शनिवार, 25 जून 2022

कुमार, गुरुकुल में

 दशरथ के चारों कुमार, यथा समय गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में दीक्षित हो चुके थे। गुरुकुल में उन्हें राजपुत्र होने के कारण कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं थी। उन्हें भी शेष सभी विद्यार्थियों  की भाँति ही समस्त कार्य करने पड़ते थे। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठना, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर संध्या - वंदन करना, और फिर हल्का सा जलपान लेकर कक्षा में प्रस्तुत होना। अपने सारे व्यक्तिगत कार्य उन्हें स्वयं ही करने होते थे; ऐसे कार्य जो उनकी सामर्थ्य से बाहर थे, उन्हीं में अन्य आश्रमवासियों से सहायता मिलती थी। मृगचर्म का अधोवस्त्र, अलसी के रेशों से बना हुआ उत्तरीय, कमर में मूर्वा बेल के रेशों की मेखला, कंधे पर सन का तीन लड़ी का यज्ञोपवीत, हाथ में कानों तक आता दण्ड... यही गुरुकुल में ब्रह्मचारी के रूप में उनकी वेशभूषा थी। ; मनुस्मृति के अनुसार यही क्षत्रिय बालकों के लिये गुरुकुल की वेशभूषा थी, दण्ड की ऊँचाई भी वर्ण के अनुसार निर्धारित थी। भिक्षाटन से उन्हें छूट थी; यह बाध्यता मात्र ब्राह्मण बटुकों के लिये ही थी ।


क्षत्रियों को उतना समय शस्त्र - प्रशिक्षण में देना होता था। उन्हें मात्र सांकेतिक रूप में आश्रम के भीतर ही पाँच कुटीरों में भिक्षा माँगनी होती थी। कक्षाओं में सर्वप्रथम योग और व्यायाम की कक्षा होती थी। तदुपरांत वेद और अन्य अध्ययन उसके बाद भिक्षाटन और फिर भोजन, और थोड़ा सा विश्राम आपस में अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा और युद्धाभ्यासा सायंकाल फिर थोड़ा सा जलपान ... फिर खेल और मनोरंजन.... तदुपरांत रात्रिकालीन भोजन । भोजन के बाद आश्रम के कुछ आवश्यक कार्य जैसे गौओं, अश्वों की व्यवस्था, आग जलाने के लिये लकड़ियों की व्यवस्था... अपने शस्त्रास्त्रों की देखभाल आदि करने के बाद शयन।


लाड़-प्यार में पले बालकों को कुछ दिन तो यह सारी व्यवस्था खली, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपने को उसके अनुसार ढाल लिया। यह जीवन अब उन्हें आनन्ददायी प्रतीत होने लगा था। आश्रम जीवन में यह कभी उल्लेख ही नहीं आता था कि वे महाराज दशरथ के पुत्र हैं - वे भी एक सामान्य वटुक थे, उन्हें भी गुरुदेव की ओर से इस विषय में किसी से भी कोई उल्लेख करने का स्पष्ट निषेध था। इस समय ये सारे शिष्य, युद्धाभ्यास से निवृत्त होकर विश्राम कर रहे थे। चारों ही भाई समवयस्क से थे| लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो जुड़वाँ थे, इस कारण उनमें झगड़ा भी अधिक होता था। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ था - शत्रुघ्न, कड़े अभ्यास से थक गया था, वह राम से बोला 

“भइया! गुरुजी बहुत कठोर श्रम करवाते हैं, नहीं?”

“गुरुकुल में श्रम तो करना ही पड़ेगा; श्रम से चोरी करोगे तो तेजस्वी कैसे बनोगे?"

"यह तो है ही कामचोर भइया ।" लक्ष्मण ने आँखें गोल कर उछलते हुए कहा। 

“भइया, देखो यह मुझे कामचोर कह रहा है।” शत्रुघ्न ने राम की बाँह झकझोरते हुए कहा|

“नहीं लक्ष्मण, तुमको ऐसे नहीं कहना चाहिये ।”

 “ है नहीं ये कामचोर ?” लक्ष्मण अपनी बात पर दृढ़ था

 “कोई नहीं थका, बस यही थक गया। " 

“यह छोटा नहीं है?"

“कुछ निमिष ही तो छोटा है, इसे कहीं छोटा कहते हैं? मेरे बराबर ही दूध पीता है । ”

 “हाँ, जब बड़े होने का लाभ लेना होता है तब नहीं कहते, कुछ निमिष ही तो बड़ा हूँ।” शत्रुघ्न ने मुँह बनाते हुए कहा ।

राम उसकी बात सुनकर हँस दिये, किन्तु कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वे लक्ष्मण से ही सम्बोधित रहे

“ यह तुमसे जल्दी थक गया, इसका मतलब यह तुमसे दुर्बल हैं, अपने से दुर्बल हो, उसकी सहायता करते हैं।"

“हुँह, बड़ा आया दुर्बल ।”

राम और भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से अवस्था में कुछ दिन ही तो बड़े थे, किन्तु इन दोनों के व्यवहार में अपनी आयु से कहीं अधिक प्रौढ़ता परिलक्षित होती थी। छोटे भाई भी उनके बड़प्पन का पूरा सम्मान करते थे, यह संभवतः उनके गंभीर और मर्यादित आचरण का प्रभाव था। भरत, इन चारों भाइयों में सबसे शान्त थे। वे मुस्कुराते हुए अपना कार्य करते थे। वे किसी भी समस्या से, किसी भी परिस्थिति में आमतौर पर अधीर नहीं होते थे, मुस्कुराते हुए ही उसका निदान खोजते थे। वे आज भी मुस्कुराते हुए ही इस पूरे वार्तालाप को सुन रहे थे। अभी तक उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की थी। अचानक, लक्ष्मण उनकी बाँह पकड़कर हिलाते हुए बोले “भरत दादा! यह तो आपका पिट्ठू हैं, आप समझाते क्यों नहीं इसे कि जितना श्रम करेगा उतना ही बलवान बनेगा | "

“तुम नहीं राम दादा के पिट्ठू हो ?” शत्रुघ्न कैसे दब सकता था, उसने भी उतनी  ही फुर्ती से पलटवार किया।




“नहीं, गन्दी बात; कोई किसी का पिट्ठू नहीं है, हम चारों एक हैं; चलो दोनों, कान पकड़कर इस भूल का प्रायश्चित करो।”

 भरत पहली बार कुछ बोले।


लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने बिना किसी प्रतिवाद के अपने-अपने कान पकड़ लिये। 

“बोलो अब नहीं कहेंगे ऐसा " दोनों ने कान पकड़े पकड़े ही भरत की बात दोहरा दी।


भरत ने हँसते हुए दोनों को अपनी भुजाओं में समेट लिया। राम ने भी दूसरी ओर से उन्हें भुजाओं में बाँध लिया, फिर चारों समवेत बोल पड़े, "हम चारों एक हैं, सदैव एक रहेंगे, कभी नहीं लड़ेंगे।”और ठठाकर हँसने लगे।


तब तक गुरुमाता की आवाज सुनाई पड़ी - “आओ सब लोग, अपने-अपने पात्र लेकर आओ !”

सारे बच्चे भंडार से अपने पात्र लेने चल दिये। ये चारों भी उनमें सम्मिलित हो गये। गुरुकुल में डेढ़ सौ के लगभग बच्चे अध्ययन कर रहे थे। सर्वाधिक ब्राह्मणों के बालक थे। क्षत्रिय उनकी अपेक्षा मात्र आधे ही थे, और वैश्य तो गिने-चुने ही थे। शूद्रों का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। पूरे अध्ययन काल को चार-चार वर्ष के तीन वर्गों में विभाजित किया गया था प्रथमा, मध्यमा और उत्तमा।


पहले चार वर्षों के कालखण्ड, प्रथमा में, वेदों को रटाया जाता था; उनकी मीमांसा में नहीं पड़ा जाता था। इसके अतिरिक्त थोड़ा सा योग, थोड़ा सा सामान्य ज्ञान, थोड़ी सी वैदिक गणित और कुछ खेल, जो आगे चलकर युद्ध विद्या का आधार बन सकें, भी सिखाये जाते थे। हाँ, वैदिक आचार-विचार भी सिखाये जाते थे, ताकि विद्यार्थी का आचरण अन्य जनों से कुछ तो भिन्न प्रतीत   हो, और समाज में उनकी महत्ता स्थापित हो सके।


वैश्य, अधिकांशतः इन चार वर्षों के बाद ही गुरुकुल छोड़ देते थे; उनके जीवन-यापन के लिए इतना ज्ञान पर्याप्त होता था। क्षत्रिय भी पर्याप्त संख्या में इसी खण्ड के बाद गुरुकुल छोड़ देते थे, सामान्य वर्ग के ब्राह्मण भी इतनी शिक्षा को ही पर्याप्त मानते थे। उसके बाद अगले चार वर्ष, मध्यमा में वेदों और योग की गहराई में प्रवेश किया जाता था, मनन, चिन्तन और समाधि का अभ्यास करवाया जाता था। यज्ञों में दीक्षित किया जाता था, और शस्त्र विद्या भी सलीके से आरम्भ हो जाती थी। इस सीमा के उपरान्त, उत्तमा में प्रायः उच्च कुलों के ब्राह्मण वटुक ही शेष रह जाते थे, या फिर राजपरिवारों से जुड़े क्षत्रिय अन्य सभी बालक अपने कर्मक्षेत्र में उतर जाते थे। इसमें दोनों वर्गों के अध्ययन क्षेत्र भी पृथक हो जाते थे। ब्राह्मण, वेदों और षड्दर्शन की गहराइयाँ छानने लगते थे, और क्षत्रियों को शस्त्र - विद्या का गहन अध्ययन करवाया जाता था। उच्च कोटि के अस्त्र, दिव्यास्त्र, व्यूह-रचना के साथ-साथ राजनीति और कूटनीति में भी उन्हें पारंगत किया जाता था। कुमारों का अभी प्रथमा खंड का तीसरा वर्ष चल रहा था। इस बीच कई साथ के बालकों से उनकी मित्रता हो गयी थी; किन्तु यह मित्रता औपचारिक ही अधिक थी। मित्रता बढ़ाने का उनके पास समय ही नहीं होता था । गुरुकुल के कार्यों से मुक्त होते ही वे आपस में व्यस्त हो जाते थे। फिर भी सुकेश, वसुदेव, प्रमद, अनिरुद्ध और विशाल से इनके अपेक्षाकृत मधुर संबंध थे। ये पाँचों इनके समवयस्क थे, और इनका भी गुरुकुल में अभी तीसरा वर्ष ही था ।


प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा को सारे विद्यार्थियों को परिजनों के साथ घर जाने की छूट थी, किन्तु उसी दिन सूरज डूबने से पहले ही उन्हें गुरुकुल में वापस आ जाना होता था। नियमों के उल्लंघन के लिये गुरुकुल में कड़े दंड का प्रावधान था। दंडों के लिये दंड-संहिता जैसी कोई अवधारणा नहीं थी... वे पूर्णतः गुरुजनों के विवेक पर थे। दिये गये दंड के विरुद्ध कहीं भी किसी प्रकार की सुनवाई की व्यवस्था नहीं थी... राज दरबार में भी नहीं। अमावस्या और पूर्णिमा को कुमारों को भी कोई न कोई परिचारक आकर अपने साथ लिवा ले जाता था। स्वयं महाराज या किसी मंत्री के आने पर गुरुदेव का स्पष्ट प्रतिबंध था, कि उनके आने से बालकों में कुमारों का सत्य परिचय जानने की उत्कंठा जागृत हो जायेगी, और फिर वे एक सामान्य विद्यार्थी की भांति नहीं रह पायेंगे। हालांकि सभी जानते थे कि मध्यमा स्तर तक पहुँचते-पहुँचते, गुरुकुल के बालकों के समझादार हो जाने पर, सारे प्रयासों के बाद भी यह परिचय गोपन नहीं रह पायेगा किन्तु इसके साथ ही यह भी सत्य था कि तब तक सहपाठियों के साथ कुमारों के संबंधों की डोर इतनी सुदृढ़ हो चुकी होगी, कि तब उनका कुमार रूप में परिचय पा लेने पर भी बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ेगा। जो भी हो, महाराज पूरी ईमानदारी से इस निषेध का पालन कर रहे थे। वे कभी भी गुरुकुल परिसर में कुमारों के पिता के रूप में नहीं आये थे ।


कुछ ही दिनों में कुमारों पर गुरुकुल जीवन का असर प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। वे अब प्रासाद में भी अपने कार्य स्वयं ही करने का प्रयास करते थे। दासियाँ उनकी सेवा करना चाहती थीं, किन्तु वे नम्रता से मना कर देते थे; बेचारी मन मसोसकर रह जाती थीं; आंखिर कुमार उनको भी तो प्रिय थे; उनका वात्सल्य भी तो उमड़ता था कुमारों के प्रति। कभी-कभी वे उनकी माताओं के सम्मुख उलाहना भी देती थीं, कि ये कार्य कुमारों को शोभा नहीं देते; किन्तु मातायें भी हँसकर बात टाल जाती थीं।

गुरुकुल में सभी सहपाठियों के साथ बैठकर भोजन करने में कुमारों को भी विशेष आनन्द आता था; आज भी आ रहा था। भोजन, सदैव की भाँति पूर्णतः निरामिष था... दाल, चपाती, चावल और फल मान्यता थी कि आमिष भोजन, बुद्धि और मन को तामसी वृत्ति की ओर प्रवृत्त करता है, अतः गुरुकुल जीवन में वह पूर्णतः त्याज्य होता था। सभी भोज्य पदार्थ सुस्वादु थे; और कड़ी मेहनत के बाद तो रूखी रोटी भी सुस्वादु लगती है। सभी ने पूरे प्रेम से भोजन प्राप्त किया, और फिर अपने अपने पात्र लेकर धोने चले गये ।


सुलभ अग्निहोत्री 





गुरुवार, 23 जून 2022

सुमित्रा की सीख

सुमित्रा के प्रासाद में महाराज न के बराबर ही आते थे किन्तु उसे इसकी कोई व्यथा नहीं थी । उसने तो काशी को दशरथ के प्रकोप से बचाने के लिये ही उनसे विवाह किया था। दूसरे शब्दों में इसे विवाह नहीं आत्मोत्सर्ग भी कह सकते हैं। इस विवाह से उसकी जन्मभूमि और वहाँ के निवासियों की रक्षा हो सकी थी इसी से वह संतुष्ट थी। अयोध्या में वह बुरी से बुरी परिस्थिति के लिये मानसिक रूप से तैयार होकर आई थी।

वैसे भी यदि महाराज से संयोग या उनकी स्नेहिल छाया को छोड़ दिया जाये तो परिस्थितियाँ अच्छी ही थीं। वह कोशल की रानी थी, इस नाते उसे सर्वत्र पूरा सम्मान प्राप्त था। सबसे बड़ा सौभाग्य तो यह था कि दोनों ज्येष्ठ रानियाँ उससे भगिनीवत स्नेह करती थीं। तीनों रानियाँ परस्पर एक-प्राण थीं। मँझली रानी कैकेयी, महाराज की विशेष कृपापात्र होते हुए भी निरहंकार थी |

सौभाग्य से ऐसा ही सहज स्नेह चारों कुमारों में भी था। चारों ही एक प्राण थे। चारों कुमार रात्रि में ही अपनी माताओं के पास आते थे, सम्पूर्ण दिवस तो वे परस्पर एक साथ ही रहते थे| साथ खेलते, साथ खाते और साथ ही विनोदपूर्ण कौतुक (शैतानी) करते। दिन के समय उन्हें अलग कर पाना संभव नहीं था। तीनों रानियों को इसमें कोई आपति भी नहीं थी। उनके इस परस्पर स्नेह से तीनों प्रसन्न ही थीं। तीनों को ही राम सबसे अधिक प्यारे थे।

आज भी सूर्यास्त के उपरांत ही कुमार लक्ष्मण और कुमार शत्रुघ्न माता के प्रासाद में आये थे।

“माता-माता! आज अनंत (अत्यंत) आनंद आया ।” दौड़कर आते हुये लक्ष्मण ने कहा “हाँ माता!” उसके पीछे-पीछे शत्रुघ्न भी आ गये।

“अच्छा! तो ऐसा क्या किया जिसमें 'अनंत' आनंद आया ?” सुमित्रा ने लक्ष्मण की नकल करते हुए कहा। कहने के साथ ही उसने अपनी दोनों बाहें फैला दीं, दोनों पुत्र उन बाहों में समा गये।

"हम ना... हम ना ..." लक्ष्मण ने हाथ से पकड़ कर सुमित्रा का मुख अपनी ओर करते हुये कहा। प्रसन्नता और उत्तेजना के कारण वह सही से बोल ही नहीं पा रहा था। उसी बीच शत्रुघ्न ने अपने दोनों हाथों से चेहरा अपनी ओर मोड़ने का प्रयास आरंभ कर दिया “नहीं मैं बताऊगा?"

“अरे-अरे लड़ो नहीं।” ऐसी स्थितियों में दोनों को संतुष्ट रख पाना अत्यंत कठिन परीक्षा होती थी किन्तु अब तक सुमित्रा ऐसी परीक्षाओं का सफलतापूर्वक सामना करने में पारंगत हो गयी थी। उसने अपने हाथों से पकड़ कर दोनों को अलग-अलग खड़ा करते हुये कहा “एक साथ नहीं! एक-एक कर जिससे मैं पूछें वह बतायेगा । ठीक ?”“

मुझ से पूछिये!” दोनों ने एक साथ कहा।

“बड़ा कौन ?”

“मैं!" लक्ष्मण ने हाथ उठा दिया।

“इसे कहीं बड़ा कहते हैं, कुछ पल ही तो बड़ा हैं।” शत्रुघ्न ने प्रतिवाद किया

“तो क्या हुआ! बड़ा तो बड़ा है।” सुमित्रा लक्ष्मण की ओर आकृष्ट होती हुई बोली - “तुम बताओ लक्ष्मण कहाँ-कहाँ गये थे आज ?”

“राजसभा, फिर..."

“नहीं पहले भ्राता राम के कच्छ (कक्ष) में" शत्रुघ्न ने लक्ष्मण की बात काटते हुये संशोधन किया।

“हाँ पहले भ्राता राम के कच्छ में, फिर उनको लेकर भ्राता भरत के कच्छ में, फिर राजसभा, फिर उद्यान में। "

“और भोजन कहाँ किया था? - शत्रुघ्न तुम बताओ।"

"भ्राता भरत के कच्छ में। माता... मझली माता ने इतने सादिस्ट (स्वादिष्ट) पकवान खिलाये थे कि बस आनंद आ गया।"

“और बड़ी माँ ने क्या-क्या खिलाया ?”

“माखन- मिरारी | " दोनों एक साथ बोले। इस बार सुमित्रा किसी एक का नाम लेना भूल जो गयी थी।

“और सबसे अधिक आनन्द कहाँ आया? लक्ष्मण तुम बताओ। ”

“उद्यान में। पता माँ वहाँ हम खूब दौड़े। मैं तो वृक्ष पर भी चढ़ा।"

"मैं भी तो चढ़ा।"

“हाँ ये भी चढ़ा "

“और तुम्हारे भ्राता राम-भरत? वे नहीं चढ़े? शत्रुघ्न !”

“वे दोनों तो अति सरल हैं। वे तो पिताजी जितना कहते हैं उतना ही करते हैं । "

“विशेष कर भ्राता रामा" लक्ष्मण ने स्थिति और अधिक स्पष्ट की।

“तो पिताजी ने मना किया था वृक्ष पर चढ़ने को, फिर भी तुम लोग चढ़े।” सुमित्रा ने कठिनाई से अपनी हँसी रोकते हुये डॉट पिलायी।

दोनों ने जीभ दाब ली। भ्राता लोगों की खिंचाई करने के उत्साह में अपनी ही पोल खोल बैठे थे।

“अब ऐसा नहीं करेंगे माता । "

“अच्छा और क्या किया वृक्षों पर चढ़ने के अतिरिक्त?”

“इतने सारे पुष्प तोड़े" अपने दोनों हाथों को पूरा फैलाते हुये लक्ष्मण ने कहा- “और उनसे खूब होली खेली।"

“अच्छा ये तो खेल की बातें हो गयीं हैं। अब तो क्षुधा भी अनुभव हो रही होगी?” 

“हाँ माता ! हो तो रही है।" लक्ष्मण ने कहा|

“अत्तधिक (अत्यधिक) हो रही हैं।” शत्रुघ्न ने बात और अधिक स्पष्ट की।

“ तो फिर हाथ-मुँह धोकर आओ शीघ्रता से । भोजन के उपरांत वार्ता करते हैं। ”

दोनों दौड़ गये।

सुमित्रा रसोई की ओर बढ़ गयी। सुमित्रा भी कौशल्या की ही भाँति अपनी और बच्चों की रसोई स्वयं करती थी । यद्यपि इस कार्य के लिये एक ब्राह्मण विधवा महाराजिन के रूप में थी किन्तु बच्चों को अपने हाथ का पका खिलाने का रान्तोष ही और होता है। शेष परिचारिकाओं और अन्य लोगों के लिये अलग भोजन की व्यवस्था होती थी जो महाराजिन बनाती थी। कैकेयी के प्रासाद में अवश्य समस्त भोजन रसोइयों द्वारा तैयार होता था। वहाँ महाराज प्राय: ही आते रहते थे।

रसोई के बाहर ही भोजन कक्ष था। उसी में सुमित्रा ने दो कुशासन बिछा दिये थे। दोनों बालक हाथ-मुँह धोकर आये और उन आसनों पर बैठ गये फिर समवेत पुकार लगायी -

"माता हम आ गये । "

सुमित्रा उनकी पुकार के साथ ही नन्हीं-नन्हीं रजत थालियों में भोजन लेकर आ गयी । जल पात्र उसने पहले ही रख दिये थे। फिर वह बोली

“आरम्भ करो ।”

" आप नहीं आयेंगी माता? लक्ष्मण ने कहा ।

"हाँ! आप भी आइये ना । " शत्रुघ्न ने कहा

“अच्छा आती हूँ!” कहने के साथ ही सुमित्रा ने आवाज लगाई- “माई!”

आवाज देने के बाद वह प्रतीक्षा के लिये रुकी नहीं। उसने एक कुशासन दोनों बालकों के सामने अपने लिये भी डाल लिया और अपनी थाली भी परस कर ले आई।

तभी महाराजिन भी आ गयी। वह बिना कुछ कहे ही अपना दायित्व समझ गयी थी अत: रसोई के द्वार पर खड़ी होकर प्रतीक्षा करने लगी कि जो भी आवश्यकता हो ले आये। बालकों ने सर्वप्रथम प्रत्येक व्यंजन में से थोड़ा-थोड़ा लेकर थाली की बगल में रखा । तदुपरांत हथेली में जल लेकर थाली के चारों ओर फिराया। फिर हाथ जोड़कर, आँखें बन्द कर प्रार्थना की और तब भोजन आरम्भ किया। सुमित्रा ने भी यही सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं।

“माता! आज पता है राम भइया ने क्या किया?" शत्रुघ्न ने भोजन करते-करते कहा ।

 “भोजन करते समय बोला नहीं जाता। हैं न माँ!" लक्ष्मण ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया।

“हाँ पहले भोजन कर लो फिर आराम से बाहर वाटिका में घूमते हुये बातें करेंगे " सुमित्रा ने अपनी सम्मति देते हुये कहा।

भोजनोपरांत तीनों वाटिका में आ गये।

“अब बताओ शत्रुघ्न !"

“उद्यान में एक मृग शावक को चोट लग गयी थी। उससे लहू भी बह रहा था। वह चल भी नहीं पा रहा था । "


"अच्छा। तो क्या किया राम ने?" सुमित्रा ने आश्रर्य प्रकट करते हुए प्रश्न किया।

“तो न माता ! राम भइया ने उसके व्रण पर पट्टी कर दी। और न, हम सब लोग उससे बातें करते रहे।"

"अच्छा! यह तो बहुत अच्छा किया राम ने ”

“फिर न माता वह शावक हमारा मित्र बन गया। फिर तो वह हमारे पीछे ही घूमता रहा ”

“अरे वाह ! तब तो अब तुम लोग पाँच हो गये । ”

"हाँ माता।”

“और लक्ष्मण तुम कहाँ खोये हुये हो?” सुमित्रा ने लक्ष्य कर लिया था कि लक्ष्मण ने इस बीच वार्तालाप में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था।

“कहीं नहीं माता"

“चलो तो फिर दोनों अब मेरी ओर पूरा ध्यान दो। अत्यंत महत्वपूर्ण बात कहनी है। "

“कहिये माता।” दोनों बोले “हम पूरे ध्यान से सुन रहे हैं। "

“तो कौन से भ्राता तुम लोगों को अधिक अच्छे लगते हैं?” सुमित्रा के मस्तिष्क में नारद की बात घूम रही थी कि राम को एकाकी रावण के विरुद्ध अभियान पर जाना होगा। उसे राम की चिंता थी।

"दोनों ही । "

"यह तो बहुत अच्छी बात हैं। किन्तु तुम भी दो हो और भ्राता लोग भी दो हैं। हैं न?"

“जी!”

“ तुम लोगों ने कहा न कि दोनों भ्राता अत्यंत सरल हैं।”

“सो तो हैं माता

“और तुम दोनों चतुर हो ।”

“हाँ! सो तो हैं माता।" दोनों ने एक साथ कहा।

" किन्तु यह लक्ष्मण अधिक चतुर हैं। और क्रोधी भी है।” शत्रुघ्न ने कहा। ऐसा बहुत कम ही होता था कि दोनों में से कोई एक दूसरे की श्रेष्ठता स्वीकार कर ले। दोनों में प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता चलती रहती थी। स्वस्थ प्रतिद्वंदिता जो प्राय: सभी जुड़वाँ भाइयों या बहनों में रहती है।

“अच्छा अधिक सरल कौन सा भ्राता है?” सुमित्रा ने शत्रुघ्न द्वारा लक्ष्मण की श्रेष्ठता अस्वीकार किये जाने के विलक्षण अपवाद पर ध्यान नहीं दिया था ।

“भ्राता राम ” दोनों ने फिर एक साथ कहा। तात्पर्य कि इन बातों में दोनों का मतैक्य था।

“तो ऐसा करो कि दोनों ही एक-एक भ्राता का दायित्व ले लो। अन्यथा उन्हें सरल जान कर सभी मूर्ख बना दिया करेंगे । उचित है न ?”

“हाँ माता। यह तो बहुत उचित है।" लक्ष्मण ने कहा|

"सच यही उचित रहेगा ।" शत्रुघ्न ने कहा।

“हाँ माता। यह तो बहुत उचित है।" लक्ष्मण ने कहा

“सच यही उचित रहेगा । " शत्रुघ्न ने कहा|

"तो लक्ष्मण जो अधिक चतुर है वह राम के साथ सदैव रहेगा।”

"वह तो प्राय: रहता ही हैं।” शत्रुघ्न ने उद्घाटन किया।

“और शत्रुघ्न .."


“भ्राता भरत के साथ |” सुमित्रा की बात पूरी करते हुये लक्ष्मण बोला।

“हाँ! किन्तु प्राय: नहीं- सदैवा मात्र जब वे अपनी माता के प्रासाद में शयन हेतु जायें तब को छोड़कर वे जहाँ भी जायें उनका जोड़ीदार उनके साथ रहेगा ।" 

“जी माता।”

“चाहे वे स्वयं मना करें अथवा कोई अन्य मना करे किन्तु ....

“हम नहीं मानेंगे। हम तो उनके साथ ही जायेंगे।” दोनों ने माता की बात पूरी की।

और उनकी सदैव, प्रत्येक परिस्थिति में सुरक्षा करेंगे।” सुमित्रा ने आगे बात जोड़ी।

सुमित्रा लक्ष्मण के मन में यह बात इतनी गहराई से रोप देना चाहती थी कि रावण के विरुद्ध अभियान में राम पूर्णत: एकाकी न हों। कम से कम एक भाई तो अवश्य ही उनका साथ देने को उनके साथ हो। वह चारों बालकों को इसी अवस्था में भली-भाँति समझ गयी थी। उसे पता था कि लक्ष्मण राम के समान बिना किसी प्रश्न के गुरुजनों की आज्ञा मानने वाला नहीं था। वह आज्ञाकारी था किन्तु तब भी अपने विवेक का प्रयोग करता था और यदि वह किसी बात पर दृढ़ हो जाता था तो फिर उसे कोई नहीं डिगा सकता था।


वह सोच रही थी "लक्ष्मण की इस दृढ़ता को इतना प्रबल करना हैं ताकि वह प्रत्येक संकट में परछाई के समान राम के साथ उपस्थित हो।”


सुलभ अग्निहोत्री 



बुधवार, 22 जून 2022

देवराज इन्द्र

 देवों का अपने सौतेले भाइयों दैत्यों के साथ सदैव विवाद चलता रहा। दैत्य कश्यप की दूसरी पत्नी दिति के पुत्र थे, इसी कारण उन्हें दैत्य कहा गया। बल- पराक्रम में वे देवों से कतई कम नहीं थे किन्तु वे कभी भी विष्णु की कूटनीति से पार नहीं पा पाये|

देवराज इन्द्र को अपनी सत्ता से अत्यंत मोह था और विष्णु सहज भाव से उसका सिंहासन बचाये रखने में उसकी सहायता करते थे। स्वाभाविक भी था, इन्द्र आखिर उनके बड़े भाई थे। जब भी दैत्य, ... बाद में रक्ष, देवों पर भारी पड़े तो विष्णु ने ही इन्द्र का उद्धार किया।

इन्द्र की सत्ता की भूख इतनी प्रबल थी कि किसी भी दैत्य, रक्ष या मानव के शक्ति में प्रबल होते ही वह चिंतातुर हो जाता था और छल बल से उसे सताच्युत करने का प्रयास करने लगता था। यह स्थिति सभी इन्द्रों की बनी रही और विष्णु सदैव उनके संकटमोचन बनते रहे।

इसके कुछ उदाहरण देना शायद उचित रहेगा क्षीरसागर - मंथन के साझा अनुसंधान से प्राप्त अमृत को अकेले ही प्राप्त करने के उद्देश्य से देवों ने दैत्यों का महाविनाश किया। बावजूद इसके कि दैत्यों ने उस अभियान की अन्य सभी उपलब्धियाँ सहर्ष देवों को सौंप दी थीं।

अपने पुत्रों के इस महाविनाश से व्यथित दिति (इन्द्र की विमाता) ने पुन: एक ऐसे पुत्र की कामना की जो बड़ा होकर इन्द्र का नाश कर सके तो इन्द्र ने उस पुत्र को गर्भ में ही मार दिया।

विश्वामित्र ने जब अपने तप के प्रभाव से क्षत्रिय होते हुये भी ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया तो पुन: इन्द्र को लगा कि कहीं ये स्वर्ग पर दावा न कर दें तो उसने मेनका को भेज कर विश्वामित्र का तप भंग करने का प्रयास किया।

दानवराज बलि ने अपने श्रेष्ठ शासन से जब चतुर्दिक अद्भुत सम्मान प्राप्त किया तो इन्द्र को पुन: आशंका हुई कि बलि कहीं स्वर्ग पर दावा न कर बैठें तो तो उसने विष्णु की सहायता से छल से बलि को सत्ताच्युत करवा दिया। ऐसी घटनाएँ बार-बार दोहराई गयीं, बिना यह सोचे कि अगला व्यक्ति इन्द्र के सिंहासन का इच्छुक है भी या नहीं। इन्द्र भी आज के राजनीतिज्ञों की भाँति   ही यह चाहता था कि उसकी सत्ता को चुनौती देने में समर्थ कोई भी शक्ति पनप न पाये। देव नि:संदेह स्वार्थी थे। उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी आप देखें उन्होंने अपने विज्ञान या अध्यात्मिक विज्ञान से जो भी उपलब्धियाँ प्राप्त की उनका उपयोग मात्र अपने लिये किया। अपनी उपलब्धियों को जनकल्याण के लिये बाँटना उन्हें कभी स्वीकार नहीं हुआ। सम्पूर्ण पौराणिक इतिहास में देखें तो वायुयान देवों के अतिरिक्त मात्र रावण के पास ही उपलब्ध था किन्तु वह भी उसने कुबेर से छीना था। देवों के पास यदि ऐसी तकनीक थी भी तो उन्होंने कभी भी वह आर्य सम्राटों से साझा नहीं की, बावजूद इसके कि ये आर्य सम्राट जब भी देवों को आवश्यकता हुई, उनकी सहायता के लिये युद्ध में दैत्यों के विरुद्ध उतरते रहे।

इन्द्र का विलासी चरित्र भी सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आरुणि और अहल्या के चरित्र तो राम कथा में आये ही हैं, अन्यत्र भी ऐसे तमाम प्रसंग उपलब्ध हैं। इन्द्र के पुत्र जयन्त ने तो स्वयं सीता पर ही कुदृष्टि डाली थी जिसका भुगतान उसे अपनी एक आँख गँवा कर करना पड़ा था।

प्रत्येक युग में आर्यों की इस देवपूजन प्रथा का विरोध करने वाले भी हुये। सतयुग में दैत्य तो विरोध करते ही रहे और विष्णु के सहयोग से इन्द्र उनका दमन करते रहे फिर हिरण्यकश्यप व हिरण्याक्ष हुये उन्हें भी विष्णु ने ही समाप्त किया। बाद में माल्यवान आदि ने किया तो भी विष्णु के द्वारा ही उनका पराभव हुआ।

त्रेता में दैत्यों का प्रभाव क्षीण हो जाने से यह प्रतिरोध भी हल्का पड़ गया। इस युग में पहला प्रबल विरोध कार्तिवीर्य अर्जुन और फिर रावण ने दर्ज कराया था। द्वापर में यह कार्य कृष्ण ने किया।त्रेता के दोनों विरोधियों का अन्त करवाने में देव राम के माध्यम से सफल हुये। यद्यपि दोनों अलग-अलग थे किन्तु नाम दोनों का ही राम था। पहले थे महर्षि जमदग्नि के पुत्र राम जो अपने अस्त्र परशु के कारण परशुराम नाम से जाने-पहचाने गये। कार्तिवीर्य ने देव पूजा का विरोध करते हुये अनेक ऋषियों के आश्रमों पर आक्रमण कर उनका विनाश किया था। इनमें एक महर्षि जमदग्नि का आश्रम भी था। इस आक्रमण में स्वयं महर्षि जमदग्नि भी मारे गये थे और उनकी इस हत्या का प्रतिशोध लेते हुये परशुराम ने न केवल कार्तिवीर्य अर्जुन का नाश किया अपितु उन्होंने उस समस्त महिष्मत प्रदेश (आज के मध्यप्रदेश, गुजरात आंशिक राजस्थान और आंशिक महाराष्ट्र) में जो भी क्षत्रिय मिला उसे मौत के घाट उतार दिया।

इसके कुछ ही उपरांत हमारे राम कथानक के एक प्रमुख पात्र रावण ने भी देवों की पूजा का विरोध किया। उसका यह विरोध अत्यंत प्रखर था। उसने मात्र देव पूजा का विरोध ही नहीं किया समर में समस्त देवों को परास्त कर उनका मानमर्दन भी किया। रावण को भी देवों ने लम्बे कूटनीतिक अभियान के बाद दशरथ पुत्र राम के द्वारा समाप्त करवाने में सफलता प्राप्त की। इसका विस्तृत विवरण राम कथा में आपको मिलेगा । देव समर्थक आर्यों के समाज ने इन दोनों को ही विष्णु की उपाधि से विभूषित किया|

द्वापर में कृष्ण ने यही कार्य किया। उन्होंने इन्द्र की पूजा बन्द करवाकर गोवर्धन पूजा का आयोजन करवाया। इस काल तक देवों की शक्ति अपेक्षाकृत क्षीण हो चुकी थी अत: वे कृष्ण का फलदायी प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने कृष्ण से समझौता कर लिया। कृष्ण ने आजीवन किसी भी जाति या संस्कृति का विरोध करने की बजाय बुराई का विरोध किया, वह बुराई कहीं भी क्यों न हो? अपने कितने भी सगे व्यक्ति में क्यों न हो? कृष्ण का यह चरित्र विष्णु के चरित्र से पूर्णत: मेल खाता था। उन्हें श्री विष्णु की उपाधि से विभूषित किया गया। कृष्ण इकलौते पौराणिक चरित्र हैं जो इन्द्र का विरोध करने के बावजूद विष्णु की उपाधि से विभूषित हुये।

सुलभ अग्निहोत्री




ब्रह्मा, शिव और विष्णु

 ऋग्वैदिक काल के बाद तीन महाशक्तियों का अभ्युदय हुआ। ब्रह्मा, शिव और विष्णु।  आज बहुत से आस्थावान शिव के अनुयायी शिव को एकादश रुद्रों की सम्मिलित शक्ति मानते हैं किन्तु वस्तुत: ऐसा नहीं है। रुद्र अन्य देवों की भाँति ही कश्यप और अदिति के पुत्र हैं किन्तु शिव का उद्गम अज्ञात हैं। उन्हें पुराणों ने अनादि मान लिया है। हमारे पुराणों ने ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता, विष्णु को सृष्टि का पालनकर्ता और शिव को संहारकर्ता कहा है। किन्तु आख्यानों में शिव का संहारकर्ता रूप कहीं सामने नहीं आता अपितु वे तो भोले वरदानी के रूप में जाने जाते हैं, सहज ही सब पर प्रसन्न हो जाने वाले वे ही एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके भक्त देवों के साथ साथ दैन्य और राक्षस भी हैं।

शिव का मानवता के लिये सबसे बड़ा योगदान योग विद्या का आविष्कार है। आज भी सृष्टि के सबसे बड़े योगी शिव ही माने जाते हैं। शिव ने अनवरत समाधि और योग के माध्यम से अपनी सामर्थ्य को अविश्वसनीय सीमा तक बढ़ा लिया था। इसके साथ ही अपनी आयु को भी। सृष्टि की सबसे ताकतवर शक्ति होते हुये भी अघोरी के रूप में पहचान रखने वाले शिव सहजता और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। मात्र एक बाघम्बर लपेटे, शरीर पर राख मले वे अधिकांशत: तो समाधि में ही तल्लीन रहते थे। बाकी शिव के विषय में हर पाठक इतना कुछ जानता है कि और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। शिव ने अपना निवास कैलाश पर्वत पर बनाया। कोई प्रासाद नहीं, कोई विलास के साधन-संसाधन नहीं अनेक आयुधों का विकास करने वाले शिव का सर्वप्रिय आयुध सदैव उनका त्रिशूल रहा।

ब्रह्मा वयस में सबसे बड़े थे श्वेतकेशी । योग पर इनका भी पूर्ण अधिकार था। ये भी अत्यंत सहज सरल थे। ज्ञान प्राप्त करना और कराना इनका व्यसन था। सृष्टि के विकास में इनका प्रमुख योगदान रहा इसीलिये इन्हें सृष्टिकर्ता माना गया। अनेक आयुधों का सर्जक होते हुये भी इन्हें सम्भवत: कभी उनके प्रयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी ।

इन दोनों के विपरीत विष्णु पूर्वोक्त देवों में से ही एक थे जिन्होंने अपनी एक पृथक पहचान बना ली थी। शारीरिक शक्ति में शिव से कमतर और ज्ञान में ब्रह्मा से कमतर होते हुये भी विष्णु सर्वाधिक मान्य हुये। कारण था उनकी दूरदृष्टि, त्वरित बुद्धि और कूटनीति सत्य का पक्षधर होते हुये भी विष्णु की मान्यता थी कि साध्य की श्रेष्ठता महत्वपूर्ण है। श्रेष्ठ साध्य को प्राप्त करने के लिये यदि साथन की शुचिता से समझौता भी करना पड़े तो कर लेना चाहिये। अपनी पृथक महत्वपूर्ण पहचान स्थापित कर लेने के बाद भी विष्णु सदैव देवों के सहयोगी बने रहे। उन्हीं की बदौलत देवों ने सदैव दैत्यों पर विजय प्राप्त की। विष्णु के गुण पूरी तरह आज तक बस एक बार किसी और में देखने को मिले द्वापर में श्रीकृष्ण में। इसीलिये उन्हें विष्णु का पूर्णावतार मान लिया गया।

सुलभ अग्निहोत्री 



ब्रह्मा का वरदान

 विभीषण और चन्द्रनखा पहुँचे तो ब्रह्मा, रावण और कुंभकर्ण तीनों किसी बात पर खुल कर हँस रहे थे।

चन्द्रनखा ने दूर से ही हाथ जोड़ कर ब्रह्मा को प्रणाम किया “प्रणाम पितामह!"

“आशीर्वाद पुत्री | आयुष्मान भव!"

“पितामह! तपस्या तो हम लोगों ने की थी और आते ही सबसे पहले पूछा आपने इसे।इसने तो कभी आपका स्मरण भी नहीं किया था । "

“पितामह भइया मिथ्या भाषण करते हैं। मैं भी आपको नित्य स्मरण करती थी । " “अरे परस्पर झगड़ो मता यह सबसे प्यारी जो हैं, इसी से मैंने इसे पूछा था। फिर तुम लोग तो यहीं उपस्थित थे। यहीं नहीं थी, मुझे तो अपने सारे बच्चों से मिलना था ।”

 “पितामह ! किन्तु आपको इसके विषय में ज्ञात कैसे हुआ? तपस्या में तो यह कभी बैठी ही नहीं थी।"

 इस बार विभीषण ने पूछा।

“अरे! तुम लोग जब यहाँ तपस्या में बैठते थे तो यह भी घर में मन ही मन मुझे स्मरण करती थी।" ब्रह्मा चन्द्रनखा का मन रखने के लिये बात बना दी। "करती थी न चन्द्रनखे।" 

“जी पितामह! करती थी । "

"देखा। यह भी करती थी।" ब्रह्मा फिर खुल कर हँसे । फिर बोले

“तुम्हारे मन में कुछ प्रश्न मचल रहे हैं, पूछते क्यों नहीं वत्स रावण?"

 रावण झेंप गया। मानो चोरी पकड़ी गई हो। पितामह ने उसके मन की बात पकड़ ली थी।

"पितामह हमने जब आपके चरण-स्पर्श किये तो हमें आपके चरणों के स्थान पर सिकता का बोध क्यों हुआ?" वह बोला

“ऐसा है वत्स! जब तुम लोगों की पुकार मेरी मानसिक तरंगों से टकरायी तो मैंने ध्यान लगा कर तुम्हें देखा पल में मुझे तुम्हारा सारा इतिवृत्त ज्ञात हो गया। मैं तो प्रसन्नता से नाच उठा तुम लोग तो विलुप्त ऐसे हो गये थे। यह ज्ञात होते ही कि तुम तो मेरी ही संतानें हो, मैं तुमसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर सका। अब मैं अवस्थित तो था सुदूर ब्रह्मलोक में आने में बहुत समय लग जाता। मैं तो अविलम्ब तुमसे साक्षात् करना चाहता था। बस, मैंने तत्काल अपनी मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ तुम्हारे सम्मुख प्रक्षिप्त की और उसके माध्यम से मानसिक रूप से तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो गया। यह जो तुम दर्शन कर रहे हो न, वस्तुत: यह मात्र मेरी छवि है, मेरा शरीर तो अभी ब्रह्मलोक में ही विद्यमान है। इसी कारण तुम मेरे शरीर का स्पर्श नहीं कर पाये, मात्र शून्य का आभास हुआ तुम्हें। किन्तु अतिशीघ्र में सशरीर आऊँगा तुम्हारे समक्ष तुम्हें प्रगाढ़ आलिंगन में भरने हेतु मेरा मन भी हुलस रहा है। "

“पितामह क्या हम भी आपकी तरह अपनी त्रिआयामी छवि प्रक्षिप्त कर सकते हैं।"

“क्यों नहीं कर सकते? किन्तु अभी नहीं, उसके लिये सुदीर्घ अभ्यास की आवश्यकता होती है। "

 “कब कर पायेंगे हम ऐसा।" कुंभकर्ण ने पूछा

“ब्रह्मा पुन: हँसे । वही स्निग्ध, धवल हँसी। बोले “अरे! उतावले नहीं होता उतावली में किया गया कार्य सम्यक् नहीं हो पाता। बस धैर्य से अभ्यास किये रहो ।”

“अच्छा पुत्रों अब तो मुझे प्रस्थान करना होगा। विलम्ब हो रहा है, किन्तु क्या करूँ तुमसे बिछड़ने का मन ही नहीं हो रहा।"

“तो रुकिये न पितामह! हमारा मन भी नहीं हो रहा कि अभी आप जायें। पहली बार तो मिले हैं हम आपसे ।" रावण ने कहा।

“अत्यंत आवश्यक हैं पुत्रों, किन्तु चलो कुछ काल और सही । ”

“आहा !" चन्द्रनखा ने ताली बजाई "रुक गये पितामहा "

  “अच्छा तुम सब एक-एक कर अपनी इच्छा बताओ। प्रथम तुम कहो रावण अपनी इच्छा "

"मैं तो अमर होना चाहता हूँ पितामह!”

“यह किसने कह दिया वत्स तुमसे कि अमरत्व भी संभव है। कोई भी जिसका जन्म हुआ है, वह चाहे चेतन हो या जड़ उसका विनाश अवश्यंभावी है। यह धरती यह अम्बर, सभी नाशवान हैं। मैं भी अविनाशी नहीं हूँ। हाँ योग और प्राणायाम का मेरा अभ्यास इतना दीर्घ है कि काल मेरे पास आने से भयभीत रहता है। फिर भी, मैं भी मात्र दीर्घजीवी हैं, अमर नहीं। वे सारी योग क्रियाएँ जो दीर्घजीवी बनाती हैं, मैं तुम्हें भी सिखा दूंगा। अच्छा और बताओ!”

“और पितामह!... देव, दानव, गंधर्व, नाम, यक्ष आदि कोई भी मेरा वध न कर पाये।" रावण ने कुछ देर सोचने के उपरांत कहा।

“अर्थात् प्रकारान्तर से पुन: वही अभिलाषा!” ब्रह्मा खुलकर हँसे बच्चों की बातें उन्हें आनंद में डुबो रही थीं। आज बहुत समय बाद वे स्वयं को इतना हल्का-फुल्का महसूस कर रहे थे। बच्चों का साथ उन्हें कहाँ मिल पाता था। उनके सामने तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, देव-दानव आदि जटिल प्रश्न लिये उपस्थित रहते थे। हँसते हुये ही वे आगे बोले

“किन्तु रावण! तुमने इसमें मनुष्यों का नाम तो लिया ही नहीं।"

“मनुष्यों को तो हम यूँ मसल देंगे पितामह!” दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ने का अभिनय करते हुये कुंभकर्ण बीच में ही बोल पड़ा।

ब्रह्मा और जोर से हँस पड़े फिर घोर आश्चर्य का अभिनय करते हुये बोले -

“अच्छा!!!! इतना बल है तुममें।"

“हाँ पितामह! मेरे शरीर से दिखाई नहीं देता?"

“दिखाई देता है। दिखाई देता है।" हँसी रोकने का प्रयास करते हये ब्रह्मा बोले।

“पितामह खाता भी तो कितना है। इसका बस चले तो सबके हिस्से का भोजन चट कर डाले" यह चन्द्रनखा थी |

“ऐसा? क्यों कुंभकर्ण चन्द्रनखा का भाग तो नहीं खाते?” ब्रह्मा ने पुन: आश्चर्य का अभिनय किया।"

"नहीं पितामह! माता देती ही नहीं। "

“उचित करती है। "

“कभी तुम्हारा भाग खाये तो मुझे बताना। मैं इसके कान खींच कर सब बाहर निकाल लूँगा " बच्चों के संग ब्रह्मा भी बच्चे बन गये थे।

“अच्छा एक बात बताओ" ब्रह्मा ने थोड़ा गंभीर होते हुये पूछा- “मुझे लगता है कथाएँ अधिक सुनते हो तुम लोगा तभी वरदान और श्राप पर इतना यकीन हैं। हैं न ऐसी बात ?"

“कभी-कभी मातुल सुनाते हैं ऐसी कहानियाँ।" रावण ने कहा।

 “वे सारी कहानियाँ मिथ्या हैं। वरदान और श्राप कोई तर्क से ऊपर की शक्तियाँ नहीं है कि बस कहा और हो गया । "

“यह तो आपने बड़ी अद्भुत बात कह दी। हमें समझाइये।" इस बार बड़ी देर से चुप बैठा विभीषण बोला।

"देखो वरदान क्या है किसी का हित करना, किसी की सहायता करना| है न?"

“जी!” सभी समवेत स्वर में बोल उठा

"किसी का हित या सहायता तीन प्रकार से हो सकती है पहला भौतिका किसी को धन की आवश्यकता हुई तो मेरे पास प्रचुर है मैंने उसे उसकी आवश्यकतानुसार दे दिया। किन्तु यदि कोई यह अभीप्सा करे कि उसे त्रिलोक का सारा धन मिल जाये तो मैं भला कैसे दे दूँगा। समझ गये?"

"जी"

 “दूसरा शारीरिक या ज्ञान संबंधी। मान लो कोई रोग से पीड़ित है। उसने अभीप्सा की कि रोग दूर हो जाये तो मेरी सामथ्र्य में हैं कि मैं उसके लिये श्रेष्ठतम चिकित्सक, अन्य सुविधाओं और औषधियों की व्यवस्था कर दूँगा किन्तु लाभ तो उस व्यक्ति को उतना ही मिल पायेगा जितना उन श्रेष्ठतम चिकित्सकों, सुविधाओं और औषधियों से संभव होगा। प्रत्येक रोग का उपचार तो मेरे लिये भी संभव नहीं है यदि ऐसा होता तो न कोई रोगी होता और न किसी की मृत्यु होती, सब अमर हो जाते किन्तु मैंने रावण से पूर्व ही कह दिया कि अमर होना तो संभव ही नहीं । उचित है न?" 

"जी!”

“रावण से मैंने कहा कि मैं उसे योग और प्राणायाम की क्रियाएँ सिखा दूंगा जिससे वह सदैव स्वस्थ रहेगा और दीर्घजीवी होगा। किन्तु वे समस्त क्रियाएँ करनी तो स्वयं उसे ही होंगी। करेगा ही नहीं तो कैसे प्राप्त होगा उनका लाभ?"

“जी पितामहा पर यह कर लेगा।" चन्द्रलखा ने कहा "यह बहुत उद्योगी हैं।"

“तीसरा हुआ मानसिका यह सबसे महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार मैंने मानसिक शक्ति से अपनी त्रिआयामी छवि यहाँ प्रक्षिप्त कर दी और उसके माध्यम से तुमसे बात कर रहा हूँ। ऐसे ही मानसिक शक्ति से मैं अनेक अद्भुत कार्य सम्पादित कर सकता हूँ जो तुम्हें चमत्कार प्रतीत होंगे। मान तो कोई अत्यंत पीड़ा में हैं तो मैं उसे सम्मोहित कर यह भावना दे दूँगा कि उसे पीड़ा का अनुभव ही नहीं होगा। मानसिक शक्ति के प्रयोग से मैं उसके रोग का भी किसी सीमा तक उपचार कर सकता हूँ किन्तु पूर्णतः स्वस्थ तो नहीं कर सकता, वह तो औषधियों से ही होगा। समझझ गये?"

“जी!”

“एक बात और, तुम जानते होगे कि सृष्टि की प्रत्येक वस्तु पंचमहाभूतों से बनी हैं। बस सबके रासायनिक और भौतिक गुण-धर्म भिन्न हैं, उनका संघटन भिन्न है।"

“जी!"

“अब देखो यह सिकता है। मैं अपनी मानसिक शक्ति से इसके गुण-धर्म परिवर्तित कर इसे मिष्ठान्न में परिवर्तित कर सकता हूँ।"


“सच पितामह!” चन्द्रनखा आश्चर्य से बोली- "कीजिये ना!"


“देखो इसके मुँह में पानी आ गया।” कहते हुये ब्रह्मा हँसे ।


"यह तो जन्मजात चटोरी है पितामहा" कुम्भकर्ण ने अपना बदला पूरा किया। 

ब्रह्मा हंसे फिर बोले

“अभी नहीं कर सकता। अभी तो मैं ब्रह्मलोक में बैठा हूँ। मेरी छवि यह काम थोड़े ही कर सकती हैं। उसके लिये तो मुझे प्रत्यक्ष में उपस्थित होना पड़ेगा। हाँ! इतना अवश्य कर सकता हूँ कि मिष्ठान्न की छवि वहाँ प्रक्षिप्त कर दूँ और तुम्हें भावना दे दूँ कि तुमने वह मिष्ठान्न उदरस्थ किया "

“वही कीजिये पितामहा "

“क्या खाओगे बताओ?"

“मालपूआ " चन्द्रनखा फौरन बोली। उसकी तत्परता पर शेष सब हँसने लगे तो वह झेप गयी।

“उपहास क्यों कर रहे हो उसका ?” ब्रह्मा ने भाइयों को डाँटने का अभिनय किया। चन्द्रनखा प्रसन्न हो गयी। तभी सबने देखा कि सामने एक रजत थाल में ढेर सारे मालपूये रखे हैं। चन्द्रखा ने उन्हें उठाने का प्रयास किया तो उसके हाथ में बालू आ गई। सारे भाई इस बार खिलखिला कर हँस पड़े। पर यह हँसी बीच में ही रुक गयी। सबको ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने मालपूये खाये हों। आहा क्या स्वाद था? जैसा उन्होंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।

सब संतुष्ट थे।

“और कुछ?” ब्रह्मा ने पूछा

“पितामह श्राप भी इसी तरह से होता होगा?" रावण ने प्रश्न किया।

“हाँ पुत्र! यदि कोई ऋषि यह कहे कि वह श्राप देकर किसी को भस्म कर देगा तो वह ऐसा नहीं कर सकता। वह मात्र सामने वाले को सम्मोहित कर जलन की भावना दे सकता है। उसे यह अनुभव करा सकता है कि वह लपटों में घिरा हुआ हैं। वस्तुत: भस्म करने जितनी शक्ति उपार्जित करने हेतु इतनी साधना और इतने अभ्यास की आवश्यकता होती हैं जो अत्यल्प ऋषियों के पास ही है। वे जब अपनी सम्पूर्ण मानसिक शक्ति किसी एक विशेष बिन्दु पर एकाग्र कर उसे भस्म कर देने की अभिलाषा करते हैं तो वह बिन्दु प्रज्ज्वलित हो उठता है। किन्तु पहले ही बताया कि इस स्तर तक अत्यल्प ऋषि ही पहुँच पाते हैं। इस स्तर को सम्पूर्ण रूप से मात्र शिव, विष्णु और मैंने प्राप्त किया है। कुछ ऋषि-गण भी न्यूनाधिक मात्रा में यह शक्ति अर्जित कर पाये हैं। तथापि इसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि पुन: सुदीर्घ साधना की आवश्यकता पड़ती है उसे पुन: प्राप्त करने हेतु।”

“पितामह जिस प्रकार आपने कहा कि आप बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे मिष्ठान्न में परिवर्तित कर सकते हैं। उसी प्रकार बालू के गुण-धर्म परिवर्तित कर उसे अग्नि में भी तो परिवर्तित किया जा सकता होगा। यही क्रिया मनुष्य के शरीर के साथ भी तो संभव होगी?" रावण ने पूछा।

“हाँ वत्स! किन्तु मैंने बताया न कि उसमें इतनी मानसिक शक्ति व्यय हो जाती है कि उसके पुन: उपार्जन हेतु पुन: सुदीर्घ साधना की आवश्यकता होती हैं। अत: कोई भी ऋषि ऐसे प्रयोग नहीं करता। यदि कोई करता है तो अत्यंत क्रोध की अवस्था में ही करता है... और क्रोध में तो मानसिक शक्ति का वैसे ही त्वरित गति से क्षय होता हैं। ऐसा ऋषि अति शीघ्र ही साधारण व्यक्ति की कोटि में आ जाता है। "

“पितामह! आपने मेरी अभिलाषा पूछी ही नहीं!"

 कुंभकर्ण अचानक बीच में ही बोल पड़ा वार्ता का रुख पुन: गंभीर से सहज हो गया।

ब्रह्मा बोले -

“अगली बारी तुम्हारी ही है। किन्तु प्रथम रावण की अभिलाषा पर तो वार्ता सम्पूर्ण हो जाये।"

“चलिये उचित ही है। यह अग्रज होने के कारण सदैव लाभ में रहता है। " सब हँस पड़े। 

“देखो प्रत्येक व्यक्ति जिसे वह प्यार करता है उसकी सहायता हेतु बिना कहे तत्पर रहता है। है न?"

सबके सिर सहमति में हिलने लगे।

“अगर विभीषण पर कोई वार करेगा तो क्या कुंभकर्ण यह प्रतीक्षा करेगा कि विभीषण सहायता माँगे तब वह जाकर उसे बचाये?"

“कैसी बात कर दी पितामह आपने? मैं तत्काल उस दुस्साहसी को धराशायी कर दूँगा।"

“बस ऐसे ही मैं, तुम्हारे पितामह और पिता भी, तीनों ही तुम लोगों से अत्यधिक प्यार करते हैं। जब भी तुम्हें हमारी सहायता की आवश्यकता होगी, तब हम अवश्य तुम्हारी सहायता हेतु उपस्थित हो जायेंगे। अस्त्र-शस्त्रों के संचालन में मैं तुम्हें पूर्ण पारंगत कर ही दूँगा। अपने पास से नवीनतम दिव्यास्त्र भी तुम्हें दूँगा। तुम्हें ऐसे दुर्धर्ष योद्धा के रूप में विकसित करूँगा जिसके सारा संसार भयभीत रहेगा। किन्तु एक बात सदैव ध्यान रखना अपनी शक्ति का दुरुपयोग कदापि मत करना। तुम्हारी यह अभिलाषा भी पूर्ण होगी कि देव, दानव आदि कोई भी तुम्हारा वध न कर पाये| मैं तत्काल वार और तुम्हारे मध्य उपस्थित होकर तुम्हारी सुरक्षा करूँगा। हाँ यदि तुम्हारी आयु पूर्ण हो ही गयी होगी तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाऊँगा। कोई न कोई ऐसा व्यवधान उपस्थित हो ही जायेगा कि मैं सहायता नहीं कर पाऊँगा और जैसा तुम सोचते हो कि मनुष्यों से तुम्हें कोई भय नहीं है तो उनसे तुम्हारे युद्ध में में हस्तक्षेप नहीं करूँगा। यह मुझे शोभा भी नहीं देता कि किसी दुर्बल के विरुद्ध तुम्हारे युद्ध में मैं तुम्हारी सहायता हेतु आऊँ  उचित है न?"

“जी पितामह!"

“किन्तु मैं मात्र तुम्हारी सुरक्षा ही कर सकता हूँ, युद्ध तो प्रत्येक अवस्था में तुम्हें स्वयं ही करना होगा। "

“आप तो सब जानते हैं पितामहा यह भी जानते होंगे कि ऐसा समय कब आयेगा जब चाह कर भी आप मेरी सहायता नहीं कर पायेंगे।”

 “चतुर हो । किन्तु सत्य तो यह है कि इसके लिये मुझे तुम्हारे जन्मांग पर विचार करना होगा। अभी तो मैं तुमसे भेंट की उत्सुकता में ऐसे ही आ गया। तुम्हारा जन्मांग तो देखा ही नहीं है अभी। किन्तु इतना तो निश्चित है कि ऐसा समय निकट भविष्य में नहीं आने वाला।"

“जी पितामहा देखियेगा अवश्य जन्मांग! "

“अवश्य देखूँगा पुत्रो मुझे स्वयं उत्सुकता रहेगी।"

“अब मेरी बारी?” कुंभकर्ण अपने को रोक नहीं पा रहा था।

“हाँ बोलो, अब तुम्हारी बारी । " ब्रह्मा ने उसकी चंचलता का आनंद लेते हुये कहा

“पितामह मैं तो चाहता हूँ कि मैं बस सोता ही रहूँ... सोता ही रहूँ।”

“इसके लिये तो मुझे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। अपना भोजन और बढ़ा दो।आवश्यकता से दूजा चौगुना खाओगे तो वैसे ही भोजन के मद में पड़े रहोगे।”

“किन्तु पितामह माता देती ही नहीं। कहती हैं पेट खराब हो जायेगा, हानि पहुँचायेगा|” “कुछ यौगिक क्रियाएँ सिखा दूँगा, कुछ विलक्षण औषधियाँ बतला दूँगा जिनसे वह भोजन तुम्हारे शरीर को पुष्ट ही करेगा, हानि कदापि नहीं करेगा।"

 ब्रह्मा कहा। 

फिर बाकी तीनों से बोले “तुम लोग माता को बता देना कि इसे जितना यह खा पाये उतना भोजन दें। यह सब पचा लेगा और फिर इतना शक्तिशाली बन जायेगा कि सम्पूर्ण जगत आश्चर्य करेगा। कह दोगे ?"

“जी पितामहा” 

सबने समवेत स्वर में कहा। कुंभकर्ण तो इस बात से खुशी से उछल ही पड़ा- “ये बात हुई पितामहा "

“अच्छा अब तुम बताओ विभीषण। तुम बहुत शांत बैठे हो ।”

“मेरी कोई अभिलाषा नहीं पितामह! बस प्रभु के चरणों में चित्त लगा रहे। बुद्धि सदैव शुद्ध दे पिता से सीखी विद्याओं में आस्था बनी रहे"

“मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं वत्स! ऐसा ही होगा।"

विभीषण की इस इच्छा का मर्म अभी इनमें से कोई नहीं समझता था। स्वयं विभीषण भी।

“अच्छा अब तुम बताओ चन्द्रनखे !"

“मैं तो पितामह मात्र इतना चाहती हूँ कि मैं विश्व की सबसे सुन्दर नारी बनूं।”

ब्रह्मा फिर खुलकर हँसे - “वह तो तुम वैसे ही हो, विश्व की सबसे सुन्दर कन्या। भाइयों के साथ योगाभ्यास करती रहना बस अपने आप बन जाओगी विश्व की सबसे सुन्दर कन्या से सबसे सुन्दर नारी ।” 

“पितामह! आइये घर चलिये न! मातामह, माता, मातुल आदि सभी कितना प्रसन्न होंगे आपसे मिलकर " 

“नहीं पुत्री अभी नहीं। अभी तो पहले ही अत्यंत विलम्ब हो गया है। अब तो चलूँगा| चलो प्रणाम करो सब " ब्रह्मा ने आनंदित मन से कहा।

लड़कों ने दंडवत कर और चन्द्रनखा ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। ब्रह्मा ने पूरे मन से उन्हें आशीर्वाद दिया। उनका समय अपने इन बच्चों के साथ अत्यंत आनंद में व्यतीत हुआ था। वे अत्यंत प्रफुल्लित थे। और फिर देखते ही देखते वह छवि धूमिल होकर विलुप्त हो गयी। ब्रह्मा अन्तध्यान गये थे।


उधर वृक्षों के झुरमुट में छुपा सुमाली सोच रहा था कि आज उसकी तपस्या पूर्ण हुई। अब उसे छिप कर रहने की आवश्यकता नहीं रही। वह निशंक हो कर कहीं भी जा सकता है अपने इन सौभाग्यशाली दौहित्रों के साथा इनका ब्रह्मा के साथ संबंध स्वत: अब सर्वज्ञात हो जायेगा। ये अभय हो जायेंगे। अब रावण को लंका हस्तगत करने के लिये उकसाने का समय आ गया है।




सुलभ अग्निहोत्री 



सोमवार, 20 जून 2022


घमंडी का सिर नीचा


नारियल के पेड़ बड़े ही ऊँचे होते हैं और देखने में बहुत सुंदर होते हैं। एक बार एक नदी के किनारे नारियल का पेड़ लगा हुआ था। उस पर लगे नारियल को अपने पेड़ के सुंदर होने पर बहुत गर्व था। 

सबसे ऊँचाई पर बैठने का भी उसे बहुत अभिमान था।.इस कारण घमंड में चूर नारियल हमेशा ही नदी के किनारे पड़े पत्थर को तुच्छ पड़ा हुआ कहकर उसका अपमान करता रहता तथा मजाक उड़ाता !

एक बार, एक शिल्प कार उस पत्थर को लेकर बैठ गया और उसे तराशने के लिए उस पर तरह – तरह से प्रहार करने लगा।

यह देख नारियल को और अधिक आनंद आ गया उसने पत्थर से कहा – 

ऐ पत्थर ! तेरी भी क्या जिन्दगी हैं पहले उस नदी में पड़ा रहकर इधर- उधर टकराया करता था और बाहर आने पर मनुष्य के पैरों तले रौंदा जाता था और आज तो हद ही हो गई। ये शिल्पी तुझे हर तरफ से चोट मार रहा हैं और तू पड़ा देख रहा हैं। अरे ! अपमान की भी सीमा होती हैं। कैसी तुच्छ जिन्दगी जी रहा हैं। मुझे देख कितने शान से इस ऊँचे वृक्ष पर बैठता हूँ।


 पत्थर ने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया। नारियल रोज इसी तरह पत्थर को अपमानित करता रहता।

कुछ दिनों बाद, उस शिल्पकार ने पत्थर को तराशकर शालिग्राम 

बनाये और पूर्ण आदर के साथ उनकी स्थापना मंदिर में की गई।


पूजा के लिए नारियल को पत्थर के बने उन शालिग्राम के चरणों में चढ़ाया गया। 

इस पर पत्थर ने नारियल से कहा – 

नारियल भाई ! कष्ट सहकर मुझे जो जीवन मिला उसे ईश्वर की प्रतिमा का मान मिला। मैं आज तराशने पर ईश्वर के समतुल्य माना गया। जो सदैव अपने कर्म करते हैं वे आदर के पात्र बनते हैं। लेकिन जो अहंकार/ घमंड का भार लिए घूमते हैं वो नीचे आ गिरते हैं। ईश्वर के लिए समर्पण का महत्व हैं घमंड का नहीं।

पूरी बात नारियल ने सिर झुकाकर स्वीकार की जिस पर नदी बोली इसे ही कहते हैं घमंडी का सिर नीचा ।

।।हरिबोल।।




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...