सुमित्रा के प्रासाद में महाराज न के बराबर ही आते थे किन्तु उसे इसकी कोई व्यथा नहीं थी । उसने तो काशी को दशरथ के प्रकोप से बचाने के लिये ही उनसे विवाह किया था। दूसरे शब्दों में इसे विवाह नहीं आत्मोत्सर्ग भी कह सकते हैं। इस विवाह से उसकी जन्मभूमि और वहाँ के निवासियों की रक्षा हो सकी थी इसी से वह संतुष्ट थी। अयोध्या में वह बुरी से बुरी परिस्थिति के लिये मानसिक रूप से तैयार होकर आई थी।
वैसे भी यदि महाराज से संयोग या उनकी स्नेहिल छाया को छोड़ दिया जाये तो परिस्थितियाँ अच्छी ही थीं। वह कोशल की रानी थी, इस नाते उसे सर्वत्र पूरा सम्मान प्राप्त था। सबसे बड़ा सौभाग्य तो यह था कि दोनों ज्येष्ठ रानियाँ उससे भगिनीवत स्नेह करती थीं। तीनों रानियाँ परस्पर एक-प्राण थीं। मँझली रानी कैकेयी, महाराज की विशेष कृपापात्र होते हुए भी निरहंकार थी |
सौभाग्य से ऐसा ही सहज स्नेह चारों कुमारों में भी था। चारों ही एक प्राण थे। चारों कुमार रात्रि में ही अपनी माताओं के पास आते थे, सम्पूर्ण दिवस तो वे परस्पर एक साथ ही रहते थे| साथ खेलते, साथ खाते और साथ ही विनोदपूर्ण कौतुक (शैतानी) करते। दिन के समय उन्हें अलग कर पाना संभव नहीं था। तीनों रानियों को इसमें कोई आपति भी नहीं थी। उनके इस परस्पर स्नेह से तीनों प्रसन्न ही थीं। तीनों को ही राम सबसे अधिक प्यारे थे।
आज भी सूर्यास्त के उपरांत ही कुमार लक्ष्मण और कुमार शत्रुघ्न माता के प्रासाद में आये थे।
“माता-माता! आज अनंत (अत्यंत) आनंद आया ।” दौड़कर आते हुये लक्ष्मण ने कहा “हाँ माता!” उसके पीछे-पीछे शत्रुघ्न भी आ गये।
“अच्छा! तो ऐसा क्या किया जिसमें 'अनंत' आनंद आया ?” सुमित्रा ने लक्ष्मण की नकल करते हुए कहा। कहने के साथ ही उसने अपनी दोनों बाहें फैला दीं, दोनों पुत्र उन बाहों में समा गये।
"हम ना... हम ना ..." लक्ष्मण ने हाथ से पकड़ कर सुमित्रा का मुख अपनी ओर करते हुये कहा। प्रसन्नता और उत्तेजना के कारण वह सही से बोल ही नहीं पा रहा था। उसी बीच शत्रुघ्न ने अपने दोनों हाथों से चेहरा अपनी ओर मोड़ने का प्रयास आरंभ कर दिया “नहीं मैं बताऊगा?"
“अरे-अरे लड़ो नहीं।” ऐसी स्थितियों में दोनों को संतुष्ट रख पाना अत्यंत कठिन परीक्षा होती थी किन्तु अब तक सुमित्रा ऐसी परीक्षाओं का सफलतापूर्वक सामना करने में पारंगत हो गयी थी। उसने अपने हाथों से पकड़ कर दोनों को अलग-अलग खड़ा करते हुये कहा “एक साथ नहीं! एक-एक कर जिससे मैं पूछें वह बतायेगा । ठीक ?”“
मुझ से पूछिये!” दोनों ने एक साथ कहा।
“बड़ा कौन ?”
“मैं!" लक्ष्मण ने हाथ उठा दिया।
“इसे कहीं बड़ा कहते हैं, कुछ पल ही तो बड़ा हैं।” शत्रुघ्न ने प्रतिवाद किया
“तो क्या हुआ! बड़ा तो बड़ा है।” सुमित्रा लक्ष्मण की ओर आकृष्ट होती हुई बोली - “तुम बताओ लक्ष्मण कहाँ-कहाँ गये थे आज ?”
“राजसभा, फिर..."
“नहीं पहले भ्राता राम के कच्छ (कक्ष) में" शत्रुघ्न ने लक्ष्मण की बात काटते हुये संशोधन किया।
“हाँ पहले भ्राता राम के कच्छ में, फिर उनको लेकर भ्राता भरत के कच्छ में, फिर राजसभा, फिर उद्यान में। "
“और भोजन कहाँ किया था? - शत्रुघ्न तुम बताओ।"
"भ्राता भरत के कच्छ में। माता... मझली माता ने इतने सादिस्ट (स्वादिष्ट) पकवान खिलाये थे कि बस आनंद आ गया।"
“और बड़ी माँ ने क्या-क्या खिलाया ?”
“माखन- मिरारी | " दोनों एक साथ बोले। इस बार सुमित्रा किसी एक का नाम लेना भूल जो गयी थी।
“और सबसे अधिक आनन्द कहाँ आया? लक्ष्मण तुम बताओ। ”
“उद्यान में। पता माँ वहाँ हम खूब दौड़े। मैं तो वृक्ष पर भी चढ़ा।"
"मैं भी तो चढ़ा।"
“हाँ ये भी चढ़ा "
“और तुम्हारे भ्राता राम-भरत? वे नहीं चढ़े? शत्रुघ्न !”
“वे दोनों तो अति सरल हैं। वे तो पिताजी जितना कहते हैं उतना ही करते हैं । "
“विशेष कर भ्राता रामा" लक्ष्मण ने स्थिति और अधिक स्पष्ट की।
“तो पिताजी ने मना किया था वृक्ष पर चढ़ने को, फिर भी तुम लोग चढ़े।” सुमित्रा ने कठिनाई से अपनी हँसी रोकते हुये डॉट पिलायी।
दोनों ने जीभ दाब ली। भ्राता लोगों की खिंचाई करने के उत्साह में अपनी ही पोल खोल बैठे थे।
“अब ऐसा नहीं करेंगे माता । "
“अच्छा और क्या किया वृक्षों पर चढ़ने के अतिरिक्त?”
“इतने सारे पुष्प तोड़े" अपने दोनों हाथों को पूरा फैलाते हुये लक्ष्मण ने कहा- “और उनसे खूब होली खेली।"
“अच्छा ये तो खेल की बातें हो गयीं हैं। अब तो क्षुधा भी अनुभव हो रही होगी?”
“हाँ माता ! हो तो रही है।" लक्ष्मण ने कहा|
“अत्तधिक (अत्यधिक) हो रही हैं।” शत्रुघ्न ने बात और अधिक स्पष्ट की।
“ तो फिर हाथ-मुँह धोकर आओ शीघ्रता से । भोजन के उपरांत वार्ता करते हैं। ”
दोनों दौड़ गये।
सुमित्रा रसोई की ओर बढ़ गयी। सुमित्रा भी कौशल्या की ही भाँति अपनी और बच्चों की रसोई स्वयं करती थी । यद्यपि इस कार्य के लिये एक ब्राह्मण विधवा महाराजिन के रूप में थी किन्तु बच्चों को अपने हाथ का पका खिलाने का रान्तोष ही और होता है। शेष परिचारिकाओं और अन्य लोगों के लिये अलग भोजन की व्यवस्था होती थी जो महाराजिन बनाती थी। कैकेयी के प्रासाद में अवश्य समस्त भोजन रसोइयों द्वारा तैयार होता था। वहाँ महाराज प्राय: ही आते रहते थे।
रसोई के बाहर ही भोजन कक्ष था। उसी में सुमित्रा ने दो कुशासन बिछा दिये थे। दोनों बालक हाथ-मुँह धोकर आये और उन आसनों पर बैठ गये फिर समवेत पुकार लगायी -
"माता हम आ गये । "
सुमित्रा उनकी पुकार के साथ ही नन्हीं-नन्हीं रजत थालियों में भोजन लेकर आ गयी । जल पात्र उसने पहले ही रख दिये थे। फिर वह बोली
“आरम्भ करो ।”
" आप नहीं आयेंगी माता? लक्ष्मण ने कहा ।
"हाँ! आप भी आइये ना । " शत्रुघ्न ने कहा
“अच्छा आती हूँ!” कहने के साथ ही सुमित्रा ने आवाज लगाई- “माई!”
आवाज देने के बाद वह प्रतीक्षा के लिये रुकी नहीं। उसने एक कुशासन दोनों बालकों के सामने अपने लिये भी डाल लिया और अपनी थाली भी परस कर ले आई।
तभी महाराजिन भी आ गयी। वह बिना कुछ कहे ही अपना दायित्व समझ गयी थी अत: रसोई के द्वार पर खड़ी होकर प्रतीक्षा करने लगी कि जो भी आवश्यकता हो ले आये। बालकों ने सर्वप्रथम प्रत्येक व्यंजन में से थोड़ा-थोड़ा लेकर थाली की बगल में रखा । तदुपरांत हथेली में जल लेकर थाली के चारों ओर फिराया। फिर हाथ जोड़कर, आँखें बन्द कर प्रार्थना की और तब भोजन आरम्भ किया। सुमित्रा ने भी यही सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं।
“माता! आज पता है राम भइया ने क्या किया?" शत्रुघ्न ने भोजन करते-करते कहा ।
“भोजन करते समय बोला नहीं जाता। हैं न माँ!" लक्ष्मण ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया।
“हाँ पहले भोजन कर लो फिर आराम से बाहर वाटिका में घूमते हुये बातें करेंगे " सुमित्रा ने अपनी सम्मति देते हुये कहा।
भोजनोपरांत तीनों वाटिका में आ गये।
“अब बताओ शत्रुघ्न !"
“उद्यान में एक मृग शावक को चोट लग गयी थी। उससे लहू भी बह रहा था। वह चल भी नहीं पा रहा था । "
"अच्छा। तो क्या किया राम ने?" सुमित्रा ने आश्रर्य प्रकट करते हुए प्रश्न किया।
“तो न माता ! राम भइया ने उसके व्रण पर पट्टी कर दी। और न, हम सब लोग उससे बातें करते रहे।"
"अच्छा! यह तो बहुत अच्छा किया राम ने ”
“फिर न माता वह शावक हमारा मित्र बन गया। फिर तो वह हमारे पीछे ही घूमता रहा ”
“अरे वाह ! तब तो अब तुम लोग पाँच हो गये । ”
"हाँ माता।”
“और लक्ष्मण तुम कहाँ खोये हुये हो?” सुमित्रा ने लक्ष्य कर लिया था कि लक्ष्मण ने इस बीच वार्तालाप में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था।
“कहीं नहीं माता"
“चलो तो फिर दोनों अब मेरी ओर पूरा ध्यान दो। अत्यंत महत्वपूर्ण बात कहनी है। "
“कहिये माता।” दोनों बोले “हम पूरे ध्यान से सुन रहे हैं। "
“तो कौन से भ्राता तुम लोगों को अधिक अच्छे लगते हैं?” सुमित्रा के मस्तिष्क में नारद की बात घूम रही थी कि राम को एकाकी रावण के विरुद्ध अभियान पर जाना होगा। उसे राम की चिंता थी।
"दोनों ही । "
"यह तो बहुत अच्छी बात हैं। किन्तु तुम भी दो हो और भ्राता लोग भी दो हैं। हैं न?"
“जी!”
“ तुम लोगों ने कहा न कि दोनों भ्राता अत्यंत सरल हैं।”
“सो तो हैं माता
“और तुम दोनों चतुर हो ।”
“हाँ! सो तो हैं माता।" दोनों ने एक साथ कहा।
" किन्तु यह लक्ष्मण अधिक चतुर हैं। और क्रोधी भी है।” शत्रुघ्न ने कहा। ऐसा बहुत कम ही होता था कि दोनों में से कोई एक दूसरे की श्रेष्ठता स्वीकार कर ले। दोनों में प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता चलती रहती थी। स्वस्थ प्रतिद्वंदिता जो प्राय: सभी जुड़वाँ भाइयों या बहनों में रहती है।
“अच्छा अधिक सरल कौन सा भ्राता है?” सुमित्रा ने शत्रुघ्न द्वारा लक्ष्मण की श्रेष्ठता अस्वीकार किये जाने के विलक्षण अपवाद पर ध्यान नहीं दिया था ।
“भ्राता राम ” दोनों ने फिर एक साथ कहा। तात्पर्य कि इन बातों में दोनों का मतैक्य था।
“तो ऐसा करो कि दोनों ही एक-एक भ्राता का दायित्व ले लो। अन्यथा उन्हें सरल जान कर सभी मूर्ख बना दिया करेंगे । उचित है न ?”
“हाँ माता। यह तो बहुत उचित है।" लक्ष्मण ने कहा|
"सच यही उचित रहेगा ।" शत्रुघ्न ने कहा।
“हाँ माता। यह तो बहुत उचित है।" लक्ष्मण ने कहा
“सच यही उचित रहेगा । " शत्रुघ्न ने कहा|
"तो लक्ष्मण जो अधिक चतुर है वह राम के साथ सदैव रहेगा।”
"वह तो प्राय: रहता ही हैं।” शत्रुघ्न ने उद्घाटन किया।
“और शत्रुघ्न .."
“भ्राता भरत के साथ |” सुमित्रा की बात पूरी करते हुये लक्ष्मण बोला।
“हाँ! किन्तु प्राय: नहीं- सदैवा मात्र जब वे अपनी माता के प्रासाद में शयन हेतु जायें तब को छोड़कर वे जहाँ भी जायें उनका जोड़ीदार उनके साथ रहेगा ।"
“जी माता।”
“चाहे वे स्वयं मना करें अथवा कोई अन्य मना करे किन्तु ....
“हम नहीं मानेंगे। हम तो उनके साथ ही जायेंगे।” दोनों ने माता की बात पूरी की।
और उनकी सदैव, प्रत्येक परिस्थिति में सुरक्षा करेंगे।” सुमित्रा ने आगे बात जोड़ी।
सुमित्रा लक्ष्मण के मन में यह बात इतनी गहराई से रोप देना चाहती थी कि रावण के विरुद्ध अभियान में राम पूर्णत: एकाकी न हों। कम से कम एक भाई तो अवश्य ही उनका साथ देने को उनके साथ हो। वह चारों बालकों को इसी अवस्था में भली-भाँति समझ गयी थी। उसे पता था कि लक्ष्मण राम के समान बिना किसी प्रश्न के गुरुजनों की आज्ञा मानने वाला नहीं था। वह आज्ञाकारी था किन्तु तब भी अपने विवेक का प्रयोग करता था और यदि वह किसी बात पर दृढ़ हो जाता था तो फिर उसे कोई नहीं डिगा सकता था।
वह सोच रही थी "लक्ष्मण की इस दृढ़ता को इतना प्रबल करना हैं ताकि वह प्रत्येक संकट में परछाई के समान राम के साथ उपस्थित हो।”
सुलभ अग्निहोत्री
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