गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 13

  अपरिग्रही चित्त



युग्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 


इस उच्च उच्च आत्मा को निरंतर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थितरूप परमानंद पराकाष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है।


निरंतर परमात्मा में चेतना को लगाता हुआ योगी!

पिछली दो पोस्टो में जिन सूत्रों पर हमने बात की है, उन्हीं सूत्रों की निष्पत्ति के रूप में यह सूत्र है। समझने जैसी बात इसमें निरंतर है। निरंतर शब्द को समझ लेने जैसा है। निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण व्यवधान न हो।

निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण विस्मरण न हो। जागते ही नहीं, निद्रा में भी भीतर एक अंतर-धारा प्रभु की ओर बहती ही रहे--सतत, कंटिन्यूड, जरा भी व्यवधान न हो--तो निरंतर ध्यान हुआ, तो निरंतर स्मरण हुआ।

जैसे श्वास चलती है। चाहे काम करते हों, तो चलती है; चाहे विश्राम करते हों, तो चलती है। याद रखें, तो चलती है; न याद रखें, तो भी चलती है। जागते रहें, तो चलती है; सो जाएं, तो भी चलती रहती है। श्वास की भांति ही जब प्रभु की ओर स्मरण, प्रभु की प्यास, प्रभु की लगन भीतर चलने लगे, तो अर्थ होगा पूरा निरंतर का; तो निरंतर का अर्थ खयाल में आएगा।

लेकिन हमें तो एक क्षण भी प्रभु को स्मरण करना कठिन है। निरंतर तो असंभव मालूम होगा। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की कोई अकुलाहट भीतर नहीं होती। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की परिपूर्णता उसमें संलग्न नहीं होती। एक क्षण भी जब पुकारते हैं, तो ऐसे ही ऊपर से, सतह से पुकारते हैं। वह प्राणों की अंतर-गहराइयों तक उसका कोई प्रभाव, कोई संस्पर्श नहीं होता।

और कृष्ण तो कहते हैं कि ऐसा निरंतर प्रभु की ओर बहता हुआ व्यक्ति ही मुझे उपलब्ध होता है, प्रभु को उपलब्ध होता है, प्रभु में प्रतिष्ठा पाता है। तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि शेष सब जन निराश हो जाएं। एक क्षण भी नहीं हो पाती है पुकार, तो निरंतर तो कैसे हो पाएगी! साफ है, सीधी बात है कि सब निराश हो जाएं। और जो भी निरंतर के इस अर्थ को समझेंगे, प्राथमिक रूप से निराशा अनुभव होगी, कि फिर हमारे लिए कोई द्वार नहीं, मार्ग नहीं।

नहीं; लेकिन निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि हमें स्मरण की प्रक्रिया ही ज्ञात नहीं है। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। और यह आपसे कहूं कि जो व्यक्ति एक क्षण भी ठीक से स्मरण कर ले, उसकी निरंतर की स्मरण-व्यवस्था अपने आप नियत और निश्चित हो जाती है। क्यों? क्योंकि हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी भी होता नहीं। कोई उपाय नहीं कि दो क्षण हमारे हाथ में एक साथ हो जाएं। एक ही क्षण होता है हमारे हाथ में। जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। एक जब रिक्त हो जाता है, तब दूसरा हाथ में आता है। एक जब जा चुका होता है, तब दूसरे का आगमन होता है। लेकिन हमारे हाथ में जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। इससे ज्यादा क्षण हमारे पास नहीं होते।

इसलिए अगर एक क्षण में भी प्रभु-स्मरण की प्रक्रिया में प्रवेश हो जाए, तो निरंतर में प्रवेश होने में कोई भी बाधा नहीं है। क्योंकि एक क्षण में जो प्रवेश को जान गया, वह हर क्षण में उस प्रवेश को उपलब्ध हो सकेगा। और एक ही क्षण हमारे पास होता है। इसलिए बहुत अड़चन नहीं है। कुंजी पास नहीं है, यही अड़चन है।

निरंतर स्मरण करने का एक ही अर्थ है कि जिसे क्षण में भी स्मरण करने की क्षमता आ गई, वह निरंतर स्मरण करने की पात्रता पा ही जाता है। लेकिन क्षण में भी स्मरण की पात्रता नहीं है।

और ईश्वर को हम अक्सर उधार लेकर जीते हैं। यह शब्द भी हमने किसी से सुन लिया होता है। यह प्रतिमा भी हमने किसी से सीख ली होती है। यह परमात्मा का रूप, लक्षण भी हमने किसी से सीख लिया होता है। सब उधार है। यह हमारे प्राणों का आथेंटिक, प्रामाणिक कोई अनुभव नहीं होता है पीछे। यह कहीं हमारे प्राणों की अपनी प्रतीति और साक्षात नहीं होता है। इसीलिए क्षण में भी पूरा नहीं हो पाता, सतत और निरंतर तो पूरे होने का कोई सवाल नहीं है।

इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि जो अंतर-गुफा में प्रवेश कर जाए, एकांत को उपलब्ध हो जाए। और उसमें एक शब्द छूट गया, मुझे अभी याद दिलाया कि जो अपरिग्रह चित्त का हो। उसकी मैं कल बात नहीं कर पाया, उसकी भी थोड़ी आपसे बात कर लूं।

एकांत का मैंने अर्थ आपको कहा। जिसके भीतर भीड़ न रह जाए। जिसके भीतर दूसरे के प्रतिबिंबों का आकर्षण न रह जाए। जिसके भीतर दूसरों के प्रतिबिंब जैसे आईने से हमने धूल साफ कर दी हो, ऐसे साफ कर दिए गए हों। ऐसा एकांत जिसके मन में हो, वह अंतर-गुहा में प्रवेश कर जाता है।

एक शब्द और कृष्ण ने कहा है, अपरिग्रही चित्त वाला, अपरिग्रही चित्त।

क्या अर्थ होता है अपरिग्रह का? सीधा-सादा अर्थ शब्दकोश में जो लिखा होता है, वह यह है कि जो वस्तुओं का संग्रह न करे। लेकिन कृष्ण का यह अर्थ नहीं हो सकता। नहीं हो सकता इसलिए कि कृष्ण, व्यक्ति जीवन और संसार को छोड़ जाए, इसके पक्ष में नहीं हैं। अगर सारी वस्तुओं को छोड़ दे, तो संसार और जीवन छूट ही जाता है। कृष्ण इस पक्ष में भी नहीं हैं कि कर्म को छोड़कर चला जाए। अगर सारी वस्तुओं को कोई छोड़कर चला जाए, तो कर्म भी अपने आप छूट जाता है। तो कृष्ण का अर्थ अपरिग्रह से कुछ और होगा।

कृष्ण का अर्थ है अपरिग्रही चित्त से, ऐसा चित्त जो वस्तुओं का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं को अपनी मालकियत नहीं दे देता है। जो वस्तुओं का उपयोग तो करता है, लेकिन वस्तुओं का मालिक ही बना रहता है। कोई वस्तु उसकी मालिक नहीं हो जाती। वस्तुओं का उपयोग करता है, लेकिन वस्तुओं के साथ कोई राग का, कोई आसक्ति का संबंध निर्मित नहीं करता।

इसलिए और जो अपरिग्रह की व्याख्याएं हैं, वे सरल हैं। कृष्ण की व्याख्या कठिन है। और जो व्याख्याएं हैं, साधारण हैं। ठीक है, जिन वस्तुओं से मोह निर्मित हो जाता है, उनको छोड़कर चले जाओ, थोड़े दिन में मन भूल जाता है। बड़ी से बड़ी चीज को मन भूल जाता है। छोड़ दो, हट जाओ, तो मन की स्मृति कमजोर है, कितने दिन तक याद रखेगा! भूल जाएगा, विस्मरण हो जाएगा। नए राग बना लेगा, पुराने राग विस्मृत हो जाएंगे।

आदमी मर भी जाए जिसे हमने बहुत प्रेम किया था, तो कितने दिन, कितने दिन स्मरण रह जाता है? रोते हैं, दुखी-पीड़ित होते हैं। फिर सब विस्मरण हो जाता है, फिर सब घाव भर जाते हैं। फिर नए राग, नए संबंध निर्मित हो जाते हैं। यात्रा पुनः शुरू हो जाती है।

किसके मरने से यात्रा रुकती है! किस चीज के खोने से यात्रा रुकती है! कुछ रुकता नहीं; सब फिर चलने लगता है पुनः। जैसे थोड़ा-सा बीच में भटकाव आ जाता है; रास्ते से जैसे गाड़ी का चाक उतर गया; फिर उठाते हैं चाक को, वापस रख लेते हैं; गाड़ी फिर चलने लगती है।

तो अगर कोई वस्तुओं को छोड़कर भाग जाए, तो थोड़े दिन में उन्हें भूल जाता है। लेकिन भूल जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। भाग जाना, मुक्त हो जाना नहीं है। सच तो यह है, भागता वही है, जो जानता है कि मैं साथ रहकर मुक्त न हो सकूंगा। अन्यथा भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। भागता वही है, जो अपने को कमजोर पाता है।

कृष्ण का अपरिग्रह  एक गहरे अर्थ को सूचित करता है। वह अर्थ है, वस्तुएं जहां हैं, वहीं रहने दो; तुम जहां हो, वहीं रहो; दोनों के बीच सेतु निर्मित मत होने दो। दोनों के बीच कोई सेतु न बन जाए, दोनों के बीच आवागमन न हो। तुम तुम रहो; वस्तुओं को वस्तुएं रहने दो। न तुम वस्तुओं के हो जाओ, न वस्तुओं को समझो कि वे तुम्हारी हो गई हैं।

और ये दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। जिस दिन आपने समझा, वस्तु मेरी हो गई; आप वस्तु के हो गए। जिस दिन आपने कहा कि यह वस्तु मेरी है, उस दिन आप पक्का जानना कि आप भी वस्तु के हो गए।

जिस चीज से भी हम संबंध निर्मित करते हैं, सेतु बन जाता है, और सेतु बनाने के लिए दो की जरूरत पड़ती है। जैसे नदी पर हम सेतु बनाते हैं, ब्रिज बनाते हैं। एक किनारे पर पाया रखकर ब्रिज न बनेगा। दूसरे किनारे पर भी रखना ही होगा। दोनों किनारों पर पाए रखे जाएंगे, तो सेतु बनेगा। तो जब भी हम किसी वस्तु या किसी व्यक्ति से संबंध निर्मित करते हैं, तो एक सेतु निर्मित होता है। एक किनारा हम होते हैं, एक किनारा वह होता है।

कृष्ण ने एक सेतु तोड़ने के लिए एकांत का प्रयोग किया, वह सेतु है व्यक्ति और व्यक्ति के बीच। दूसरा सेतु तोड़ने के लिए वह अपरिग्रह का प्रयोग करते हैं, वह सेतु है व्यक्ति और वस्तु के बीच।

और ध्यान रहे, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज-रोज कम होते चले जाते हैं। अपने आप ही कम होते चले जाते हैं। और व्यक्ति और वस्तु के बीच सेतु बढ़ते चले जाते हैं। उसका कुछ कारण है, वह मैं आपको खयाल दिला दूं।

यह बात थोड़ी-सी अजीब लगेगी, लेकिन ऐसा हुआ है; ऐसा हो रहा है। उसके होने के बुनियादी कारण हैं। व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज कम होते चले जाते हैं, क्योंकि व्यक्तियों के साथ सेतु बनाने में बड़ी झंझटें और  बड़ा उपद्रव है।

सबसे बड़ा उपद्रव तो यही है कि दूसरा भी जीवित व्यक्ति है। जब आप उसको गुलाम बनाने की कोशिश करते हैं, तब वह भी बैठा नहीं रहता। वह भी जोर से अपना जाल फेंकता है। पति अपने को कितना ही कहता हो कि मैं स्वामी हूं, मालिक हूं, बहुत गहरे में जानता है कि जिस दिन मालिक बना है किसी स्त्री का, उसी दिन वह स्त्री मालिक बन गई है, या उसी दिन से चेष्टा में लगी है। सतत संघर्ष चल रहा है मालकियत की घोषणा का कि कौन मालिक है! वह लड़ाई जिंदगीभर जारी रहेगी।

व्यक्तियों के साथ संघर्ष स्वाभाविक है, क्योंकि सभी स्वाधीन होना चाहते हैं। लेकिन नासमझी के कारण किसी को पराधीन करके स्वाधीन होना चाहते हैं, जो कि कभी नहीं हो सकता। जिसने दूसरे को पराधीन किया, वह स्वयं भी पराधीन हो जाएगा। स्वाधीन तो केवल वही हो सकता है, जिसने किसी को पराधीन करने की योजना ही नहीं बनाई।

व्यक्ति के साथ जटिलताएं बढ़ती चली जाती हैं, वस्तु के साथ जटिल मामला नहीं है। आपने एक कुर्सी घर में लाकर रख दी है एक कोने में, तो वहीं रखी रहेगी। आप ताला लगाकर वर्षों बाद भी लौटें, तो कुर्सी वहीं मिलेगी। बहुत आज्ञाकारी है! लेकिन एक पत्नी को उस तरह बिठा जाएंगे, या पति को या बेटे को या बेटी को, तो यह असंभव है। जब तक आप लौटेंगे, तब तक सब दुनिया बदल चुकी होगी। वहीं तो नहीं मिलने वाला है कोई भी।

जीवित व्यक्तित्व की अपनी आंतरिक स्वतंत्रता है, वह काम करेगी। चेतना है, वह काम करेगी। वस्तु से हम अपेक्षा कर सकते हैं; व्यक्ति से अपेक्षा करनी बहुत कठिन है। क्योंकि कल व्यक्ति क्या करेगा, नहीं कहा जा सकता। व्यक्ति अनप्रेडिक्टेबल है। वस्तुओं की भविष्यवाणी हो सकती है; व्यक्तियों की भविष्यवाणी नहीं हो सकती।

तो व्यक्तियों के साथ तो बड़ी कठिनाई हो जाती है, इसलिए आदमी धीरे-धीरे व्यक्तियों की मालकियत छोड़कर वस्तुओं की मालकियत पर हटता चला जाता है। तिजोड़ी में एक करोड़ रुपया बंद है, तो उनकी मालकियत ज्यादा सुरक्षित मालूम होती है। 

व्यक्तियों के ऊपर मालकियत खतरे का सौदा है। इसलिए जैसे-जैसे आदमी के पास समझ बढ़ती जाती है--नासमझी से भरी समझ--वैसे-वैसे वह व्यक्तियों से संबंध कम और वस्तुओं से संबंध बढ़ाए चला जाता है।

इसलिए बड़े परिवार टूट गए। क्योंकि बड़े परिवारों में बड़े व्यक्तियों का जाल था। लोगों ने कहा, इतने बड़े परिवार में नहीं चलेगा। व्यक्तिगत परिवार निर्मित हुए। पति-पत्नी, एक-दो बच्चे--पर्याप्त। लेकिन अब वे भी बिखर रहे हैं। वे भी बच नहीं सकते। क्योंकि पति और पत्नी के बीच भी संबंध बहुत जटिल होता चला जाता है। आने वाले भविष्य में शादी बचेगी, यह कहना बहुत मुश्किल है। सिर्फ वे ही लोग कह सकते हैं, जिन्हें भविष्य का कोई भी बोध नहीं होता। बच नहीं सकती है। खतरे भारी पैदा हो गए हैं। डर यही है कि वह बिखर जाएगी।

लेकिन इसकी जगह वस्तुओं का परिग्रह बढ़ता चला जाता है। एक आदमी दो मकान बना लेता है, दस गाड़ियां रख लेता है, हजार रंग-ढंग के कपड़े पहन लेता है। घर में समा लेता है। चीजें इकट्ठी करता चला जाता है। चीजों पर मालकियत सुगम मालूम पड़ती है। कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं। चीजें जैसी हैं, वैसी रहती हैं। जो कहो, वैसा मानती हैं।

तो धीरे-धीरे आदमी चीजों की मालकियत पर ज्यादा उतरता चला जाता है। जितनी पुरानी दुनिया में जाएंगे, उतना ही व्यक्तियों के संबंध ज्यादा मालूम पड़ेंगे। जितनी आज की दुनिया में आएंगे, उतने व्यक्तियों के संबंध कम, और व्यक्तियों और वस्तुओं के संबंध ज्यादा हो जाएंगे। इसलिए भविष्य के लिए अपरिग्रह का सूत्र बहुत सोचने जैसा है। भविष्य में परिग्रह भारी होता जाएगा, होता जा रहा है, रोज बढ़ता जा रहा है।

 वस्तुओं पर हमारा आग्रह बढ़ता चला जाता है। 

छोटे-से बच्चे पर भी मालकियत करनी बहुत मुश्किल बात है। मां-बाप भी छोटे-छोटे बच्चों को फुसलाते हैं और रिश्वत खिलाते हैं। हां, रिश्वत बच्चों जैसी होती है, चाकलेट है, टाफी है। बाप घर लौटता है, तो सोच लेता है कि आज क्या रिश्वत ले चलनी है। क्योंकि बच्चा दरवाजे पर खड़ा होगा। छोटा-सा बच्चा, जिसकी अभी जीवन की कोई ताकत नहीं, कुछ नहीं। उससे भी बाप डरता है घर लौटते वक्त। छोटे-छोटे बच्चों से भी बाप और मां को झूठ बोलना पड़ता है। 

व्यक्ति के साथ संबंध बनाना जटिल बात है। छोटा-सा जीवित व्यक्ति और जटिलताएं शुरू हो जाती हैं। तो हम फिर व्यक्तियों को हटाना शुरू कर देते हैं। हटा दो व्यक्ति को, वस्तुओं से संबंध बना लो। घर में जाओ, जहां भी नजर डालो, आप ही मालिक हो। कुर्सियां रखी हैं, फर्नीचर रखा है, फ्रिज रखा है, कार रखी है, रेडिओ रखे हैं। आप बिलकुल मालिक की तरह हैं। जहां भी नजर डालो, मालिक हैं। तो वस्तुएं बढ़ती जाती हैं, व्यक्ति से संबंध क्षीण होते चले जाते हैं। सभ्यता जब विकसित होती है, तो वस्तुओं से संबंध रह जाते हैं आदमियों के और आदमियों से खो जाते हैं।

इसलिए दूसरे सूत्र को जानकर मैंने फिर से कह देना चाहा, वह छूट गया था, कि अपरिग्रह।

अपरिग्रही चित्त वह है, जो वस्तुओं की मालकियत में किसी तरह का रस नहीं लेता। उपयोगिता अलग बात है, रस अलग बात है। वस्तुओं में जो रस नहीं लेता, वस्तुओं के साथ जो किसी तरह की गुलामी के संबंध निर्मित नहीं करता,  वस्तुओं के साथ जिसका कोई रोमांस नहीं चलता।

रोमांस चलता है वस्तुओं के साथ। जब आप कभी नई कार खरीदने का सोचते हैं, तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। स्थिति करीब-करीब वैसे हो जाती है, जैसे कोई नया व्यक्ति किसी नई लड़की के प्रेम में पड़ जाता है और रात सपने देखता है। कार उसी तरह सपनों में आने लगती है! वस्तुओं का भी इनफैचुएशन है। उनके साथ भी रोमांस चल पड़ता है। यह वस्तुओं में रस न हो, वस्तुओं का उपयोग हो।

और ध्यान रहे, वस्तुओं में जितना ज्यादा रस होगा, आप उतना ही कम उपयोग कर पाएंगे। जितना कम रस होगा वस्तु का, उतना पूरा उपयोग कर पाएंगे। क्योंकि उपयोग के लिए एक डिटैचमेंट, एक अनासक्त दूरी जरूरी है।

अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं में रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं है। वस्तुएं हैं, उनका उपयोग ठीक है। हीरे की अंगूठी है, तो पहन लें; और नहीं है, तो नहीं। हीरे की अंगूठी है, तो ठीक; नहीं है, तो न होना ठीक। जिस दिन ये दोनों बातें एक-सी हो जाएं और खिलवाड़ हो जाए कि हीरे की अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, तो घास की अंगूठी भी बनाकर पहनी जा सकती है; और बिलकुल न हो, तो नंगी अंगुली का अपना सौंदर्य है। इतनी सरलता से चित्त चलता हो वस्तुओं के बीच में, तो अपरिग्रही चित्त है। भागा हुआ नहीं, वस्तुओं के बीच जीता हुआ। लेकिन रसमुक्त। उपयोग करता है, लेकिन आसक्त नहीं, विक्षिप्त नहीं, पागल नहीं है।

और वही व्यक्ति उपयोग कर पाता है, जो विक्षिप्त नहीं है। जो विक्षिप्त है, वह तो उपयोग कर ही नहीं पाता। उसका उपयोग तो वस्तु कर लेती है। वस्तु को सम्हालकर रखता है, सेवा करता है, झाड़ता-पोंछता है। और सपने देखता रहता है कि कभी पहनूंगा, कभी पहनूंगा। वह कभी कभी नहीं आता। और वह वस्तु हंसती होगी, अगर हंस सकती होगी।

अपरिग्रही चित्त, एकांत में जीने वाला चित्त ही प्रभु के सतत स्मरण में उतर सकता है। और सतत स्मरण में उतरने का अर्थ है, एक क्षण भी अगर पूर्ण स्मरण में उतर जाए, तो सतत स्मरण बन जाता है। भूला नहीं जा सकता; भूलने का उपाय नहीं है।

प्रभु की एक झलक मिल जाए, तो भूलने का उपाय नहीं है। एक क्षण भी द्वार खुल जाए और हम देख लें कि वह है, फिर कोई हर्ज नहीं है। हम कभी न देख पाएं, तो भी भीतर उसकी धुन बजती ही रहेगी। श्वास-श्वास जानती ही रहेगी, रोआं-रोआं पहचानता ही रहेगा कि वही है, वही है, वही है। पूरे जीवन की यह धुन बन जाएगी कि वही है। लेकिन एक क्षण भी!

कृष्ण कहते हैं, सतत, प्रतिक्षण, निरंतर, व्यवधान न हो जरा भी, तब मुझमें प्रतिष्ठा है।

एक क्षण भी हो जाए, तो निरंतर हो जाएगा। एक क्षण कैसे हो जाए? कहां जाएं हम उस क्षण को पाने के लिए? वह मोमेंट, वह क्षण कहां मिले कि एक बार दरस-परस हो जाए, एक बार आंख के सामने आ जाए उसकी छवि? एक बार हम स्वाद ले लें उसके आलिंगन का, एक क्षण के लिए--कहां जाएं? कहां खोजें?

स्वयं के ही अंदर। उसके अतिरिक्त कहीं कोई और उससे मिलन न होगा। अपने ही भीतर। और अपने भीतर जाना हो, तो जो-जो बाहर है, उसके इलीमिनेशन के अतिरिक्त और कोई विधि नहीं है। जो-जो बाहर है, यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं, इस बोध के अतिरिक्त भीतर जाने का कोई उपाय नहीं है।


एक-एक चीज को इनकार करते चले जाना पड़ेगा। किसी से भी शुरू करें। शरीर से शुरू करें, तो जानना पड़ेगा कि शरीर नहीं है। भीतर जाएं, श्वास मिलेगी। जानना पड़ेगा, श्वास भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, विचार मिलेंगे। जानना पड़ेगा, विचार भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, वृत्तियां मिलेंगी। जानना पड़ेगा, वृत्तियां भी वह नहीं है। और उतरते जाएं, और उतरते जाएं। भाव मिलेंगे, जानें कि भाव भी वह नहीं है। उतरते जाएं गहरे-गहरे कुएं में!

एक घड़ी ऐसी आ जाएगी कि इनकार करने को कुछ भी न बचेगा, सन्नाटा और शून्य रह जाएगा। आ गई अंतर-गुफा, जहां अब यह भी कहने को नहीं बचा कि यह भी नहीं है। वहीं, उसी क्षण, उसी क्षण वह विस्फोट हो जाता है, जिसमें प्रभु का अनुभव होता है। बस, वह अनुभव एक क्षण को हो जाए, फिर निरंतर श्वास-श्वास, रोएं-रोएं, उठते-बैठते, सोते-जागते वह गूंजने लगता है। तब है स्मरण निरंतर।

और कृष्ण कहते हैं, ऐसे निरंतर स्मरण को उपलब्ध व्यक्ति ही मुझमें प्रतिष्ठित होता है, प्रभु में प्रतिष्ठित होता है। या उलटा कहें तो भी ठीक कि ऐसे व्यक्ति में, ऐसे निराकार, शून्य हो गए व्यक्ति में, ऐसे सतत सुरति से भर गए व्यक्ति में प्रभु प्रतिष्ठित हो जाता है

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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