शनिवार, 2 सितंबर 2023

कृष्ण स्मृति 2 महावीर बुद्ध की व्याख्या

"आपने अभी कहा कि बुद्ध और महावीर जैसे संन्यासी दुखवादी हैं। लेकिन संन्यास उनके वैभवपूर्ण जीवन से निकला है, संन्यास उनके वैभव का अगला चरण है, इसलिए उसके आधार में आप दुख को नहीं रख सकेंगे।'

नहीं, मैंने महावीर और बुद्ध को दुखवादी संन्यासी नहीं कहा। अतीत का संन्यास दुखवादी था। महावीर का व्यक्तित्व भी अगर हम देखें और बुद्ध का व्यक्तित्व अगर देखें, तो भी जीवन को छोड़ने वाला है। महावीर और बुद्ध दुखवादी हैं, ऐसा मैंने नहीं कहा, क्योंकि मैं मानता हूं कि महावीर और बुद्ध  ने पाया है। महावीर का दुख बहुत भिन्न है। महावीर का दुख सुख की ऊब है। बुद्ध का दुख सुख से ऊब जाना है। उनका दुख सुख का अभाव नहीं है, "एब्सेंस' नहीं है। ऐसा नहीं है कि महावीर को सुख की कमी थी इसलिए वे संन्यासी हो गए। नहीं, अति सुख हो जाए तो सुख व्यर्थ हो जाता है। लेकिन फिर भी वे सुख को छोड़कर गए। छोड़ना उन्हें अब भी सार्थक है। सुख तो निरर्थक हुआ, लेकिन छोड़ना सार्थक रहा। कृष्ण को सुख भी व्यर्थ है, छोड़ना भी व्यर्थ है। कृष्ण के लिए व्यर्थता की गहराई बहुत ज्यादा है। समझें?

अगर मैं किसी चीज को पकड़ता हूं, तो भी मेरे लिए उसमें कुछ अर्थ है। और अगर मैं उसे छोड़ता हूं तो भी निषेधात्मक अर्थ है। नहीं छोडूंगा तो दुख पाऊंगा। इतना अर्थ तो है ही। महावीर और बुद्ध का संन्यास दुख से निकला है, ऐसा मैं नहीं कहता। सुख से ही निकला। सुख की ऊब से निकला। वे किसी और बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर चले गए। कृष्ण में उनसे भेद है। कृष्ण किसी बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर नहीं जाते, इस सुख को भी उस बड़े सुख की खोज की सीढ़ी ही बनाते हैं। इसे छोड़कर नहीं जाते। इस सुख में और उस सुख में उन्हें विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वह जो बड़ा सुख है, इसी सुख का विस्तार है। वह इसी गीत की अगली कड़ी है, वह इसी नृत्य का अगला चरण है। वह जो बड़ा सुख है, वह जो आनंद है, वह इस सुख का विरोधी नहीं है। बल्कि कृष्ण के लिए इस सुख में भी उस बड़े आनंद की ही झलक है, यह इसकी ही शुरुआत है।

बुद्ध और महावीर भी सुख से ही जाते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि छोड़ने की दृष्टि है। वह जो छोड़ने की दृष्टि है वह हम दुखवादियों को और भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ी है। बुद्ध और महावीर सुख से ऊबकर गए हैं, लेकिन हम दुखी लोगों को ऐसा लगा है कि दुख से ही गए हैं। तो बुद्ध और महावीर की व्याख्या भी हमने जो की है वह भी दुखवादियों की व्याख्या है। जैसे कृष्ण के साथ अन्याय हुआ, उससे थोड़ा कम सही, लेकिन बुद्ध और महावीर के साथ भी अन्याय हुआ है।

हम दुखी हैं। हम जब छोड़कर जाते हैं तो दुख के कारण छोड़कर जाते हैं। बुद्ध और महावीर जब छोड़कर जाते हैं तो सुख के कारण छोड़कर जाते हैं। हममें और बुद्ध और महावीर में भी फर्क है। हमारे छोड़ने का मूल आधार दुख होता है, उनके छोड़ने का मूल आधार सुख होता है। हैं तो वे भी सुख से ही गए हुए संन्यासी, फिर भी कृष्ण और उनमें  एक फर्क है और वह फर्क यह है कि वे सुख को छोड़कर गए हैं, कृष्ण छोड़कर नहीं जा रहे हैं। कृष्ण जो है उसी को स्वीकार कर  रहे हैं । असल में सुख को छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। भोगने योग्य का सवाल ही नहीं है, छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। जीवन जैसा है उसमें कुछ भी रद्दोबदल करने की कृष्ण की कोई इच्छा नहीं है।

एक फकीर ने कहीं कहा है अपनी एक प्रार्थना में कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है लेकिन तेरी दुनिया नहीं। सभी फकीर यही कहेंगे कि तू तो मुझे स्वीकार है, लेकिन तेरी दुनिया नहीं। ये नास्तिक से उलटे हैं। नास्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार है, तू नहीं। आस्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार नहीं है, तू स्वीकार है। ये दोनों एक ही सिक्के के दोहरे पहलू हुए। कृष्ण की आस्तिकता बहुत अदभुत है। कहना चाहिए, कृष्ण ही आस्तिक हैं। तू भी स्वीकार है, तेरी दुनिया भी स्वीकार है। और यह स्वीकृति इतनी गहरी है कि कहां तेरी दुनिया समाप्त होती है और कहां से तू शुरू होता है, यह तय करना मुश्किल है। असल में तेरी दुनिया भी तेरा फैला हुआ हाथ है और तू ही तेरी दुनिया का छिपा हुआ अंतर्मम है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है।

कृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, इसे ध्यान में रखना जरूरी है--दुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं। जो भी है उसे छोड़ ही नहीं रहे, छोड़ने का भाव ही नहीं है। छोड़ने की बात ही नहीं है। छोड़ने से ही, अगर हम ठीक से समझें तो व्यक्ति का 'मै' शुरू हो जाता है। जैसे ही हम छोड़ते हैं, मैं शुरू हो जाता है। लेकिन अगर हम कुछ छोड़ते ही नहीं, तो मेरे होने का उपाय ही नहीं है। इसलिए कृष्ण से निरहंकारी व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है। और निरहंकारी हैं इसलिए ही उन्हें अहंकार की बात करने में भी कोई कठिनाई नहीं होती है, वह अर्जुन से कह सकते हैं--तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा। यह बड़े मजे की बात है, यह बड़े अहंकार की घोषणा है। इससे ज्यादा "इगोइस्ट' घोषणा क्या होगी कि कोई आदमी किसी से कहे--तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा! लेकिन हमको भी दिखाई पड़ता है कि यह अहंकार की घोषणा है, कृष्ण को दिखाई नहीं पड़ा होगा? इतनी अकल तो रही ही होगी, जितनी हममें है। इतना तो कृष्ण को भी दिखाई पड़ सकता है कि यह अहंकार की घोषणा है, लेकिन इसे वे बड़ी सहजता से कर सके। यह वही आदमी कह सकता है, जिसके पास अहंकार हो ही नहीं। यह वही आदमी कर सकता है, आ जा मेरी शरण में, जिसको मेरे का कोई पता नहीं है। इसलिए जब वह कह रहे हैं कि आ जा मेरी शरण में, तब वह यही कह रहे हैं कि शरण में आ जा। छोड़ दे सब। अपना होना छोड़ दे और जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर ले।

बड़े मजे की बात है, कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू युद्ध में लड़ जा। अगर दोनों की बातों को देखें तो अर्जुन ज्यादा धार्मिक मालूम पड़ता है। कृष्ण की बात बहुत धार्मिक नहीं मालूम पड़ती। कृष्ण कहते हैं, लड़। अर्जुन कहता है, मारूंगा, दुख होगा, पीड़ा होगी, अपने हैं, प्रियजन हैं, संबंधी हैं, मित्र हैं, गुरु हैं। इनको मारूंगा, बहुत दुख होगा। इन सबको मारकर मैं बड़े-से-बड़ा सुख भी न चाहूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं और भीख मांग लूं। आत्मघात कर लूं, वह भी सरल मालूम पड़ता है बजाय इन सबको मारने के। कौन धार्मिक होगा जो कहेगा कि कृष्ण को जो अर्जुन कह रहा है वह गलत कह रहा है। सभी धार्मिक कहेंगे, ठीक कहता है; अर्जुन के मन में धर्म-बुद्धि पैदा हुई है। लेकिन कृष्ण उससे कहते हैं कि तू विचलित हो गया; तेरी धर्म-बुद्धि नष्ट हो गई है। क्योंकि कृष्ण यह कहते हैं कि तू पागल है, तू सोचता है किसी को मार सकेगा! कोई मरता है कभी! तू सोचता है कि ये जो खड़े हैं, तू इन्हें बचा सकेगा? कोई किसी को बचा सका है कभी? तू सोचता है, तू युद्ध से बच सकेगा, तू अहिंसक हो सकेगा। लेकिन जहां "मैं' है, खुद को बचाना है, वहां अहिंसा हो सकती है कभी?

नहीं, जो आ गया है उसे स्वीकार कर, अपने को छोड़ और लड़। जो सामने है उसमें डूब। सामने युद्ध है। सामने कोई मंदिर नहीं है। सामने कोई प्रार्थना नहीं चल रही है, सामने कोई भजन-कीर्तन नहीं हो रहा है कि उसमें डूब। सामने युद्ध है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, इसमें तू डूब। अपने को छोड़। तू कौन है! और एक बहुत मजे की बात कहते हैं कि जिन्हें तू देखता है कि मरेंगे, मैं जानता हूं कि वे पहले ही मर चुके हैं। वे सिर्फ मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तू ज्यादा-से-ज्यादा निमित्त हो सकता है। तू अपने को ऐसा मत मान कि तू मार रहा है, क्योंकि तब तू निमित्त न रह जाएगा, कर्ता हो जाएगा। तू ऐसा भी न मान कि अगर तू छोड़कर भागेगा तो तू सोचेगा, कि तूने बचाया; तब भी भ्रम होगा। तेरे बचाने से ये न बचेंगे, तेरे मारने से ये न मरेंगे। तू इसमें पूरा हो, इसमें पूरा डूब। जो तुझ पर आ गया है, तू उसे पूरा निभा। और पूरा तू तभी निभा सकता है जब तू अपनी बुद्धि को छोड़े। तू यह छोड़ कि मैं हूं, और मैं के दृष्टिकोण से देखना छोड़। इसको अगर ठीक से समझें तो इसका मतलब क्या हुआ?

इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई "मैं' के दृष्टिकोण को छोड़े तो कर्ता न रह जाएगा, अभिनेता ही रह सकता है। मैं राम हूं और मेरी सीता खो जाए तब मैं जिस भांति रोऊंगा, एक रामलीला में काम करूं और सीता खो जाए, तब भी रोऊंगा। हो सकता है रोना मेरा असली राम के रोने से ज्यादा कुशल हो। होगा ही। क्योंकि असली राम को "रिहर्सल' का कोई मौका नहीं है। सीता एक ही बार खोती है। जब खो जाती है तभी पता चलता है। इसकी कोई पूर्व तैयारी भी नहीं होती है। और राम पूरे कर्ता की तरह डूब जाते हैं। चिल्लाते हैं, रोते हैं, दुखी हैं, पीड़ित हैं। इसलिए राम को इस देश ने कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा। पूरे अभिनेता वे नहीं हैं। "एक्टिंग' अधूरी  करते हैं। और चूक-चूक जाते हैं। कर्ता हो जाते हैं। इसलिए राम के व्यक्तित्व को हम "चरित्र' कहते हैं। अभिनेता का कोई चरित्र नहीं होता। अभिनेता की लीला होती है, खेल होता है। इसलिए कृष्ण के चरित्र को हम "लीला' कहते हैं।

कृष्ण की है लीला, वह कृष्ण-लीला है। राम का है चरित्र, वह है चरित्र। चरित्र बड़ी गंभीर चीज है। उसमें होना पड़ता है, चुनाव करना पड़ता है कि यह करना है और यह नहीं करना है, यह शुभ है और यह अशुभ है। अर्जुन चरित्रवान बनना चाहता था और कृष्ण उसको लीलावान बनाने के लिए उत्सुक हैं। अर्जुन कहता था मैं यह न करूं, यह बुरा है, और यह करूं जो अच्छा है। कृष्ण कहते हैं जो आ जाता है, तू अपने को बीच में खड़ा मत कर और जो आ जाता है उसे होने दे। यह पूर्ण स्वीकृति है। इस पूरी स्वीकृति में कुछ भी छोड़ना नहीं है। बड़ी कठिन है बात। क्योंकि पूर्ण स्वीकृति का मतलब है, न अब कुछ अशुभ है, न कुछ शुभ है। न अच्छा है, न बुरा है; न सुख है, न दुख है। पूर्ण स्वीकृति का मतलब है कि हमारी जो द्वंद्वात्मक सोचने की व्यवस्था है, वह जो हम दो में तोड़कर ही सोचते हैं, न कोई मरेगा। इसलिए तू बेफिक्री से खेल। कृष्ण यह कह रहे हैं कि वह जो तेरे द्वंद्व में सोचने की आदत है कि यह ठीक है, यह मैं करूं और यह ठीक नहीं है, यह मैं न करूं, यह तू छोड़; इस पृथ्वी पर जो भी है वह परमात्मा है, इसलिए ठीक और गैर-ठीक का फैसला नहीं किया जा सकता।बड़ी कठिन है यह बात।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

कृष्ण चुनावरहित हैं, कृष्ण समग्र हैं, "इंटीग्रेटेड' हैं और इसलिए पूर्ण हैं। इसलिए हमने किसी दूसरे व्यक्ति को पूर्ण होने की बात नहीं कही। क्योंकि वह अधूरा होगा ही। राम कैसे पूर्ण हो सकते हैं, वह अधूरे होंगे ही। आधे का उनका चुनाव है। जो नहीं चुनता वही पूरा हो सकता है। लेकिन जो नहीं चुनता उसे कठिनाइयों में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि उसकी जिंदगी में वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो अंधेरा है और वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो उजाला है। उसकी जिंदगी धूप-छांवों का ताल-मेल होगी। उसकी जिंदगी सीधी और एकरस नहीं हो सकती। एकरस जिंदगी उनकी ही हो सकती है जिनका चुनाव है। एक जिंदगी के कोने को वे साफ-सुथरा कर सकते हैं, लेकिन जिस कचरे को उन्होंने हटाया है वह जिंदगी के किसी दूसरे कोने में इकट्ठा होता रहेगा। लेकिन जिसने पूरे ही मकान को स्वीकार कर लिया है और कचरे को भी स्वीकार कर लिया है और धूप को भी, और अंधेरे को भी, और...अब उसका क्या होगा। उस आदमी के बाबत हम अपनी दृष्टि से नजर बना सकते हैं। हमारा चुनाव ही हमारी नजर होगी। हम कह सकते हैं कि यह आदमी बुरा है, क्योंकि हम बुरा अगर देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। हम कह सकते हैं यह आदमी भला है, क्योंकि हम भला देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। और उसमें दोनों हैं। दोनों भी हमारी भाषा की वजह से कहना पड़ते हैं, उसमें तो एक ही है। लेकिन उस एक के ही दोनों पहलू हैं।

इसलिए, बुद्ध और महावीर को मैं मानता हूं कि उनका चुनाव है। वे शुभ हैं, पूर्ण शुभ हैं और इसलिए पूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि पूर्ण में वह अशुभ का क्या होगा? बुद्ध और महावीर और कृष्ण को एक साथ खड़ा करें तो हमें बुद्ध और महावीर ज्यादा जंचेंगे। ज्यादा आकर्षक मालूम होंगे, ज्यादा साफ-सुथरे और निखरे दिखाई पड़ेंगे। वहां धब्बा ही नहीं है उनकी चादर पर। चादर बिलकुल साथ-सुथरी है। एकदम शुभ्र है। उसमें काले की कोई गोट भी नहीं है। महावीर और कृष्ण अगर साथ-साथ खड़े हों तो हमें भी महावीर ही जंचेंगे। कृष्ण थोड़े-थोड़े संदेह में छोड़ जाएंगे। कृष्ण सदा ही संदेह में छोड़ गए हैं। इस आदमी में दोनों बातें एक साथ हैं। यह महावीर जैसा शुभ्र भी है, और अशुभ में किस को रखें महावीर के मुकाबले? यह चंगेज या हिटलर जैसा अशुभ भी होने की हिम्मत रखता है। अगर हम महावीर को युद्ध में तलवार लेकर खड़ा कर सकें--जो हम कर न सकेंगे--तो वैसा है यह आदमी। या अगर हम चंगेज को राजी कर लें कि वह महावीर जैसा हो जाए, सब छोड़कर नग्न खड़ा हो जाए, शांत और निर्मल हो जाए--जो हम न कर सकेंगे--तो वैसा है यह आदमी। लेकिन इस आदमी के साथ क्या करें, निर्णय क्या करें? कृष्ण के साथ सब निर्णय टूट जाते हैं जो निर्णय लेते ही नहीं। कृष्ण के साथ निर्णय लेने वाला चित्त बहुत जल्दी भाग जाएगा। क्योंकि जब उसे शुभ्र दिखाई पड़ेगा तब पैर पकड़ लेगा और जब अशुभ दिखाई पड़ेगा तब क्या करेगा?

इसलिए कृष्ण के भक्तों ने भी चुनाव किया है । अगर सूर कृष्ण की बहुत चर्चा करते हैं तो बालपन की बहुत चर्चा करते हैं। बाद का हिस्सा छोड़ देते हैं। सूर की हिम्मत के बाहर है। सूर तो बहुत कमजोर हिम्मत के आदमी हैं। आंखें फोड़ ली हैं एक स्त्री को देखने के डर से। अब जरा सोचने जैसा है कि सूरदास ने, कहीं ये आंखें किसी स्त्री के प्रेम में न डाल दें और कहीं ये आंखें किसी वासना में न ले जाएं, आंखें फोड़ ली हैं; यह आदमी, यह आदमी कृष्ण को पूरा स्वीकार कर सकेगा? बड़ा प्रेम है सूर का कृष्ण से, शायद कम ही लोगों का ऐसा प्रेम रहा है, तो फिर क्या करे यह? कृष्ण को इसे दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा। बालपन के कृष्ण को यह पकड़ लेगा, युवा कृष्ण को यह छोड़ देगा। क्योंकि युवा कृष्ण समझ के बाहर है। क्योंकि युवा कृष्ण समझ में आ सकता था अगर आंखें न फोड़ लेता। सूरदास से संगत बैठ जाती। लेकिन युवा कृष्ण की आंखें--ऐसी आंखें ही कम लोगों के पास रही होंगी। इतनी स्त्रियां आकर्षित हो जाएं ऐसी आंखें पाना बहुत मुश्किल है। बड़ा मुश्किल है। बड़ा सवाल यह नहीं है कि इतनी स्त्रियां आकर्षित हुईं, बड़ा सवाल यह है कि एक ही आदमी की आंखों पर। यह आकर्षण असाधारण रहा होगा। ये आंखें "मेग्नेटिक' रही होंगी, ये आंखें बड़ा चुंबक रही होंगी। सूरदास के पास इतनी कीमती आंखें नहीं थीं। क्योंकि सूरदास ही उत्सुक थे, कोई स्त्री उत्सुक थी इसका मुझे पता नहीं है।

सूरदास कैसे चुनाव करेंगे, क्या करेंगे? तो बच्चे को पकड़ लेंगे, स्वीकार कर लेंगे कि बाल-कृष्ण। इसलिए कृष्ण पर रचे गए शास्त्र भी चुनाव के शास्त्र हैं। सूरदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं, केशवदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं। केशव बाल-कृष्ण में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। केशव का मन राग और रंग का मन है। केशव का मन युवा का मन है। वह आंख फोड़ने वाला मन नहीं है। रात भी आंख बंद करनी न पड़े ऐसा मन है। तो केशव क्या करेंगे? केशव बाल-कृष्ण की बात ही भूल जाएंगे, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह उस कृष्ण को चुन लेंगे जो नाच रहा है। इसलिए नहीं कि कृष्ण के नाच को समझ रहे हैं वह, बल्कि इसलिए कि नाचनेवाला उनका मन है। इसलिए कृष्ण पर नाचना थोप देंगे। उस कृष्ण को पकड़ लेंगे जो स्त्रियों के वस्त्र लेकर वृक्ष पर चढ़ गया है नग्न छोड़कर। इसलिए नहीं कि कृष्ण जिस तरह उन स्त्रियों को नग्न छोड़ गया था, उसे केशव समझ सकते हैं, बल्कि इसलिए कि स्त्रियों को नग्न करना चाहते हैं। तो केशव का अपना चुनाव है, सूर का अपना चुनाव है। भागवत अलग कृष्ण की बात करती है, गीता अलग कृष्ण की बात करती है। ये सब चुनाव बंट गए हैं। क्योंकि यह आदमी पूरा है और इसे पूरा पचा लेने का साहस पूरे आदमी में ही हो सकता है। अधूरा आदमी इसमें से बांट लेगा, छांट लेगा, कहेगा इतने तक ठीक, इसके आगे आंख बंद कर लेते हैं, इसके आगे तुम नहीं हो। या इसके आगे होओगे भी तो वह कहानी है। या इसके आगे होओगे भी तो नर्क में फल पाओगे। और इसके आगे भी तुम थे तो हमारे काम के नहीं हो। हमारे काम के यहां तक। इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व पर मील के पत्थर लगा दिए गए हैं। सबने अपना-अपना हिस्सा बांट लिया है। जिसको जो प्रीतिकर लगता है वह चुन लेता है। लेकिन कृष्ण एक सागर की तरह हैं, जिसमें हम अपने घाट भला बना लें, वह घाट पूरे सागर पर नहीं बनता, वह हमारे घाट की ही जमीन पर बनता है, हम पर ही बनता है। वह सागर का बंधन नहीं है। वह हमारी समझ की सूचना है।

इसलिए मैं तो पूरे कृष्ण की बात करूंगा। इसलिए बात बहुत जगह अबूझ हो जाएगी। और बात बहुत मुश्किल में डाल देगी। और बात बहुत जगह आपकी समझ के बाहर जाने लगेगी। वहां आप समझ के बाहर चलने की भी हिम्मत करना। नहीं तो आप अपनी समझ की जगह रह जाएंगे और मील का पत्थर आ जाएगा और उसके आगे का कृष्ण आपके काम का न रह गया। और कृष्ण अगर हैं काम के तो पूरे-के-पूरे हैं। कोई भी व्यक्ति पूरा ही काम का होता है। काट-काटकर मुर्दा अंग हाथ में आते हैं, जिंदा आदमी समाप्त हो जाता है। इसलिए जिन्होंने भी कृष्ण को काटा है, किसी के हाथ में हाथ कृष्ण का, किसी का पैर है, किसी की आंख है, किसी का गला है। लेकिन पूरे कृष्ण हाथ में नहीं हो सकते। पूरे कृष्ण को हाथ में होने की तो एक ही संभावना है कि आप पूरे को बिना चुने समझने को राजी हो जाएं, और यह समझना बड़े आनंद की यात्रा होगी, क्योंकि इस समझने में आप भी पूरे हो सकते हैं। इस समझने में आप का भी पूरा होना यह शुरू हो जाएगा। अगर इस समझने के लिए आप राजी हुए और चुनाव न किया, तो आप अचानक भीतर पाएंगे कि आप के भी विरोधी छोर घुलने-मिलने लगे, आप में भी धूप-छांव एक होने लगी। आपके भीतर भी वह जो कटा-कटा व्यक्तित्व है, वह अखंड होने लगा। आप भी योग को उपलब्ध होने लगे। कृष्ण के योग का एक ही अर्थ है, अखंड, एक हो जाना।

योग की दृष्टि अखंड ही हो सकती है। योग का मतलब है, "दि टोटल', जोड़। इसलिए कृष्ण को महायोगी कहा जा सकता। योगी तो बहुत हैं, लेकिन वे भी योगी नहीं हैं, क्योंकि जोड़ वहां नहीं है, सब चुनाव है। "च्वाइसलेसनेस' वहां नहीं है।

इस अखंड कृष्ण की चर्चा कठिन तो पड़ेगी, बहुत कठिन पड़ेगी, क्योंकि बुद्धि की जो "कटेग्रीज़' हैं, बुद्धि के सोचने के जो मापदंड हैं, वे बंटे हुए हैं। बटखरे हैं बुद्धि के, बांट हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि किसी के पास पुराने बांट हैं और किसी के पास नए बांट हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मीट्रिक प्रणाली के बांट हैं कि पुराना सेर और पुराना पाव और छटांक है, इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चाहे पुरानी हो, चाहे नई; बुद्धि चाहे अतीत की हो, चाहे आज की; चाहे "अल्ट्रा माडर्न' हो, चाहे "अल्ट्रा एनशिएंट' हो; चाहे कितनी ही प्राचीन बुद्धि हो--शास्त्रों की हो--और चाहे कितनी ही नई हो--विज्ञान की हो--इससे फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि का एक धर्म है। वह बांटकर चलती है, तोड़कर चलती है। निर्णय करती है, यह ठीक और यह गलत।

अगर आपको कृष्ण को समझना हो, तो कुछ ही दिनों में निर्णय मत करना। इन  दिनों में सुनना, समझना, निर्णय मत करना। और जहां-जहां नासमझी की जगह आ जाए कि अब समझ में नहीं आता, वहां-वहां फिकिर मत करना और नासमझी में भी जाने की हिम्मत करना। "इर्रेशनल' बहुत जगह आ जाएगा, क्योंकि कृष्ण को "रेशनल' नहीं बनाया जा सकता। कृष्ण को बुद्धिगत नहीं बनाया जा सकता। और वह जो अबुद्धि है, या बुद्धि-अतीत जो है, वह भी वहां है। वह जो बुद्धि-अतीत है, वह जो "ट्रांसेंड' करता है, बुद्धि के पार चला जाता है, वह भी वहां है।

इसलिए कृष्ण को तर्कयुक्त ढांचों में बिठाना असंभव है। वह तर्क मानते नहीं, वह खंड मानते नहीं। वह सब खंडों में बहते चले जाते हैं। वह हमारे घाट मानते नहीं, सब घाटों को छूते हैं। इसलिए कठिनाई तो पड़ेगी। बड़ी कठिनाई यही पड़ेगी कि आपका घाट चुकने लगेगा और कृष्ण न चुकेंगे। वह कहेंगे, मैं आगे भी हूं। तुम्हारा घाट भी मैं छूता हूं, लेकिन और घाट भी मैं छूता हूं। मैं बुरे के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं, भले के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं। शांति का मेरा छोर नहीं, और युद्ध में मैं चक्र लेकर भी खड़ा हो जाता हूं। प्रेम का मेरा अंत नहीं, लेकिन तलवार से गर्दन भी काट सकता हूं। संन्यासी मैं पूरा हूं, लेकिन गृहस्थी होने में मुझे कोई पीड़ा नहीं है। परमात्मा से मेरा बड़ा लगाव है, लेकिन संसार से रत्ती भर कम नहीं है, संसार से भी उतना ही है। न मैं संसार के लिए परमात्मा को छोड़ सकता, न मैं परमात्मा के लिए संसार को छोड़ सकता हूं। मैंने तो पूरे के लिए राजी होने की कसम ले ली है। मैं हर रंग में रहूंगा।

  इसलिए कृष्ण को अभी तक पूरा भक्त नहीं मिला। अर्जुन भी नहीं था। नहीं तो इतनी मेहनत न करनी पड़ती। युद्ध के मैदान पर गीता जैसा लंबा वक्तव्य देना पड़ा था, तो हम सोच सकते हैं अर्जुन कैसा शंकाशील, कैसा संदेही, कैसा तर्क उठाने वाला--सब तरह की कोशिश की होगी; युद्ध के क्षण में, रणभेरी बज चुकी हो, सेनाएं आमने-सामने खड़ी हो गई हों, युद्ध का घंटानाद शुरू हो गया हो और वहां इतनी लंबी गीता समझानी पड़े। तो अर्जुन राजी नहीं हो गया होगा। उसकी बुद्धि बार-बार जोर मारती रही है कि आप ऐसा भी कहते हो और आप ऐसा भी कहते हो। वह बार-बार सवाल जो उठाता है, वह "कंट्राडिक्शन' के हैं। वह कृष्ण से कहता है कि आपमें विरोधाभास है। आप एक तरफ ऐसा भी कहते हो और दूसरी तरफ ऐसा भी कहते हो! यह आप दोनों बातें कहते हो! उसके सारे सवाल गीता में बड़े तर्कसंगत हैं। वह यही कह रहा है कि तुम यह भी कहते हो और यह भी कहते हो? दोनों बातें एक साथ! तो फिर मेरी समझ में नहीं आता। अब तुम मुझे फिर से समझाओ। समझा नहीं पाते। समझा नहीं पाएंगे--कृष्ण जैसा पूरा व्यक्ति भी समझा नहीं पाता। समझाने से थक जाते हैं तो फिर दूसरा उपाय करना पड़ता है। अपने को पूरा दिखा देते हैं। यह समझाने का कोई उपाय नहीं। यह आदमी मानता ही नहीं, और यह तर्क जो उठाता है ठीक ही उठाता है। कृष्ण भी समझते हैं कि यह तर्क ठीक ही है, क्योंकि एक बात इससे उलटी पड़ती है, एक बात इससे उलटी पड़ती है--दोनों "इनकंसिस्टेंट' हैं। तो इसको समझाओ कैसे! अर्जुन यही कहता है कि "कंसिस्टेंसी' चाहता हूं, संगति चाहता हूं; हे कृष्ण! संगति बताओ! तुम जो कहते हो उससे मुझे भ्रमजाल में मत डालो, उससे तुम मुझे "कन्फ्यूज्ड' मत करो। लेकिन कृष्ण उसका "कन्फ्यूज' किए चले जाते हैं। वह दोनों बातें, एक वक्तव्य देते नहीं कि तत्काल दूसरा देते हैं जो इसका खंडन कर जाता है। करुणा, ममता भी समझाए चले जाते हैं, हिंसा भी करवाने की बात कहे चले जाते हैं।

ऐसा जो आदमी है, उसके पास फिर एक उपाय ही रह गया। थक गया सब। थक गए बुरी तरह। वह अर्जुन मानता नहीं, और युद्ध की घड़ी बढ़ी जाती है, और युद्ध पर सब सारथी और सब योद्धा, सब तैयार हैं, लगामें खिंच गई हैं और यह आदमी मानता नहीं। और इसी आदमी पर सब निर्भर है। यह भाग जाए तो सब गड़बड़ हो जाए। यह सारा खेल, यह सारा नाटक, यह बड़ा इतना इंतजाम, यह सब व्यर्थ हो जाए। वह उसको समझाए जाते हैं, आखिर थक जाते हैं, फिर वह उसको अपना पूरा रूप ही दिखा देते हैं। पूरे रूप को देखकर वह घबड़ा जाता है। कोई भी घबड़ा जाएगा। पूरे रूप का मतलब ही यह है, पूरे रूप का मतलब ही यह है कि वह सारे विरोधाभासों के साथ इकट्ठे मौजूद हो जाते हैं। उनके भीतर सब दिखाई देने लगता है--जन्म भी और मरण भी, एक साथ। हमें सुविधा पड़ती है, सत्तर साल पहले जन्म होता है, सत्तर साल बाद मरना होता है। दोनों में इतना फासला होता है, कि हम व्यवस्था बिठा लेते हैं कि जन्म अलग चीज, मृत्यु अलग चीज। एक साथ जन्म और मृत्यु दिखने लगते हैं उनके भीतर। एक साथ जगत बनता है और विसर्जित होता दिखाई पड़ने लगता है। एक साथ बीज और वृक्ष दिखाई पड़ने लगते हैं। एक साथ प्रलय आती है और सृजन होने लगता है। तो वह घबड़ा जाता है। वह कहता है कि अब बंद करो अपना यह रूप। मैं मर जाऊंगा! मैं इसे और नहीं देख सकता, इसे बंद करो! लेकिन इसके बाद वह सवाल नहीं उठाता। इसके बाद एक बार उसे दिखाई पड़ जाता है कि जिन्हें हम असंगतियां कहते हैं, विरोध कहते हैं, वे एक ही सत्य के हिस्से हैं, तो अब वह सवाल नहीं उठाता है, वह युद्ध में चला जाता है। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि वह राजी होकर गया है। राजी होकर नहीं जा पाता है। दिखाई पड़ गया उसे, लेकिन उसकी बुद्धि सवाल उठाती है। बुद्धि का काम ही सवाल उठाना है।

तो जितने सवाल आपको मुझसे उठाने हों, उठाना, लेकिन कृष्ण को समझने में सवाल मत उठाना। सवाल आप उठाना, आपकी सारी बुद्धि मुझ पर लगाना, लेकिन कृष्ण बहुत जगह बुद्धि को छोड़कर निर्बुद्धि में प्रवेश करने लगेंगे, वहां बहुत धैर्य की, बहुत साहस की--उससे बड़ा कोई साहस नहीं--वहां जरूरत पड़ेगी, वहां चलने को राजी होना। आपका प्रकाशित क्षेत्र खो जाएगा। अंधेरा शुरू होगा। आपके द्वार-दरवाजे वहां दिखाई नहीं पड़ेंगे, वहां साफ-सुथरे रास्ते नहीं होंगे, वहां सब "मिस्टीरियस' और रहस्यपूर्ण हो जाएगा। वहां चीजें पुरानी शक्ल और पुरानी रूपरेखा और पुराने आकार में नहीं होंगी। वहां सब आकार डांवाडोल हो जाएंगे। वहां सब संगतियां गिर जाएंगी, सब विरोध गिर जाएंगे और तभी आपको उस विराट के निकट पहुंचने का मौका मिल सकेगा। और अगर आप राजी हुए तो कुछ ऐसा नहीं है कि अर्जुन की कोई विशेष योग्यता थी कि उसको विराट दिखाई पड़े। ऐसी कोई विशेष योग्यता का पात्र न था, सभी उतनी योग्यता के पात्र हैं, और जो सवाल अर्जुन ने उठाए थे वह कोई भी उठा सकता है। लेकिन अगर आप भी उस रहस्यपूर्ण में, उस "मिस्टीरियस' में, वह जो बुद्धि के पार चला जाता है, चलने को राजी हुए, तो विराट की प्रतीति आपको भी हो सकती है। वह विराट आपके सामने भी आ सकता है। उस विराट को ही लाने की मैं कोशिश करूंगा, उस विराट का व्यक्तिवाची नाम कृष्ण है, कृष्ण से कुछ बहुत लेना-देना नहीं है। वह जो विराट है, समस्त का जोड़ है, उसका ही प्रतीकवाची नाम कृष्ण है।

इसलिए बहुत बार कृष्ण से चर्चा इधर-उधर छूट जाएगी तो उससे घबड़ा मत जाना। मैं तो उस विराट की तरफ ही पूरे समय कोशिश करूंगा। और अगर आप राजी हुए तो वह घटना घट सकती है। और कुरुक्षेत्र में ही घटे, ऐसा कुछ नहीं है, आपमें में भी घट सकती है।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना मुश्किल है।

 "भगवान श्री, आपको श्रीकृष्ण पर बोलने की प्रेरणा कैसे व क्यों हुई? इस लंबी चर्चा का मूल आधार क्या है?'

सोचना हो, बोलना हो, समझना हो, तो कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि और महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं हुए हैं, लेकिन कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय के कम से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के पहले पैदा होते हैं, और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति में इतना ही फर्क है। और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं।

महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बहुत पहले पैदा हो जाता है। और कृष्ण तो अपने समय के बहुत पहले पैदा हुए हैं। शायद आनेवाले भविष्य में हम कृष्ण को समझने में योग्य हो सकेंगे। अतीत कृष्ण को समझने में योग्य नहीं हो सका।

और यह भी खयाल कर लें कि जिसे हम समझने में योग्य नहीं हो पाते, उसकी हम पूजा करना शुरू कर देते हैं। जो हमारी समझ के बाहर छूट जाता है, उसकी हम पूजा करने लगते हैं। या तो हम गाली देते हैं, या प्रशंसा करते हैं, दोनों ही पूजाएं हैं--एक शत्रु की है, एक मित्र की है। जिसे हम नहीं समझ पाते, उसे हम भगवान बना लेते हैं। असल में अपनी नासमझी को स्वीकार करना बहुत कठिन होता है। दूसरे को भगवान बना देना बहुत आसान होता है। लेकिन दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जिसे हम नहीं समझ पाते उसे हम क्या कहें--उसे हम भगवान कहना शुरू कर देते हैं। भगवान कहने का मतलब है कि जैसे हम भगवान को नहीं समझ पा रहे हैं वैसे ही इस व्यक्ति को भी नहीं समझ पा रहे हैं। जैसा भगवान बेबूझ है, वैसा ही यह व्यक्ति भी अबूझ है। जैसे भगवान रहस्य है, वैसा ही यह व्यक्ति भी रहस्य है। जैसे भगवान को हम नहीं छू पाते, पकड़ नहीं पाते, स्पर्श नहीं कर पाते, वैसे ही इस व्यक्ति को भी नहीं छू पाते, नहीं पकड़ पाते। जैसे भगवान सदा ही जानने को शेष रह जाता है वैसा ही यह व्यक्ति भी सदा जानने को शेष रह जाता है।

समय के पहले जो लोग पैदा हो जाते हैं, उनकी पूजा शुरू हो जाती है। लेकिन अब वह वक्त करीब आ रहा है जब कृष्ण की पूजा से अर्थ नहीं होगा, कृष्ण को जीना शुरू हो सकेगा, कृष्ण को जिया जा सकेगा। ठीक इसीलिए कृष्ण को चुना चर्चा के लिए, क्योंकि आने वाले भविष्य के संदर्भ में सबसे सार्थक व्यक्तित्व उन्हीं का मुझे मालूम पड़ता है। तो दो तीन बातें इस संबंध में आपसे कहूं।

एक बात, कृष्ण को छोड़कर दुनिया के समस्त अदभुत व्यक्ति--चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे क्राइस्ट, या कोई और--ये सभी परलोक के लिए जी रहे थे। आने वाले किसी जीवन के लिए, आने वाले किसी लोक के लिए; परलोक के लिए, मोक्ष के लिए, स्वर्ग के लिए। मनुष्य का पूरा अतीत पृथ्वी पर इतना दुखद था कि पृथ्वी पर तो जीना ही संभव नहीं था। मनुष्य का पूरा अतीत इतनी पीड़ाओं, इतनी "सफरिंग', इतनी कठिनाइयों का था कि इस पृथ्वी के जीवन को स्वीकार करना मुश्किल था। तो अतीत के समस्त धर्म पृथ्वी को अस्वीकार करने वाले धर्म हैं, सिर्फ एक कृष्ण को छोड़कर। कृष्ण इस पृथ्वी के पूरे जीवन को पूरा ही स्वीकार करते हैं। वे किसी परलोक में जीने वाले व्यक्ति नहीं, इसी पृथ्वी पर, इसी लोक में जीने वाले व्यक्ति हैं। बुद्ध, महावीर का मोक्ष इस पृथ्वी के पार कहीं दूर है, कृष्ण का मोक्ष इसी पृथ्वी पर, यहीं और अभी है।

इस जीवन की, जिसे हम जानते हैं, इस जीवन की इतनी गहरी स्वीकृति किसी व्यक्ति ने कभी भी नहीं दी है। आने वाले भविष्य में पृथ्वी पर दुख कम हो जाएंगे, सुख बढ़ जाएंगे और पहली बार पृथ्वी पर त्यागवादी व्यक्तियों की स्वीकृति मुश्किल हो जाएगी। दुखी समाज त्याग को स्वीकार कर सकता है, सुखी समाज त्याग को स्वीकार नहीं कर सकता। दुखी समाज में त्याग, संन्यास, "रिनंसिएशन'; क्योंकि दुखी समाज में कोई कह सकता है, सिवाय दुख के जीवन में क्या है, हम छोड़कर जाते हैं। सुखी समाज में यह नहीं कहा जा सकता कि जीवन में सिवाय दुख के क्या है। अर्थहीन हो जाएगी यह बात।

इसलिए त्यागवादी धर्म की कोई बात भविष्य के लिए सार्थक नहीं है, विज्ञान उन सारे दुखों को अलग कर देगा जो जिंदगी में दुख मालूम पड़ते थे। बुद्ध ने कहा है, जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मृत्यु दुख है, ये सब दुख हैं। दुख अब मिटाए जा सकेंगे। जन्म दुख नहीं होगा--न मां के लिए, न बेटे के लिए। जीवन दुख नहीं होगा, बीमारियां काटी जा सकेंगी। जरा नहीं होंगी और बुढ़ापे से आदमी को जल्दी ही बचा लिया जा सकेगा और जीवन को भी लंबा किया जा सकता है। इतना लंबा किया जा सकता है कि अब विचारणीय यह नहीं होगा कि आदमी क्यों मर जाता है, विचारणीय यह होगा कि आदमी इतना लंबा क्यों जीये? यह बहुत निकट भविष्य में सब हो जाने वाला है। उस दिन बुद्ध का वचन--जन्म दुख है, जरा दुख है, जीवन दुख है, मृत्यु दुख है, बहुत समझना मुश्किल हो जाएगा। उस दिन कृष्ण की बांसुरी सार्थक हो सकेगी। उस दिन कृष्ण का गीत और कृष्ण का नृत्य सार्थक हो सकेगा। उस दिन जीवन सुख है, यह चारों ओर नाच उठेगी घटना। जीवन सुख है, इसके फूल चारों ओर खिल जाएंगे। इन फूलों के बीच में नग्न खड़े हुए महावीर का संदर्भ खो जाता है। इन फूलों के बीच में जीवन के प्रति पीठ करके जानेवाले व्यक्तित्व का अर्थ खो जाता है। इन फूलों के बीच में तो जो नाच सकेगा वही सार्थक हो सकता है। भविष्य में दुख कम होता जाएगा और सुख बढ़ता जाएगा, इसलिए मैं सोचता हूं कि कृष्ण की उपयोगिता रोज-रोज बढ़ती जानेवाली है।

अभी तक हम सोच नहीं सकते कि धार्मिक आदमी के ओठों पर बांसुरी कैसे है। अभी तक हम सोच ही नहीं सकते हैं कि धार्मिक आदमी और मोर का पंख लगाकर नाच कैसे रहा है। धार्मिक आदमी प्रेम कैसे कर सकता है, गीत कैसे गा सकता है। धार्मिक आदमी का हमारे मन में खयाल ही यह है कि जो जीवन को छोड़ रहा है, त्याग रहा है, उसके ओंठों से गीत नहीं उठ सकते, उसके ओंठ से दुख की आह उठ सकती है। उसके ओंठों पर बांसुरी नहीं हो सकती है। यह असंभव है। इसलिए कृष्ण को समझना अतीत को बहुत ही असंभव हुआ। कृष्ण को समझा नहीं जा सका। इसलिए कृष्ण बहुत ही बेमानी, अतीत के संदर्भ में बहुत "एब्सर्ड', असंगत थे। भविष्य के संदर्भ में कृष्ण रोज संगत होते चले जाएंगे। और ऐसा धर्म पृथ्वी पर अब शीघ्र ही पैदा हो जाएगा जो नाच सकता है, गा सकता है, खुश हो सकता है। अतीत का समस्त धर्म रोता हुआ, उदास, हारा हुआ, थका हुआ, पलायनवादी, "एस्केपिस्ट' है। भविष्य का धर्म जीवन को, जीवन के रस को स्वीकार करने वाला, आनंद से, अनुग्रह से नाचने वाला, हंसने वाला धर्म होने वाला है।

जीवन की यह जो संभावना है--जीवन की यह जो भविष्य की संभावना है, इस भविष्य की संभावनाओं को खयाल में रखकर कृष्ण पर बात करने का मैंने विचार किया है। हमें भी समझना मुश्किल पड़ेगा, क्योंकि हम भी अतीत के दुख के संस्कारों से ही भरे हुए हैं। और धर्म को हम भी आंसुओं से जोड़ते हैं, बांसुरियों से नहीं। शायद ही हमने कभी ऐसा आदमी देखा हो जो कि इसलिए संन्यासी हो गया हो कि जीवन में बहुत आनंद है। हां, किसी की पत्नी मर गई है और जीवन में  दुख हो गया है और वह संन्यासी हो गया। किसी का धन खो गया है, दिवालिया हो गया है, आंखें आंसुओं से भर गई हैं और वह संन्यासी हो गया। कोई उदास है, दुखी है, पीड़ित है, और संन्यासी हो गया है। दुख से संन्यास निकला है। लेकिन आनंद से? आनंद से संन्यास नहीं निकला। कृष्ण भी मेरे लिए एक ही व्यक्ति हैं जो आनंद से संन्यासी हैं।

निश्चित ही आनंद से जो संन्यासी है वह दुख वाले संन्यासी से आमूल रूप से भिन्न होगा। जैसे मैं कह रहा हूं कि भविष्य का धर्म आनंद का होगा, वैसे ही मैं यह भी कहता हूं कि भविष्य का संन्यासी आनंद से संन्यासी होगा। इसलिए नहीं कि एक परिवार दुख दे रहा था इसलिए एक व्यक्ति छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि एक परिवार उसके आनंद के लिए बहुत छोटा पड़ता था। पूरी पृथ्वी को परिवार बनाने के लिए संन्यासी हो गया। इसलिए नहीं कि एक प्रेम जीवन में बंधन बन गया था, इसलिए कोई प्रेम को छोड़कर संन्यासी हो गया, बल्कि इसलिए कि एक प्रेम इतने आनंद के लिए बहुत छोटा था, सारी पृथ्वी का प्रेम जरूरी था, इसलिए कोई संन्यासी हो गया। जीवन की स्वीकृति और जीवन के आनंद और जीवन के रस से निकले हुए संन्यास को जो समझ पाएगा, वह कृष्ण को भी समझ पा सकता है।

नहीं, भविष्य में अगर कोई कहेगा कि मैं दुख के कारण संन्यासी हो गया तो हम कहेंगे कि दुख से कोई संन्यासी कैसे हो सकता है। और दुख से जो संन्यास निकलेगा वह आनंद में ले जाने वाला नहीं होगा। दुख से जो संन्यास निकलेगा वह ज्यादा-से-ज्यादा उदासी में ले जा सकता है, आनंद में नहीं ले जा सकता। क्योंकि दुख से जो संन्यास निकलेगा वह दुख को कम ही कर सकता है ज्यादा-से-ज्यादा, आनंद को पैदा नहीं कर सकता। दुख की स्थितियों को छोड़कर आप दुख को कम कर लेंगे, लेकिन आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकते। आनंद से जिस संन्यास का जन्म होगा, जो गंगा आनंद से पैदा होगी, वही आनंद के सागर तक पहुंच सकती है। क्योंकि तब आनंद को बढ़ाना ही साधना होगी। अतीत की साधना दुख को कम करने की साधना थी। और दुख को कम करने वाला साधक दुख को कम कर लेगा, लेकिन यह "निगेटिव', नकारात्मक होगा, ज्यादा-से-ज्यादा उपलब्धि उसकी उदासी की होगी, जो दुख का क्षीणतम रूप है। इसलिए संन्यासी हमारा उदास, हारा हुआ, भागा हुआ है, जीता हुआ, जीवंत, आनंद से नाचता हुआ संन्यासी नहीं है।

कृष्ण मेरे लिए आनंद के संन्यासी हैं। आनंद के संन्यास की संभावना के कारण जानकर ही मैंने चुना कि उन पर बात करूं। ऐसा नहीं है कि कृष्ण पर बातें नहीं की गईं। लेकिन कृष्ण पर जिन्होंने बातें की हैं वे भी दुख से भरे हुए संन्यासी थे। इसलिए कृष्ण की आज तक की व्याख्या कृष्ण के साथ अन्याय करती रही है। करेगी ही। अगर शंकर कृष्ण की व्याख्या करेंगे तो एक उलटा ही आदमी कृष्ण की व्याख्या कर रहा है। शंकर की व्याख्या कृष्ण के साथ न्यायसंगत नहीं हो सकती। कृष्ण की व्याख्या अतीत में संगत हो ही नहीं सकी। क्योंकि जो व्याख्याकार थे, जो कृष्ण पर कह रहे थे, बोल रहे थे, वे सब दुख से आए हुए थे। वे इस जगत को माया सिद्ध करना चाहते थे, वे इस जगत को दिव्य कह रहे हैं। इसलिए कृष्ण के लिए सब स्वीकार है। अस्वीकार है ही नहीं। "टोटल एक्सेप्टबिलिटी' का, समस्त को स्वीकार लेने का ऐसा व्यक्तित्व कभी पैदा ही नहीं हुआ है।

धीरे-धीरे रोज जब हम बात करेंगे तो बहुत-सी बातें खयाल में आ सकेंगी। लेकिन मेरे लिए कृष्ण शब्द भविष्य के लिए इंगित और बहुत सूचक है। इसलिए इस पर बात करने को तय किया है।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

कौरव पांडव

"कृष्ण यदि आज होते तो यह विश्व जो दो गुटों में बंटा है, उसमें किस गुट का पक्ष लेते?'

असल में जब भी ऐसे संकट का क्षण होता है जब कि निर्णय करना हो कि कौन शुभ है, कौन अशुभ है, तो सदा ही कठिनाई होती है। उस दिन भी आसान नहीं थी बात। क्योंकि दुर्योधन ही नहीं था उस तरफ, उस तरफ भीष्म भी थे, उस तरफ अच्छे लोग भी थे। और कृष्ण ही नहीं थे, अर्जुन ही नहीं थे इस तरफ, इस तरफ भी बुरे लोग थे। निर्णायक क्षण में तय करना सदा ही मुश्किल होता है। लेकिन, मूल्य कुछ निर्धारण करते हैं।

दुर्योधन किसलिए लड़ता था? आदमी उसके पास अच्छे थे या बुरे, यह उतना, बड़ा मूल्यवान नहीं है, वह लड़ किसलिए रहा था? उस लड़ने के मूल्य क्या थे, "वैल्यूज' क्या थे? कृष्ण अगर लड़ने को प्रेरित कर रहे थे अर्जुन को, तो मूल्य क्या थे? एक तो बड़े-से-बड़ा जो निर्णायक मूल्य था वह था न्याय, "जस्टिस'। न्याय क्या है? न्याययुक्त क्या था? तो आज फिर हमें निर्णय करना पड़े कि न्याययुक्त क्या है, न्याय क्या है? अब जैसे मेरी समझ में स्वतंत्रता न्याय है, परतंत्रता अन्याय है। जो "ग्रुप', जो वर्ग, जो गुट मनुष्य को किसी तरह की परतंत्रता में ढकेलता हो, वह अन्याय का पक्ष है। उस तरफ अच्छे आदमी भी हो सकते हैं, क्योंकि अच्छे आदमी भी जरूरी नहीं है कि बहुत दूरद्रष्टा हों। "कनफ्यूज्ड' होते हैं। उनको भी पता नहीं हो सकता है कि वह जो कर रहे हैं वह बुरे पक्ष में जा रहा है।

स्वतंत्रता बहुत ही कसौटी की बात है। मनुष्य की स्वतंत्रता जिस बात से बढ़ती हो, ऐसा समाज, ऐसा जगत चाहिए। जिस बात से स्वतंत्रता कम होती हो, ऐसा समाज और ऐसा जगत नहीं चाहिए। स्वभावतः जो लोग परतंत्रता भी लाना चाहें, वे भी परतंत्रता शब्द का उपयोग नहीं करेंगे। क्योंकि उस शब्द का तो कोई उपयोग सुनके ही हट जाएगा। वे भी ऐसे शब्द खोजेंगे जिनसे परतंत्रता आती हो, लेकिन परतंत्रता का भाव न पता चलता हो। ऐसा एक नया शब्द समानता है, "इक्वालिटी'। यह शब्द बहुत चालाकी से भरा हुआ है। और कुछ लोग हैं जो स्वतंत्रता को एक तरफ काट कर समानता की गुहार पर हैं। वे कहते हैं, समानता चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? वे कहते हैं, प्राथमिक चीज समानता है। और वे यह भी कहते हैं, समानता के बिना स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? और यह बात समझ में पड़ेगी अनेकों को कि ठीक ही तो बात है, जब तक सब लोग समान नहीं हैं तो सब लोग स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं। और तब इस समानता को लाने के लिए अगर स्वतंत्रता भी काटनी पड़ती हो तो फिर हम तैयार हो जाते हैं।

अब यह बड़ा मजेदार तर्क है। समानता इसलिए लानी है कि स्वतंत्रता आ सके, और स्वतंत्रता इसलिए काटनी पड़ती है क्योंकि समानता लानी है। और एक बार स्वतंत्रता खोने के बाद उसे लाना बहुत असंभव है। उसे कौन लाएगा? मैं तुमसे कहता हूं, यहां सब इकट्ठे हैं, मैं इन सबको कहता हूं कि तुम सबको समान करने के लिए सबको पहले जंजीर पहनानी पड़ेगी। क्योंकि जंजीर बिना पहनाए, किसी का सिर बड़ा है, किसी के हाथ लंबे हैं, किसी के पैर छोटे हैं, इन सबको काटा नहीं जा सकता। तो सबको समान करने के लिए पहले जंजीरें डाल दी जाती हैं, फिर सबके हाथ-पैर काटकर हम सबको समान कर देंगे। लेकिन जो सबको समान करेगा, वह तो असमान रह ही जाएगा। वह तो आपके बाहर रह जाएगा, उसके हाथ तो खुले होंगे, जंजीरें नहीं होंगी और उसके हाथ में तलवार होगी। और एक बार जब सबके हाथों में जंजीर रहेगी और कुछ लोगों के हाथ में तलवारें होंगी और हाथ-पैर कट चुके होंगे, तब तुम करोगे क्या?

ऐसा खयाल था माक्र्स का कि एक बार समानता लाने के लिए स्वतंत्रता खोनी पड़ेगी, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नष्ट करनी पड़ेगी; एक अधिनायकशाही, एक "डिक्टेटरशिप' चाहिए होगी; फिर जब पूरा हो जाएगा काम समानता का तब स्वतंत्रता दे दी जाएगी। लेकिन जिनके हाथ में इतनी ताकत होगी सबको समान करने की, वह स्वतंत्रता देंगे? लक्षण नहीं दिखाई पड़ते हैं। बल्कि जितनी ताकत उसकी बढ़ जाती है और जितना आदमी पंगु हो जाता है, उतनी ही स्वतंत्रता की बात ही खतम हो जाती है, क्योंकि तुम पूछ नहीं सकते, आवाज भी नहीं उठा सकते, बगावत नहीं कर सकते।

समानता की आड़ में स्वतंत्रता कटेगी। और स्वतंत्रता एक बार कट जाए, तो लौटना बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि जब स्वतंत्रता कट जाती है तो काटनेवाला स्वतंत्रता की भविष्य की संभावनाओं को भी काट देता है। और दूसरी बात यह है कि स्वतंत्रता तो एक बिलकुल ही सहज तत्व है। जो प्रत्येक को मिलना चाहिए और समानता बिलकुल असहज बात है जो मिल नहीं सकती। यह अ-मनोवैज्ञानिक है कि हम आदमी को समान करें। आदमी समान हो नहीं सकता। आदमी समान है नहीं। आदमी मूलतः असमान है, स्वतंत्रता जरूर चाहिए, और इसलिए स्वतंत्रता चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो हो सकता है वह हो सके, उसे उसका पूरा मौका चाहिए।

तो मेरी दृष्टि में स्वतंत्रता का पक्ष कृष्ण का पक्ष है, समानता का नहीं हो सकता। स्वतंत्रता हो तो धीरे-धीरे असमानता कम हो सकती है। ध्यान रहे, मैं कह रहा हूं, असमानता कम हो सकती है। यह नहीं कह रहा हूं कि समानता आ सकती है। स्वतंत्रता रहे तो असमानता धीरे-धीरे कम हो सकती है। लेकिन समानता अगर जबर्दस्ती थोप दी जाए, तो स्वतंत्रता कम होती चली जाएगी। जबर्दस्ती थोपी कोई भी चीज परतंत्रता का ही पर्याय है। तो मूल्य चुनने पड़ेंगे। व्यक्ति का मूल्य कीमती है।

सदा से ही जो अशुभ है, वह व्यक्ति को मूल्य नहीं देना चाहता, क्योंकि व्यक्ति ही विद्रोह का तत्व है। इसलिए अशुभ की शक्तियां समूह को मानती हैं, व्यक्ति को नहीं मानतीं। और यह भी जानकर तुम हैरान होओगे कि अगर तुम्हें कोई अशुभ कार्य करना हो, तो व्यक्ति से करवाना बहुत मुश्किल है, समूह से करवाना सदा आसान है। एक अकेले हिंदू से मस्जिद में आग लगवानी बहुत मुश्किल है। हिंदुओं की भीड़ से लगवानी बहुत आसान है। एक अकेले मुसलमान से एक हिंदू बच्चे की छाती में छुरा घुसवाना बहुत कठिन है, लेकिन मुसलमान की भीड़ से बहुत आसान है। असल में जितनी बड़ी भीड़ होती है, आत्मा उतनी कम हो जाती है। क्योंकि आत्मा के होने का जो तत्व है वह व्यक्तिगत दायित्व है, "इंडिवीजुअल रिसपांसिबिलिटी' है। जब मैं तुम्हारी छाती में छुरा भोंकता हूं, तो मेरा अंतःकरण कहता है कि क्या कर रहे हो? लेकिन जब मैं सिर्फ एक भीड़ के साथ चलता हूं और आग लगती है, तो मैं सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा होता हूं, मेरा अंतःकरण कभी भी नहीं कहता तुम क्या कर रहे हो? मैं कहता हूं, लोग कर रहे हैं। हिंदू कर रहे हैं, मैं तो सिर्फ साथ हूं। और कल मुझे कभी व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अशुभ जो है वह सदा ही समूह को आकर्षित करना चाहता है। अशुभ जो है वह भीड़ पर निर्भर करता है। और अशुभ चाहता है कि व्यक्ति मिट जाए, भीड़ रह जाए। शुभ व्यक्ति को स्वीकार करता है और चाहता है भीड़ धीरे-धीरे खतम हो जाए, व्यक्ति रह जाएं। व्यक्ति रहेंगे तो संबंध रहेंगे, लेकिन वह भीड़ नहीं होगी, वह समाज होगा।

अब इसे भी थोड़ा समझ लेने जैसा है, जहां व्यक्ति हों, वहीं समाज हो सकता है। और जहां व्यक्ति की सत्ता कम हो जाए वहां सिर्फ भीड़ होती है, समाज नहीं होता। समाज और भीड़ में इतना ही फर्क है। व्यक्तियों के अंतर्संबंध का नाम समाज है, लेकिन व्यक्ति होने चाहिए। मैं स्वतंत्र रूप से तुमसे, स्वतंत्र व्यक्ति के साथ जब संबंधित होता हूं, तो समाज होता है। एक जेलखाने में समाज नहीं होता, सिर्फ भीड़ होती है। कैदी भी संबंधित होते हैं, एक-दूसरे को देखकर हंसते भी हैं, एक-दूसरे को सिगरेट-बीड़ी भी भेज देते हैं, लेकिन भीड़ होती है, समाज नहीं होता। वे सब वहां इकट्ठे किए गए हैं। अपनी स्वतंत्रता का उनका चुनाव नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता, व्यक्ति, व्यक्तित्व, आत्मा, धर्म और अदृश्य और अज्ञात की संभावना जिस पक्ष की तरफ प्रबल होगी--प्रबल कह रहा हूं, क्योंकि निर्णायक नहीं होता बहुत कि इस पक्ष के तरफ है और इसकी तरफ बिलकुल नहीं है। राम और रावण लड़ते हों, तो  भी पक्का नहीं होता, बहुत साफ नहीं होता। क्योंकि रावण में भी थोड़ा राम तो होता है और राम में भी थोड़ा रावण तो होता ही है। कौरवों में भी थोड़ा पांडव तो होता है, पांडवों में भी थोड़ा कौरव होता ही है। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो। इसलिए सवाल सदा अनुपात का और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं, जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

कृष्ण स्मृति 1 महाभारत युद्ध

"महाभारत युद्ध में कृष्ण एक प्रमुख भूमिका में थे। वे चाहते तो युद्ध रोक सकते थे। लेकिन वैसा नहीं हुआ। और परिणाम--एक भारी विध्वंस! स्वभावतः विध्वंस की भारी जिम्मेदारी कृष्ण पर जाती है। क्या कृष्ण के लिए यह उचित था--या उन पर लांछन लग सकता है?'

युद्ध और शांति के संबंध में भी बात वही है। फिर हम चाहते हैं कि शांति ही बचे, संघर्ष न बचे। फिर हम चुनाव शुरू करते हैं। और जगत जो है, वह द्वंद्वों का सम्मिलन है। और जगत जो है, वह विरोधी स्वरों का समवेत संगीत है। जगत इकसुरा नहीं हो सकता।

मैंने सुना है कि एक आदमी कोई वाद्ययंत्र बजाता था। और वह तार पर एक ही जगह उंगली रखकर घंटों उसी को रगड़ता रहता। उसके घर के लोग तो परेशान हो ही गए थे, उसके पास-पड़ोस के लोग भी परेशान हो गए थे। और अनेक लोगों ने उससे प्रार्थना की कि हमने बहुत वाद्य बजाने वाले देखे, लेकिन सभी का हाथ सरकता है, सभी के भिन्न स्वर निकलते हैं, तुमने यह क्या राग ले रखा है? तो उस आदमी ने कहा, वह अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैंने ठीक स्थान पा लिया है। तो मैं अब एक ठीक स्थान पर रुका हुआ हूं। मुझे अब कोई खोज की जरूरत नहीं है।

हमारा मन कर सकता है कि हम एक ही स्वर चुन लें जीवन का। लेकिन एक ही स्वर सिर्फ मृत्यु में हो सकता है। जीवन विरोधी स्वरों पर ही खड़ा होगा। तुमने अगर कभी किसी मकान के दरवाजे पर "आर्च' बना देखा हो, तो उसमें विरोधी ईंटें दोनों तरफ से लाकर हम मकान के द्वार पर अड़ा देते हैं। विरोधी ईंटें एक-दूसरे के विरोध में खड़े होने की वजह से भवन को उठा लेती हैं। कोई सोच सकता है कि ईंटें एक ही दिशा में लगा दी जाएं। फिर भवन गिरेगा, फिर भवन बनेगा नहीं।

जीवन की सारी व्यवस्था विरोधी स्वरों के तनाव पर है। युद्ध भी उस तनाव का हिस्सा है। और युद्ध ने नुकसान ही पहुंचाए, ऐसा जो सोचते हैं, वह गलत सोचते हैं, वह अधूरा देखते हैं। अगर हम मनुष्यता के विकास को समझने चलें तो हमें पता चलेगा। मनुष्यता के विकास का अधिकतम हिस्सा युद्धों के माध्यम से हुआ है। आज मनुष्य के पास जो कुछ है वह सब उसने प्राथमिक रूप से युद्धों में खोजा है। अगर आज हमें दिखाई पड़ते हैं कि सारी पृथ्वी पर रास्ते फैल गए हैं, तो पहली दफे रास्ते युद्धों के लिए बने थे, फौजों को भेजने के लिए बने थे। वह दो आदमियों को मिलाने के लिए नहीं बने थे, बारात ले जाने के लिए नहीं बने थे, वह युद्ध के लिए बने थे पहली बार। जितने भी साधन हैं--अगर आज हम बड़े मकान देख रहे हैं, तो पहले बड़ा मकान नहीं बना था, बड़ा किला बना था और वह युद्ध की जरूरत थी। पहली दीवाल दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई। फिर दीवालें बनीं, फिर अब आकाश को छूते हुए मकान हैं। आज हम सोच भी नहीं सकते कि आकाश को छूता हुआ मकान युद्ध की जरूरत है। मनुष्य के पास जितनी भी संपन्नता है और जितने भी साधन हैं और जितना भी वैज्ञानिक आविष्कार है, वह सब युद्ध के माध्यम से हुआ।

असल में युद्ध ऐसे तनाव की स्थिति पैदा कर देता है, ऐसी चुनौती कि हमारे भीतर जो सोयी शक्तियां हैं, उन सबको जागकर सक्रिय होना पड़ता है। शांति के क्षण में हम आलस्य में हो सकते हैं, तमस में हो सकते हैं, युद्ध हमारे राजस को उभारता है। हमारे भीतर सोयी हुई शक्तियों को चुनौती के मौके पर उठना ही पड़ता है। इसलिए युद्ध के क्षण में हम साधारण नहीं रह जाते, हम असाधारण हो जाते हैं। और मनुष्य का मस्तिष्क अपनी पूरी शक्ति से काम करने लगता है। और युद्ध में एक छलांग लग जाती है मनुष्य की प्रतिभा की, जो कि शांति के कालों में, वर्षों में, सैकड़ों वर्षों में नहीं लग पाती।

अनेक लोगों का ऐसा खयाल है कि अगर कृष्ण ने महाभारत का युद्ध रोका होता तो भारत बहुत संपन्न होता। और भारत ने बड़े विकास के शिखर छू लिए होते। बात इससे बिलकुल उलटी है। अगर कृष्ण जैसे दस-पांच लोग भारत के इतिहास में हमें मिले होते और हमने एक महाभारत नहीं, दस-पांच महाभारत लड़े होते तो हम विकास के शिखरों पर होते।

महाभारत को हुए अंदाजन पांच हजार से ज्यादा वर्ष हुए होंगे। पांच हजार वर्षों में फिर हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं किया। बाकी हमारी लड़ाइयां बहुत दिवालिया, "बैंकरप्ट' हैं। बाकी हमारी लड़ाइयों की बड़ी कोई कीमत नहीं है। वे छोटे-मोटे झगड़े हैं। उनको युद्ध कहना भी ठीक नहीं है। पांच हजार वर्षों से हमने कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। अगर युद्ध की वजह से हानि होती है और विध्वंस होता है, तो हमें पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और विकासमान होना चाहिए था। लेकिन हालतें उलटी हैं। जिन मुल्कों ने युद्ध लड़े हैं, वे बहुत विकासमान हैं और बहुत संपन्न हैं। पहले महायुद्ध के बाद लोग सोच सकते थे कि जर्मनी अब सदा के लिए टूट जाएगा, लेकिन दूसरे महायुद्ध में जर्मनी पहले महायुद्ध के जर्मनी से अनंतगुना शक्तिशाली होकर प्रगट हुआ--सिर्फ बीस साल के फासले पर। कोई सोच भी नहीं सकता था कि पहले महायुद्ध के बाद दूसरा महायुद्ध जर्मनी कर सकेगा। दो-चार सौ साल तक भी कर सकेगा, इसकी भी संभावना नहीं थी। लेकिन बीस साल में जर्मनी अनंतगुना शक्तिशाली होकर बाहर आ गया। पहले महायुद्ध ने उसकी शक्तियों को जिस तीव्रता पर पहुंचा दिया, उस तीव्रता का उसने उपयोग कर लिया।

अभी पिछले दूसरे महायुद्ध में लगता था कि अब शायद युद्ध कभी होना बहुत मुश्किल हो जाएगा, और जो देश सबसे ज्यादा मिटे थे--जर्मनी और जापान--वह दोनों के दोनों फिर संपन्न होकर खड़े हो गए। आज जापान को देखकर कोई कह सकता है कि बीस साल पहले एटम बम इसी मुल्क पर गिरा था? आज जापान को देखकर कोई नहीं कह सकता। हिंदुस्तान को देखकर जरूर हम कह सकते हैं कि यहां एटम बम गिरते ही रहे होंगे। हमारी दुर्दशा देखकर लगता है कि यहां जैसे युद्ध होता ही रहा होगा।

महाभारत के कारण हिंदुस्तान का अहित नहीं हुआ। महाभारत की छाया में हिंदुस्तान में जो शिक्षक पैदा हुए, वे सब युद्ध-विरोधी थे। और उन्होंने महाभारत का शोषण किया। और कहा कि ऐसा युद्ध और ऐसी हिंसा। नहीं, अब न युद्ध करना है, न ही अब हिंसा करनी है। अब लड़ना नहीं है। महाभारत के पीछे कृष्ण की क्षमता के व्यक्तियों की शृंखला नहीं हम पैदा कर पाए। अन्यथा महाभारत में जिस ऊंचाई को हमारे देश की चेतना की लहर ने छुआ था, हम हर बार उससे ज्यादा ऊंचाई की लहर को छू सकते थे। और शायद आज हम पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संपन्न और सबसे ज्यादा विकसित समाज होते।

यह भी सोचने जैसा है कि महाभारत जैसा युद्ध विपन्न समाजों में घटित नहीं होता। युद्ध के लिए भी संपन्न होना जरूरी है। और संपन्नता के लिए भी युद्ध का घटना जरूरी है। असल में वह चुनौती के क्षण हैं। कृष्ण ने जिस युद्ध में हमें उतारा था, वह युद्ध में अगर हम सतत उतरे होते...क्योंकि इसे हम सोचें, आज करीब-करीब पश्चिम उस जगह है जहां महाभारत के दिनों में हम पहुंच गए थे। आज जितने अस्त्रों-शस्त्रों की बात है, करीब-करीब वे सभी अस्त्र-शस्त्र किसी-न-किसी रूप में महाभारत में प्रयोग किए गए। बड़ा संपन्न, बड़ा प्रतिभाशाली और बहुत वैज्ञानिक उन्नत शिखर था। उस युद्ध से कुछ हानि नहीं हो गई। उस युद्ध के बाद यह निराशा का क्षण हमें पकड़ा। उस निराशा के क्षण का दुरुपयोग हुआ। उस निराशा के क्षण ने पश्चिम में भी पकड़ा है कुछ को। पश्चिम भी भयभीत हो गया है। और पश्चिम का अगर पतन होगा, तो वह पश्चिम में जो शांतिवादी है उसकी वजह से होगा। अगर पश्चिम ने शांतिवादी की बात मान ली, तो पश्चिम पतित हो जाएगा। वह वहीं पहुंच जाएगा, जहां महाभारत के बाद हम पहुंचे।

हिंदुस्तान ने शांतिवादी की बात मान ली। इसलिए पांच हजार वर्ष का लंबा चक्कर चला। इसे थोड़ा सोचना जरूरी है। कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन युद्ध को भी जीवन के खेल का हिस्सा मानते हैं। युद्धखोर नहीं हैं, किसी को मिटाने की कोई आकांक्षा नहीं है, किसी को दुख देने का कोई खयाल नहीं है, युद्ध न हो उसके सारे उपाय उन्होंने कर लिए थे, लेकिन, जीवन की और सत्य की और धर्म की कीमत पर युद्ध को बचाने के लिए राजी न थे। आखिर किसी भी चीज के बचाने की एक सीमा है। आखिर युद्ध को भी तो हम इसीलिए नहीं करना चाहते कि जीवन को कोई नुकसान न पहुंचे। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही जीवन को नुकसान पहुंचा जा रहा हो, तो फिर क्या अर्थ रह जाएगा? आखिर शांतिवादी यही तो कहता है कि युद्ध न हो, कि कहीं शांति खंडित न हो जाए। लेकिन अगर युद्ध के न होने से ही शांति खंडित हो रही हो, तो फिर एक निर्णायक युद्ध की सामर्थ्य चाहिए।

तो कृष्ण असल में युद्धखोर या युद्धवादी नहीं हैं, लेकिन, युद्ध से भयभीत और युद्ध से भागे हुए पलायनवादी भी नहीं हैं। कृष्ण कहते हैं, युद्ध न हो तो ठीक। लेकिन युद्ध होना ही हो, तो भागना ठीक नहीं हैं। और अगर युद्ध होना ही हो, और ऐसा क्षण आ जाए कि मनुष्य के मंगल के लिए और मनुष्य के हित के लिए युद्ध अनिवार्य हो जाए तो इस अनिवार्य युद्ध को फिर आनंद से स्वीकार करना। फिर उसे बोझ की तरह ढोना भी ठीक नहीं है। क्योंकि जो बोझ की तरह युद्ध में जाएगा फिर उसकी हार सुनिश्चित है। जो सिर्फ रक्षा के लिए युद्ध में जाएगा, उसकी हार भी सुनिश्चित है। क्योंकि रक्षा के भाव से भरा हुआ "डिफेंसिव' जो चित्त है, वह लड़ने में सामर्थ्य और शौर्य नहीं दिखा पाता। वह सिर्फ बचाव के उपाय करता रहता है और सिकुड़ता जाता है। तो कृष्ण लड़ने को भी आनंद बनाने को कहते हैं। दूसरे को दुख पहुंचाने का सवाल नहीं है। लेकिन जिंदगी में चुनाव सदा अनुपात के हैं--शुभ फलित होगा या अशुभ? जरूरी नहीं है कि युद्ध से अशुभ ही फलित हो। कभी न युद्ध करने से अशुभ फलित हो सकता है। अब यह देश हमारा एक हजार साल तक गुलाम रहा। यह हमारे युद्ध करने की क्षमता की क्षीणता का परिणाम था। पांच हजार वर्ष से गरीब और दीन-हीन, यह हमारे शौर्य और हमारे व्यक्तित्व में जो अभय चाहिए उसकी कमी का परिणाम है। जो फैलाव चाहिए, विस्तार का जो भाव चाहिए, उसकी कमी का परिणाम है।

तो कृष्ण के कारण नुकसान नहीं हुआ, कृष्ण की शृंखला नहीं पैदा हो सकती, हम और कृष्ण पैदा नहीं कर सके, इसलिए नुकसान हुआ। और कृष्ण के युद्ध के बाद स्वाभाविक था कि निराशावादी स्वर प्रमुख हो। सदा होता है। और निराशावादी शिक्षक लोगों को समझाएं कि व्यर्थ है यह सब। और देखो कितनी हानि हो गई। और वह स्वर हमारे मन में बैठ गया, और पांच हजार साल से हम डरी हुई कौम हैं। और जो कौम मरने से डर जाए, युद्ध से डर जाए, वह कौम बहुत गहरे में जीने से भी डर जाती है। तो हम जीने से भी डर गए हैं। हम कंप रहे हैं--न हम जी रहे हैं, न हम मर रहे हैं। हम दोनों के बीच में एक त्रिशंकु की भांति हैं।

अब मेरी समझ यह है कि बर्ट्रेंड रसल, या गांधी, या विनोबा, इनकी बात अगर दुनिया मान लेगी तो नुकसान होगा। युद्ध से भय की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अब पृथ्वी युद्ध के लिए बहुत छोटी पड़ गई है, यह बात जरूर सच है। असल में युद्ध के लिए भी जगह चाहिए। हमारे पास साधन इतने बड़े हो गए हैं कि अब पृथ्वी पर युद्ध नहीं हो सकता, यह बात जरूर सच है। लेकिन यह इसलिए सच नहीं है कि शांतिवादी की बात भय के कारण मानने योग्य है, यह इसलिए सत्य है कि अब हमारे पास साधन बड़े हैं, पृथ्वी छोटी है। अब पृथ्वी पर युद्ध बिलकुल बेमानी है। अब युद्ध की शकल बदलेगी, अब युद्ध का विस्तार और बढ़ेगा। चांदत्तारों पर, मंगल पर, ग्रहों-उपग्रहों पर कहीं युद्ध शुरू होंगे। वैज्ञानिकों का अंदाज है कि अंदाजन पचास करोड़ ग्रह होने चाहिए सारे जगत में, जिन पर जीवन होगा। कम-से-कम। तो आज जो भयभीत हो गया है कि हाइड्रोजन बम मत बनाओ और एटम बम मत बनाओ, अगर इस भयभीत आदमी की बात को मान लिया गया, तो इस जगत के विस्तार पर जो अभियान हो सकता है, जो यात्रा हो सकती है, वह नहीं हो सकेगी। और पृथ्वी जरूर उस जगह पहुंच गई है जहां युद्ध बेमानी है। लेकिन यह इसलिए नहीं हुआ है...यह भी समझने जैसी बात है।

युद्ध आज अर्थहीन हो गया है, इसलिए नहीं कि शांतिवादी की बात समझ में आ गई, युद्ध इसलिए अर्थहीन हो गया है कि युद्ध के विज्ञान का पूरा विकास हो गया है, "टोटल वार' का विकास हो गया है। युद्ध इतना समग्र हो गया है अब कि पृथ्वी पर लाना बिलकुल बेमानी है, क्योंकि युद्ध का तभी तक कोई अर्थ है जब कोई जीतता हो और कोई हारता हो। अब जो युद्ध है उसमें कोई जीतेगा नहीं, कोई हारेगा नहीं। उसमें दोनों एक-साथ मर जाएंगे। अब युद्ध का पृथ्वी पर कोई मतलब नहीं है। और मैं मानता हूं कि इसी वजह से पृथ्वी अब एक हो जाएगी, अब एक "ग्लोबल विलेज' से ज्यादा उसकी हालत नहीं है। एक छोटा-सा गांव जमीन हो गई है। शायद गांव से भी छोटी। दो गांव के बीच यात्रा में जितना समय लगता था, अब पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाने में उतना समय नहीं लगता है। तो पृथ्वी इतनी छोटी हो गई है कि अब युद्ध पृथ्वी पर बेमानी है। और पृथ्वी पर अगर युद्ध होता है तो वह नासमझ बात होगी। इसका यह मतलब नहीं है कि युद्ध न हो, इसका यह मतलब भी नहीं है कि युद्ध अब नहीं होंगे, युद्ध तो होते रहेंगे। लेकिन अब नई भूमियों पर होंगे। नई यात्राएं होंगी उनकी, और नए अभियान होंगे। युद्ध बंद नहीं हुआ, इतने समझाने वालों के बाद भी। वह बंद नहीं हो सकता, वह जीवन का हिस्सा है।

अब यह बड़े मजे की बात है कि युद्ध से क्या-क्या पैदा हुआ। अगर हम बहुत गौर से देखें, तो हमारे सारे सहयोग की, कोआपरेशन की सारी व्यवस्था युद्ध के लिए पैदा हुई। "कोआपरेशन फॉर कांफ्लिकट'। सारा सहयोग संघर्ष के लिए है। अगर जमीन पर युद्ध न हो तो कोई "कोआपरेशन', कोई सहयोग भी नहीं होगा।

तो कृष्ण को समझना बहुत जरूरी है। कृष्ण शांतिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक को चुनते हैं। कृष्ण अ-वादी हैं। कृष्ण कहते हैं, शांति से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। युद्ध से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। मेरा मतलब समझाने का है--कृष्ण कहते हैं जिससे मंगल-यात्रा गतिमान होती हो, जिससे धर्म विकसित होता हो, जिससे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ती हो, स्वागत है उसका। ऐसा स्वागत चाहिए भी।

हमारा देश अगर कृष्ण को समझा होता, तो हम इस भांति नपुंसक न हो गए होते। हमने बहुत अच्छी-अच्छी बातों के पीछे बहुत-बहुत न-मालूम कैसी कुरूपताएं छिपा रखी हैं। हमारी अहिंसा की बात के पीछे हमारी कायरता छिपकर बैठ गई है। हमारे युद्ध-विरोध के पीछे हमारे मरने का डर छिपकर बैठ गया है। लेकिन हमारे युद्ध न करने से युद्ध बंद नहीं होता, हमारे युद्ध न करने से कोई और हम पर युद्ध जारी रखता है। हम लड़ने न जाएं इससे लड़ाई बंद नहीं होती, सिर्फ हम गुलाम बनते हैं। और फिर भी हम लड़ाइयों में घसीटे जाते रहे। यह बड़े मजे की बात है। हम नहीं लड़े, कोई हम पर हावी हो गया, हमें गुलाम बना लिया और फिर हम उसकी फौजों में लड़ते ही रहे। लड़ाई तो कुछ बंद नहीं हुई। कभी हम मुगल की फौज में लड़े, कभी हम तुर्क की फौज में लड़े, कभी हम हूण की फौज में लड़े। हम खुद ही न लड़े, गुलाम भी रहे और अपनी गुलामी को बचाने के लिए लड़ते रहे। फिर हम अंग्रेज की फौज में लड़े। लड़ाई तो बंद नहीं हुई। हां, इतना ही हो गया कि हम अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ते, अपने जीवन के लिए लड़ते, फिर हम अपनी परतंत्रता के लिए लड़े कि हमारी परतंत्रता कैसे बनी रहे, इसके लिए भी हमारा आदमी मरता रहा। यह दुखद फल हुआ। यह महाभारत के कारण नहीं। यह फिर से हम महाभारत की हिम्मत न जुटा पाए, उसके कारण।

इसलिए मैं कहता हूं कि कृष्ण को समझना थोड़ा मुश्किल तो है। बहुत आसान है समझ लेना एक शांतिवादी की बात, क्योंकि वह एक पहलू चुन लेता है। बहुत आसान है समझ लेना युद्धवादी की बात।एक हिटलर, एक मुसोलिनी, एक चंगेज, एक तैमूर, नेपोलियन, सिकंदर--युद्धखोरी की बात समझने में भी बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि वह कहते हैं कि युद्ध ही जीवन है। शांतिवादी हैं--रसल हैं, गांधी हैं--उनकी बात भी समझ लेनी बहुत आसान हैं। वह कहते हैं कि नहीं, शांति ही जीवन है। कृष्ण की बात समझनी बहुत मुश्किल है। क्योंकि वह कहते है कि जीवन दोनों द्वारों से गुजरता है। वह शांति से भी गुजरता है, वह युद्ध से भी गुजरता है। और अगर तुम्हें शांति बनाए रखनी है तो तुम्हें युद्ध की सामर्थ्य रखनी होगी। और अगर तुम्हें युद्ध जारी रखना है तो तुम्हें शांति में तैयारी भी करनी होगी। ये दो पैर हैं जीवन के। इनमें से एक को भी काटा तो लंगड़े और पंगु हो जाते हैं। चंगेज और तैमूर और मुसोलिनी भी लंगड़े हैं और गांधी और रसल भी लंगड़े हैं। इनके एक-एक पैर हैं। इनसे गति नहीं हो सकती। और इसलिए अगर एक-एक पैर वाले आदमी रहें, तो फिर "पीरियाडिकल फैशन' रहता है। एक पैर मुसोलिनी का और एक पैर गांधी का। दुनिया ऐसी चलती है। दो पैर तो चाहिए ही--एक पैर मुसोलिनी का चलता है, एक गांधी का चलता है। एक फैशन मुसोलिनी की होती है, फिर एक फैशन गांधी की होती है। जब मुसोलिनी अपना युद्ध कर लेता है और हिटलर और स्टेलिन अपने युद्ध कर चुके होते हैं, तब रसल और गांधी और बिनोबा की बात हमको एकदम अपील करने लगती है। दस-बीस साल इनकी बात अपील करती है, तब तक यह इतना लंगड़ा पैर ज्यादा देर नहीं चलता, दूसरे पैर की जरूरत पड़ जाती है, फिर कोई माओ खड़ा होगा, फिर कोई खड़ा होगा, फिर युद्ध बीच में आ जाएगा।

कृष्ण के पास दोनों पैर हैं। कृष्ण लंगड़े आदमी नहीं हैं। और मैं मानता हूं कि दोनों पैर प्रत्येक के पास होने चाहिए। जो आदमी लड़ न सके, उसमें कुछ कमी होती है। और जो आदमी लड़ न सके, वह आदमी ठीक अर्थों में शांत भी नहीं हो सकता। वह लंगड़ा हो जाता है। जो आदमी शांत न हो सके, वह विक्षिप्त हो जाता है। और जो आदमी शांत न हो सके वह लड़ेगा कैसे? लड़ने में एक निर्णायक बात तय होनी है कि सारी दुनिया को शांतिवादी बनाना है? एक तरह का मुर्दापन छा जाएगा। जो कि संभव नहीं है, कोई मानेगा नहीं। शांतिवादी अपना जुलूस निकालता रहेगा और शांति के झंडे लगाता रहेगा--कोई मानने वाला नहीं है, कोई जीवन रुकता नहीं है--युद्धखोर, अपनी युद्ध की तैयारी करता रहेगा। फैशन बदलते रहते हैं। दस-बीस साल उसका प्रभाव रहता है, दस-बीस साल इनका प्रभाव रहता है। और ये दोनों एक-दूसरे के साझे में काम चलाते हैं।

कृष्ण की बात समग्र जीवन की है, और अगर हमारी समझ में आ जाए तो न तो शांति को छोड़ने की जरूरत है, न युद्ध को छोड़ने की जरूरत है। युद्ध के तल रोज बदलते जाएंगे, निश्चित ही। क्योंकि कृष्ण कोई चंगेज नहीं हैं। किसी की हत्या करने के लिए, किसी को दुख देने के लिए उनकी कोई आतुरता नहीं है। लेकिन युद्ध के तल बदलते जाएंगे। अब हम देखें कि युद्ध कितने प्रकार से तल बदलता है।

अगर आदमी आदमी से न लड़े, तो सब आदमी मिलकर प्रकृति से लड़ना शुरू कर देते हैं। अब यह जरा सोचने जैसी बात है कि जिन कौमों में युद्ध चलते रहे, उन्हीं कौमों में विज्ञान भी विकसित हुआ, क्योंकि लड़ने की क्षमता है उनमें। वह आदमी से भी लड़ते हैं, जब फिर वक्त मिलता है तो प्रकृति से भी लड़ लेते हैं। लेकिन हमारी कौम ने महाभारत के बाद प्रकृति से भी कोई लड़ाई नहीं लड़ी। बाढ़ से भी नहीं लड़े, आंधी से भी नहीं लड़े, पहाड़ से भी नहीं लड़े, प्रकृति के किसी तत्त्व से नहीं लड़े, इसलिए विज्ञान विकसित नहीं हो सका। क्योंकि वह तो प्रकृति से लड़ेंगे तो विकसित होगा। आदमी लड़ता रहे तो आज जमीन की प्रकृति से लड़ेगा और जमीन के राज खोल लेगा, कल वह चांदत्तारों की प्रकृति से लड़ेगा; उसका अभियान रुकेगा नहीं।

इसलिए ध्यान रहे कि जो समाज युद्ध में डूबे और उबरे, वे ही समाज चांद पर भी अपने आदमी को उतार पाए हैं। हम नहीं उतार पाए, शांतिवादी नहीं उतार पाया। और चांद आज नहीं कल, युद्ध के अर्थ में बड़ा कीमती है। जिसके हाथ में चांद होगा, उसके हाथ में पृथ्वी होगी। क्योंकि आने वाले युद्ध की मिसाइल्स जिसके हाथ में चांद पर लग जाएंगी, पृथ्वी उसके हाथ में होगी। इसलिए अब झगड़ा पृथ्वी से हट गया है। अब यह तो सब जिसको कहें कि "फिलस्फाइज्ड़' हैं--वियतनाम है, या कम्बोडिया है, या कुछ और है; हिंदुस्तान-पाकिस्तान हैं--यह सब कोई लड़ाई-झगड़े नहीं हैं, ये सिर्फ नासमझों के चित्त को उलझाए रखने की तरकीबें हैं। कि वह यहां उलझे रहेंगे। असली लड़ाई अब दूसरे तल पर शुरू हो गई है। चांद पर जाने की दौड़ का बहुत गहरा अर्थ दूसरा ही है। वह अर्थ यह है कि जिसके हाथ में कल चांद होगा, उसको पृथ्वी पर कोई चुनौती देने का उपाय नहीं रह जाएगा। उसके एटम और उसके हाइड्रोजन बम की तोपें चांद से पृथ्वी की तरफ लगी होंगी। एक-एक मुल्क के ऊपर उड़कर बम गिराने की जरूरत न रह जाएगी, मुल्क अपने-आप बम की तोप के सामने आते रहते हैं चौबीस घंटे में। वह घूमती रहती है पृथ्वी और पूरे वक्त सामने आते रहते हैं, अपने-आप। कोई अलग-अलग किसी मुल्क पर जाकर एटम को गिराने की जरूरत नहीं है। तो इसलिए इतनी दौड़ थी, और इतना खर्च करके--कोई एक अरब अस्सी करोड़ डालर खर्च हुआ एक आदमी को चांद पर उतारने में। यह कोई खेल नहीं था, इसमें कुछ कारण है पीछे। और कौन पहले उतार देता है यह जरूरी था।

यह दौड़ अब वैसी ही है जैसे एक दिन दौड़ आज से कोई तीन सौ साल पहले यूरोप से एशिया की तरफ लग गई थी और सारे जहाज एशिया की तरफ भागे जा रहे थे--पोर्तगीज भी, स्पैनिश भी और अंग्रेज भी, और सब, फ्रेंच भी और जर्मन भी, सब भागे जा रहे थे। तीन सौ साल पहले जैसे एशिया की जमीन पर कब्जा करना जरूरी हो गया था विस्तारवादी के लिए, विकास के लिए। अब वह बेमानी हो गया, अब कोई मतलब नहीं। एशिया के लोग समझ रहे हैं कि हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई ने हमको आजाद किया है, इसमें आधी ही सचाई है। आधी सचाई तो दूसरी है, और वह यह है कि अब एशिया की जमीन पर कब्जा करने का कोई मतलब नहीं रह गया है, अब वह बात खतम हो गई है। वह दौर खतम हो गया है। अब तो कहीं लड़ाई और दूसरी जमीन पर कब्जा करने की है। वहां दृष्टि और जगह चली गई है, अब वहां दौड़ है। कल चांदत्तारों पर और दूर तक दौड़ हो जाएगी। शक्ति का एक अभियान है जीवन। उस अभियान में जो मुर्दानगी को पकड़ लेते हैं, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।

हम ऐसी ही नष्ट हो गई कौम हैं। और इसलिए भी कृष्ण का संदेश बड़ा अर्थपूर्ण है--हमारे लिए ही है, मैं मानता हूं कि पश्चिम भी उस जगह खड़ा हो गया है जहां उसे निर्णायक लड़ाई शायद पृथ्वी पर एक बार और लड़नी पड़े। निश्चित ही पृथ्वी पर नहीं होगी, अगर पृथ्वी के प्रतियोगियों में भी लड़ाई होगी तो चांद या मंगल पर होगी। पृथ्वी पर कोई अर्थ नहीं है लड़ाई लड़ने का, क्योंकि दोनों मर जाएंगे। अगर उन दोनों को भी लड़ना है तो उन दोनों को भी किसी दूसरे ग्रह-उपग्रह पर ही लड़कर तय करना पड़ेगा कि कौन जीतता है।

इस निर्णायक लड़ाई में भी क्या होगा, शायद हालतें फिर वैसी ही खड़ी हो गई हैं जैसी महाभारत के समय। महाभारत के समय भी दो वर्ग थे। एक वर्ग था जो निपट भौतिकवादी था, जिसकी पूरी दृष्टि शरीर के अतिरिक्त किसी को स्वीकार नहीं करती थी। जिसकी दृष्टि भोग के अतिरिक्त किसी तरह के योग के लिए कोई क्षमता न रखती थी। आत्मा का होना न होने की बात थी। जिंदगी थी भोग, लूट-खसोट। जिंदगी शरीर से और शरीर की इंद्रियों के बाहर कोई अर्थ न रखती थी। एक वर्ग। उसी वर्ग के खिलाफ वह संघर्ष हुआ था। कृष्ण को उस संघर्ष को करवाना पड़ा था। जरूरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों, वह अशुभ की शक्तियों के सामने खड़ी हो जाएं।

आज फिर करीब-करीब हालत वैसी हो गई है और हो जाएगी बीस साल के भीतर। एक तरफ भौतिकवाद, "मटीरियलिज्म' अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हो गया जाएगा, और दूसरी तरफ फिर कमजोर ताकतें होंगी शुभ की। शुभ में एक बुनियादी कमजोरी है। वह लड़ने से हटना चाहता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का मतलब होता है, सीधा-सादा। तिरछा-इरछा जरा-भी नहीं। अ-रिजु। बहुत सीधा-सादा आदमी है। सरल चित्त है। देखता है कि फिजूल की झंझट कौन करे, हट जाओ। अर्जुन सदा ही हटता रहा है। वह जो अ-रिजु आदमी है, जो सीधा-सादा आदमी है, वह हट जाता है। वह कहता है, मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कहीं ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है। लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है, और सरलता पलायन नहीं है। वह जम कर खड़े हो गए हैं, वे नहीं भागने देंगे। शायद फिर पृथ्वी दो हिस्सों में बंट जाएगी। सदा ऐसा होता है, कि निर्णायक, "डिसीसिव मॉमेंट' आ जाते हैं, जब फिर लड़ने की बात होती है। उसमें गांधी और विनोबा और रसल काम नहीं पड़ेंगे। क्योंकि एक अर्थ में वे सब अर्जुन हैं। वे कहेंगे, हट जाओ; वे कहेंगे, मर जाओ लेकिन लड़ो मत।

कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरूरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाए, इसलिए लड़ाई है।

तो धीरे-धीरे दो हिस्से दुनिया के बंट जाएंगे, जल्दी ही, जहां एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतंत्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते हैं? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियां इस जगह आ जाती हैं जहां कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियां उस चेतना को भी पुकार लेती हैं उस चेतना को भी जन्म दे देती हैं। वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए भी मैं कहता हूं कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है। और जब साधारण, सीधे-सादे, अच्छे आदमियों की आवाजें बेमानी हो जाएंगी--क्योंकि बुरा आदमी अच्छे आदमी की आवाजों से न डरता है, न भय खाता है, न रुकता है। तो वह बढ़ता चला जाता है। बल्कि अच्छा आदमी जितना सिकुड़ता है, बुरे आदमी के लिए उतना ही आनंदपूर्ण हो जाता है।

महाभारत के बाद हिंदुस्तान में बहुत अच्छे आदमी हुए--बुद्ध हैं, महावीर हैं--इनकी अच्छाई की कोई कमी नहीं है। इनकी अच्छाई की कोई सीमा नहीं है। लेकिन इनकी अच्छाई के प्रभाव में मुल्क सिकुड़ गया। हमारा चित्त सिकुड़ गया। और उस सिकुड़े हुए चित्त पर सारी दुनिया के आक्रामक टूट पड़े। आक्रमण करने ही हम नहीं जाते हैं, आक्रमण को बुलाते भी हमीं हैं। और जब तुम किसी को मारते हो, तभी तुम जिम्मेवार नहीं होते, जब तुम किसी की मार खाते हो तब भी तुम जिम्मेवार होते ही हो। क्योंकि किसी के चेहरे पर चांटा मारना भी एक कृत्य है जिसमें पचास प्रतिशत तुम जिम्मेवार हो, पचास प्रतिशत वह आदमी जिम्मेवार है जिसने चांटे को निमंत्रित किया है। सहा, "पैसीविटी' दिखाई, स्वीकार किया, बुलाया कि मारो। अगर तुम पर कोई चांटा मारता है तो पचास "परसेंट' तुम भी जिम्मेवार होते हो, तुम बुलाते हो।

अच्छे आदमियों की एक लंबी कतार ने--निपट अच्छे आदमियों की लंबी कतार ने--इस मुल्क के मन को सिकोड़ दिया, और हमने बुलाया, आमंत्रण दिया कि आओ। हमारा आमंत्रण मानकर बहुत लोग आए। उन्होंने हमें वर्षों तक गुलाम रखा, दबाया, परेशान किया। अपनी मौज से वे चले भी गए। लेकिन हम अभी भी, हमारी मनोदशा संकोच की ही है। हम फिर किसी को बुला सकते हैं। अगर कल माओ प्रवेश कर जाए इस मुल्क में, तो उसके लिए जिम्मेदार अकेला माओ नहीं होगा। लेनिन ने बहुत वर्षों पहले एक भविष्यवाणी की थी कि मास्को से कम्यूनिज्म पेकिंग और कलकत होता हुआ लंदन पहुंचेगा। उसकी भविष्यवाणी बड़ी सही मालूम पड़ती है। पेकिंग तो पहुंच गया। कलकत्ते में उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी है। लंदन ज्यादा दूर नहीं है। अब कलकत्ते में कम्यूनिज्म को प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं है; क्योंकि भारत का मन सिकुड़ा हुआ है। वह आ जाएगा, उसको स्वीकार करके देश और दब जाएगा। इसलिए इस देश को तो कृष्ण पर पुनर्विचार करना ही चाहिए।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

साभार ओशो ज्ञान गंगा 



गुरुवार, 31 अगस्त 2023

कृष्ण स्मृति

 "कृष्ण के व्यक्तित्व में आज के युग के लिए क्या-क्या विशेषताएं हैं और उनके व्यक्तित्व का क्या महत्त्व हो सकता है? इस पर कुछ प्रकाश डालें?'

कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।

इसके कुछ कारण हैं।

सबसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ।

कृष्ण अकेले ही नाचते हुए व्यक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।

जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी-चित्त लोगों को बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में इस जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के--एक वह जो स्वीकार योग्य है और एक वह जो इनकार के योग्य है।

कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए, इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया है।

अल्बर्ट श्वीत्ज़र ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी कीमत की बात कही है, और वह यह कि भारत का धर्म जीवन-निषेधक, "लाइफ निगेटिव' है। यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। और यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है। और श्वीत्ज़र यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दुख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे-से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास और निषेध और दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरूद्यान हैं। वह हमारे पूरे जीवन की धारा को नहीं प्रभावित कर पाए। हम ही इस योग्य न थे, हम उन्हें आत्मसात न कर पाए।

मनुष्य का मन अब तक तोड़कर सोचता रहा, द्वंद्व करके सोचता रहा। शरीर को इनकार करना है, आत्मा को स्वीकार करना है। तो आत्मा और शरीर को लड़ा देना है। परलोक को स्वीकार करना है, इहलोक को इनकार करना है। तो इहलोक और परलोक को लड़ा देना है। स्वभावतः, यदि हम शरीर का इनकार करेंगे, तो जीवन उदास हो जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे रस-स्रोत और सारा स्वास्थ्य और जीवन का सारा संगीत और सारी संवेदनाएं शरीर से आ रही हैं। शरीर को जो धर्म इनकार कर देगा, वह पीतवर्ण हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा। उस पर से लाली खो जाएगी। वह पीले पत्ते की तरह सूखा हुआ धर्म होगा। उस धर्म की मान्यता भी जिनके मन में गहरी बैठेगी, वे भी पीले पत्ते की तरह गिरने की तैयारी में संलग्न, मरने के लिए उत्सुक और तैयार हो जाएंगे।

कृष्ण अकेले हैं जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वीकार कर लेते हैं, उसकी "टोटलिटी' में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर...कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते ही हंसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्य-जाति के इतिहास में जन्म लेकर हंसा। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हंसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हंसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है। फ्रायड-पूर्व धर्म की जो दुनिया थी, वह फ्रायड-पश्चात नहीं हो सकती है। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है, और एक बड़ी दरार पड़ गई है मनुष्य की चेतना में। हम जहां थे फ्रायड के पहले, अब हम वहीं कभी भी नहीं हो सकेंगे। एक नया शिखर छू लिया गया है और एक नई समझ पैदा हो गई है। वह समझ समझ लेनी चाहिए।

पुराना धर्म सिखाता था आदमी को दमन और "सप्रेशन'। काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सभी को दबाना है और नष्ट कर देना है। और तभी आत्मा उपलब्ध होगी और तभी परमात्मा उपलब्ध होगा। यह लड़ाई बहुत लंबी चली। इस लड़ाई के हजारों साल के इतिहास में भी मुश्किल से दस-पांच लोग हैं जिनको हम कह पाए कि उन्होंने परमात्मा को पा लिया। एक अर्थ में यह लड़ाई सफल नहीं हुई। क्योंकि अरबों-खरबों लोग बिना परमात्मा को पाए मरे हैं। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल थी। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई माली करोड़ हजार पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाएं, और फिर भी हम उस माली के शास्त्र को मानते चले जाएं, और हम कहें कि देखो एक पौधे में फूल आए! और हम इस बात का खयाल ही भूल जाएं कि पचास करोड़ पौधे में अगर एक पौधे में फूल आते हैं, तो यह माली की वजह से न आए होंगे, यह माली से किसी तरह बच गया होगा पौधा, इसलिए आ गए हैं। क्योंकि माली का प्रमाण तो बाकी पचास करोड़ पौधे हैं जिनमें फूल नहीं आते, पत्ते नहीं लगते, सूखे ठूंठ रह जाते हैं।

एक बुद्ध, एक महावीर, एक क्राइस्ट अगर परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के बावजूद भी, तो यह कोई धर्मों की सफलता का प्रमाण नहीं हैं। धर्मों की सफलता का प्रमाण तो तब होगा, माली तो तब सफल समझा जाएगा, जब पचास करोड़ पौधों में फूल लगें और एक में न लग पाएं, तो क्षमा योग्य है। कहा जा सकेगा कि यह पौधे की गलती हो गई। इसमें माली की गलती नहीं हो सकती। पौधा बच गया होगा माली से, इसलिए सूख गया है, इसलिए फूल नहीं आते हैं।

फ्रायड के साथ ही एक नई चेतना का जन्म हुआ और वह यह कि दमन गलत है। और दमन मनुष्य को आत्महिंसा में डाल देता है। आदमी अपने से ही लड़ने लगे तो सिर्फ नष्ट हो सकता है। अगर मैं अपने बाएं और दाएं हाथ को लड़ाऊं तो न तो बायां जीतेगा, न दायां जीतेगा, लेकिन मैं हार जाऊंगा। दोनों हाथ लड़ेंगे और मैं नष्ट हो जाऊंगा। तो दमन ने मनुष्य को आत्मघाती बना दिया, उसने अपनी ही हत्या अपने हाथों कर ली।

कृष्ण, फ्रायड के बाद जो चेतना का जन्म हुआ है, जो समझ आई है, उस समझ के लिए कृष्ण ही अकेले हैं जो सार्थक मालूम पड़ सकते हैं। क्योंकि पुराने मनुष्यजाति के इतिहास में कृष्ण अकेले हैं जो दमनवादी नहीं हैं। वे जीवन के सब रंगों को स्वीकार कर लिए हैं। वे प्रेम से भागते नहीं। वे पुरुष होकर स्त्री से पलायन नहीं करते। वे परमात्मा को अनुभव करते हुए युद्ध से विमुख नहीं होते। वे करुणा और प्रेम से भरे होते हुए भी युद्ध में लड़ने की सामर्थ्य रखते हैं। अहिंसक-चित्त है उनका, फिर भी हिंसा के ठेठ दावानल में उतर जाते हैं। अमृत की स्वीकृति है उन्हें, लेकिन जहर से कोई भय भी नहीं है। और सच तो यह है, जिसे भी अमृत का पता चल गया है उसे जहर का भय मिट जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा अमृत ही क्या जो जहर से फिर डरता चला जाए। और जिसे अहिंसा का सूत्र मिल गया, उसे हिंसा का भय मिट जाना चाहिए। ऐसी अहिंसा ही क्या जो अभी हिंसा से भी भयभीत और घबड़ाई हुई है! और ऐसी आत्मा भी क्या जो शरीर से भी डरती हो और बचती हो! और ऐसे परमात्मा का क्या अर्थ जो सारे संसार को अपने आलिंगन में न ले सकता हो। तो कृष्ण द्वंद्व को एक-साथ स्वीकार कर लेते हैं और इसलिए द्वंद्व के अतीत हो जाते हैं। "ट्रांसेंडेंस' जो है, अतीत जो हो जाना है, वह द्वंद्व में पड़कर कभी संभव नहीं है; दोनों को एक साथ स्वीकार कर लेने से संभव है।

तो भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है। जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व-भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा। और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए। कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। कठिन है इस बात को समझना कि एक आदमी संसार को छोड़कर चला जाए और शांत हो जाए। कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो। आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति से संबंध तोड़कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो। कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अलिप्त, जीवन के सारे धूल-धवांस के कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दिया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो--कठिन है यह समझना। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते हैं। लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है। ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके, और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे। और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दिया मन से न बुझे।

इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है। सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे। वह बाल कृष्ण को ही...। क्योंकि बाल कृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ देता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन युवा-कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं। हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा। गीता को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे, क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। इसलिए कृष्ण की एक-एक शकल लोगों ने पकड़ लिया। है। जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शकल को उसने इनकार कर दिया है।

गांधी गीता को माता कहते है, लेकिन गीता को आत्मसात नहीं कर सके। क्योंकि गांधी की अहिंसा युद्ध की संभावनाओं को कहां रखेगी? तो गांधी उपाय खोजते हैं; वह कहते हैं यह जो युद्ध है, यह सिर्फ रूपक है, यह कभी हुआ नहीं। यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है। यह जो कुरुक्षेत्र है, यह कोई बाहर युद्ध का मैदान नहीं है, और ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने कहीं अर्जुन को किसी बाहर के युद्ध में लड़ाया हो। यह तो भीतर के युद्ध की रूपक-कथा है। यह एक "पैरेबल' है, यह एक कहानी है। यह एक प्रतीक है। गांधी को कठिनाई है। क्योंकि गांधी का जैसा मन है, उसमें तो अर्जुन ही ठीक मालूम पड़ेगा। अर्जुन के मन में बड़ी अहिंसा का उदय हुआ है। वह युद्ध छोड़कर भाग जाने को तैयार है। वह कहता है, अपनों को मारने से फायदा क्या? और वह कहता है, इतनी हिंसा करके धन पाकर भी, यश पाकर भी, राज्य पाकर भी मैं क्या करूंगा? इससे तो बेहतर है मैं सब छोड़कर भिखमंगा हो जाऊं। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं और सारे दुख वरण कर लूं, लेकिन हिंसा में न पडूं। इससे मेरा मन बड़ा कांपता है। इतनी हिंसा अशुभ है।

कृष्ण की बात गांधी की पकड़ में कैसे आ सकती है? क्योंकि कृष्ण समझाते हैं कि तू लड़। और लड़ने के लिए जो-जो तर्क देते हैं, वह ऐसा अनूठा है कि इसके पहले कभी भी नहीं दिया गया था। उसको परम अहिंसक ही दे सकता है, उस तर्क को।

कृष्ण का तर्क यह है कि जब तक तू ऐसा मानता है कि कोई मर सकता है, तब तक तू आत्मवादी नहीं है। तब तक तुझे पता नहीं है कि जो भीतर है, न वह कभी मरा है, न कभी मर सकता है। अगर तू सोचता है कि मैं मार सकूंगा, तो तू बड़ी भ्रांति में है, बड़े अज्ञान में है। क्योंकि मारने की धारणा ही भौतिकवादी की धारणा है। जो जानता है, उसके लिए कोई मरता नहीं है। तो अभिनय है--कृष्ण उससे कह रहे हैं--मरना और मारना लीला है, एक नाटक है।

इस संदर्भ में यह समझ लेना उचित होगा कि राम के जीवन को हम चरित्र कहते हैं। राम बड़े गंभीर हैं। उनका जीवन लीला नहीं है, चरित्र ही है। लेकिन कृष्ण गंभीर नहीं हैं। कृष्ण का चरित्र नहीं है वह, कृष्ण की लीला है। राम मर्यादाओं में बंधे हुए व्यक्ति हैं, मर्यादाओं के बाहर वे एक कदम न बढ़ेंगे। मर्यादा पर वे सब कुर्बान कर देंगे। कृष्ण के जीवन में मर्यादा जैसी कोई चीज ही नहीं है। अमर्याद। पूर्ण स्वतंत्र। जिसकी कोई सीमा नहीं, जो कहीं भी जा सकता है। ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां वह रुके, ऐसी कोई जगह नहीं आती जहां भयभीत हो और कदम को ठहराए। यह अमर्यादा भी कृष्ण के आत्म-अनुभव का अंतिम फल है। तो हिंसा भी बेमानी हो गई है वहां, क्योंकि हिंसा हो नहीं सकती। और जहां हिंसा ही बेमानी हो गई हो वहां अहिंसा भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि जब तक हिंसा सार्थक है और हिंसा हो सकती है, तभी तक अहिंसा भी सार्थक है। असल में हिंसक अपने को मानना भौतिकवाद है, अहिंसक अपने को मानना भी उसी भौतिकवाद का दूसरा छोर है। एक मानता है मैं मार डालूंगा, एक मानता है मैं मारूंगा नहीं, मैं मरने को राजी नहीं हूं। लेकिन दोनों मानते हैं कि मारा जा सकता है।

ऐसा अध्यात्म युद्ध को भी खेल मान लेता है। और जो जीवन की सारी दिशाओं को--राग की, प्रेम की, भोग की, काम की, योग की, ध्यान की, समस्त दिशाओं को एक साथ स्वीकार कर लेता है, उस समग्रता के दर्शन को समझने की संभावना रोज बढ़ती जा रही है, क्योंकि अब हमें कुछ बातें पता चली हैं, जो हमें कभी पता नहीं थीं। लेकिन कृष्ण को निश्चित ही पता रही हैं।

जैसे हमें आज जाकर पता चला है कि शरीर और आत्मा जैसी दो चीजें नहीं हैं। आत्मा का जो छोर दिखाई पड़ता है, वह शरीर है; और शरीर का जो छोर दिखाई पड़ता है, वह आत्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा और प्रकृति जैसा द्वंद्व नहीं है कहीं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है, वह प्रकृति है। और जो अब भी अदृश्य है, वह परमात्मा है। कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है जहां प्रकृति खत्म होती है और परमात्मा शुरू होता है। बस प्रकृति ही लीन होते-होते परमात्मा बन जाती है। परमात्मा ही प्रगट होते-होते प्रकृति बन जाता है। अद्वैत का यही अर्थ है। और इस अद्वैत की अगर हमें धारणा स्पष्ट हो जाए, इसकी प्रतीति हो जाए, तो कृष्ण को समझा जा सकता है।

साथ ही भविष्य में और क्यों कृष्ण की सार्थकता बढ़ने को हैं और कृष्ण क्यों मनुष्य के और निकट आ जाएंगे? अब दमन संभव नहीं हो सकेगा। बड़े लंबे संघर्ष और बड़े लंबे ज्ञान की खोज के बाद ज्ञात हो सका है कि जिन शक्तियों से हम लड़ते हैं वे शक्तियां हमारी ही हैं, हम ही हैं। इसलिए उनसे लड़ने से बड़ा कोई पागलपन नहीं हो सकता। और यह भी ज्ञात हुआ है कि जिससे हम लड़ते हैं, हम सदा के लिए उसी से घिरे रह जाते हैं। और यह भी ज्ञात हुआ है कि जिससे हम लड़ते हैं उसे हम कभी रूपांतरित नहीं कर पाते। उसका "ट्रांसफार्मेशन' नहीं होता।

अगर कोई व्यक्ति यौन से लड़ेगा तो उसके जीवन में ब्रह्मचर्य घटित हो सकता है तो एक ही उपाय है कि वह अपनी काम की ऊर्जा को कैसे रूपांतरित करे। काम की ऊर्जा से मैत्री साधनी है। क्योंकि हम सिर्फ उसी को बदल सकते हैं जिससे हमारी मैत्री है। जिसके हम शत्रु हो गए, उसको बदलने का सवाल नहीं। जिसके हम शत्रु हो गए उसको समझने का भी उपाय नहीं है। समझ भी हम उसे ही सकते हैं जिससे हमारी मैत्री है।

तो जो हमें निकृष्टतम दिखाई पड़ रहा है वह भी श्रेष्ठतम का ही छोर है। पर्वत का जो बहुत ऊपर का शिखर है, वह, और पर्वत के पास की जो बहुत गहरी खाई है, ये दो घटनाएं नहीं हैं। ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। यह जो खाई बनी है, यह पर्वत के ऊपर उठने से बनी है। यह जो पर्वत ऊपर उठ सका है, यह खाई के बनने से ऊपर उठ सका है। ये दो चीजें नहीं हैं। ये पर्वत और खाई हमारी भाषा में दो हैं, अस्तित्व में एक ही चीज के दो छोर हैं।

नीत्शे का एक बहुत कीमती वचन है। नीत्शे ने कहा है कि जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराई तक पहुंचानी पड़ती हैं। और अगर कोई वृक्ष अपनी जड़ों को पाताल तक पहुंचाने से डरता है, तो उसे आकाश तक पहुंचने की आकांक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। असल में जितनी ऊंचाई, उतने ही गहरे भी जाना पड़ता है। जितना ऊंचा जाना हो उतना ही नीचे भी जाना पड़ता है। नीचाई और ऊंचाई दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो आयाम हैं और वे सदा समानुपाती हैं, एक ही अनुपात में बढ़ते हैं।

मनुष्य के मन ने सदा चाहा कि वह चुनाव कर ले। उसने चाहा कि स्वर्ग को बचा ले और नर्क को छोड़ दे। उसे चाहा कि शांति को बचा ले, तनाव को छोड़ दे। उसने चाहा शुभ को बचा ले, अशुभ को छोड़ दे। उसने चाहा प्रकाश ही प्रकाश रहे, अंधकार न रह जाए। मनुष्य के मन ने अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक हिस्से का चुनाव किया और दूसरे का इनकार किया। इससे द्वंद्व पैदा हुआ, इससे द्वैत हुआ। कृष्ण दोनों को एक-साथ स्वीकार करने के प्रतीक हैं। और जो दोनों को एक-साथ स्वीकार करता है, वही पूर्ण हो सकता है। नहीं तो अपूर्ण ही रह जाएगा। जितने को चुनेगा, उतना हिस्सा रह जाएगा; और जिसको इनकार करेगा, सदा उससे बंधा रहेगा। उससे बाहर नहीं जा सकता है। जो व्यक्ति काम का दमन करेगा, उसका चित्त कामुक-से-कामुक होता चला जाएगा। इसलिए जो संस्कृति, जो धर्म काम का दमन सिखाता है, वह संस्कृति कामुकता पैदा करवाती है।

काश कृष्ण को माना जा सका होता, तो शायद दुनिया से कामुकता विदा हो गई होती। लेकिन कृष्ण को नहीं माना जा सका। बल्कि हमने न मालूम कितने-कितने रूपों में कृष्ण के उन हिस्सों का इनकार किया जो काम की स्वीकृति हैं। लेकिन अब यह संभव हो जाएगा, क्योंकि अब हमें दिखाई पड़ना शुरू हुआ है कि काम की ऊर्जा, वह जो "सेक्स एनर्जी है, वही ऊर्ध्वगमन करके ब्रह्मचर्य के उच्चतम शिखरों को छू पाती है। जीवन में किसी से भागना नहीं है और जीवन में किसी को छोड़ना नहीं है, जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है। उसको जो समग्रता से जीता है वह जीवन की पूर्णता को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूं कि भविष्य के संदर्भ में कृष्ण का बहुत मूल्य है और हमारा वर्तमान रोज उस भविष्य के करीब पहुंचता है जहां कृष्ण की प्रतिमा निखरती जाएगी और एक हंसता हुआ धर्म, एक नाचता हुआ धर्म जल्दी निर्मित होगा। तो उस धर्म की बुनियादों में कृष्ण का पत्थर जरूर रहने को है।

ओशो रजनीश के प्रवचनों पर आधारित

ओशो ज्ञान गंगा से साभार 

मंगलवार, 29 अगस्त 2023

 बॉलीवुड सेलेब्स के बारे में वो 11 अफ़वाहें, जिन्हें बहुत से लोग आज भी सच मान बैठते हैं

Abhay Sinha

बॉलीवुड सेलेब्स से ज़्यादा पॉपुलर उनसे जुड़ी अफ़वाहें होती हैं. भले ही ये अफ़वाहें कितनी ही बेसिर-पैर की हों, मगर चाय की टपरी से लेकर महंगे-महंंगे कॉफ़ी शॉप्स तक इनकी गर्मागर्म चर्चा होती है. फिर वो चाहें सेलेब्स के कथित अफ़ेयर हों या फिर उनके फ़ैमिली मैटर्स. हर मुद्दे पर पब्लिक की मुंह पेलई जारी रहती है. 

अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश राय बच्चन नहीं, बल्कि जवाहर लाल नेहरू हैं. 

आराध्या बच्चन, अमिताभ और ऐश्वर्या की बेटी हैं.

आलिया भट्ट की मां पूजा भट्ट हैं.

अबराम, शाहरुख का नहींं, बल्कि उनके बेटे आर्यन का बेटा है. 

अपने सलमान भाई वर्जिन हैं.

ऋषि कपूर, डिंपल कपाड़िया से शादी करना चाहते थे, लेकिन डिंपल राज कपूर नाजायज़ बेटी थीं.

सोनाक्षी सिन्हा, शत्रुघ्न और रीना रॉय की बेटी हैं.

सलमान ख़ान नपुंसक हैं.

आलिया और श्रद्धा कपूर टैलेंटेड सिंगर हैं.

जिया ख़ान, आमिर की बेटी या बहन थी. दोनों का कुछ तो रिश्ता था.

मुझे लगता है कि सुशांत सिंह ने आत्महत्या नहीं की थी, बल्कि उनका मर्डर हुआ था. दिव्या भारती, जिया खान, दिशा सलियन के साथ भी ऐसा हुआ था.

तो ये थी बॉलीवुड से जुड़ी कुछ ऐसी अफ़वाहें, जो काफ़ी पॉपुलर हुईं. वैसे आप भी क्या इनमें से किसी अफ़वाह पर यक़ीन करते थे या करते हैं? 
https://hindi.scoopwhoop.com/entertainment/dumbest-bollywood-rumors/?pxinst=M&fbclid=IwAR3KFRx5Fn9VKdQ8gxSIsytWbKnzN85xPH8aNzdxxMkozneqlkYyV3MTRTs

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...