कहते हैं, यही मैंने प्रकाश की पहली घटना को कहा था।

इस जगत के प्रारंभ की पहली घटना प्रकाश है और इस जगत के अंत की अंतिम घटना भी प्रकाश है। व्यक्ति के आध्यात्मिक जन्म का भी प्रारंभ प्रकाश है और आध्यात्मिक समारोप भी प्रकाश है।

कुरान कहता है, परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। बाइबिल कहती है, परमात्मा प्रकाश ही है। कृष्ण यहां प्रकाश को सूर्य कहते हैं। सूर्य को कहा था सबसे पहले, क्योंकि सबसे पहले प्रकाश था; और फिर जो भी जन्मा है, वह प्रकाश से ही जन्मा है। फिर प्रकाश के पुत्र को कहा था, फिर उसके पुत्र को कहा था।

इसमें यह भी समझ लेने जैसा है कि कृष्ण कहते हैं, मैंने। निश्चित ही, यह मैं, वह जो कृष्ण की देह थी अर्जुन के सामने खड़ी, उसके संबंध में नहीं हो सकता। वह देह तो अभी कुछ वर्ष पहले पैदा हुई थी और कुछ वर्ष बाद विदा हो जाएगी। कृष्ण जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह कोई और ही मैं होना चाहिए।


कृष्ण सूर्य की--जगत की पहली घटना की--फिर मनु की, इक्ष्वाकु की, इनकी बात कर रहे हैं। उन्हें हुए हजारों वर्ष हुए। कृष्ण तो अभी हुए हैं। अभी अर्जुन के सामने खड़े हैं। जिस कृष्ण की यह बात है, वह किसी और कृष्ण की बात है।

एक घड़ी है जीवन की ऐसी, जब व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ देता, तो उसके भीतर से परमात्मा ही बोलना शुरू हो जाता है। जैसे ही मैं की आवाज बंद होती है, वैसे ही परमात्मा की आवाज शुरू हो जाती है। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही परमात्मा ही शेष रह जाता है।

यहां जब कृष्ण कहते हैं, मैंने ही कहा था सूर्य से, तो यहां वे व्यक्ति की तरह नहीं बोलते, समष्टि की भांति बोलते हैं। और कृष्ण के व्यक्तित्व में इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि बहुत क्षणों में वे अर्जुन के मित्र की भांति बोलते हैं, जो कि समय के भीतर घटी हुई एक घटना है। और बहुत क्षणों में वे परमात्मा की तरह बोलते हैं, जो समय के बाहर घटी घटना है।

कृष्ण पूरे समय दो तलों पर, दो डायमेंशंस में जी रहे हैं। इसलिए कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के भीतर हैं, और कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के बाहर हैं। जो वक्तव्य समय के बाहर हैं, वहां कृष्ण सीधे परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। और जो वक्तव्य समय के भीतर हैं, वहां वे अर्जुन के सारथी की तरह बोल रहे हैं। इसलिए जब वे अर्जुन से कहते हैं, हे महाबाहो! तब वे अर्जुन के मित्र की तरह बोल रहे हैं। लेकिन जब वे अर्जुन से कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज--सब छोड़, तू मेरी शरण में आ--तब वे अर्जुन के सारथी की तरह नहीं बोल रहे हैं।

इसलिए गीता के वचन दोहरे तलों पर हैं। और कब बीच में परमात्मा बोलने लगता है, इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है, अन्यथा समझना मुश्किल हो जाता है।

जब कृष्ण कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ जा, तब इस मेरी शरण से कृष्ण का कोई भी संबंध नहीं है। तब इस मेरी शरण से परमात्मा की शरण की ही बात है।

इस सूत्र में जहां कृष्ण कह रहे हैं कि यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी--मैंने। इस मैं का संबंध जीवन की परम ऊर्जा, परम शक्ति से है। और यही बात! इसे भी समझ लेना जरूरी है।

सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता। बोलने वाले बदल जाते हैं, सुनने वाले बदल जाते हैं; बोलने की भाषा बदल जाती है; बोलने के रूप बदल जाते हैं, आकार बदल जाते हैं, सत्य नहीं बदल जाता। अनेक शब्दों में, अनेक बोलने वालों ने, अनेक सुनने वालों से वही कहा है।


मनुष्य जाति के इतिहास में इससे बड़ी दुर्घटना पैदा हुई है। इस्लाम या ईसाइयत या हिंदू या बौद्ध या जैन, ऐसा मालूम पड़ते हैं कि विरोधी हैं,  शत्रु हैं। ऐसा प्रतीत होता है, इन सबके सत्य अलग-अलग हैं। इन सबके युग अलग-अलग हैं, इन सबके बोलने वाले अलग-अलग हैं, इन सबके सुनने वाले अलग-अलग हैं, इनकी भाषा अलग-अलग है; लेकिन सत्य जरा भी अलग नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति वही है, जो इतने विपरीत शब्दों में कहे गए सत्य की एकता को पहचान पाता है; अन्यथा जो व्यक्ति विरोध देखता है, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है।

तो कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि यही सत्य, ठीक यही बात पहले भी कही गई है। यहां एक बात और भी खयाल में ले लेनी जरूरी है।

कृष्ण ओरिजिनल होने का, मौलिक होने का दावा नहीं कर रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह मैं ही पहली बार कह रहा हूं; यह नहीं कह रहे हैं कि मैंने ही कुछ खोज लिया है। वे यह भी नहीं कह रहे हैं कि अर्जुन, तू सौभाग्यशाली है, क्योंकि सत्य को तू ही पहली बार सुन रहा है। न तो बोलने वाला मौलिक है, न सुनने वाला मौलिक है; न जो बात कही जा रही है, वह मौलिक है। इसका यह मतलब नहीं है कि पुरानी है।

अंग्रेजी में जो शब्द है ओरिजिनल और हिंदी में भी जो शब्द है मौलिक, उसका मतलब भी नया नहीं होता। अगर ठीक से समझें, तो ओरिजिनल का मतलब होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का भी अर्थ होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का अर्थ भी नया नहीं होता। ओरिजिनल का अर्थ भी नया नहीं होता।

अगर इस अर्थों में हम समझें मौलिक को, तो कृष्ण बड़ी मौलिक बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, समय के मूल में यही बात मैंने सूर्य से भी कही थी; वही सूर्य ने अपने पुत्र को कही थी; वही सूर्य के पुत्र ने अपने पुत्र को कही थी। यह बात मौलिक है। मौलिक अर्थात मूल से संबंधित, नई नहीं। 

लेकिन आज के युग में मौलिक का कुछ और ही अर्थ हो गया है। मौलिक का अर्थ है, कोई आदमी कोई नई बात कह रहा है। मूल की बात कह रहा है। नए अर्थों में कृष्ण की बात नई नहीं है; मूल के अर्थों में मौलिक है, ओरिजिनल है। वह जो सभी चीजों का मूल है, सभी अस्तित्व का, वहीं से इस बात का भी जन्म हुआ है।

मौलिक का जो आग्रह है नए के अर्थों में, अहंकार का आग्रह  है। जब भी कोई आदमी कहता है, यह मैं ही कह रहा हूं पहली बार, तो पागलपन की बात कह रहा है।

लेकिन ऐसे पागलपन के पैदा होने का कारण है। इस बार वसंत आएगा, फूल खिलेंगे। उन फूलों को कुछ भी पता नहीं होगा कि वसंत सदा ही आता रहा है। उन फूलों का पुराने फूलों से कोई परिचय भी तो नहीं होगा; उन फूलों को पुराने फूल भी नहीं मिलेंगे। वे फूल अगर खिलकर घोषणा करें कि हम पहली बार ही खिल रहे हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है; स्वाभाविक है। लेकिन सभी स्वाभाविक, सत्य नहीं होता। स्वाभाविक भूलें भी होती हैं। यह स्वाभाविक भूल है, नेचरल इरर है।

जब कोई युवा पहली दफा प्रेम में पड़ता है या कोई युवती पहली बार प्रेम में पड़ती है, तो ऐसा लगता है, शायद ऐसा प्रेम पृथ्वी पर पहली बार ही घटित हो रहा है। प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं से कहते हैं कि चांदत्तारों ने ऐसा प्रेम कभी नहीं देखा। और ऐसा नहीं कि वे झूठ कहते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे धोखा देते हैं।  बिलकुल स्वाभाविक भूल करते हैं। उन्हें पता भी तो नहीं कि इसी तरह यही बात अरबों-खरबों बार न मालूम कितने लोगों ने, न मालूम कितने लोगों से कही है।

हर प्रेमी को ऐसा ही लगता है कि उसका प्रेम मौलिक है। और हर प्रेमी को ऐसा लगता है, ऐसी घटना न कभी पहले घटी और न कभी घटेगी। और उसका लगना बिलकुल आथेंटिक है, प्रामाणिक है। उसे बिलकुल ही लगता है; उसके लगने में कहीं भी कोई धोखा नहीं है। फिर भी बात गलत है।

सत्य का अनुभव भी जब व्यक्ति को होता है, तो ऐसा ही लगता है कि शायद इस सत्य को और किसी ने कभी नहीं जाना। ऐसा ही लगता है कि जो मुझे प्रतीत हुआ है, वह मुझे ही प्रतीत हुआ है। यह स्वाभाविक भूल है।

कृष्ण इस स्वाभाविक भूल में नहीं हैं।

ध्यान रहे, की गई भूलों के ऊपर उठना बहुत आसान है; हो गई भूलों के ऊपर उठना बहुत कठिन है। जानकर की गई भूल बहुत गहरी नहीं होती। जानने वाले को, करने वाले को पता ही होता है। जो भूलें सहज घटित होती हैं, बहुत गहरी होती हैं।


कृष्ण कह रहे हैं, यही बात--नई नहीं; पुरानी नहीं-- अनंत-अनंत बार अनंत-अनंत ढंगों से अनंत-अनंत रूपों में कही गई है।

सत्य के संबंध में इतना निराग्रह होना अति कठिन है। इतना गैर-दावेदार होना, यह दावा छोड़ना है।

ध्यान रहे, हम सब को सत्य से कम मतलब होता है, मेरे सत्य से ज्यादा मतलब होता है। पृथ्वी पर चारों ओर चौबीस घंटे इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य का कोई भी आधार नहीं होता, मेरे सत्य का आधार होता है। अगर मैं आपसे विवाद में पडूं, तो इसलिए विवाद में नहीं पड़ता कि सत्य क्या है, इसलिए विवाद में पड़ता हूं कि मेरा सत्य ही सत्य है और तुम्हारा सत्य सत्य नहीं है।

समस्त विवाद मैं और तू के विवाद हैं, सत्य का कोई विवाद नहीं है। जहां भी विवाद है, गहरे में मैं और तू आधार में होते हैं। इससे बहुत प्रयोजन नहीं होता है कि सत्य क्या है? इससे ही प्रयोजन होता है कि मेरा जो है, वह सत्य है। असल में सत्य के पीछे हम कोई भी खड़े नहीं होना चाहते, क्योंकि सत्य के पीछे जो खड़ा होगा, वह मिट जाएगा। हम सब सत्य को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, सत्य जब हमारे पीछे खड़ा होता है, तो झूठ हो जाता है। हमारे पीछे सत्य खड़ा ही नहीं हो सकता, सिर्फ झूठ ही खड़ा हो सकता है। सत्य के तो सदा ही हमें ही पीछे खड़ा होना पड़ता है। सत्य हमारी छाया नहीं बन सकता, हमको ही सत्य की छाया बनना पड़ता है। लेकिन जब विवाद होते हैं, तो ध्यान से सुनेंगे तो पता चलेगा, जोर इस बात पर है कि जो मैं कहता हूं, वह सत्य है। जोर इस बात पर नहीं है कि सत्य जो है, वही मैं कहता हूं।

कृष्ण का जोर देखने लायक है। वे कहते हैं, जो सत्य है, वही मैं तुझसे कह रहा हूं। मैं जो कहता हूं, वह सत्य है। ऐसा उनका आग्रह नहीं। और इसलिए मुझसे पहले भी कही गई है यही बात।


ऐसी भ्रांति हो सकती है कि ये सारे लोग पुरानी लीक को पीट रहे हैं। नहीं, पर वे यह नहीं कह रहे कि सत्य पुराना है। क्योंकि ध्यान रहे, जो चीज भी पुरानी हो सकती है, उसके नए होने का भी दावा किया जा सकता है। नए होने का दावा किया ही उसका जा सकता है, जो पुरानी हो सकती है, जिसकी पासिबिलिटी पुरानी होने की है। ये दावा यह कर रहे हैं कि सत्य पुराना और नया नहीं है; सत्य सत्य है। हम नए और पुराने होते हैं, यह दूसरी बात है; लेकिन सत्य में इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है।

यह सूर्य निकला, यह प्रकाश है। हम नए हैं। हम नहीं थे, तब भी सूर्य था; हम नहीं होंगे, तब भी सूर्य होगा। यह सूर्य नया और पुराना नहीं है। हम नए और पुराने हो जाते हैं। हम आते हैं और चले जाते हैं।

लेकिन हमारी दृष्टि सदा ही यही होती है कि हम नहीं जाते और सब चीजें नई और पुरानी होती रहती हैं। हम कहते हैं, रोज समय बीत रहा है। सचाई उलटी है, समय नहीं बीतता, सिर्फ हम बीतते हैं। हम आते हैं, जाते हैं; होते हैं, नहीं हो जाते हैं। समय अपनी जगह है। समय नहीं बीतता। लेकिन लगता है हमें कि समय बीत रहा है। इसलिए हमने घड़ियां बनाई हैं, जो बताती हैं कि समय बीत रहा है। सौभाग्य होगा वह दिन, जिस दिन हम घड़ियां बना लेंगे, जो हमारी कलाइयों में बंधी हुई बताएंगी कि हम बीत रहे हैं।

वस्तुतः हम बीतते हैं, समय नहीं बीतता है। समय अपनी जगह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा। हम समय को न चुका पाएंगे, समय हमें चुका देगा, समय हमें रिता देगा। समय अपनी जगह है, हम आते और जाते हैं। समय खड़ा है; हम दौड़ते हैं। दौड़-दौड़कर थकते हैं, गिरते हैं, समाप्त हो जाते हैं; सत्य वहीं है।

जिस दिन, कृष्ण कहते हैं, मैंने सूर्य को कहा था; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन सूर्य ने अपने बेटे मनु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। जिस दिन मनु ने अपने बेटे इक्ष्वाकु को कहा; सत्य जहां था, वहीं है। और कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, तब भी सत्य वहीं है। और अगर मैं आपसे कहूं, तो भी सत्य वहीं है। कल हम भी न होंगे, फिर कोई कहेगा, और सत्य वहीं होगा। हम आएंगे और जाएंगे, बदलेंगे, समाप्त होंगे, नए होंगे, विदा होंगे--सत्य, सत्य अपनी जगह है। इस सूत्र में इन सब बातों पर ध्यान दे सकेंगे, तो आगे की बात समझनी आसान है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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