सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 39


अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत ब्रजेत किम्।। ५४।।


इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा:
हे केशव, समाधि में स्थित स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष का क्या लक्षण है और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है,
कैसे बैठता है, कैसे चलता है?






अर्जुन पहली बार, अब तक अर्जुन का जो वर्तुल- व्यक्तित्व था, उससे उठकर प्रश्न पूछ रहा है। पहली बार। अब तक जो भी उसने पूछा था, वह पुराना आदमी पूछ रहा था, वह पुराना अर्जुन पूछ रहा था। पहली बार उसके प्रश्न ने कृष्ण को छूने की कोशिश की है--पहली बार। इस वचन से पहली बार वह कृष्ण के निकट आ रहा है। पहली बार अर्जुन अर्जुन की तरह नहीं पूछ रहा है, पहली बार अर्जुन कृष्ण के निकट होकर पूछ रहा है। पहली बार कृष्ण अर्जुन के भीतर प्रविष्ट हुए प्रतीत होते हैं।

यह सवाल गहरा है। वह पूछता है, स्थितप्रज्ञ किसे कहते हैं? किसे कहते हैं, जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई? वह कौन है? वह कौन है जिसके ज्ञान की ज्योति थिर हो गई? वह कौन है जिसकी चेतना का दीया अकंप है? वह कौन है जिसे समाधिस्थ कहते हैं? उसकी भाषा क्या है? वह उठता कैसे है? वह चलता कैसे है? वह बोलता कैसे है? उसका होना क्या है? उसका व्यवहार क्या है? उसे हम कैसे पहचानें?

दो बातें वह पूछ रहा है। एक तो वह यह पूछ रहा है, प्रज्ञा का स्थिर हो जाना, स्थित हो जाना, ठहर जाना क्या है? लेकिन वह घटना तो बहुत आंतरिक है। वह घटना तो शायद स्वयं पर ही घटेगी, तभी पता चलेगा। वह शायद कृष्ण भी नहीं बता पाएंगे कि क्या है। इसलिए अर्जुन तत्काल--और इसमें अर्जुन बहुत ही बुद्धिमानी का सबूत देता है। एक बहुत इंटेलिजेंट, बहुत ही विचार का, विवेक का सबूत देता है। प्रश्न के पहले हिस्से में पूछता है कि प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है कृष्ण? लेकिन जैसे किसी अनजान मार्ग से उसको भी एहसास होता है कि प्रश्न शायद अति-प्रश्न है, शायद प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि घटना इतनी आंतरिक है कि शायद बाहर से न बताई जा सके।

इसलिए ठीक प्रश्न के दूसरे हिस्से में वह यह पूछता है कि बताएं यह भी कि बोलता कैसे है वह, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई? जो समाधि को उपलब्ध हुआ, समाधिस्थ है, वह बोलता कैसे? डोलता कैसे? चलता कैसे? उठता कैसे? उसका व्यवहार क्या है? इस दूसरे प्रश्न में वह यह पूछता है कि बाहर से भी अगर हम जानना चाहें, तो वह कैसा है? भीतर से जानना चाहें, तो क्या है? वह घटना क्या है? वह हैपनिंग क्या है? जिसको समाधिस्थ कहते हैं, वह घटना क्या है? यह भीतर से। लेकिन अगर यह न भी हो सके, तो जब किसी व्यक्ति में वैसी घटना घट जाती है, तो उसके बाहर क्या-क्या फलित होता है? उस घटना के चारों तरफ जो परिणाम होते हैं, वे क्या हैं?

यह प्रश्न पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण को आनंदित किया होगा। यह पहला प्रश्न है, जिसने कृष्ण के हृदय को पुलकित कर दिया होगा। अब तक के जो भी प्रश्न थे, अत्यंत रोगग्रस्त चित्त से उठे प्रश्न थे। अब तक जो प्रश्न थे, वे अर्जुन के जस्टीफिकेशन के लिए थे। वह जो चाहता था, उसके ही समर्थन के लिए थे। अब तक जो प्रश्न थे, उनमें अर्जुन ने चाहा था कि कृष्ण, वह जैसा है, वैसे ही अर्जुन के लिए कोई कंसोलेशन, कोई सांत्वना बन जाएं।

अब यह पहला प्रश्न है, जिससे अर्जुन उस मोह को छोड़ता है कि मैं जैसा हूं, वैसे के लिए सांत्वना हो। यह पहला प्रश्न है जिससे वह पूछता है कि चलो, अब मैं उसको ही जानूं, जैसे आदमी के लिए तुम कहते हो, जैसे आदमी को तुम चाहते हो। जिस मनुष्य के आस-पास तुम्हारे इशारे हैं, अब मैं उसको ही जानने के लिए आतुर हूं। छोडूं उसे, जो अब तक मैंने पकड़ रखा था।

इस प्रश्न से अर्जुन की वास्तविक जिज्ञासा शुरू होती है। अब तक अर्जुन जिज्ञासा नहीं कर रहा था। अब तक अर्जुन कृष्ण को ऐसी जगह नहीं रख रहा था, जहां से उनसे उसे कुछ सीखना, जानना है। अब तक अर्जुन कृष्ण का उपयोग एक जस्टीफिकेशन, एक रेशनलाइजेशन, एक युक्तियुक्त हो सके उसका अपना ही खयाल, उसके लिए कर रहा था।

इसे समझ लेना उचित है, तो आगे-आगे समझ और स्पष्ट हो सकेगी।

हम अक्सर जब प्रश्न पूछते हैं, तो जरूरी नहीं कि वह प्रश्न जिज्ञासा से आता हो। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न जिज्ञासा से नहीं आता। सौ में निन्यानबे मौके पर प्रश्न सिर्फ किसी कनफर्मेशन के लिए, किसी दूसरे के प्रमाण को अपने साथ जोड़ लेने के लिए आता है।

बुद्ध एक दिन एक गांव में प्रविष्ट हुए। एक आदमी ने पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा, नहीं, कहीं नहीं है, कभी नहीं था, कभी नहीं होगा। स्वभावतः, वह आदमी कंप गया। कंप गया। उसने कहा, क्या कहते हैं आप? ईश्वर नहीं है? बुद्ध ने कहा, बिलकुल नहीं है। सब जगह खोज डाला; मैं कहता हूं, नहीं है।

फिर दोपहर एक आदमी उस गांव में आया और उसने पूछा कि जहां तक मैं सोचता हूं, ईश्वर नहीं है। आपका क्या खयाल है? बुद्ध ने कहा, ईश्वर नहीं है? ईश्वर ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उस आदमी ने कहा, क्या कहते हैं! मैं तो यह सोचकर आया कि बुद्ध नास्तिक हैं।

सांझ को एक और आदमी आया और उस आदमी ने बुद्ध से कहा कि मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्वर है या नहीं। आप क्या कहते हैं? बुद्ध ने कहा, मैं भी कुछ न कहूंगा। मैं भी चुप रहूंगा। उसने कहा कि नहीं-नहीं, कुछ तो कहें! बुद्ध ने कहा कि मैं कुछ न कहूंगा।

इन तीन को तो छोड़ दें, कठिनाई में पड़ गया बुद्ध का भिक्षु आनंद। वह तीनों समय साथ था, सुबह भी, दोपहर भी, सांझ भी। उसका कष्ट हम समझ सकते हैं। सोचा न था कभी कि बुद्ध और ऐसे इनकंसिस्टेंट, इतने असंगत कि सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। लेकिन कंसिस्टेंट सिर्फ बुद्धुओं के सिवाय और कोई भी नहीं हो सकते। सिर्फ बुद्धिहीन संगत हो सकते हैं। बुद्धिमान के उत्तर असंगत होंगे ही। क्योंकि हर उत्तर किसी को दिया गया है; कोई उत्तर सभी को नहीं दिया गया है।

आनंद ने बुद्ध से कहा कि मुझे परेशानी में डाल दिया। रात सोते समय मुझे नींद न आएगी, पहले मेरा उत्तर दो! सही क्या है? इन तीनों में कौन-सी बात ठीक है? या कि चौथी बात ठीक है?
बुद्ध ने कहा, तुझे क्या मतलब! जिनसे मैंने बात की थी, उनसे मतलब पूरा हो गया। तेरा न सवाल था, न तेरे लिए जवाब है। तूने पूछा नहीं था, तूने सुना क्यों? उसने कहा, और मजा करते हैं आप! मेरे पास कान हैं, मैं बहरा नहीं हूं। मैं पास ही मौजूद था। सुनाई मुझे पड़ गया। तो बुद्ध ने कहा, जो दूसरे के लिए कहा गया हो, उसे सुनना उचित नहीं है। तुझे क्या जरूरत थी? पर उसने कहा, जरूरत थी या नहीं, मुझे सुनाई पड़ गया और मैं बेचैन हूं। तीन उत्तर एक दिन में! आप कहना क्या चाहते हैं?

बुद्ध ने कहा, मैंने तीन उत्तर नहीं दिए। मैंने तो उत्तर एक ही दिया है कि मैं तुम्हें कन्फर्म न करूंगा। मैं तुम्हारी हां में हां न भरूंगा। मैंने तो उत्तर एक ही दिया है दिनभर। सुबह जो आदमी आया था, वह चाहता था कि मैं कह दूं कि हां, ईश्वर है, ताकि जिस ईश्वर को वह मानता है, उसको मेरा भी सहारा मिल जाए। ताकि वह आश्वस्त हो जाए कि चलो, मैं ठीक हूं, बुद्ध भी यही कहते हैं। वह सिर्फ मेरा उपयोग करना चाहता था। वह मुझसे सीखने नहीं आया था। वह मुझसे जानने नहीं आया था। वह जानता ही था, वह सीखा ही हुआ था। वह सिर्फ मेरा और साथ चाहता था, वह सिर्फ एक सर्टिफिकेट और चाहता था, एक प्रमाणपत्र और चाहता था कि जो मैं कहता हूं, वही बुद्ध भी कहते हैं! मैं ठीक हूं, क्योंकि बुद्ध भी यही कहते हैं! वह सिर्फ अपने अहंकार के लिए एक युक्ति और खोज रहा था। वह बुद्ध का भी अपने अहंकार के लिए शोषण कर रहा था।

दोपहर जो आदमी आया था, वह नास्तिक था। वह भी आश्वस्त था कि उसे पक्का पता है। उसकी कोई जिज्ञासा न थी। जिन्हें पक्का पता है, उनकी कोई जिज्ञासा नहीं होती। जिन्हें पक्का ही पता है, उन्हें जिज्ञासा कैसे हो सकती है? और मजा यह है कि जिन्हें पक्का पता है, वे भी जिज्ञासा करते हैं। तब उनका पक्का पता बहुत कच्चे पते पर खड़ा है। पर वह कच्चा पता बहुत नीचे है। पक्का ऊपर है, कच्चा नीचे है। इसलिए वह कच्चा उनको धक्के देता रहता है कि और पक्का कर लो, और पक्का कर लो। पक्का नहीं है, पता कुछ भी नहीं है, लेकिन भ्रम है कि पता है।

अर्जुन अभी ऐसे बोलता रहा, इस प्रश्न के पहले तक, जैसे उसे पता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है! चाहता था इतना कि कृष्ण और हामी भर दें, गवाह बन जाएं, तो कल वह जगत को कह सके कि मैं ही नहीं भागा था, कृष्ण ने भी कहा था। मैंने ही युद्ध नहीं छोड़ा था, कृष्ण से पूछो! रिस्पांसिबिलिटी बांटना चाहता था, दायित्व बांटना चाहता था।

ध्यान रहे, जो दायित्व बांटना चाहता है, उसके भीतर कंपन है। पक्का उसको भी नहीं है, इसीलिए तो दूसरे का सहारा चाहता है। लेकिन यह बताना भी नहीं चाहता कि मुझे पता नहीं है। यह अहंकार भी नहीं छोड़ना चाहता कि मुझे पता नहीं है।

अर्जुन पूरे समय ऐसे बोल रहा है कि जैसे उसे भलीभांति पता है। धर्म क्या है, अधर्म क्या है! श्रेयस क्या है, अश्रेयस क्या है! जगत का किससे लाभ होगा, किससे नहीं होगा! मरेगा कोई, नहीं मरेगा! सब उसे पता है। पता बिलकुल नहीं है; लेकिन अहंकार कहता है, पता है। इसी अहंकार में वह एक टेक कृष्ण की भी लगवा लेना चाहता था। तुम भी बन जाओ उस लंगड़े की बैसाखी, यही वह चाहता था।

कृष्ण जैसे लोग किसी की बैसाखी नहीं बनते। क्योंकि किसी लंगड़े की बैसाखी बनना, उसको लंगड़ा बनाए रखने के लिए व्यवस्था है। कृष्ण जैसे लोग तो सब बैसाखियां छीन लेते हैं। वे लंगड़े को पैर देना चाहते हैं, बैसाखी नहीं देना चाहते। इसलिए कृष्ण ने अभी इस बीच उसकी सब बैसाखियां छीन लीं, जो उसके पास थीं, वे भी।

अब वह पहली दफा, पहली बार कृष्ण से जिज्ञासा कर रहा है, जिसमें अपने लिए समर्थन नहीं मांग रहा है। अब वह उन्हीं से पूछ रहा है कि समाधिस्थ कौन है कृष्ण? किसे हम कहते हैं कि उसकी प्रज्ञा ठहर गई? और जब किसी की प्रज्ञा ठहर जाती है, तो उसका आचरण क्या है? और जब किसी के अंतस में ज्योति ठहर जाती है, तो उसके बाहर के आचरण पर क्या परिणाम होते हैं? मुझे उस संबंध में बताएं। अब वह पहली बार हंबल है, पहली बार विनीत है।

और जहां विनय है, वहीं जिज्ञासा है। और जहां विनय है, वहां ज्ञान का द्वार खुलता है। जहां अपने अज्ञान का बोध है, वहीं से मनुष्य ज्ञान की तरफ यात्रा शुरू करता है। इस वचन में कृष्ण ज्ञानी और अर्जुन अज्ञानी, ऐसी अर्जुन की प्रतीति पहली बार स्पष्ट है। इसके पहले अर्जुन भी ज्ञानी है। कृष्ण भी होंगे, नंबर दो के। नंबर एक वह खुद था अब तक। बड़ा कठिन है, दूसरे आदमी को नंबर एक रखना बड़ा कठिन है।

मैंने सुना है, गांधी गोलमेज-कांफ्रेंस के लिए गए लंदन। तो उनका एक भक्त बर्नार्ड शा को मिलने गया। और बर्नार्ड शा को कहा उस भक्त ने कि गांधी जी को आप महात्मा मानते हैं या नहीं?
भक्तों को बड़ी चिंता होती है कि उनके महात्मा को कोई दूसरा महात्मा मानता है कि नहीं! खुद ही संदेह होता है भीतर, इसलिए दूसरे से भी पक्की गारंटी करवाना चाहते हैं। अब बर्नार्ड शा से पूछने जाने की क्या जरूरत है भक्त को? इसको खुद ही शक रहा होगा। सोचा, चलो, बर्नार्ड शा से पूछ लें। और सोचा होगा यह भी कि शिष्टाचारवश भी कम से कम बर्नार्ड शा कुछ ऐसा तो कह नहीं सकता कि नहीं हैं।

लेकिन बर्नार्ड शा जैसे लोग शिष्टाचार नहीं पालते, सत्याचार पालते हैं। और सत्याचार बड़ी और बात है। और शिष्टाचार तो सब दिखावा है। बर्नार्ड शा ने कहा, महात्मा हैं तुम्हारे गांधी, बिलकुल हैं, लेकिन नंबर दो के हैं। भक्त ने कहा, नंबर दो के? नंबर एक का महात्मा कौन है? बर्नार्ड शा ने कहा, मैं! बर्नार्ड शा ने कहा, मैं झूठ न बोल सकूंगा। मैं अपने से ऊपर किसी को रख ही नहीं सकता हूं। ऐसी मेरी स्पष्ट प्रतीति है।

भक्त तो बहुत घबड़ा गया कि कैसा अहंकारी आदमी है! लेकिन बर्नार्ड शा बड़ा ईमानदार आदमी है। नंबर एक कोई भी अपने को रखता है। वह जो कहता है, चरणों की धूल हूं, वह भी नंबर एक ही रखता है अपने को। यह चरणों की धूल वगैरह सब शिष्टाचार है।
बर्नार्ड शा ने कहा, सचाई यह है कि ज्यादा से ज्यादा नंबर दो रख सकता हूं तुम्हारे महात्मा को। नंबर एक तो तय ही है। उसकी कोई बात ही मत करो। उसमें कोई शक-शुबहा नहीं है मुझे। मैं नंबर एक हूं।

व्यंग्य कर रहा था गहरा पूरी मनुष्य जाति पर। और कभी-कभी ऐसा होता है कि बहुत बुद्धिमान जो नहीं कह पाते, वह व्यंग्य करने वाले कह जाते हैं।

अरबी में एक कहावत है कि परमात्मा जब भी किसी आदमी को बनाता है, तो दुनिया में धक्का देने के पहले उसके कान में एक मजाक कर देता है। उससे कह देता है, तुझसे अच्छा आदमी कभी भी नहीं बनाया। बस उस मजाक में सभी आदमी जीते हैं। जिंदगीभर कान में वह गूंजती रहती है परमात्मा की बात कि मुझसे अच्छा कोई भी नहीं! मगर वह दिल में ही रखनी पड़ती है, क्योंकि बाकी को भी यही कह दिया है उसने। उसको अगर जोर से कहिए, तो झगड़े के सिवाय कुछ हो नहीं सकता। इसलिए मन में अपने-अपने हर आदमी समझता है। दूसरे से शिष्टाचार की बातें करता है, मन में सत्य को जानता है, कि सत्य मुझे पता है।

अभी जो भी प्रश्न पूछे जा रहे थे कृष्ण से, कृष्ण भी समझते हैं कि उनमें अर्जुन अभी तक नंबर एक है। इस पूरे बीच उसके नंबर एक को गिराने की उन्होंने सब तरफ से कोशिश की है। और उसको चाहा है कि वह समझे कि स्थिति क्या है! व्यर्थ ही अपने को नंबर एक न माने। क्योंकि नंबर एक को केवल वही उपलब्ध होता है, जिसको अपने नंबर एक होने का कोई पता नहीं रह जाता। वह हो जाता है। जिसको पता रहता है, वह कभी नहीं हो पाता। पहली दफे अर्जुन विनम्र हुआ है। अब उसकी हंबल इंक्वायरी शुरू होती है। अब वह पूछता है कि बताओ कृष्ण! और इस पूछने में बड़ी विनम्रता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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