गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 18

  अकंप चेतना


न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।

स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।। 20।।


और जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो, ऐसा स्थिर बुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है।



प्रिय को जो प्रिय समझकर आकर्षित न होता हो; अप्रिय को अप्रिय समझकर जो विकर्षित न होता हो; जो न मोहित होता हो, न विराग से भर जाता हो; जो न तो किसी के द्वारा खींचा जा सके और न किसी के द्वारा विपरीत गति में डाला जा सके--ऐसे स्वयं में ठहर गए व्यक्तित्व को, ऐसी स्वयं में ठहर गई बुद्धि को कृष्ण कहते हैं, सच्चिदानंद परमात्मा की स्थिति में सदा ही निवास मिल जाता है।

इसमें दोत्तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।



किसे हम कहते हैं प्रिय? कौन-सी बात प्रीतिकर मालूम पड़ती है? कौन-सी बात अप्रीतिकर, अप्रिय मालूम पड़ती है? और किसी बात के प्रीतिकर मालूम पड़ने में और अप्रीतिकर मालूम पड़ने में कारण क्या होता है?

इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है--देती है या नहीं, यह दूसरी बात--इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है, वह प्रीतिकर लगती है। इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती नहीं मालूम पड़ती, उसके प्रति तिरस्कार शुरू हो जाता है। और इंद्रियों को जो चीज विधायक रूप से कष्ट देती मालूम पड़ने लगती है, वह अप्रीतिकर हो जाती है। फिर जरूरी नहीं है कि आज इंद्रियों को जो चीज प्रीतिकर मालूम पड़े, कल भी मालूम पड़े। और यह भी जरूरी नहीं है कि आज जो अप्रीतिकर मालूम पड़े, वह कल भी अप्रीतिकर मालूम पड़े। आज जो चीज इंद्रियों को प्रीतिकर मालूम पड़ती है, बहुत संभावना यही है कि कल वह प्रीतिकर मालूम नहीं पड़ेगी।

जब तक कुछ मिलता नहीं, तब तक आकर्षित करता है। जैसे ही मिलता है, व्यर्थ हो जाता है। सारा आकर्षण न मिले हुए का आकर्षण है। दूर के ढोल सुहावने मालूम पड़ते हैं। जैसे-जैसे जाते हैं पास, वैसे-वैसे आकर्षण क्षीण होने लगता है। और मिल ही जाए जो चीज चाही हो, तो क्षणभर को भला धोखा हो जाए, मिलने के क्षण में, लेकिन मिलते ही आकर्षण विदा होने लगता है। बहुत शीघ्र ही आकर्षण की जगह तिरस्कार, और तिरस्कार के बाद विकर्षण जगह बना लेता है।


इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिन्हें लोग प्रीतिकर समझते हैं, जिन्हें लोग अप्रीतिकर समझते हैं...।

किन्हें समझते हैं लोग? दूर की आशाओं को लोग प्रीतिकर समझते हैं। इंद्रियों को प्रलोभन जहां से मिलता है, वहां प्रीतिकर मालूम होता है सब। जहां-जहां इंद्रियां पहुंच जाती हैं, वहीं अप्रीति बैठ जाती है; वहीं अंधेरा छा जाता है; वहीं हटने का मन हो जाता है। इसीलिए तो जो हम पा लेते हैं, बस वह बेकार हो जाता है। आंखें फिर कहीं और अटक जाती हैं।

कृष्ण कहते हैं, ये व्याख्याओं से जो भीतर आंदोलित हो जाता है, वह प्रभु की सतत आनंद की स्थिति में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि गले में डाले गए फूल कि गले में डाले गए कांटे, चेतना को इससे अंतर नहीं पड़ना चाहिए। चेतना को अंतर पड़ता है, इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं। और जब तक बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते हैं, तब तक भीतर की धारा में प्रवेश नहीं होता।

बाहर से जो प्रभावित होगा, उसकी चेतना बाहर की तरफ बहती रहेगी। जब बाहर से कोई बिलकुल अप्रभावित, तटस्थ हो जाता है, तभी चेतना अंतर्गमन को उपलब्ध होती है।

जब मिले स्वागत, जब मिले सम्मान, जब प्रेम की वर्षा होती लगे, तब भी भीतर साक्षी रह जाना, देखना कि लोग फूल डाल रहे हैं। जब मिले अपमान, जब बरसें गालियां, तब भी साक्षी रह जाना और जानना कि लोग कांटे फेंक रहे हैं, गालियां फेंक रहे हैं। लेकिन देखना भीतर यह कि स्वयं चलित तो नहीं हो जाते, स्वयं तो नहीं बह जाते फूलों और कांटों के साथ! स्वयं तो खड़े ही रह जाना भीतर।

ऐसे प्रत्येक अवसर को जो तटस्थ साक्षी का क्षण बना लेता है, वह धीरे-धीरे अंतर-समता को उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे ही होती है यह बात। एक-एक कदम समता की तरफ उठाना पड़ता है। लेकिन जो कभी भी नहीं उठाएगा, वह कभी पहुंचेगा नहीं।

बहुत छोटे-छोटे मौकों पर--जब कोई गाली दे रहा हो, तब उसकी गाली पर से ध्यान हटाकर भीतर ध्यान देना कि मन चलित तो नहीं होता। और ध्यान देते ही मन ठहर जाएगा। यह बहुत मजे की बात है। जब कोई गाली देता है, तो हमारा ध्यान गाली देने वाले पर चला जाता है। अगर कृष्ण की बात समझनी हो, तो जब कोई गाली दे, तो ध्यान जिसको गाली दी गई है, उस पर ले जाना।

जैसे ही ध्यान भीतर जाएगा, हंसी आएगी। गाली बाहर रह जाएगी; गाली देने वाला बाहर रह जाएगा; आप किनारे पर खड़े हो जाएंगे। गाली से अछूते, कमल के पत्ते की तरह पानी में। चारों तरफ पानी है और आप अस्पर्शित, अनटच्ड रह जाएंगे। उस क्षण इतने आनंद की प्रतीति होगी, जिसका हिसाब नहीं।

जिसने भी गाली के क्षण में या सम्मान के क्षण में भीतर खड़े होने को पा लिया, जस्ट स्टैंडिंग को पा लिया, वह इतने अतिरेक आनंद से भर जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्यों? क्योंकि पहली बार वह स्वतंत्र हुआ। अब कोई उसे बाहर से चलित नहीं कर सकता है। अब वह यंत्र नहीं है, मनुष्य हुआ। हम बटन दबाते हैं, बिजली जल जाती है। हम बटन दबाते हैं, बिजली बुझ जाती है। बिजली परतंत्र है, बटन दबाने से जलती और बुझती है। किसी ने गाली दी; हमारे भीतर दुख छा गया। किसी ने कहा कि आप तो बड़े महान हैं; हमारे भीतर खुशी की लहर दौड़ गई। तो हममें और बिजली में बहुत फर्क न हुआ, बटन दबाई...


जब आपको किसी से प्रीतिकर संबंध मालूम पड़ता है, कोई प्रियजन, तो अगर आप मनोवैज्ञानिक से अब पूछें, तो वह कहेगा, जब आप अपनी प्रेयसी से मिलते हैं या प्रेमी से मिलते हैं, तो आपके भीतर उसके शरीर से वह बिजली प्रवाहित होने लगती है, जो आपके विशेष केंद्रों को स्पर्श करती है। और कुछ नहीं होता।  और अगर बार-बार मन होता है कि प्रेयसी से मिलें!

आज नहीं कल, जिस दिन यह पूरे शरीर का फिजियोलाजिकल और केमिकल, यह जो हमारी व्यवस्था है शारीरिक और रासायनिक, इसका पूरा राज पता चल जाएगा, तो आप अपने खीसे में एक बटन रखकर दबाते रहना बैटरी को। उससे आपको सुखद और दुखद अनुभव होते रहेंगे!

इससे साफ होता है कि जिन लोगों ने आध्यात्मिक गहराइयों में जाकर यह कहा कि वही आदमी वास्तविक आनंद को उपलब्ध होगा, जो सुख और दुख दोनों के बीच थिर हो जाता है। वही आदमी शरीर के इस रासायनिक, शारीरिक, वैद्युतिक प्रवाह के सुख-दुख के भ्रम के ऊपर उठ पाता है। तटस्थ हो जाने की जरूरत है। दोनों के बीच एक-सा हो जाने की जरूरत है।


जो हमारा सुख है, हम सब उसके पीछे  पागल हो जाते हैं। दुख भी हमें पागल करता है, क्योंकि उससे हम भागते रहते हैं। सुख भी पागल करता है, क्योंकि उसकी हम मांग करते रहते हैं। और जब चेतना इस तरह प्रीतिकर-अप्रीतिकर के बीच डांवाडोल होती रहती है, तो थिर कैसे होगी? ठहरेगी कैसे? खड़ी कैसे होगी? फिर तो उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे दीया तूफान और आंधी में झोंके लेता रहता है--कभी बाएं, कभी दाएं। कभी ठहर नहीं पाता।

कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह उस आदमी की बात है, जिसकी चेतना का दीया, जिसकी चेतना की ज्योति ठहर गई। ऐसे, जैसे बंद कमरे में जहां हवा के कोई झोंके न आते हों। ठहर गई ज्योति, रुक गई।

जिस दिन चेतना सम हो जाती है--न प्रीतिकर खींचता, न अप्रीतिकर हटाता; न दुखद कहता कि हटो, न सुखद कहता है कि आओ--और जब चेतना पर कोई भी बाहर के आंदोलन प्रभाव नहीं डालते हैं और चेतना बिलकुल ठहरकर खड़ी हो जाती है, उस खड़ी हुई चेतना में ही व्यक्ति सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा में थिर होता है।

इसे ऐसा समझ लें, डोलती हुई चेतना, उसी तरह है, जैसे कभी आपके रेडिओ का कांटा ढीला हो गया हो। आप घुमाते हों उसे, वह कोई स्टेशन पर टयून नहीं हो पाता हो; कहीं भी ठहर न पाता हो। हिलता हो, डुलता हो; दो-चार स्टेशन साथ-साथ पकड़ता हो। कुछ भी समझ-बूझ न पड़ता हो कि क्या हो रहा है।

चेतना जब तक डोलती है सुख और दुख के धक्कों में, झोंकों में, तब तक कभी भी टयूनिंग नहीं हो पाती परमात्मा से। जैसे ही खड़ी हो जाती है थिर, वैसे ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है।

परमात्मा और व्यक्ति के बीच संबंध किसी भी क्षण हो सकता है, लेकिन व्यक्ति की चेतना के ठहरने की अनिवार्य शर्त है। परमात्मा तो सदा ठहरा हुआ है। हम भी ठहर जाएं, तो मिलन हो जाए। उस मिलन में ही सच्चिदानंद का अनुभव है। और इस मिलन के बाद कोई विरह नहीं है। सुख मिलेंगे, छूटेंगे। दुख मिलेंगे, छूटेंगे। परमात्मा मिला, तो फिर नहीं छूटता है। आनंद मिला, तो फिर नहीं छूटता है।

उसी की तलाश है सारे जीवन, उसी की खोज है। वह मिल जाए, जो मिलकर नहीं छूटता है। वह पा लिया जाए, जिसे पाने के बाद कुछ पाने को शेष नहीं रहता है। उसी की जन्मों-जन्मों की यात्रा है। लेकिन हर बार चूक जाते हैं। वह डोलती हुई चेतना, थिर नहीं हो पाती। और वह थिर क्यों नहीं हो पाती? प्रीतिकर और अप्रीतिकर में हम भटकते रहते हैं।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जागो! प्रीतिकर, अप्रीतिकर दोनों के बीच खड़े हो जाओ, मौन।

निश्चित ही कांटा चुभेगा, तो अप्रीतिकर लगेगा। कृष्ण को भी चुभेगा, तो भी लगेगा। फूल हाथ पर आएगा, तो अप्रीतिकर नहीं लगेगा। यह मत सोचना कि कृष्ण को हम कांटा गड़ाएंगे, तो खून नहीं बहेगा। कि कृष्ण को कांटा गड़ाएंगे, तो वे पत्थर हैं, उन्हें पता नहीं चलेगा। पता पूरा चलेगा। शरीर पूरी प्रतिक्रिया करेगा। शरीर में पीड़ा होगी, चुभन होगी। शरीर खबर भेजेगा मस्तिष्क को कि कांटा चुभता है, खून बहता है। लेकिन चेतना डांवाडोल नहीं होगी। चेतना कहेगी, ठीक है। आते हैं; जो किया जा सकता है, वह करेंगे। कांटे को निकालेंगे; मलहम-पट्टी करेंगे। लेकिन चेतना इससे विचलित नहीं होती है। चेतना ठहरी ही रह जाती है!

बुद्ध या महावीर की मूर्ति देखते हैं बैठी हुई! जैसे दीए की ज्योति ठहरी हो। इसलिए बुद्ध और महावीर और सारे जगत के उन सारे लोगों की, जिनकी चेतना ठहर गई, हमने पत्थर में मूर्तियां बनाईं। अकारण नहीं! पत्थर में बनाने का कारण था। पत्थर जितना ठहरा हुआ है, इतनी और कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। तूफान आते हैं; जिस वृक्ष के नीचे मूर्ति रखी है बुद्ध की, वृक्ष हिल जाता है, कंप जाता है। जड़ें कंप जाती हैं, पत्ते कंप जाते हैं, लेकिन मूर्ति है कि ठहरी रहती है। वह जो उनके भीतर थिर हो गई थी चेतना, उस थिरता के समानांतर खोजने के लिए हमने पत्थर खोजा। वहां सब ठहरा हुआ है।

अप्रीतिकर, प्रीतिकर के बीच ऐसे जो ठहर जाता है, वह पुरुष सच्चिदानंद के साथ एकलीनता, एकलयता को उपलब्ध होता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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