मंगलवार, 28 मार्च 2023

कैकेयी की माता

 केकय नरेश अश्वपति ब्रह्मज्ञानी के रूप में विख्यात थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इस संबंध में उनसे राय लेने आते रहते थे। कहते तो यहाँ तक हैं कि उन्हें पशु-पक्षियों की बोलियाँ भी आती थीं। एक कथा प्रचलित हैं कि एक बार अश्वपति महारानी के साथ बगीचे में टहल रहे थे। बगीचे में पक्षियों की चहचहाइट एक स्वाभाविक ध्वनि होती है। अचानक महाराज हँस पड़े महारानी असमंजस से पूछ बैठीं -

"महाराज मैंने कोई हास्यास्पद बात तो नहीं की जो आप हँस रहे हैं।”

महाराज ने हाथ से उन्हें शान्त रहने का संकेत किया और बड़े गौर से कहीं कान लगाकर सुनने लगे| महारानी को समझ नहीं आ रहा था कि महाराज क्या सुनने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें लगा कि महाराज उनकी उपेक्षा करने के लिये कुछ सुनने का अभिनय मात्र कर रहे हैं। पक्षियों के कलरव के अतिरिक्त वहाँ और कोई ध्वनि थी ही नहीं। इसी बीच महाराज फिर हँसने लगे फिर महारानी से संबोधित होते हुये बोले - 

"हाँ महारानी जी ! अब बताइये क्या कह रही थीं?"

"मैं क्या कह रही थी उसे तो छोड़िये। मेरी बातें तो आपको सुनने योग्य लगती ही नहीं।"

"नहीं।" महारानी भी सामान्य स्त्रियों की भाँति ही व्यवहार करने लगी थीं।

“अरे नहीं! किसने कह दिया कि मुझे आपकी बातों में रस नहीं मिलता।”

"रस मिलता होता तो मेरी बात की उपेक्षा कर इस प्रकार शून्य को सुनने का अभिनय नहीं करता "

"महारानी जी मैं शून्य को नहीं सुन रहा था। "

"तो फिर क्या सुन रहे थे? और हँस क्यों रहे थे? मेरी बात का उपहास कर रहे थे न!"

"नहीं महारानी जी! "

"नहीं तो फिर बताते क्यों नहीं कि क्यों हँस रहे थे?"

" तो उधर वृक्ष पर बैठा एक पक्षी-युगल परस्पर कुछ मनोरंजक वार्ता कर रहा था, उसी को सुनने लगा था। उसी को सुनकर हँसी भी आ गई थी।"

 "महाराज मुझे क्या आप अबोध शिशु समझते हैं जो आपके इन तथ्यहीन भुलावों में आ जाऊँगी? भला पक्षियों की बातों का भी कोई महत्व हो सकता है। यदि होता भी हो तो आपको क्या पता कि वे परस्पर क्या बातें कर रहे थे।"

"महारानी जी! कभी- कभी अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं पक्षियों की बातें। और भाग्य से  कहिये या दुर्भाग्य से, मैं उनकी बातें समझा भी सकता हूँ।”

" तो बताइये फिर क्या कह रहे थे वे?” महारानी को महाराज की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वे यही समझ रही थीं कि महाराज उनकी हँसी उड़ा रहे थे। इसी कारण उनकी चिढ़ और क्रोध बढ़ते ही जा रहे थे। उन्होंने अब हठ पकड़ लिया था।

"नहीं महारानी जी! यह हम नहीं बता सकते।"

"फिर बहाना ! क्यों नहीं बता सकते हैं। हमें तो मात्र सेविका ही समझते हैं आप "

"नहीं महारानी जी! ऐसी बात नहीं है। पर हमारी विवशता है कि हम किसी को नहीं बता सकते कि वे क्या बात कर रहे थे।"

"क्यों नहीं बता सकते भला?" महारानी भी अपने हठ पर अड़ी थीं।

"क्योंकि यदि हमने बता दिया तो उसी क्षण हमारी मृत्यु हो जायेगी। क्या आप वैधव्य की आकांक्षी हैं?"

“यह सब आपका आडंबर मात्र है। वस्तुत: आप प्रकारान्तर से हमारा तिरस्कार करना चाहते हैं।"

"भला हम आपका तिरस्कार क्यों करना चाहेंगे?"

"मुझे नहीं ज्ञात किन्तु यदि ऐसा नहीं हैं तो फिर बताइये कि वे क्या वार्ता कर रहे थे?" 

“मैंने कहा न कि मैं नहीं बता सकता। विवशता है।"

“पुन: वही अनर्गल प्रलाप !” कहती हुयी महारानी क्रोध से पैर पटकती हुयी चली गयीं।

क्रोध महाराज को भी आ गया था। वे सोचने लगे कि

 "इस स्त्री को अपने पति के जीवन की चिंता नहीं हैं, बस अपना वृथा हठ ही प्यारा हैं।" 

फिर भी उन्होंने आवाज दी-

"रुकिये महारानी अनावश्यक क्रोध उचित नहीं है। "

पर महाराजी नहीं रुकीं।

महाराज को महारानी के आचरण से अपार क्षोभ हुआ था। वे सोच रहे थे कि ऐसी पत्नी तो कभी भी उनके लिये ही नहीं राज्य के लिये भी संकट का कारण बन सकती है। उन्होंने उनके त्याग का निश्चय कर लिया। दृढ़ निश्चया इसकी किसी भी बात पर अब विश्वास नहीं करना है। किसी भी पश्चाताप के प्रदर्शन पर ध्यान नहीं देना है।

दूसरे ही दिन उन्होंने रथ तैयार करवाया और सैनिकों की एक टुकड़ी के संरक्षण में महारानी को उनके मायके भिजवा दिया इस निर्देश के साथ कि अब केकय राज्य में उनके लिये कोई स्थान नहीं है।

महारानी का तो निर्वासन हो गया किन्तु अब प्रश्न था अल्पवयस्क पुत्री की उचित देखभाल का सात भाइयों में अकेली बहन, सबकी दुलारी महाराज के जीवन का आधार किसे सौंपे यह दायित्व कैकेयी अभी मात्र तीन वर्ष की ही तो है। माता का निर्वासन कहीं उसकी भावनाओं को आहत न करे! वह अब धीरे-धीरे चीजों को समझने लगी हैं। इस समय यदि उसकी भावनाएं आहत हुई या विद्रोह की ओर उन्मुख हो गयीं तो... ? यद्यपि महारानी का सान्निध्य तो उसे उच्छृंखल और धृष्ट ही बनाता। यूँ ही किसी को तो नहीं सौंपा जा सकता उसका दायित्व यदि युधाजित (अश्वपति का बड़ा पुत्र) का विवाह हो गया होता तो उसकी पत्नी को ही यह दायित्व सौंपा जा सकता था किन्तु उसमें तो अभी विलम्ब हैं। तब ? ... एक बहुत बड़ा प्रश्न उन्हें मथ रहा था।

अचानक उन्हें ध्यान आया चपला (मंथरा) का जिसका राजकीय उपचारगृह में पाँच वर्ष तक उपचार चला था। अब चार वर्षों से वह पूर्ण स्वस्थ हो गयी थी। महाराज उसके साहस एवं दृढ़ता से अत्यंत प्रभावित थे। उसे भी उचित संरक्षण की आवश्यकता थी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि उसे ही कैकेयी की संरक्षिका नियुक्त करेंगे। यह दोनों के लिये ही हितकर रहेगा।

इस प्रकार चौबीस वर्षीय चपला तीन वर्षीय कैकेयी की संरक्षिका बन कर कैकय नरेश अश्वपति के राजप्रासाद में आ गयी। समय के साथ चपला के घाव भर गये थे पर उसका चेहरा कटार के गहरे घाव के कारण कुरूप हो गया था। रीढ़ की हड्डी जुड़ गयी थी पर कमर स्थाई रूप से इस उम्र में ही झुक गयी थी। जाँघ की हड्डी भी जुड़ अवश्य गई थी पर चाल में लंगड़ाहट आ गई थी। उसकी गति मंथर हो गयी थी और इस मंथर गति के कारण ही उसका नाम चपला से स्वत: मंथरा हो गया था। उसे स्वयं भी इस नाम से पुकारे जाने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो अब मात्र रक्षों के अस्तित्व का समूल नाश करने के अपने संकल्प के लिये जी रही थी, यद्यपि उस भयानक दिवस के उपरान्त उसे रक्षों के विषय में कोई समाचार नहीं प्राप्त हुआ था। जिससे भी उसने कुछ पूछने का प्रयास किया उसी ने अनभिज्ञता प्रदर्शित की थी।

मंथरा के संरक्षकत्व ने कैकेयी की विचारधारा को भी निश्चय ही प्रभावित किया। झुकी कमर और लंगड़ी चाल के बावजूद मंथरा को शस्त्र संचालन में रुचि थी जिससे समय के साथ कैकेयी की रुचि भी इस ओर जाग्रत हो गयी। मंथरा के सान्निध्य में उसकी यह रुचि भली-भाँति विकसित होने लगी। दोनों डट कर अभ्यास करतीं। महाराज भी उन्हें पूरा प्रोत्साहन देते थे और इसके लिए उन्होंने विशिष्ट व्यवस्थाएँ प्रसन्नतापूर्वक कर दी थीं। शीघ्र ही कैकेयी अस्त्र-शस्त्रों के  संचालन में निपुण हो गयी। रथ के अश्वों के संचालन में तो उसका कोई सानी ही नहीं था।

कैकेयी को मंथरा के संरक्षण में देकर उसकी प्रगति से महाराज अश्वपति पूर्ण संतुष्ट थे। वे मंथरा को भी अपनी पुत्री की भाँति ही स्नेह देते थे। कैकेयी उसे पूरा आदर और सम्मान देती थी। वह एक प्रकार से कैकेयी की धाय माँ थी किन्तु कैकेयी उसका अपनी माँ के समान ही सम्मान करती थी।

महाराज नित्य ही कम से कम एक बार अवश्य कैकेयी से मिलने आते थे। कैकेयी से मिलने आते थे तो मंथरा की भी उनसे भेंट होती ही थी। इस सतत परिचय से वह महाराज के साथ एक सीमा तक अनौपचारिक हो गयी थी। इस अनौपचारिकता को महाराज ने ही प्रोत्साहित किया था। एक दिन बातों ही बातों में मंथरा ने अपने जीवन के परम उद्देश्य के विषय में चर्चा छेड़ दी

"तुम्हारा कार्य तो विष्णु सम्पूर्ण कर चुके हैं।" 

अश्वपति हँसते हुये बोले।

"तात्पर्य महाराज?" 

“जब तुमसे उन लोगों की मुठभेड़ हुई तब वे विष्णु से पराजित होकर ही भाग रहे थे। माल्यवान और सुमाली का छोटा भाई माली तो विष्णु के द्वारा मारा जा चुका था । " 

मंथरा के चेहरे पर संतोष के भाव थे।

 "जी!'

“उसके बाद विष्णु ने इन लोगों को लंका तक खदेड़ा। विशाल सेना थी इनकी जिसने देवराज इन्द्र तक को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। किन्तु तुमने देखा ही होगा कि कितने थोड़े से लोग बचे थे। "

"थोड़े से कहाँ महाराज कई सौ थे|"

" अक्षौहिणियों में जब कई सौ बचते हैं तो वे थोड़े से ही कहे जाते हैं।"

 अश्वपति खुलकर हँसते हुये बोला

 “ओह ! किन्तु वे पुन: अपनी शक्ति एकत्र करेंगे, पुनः अक्षौहिणियाँ जोड़ लेंगे। उनके प्रमुखों में से दो तो अभी भी जीवित ही है।"

"नहीं! मंथरा ऐसा लगता तो नहीं है। "

 "लगता नहीं हैं किन्तु असंभव भी तो नहीं हैं। मेरा हृदय तो तभी शीतल होगा जब शेष बचे ये दोनों भी काल का ग्रास बन जायेंगे।"

"हूँ... दोनों में से बड़ा माल्यवान तो संसार त्यागकर वानप्रस्थी हो गया है। वह तभी से एकांत में तपश्चर्या में निमग्न है। उसकी कोई भी संदिग्ध गतिविधि तब से नहीं देखी गयी। यदि देखी गयी होती तो विष्णु उसे भी अवश्य समाप्त कर देते। बचा सुमाली। वह पता नहीं जीवित है भी या नहीं। तभी से उसके विषय में किसी को भी कोई समाचार नहीं मिला हैं। वह और उसके पुत्र किस जगत में हैं यह अब किसी को ज्ञात नहीं।"

“किन्तु उनकी मृत्यु हो गयी यह भी तो सुनिश्चित नहीं है। "

"यह तो हैं।”

“फिर उनके पुत्र भी तो हैं। जब तक सबकी मृत्यु प्रमाणित नहीं हो जाती है तब तक कैसे माना जा सकता है कि वे दुबारा सिर नहीं उठायेंगे?" 

“यह भी उचित है। किन्तु यदि वे पुन: सिर उठायेंगे तो पुनः उन्हें कुचल दिया जायेगा। इस बार किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा जायेगा| "

 “देखते हैं महाराज! एक बार तो विष्णु जैसा व्यक्ति भी चूक कर ही गया। साँप को घायल करके कहीं जीवित छोड़ा जाता है। "

राम रावण 

सुलभ अग्निहोत्री 





कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...