बुधवार, 28 सितंबर 2022

वह केवल मेरे मजे ले रहा था...

इस बात में कोई दो राय नहीं कि टीनएज में हम अक्सर प्यार में पड़ जाते हैं। किसी के संग दो-चार मुलाकातों में ही हम उसे अपना जीवनसाथी बनाने का सपना देखने लगते हैं। लेकिन कुछ चीजें ऐसी भी होती हैं, जिन पर हमारा कभी ध्‍यान नहीं जाता। यह चीजें न केवल हमें एक वक्त के बाद समझ आती हैं बल्कि कभी-कभार हमारे पास पछतावे के अलावा कुछ नहीं रहता।

'वह केवल मेरे मजे ले रहा था... काश! 30 की होने से पहले मुझे पता चल पाती ये बातें, तो मेरा दिल नहीं टूटता।'

जीवन में अगर हमें सब कुछ पहले ही पता चल जाता, तो शायद कभी किसी का दिल नहीं टूटता। ऐसा इसलिए क्योंकि कुछ चीजें हम उम्र के साथ-साथ अपने अनुभवों से ही सीखते हैं। हमारे अनुभव न केवल हमें एक सफल व्‍यक्ति के रूप में विकसित होने में मदद करते हैं बल्कि इनसे हमें जिंदगी में आगे बढ़ने के तौर-तरीके भी पता चलते हैं। मेरा यह अनुभव प्‍यार से संबंधित था। मैं एक ऐसे शख्स के जाल में फंस गई थी, जिसने मुझे बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मैं उससे बहुत ज्यादा प्यार करती थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि वह मेरे साथ इतना बुरा भी कर सकता है।

मैं हमेशा से ही उसकी हरकतों से अंजान थी। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं बुरी तरह उसके प्‍यार में दीवानी थी। लेकिन आज जब मैं मैच्‍योर हो गई हूं, तब जाकर मुझे एहसास होता है कि मैंने बेकार में ही उस पर अपना वक्‍त जाया किया। हालांकि, इसमें मेरी गलती भी नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि 30 साल से कम उम्र की लड़कियाें के साथ अक्‍सर ऐसा हो जाता है। मेरी कहानी से शायद उन लड़कियाें को थोड़ी मदद मिल सकती है।

वह मुझे बहुत प्यार करता था। जब भी मैं रोती थी, मुझ पर बहुत लाड लड़ता था। यह सब कुछ मेरे लिए एक ब्यूटीफुल ड्रीम की तरह था। मैंने बस देखा कि मैं उसके प्‍यार में बहुत बदल गई थी। मैं पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी। इस दौरान जो एक चीज मैं नहीं देख पाई, वो यह कि वह बिल्कुल भी एक व्यावहारिक व्‍यक्ति नहीं था।

दरअसल, जब आप किसी से प्‍यार करते हैं, तो आप चाहते हैं कि वह हमेशा आपके साथ रहे। लेकिन कहते हैं ना कि प्‍यार अंधा होता है। प्‍यार में सोचने समझने की शक्ति कमजोर हो जाती है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

वह हर डेट पर मुझे सरप्राइज देता था। मेरी पसंद का शो देखता था, मेरी पसंद उसके लिए सबसे पहले थी। वह मुझसे मिलने के लिए ऑफिस के बाद अपने घर से 20 मिनट दूर बस से उतरता था। मुझे लगता था कि यही मेरा ड्रीम मैन है।

जब अपनी जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल में थी, तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी शेक्सपियर वाली लव स्‍टोरीज सच हो रही हैं। लेकिन मैं नहीं जानती थी कि यह सब केवल दिखावा है, जो वक्त के साथ बदल जाएगा। सच कहूं तो वह केवल मेरे मजे ले रहा था।

मुझे आज भी अच्छे से याद है कि जब मैं उसे डेट कर रही थी, तो मैं बहुत ज्यादा सिंपल कपड़े पहनती थी। हालांकि, वह बहुत पैसे वाला था। उसके पास न केवल अपना घर-मकान था बल्कि उसका समाज में रूतबा भी अच्छा खासा था। ऐसे में जिस दिन मैंने उसे बताया कि हम किराए के फ्लैट में रहते हैं, वह आदमी मुझे दो दिन में ही छोड़कर भाग गया।

उस दिन मुझे समझ आया कि ऐसे लोग भले पांडा की तरह क्‍यूट दिख सकते हैं। लेकिन यह आपके जीवन में धीमे जहर की तरह होते हैं। वह हर समय आपके साथ प्‍यारा व्‍यवहार करते हैं। उनके अंदर आपको मैच्‍योरिटी जरा भी नहीं दिखती। ऐसे लोगों से बचना चाहिए। इन लोगों के बारे में हम तब तक नहीं जान पाते, जब तक की हम 30 के न हो जाएं।

कोई आदमी आपसे प्यार कर सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह जीवनभर आपको खुश रख सके। सच्‍चे प्‍यार के अलावा भी जीवन में बहुत कुछ होता है। एक बार जब आप 30 के हो जाते हैं और थोड़ी मैच्‍योरिटी आ जाती है, तब आपको पता चलता है कि आप कितने बेवकूफ थे।

अगर वह कहे कि उसके जीवन का मकसद आपको खुश रखना है और आपकी बाहों में मरना है, तो उसके प्यार में पागल न हो जाएं। उससे उसकी महत्‍वकांक्षाओं के बारे में भी बात करें। अगर वह इन मुद्दों पर बात नहीं करता है, तो समझ लें कि वास्‍तव में आपने जीवन में बहुत गलत आदमी को चुन लिया है।

Authored by Tina 

| Navbharat Times |




मंगलवार, 27 सितंबर 2022

द्वारका

 परमात्मा श्रीकृष्ण आनन्द स्वरूप हैं। निराकार आनन्द ही नराकार श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुआ है। श्रीकृष्ण की सारी लीला आनन्दमय है। श्रीकृष्ण की कथा जब कभी सुनें, तब आनन्द आता है। प्रभु का दर्शन जब भी करो, तब नया ही आनन्द मिलता है। श्रीकृष्ण का स्मरण जब करो, तब नया ही आनन्द मिलता है।

कंस जब तक जीवित था, तब तक व्यासजी ने भागवत में उसकी रानियों का नाम नहीं दिया था। उसके मरने के बाद उनका नाम दिया गया है।  कंस की दो रानियों का नाम है अस्ति और प्राप्ति । अस्ति और प्राप्ति का पति कंस है। अस्ति अर्थात् बैंक में इतना रुपया जमा है। प्राप्ति का अर्थ है कि इस वर्ष इतने रुपये आने वाले हैं। यह सुख मुझे मिला है और यह सुख मुझे भोगना है। सभी जानते हैं कि आत्मा इस शरीर से भिन्न है। इसलिए आत्मा का आनन्द भी भिन्न होना चाहिए। फिर भी मनुष्य का अधिकाँश जीवन शरीर और इन्द्रिय का सुख भोगने में ही बीतता है। सुख की इच्छा तो सभी को होती है, किन्तु मनुष्य सच्चे सुख का विचार नहीं करता। यही कंस का स्वरूप है। कंस के मरने के बाद उसकी दोनों रानियाँ अपने पीहर चली गईं। उन्होंने अपने पिता जरासन्ध को मथुरा की सारी घटनायें बता दीं। जरासन्ध ने श्रीकृष्ण को अपना बैरी मान लिया। जरासन्ध ने तेईस अक्षौहिणी सेना एकत्र कर मथुरा पर चढ़ाई कर दी। प्रभु ने बलरामजी से कहा कि बड़े भाई, आप जरासन्ध को मारिए मत। श्रीकृष्ण के कहने से बलरामजी ने जरासन्ध को नहीं मारा। फिर भी उसकी सारी सेना का विनाशकर डाला। जरासन्ध घर गया और कई अक्षौहिणी सेना लेकर फिर युद्ध करने आया। प्रभु ने उसे पराजित किया और उसकी सेना का विनाश किया। इस प्रकार जरासन्ध सत्रह बार पराजित हुआ। इस उत्तरार्ध में जरासन्ध के साथ किए गए युद्ध का वर्णन अच्छी तरह किया गया है। उनचासवें अध्याय में पूर्वार्ध पूरा हुआ है।

तुम्हारे जीवन में उनचास वर्ष पूरा होने पर जरासन्ध लड़ने आयेगा। भोजन न पचना, आँख से अच्छी तरह न दिखाई देना, थकावट लगना ही जरासन्ध की सेना है। जिस समय लोग सौ वर्ष जीवित रहते थे उस समय पचास वर्ष तक पूर्वार्ध और उसके बाद का समय उत्तरार्ध था। अब लोग सौ वर्ष जीवित नहीं रहते। पैंतीस-चालीस वर्ष की उम्र से उत्तरार्ध शुरू हो जाता है। उत्तरार्ध में बहुत सावधान रहना चाहिए। सत्रह बार जरासन्ध यांनी बीमारी आती है। उससे रक्षा होने पर अठारहवीं बार जरासन्ध काल यवन को लेकर लड़ाई करने आता है। उस समय शरीर छोड़ना ही पड़ता है। अन्त में श्रीकृष्ण मथुरा छोड़कर चले जाते हैं।

भागवत की कथा अनेक तरह से कही जाती है। जरासन्ध काल यवन से मैत्री करता है और उससे कहता है कि तुम मथुरा जाओ। फिर बाद में मैं मथुरा आऊँगा। काल-यवन ने मथुरा पर चढ़ाई कर दी। उसके बाद जरासन्ध भी आने वाला था। प्रभु ने बलरामजी से कहा कि अब क्या किया जाएगा? बलरामजी ने कहा कि जरासन्ध को सत्रह बार हराया, फिर भी वह लड़ने आया है। ये लोग मथुरा में शान्ति से नहीं रहने देंगे। मुझे तो आनर्त (गुजरात) देश में जाकर रहना है। उसी समय रेवत की पुत्री के साथ बलामजी का विवाह हो गया। बलरामजी को इस विवाह में आनर्त-ओखा मण्डल का राज्य दहेज में मिला था। बलरामजी ने वहाँ रहने की इच्छा प्रकट की और मथुरा छोड़ना चाहा। प्रभु ने कहा कि आप बड़े भाई हैं। आपकी इच्छा यदि वहाँ रहने की है तो मैं भी वहीं रहने आऊँगा। उन्होंने विश्वकर्मा को बुलाया और समुद्र के मध्य एक नगरी बनाने की आज्ञा उन्हें दी। देवताओं ने अपनी सारी सम्पत्ति श्रीकृष्ण को अर्पण कर दी । समुद्र के मध्य सुवर्ण नगरी की रचना की गई।

 उसमें बड़े-बड़े बाड़े (घेरे) बनाए गए थे। यादवों को उसमें से बाहर निकलने के लिए जल्दी रास्ता नहीं मिला। वे बार-बार पूछने लगे। 'द्वार कहाँ है? द्वार कहाँ है?' इसलिए उसका नाम द्वारका पड़ा।  इस प्रकार श्रीकृष्ण ने मथुरा नगरी छोड़ दी। जरासन्ध जब अन्तिम बार युद्ध करने आया, तब श्रीकृष्ण द्वारका पहुँच चुके थे। द्वारका ब्रह्मविद्यापुरी है। जिस प्रकार समुद्र का अन्त नहीं है, वैसे ही ब्रह्म का अन्त नहीं है। इसीलिए परमात्मा को अनमा कहते हैं। समुद्र में स्थित द्वारका ब्रह्मविद्या स्वरूप है। द्वार का अर्थ दरवाजा और 'का' अर्थ ब्रह्म परमात्मा है। 

 इसके प्रत्येक द्वार में भगवान् विराजमान हैं। हम सब लोग यदि द्वारका जाकर रहने लगें, तो वहाँ कितनी भीड़ होगी? तीर्थ में रहना अच्छा है; किन्तु प्रभु ने तुम्हें रहने के लिए जो घर दिया है, उसे तीर्थ तुल्य पवित्र बनाओ तो अधिक अच्छा है। अपना घर ऐसा पवित्र रखो कि वहाँ कोई आए तो उसका मन शुद्ध हो और उसे भगवान् की भक्ति करने की भावना पैदा हो अपने घर को तीर्थ बनाने की कोशिश करो, जिसके प्रत्येक स्थान पर भगवान् विराजमान हों। शरीर रूपी घर में इन्द्रिय रूपी  दरवाजे हैं भगवान् को अपने शरीर में रखो। अपनी आँख में श्रीकृष्ण को रखो, कान में श्रीकृष्ण को रखो। जिस इन्द्रिय से भक्ति नहीं होती उससे जाने अनजाने पाप होता है। जो अपनी सभी इन्द्रियों से भक्ति करता है उसकी बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश होता है। पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान समय बीतते भूल जाता है; किन्तु अन्दर से प्राप्त किया गया ज्ञान स्थायी होता है। इसलिए अपनी एक-एक इन्द्रिय से भक्ति करो। जो ब्रह्मरूप हो जाता है, उसे काल-यवन भी नहीं मार सकता।

यादवों को द्वारका में छोड़कर श्रीकृष्ण ने काल-यवन से युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया । ब्रह्मा ने काल-यवन को वरदान दिया था कि तुमको कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मार सकेगा जिसने यदुकुल में जन्म लिया हो। प्रभुजी ने ब्रह्माजी का वरदान सफल किया। युद्ध में काल-यवन की जीत हुई और श्रीकृष्ण की हार हुई। परमात्मा ने लीला की। वे रण छोड़कर भागे। काल-यवन ने श्रीकृष्ण का पीछा किया। उसने प्रभु से कहा, 

"लोग तुमको मानते हैं, लेकिन मुझे विश्वास है कि तुम डरपोक हो। । तुम रण छोड़कर जा रहे हो।" 

काल यवन ने 'रणछोड़, रणछोड़' कहकर पुकारा। इसलिए उनका नाम रणछोड़राय पड़ गया। श्रीकृष्ण ने भागते-भागते गिरनार पर्वत में स्थित मुचकुंद ऋषि की गुफा में प्रवेश किया। उस समय राजर्षि मुचकुंद सो गये थे। श्रीकृष्ण ने उनके शरीर पर अपना पीताम्बर उढ़ा दिया। काल यवन इसके बाद वहाँ पहुँचा। मुचकुंद ने राजऋर्षिको श्रीकृष्ण मानकर जोर से लात मारी। मुचकुंद ऋषि ने अपनी आँखें खोलीं। मुचकुंद ऋषि को यह वरदान था कि जो तुम्हारी निद्रा भंग करे उस पर यदि तुम्हारी दृष्टि पड़े तो वह जलकर भस्म हो जाए। फलस्वरूप मुचकुंद ऋषि की नजर पड़ते ही काल-यवन जलकर भस्म हो गया। इसके बाद मुचकुंद ऋषि को द्वारकानाथ का दर्शन हुआ। मुचकुंद महाराज ने परमात्मा की स्तुति की।

मुचकुंद महाराज ने अपनी स्तुति में वर्णन करते हुए कहा, 

"मनुष्य की दशा सर्प के मुँह में स्थित मेढ़क जैसी है। सर्प के मुँह में जो मेढ़क होता है उसका आधा शरीर सर्प के मुख में होता है। वह एक-दो मिनट में ही काल का कौर बनने वाला होता है। ऐसे समय यदि मेढ़क के ऊपर कोई मक्खी फड़कती हुई आई हो, तो वह उसे खाने का प्रयत्न करता है।"

 "पचास वर्ष की उम्र पूरी होते ही मनुष्य का शरीर काल के मुख में पड़ जाता है, फिर भी उसे भक्ति की ओर प्रेरणा नहीं होती और वह विषयों में लगा लिपटा रहता है। यह जीव कितना गाफिल है? यदि किसी को कहीं बाहर जाना हो तो वह दो-तीन दिन पहले तैयारी करता है कुछ लोग तो दो-चार महीने पहले से तैयारी करते हैं। आश्चर्य है कि प्रभु के घर जाने का निश्चय होने पर भी कोई उसकी तैयारी नहीं करता। यह कथा सुनने के बाद आप लोग हर रोज थोड़ी तैयारी करते रहें। इस में घबराने की आवश्यकता नहीं। अभी बहुत देर है । फिर भी थोड़ी-थोड़ी तैयारी करने की आवश्यकता है। देश के बदलने के साथ-साथ उसका सिक्का भी बदलता रहता है। इसलिए यहाँ का सिक्का वहाँ नहीं चल सकता मनुष्य अपने जीवन काल में मरने की तैयारी नहीं करता। इसीलिए उसे अंत काल में बहुत पछताना पड़ता है। मुचकुन्द महाराज ने कहा है, 

"मुझे गर्गाचार्य का सत्संग प्राप्त हुआ है। आज मैं आपका दर्शन कर कृतार्थ हो गया हूँ। आप मुझे अपनी भक्ति दीजिए।"

 प्रभु ने कहा कि जिसने जवानी में विलासी जीवन गुजारा है उसे शेष जीवन में अनन्य भक्ति नहीं मिलती, अपितु उसका सारा जीवन विलास में बरबाद हो जाता है। यदि वह वृद्धावस्था में भक्ति करे तो उसका दूसरा जन्म सुधरता है। हाँ, उसे एक ध्यान होना होता है। बद्री केदार में जाकर वहाँ एक ध्यान करो वहीं शरीर छोड़ दो।" 

मुचकन्द महाराज ने बद्री केदार जाकर अपना शरीर छोड़ा। वे कलियुग में नरसिंह मेहता के रूप में पैदा हुए। प्रभुने मुचकुन्द ऋषि को सद्गति दी।

इसके बाद श्रीकृष्ण मथुरा पहुँचे। उनसे जरासंध अठारहवीं बार युद्ध करने आया। उसने ब्राह्मणों को यह कहकर धमकाया कि यदि मेरी हार होगी तो मैं तुम्हारा कत्ल कर दूँगा । प्रभु ने लीला की जरासंध की जीत हुई और श्रीकृष्ण की हार हुई जरासंध प्रभु के पीछे-पीछे उन्हें मारने के लिए दौड़ा। उस समय श्रीकृष्ण प्रवर्षण पर्वत पर पहुँचे। यदि तुम्हारे पीछे भी जरासंध दौड़े तो तुम भी प्रवर्षण पर्वत पर जाओ। जहाँ ज्ञान और भक्ति की नित्य वर्षा होती है वही सात्विक भूमि प्रवर्षण पर्वत है। पचास-पचपन वर्ष हो जाने के बाद विलासी लोगों से दूर रहना। क्योंकि उनका संग मन को दुर्बल बनाता है। समाज में रहकर मनुष्य होना सरल है, किन्तु विलासी लोगों का साथ कर मन को पवित्र रखना कठिन है।

 इक्यावन, बावन, सत्तावन का अर्थ यह होता है कि अब 'वन' में जाओ। इस जीवन में बहुत सावधान रहो।  अधिक नहीं तो प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रभु का इक्कीस हजार जप करो। एक घंटे में नौ सौ साँस ली जाती है। चौबीस घंटे में २१,६०० साँस ली जाती है। प्रति साँस पर जप करने की आवश्यकता है। नियम से इक्कीस हजार जप करो। 'श्रीराम', 'श्रीकृष्ण' जैसा दो तीन अक्षरों का मन्त्र हो तो एक घण्टे में चार-पाँच हजार मन्त्र बोला जा सकता है। ऐसा एक आसन पर पाँच घण्टा बैठने पर पूरा होगा। जब पुत्र विवाहित हो गया और घर में पुत्र- वधू आ गई तो यह समझना कि अब तुम्हारा गृहस्थाश्रम पूरा हो गया वानप्रस्थाश्रम शुरू हो गया अब तुम्हें वन में जाने की आवश्यकता है। कुछ वृद्धाएँ ऐसी होती हैं जो मरते समय तक चाभी का गुच्छा अपनी बहू को नहीं देतीं और बहू को यह इच्छा होती है कि यदि सासु को कुछ हो जाए तो अच्छा। पुत्र के विवाहित हो जाने के बाद सावधान होकर रहना। घर में रहना हो तो भले रहो; किन्तु विवेकपूर्वक रहो, सादा भोजन करो और सतत भक्ति करो। ऐसा भाव रखो कि मेरा घर भगवान् के चरणों में है। मुझे अब यह घर छोड़ना है।

मन घर में रहने से नहीं बिगड़ता, किन्तु वह घर पर अधिक ममता रखने से बिगड़ता है।' सतत भक्ति करने से मरण सुधरेगा। भक्ति करने से जरासंध के त्रास से यानी जन्म और मरण के संकट से छूट सकोगे। प्रभु का नाम जप सतत करने की बहुत आवश्यकता है। बिना जप के पाप की आदत नहीं छूटती। यज्ञ करने से पुण्य बढ़ता है, किन्तु पाप नहीं छूटता। पाप करने की आदत इस जीव को जन्म-जन्मान्तर से पड़ी है। एक स्थान पर शान्ति से बैठकर जप करने पर ही पाप छूटता है। बिना जप के वासना का विनाश नहीं होता। छः महीने जप करके देखोगे और अनुभव करोगे कि मेरा मन अब पहले की अपेक्षा कुछ सुधरा है। मन्त्र जप करने से पाप कुछ कम होगा और तुम्हारी आत्मा यह कहेगी कि अब तुझे भक्ति का रंग लगा है। इस प्रकार प्रभु ने जगत् को प्रवर्षण पर्वत पर जाने का उपदेश दिया है। 


श्री डोंगरेजी महाराज 

हरिओम सिगंल 






कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...