गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 12

  

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।। 13।।


और हे अर्जुन, वश में है अंतःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग का आचरण करने वाला पुरुष निःसंदेह न करता हुआ और न करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर, अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती हैं, ऐसा मानता हुआ आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।



इसमें एक ही नई बात कही है, वह समझ लें।

कहा है, अंतःकरण वश में हुआ जिसका! इस संबंध में हमने बात की है। न करता है, न कराता हुआ, सच्चिदानंद परमात्मा में सदा स्थित रहता है। यह आखिरी बात इस सूत्र में नई है।

ऐसा व्यक्ति, ऐसे ज्ञान को उपलब्ध, इंद्रियों से अपने को भिन्न जानता है जो, वासनाएं जिसके अंतःकरण को अशुद्ध और कुरूप और दुर्गंधित नहीं करतीं; कर्म करता हुआ भी जानता नहीं, मानता नहीं कि मैं कर्म करता हूं। प्रभु ही करता है। कराता हुआ भी नहीं मानता कि मैं कराता हूं। प्रभु ही कराता है। ऐसा पुरुष प्रतिपल, हर घड़ी, सोते-जागते, उठते-बैठते सच्चिदानंद परमात्मा में ही स्थिर रहता है। एक क्षण को भी वह हटता नहीं वहां से। हटे तो हम भी नहीं हैं, लेकिन हमें इसका पता नहीं है, उसे पता होता है। हटे तो हम भी नहीं हैं। सच्चिदानंद परमात्मा हमारा स्वरूप है।


लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? अगर परमात्मा कोई चीज होती, तो बताई जा सकती थी, यह रही। एक पत्थर भी बताया जा सकता है, यह रहा; और परमात्मा नहीं बताया जा सकता कि कहां है! क्योंकि परमात्मा कहां है, यह पूछना ही गलत है। परमात्मा का मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह है, जो सब कहीं है । हर कहीं है जो, उसका नाम परमात्मा है।

इसका यह मतलब भी होता है कि जैसे हम दूसरी चीजों को बता सकते हैं कि यह रही, ऐसे हम परमात्मा को नहीं बता सकते। इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा का मतलब है, वही, जो कहीं भी नहीं है। कहीं नहीं बता सकते कि यह रहा। कहीं भी अंगुली निर्देश नहीं कर सकती कि यह रहा। सब चीजों को बता सकते हैं, यह रही, परमात्मा को नहीं बता सकते। अगर परमात्मा को बताना हो, तो अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते; मुट्ठी बंद करके बताना पड़ेगा कि यह रहा। अंगुली से इशारा करेंगे, तो गलती हो जाएगी। क्योंकि फिर अंगुली के अतिरिक्त जो इशारे छूट गए, वहां कौन होगा? वहां भी वही है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। सब जगह वही है।

परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व। हम भी उसी में जीते हैं, लेकिन हमें पता नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अंतःकरण को शुद्ध कर लिया, उसे इसका पता हो जाता है। ठीक ऐसे ही पता हो जाता है, जैसे कि दर्पण पर धूल जमी हो और चेहरा न बनता हो। और किसी ने दर्पण को साफ कर लिया और चेहरा बन जाए। और दर्पण में दिखाई पड़ जाए कि अरे, मैं तो यह रहा! लेकिन जब धूल जमी थी, तब भी दर्पण पूरा दर्पण था। धूल हट गई, तब भी दर्पण वही दर्पण है। लेकिन जब धूल पड़ी थी, तो चेहरा बन नहीं पाता था, प्रतिफलित नहीं होता था; अब प्रतिफलित होता है।

शुद्ध अंतःकरण  दर्पण के जैसा हो जाता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, जिसका अंतःकरण शुद्ध है! जिसके अंतःकरण से सारी फलाकांक्षा की धूल हट गई, वासनाओं का सब जाल हट गया, कूड़ा-करकट सब फेंक दिया उठाकर, कर्ता का बोझ हटा दिया, सब परमात्मा पर छोड़ दिया। इतना शुद्ध और हलका हुआ अंतःकरण, शांत और मौन, निर्भार हुआ अंतःकरण, जानता है प्रतिपल कि मैं सच्चिदानंद परमात्मा में हूं। होता ही उसी में है सदा। लेकिन अब जानता है। अब ध्यानपूर्वक जानता है। अभी सोया हुआ था, अब जागकर जानता है।

जैसे आप सोए हों। सूरज की रोशनी बरसती है चारों तरफ, आप सोए हैं। आपकी बंद पलकों पर सूरज की रोशनी टपकती है, लेकिन आपको कोई भी पता नहीं, आप सोए हैं, सूरज चारों तरफ बरस रहा है। आपके खून में सूरज की गर्मी जा रही है, आपके भीतर तक। आपका हृदय सूरज की गर्मी में धड़क रहा है। सब तरफ सूरज है, बाहर और भीतर, लेकिन आपको कोई पता नहीं है; आप सोए हैं।

फिर एक आदमी उठ आया और उसने जाना और अब वह पाता है कि हर घड़ी सूरज में है। सोया हुआ भी सूरज में है, जागा हुआ भी सूरज में है। लेकिन सोए हुए को पता  नहीं है।

अंतःकरण जिसका शुद्ध होता है, वह जानता है प्रतिपल, मैं परमात्मा में हूं। और जिसको यह पता चल जाए कि प्रतिपल मैं परमात्मा में हूं, स्वभावतः सच्चिदानंद की तिहरी घटना उसके जीवन में घट जाती है।

ये सत, चित, आनंद, तीन शब्द हैं। यह भारत की मनीषा ने जो श्रेष्ठतम नवनीत निकाला है सारे जीवन के अनुभव से, उनका इन तीन शब्दों में जोड़ है।

सत! सत का अर्थ है, जिसका अस्तित्व है। चित! चित का अर्थ है,  जिसमें चेतना है। आनंद! आनंद का अर्थ है,  जो सदा ही आनंद में है। ये तीन शब्द भारत की समस्त साधना की निष्पत्तियां हैं।

अस्तित्व है किसका? पत्थर का? पानी का, जमीन का? आदमी का? दिखाई पड़ता है, है नहीं। क्योंकि आज है और कल नहीं हो जाएगा। भारत उसको अस्तित्व कहता है, जो सदा है। जो बदल जाता है, उसके अस्तित्व को अस्तित्व नहीं कहता। उसके अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। अस्तित्व उसका है, जो अपरिवर्तनीय, नित्य है। वही है अस्तित्ववान। बाकी तो सब खेल है छाया का।

बच्चे थे आप, फिर जवान हो गए, फिर बूढ़े हो गए। न तो बचपन का कोई अस्तित्व है; बचपन भी एक फेज है; एक्झिस्टेंस नहीं, चेंज! बचपन एक परिवर्तन है। इसे जरा समझें।


हम कहते हैं एक आदमी से, यह बच्चा है। कहना नहीं चाहिए। वैज्ञानिक नहीं है कहना।  क्योंकि बच्चा है, ऐसा कहने से लगता है, कोई चीज  ठहरी हुई है। कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। जवान हो रहा है। है की स्थिति में तो कोई जवान नहीं होता, नहीं तो बूढ़ा हो ही नहीं सकेगा फिर। बूढ़ा भी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़ा भी होता रहता है। नदी बहती है, तो हम कहते हैं, नदी बह रही है। कहते हैं, नदी है। कहना नहीं चाहिए है, है। कहना चाहिए, नदी हो रही है।

इस जगत में  है शब्द ठीक नहीं है। गलत है। सब चीजें हो रही हैं। हम कहते हैं, वृक्ष है। जब हम कहते हैं, है, तब वृक्ष कुछ और हो गया। एक नई पत्ती निकल गई होगी। एक पुरानी पत्ती टपक गई होगी। एक फूल खिल गया होगा। एक कली आ गई होगी। जब तक हमने कहा, है, तब तक वृक्ष बदल गया।


यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। संसार है परिवर्तन और परमात्मा है अस्तित्व। सत का अर्थ है, वह जो सदा है।

जिस व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध हुआ, वह जानता है, मैं सदा हूं। न मैं कभी पैदा हुआ और न कभी मरूंगा। न मैं बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। मैं वह हूं, जो सदा है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता है।

दूसरा शब्द है, चित। चित का अर्थ है, चैतन्य। जो व्यक्ति जितना शुद्ध होकर भीतर झांकता है, उतना ही पाता है कि वहां चेतना ही चेतना है; वहां कोई मूर्च्छा नहीं। और जब कोई अपने भीतर देख लेता है कि सब चैतन्य है, उसे बाहर भी चैतन्य दिखाई पड़ने लगता है।

ध्यान रहे, जो हम भीतर हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। चोर को चोर दिखाई पड़ते हैं बाहर। ईमानदार को ईमानदार दिखाई पड़ते हैं बाहर। बाहर हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम भीतर हैं। चूंकि भीतर हम मूर्च्छित हैं, इसलिए बाहर हमें पदार्थ दिखाई पड़ता है। जब हम भीतर चेतना को अनुभव करते हैं शुद्ध अंतःकरण में, तो बाहर भी चेतना का सागर दिखाई पड़ने लगता है। तब सब चीजें चेतन हैं। तब पत्थर भी जीवंत और चेतन है। तब इस जगत में कुछ भी जड़ नहीं है। तो ऐसा व्यक्ति सदा चेतना में थिर होता है।

और तीसरी बात है, आनंद। जिसे पता चल गया अस्तित्व का, उसका दुख मिट जाता है। दुख परिवर्तन में है। जहां परिवर्तन है, वहीं दुख है। और जहां परिवर्तन नहीं है, वहीं आनंद है। जिस व्यक्ति को पता चल गया कि परिवर्तन के बाहर हूं मैं, उसके जीवन से दुख विदा हो जाता है।

मूर्च्छा में दुख है। जहां बेहोशी है, वहां दुख है। ध्यान रखें, इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगते हैं। और शराबी आदमी दुखी हो जाते हैं। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां बेहोशी की तलाश होती है। और जहां-जहां बेहोशी है, वहां-वहां दुख बढ़ता चला जाता है, विशियस सर्किल की तरह। इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगेगा। दुनिया में जितना दुख बढ़ेगा, उतनी शराब बढ़ेगी। जितनी शराब बढ़ेगी, उतना दुख बढ़ेगा। और एक-दूसरे को बढ़ाते चले जाएंगे। जितना ही आदमी होश से भरता है, उतना ही दुख के बाहर हो जाता है।

नित्य का पता चल जाए, चैतन्य का अनुभव हो जाए, आनंद की घटना घट जाती है। और ध्यान रहे, यह आनंद किसी से मिलता नहीं। यह फर्क है। सुख किसी से मिलता है। आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है। सुख सदा बाहर से आता है। सुख सदा किसी पर निर्भर होता है। आनंद सदा ही स्वतंत्र होता है। इसलिए सुख के लिए दूसरे का मोहताज होना पड़ता है। आनंद के लिए किसी का मोहताज होने की जरूरत नहीं है।

अगर मुझे सुखी होना है, तो मुझे समाज में किसी के साथ होना पड़ेगा। और अगर मुझे आनंदित होना है, तो मैं अकेला भी हो सकता हूं। अगर इस पृथ्वी पर मैं अकेला रह जाऊं और आप सब कहीं विदा हो जाएं, तो मैं सुखी तो नहीं हो सकता, आनंदित हो सकता हूं।

लेकिन ध्यान रहे, जिनसे हमें सुख मिलता है, उनसे ही दुख मिलता है। जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता।

एक बात अंतिम। आप सोच न पाएंगे, मनुष्य की भाषा में सब भाषाओं के विपरीत शब्द हैं, आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख का ठीक पैरेलल दुख है। खड़ा है सामने। प्रेम के पैरेलल, समानांतर खड़ी है घृणा। दया के समानांतर खड़ी है क्रूरता। सबके समानांतर कोई खड़ा है। आनंद अकेला शब्द है। क्योंकि आनंद स्वनिर्भर है, द्वंद्व के बाहर है, अद्वैत है। सुख-दुख, प्रेम-घृणा, सब द्वंद्व के भीतर हैं, द्वैत हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध हुआ जिसका, वह सच्चिदानंद परमात्मा में स्थिर, सदा स्थिर होता है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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