बुधवार, 1 सितंबर 2021

 एक सम्राट बूढ़ा हो गया था। उसके तीन लड़के थे। और तीनों के बीच में उसे निर्णय करना था कि किसे राज्य को सौंप दे। बड़ी कठिनाई थी। वे तीनों लड़के सभी भांति एक-दूसरे से ज्यादा योग्य थे। तय करना कठिन था-- किसकी क्षमता, किसकी योग्यता ज्यादा है। तो उस सम्राट ने अपने बूढ़े नौकर को पूछा, जो कि गांव का एक किसान था। उससे पूछाः मैं कैसे इस बात की पहचान करूं, कैसे इस बात को जानूं कि कौन सा युवक राज्य को सम्हाल सकेगा और विकसित कर सकेगा?

उस किसान ने कहाः सरल और छोटी सी तरकीब है। और उसने कोई तरकीब सम्राट को बतलाई।

एक दिन सुबह सम्राट ने अपने तीनों लड़कों को बुलाया और उन्हें एक-एक बोरा गेहूं का भेंट किया और कहाः इसे सम्हाल कर रखना। मैं तीर्थयात्रा पर जाता हूं। शायद वर्ष लगें, दो वर्ष लगें। जब मैं लौटूं तो तुम उत्तरदायी होओगे इस अनाज के जो मैंने तुम्हें दिया। इसे सुरक्षित वापस लौटाना जरूरी है।

यह दायित्व सौंप कर वह सम्राट तीर्थयात्रा पर चला गया।

बड़े लड़के ने सोचाः गेहूं को सम्हाल कर रखना जरूरी है। उसने तिजोड़ी में गेहूं बंद कर दिए और भारी ताले उसके ऊपर लटका दिए, ताकि एक भी दाना खो न जाए और पिता जब लौटे तो उसे पूरे दाने वापस किए जा सकें।

उससे छोटे भाई ने सोचाः दाने तिजोड़ी में बंद करके रख दूंगा, पता नहीं पिता कब तक आएं, दाने सड़ जाएं और राख हो जाएं, तो मैं क्या लौटाऊंगा? तो उसने उन दानों को एक खेत में फिंकवा दिया, ताकि उनसे फसल पैदा हो और जब पिता आए तो ताजे दाने उसे वापस दिए जा सकें।

लेकिन उसने खेत में इस भांति फिंकवा दिया, जैसा कोई किसान कभी खेत में दानों को नहीं फेंकता है। न तो उसने यह बात देखी कि उस खेत के कंकड़-पत्थर अलग किए गए हैं, न उसने यह देखा कि उस खेत की घास-पात दूर की गई है। उसने इस बात की कोई फिकर न की, वह कोई किसान न था, वह एक राजकुमार था। उसे इस बात का कोई पता भी न था कि गेहूं कैसे पैदा होते हैं, बीज कैसे पौधे बनते हैं। उसने तो गेहूं फिंकवा दिए, जैसे कोई अंधकार में फेंक दे। और जहां फिंकवा दिए, न तो उस जमीन की जांच की गई कि वह जमीन कैसी थी! वहां अनाज पैदा होगा या नहीं होगा! वहां जो घास-पात है, पैदा हुए अनाज को वह समाप्त कर जाएगा, इसका भी कोई ख्याल नहीं रखा गया। और वह निश्चिंत हो गया। और वह निश्चिंत हो गया कि पिता जब आएंगे तब नये दाने वापस किए जा सकेंगे।

तीसरे छोटे भाई ने सोचाः दानों को घर में बंद करके रखना तो नासमझी होगी, नष्ट हो जाने के सिवाय और क्या परिणाम होगा! जैसा बड़े भाई ने किया है, वैसा करने को वह राजी न हुआ। दानों को बो देना जरूरी था, लेकिन अंधेरे में, और अपरिचित जमीन पर, और बिना तैयार की गई जमीन पर फेंक देना भी नासमझी थी। शायद, जैसा दूसरे भाई ने किया था, उससे भी दाने नष्ट हो जाएंगे। तो उसने एक खेत तैयार करवाया; उसकी भूमि तैयार करवाई; उसकी मिट्टी बदलवाई; उसके कंकड़-पत्थर दूर किए; उस पर घास-पात ऊगता था, उसे फिंकवाया; उसमें पुराने पौधों की जड़ें थीं, उनको दूर किया; और जब भूमि तैयार हो गई तो उसने वह अनाज उसमें बो दिया।

कोई तीन वर्ष बाद पिता वापस लौटा। बड़े लड़के ने तिजोड़ी खोल कर बता दी, वहां राख का ढेर था, और कुछ भी नहीं।

पिता ने कहाः मैंने तुम्हें जीवित दाने दिए थे, जिनमें बड़ी संभावना थी, जो विकसित हो सकते थे और हजारों गुना हो सकते थे तीन वर्षों में। लेकिन तुमने उन सारे दानों को मिट्टी कर दिया। जो जीवित थे, वे मृत हो गए; जो संभावना थी, वह समाप्त हो गई; जो विकास हो सकता था, वह नहीं हुआ। राज्य देकर तुम्हें मैं क्या करूंगा? उस राज्य की भी यही दशा हो जाएगी।

दूसरे युवक से पूछाः कहां हैं दाने?

वह उस पथरीली जमीन पर ले गया, जहां उसने दाने फिंकवा दिए थे। वहां न तो कोई पौधे पैदा हुए थे, न कोई फसल आई थी। और न ही इन तीन वर्षों में वह कभी देखने गया था कि वहां क्या है। वहां तो घास-पात खड़ा हुआ था, वहां तो जंगल था।

उसके पिता ने पूछाः कहां हैं दाने?

उसने कहाः मैंने तो बो दिए थे। उसके बाद मुझे कोई भी पता नहीं।

पिता ने पूछाः कैसी जमीन पर बोए थे?

उसने कहा कि यह भी मुझे कुछ पता नहीं, इसी जमीन पर फिंकवा दिए थे। सोचा था, जब जमीन पर बिना बोए इतने पौधे पैदा होते रहते हैं, इतने वृक्ष, इतना घास-पात भगवान पैदा करता है, तो क्या मेरे दानों पर थोड़ी सी कृपा नहीं करेगा? इतनी बड़ी जमीन है, इतना सब पैदा होता है, तो मेरे दानों पर भगवान कृपा नहीं करेगा?

लेकिन भगवान ने कोई कृपा नहीं की। वे दाने सड़ गए होंगे, दब गए होंगे, उनमें अंकुर भी नहीं आए होंगे। और हो सकता है अंकुर भी आए हों, तो उनकी जड़ें न पहुंच सकी होंगी जमीन तक, पत्थरों ने रोक ली होंगी। हो सकता है उनकी जड़ें भी पहुंच गई हों, तो वे घास-पात में कहां खो गए होंगे, किसको क्या पता था! न उनकी पहले से भूमि तैयार की गई थी और न पीछे उनकी कोई रक्षा की गई थी।

उसके पिता ने कहाः राज्य तुझे भी देने में मैं असमर्थ हूं। क्योंकि जो बीज बोने के पहले यह भी नहीं देखता कि भूमि तैयार है या नहीं, वह राज्य के साथ क्या करेगा, यह भी मैं विचार कर सकता हूं।

उसने अपने तीसरे लड़के को पूछा कि क्या हुआ?

लड़का उसे खेत पर ले गया। जितने दाने पिता दे गया था, तीन वर्षों में हजारों गुना फसल हो गई थी। फेर बड़ा से बड़ा होता गया था। हर वर्ष जितना पैदा हुआ था, उसको उसने फिर बीज के रूप में प्रयोग किया था।

पिता देख कर हैरान हो गया। एक लहलहाता खेत खड़ा हुआ था, जिसमें जिंदगी थी, हवाएं जिसकी सुगंध को दूर तक ले जा रही थीं। सूरज की रोशनी जिसके ऊपर चमक रही थी और प्रसन्न हो रही थी। उसके खेत को देख कर पिता का हृदय भी उतना ही हरा हो उठा और उसने कहाः राज्य को तू ही सम्हाल सकेगा। क्योंकि जो छोटे-छोटे बीजों को भी नहीं सम्हाल सकते, वे इतनी बड़ी विराट संभावनाओं को सम्हालने के मालिक नहीं हो सकते। वह राज्य उस छोटे लड़के को दे दिया गया।

 परमात्मा भी हम सबके पास बीज-रूप में बड़ी संभावनाएं देता है। वह परमात्मा भी हमें एक बड़ा राज्य देने के लिए उत्सुक है। उसकी भी बड़ी गहरी आकांक्षा है कि हमारे जीवन में हरियाली हो, जीवन हो, किरणें हों, खुशी हो, आनंद हो। और हम सबको वह बराबर संपत्ति दे देता है कि तुम इसे बढ़ाओ और विकसित करो।

लेकिन हम भी तीन लड़कों की भांति सिद्ध होते हैं। हममें से कुछ लोग तो उस संपत्ति को तिजोड़ियों में बंद कर देते हैं, और मरते वक्त तक वह राख होकर समाप्त हो जाती है। हममें से कुछ उसे बोते हैं, लेकिन खेत की, भूमि की कोई फिकर नहीं करते। तब वह बोई तो जाती है, लेकिन कोई परिणाम नहीं आता। बहुत थोड़े से लोग हैं हमारे बीच, परमात्मा जो हमें देता है उसकी फसल को काटते हैं, उसे विकसित करते हैं। जन्म के साथ उन्हें जो मिलता है, मृत्यु के साथ उससे हजार गुना वे परमात्मा को वापस कर देते हैं। जो आदमी, जन्म के साथ जो कुछ लेकर आता है, मृत्यु के समय अगर हजार गुना वापस करने के लिए उसकी तैयारी नहीं है, तो वह समझ ले कि उसके जीवन में कोई सार्थकता का, कोई कृतार्थता का, कोई आनंद का विकास नहीं होगा। और वह समझ ले, उसने एक बड़े दायित्व से, एक बड़ी रिस्पांसिबिलिटी से पीठ मोड़ ली। और इसके परिणाम में उसे दुख झेलना होगा, पीड़ा और चिंता झेलनी होगी।

हम सबको भी जीवन विकास करने को उपलब्ध होता है। लेकिन हम उसके साथ क्या करते हैं?  पहली बात, जैसे किसान खेत की भूमि तैयार करता है, वैसे ही हमें अपने मन को भी तैयार करना होगा। हमें भी अपने मन की भूमि को तैयार करना होगा। और तैयारी में पहली बात जो करनी होगी वह यह कि मन से सारे कंकड़-पत्थर अलग कर देने होंगे। मन से घास-पात अलग कर देना होगा। मन से उखाड़ फेंकनी होंगी वे सब जड़ें जो न मालूम कितने दिनों से हमारे मन में घर किए हुए हैं, ताकि नई फसल हो सके।

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

 अगर ईश्वर के राज्य में पहुंचना ही लक्ष्य हो, तो ईश्वर ने हमें पटका क्यों है? वह हमें पहले से ही राज्य(स्वर्ग) में बसा सकता था! अगर ईसाइयत कहती है कि चूंकि आदमी ने बगावत की ईश्वर के खिलाफ, अदम ने आज्ञा नहीं मानी और आदमी को संसार में भटकाना पड़ा। तो भी बड़ी हैरानी की बात लगती है कि अदम अवज्ञा कर सका, इसका मतलब यह है कि ईश्वर की ताकत अदम की ताकत से कम है। अदम बगावत कर सका, इसका मतलब यह होता है कि अदम जो है, वह ईश्वर से भी ज्यादा ताकत रखता है, बगावत कर सकता है, स्वतंत्र हो सकता है।


और बड़ी कठिनाई है कि अदम में यह बगावत का खयाल किसने डाला? क्योंकि ईसाइयत कहती है कि सभी कुछ का निर्माता ईश्वर है, तो इस आदमी को यह बगावत का खयाल किसने डाला? वे कहते हैं, शैतान ने। लेकिन शैतान को कौन बनाता है?


बड़ी मुसीबत है। धर्मों की भी बड़ी मुसीबत है। जो उत्तर देते हैं, उससे और मुसीबत में पड़ते हैं। शैतान को भी ईश्वर ने बनाया। इबलीस जो है, वह भी ईश्वर का बनाया हुआ है, और उसी ने इसको भड़काया!


तो ईश्वर को क्या इतना भी पता नहीं था कि इबलीस को मैं बनाऊंगा, तो यह आदमी को भड़कायेगा! और आदमी भड़केगा, तो पतित होगा। पतित होगा, तो संसार (जमीन) में जाएगा। और फिर ईसा मसीह को भेजो, साधु—संन्यासियों को भेजो, अवतारों को भेजो, कि मुक्त हो जाओ। यह सब उपद्रव! क्या उसे पता नहीं था इतना भी? क्या भविष्य उसे भी अज्ञात है? अगर भविष्य अज्ञात है, तो वह भी आदमी जैसा अज्ञानी है। और अगर भविष्य उसे ज्ञात है, तो सारी जिम्मेवारी उसकी है। फिर यह उपद्रव क्यों?

नहीं। हिंदुओं के पास एक अनूठा उत्तर है, जो जमीन पर किसी ने भी नहीं खोजा। वह दूसरा उत्तर है। वे कहते हैं, इस जगत का कोई प्रयोजन नहीं है, यह लीला है।


इसे थोड़ा समझ लें।


वे कहते हैं, इसका कोई प्रयोजन नहीं है, यह सिर्फ खेल है— जस्ट ए प्ले। यह बड़ा दूसरा उत्तर है। क्योंकि खेल में और काम में एक फर्क है। काम में प्रयोजन होता है, खेल में प्रयोजन नहीं होता।



सोमवार, 30 अगस्त 2021

श्रीमद्भागवत

 जो लोग श्रीमद्भागवत को या गीता को केवल साहित्य मानते हैं, लिटरेचर मानते हैं, ऐतिहासिक घटनाएं नहीं, जो ऐसा नहीं मानते कि कृष्‍ण और अर्जुन के बीच जो घटना घटी है, वह वस्तुत: घटी है; जो ऐसा भी नहीं मानते कि संजय ने किसी वास्तविक घटना की खबर दी है या कि धृतराष्ट्र कोई वास्तविक व्यक्ति हैं, बल्कि जो मानते हैं कि वे चारों, व्यास ने जो महासाहित्य लिखा है, उसके चार पात्र हैं।

जो ऐसा मानते हैं, उनके लिए तो व्यास की प्रतिभा मौलिक हो जाती है, मूल आधार हो जाती है और शेष सब पात्र हो जाते हैं। तब तो सारा व्यास की ही प्रतिभा का खेल है।  इस महाकाव्य में  सब पात्र हैं और व्यास की प्रतिभा से जन्मे हैं।

ऐसा भारतीय परंपरा का मानना नहीं है। और न ही जो धर्म को समझते हैं, वे ऐसा मानने को तैयार हो सकते हैं। तब स्थिति बिलकुल उलटी हो जाती है। तब व्यास केवल लिपिबद्ध करने वाले रह जाते हैं। तब घटना तो कृष्‍ण और अर्जुन के बीच घटती है। उस घटना को पकड़ने वाला संजय है। वह पकड़ने की घटना संजय और धृतराष्ट्र के बीच घटती है। लेकिन उसे लिपिबद्ध करने का काम हमारे और व्यास के बीच घटित होता है। वह तीसरा तल है। जो हुआ है, उसे संजय ने कहा है। जो संजय ने कहा है धृतराष्ट्र को, उसे व्यास ने संगृहीत किया है, उसे लिपिबद्ध किया है।

अगर साहित्य है केवल, तब तो व्यास निर्माता हैं, और कृष्ण, अर्जुन, संजय, धृतराष्ट्र, सब उनके हाथ के खिलौने हैं। अगर यह वास्तविक घटना है, अगर यह इतिहास है, न केवल बाहर की आंखों से देखे जाने वाला, बल्कि भीतर घटित होने वाला भी, तब व्यास केवल लिपिबद्ध करने वाले रह जाते हैं। वे केवल लेखक हैं। और पुराने अर्थों में लेखक का इतना ही अर्थ था, वह लिपिबद्ध कर रहा है।

हमारे और व्यास के बीच गहरा संबंध है। क्योंकि संजय ने जो कहा है, वह धृतराष्ट्र से कहा है। अगर बात कही हुई ही होती, तो खो गई होती। हमारे लिए संगृहीत व्यास ने किया। हमारे तो निकटतम व्यास हैं। लेकिन मूल घटना कृष्ण और अर्जुन के बीच घटी, और मूल घटना को शब्दों में पकड़ने का काम संजय और धृतराष्ट्र के बीच हुआ है। हमारे और व्यास के बीच भी कुछ घट रहा है—उन शब्दों को संगृहीत करने का।

और इसीलिए व्यास के नाम से बहुत से ग्रंथ हैं। और जो लोग पाश्चात्य शोध के नियमों को मानकर चलते हैं, उन्हें बड़ी कठिनाई होती है कि एक ही व्यक्ति ने, एक ही व्यास ने इतने ग्रंथ कैसे लिखे होंगे

सच तो यह हैं कि व्यास से व्यक्ति के नाम का कोई संबंध नहीं है। व्यास तो लिखने वाले को कहा गया है। किसी ने भी लिखा हो, व्यास ने लिखा है, लिखने वाले ने लिखा है। कोई एक व्यक्ति ने ये सारे शास्त्र नहीं लिखे हैं। लेकिन लिखने वाले ने अपने को कोई मूल्य नहीं दिया, क्योंकि वह केवल लिपिबद्ध कर रहा है। उसके नाम की कोई जरूरत भी नहीं है। जैसे टेप—रिकार्डर रिकार्ड कर रहा हो, ऐसे ही कोई व्यक्ति लिपिबद्ध कर रहा हो, तो लिपिबद्ध करने वाले ने अपने को कोई मूल्य नहीं दिया। और इसलिए एक सामूहिक संबोधन, व्यास, जिसने लिखा। वह सामूहिक संबोधन है; वह किसी एक व्यक्ति का नाम भी नहीं है।

लेकिन हमारे लिए तो लिखी गई बात अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसलिए व्यास को हमने महर्षि कहा है। जिसने लिखा है, उसने हमारे लिए संगृहीत किया है, अन्यथा बात खो जाती।

निश्चित ही, संजय के कहने में और व्यास के लिखने में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि लिखने में और कहने में किसी अंतर की कोई जरूरत नहीं है। अंतर तो घटित हुआ है, कृष्ण के देखने में और संजय के कहने में। जो कहा जा सकता है, वह लिखा भी जा सकता है। लिखना और कहना दो विधियां हैं। कहने में और लिखने में कोई अंतर पड़ने की जरूरत नहीं है।

 वे परिधि के बाहर हैं। हमारे लिए उनकी बहुत जरूरत है। हमारे पास गीता बचती भी नहीं। व्यास के बिना बचने का कोई उपाय न था।  ये चार व्यक्ति ही घटना के भीतर गहरे हैं। व्यास का होना बाहर है, परिधि पर है।

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...