गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 20

  


ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।। 22।।


और जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी निस्संदेह दुख के ही हेतु हैं, और आदि-अंत वाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।



इंद्रियों और वासनाओं के मेल से प्रतीत होने वाले सुख अंततः दुख ही हैं। और शुरू होते हैं और समाप्त होते हैं; शाश्वत नहीं हैं, सनातन नहीं हैं; सदा साथ रहने वाले नहीं हैं। क्षणिक हैं। ऐसा जान लेने वाला पुरुष उनसे मुक्त होने लगता है।

दो बातें हैं। एक, जो हमें सुख जैसा भासता है, वह सुख नहीं है। भासता है निश्चित। है नहीं; उससे भी ज्यादा निश्चित। एपियरेंस, भासना किसी चीज का, तब तक पक्का पता नहीं चलता, जब तक उसके पास न जाएं। अंधेरी है रात, दूर से देखता हूं, दिखाई पड़ता है कि शायद कोई आदमी खड़ा है। और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, आदमी नहीं है; शायद लकड़ी का कोई डंडा पोता हुआ है! और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, लकड़ी का कोई डंडा नहीं, वृक्ष से कोई कपड़ा लटकता है। जैसे-जैसे पास आता हूं, वैसे-वैसे जो दूर से जाना था, वह बदलता है। अंतिम निर्णय तो वही होगा, जो ठेठ बिलकुल पास आकर होगा। दूर के निर्णय अंतिम नहीं माने जा सकते।

सुख जब तक नहीं मिलता, तब तक तो सुख मालूम पड़ता है। लेकिन मिलते से किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर अचानक लगता है कि खो गया। निश्चित ही, पास का निर्णय ही अंतिम निर्णय है।

आपने भी अपनी जिंदगी में बहुत सुख पाए होंगे, लेकिन पाकर किस सुख को सुख पाया! पा भी नहीं पाते कि दूसरे सुख की तलाश शुरू कर देते हैं। क्यों कर देते हैं? अगर सुख मिल गया, तो अब ठहरकर उसे भोग लो! सुख तो मिलता नहीं; ठहरकर भोगें क्या? फिर दिखाई पड़ता है, कल, भविष्य में; फिर दौड़ते हैं। वहां पहुंचते नहीं कि पाते हैं कि वहां भी खो गया!

सुख जब हाथ में आता है, तब निर्णायक रूप से तय होता है कि सुख नहीं है। और जब तक दूर रहता है, तब तक निश्चित मालूम पड़ता है कि सुख है। इंद्रधनुष जैसा है। दिखाई पड़ता है; लेकिन इंद्रधनुष के पास मत जाना। वह रेनबो वर्षा में बन जाता है आकाश में। कितना सुंदर! मन होता है कि बांधकर घर के बैठकखाने में लगा लें। जाना मत। वहां जाकर कुछ भी नहीं मिलेगा।


अगर पहुंच गए इंद्रधनुष के पास--पास भी न पहुंच सकेंगे, क्योंकि जैसे-जैसे पास पहुंचेंगे, वह खोने लगेगा--जब पास पहुंचेंगे, तो सिवाय भाप के बादलों के और उनमें से गुजरती सूरज की किरणों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई रंग नहीं, कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं। लेकिन कितना प्यारा लगता है इंद्रधनुष दूर से! कितना काव्य की तरह आकाश में खिंचा हुआ! कैसा मन करता है कि बांध लो घर में!

ध्यान रहे, जहां-जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ते हैं सुख के, वहां-वहां यही हालत है। जब पास जाएंगे, तो सिर्फ धुआं ही हाथ में लगता है। कुछ भी हाथ में नहीं मिलता!

कृष्ण कहते हैं, सुख प्रतीत होता है, सुख है नहीं। ऐसा जो समझ लेगा ठीक से, स्वभावतः उसकी वासना उठकर, इंद्रियों से मिलकर आसक्ति बनना बंद कर देगी।

दूसरी बात वे कहते हैं, यह भी स्मरण रख अर्जुन, कि यह भी सुख जो कि दिखाई पड़ता है, न होने की हालत में है। अगर कोई इस भ्रम में भी पड़ता हो कि नहीं, है। जैसा कि अज्ञानी को लगता है कि है। वह कहेगा कि कितना ही समझाओ कि नहीं है, लेकिन मैं कैसे मानूं! मैं कैसे मानूं कि उस बड़े महल में पहुंच जाऊंगा, तो सुख नहीं होगा? यद्यपि वह कभी नहीं पूछता उस बड़े महल में रहने वाले से कि अगर बड़े महल में रहने वाले को सुख मिल गया है, तो अब वह किसके लिए दौड़ रहा है? अब उसे सुख ले लेना चाहिए। वह दौड़ रहा है; वह भागा हुआ है। उसे बड़े महल का पता ही नहीं है। बड़ा महल उन्हीं को दिखाई पड़ता है, जो झोपड़ों में हैं। जो बड़े महल में हैं, उनको दिखाई ही नहीं पड़ता। उनके लिए और बड़े महल हैं! वे दिखाई पड़ते हैं, जिनमें वे नहीं हैं। जहां वे नहीं हैं।

मन की आदत ऐसी है कि अगर आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है, जहां दांत टूट गया है। बाकी दांतों को छोड़ देती है, जो हैं; और जो नहीं है, उसके साथ बड़ा लगाव बना लेती है। पता नहीं क्या दिमाग खराब हो जाता है जीभ का! और एक दफे देख लिया कि नहीं है, अब दुबारा क्या देखना? लेकिन जीभ है कि देखे चली जाती है। उन दांतों को कभी नहीं देखती, जो हैं। जो नहीं है, अभाव का जो गङ्ढा बन जाता है, उसी में जीभ जाती है। मन भी जहां-जहां अभाव है, वहीं जाता है।

महल जिसके पास है, उसको महल नहीं दिखाई पड़ता। उसकी जीभ महल पर नहीं जाती। उसके लिए कहीं कोई और चीज है, जो नहीं है। उसकी जीभ वहां चली जाती है।

अगर कृष्ण कहते हैं कि अज्ञानी ऐसा भी कहते हों कि नहीं, हमें मिला नहीं, हम कैसे मान लें! हो सकता है, अर्जुन मान ले; सब सुख उसने जाने हैं। आप शायद न मानें; बहुत सुख नहीं जाने हैं। क्या पता हमें, जो सुख हमें मिले नहीं, वे हैं या नहीं?

तो कृष्ण दूसरा सूत्र उनके लिए कहते हैं, जो मान न पाएं। जिन्होंने सुख न देखे हों, उनके लिए वे कहते हैं कि अगर सुख हों भी बातचीत के लिए मान लें कि सुख है भी--तो भी सुख शुरू होता और समाप्त हो जाता है।

और ध्यान रहे, जो सुख शुरू होता है और समाप्त हो जाता है, वह अगर हो भी, तो परिणाम में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं छोड़ जाएगा। क्योंकि सुख के बाद दुख की छाया हो जाएगी। ऐसे ही जैसे कभी रास्ते से गुजर रहे हों, अंधेरी रात हो, और जोर से कोई कार आपकी आंखों में प्रकाश डालती हुई गुजर जाए। पीछे और घनघोर अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ दिखाई भी पड़ता था, अब वह भी दिखाई नहीं पड़ता।

सुख मिले भी, तो समाप्त होता है क्षण में। यह भी कृष्ण उनके लिए कह रहे हैं, जो नहीं जानते। जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, एक क्षण को भी नहीं मिलता। लेकिन अज्ञानी के लिए इतना छोड़ते हैं कि शायद क्षणभर को मिले भी, तो शुरू हुआ कि समाप्त हुआ। इधर शुरू नहीं हुआ कि उधर समाप्त होना शुरू हो जाता है। इधर जन्मा नहीं कि उधर मरा। इधर लहर बनी नहीं कि बिखरी। इधर किरण उतरी नहीं कि खोई। आता भी नहीं है हाथ में कि जाने की तैयारी करके आता है। ऐसा सुख मिल भी जाए यदि, तो पीछे सिवाय दुख के घाव के कुछ भी नहीं छोड़ जाता है। ऐसा भी जो जान ले, वह भी विषयों, वृत्तियों के तालमेल को निर्मित नहीं होने देता। अनासक्त, वीतराग, स्वयं में ठहरा हुआ हो जाता है। और चेतना जहां ठहर जाती है अर्जुन, कृष्ण कहते हैं, वहीं परम सत्ता में प्रवेश कर जाती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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