शनिवार, 7 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 11 भाग 1

 विराट से साक्षात की तैयारी


      अर्जुन उवाच:


मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।

यत्वयोक्तं वचस्तेन मोहोउयं विगतो मम।। 1।।

भवाध्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।

त्वत: कमलयत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।। 2।।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।

द्रष्ट्रमिच्छामि ते रूपमैश्वरं गुरुषोत्तम।। 3।।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रछमिति प्रभो।

योगेश्वर ततो मे त्‍वं दर्शयात्मानमव्ययम्।। 4।।


श्रीभगवानुवान:


पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोउथ सहस्रश:।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।। 5।।


यश्यादित्यान्वसून्क्रद्रानश्विनौ मरूतस्तथा।

बहून्यदृष्टयूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।। 6।।

ड़हैकस्थं जगत्कृत्‍स्‍नं पश्याद्य सचराचरम्।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्दष्ट्रमिच्छसि।। 7।।


इस प्रकार श्रीकृष्ण के विभूति— योग पर कहे गए वचन सुनकर अर्जुन बोला हे भगवन— मुझ पर अनुग्रह करने के लिए परम गोपनीय अध्यात्म— विषयक वचन अर्थात उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है।

क्योंकि हे कमलनेत्रु मैने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना है।

हे परमेश्वर आप अपने को जैसा कहते हो यह ठीक ऐसा ही है। परंतु हे पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान ऐश्वर्य शक्ति बल वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। इसलिए हे प्रभो मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है ऐसा यदि मानते हैं तो हे योगेश्वर आप अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराईए।

इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले हे पार्थ मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख।

हे भरतवंशी अर्जुन मेरे में आदित्यों को अर्थात अदिति के द्वादश पूत्रों को और आठ वसुओं को एकादश रुद्रों को तथा दोनों अश्विनी कुमारों को और उनचास मरूदगणों को देख तथा और भी बहुत— से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख।

और हे अर्जुन अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए चराचर सहित संपूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है सो देख।


 अध्यात्म की अत्यधिक उलझी हुई पहेलियों में एक पहेली से ये सूत्र शुरू होते हैं। वह पहेली है कि प्रभु बिना श्रम किए मिलता नहीं। और साथ ही जब मिलता है, तो जिसे मिलता है, उसे लगता है कि मेरे श्रम का फल नहीं, प्रभु की अनुकंपा है। जो उसे पा लेता है, वह जानता है कि जो मैंने किया था, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और जो मैंने पाया है, वह सभी मूल्यों के अतीत है। जिसे मिलता है, वह समझ पाता है कि यह प्रसाद है,  अनुग्रह है। लेकिन जिसे नहीं मिला है, अगर वह यह समझ ले कि प्रभु प्रसाद से मिलता है, मुझे कुछ भी नहीं करना, तो उसे प्रसाद भी कभी नहीं मिलेगा।

मनुष्य श्रम करे, श्रम से परमात्मा नहीं मिलता, लेकिन मनुष्य इस योग्य हो पाता है कि प्रसाद की वर्षा उसे मिल पाती है। झील, गड्डा, वर्षा को पैदा करने का कारण नहीं है। लेकिन वर्षा हो, तो गड्डे में भर जाती है और झील उपलब्ध होती है। वर्षा पहाड़ पर भी होती है, लेकिन पहाड़ के शिखर रूखे के रूखे रह जाते हैं। वर्षा गड्डे पर भी होती है, लेकिन गड्डा भर जाता है, अपूरित हो जाता है। गड्डे के किसी श्रम से नहीं होती है वर्षा, लेकिन गड्डे का इतना श्रम जरूरी है कि वह गड्डा बन जाए।

कोई श्रम करके सत्य को नहीं पा सकता। क्योंकि सत्य इतना विराट है और हमारा श्रम इतना क्षुद्र कि हम उसे श्रम से न पा सकेंगे। और खयाल रहे कि जो हमारे श्रम से मिलेगा, वह हमसे छोटा होगा, हमसे बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मेरे हाथ गढ़ लेते हैं, वह मेरे हाथों से बड़ा नहीं होगा। और जिसे मेरा मन समझ लेता है, वह भी मेरे मन से बड़ा नहीं हो सकता। जिसे मैं पा लेता हूं वह मुझसे छोटा हो जाता है।

इसलिए श्रम से न कभी कोई सत्य को पाता है, न कभी कोई परमात्मा को पाता है, न कभी कोई मोक्ष को पाता है। और साथ ही यह भी खयाल रखें कि बिना श्रम के भी कभी किसी ने नहीं पाया है। यह पहेली है। श्रम से हम इस योग्य बनते हैं कि हमारा द्वार खुल जाए। खुले द्वार में सूरज प्रवेश कर जाता है। खुला द्वार सूरज को पकड़कर ला नहीं सकता। लेकिन खुला द्वार, सूरज आता हो, तो बाधा नहीं डालता है। मनुष्य का सारा श्रम बाधा को तोड्ने के लिए है।

इस बात को खयाल में लें, तो यह सूत्र समझ में आएगा।

इस प्रकार कृष्ण के विभूति—योग पर कहे गए वचन सुनकर अर्जुन बोला, मुझ पर अनुग्रह करने के लिए परम गोपनीय अध्यात्म—विषयक वचन आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है।

इसमें पहला शब्द समझ लेने जैसा है, अनुग्रह। अनुग्रह का अर्थ होता है, जिसे पाने के लिए हमने कुछ भी नहीं किया। जिसे पाने के लिए हमने कुछ किया हो, वह सौदा है। उसमें अनुकंपा कुछ भी नहीं है। जिसे पाने के लिए हमने कुछ अर्जित की हो संपदा, वह हमारे श्रम का पुरस्कार है, उसमें कुछ प्रसाद नहीं है।

अर्जुन कहता है कि आपके अनुग्रह से मुझे जो कहा गया है! मेरी कोई योग्यता न थी, और मेरा कोई श्रम भी नहीं था, मेरी कोई साधना भी नहीं थी। मैं दावा कर सकूं, ऐसी मेरी कोई अर्जित संपदा नहीं है। फिर भी आपके अनुग्रह से मुझे जो कहा गया है!

इससे यह अर्थ आप न लेना कि अनुग्रह की इस घटना में कृष्‍ण ने अर्जुन के साथ कुछ पक्षपात किया है। क्योंकि आपका भी कोई श्रम नहीं है, आपकी भी कोई साधना नहीं है, फिर यह कृष्‍ण अर्जुन को ही देने पहुंच गए! और आपके द्वार को खोजकर अब तक नहीं आए हैं! तो ऐसा लगेगा कि कुछ पक्षपात मालूम होता है।

ध्यान रहे, जो योग्य है, उसे ही यह खयाल आता है कि मेरी कोई योग्यता नहीं। अयोग्य को तो सदा खयाल होता है कि मेरी बड़ी योग्यता है। जो पात्र होता है, वही विनम्र होता है। अपात्र तो बहुत उद्दंड होता है। अपात्र तो मानता है कि मैं योग्य हूं  अभी तक मुझे मिला नहीं। इसमें जरूर नियति, भाग्य, परमात्मा का कोई हाथ है। सब भांति मैं योग्य हूं और अगर मुझे नहीं मिला तो अन्याय हो रहा है।

पात्र मानता है कि मैं अपात्र हूं। इसलिए नहीं मिला, तो दोषी मैं हूं। और अगर मिलता है, तो वह प्रभु की अनुकंपा है, अनुग्रह है। योग्यता का पहला लक्षण है, अयोग्यता का बोध। अयोग्यता का पहला लक्षण है, योग्यता का दंभ, योग्यता का अहंकार।

इसलिए जिन्हें खयाल है कि वे पात्र हैं, वे ठीक से समझ लें कि उनसे ज्यादा बड़ा अपात्र खोजना मुश्किल है। और जिन्हें खयाल है कि उनकी कोई भी पात्रता नहीं है, उन्होंने पात्र बनना शुरू कर दिया है।

अर्जुन पात्र था। इसलिए सहज भाव से कह सका कि मेरी कोई पात्रता नहीं, आपका अनुग्रह है।

अपात्र पर तो अनुग्रह भी नहीं हो सकता। उलटे रखे घड़े पर वर्षा भी होती रहे, तो घड़ा भर नहीं सकता। उलटा रखा हुआ घड़ा अपात्र है। क्यों उलटा घड़ा मैं कह रहा हूं? ताकि खयाल में आ सके कि पात्रता भीतर छिपी है, लेकिन उलटी है। और घड़ा सीधा हो जाए, तो पात्र बन जाए।

पात्रता कहीं पाने भी नहीं जाना है, हम पात्रता लेकर ही पैदा होते हैं। ऐसा कोई मनुष्य ही नहीं है, ऐसी कोई चेतना ही नहीं, जो प्रभु को पाने की पात्रता लेकर पैदा न होती हो। फिर भी परमात्मा हमें मिलता नहीं। उसकी वाणी सुनाई नहीं पड़ती, उसके स्वर हमारे हृदय को नहीं छूते। उसका स्पर्श हमें नहीं होता, उसका आलिंगन नहीं मिलता। हम पात्र हैं, लेकिन उलटे रखे हुए हैं। और उलटे रखे होने की सबसे सुगम जो व्यवस्था है, वह दंभ है, वह अहंकार है। जितना ज्यादा बड़ा हो मैं का भाव, उतना ही पात्र उलटा होता है। अर्जुन ने कहा कि आपका अनुग्रह है।

कठिन है, क्योंकि अर्जुन के लिए और भी कठिन है। अगर कृष्‍ण आपको मिल जाएं, तो कृष्‍ण से अभिभूत होना कठिन नहीं होगा। लेकिन अर्जुन के कृष्‍ण हैं मित्र, सखा, साथी। उनके कंधे पर हाथ रखकर, गले में हाथ रखकर अर्जुन चला है, उठा है, बैठा है, गपशप की है। कृष्‍ण में अनुग्रह को देख लेना, मित्र में, जो साथ ही खड़ा हो! और आज तो साथ भी नहीं, अर्जुन ऊंचा बैठा था और कृष्‍ण सारथी बने नीचे बैठे थे। आज तो केवल कृष्ण के सारथी होने की स्थिति थी। अर्जुन ऊंचा बैठा था। उस क्षण में भी अर्जुन अनुग्रह मान पाता है, इसके लिए अत्यंत निरअंहकारी मन चाहिए। इतना विनम्र मन चाहिए, जो कि ऊपर बैठकर भी अपने को नीचे देख पाता हो। मित्र को भी जो परमात्मा की स्थिति में रख पाता हो।

हमें परमात्मा भी मिले, तो हम मित्र की स्थिति में रखना चाहेंगे। संगी—साथी, साथ तल पर खड़ा कर लेना चाहेंगे। अर्जुन मित्र को परमात्मा की स्थिति में रख पाता है। और जो परमात्मा को इतने निकट देख पाता है, वही देख पाता है। दूर आकाश में बैठे हुए परमात्मा के लिए सिर झुकाना बहुत आसान है। पास—पड़ोसी में छिपे परमात्मा को सिर झुकाना बहुत मुश्किल है। पत्नी में, पति में, बेटे में, भाई में छिपे परमात्मा को सिर झुकाना बहुत मुश्किल है। स्वभावत:, जो जितने निकट है, उसके साथ हमारे अहंकार का संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता उतनी ही बड़ी हो जाती है। इसलिए यहूदी कहते हैं कि कभी भी कोई पैगंबर अपने गांव में नहीं पूजा जाता। न पूजे जाने का कारण है। क्योंकि इतना निकट है गांव के लिए पैगंबर, कि यह मानना मुश्किल है कि तुम हमसे ऊपर हो! असंभव है। इसलिए गांव में तो पैगंबर को पत्थर ही पड़ेंगे। पूजा मिलनी बहुत मुश्किल है।

अर्जुन कृष्ण को कह सका कि तुम्हारा अनुग्रह है, मेरी कोई पात्रता नहीं है। यह उसकी पात्रता का सबूत है। यह धार्मिक जगत में प्रवेश करने वाले व्यक्ति की पहली योग्यता है, पहला लक्षण है। मुझ पर अनुग्रह करने के लिए परम गोपनीय अध्यात्म—विषयक वचन अर्थात उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है।

दूसरी बात, परम गोपनीय अध्यात्म

अध्यात्म प्रेम से भी ज्यादा गोपनीय है। इसे थोड़ा हम समझ लें। आप जिसे प्रेम करते हैं, चाहते हैं, उसके साथ एकांत मिले। दूसरे की मौजूदगी खटकती है। दो प्रेमी किसी को भी मौजूद नहीं देखना चाहते, अकेले हो जाना चाहते हैं। क्यों? इतना अकेले की क्या तलाश है? अकेले में इतना क्या रस है? दूसरे की मौजूदगी क्या बाधा देती है?

पहली बात, जिसके साथ हम गहरे प्रेम में हैं, उसमें हम लीन होना चाहते हैं और उसे अपने में लीन कर लेना चाहते हैं। जिसके साथ गहरे प्रेम में हैं, उसके साथ हम द्वैत को तोड़ देना चाहते हैं, अद्वैत हो जाना चाहते हैं। दो न रहें, एक ही रह जाए। लेकिन वह जो तीसरा मौजूद है, उसके साथ तो हमारा कोई प्रेम नहीं है। उसकी मौजूदगी अद्वैत को घटित न होने देगी।

इसलिए प्रेमी एकांत चाहते हैं, प्राइवेसी चाहते हैं, अकेलापन चाहते हैं। वह तीसरे की जो मौजूदगी है, बाधा बन जाएगी और द्वैत बना रहेगा। वह मौजूद न हो, तो दो व्यक्ति लीन हो सकते हैं एक में। इसलिए प्रेम गोपनीय है, गुप्त है, सार्वजनिक नहीं है।

अध्यात्म और भी गोपनीय है। क्योंकि प्रेम में तो शायद दो शरीर ही मिलते हैं, अध्यात्म में गुरु और शिष्य की आत्मा भी मिल जाती है। और जब तक यह मिलन घटित न हो कि गुरु और शिष्य, प्रेमी और प्रेमिका की तरह आत्मा के तल पर एक न हो जाएं, तब तक अध्यात्म का संचरण, अध्यात्म का उपदेश, अध्यात्म का दान, असंभव है। इसलिए अध्यात्म गोपनीय है।

शरीर भी मिलते हैं तो गुप्तता चाहिए, तो जब आत्माएं मिलती हैं तो और भी गुप्तता चाहिए। इसलिए अध्यात्म छिपा—छिपाकर दिया गया है, चुपचाप दिया गया है, मौन में दिया गया है। कारण, इतना मौन, इतनी चुप्पी, इतना एकांत न हो, तो वह जो भीतर, दो का मिलन, संवाद है, वह असंभव है।

अर्जुन कहता है कि इतनी गोपनीय बात को आपने मुझ पर प्रकट किया, यह सिवाय अनुग्रह के और क्या हो सकता है!

इस प्रकटीकरण में, इस अभिव्यक्ति में, इस गोपनीय मिलन में और भी एक बात विचारणीय है कि यह घटना घटती है युद्ध के मैदान पर। चारों तरफ बड़ा समूह है। और साधारण समूह नहीं, युद्ध को रत, युद्ध के लिए तत्पर। इस युद्ध के लिए तत्पर समूह में भी यह गोपनीयता घट जाती है। यह मिलन, यह कृष्ण का संवाद अर्जुन को सुनाई पड़ जाता है, यह कृष्ण अनुग्रह कर पाते हैं।

तो एक और बात खयाल ले लेनी चाहिए। और वह यह कि दो शरीरों को मिलना हो, तो भौतिक अर्थों में एकांत चाहिए। दो आत्माओं को मिलना हो, तो भीड़ में भी मिल सकती हैं। भौतिक अर्थों में एकांत का फिर कोई अर्थ नहीं है। इस भीड़ में भी दो आत्माओं का मिलन हो सकता है। क्योंकि भीड़ तो शरीर के तल पर है।

यह बहुत विचार की बात रही है। जिन लोगों ने भी गीता पर गहन अध्ययन किया है, उन्हें यह मन में विचार उठता ही रहा है, यह प्रश्न जगता ही रहा है, कि युद्ध के मैदान पर, भीड में, युद्ध के लिए तत्पर लोगों के बीच, कृष्ण को भी कहां की जगह मिली गीता का संदेश कहने के लिए! पर यह बहुत सुविचारित मालूम पड़ता है।

अध्यात्म, शरीर की भीड़ के बीच भी एकांत पा सकता है। अध्यात्म, बाजार के बीच भी अकेला हो सकता है। और आध्यात्मिक मिलन युद्ध के क्षण में भी घट सकता है। क्योंकि युद्ध, बाजार, शरीरों की भीड़, सब बाहर हैं। अगर भीतर तत्परता हो, पात्रता हो, और अगर भीतर ग्रहण करने की क्षमता हो, लीन होने की, विनम्र होने की, डूबने की, चरणों में गिर जाने की भावना हो, तो अध्यात्म कहीं भी घटित हो सकता है—युद्ध में भी।

इस बात को जिस अनूठे ढंग से गीता ने जगत को दिया है, कोई दूसरा शास्त्र नहीं दे सका। और इसलिए गीता अगर इतनी रुचिकर हो गई, और मन पर इतनी छा गई, तो उसका कारण है।

उपनिषद हैं, वनों के एकांत में, मौन, शांति में, गुरु और शिष्य के बीच, बड़े ध्यान के क्षण में संवादित हैं। बाइबिल है, बहुत एकांत में चुने हुए शिष्यों से कही गई बातें हैं। लेकिन गीता घने संसार के बीच दिया गया संदेश है। और युद्ध से ज्यादा घना संसार क्या होगा? वहा भी अध्यात्म घटित हो सकता है, अगर पात्र सीधा हो। और वह जो गोपनीय है, अधिकतम गोपनीय है, जो सबके सामने नहीं कहा जा सकता, वह भी कहा जा सकता है, अगर पात्र शांत, मौन, स्वीकार करने को तैयार हो।

फिर भौतिक अकेलेपन का अर्थ होता है, कोई और मौजूद नहीं। आध्यात्मिक अकेलेपन का अर्थ होता है, आप मौजूद नहीं।

इसे ठीक से समझ लें।

भौतिक भीड़ का अर्थ होता है, बहुत लोग मौजूद हैं। आध्यात्मिक एकांत का अर्थ होता है, शिष्य मौजूद नहीं।

गुरु तो गैर—मौजूदगी का नाम ही है, इसलिए उसकी हम बात ही न करें। गुरु का तो अर्थ ही है कि जो गैर—मौजूद हो गया। जो अब एब्सेंट है, जो उपस्थित नहीं है, जो दिखाई पड़ता है और भीतर शून्य है।

जब शिष्य भी गैर—मौजूद हो जाए, इतना डूब जाए कि भूल जाए अपने को कि मैं हूं तो आध्यात्मिक एकांत घटित होता है। और उस एकांत में ही वे गोपनीय सूत्र दिए जा सकते हैं; किसी और तरह से दिए जाने का जिनका कोई भी उपाय नहीं है।

तो अर्जुन ने कहा कि जो अत्यंत गोपनीय है, वह भी अनुग्रह करके तुमने मुझे कहा, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है।

इसे खयाल कर लें। अज्ञान का नष्ट हो जाना, यहां ज्ञान का पैदा हो जाना नहीं है। ज्ञान तो है अनुभव। अज्ञान तो नष्ट हो सकता है गुरु के वचन से भी। लेकिन नकारात्मक है। अर्जुन कह रहा है, मेरा अज्ञान नष्ट हो गया।

वह यह कह रहा है कि अब तक मेरी जो मान्यताएं थीं, वे टूट गईं। अब तक जैसा मैं सोचता था, अब नहीं सोच पाऊंगा। आपने जो कहा, उसने मेरे विचार बदल दिए। आपने जो मुझे दिया, उससे मेरा मन रूपांतरित हो गया, मैं बदल गया हूं। मेरा अज्ञान टूट गया। लेकिन अभी ज्ञान नहीं हो गया है। अभी बीमारी तो हट गई है, लेकिन अभी स्वास्थ्य का जन्म नहीं हुआ है। अभी नकारात्मक रूप से बाधाएं मेरी टूट गईं, लेकिन अभी पाजिटिवली, विधायक रूप से मेरा आविर्भाव नहीं हुआ है।


यह काफी कीमती है, सोचने जैसा है। क्योंकि बहुत—से लोग इस तरह के अज्ञान मिटने को ही ज्ञान समझ लेते हैं। शास्त्र हैं, सदवचन हैं, सदगुरु हैं, उनके वचनों को लोग इकट्ठा कर लेते हैं; और सोचते हैं, ज्ञान हो गया; और सोचते हैं, जान लिया। क्योंकि गीता कंठस्थ है, वेद के वचन याद हैं, उपनिषद होंठ पर रखे हैं, तो ज्ञान हो गया।

ध्यान रहे, अर्जुन कहता है, अज्ञान नष्ट हो गया। अब तक जो मेरी मान्यता थी अज्ञान से भरी हुई, वह टूट गई। लेकिन अभी ज्ञान नहीं हुआ है, क्योंकि ज्ञान तो तभी होता है, जब मैं अनुभव कर लूं। यह कृष्‍ण ने जो कहा है, इस पर भरोसा आ गया। और कृष्‍ण जैसे लोग भरोसे के योग्य होते हैं। उनकी मौजूदगी भरोसा पैदा करवा देती है। उनका खुद का आनंद, उनका खुद का मौन, उनकी शांति, उनकी शून्यता, छा जाती है, आच्छादित कर लेती है। उनकी आंखें, उनका होना, पकड़ लेता है चुंबक की तरह, खींच लेता है प्राणों को, भरोसा आ जाता है।

लेकिन यह भरोसा ज्ञान नहीं है। यह भरोसा उपयोगी है हमारी भ्रांत धारणाओं को तोड़ देने के लिए। लेकिन भ्रांत धारणाओं का टूट जाना ही सत्य का आ जाना नहीं है।

पंडित ज्ञानी नहीं है। पंडित अज्ञानी नहीं है, पंडित ज्ञानी भी नहीं है। पंडित अज्ञानी और ज्ञानी के बीच है। अज्ञानी वह है, जिसे कुछ भी पता नहीं। पंडित वह है, जिसे सब कुछ पता है। और ज्ञानी वह है, जिसके पता में और जिसके अनुभव में कोई भेद नहीं है। जो जानता है, जो उसकी जानकारी है, वह उसका अपना निजी अनुभव भी है। वह उधार नहीं जानता। किसी ने कहा है, ऐसा नहीं जानता। खुद ही जानता है, अपने से जानता है।

अभी अर्जुन को जो जानकारी हुई, वह कृष्ण के कहने से हुई है। अभी कृष्‍ण ऐसा कहते हैं, और कृष्‍ण पर अर्जुन को भरोसा आया है, इसलिए अर्जुन कहता है कि मेरा अज्ञान टूट गया। लेकिन अभी मैं नहीं जानता हूं अभी तुम कहते हो।

इसलिए अगर कृष्ण थोड़ा हट जाएं अलग, अर्जुन के संदेह वापस लौट आएंगे। इसलिए कृष्‍ण अगर खो जाएं, तो अर्जुन फिर वापस वहीं पहुंच जाएगा, जहां वह गीता के प्रारंभ में था। उसमें देर नहीं लगेगी। और अगर ईमानदार होगा तो जल्दी पहुंच जाएगा, अगर बेईमान होगा तो थोड़ी देर लगेगी। क्योंकि तब वह शब्दों को ही दोहराता रहेगा, घोंटता रहेगा। और अपने को समझाता रहेगा कि मुझे मालूम है, मुझे मालूम है।

लेकिन अर्जुन ईमानदार है।

और इस जगत में सबसे बड़ी ईमानदारी अपने प्रति ईमानदारी है। आप दूसरे को धोखा देते हैं, उससे कुछ बहुत बनता—बिगड़ता नहीं। अच्छा नहीं है, लेकिन कुछ बहुत बनता—बिगड़ता नहीं। थोड़ा पैसे का! नुकसान पहुंचा देंगे, कुछ और करेंगे। लेकिन जो धोखा आप अपने को दे सकते हैं, उससे आपका पूरा जीवन मिट्टी हो जाता है। और हम धोखा देते हैं। सबसे बड़ा धोखा जो हम अपने को दे सकते हैं, वह यह है कि बिना स्वयं जाने हम मान लें कि हमने जान लिया है।

अगर कोई आपसे पूछे, ईश्वर है? तो आप चुप न रह पाएंगे। या तो कहेंगे, है; या कहेंगे, नहीं है। यह न कह पाएंगे कि मुझे पता नहीं है। अगर आप यह कह पाएं कि मुझे पता नहीं, तो आप ईमानदार आदमी हैं। अगर आप कहें कि हां है, और लड़ने—झगड़ने को तैयार हो जाएं, और बिना कुछ अनुभव के, तो आप बेईमान हैं। अगर आप कहें, नहीं है; और तर्क करने को तैयार हो जाएं, बिना किसी अनुभव के, तो भी आप बेईमान हैं।

जिनको हम आस्तिक और नास्तिक कहते हैं, वे बेईमानी की दो शक्लें हैं। ईमानदार आदमी कहेगा, मुझे पता नहीं। मैं कैसे कहूं कि है, मैं कैसे कहूं कि नहीं है! कोई कहता है कि है, कोई कहता है कि नहीं है। कभी एक पर भरोसा आ जाता है, अगर आदमी बलशाली हो।

बुद्ध जैसा आदमी आपके पास खड़ा हो, तो भरोसा दिला देगा कि ईश्वर वगैरह कुछ भी नहीं है। यह बुद्ध की वजह से। महावीर जैसा आदमी आपके पास खड़ा हो, तो भरोसा दिलवा देगा कि ईश्वर वगैरह सब बकवास है। और कृष्‍ण जैसा आदमी पास खड़ा हो, तो आस्था आ जाएगी कि ईश्वर है। और जीसस जैसा आदमी पास खड़ा हो, तो आस्था आ जाएगी कि ईश्वर है। लेकिन आपका अपना अनुभव कोई भी नहीं है।

लेकिन कृष्‍ण के कारण जो झलक आती है, वह भी उधार है। बुद्ध के कारण जो झलक आती है, वह भी उधार है। उधार झलकों से अज्ञान मिट जाता है, लेकिन ज्ञान अपनी ही झलक से पैदा होता हे।

इसलिए अर्जुन कहता है कि आपने जो मुझे कहा, उससे मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है। क्योंकि हे कमलनेत्र, मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं, आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना। हे परमेश्वर, आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक। ऐसा ही है। ऐसा भी मैंने अनुभव लिया, ऐसा भी मुझे समझ में आया, कि आप जैसा कहते हो, ऐसा ही है, ऐसी मेरी श्रद्धा बनी।

परंतु हे पुरुषोत्तम........।

और यह परंतु विचारणीय है। नहीं तो बात खतम हो गई। अर्जुन कहता है, जैसा आप कहते हो, ऐसा ही है। ऐसी भी मेरी श्रद्धा हो गई। अब बात खतम हो जानी चाहिए। जब श्रद्धा ही आ गई, तो अब लेकिन—परंतु का क्या अर्थ है! अब चुप हो जाओ। गीता समाप्त हो जानी चाहिए थी। यहां बात पूरी हो गई।

हम अगर होते, तो गीता यहां समाप्त हो गई होती। हम इसी जगह रुक गए हैं आकर। श्रद्धा आ गई है, मंदिर में पूजा कर लेते हैं, शास्त्र को सिर झुका लेते हैं, गुरु के चरण में फूल चढ़ा आते हैं। बात समाप्त हो गई। हमें शब्द याद हैं, सिद्धांतों का पता है, शास्त्र हमारे मन पर हैं। अब और क्या बाकी बचा है?

अभी कुछ भी नहीं हुआ। अभी नौका किनारे से भी नहीं छूटी। इसलिए अर्जुन कहता है, परंतु हे पुरुषोत्तम, आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं। यह तो आपकी आंखों से जो आपने देखा है, वह मुझे कहा। यह मेरे कानों ने सुना है, लेकिन आपकी आंखों का देखा हुआ है। अब मैं अपनी ही आंख से देखना चाहता हूं, प्रत्यक्ष। और जब तक मैं न देख लूं,  तब तक आप भरोसे योग्य हैं, भरोसा करता हूं। लेकिन जब तक मैं न देख लूं, तब तक ज्ञान का जन्म नहीं होता है।

शब्द पर मत रुक जाना, शब्द पर रुकने वाला भटक जाता है। और सारी दुनिया शब्द पर रुकी है। कोई कुरान के शब्द पर रुका है, वह अपने को मुसलमान कहता है। कोई गीता के शब्द पर रुका है, वह अपने को हिंदू कहता है। कोई बाइबिल के शब्द पर रुका है, वह अपने को ईसाई कहता है। लेकिन ये शब्दों पर रुके हुए लोग हैं।

दुनिया में सब संप्रदाय, शब्दों के संप्रदाय हैं। धर्म का तो कोई संप्रदाय हो नहीं सकता। क्योंकि धर्म शब्द नहीं, अनुभव है। और अनुभव हिंदू मुसलमान, ईसाई नहीं होता। अनुभव तो ऐसा ही निखालिस एक होता है, जैसे एक आकाश है।

कृष्ण से बड़ी तरकीब से अर्जुन ने यह बात पूछी है। कहा कि आस्था पूरी है, आप जो कहते हैं; भरोसा आता है। आप कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे। अब यह कहने की कोई भी गुंजाइश नहीं कि आप गलत कहते हैं। आपने मुझे ठीक—ठीक समझा दिया। जैसा आपने कहा है, वैसा ही है। लेकिन अब मैं अपनी आंख से देखना चाहता हूं।

और जो शिष्य अपने गुरु से यह न पूछे कि मैं अपनी आंख से देखना चाहता हूं वह शिष्य ही नहीं है। जो गुरु के शब्द मानकर बैठ जाए और उन्हें घोंटता रहे और मर जाए, वह शिष्य नहीं है। और जो गुरु अपने शिष्य को शब्द घुटाने में लगा दे, वह गुरु भी नहीं है। कृष्ण प्रतीक्षा ही कर रहे होंगे कि कब अर्जुन यह पूछे। अब तक की जो बातचीत थी, वह बौद्धिक थी। अब तक अर्जुन ने जो सवाल उठाए थे, वे बुद्धिगत थे, विचारपूर्ण थे। उनका निरसन कृष्‍ण करते चले गए। जो भी अर्जुन ने कहा, वह गलत है, यह बुद्धि और तर्क से कृष्‍ण समझाते चले गए। निश्चित ही, वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि अर्जुन पूछे; वह क्षण आए, जब अर्जुन कहे कि अब मैं आंख से देखना चाहता हूं।

आमतौर से गुरु डरेंगे, जब आप कहेंगे कि अब मैं आंख से देखना चाहता हूं। तब गुरु कहेंगे कि श्रद्धा रखो, भरोसा रखो, संदेह मत करो। लेकिन ठीक गुरु इसीलिए सारी बात कर रहा है कि किसी दिन आप हिम्मत जुटाएं और कहें कि अब मैं देखना चाहता हूं। अब शब्दों से नहीं चलेगा। अब विचार काफी नहीं हैं। अब तो प्राण ही उसमें एक न हो जाएं, मेरा ही साक्षात्कार न हो, तब तक अब कोई चैन, अब कोई शांति नहीं है।

तो अर्जुन ने कहा, हे कमलनेत्र, हे परमेश्वर, अब मैं आपके विराट को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूं।

यह प्रश्न अति दुस्साहस का है। शायद इससे बड़ा कोई दुस्साहस जीवन में नहीं है। क्योंकि विराट को अगर आंख से देखना हो, तो बड़े उपद्रव हैं। क्योंकि हमारी आंख तो सीमा को ही देखने में सक्षम है। हम तो जो भी देखते हैं, वह रूप है, आकार है। हमारी आंख ने निराकार तो कभी देखा नहीं। हमारी आंख की क्षमता भी नहीं है निराकार को देखने की। हमारी आंख बनी ही आकृति को देखने के लिए है। तो विराट को देखने के लिए यह आंख काम नहीं करेगी।

सच तो यह है कि इस आंख की तरफ से बिलकुल अंधा हो जाना पड़ेगा। यह आंख छोड़ देनी पड़ेगी। यह आंख तो बंद ही कर लेनी पड़ेगी। और इस आंख, इन दो आंखों से जो शक्ति बाहर प्रवाहित हो रही है, उस शक्ति को किसी और आयाम में प्रवाहित करना होगा, जहां कि नई आंख उपलब्ध हो सके।

जिससे मैं देख रहा हूं इन आंखों के द्वारा...। ध्यान रहे, हम आंख से नहीं देखते; आंख के द्वारा देखते हैं। आंख से कोई नहीं देखता। आंख के द्वारा देखते हैं। आंख के पीछे खड़े हैं हम। आँख हमारी खिड़की है, उससे हम देखते हैं। इस खिड़की से तो विराट को देखा नहीं जा सकता, क्योंकि यह खिड़की ही विराट पर ढांचा बिठा देती है। यह खिड़की के कारण ही विराट पर आकार बन जाता है। आप अपनी खिड़की से आकाश को देखते हैं। आकाश भी लगता है कि खिड़की के ही आकार का है। उतना ही दिखाई पड़ता है, जितना खिड़की का आकार है।

तो इन आंखों से तो विराट देखा नहीं जा सकता। इसलिए बड़ी हिम्मत की जरूरत है, अंधा हो जाने की। इन आंखों से तो सारी शक्ति को खींच लेना पड़े। और उस दिशा में शक्ति को प्रवाहित करना पड़े, जहां कोई खिड़की नहीं है, खुला आकाश है, तब विराट देखा जा सके। उस घटना को ही हम तीसरा नेत्र, थर्ड आई, शिव नेत्र या कोई और नाम देते हैं। वह तीसरी आंख खुल जाए, वह दिव्य—चक्षु  तो! उसके बिना परमात्मा के प्रत्यक्ष रूप को नहीं देखा जा सकता।

तब जो भी हम देखते हैं, वह परोक्ष है। जो भी हम देखते हैं, वह अनेक—अनेक परदों के पीछे से देखते हैं। उसे सीधा नहीं देखा जा सकता। हमारे पास जो उपकरण हैं, वे ही उसे परोक्ष कर देते हैं। इन उपकरणों को छोड्कर, इंद्रियों को छोड्कर, आंखों को छोड्कर, किसी और दिशा से भी देखना हो सकता है।

तो पहला तो दुस्साहस, अंधा होने का। क्योंकि इन आंखों से ज्योति न हटे, तो तीसरी आंख पर ज्योति नहीं पहुंचती।

दूसरा दुस्साहस, विराट को देखना बड़ा खतरनाक है। जैसे कि कोई गहन गड में झांके, तो घबड़ा जाए; हाथ—पैर कंपने लगे, सिर घूम जाए। कभी किसी पहाड़ की चोटी पर किनारे, बहुत किनारे जाकर गडे में झांककर देखा है? तो जो भय समा जाए, मृत्यु दिखाई पड़ने लगे उस गड में।

लेकिन वह गडा तो कुछ भी नहीं है। परमात्मा तो अनंत गड्डा है, विराट शून्य है, जहां सब आकार खो जाते हैं, जहां फिर कोई तल और सीमा नहीं है। जहां फिर दृष्टि चलेगी तो रुकेगी नहीं कहीं, कोई जगह न आएगी, जहां रुक जाए। वहां घबड़ाहट पकड़ेगी। परम संताप पकड़ लेगा। और लगेगा, मैं मिटा, मैं मरा, मैं गया। विराट के साथ दोस्ती बनाने का मतलब ही खुद को मिटाना है।

तो पहला काम तो अंधा होना पड़े, तब वह आंख खुले। और दूसरा काम, मरने की तैयारी दिखानी पड़े, तब उस जीवन से संस्पर्श हो।

परमात्मा को खोजना सबसे बड़े खतरे की खोज है— दि मोस्ट डेंजरस थिंग।  सबसे बड़ा जुआ है। अपने जीवन को ही दांव पर लगाने का उपद्रव है। यह ऐसे ही है, जैसे बूंद सागर को खोजने जाए, तो मिटने को जा रही है। जहां सागर को पाएगी, वहां मिटेगी; फिर लौटना भी मुश्किल हो जाएगा। सीमा असीमा को खोजती हो; क्षुद्र विराट को खोजता हो; आकार निराकार को खोजता हो; तो मृत्यु की खोज है यह।

तो कृष्‍ण से पूछा जा रहा है वह परम खतरनाक सवाल अर्जुन के द्वारा, कि मैं तुम्हें अपनी ही आंखों से देखना चाहता हूं प्रत्यक्ष। यह खतरनाक सवाल है, इसलिए अर्जुन एक शर्त भी रख देता है। वह कहता है, इसलिए हे प्रभो! मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है, ऐसा यदि मानते हों, तो योगेश्वर, आप अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए।

भय तो उसे पकड़ा होगा। वह जो कह रहा है, वह खतरनाक है। वह जो देखना चाहता है, वह मनुष्य की आखिरी आकांक्षा है। वह असंभव चाह है, इम्पासिबल डिजायर है।

और मनुष्य उसी दिन पूरा मनुष्य हो पाता है, जिस दिन यह असंभव चाह उसे पकड़ लेती है। तब तक हम कीड़े—मकोड़े हैं। तब तक हमारी चाह में और जानवरों की चाह में कोई फर्क नहीं है।

हम भी धन इकट्ठा कर रहे हैं, जानवर भी परिग्रह करते हैं। थोड़ा करते हैं हमसे, तो उसका मतलब हुआ, हमसे थोड़े छोटे जानवर हैं। हम थोड़ा ज्यादा करते हैं। वे एक मौसम का करते हैं, तो हम पूरी जिंदगी का करते हैं। तो हमारा जानवरपन थोड़ा विस्तीर्ण है। वे भी कामवासना की तलाश कर रहे हैं—स्त्री पुरुष को खोज रही है, पुरुष स्त्री को खोज रहा है—हम भी वही कर रहे हैं। तो पशु में और हममें फर्क क्या है?

हमारी भी वासना वही है, जो पशु की है। लेकिन एक वासना है, परमात्मा की वासना, जो मनुष्य की ही है। कोई पशु विराट को नहीं खोज रहा है। और जब तक आप विराट को नहीं खोज रहे हैं, तब तक जानना कि पशु की सीमा का आपने अतिक्रमण नहीं किया। मनुष्य विराट की खोज है, असंभव की चाह है।

सभी पशु अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं। कोई भी पशु मरना नहीं चाहता, कोई पशु मिटना नहीं चाहता। सिर्फ मनुष्य में कभी—कभी कोई मनुष्य पैदा होते हैं, जो अपने को दांव पर लगाते हैं, अपने को मिटाने की हिम्मत करते हैं, ताकि परम को जान सकें। अकेला मनुष्य है, जो अपने जीवन को भी दांव पर लगाता है।

जीवन को दांव पर लगाने का साहस, असंभव की चाह है।

विराट को आंखों से देखने की वासना, यह अभीप्सा। अर्जुन को लगा होगा, पता नहीं मेरी योग्यता भी है या नहीं! यह शक्य भी है या नहीं! यह संभव भी है या नहीं! और मैं भी इस जगह आ गया हूं या नहीं, जहां ऐसा सवाल पूछ सकूं! यह सवाल कहीं मैंने जरूरत से ज्यादा तो नहीं पूछ लिया? यह सवाल कहीं मेरी सीमा का अतिक्रमण तो नहीं कर जाता? यह सवाल कहीं ऐसा तो नहीं है कि अगर कृष्ण इसे पूरा करें, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊं?

इसलिए उसने कहा कि वह आपका रूप देखा जाना शक्य हो, संभव हो, योग्यता हो मेरी, पात्रता हो मेरी, ऐसा यदि आप मानते हों! क्योंकि यहां मेरी मान्यता क्या काम करेगी? जिसे हमने जाना नहीं है, उसके संबंध में हम पात्र भी हैं, यह भी हम कैसे जान सकते हैं? बिना किए पात्रता का कोई पता भी तो नहीं चलता। जो हमने किया ही नहीं है, वह हम कर सकेंगे या न कर सकेंगे, इसे जानने का उपाय, मापदंड भी तो कोई नहीं है।

इसलिए शिष्य पूछता है, लेकिन उत्तर मिले ही, इसका आग्रह नहीं करता। और जो शिष्य इसका आग्रह करता है कि उत्तर मिलना ही चाहिए, उसे अभी पता ही नहीं है कि वह बचकानी बात कर रहा है।

प्रश्न पूछा जा सकता है, लेकिन उत्तर तो गुरु पर ही छोड़ देना होगा। पता नहीं, अभी समय आया या नहीं! अभी फल पका या नहीं! अभी बड़ी पकी या नहीं! अभी उस जगह हूं या नहीं, जहां तीसरी आंख खुले सके! और अगर खुल भी सके, तो मैं झेल भी सकूंगा उस विराट को या नहीं!

विराट को देखना, उसे झेलना, उसे आत्मसात कर लेना, आग के साथ खेलना है। तो यह हो सकेगा मुझसे या नहीं, इसे ध्यान रखें।

अर्जुन ने बड़ी समझ की बात कही है कि आप ऐसा मानते हों तो, तो ही मुझे प्रत्यक्ष कराएं। अन्यथा मैं रुक सकता हूं। जल्दी नहीं करूंगा, धैर्य रख सकता हूं प्रतीक्षा करूंगा। और जब समझें कि मैं योग्य हुआ...।

कई बार ऐसा हुआ है कि शिष्यों को वर्षों प्रतीक्षा करनी पड़ी। इसलिए नहीं कि गुरु को उत्तर पता नहीं था। इसलिए भी नहीं कि गुरु कुछ मजा ले रहा था, कि काफी समय व्यतीत हो जाए और आप उसकी सेवा—स्तुति करते रहें। सिर्फ इसलिए कि शिष्य जब तक इसके योग्य न हो जाए कि झांक सके अनंत गड में, विस्तारहीनता में झांक सके, जब तक इसके योग्य न हो जाए। नहीं तो होगा क्या? अगर अर्जुन थोड़ा भी कच्चा हो, तो पागल होकर वापस लौटेगा, विक्षिप्त हो जाएगा।

अनेक साधक विक्षिप्त हो जाते हैं, जल्दबाजी के कारण, पागल हो जाते हैं। और साधारण पागल का तो इलाज हो सकता है। साधक अगर पागल हो जाए, तो मनोचिकित्सक के पास इलाज का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि उसकी बीमारी शरीर की बीमारी नहीं है, उसकी बीमारी मन की भी बीमारी नहीं है, उसकी बीमारी मन के जो अतीत है, उससे संपर्क से पैदा हुई है। उसके इलाज का कोई उपाय नहीं है।

आपने उन फकीरों के संबंध में सुना होगा, जिनको हम मस्त कहते हैं, सूफी जिनको मस्त कहते हैं। मस्त का मतलब ही केवल इतना है कि अभी कुछ कच्चा था आदमी, और कूद गया। तो देख तो लिया उसने, लेकिन सब अस्तव्यस्त हो गया। उस अराजक में झांककर वह भी अराजक हो गया। सब अस्तव्यस्त हो गया। वापस लौटना मुश्किल हो गया। अगर वह वापस भी लौट आए, तो जो उसने देखा है, उसे भूल नहीं सकता। जो उसने जाना है, वह उसका पीछा करेगा। जो उसने अनुभव कर लिया है, वह उसके रोएं—रोएं में समा गया है। अब उससे छुटकारा नहीं है। और अब वह बेचैन करेगा। और अब उसे जीने नहीं देगा, और मुश्किल में डाल देगा।

विक्षिप्तता घटित होती है, अगर साधक जल्दबाजी करे। और सभी साधक जल्दबाजी करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि जो भी उसकी तलाश में है, प्यासा है; चाहता है, जल्दी पानी मिल जाए। लेकिन जल्दी मिला हुआ पानी हो सकता है जहर साबित हो। जल्दी जहर है।

हो सकता है, अभी प्यास ही न थी इतनी, और पानी का सागर ऊपर टूट पड़े, तो भी मुसीबत हो जाए। फिर हमारी आदत सागर के पानी को पीने की नहीं है। सागर का पानी मिल भी जाए, तो हम प्यासे मर जाएंगे। हम तो पानी, छोटे—छोटे कुएं, गड्डे खोदकर, पीने की हमारी आदत है। वहीं हमारा तालमेल भी है। अचानक विराट का संपर्क अस्तव्यस्त कर जाता है। 

अर्जुन डरा होगा कि जो मैं पूछता हूं छोड़ दूं कृष्ण पर ही। यदि शक्य हो, यदि आप समझें कि यह रूप देखा जाना शक्य है, तो अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए। अब मुझे कहिए मत कुछ, अब मुझे दिखाइए। अब मैं स्वाद लेना चाहता हूं। सुनना नहीं चाहता, हो जाना चाहता हूं। अनुभव! कि मैं भी वही जान सकूं, जो आप जानते हैं। और वही जान सकूं, जो आप हैं।

इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर कृष्‍ण ने कहा, हे पार्थ, मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख।

अर्जुन बिलकुल तैयार था। और उसकी रुकने की तैयारी लक्षण है। अधैर्य रुग्ण चित्त का लक्षण है। जो कहता है, मैं रुक सकता हूं प्रतीक्षा कर सकता हूं जब समझें कि योग्य हूं तब तक राह देखूंगा, वह इसी वक्त योग्य हो गया। इतना धैर्य योग्यता है। जो कहता है, अभी दिखा दें, अभी करवा दें, अभी हो जाए, जल्दी हो जाए..। 

इतना अधैर्य हो, तो फिर वही चीजें हम पा सकते हैं, जो दस— पंद्रह दिन में मिलती हैं। फिर वे चीजें नहीं पा सकते, जो जन्मों— जन्मों में मिलती हैं। फिर मौसमी पौधे लगाना चाहिए हमें। जो लगाए नहीं कि दो—चार दिन में फूल देना शुरू कर देते हैं। लेकिन बस मौसम में ही रौनक रहती है। फिर हमें उन वृक्षों की आशा छोड़ देनी चाहिए, जो सदियों तक लगते हैं। उनकी हमें आशा छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि इतना अधैर्य हो, तो जड़ें गहरी नहीं जा सकतीं। और जड़ें जितनी गहरी जाएं, वृक्ष उतना ऊपर जाता है। जितना होता है वृक्ष ऊपर, उतना ही जड़ों में होता है नीचे। तो वह जो मौसमी पौधा है, उसकी कोई जड़ तो होती नहीं। उतना ही ऊपर होता है, उतनी ही देर टिकता है।

इसलिए बहुत लोग ध्यान सीखते हैं; बस, मौसमी पौधा होता है; दो—चार दिन टिकता है, फिर खो जाता है। दो—चार दिन कहते हुए सुने जाते हैं, बड़ी शांति मिल रही है। फिर दों—चार दिन के बाद उनका पता नहीं चलता। वह जो बड़ी शांति मिल रही होती है, वह मौसमी फूल था, उसकी कोई जड़ नहीं थी। अधैर्य की कोई जड़ें नहीं हैं। धैर्य चाहिए।

और अर्जुन ने यह जो कहा कि अगर शक्य हो..। मुझे कुछ पता नहीं है। और मुझे पता हो भी नहीं सकता। जिस अनंत में मैं झांका नहीं हूं उसमें झांक सकूंगा, यह मैं कैसे कहूं? आप ही तय कर लें। जो शिष्य गुरु पर छोड़ता है इतनी हिम्मत से—यह समर्पण है—वह इसी क्षण भी तैयार हो गया। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन की योग्यता की बात ही नहीं की। उन्होंने तत्क्षण कहा कि ठीक है, तो तू मेरे अलौकिक रूपों को देख।

और हे भरतवंशी अर्जुन, मेरे में आदित्यों को, अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, अश्विनी कुमारों को, मरुदगणों को देख और भी बहुत—से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख। और हे अर्जुन, अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित हुए चराचर सहित संपूर्ण जगत को देख और भी जो कुछ देखना चाहता है सो देख।

इसमें कुछ बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली तो बात यह कि कृष्‍ण ने फिर योग्यता की बात ही न की। कृष्‍ण ने फिर शक्यता की बात ही न की। कृष्‍ण ने फिर यह सवाल ही नहीं उठाया इस संबंध में कि तू पात्र हो गया या नहीं, घड़ी आ गई या नहीं। कृष्ण ने कहा, देख। यही अर्जुन अगर गीता में थोड़ी देर पहले यह पूछता, तो कृष्ण दिखाने को इतनी सरलता से राजी नहीं हो सकते थे। तो अर्जुन ने क्या अर्जित कर लिया है इस बीच में, उस पर हम खयाल कर लें, तो वह आपको भी सहयोगी हो जाए, कि जिस दिन आप उतना अर्जित कर लें, उस दिन आपको भी परमात्मा क्षणभर नहीं रुकाता है, उसी क्षण दिखा देता है।

और ऐसा मत सोचना कि अर्जुन के पास तो कृष्‍ण थे, आपके पास तो कोई भी नहीं है। हर अर्जुन के पास कृष्‍ण है। और जब आप अर्जुन की इस घड़ी में आ जाते हैं, तब आप अचानक पाएंगे कि कृष्‍ण मौजूद है। आपको भी जो चला रहा है, वह कृष्‍ण ही है। आपका भी जो सारथी है, वह कृष्‍ण ही है। आपने न कभी उससे पूछा है, न कभी उसकी तरफ ध्यान दिया है, न कभी उसकी सुनी है।

अगर हम आदमी को एक रथ समझ लें, तो आपका मन अर्जुन है; और आपके भीतर जो साक्षी चैतन्य है, वह कृष्‍ण है। आपके भीतर वह जो मन को भी देखने वाला है, वह जो विटनेस है, वह जो मन को भी जानता है, उसका द्रष्टा है, वह कृष्ण है।

लेकिन आपने अर्थात मन ने कभी उस तरफ देखा नहीं। और अगर वहां से कोई आवाज भी आई, तो कभी सुना नहीं। जिस दिन भी आप तैयारी पूरी कर लेंगे, कृष्ण को आप अपने निकट पाएंगे सदा—सदा। इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दें। वह कृष्ण की चिंता है, वह आपकी चिंता नहीं है।

आपमें क्या हो जाए कि आप कहें कि परमात्मा, मुझे दिखा! और परमात्मा कहे कि देख! और बीच में एक क्षणभर का भी अंतराल न हो। अर्जुन ने इस बीच क्या कमाया है?

गंवाने से शुरू करें। क्योंकि इस अध्यात्म के जगत में कमाई गंवाने से शुरू होती है। अर्जुन ने अपने संदेह गंवाए। अब उसका कोई संदेह नहीं है। अब वह कहता है, आप जो कहते हैं, ऐसा ही है, यह मेरी भी श्रद्धा बन गई।

अब तक वह पूछ रहा था, सवाल उठा रहा था, संदेह कर रहा था। वह कहता था, अगर ऐसा करूंगा, तो ऐसा होगा। अगर युद्ध में जाऊंगा, तो इतने लोग मरेंगे। अगर मर जाएंगे, तो इतना पाप लगेगा। तो संन्यास ले लूं सब छोड़ दूं विरक्त हो जाऊं? क्या करूं, क्या न करूं? और कृष्‍ण जो भी कहते थे, वह उस पर दस नए सवाल उठाता था। अब उसके कोई सवाल न रहे।

जिस दिन आपके भीतर कोई सवाल न रहे, आप समझना कि आपने कुछ कमाया। एक लिहाज से तो गंवाया, क्योंकि हम समझते हैं, सवाल ही हमारी संपत्ति है।

लेकिन क्या होगा सवालों से? और लाख सवाल भी आप पूछ सकते हों, तो भी लाख सवाल से एक जवाब भी तो बनता नहीं है। लाख सवाल भी जोड़ लें, तो एक जवाब नहीं बनता। और एक जवाब आपके पास आ जाए, तो लाख सवाल तत्क्षण विलीन हो जाते हैं, हवा में खो जाते हैं।

इसलिए जो व्यक्ति उत्तर की तलाश में है, उसे पहले तो अपने सवाल खोने की तैयारी दिखानी चाहिए। यह जरा कठिन लगेगा। क्योंकि हम कहेंगे, यह तो बड़ी उलटी बात आप कह रहे हैं। उन्हीं का तो हमें जवाब चाहिए, जिनको आप छोड़ने को कह रहे हैं। अगर उनको छोड़ देंगे, तो फिर जवाब किस चीज का!

हमारे चारों तरफ सवालों की एक भीड़ है। उसमें रंचभर भी जगह नहीं है भीतर कि कुछ प्रवेश हो जाए। तो जो भी जवाब मिलता है, हमारे सवाल उस पर हमला कर देते हैं, उसे तोड़कर दस सवाल बना देते हैं; वापस लौटा देते हैं कि अब इनको पूछकर आओ। और भीतर हमारे कोई जवाब नहीं पहुंच पाता। हम बिना उत्तर के मर जाते हैं, क्योंकि हम —सवालों से भरे हुए जीते हैं।

अर्जुन ने पहली तो कमाई यह कर ली कि अब उसके पास कोई सवाल नहीं है। वह यह कहने को तैयार हो गया है कि तुम जो कहते हो कृष्‍ण, ऐसा ही है। अब इसमें मुझे कुछ पूछना नहीं है।

और जब पूछना न हो, तभी देखने की क्षमता पैदा होती है। जो पूछना चाहता है, वह अभी देखना नहीं चाहता, सुनना चाहता है। फर्क समझ लें। जो पूछता है, वह सुनना चाहता है कि कुछ कहो। प्रश्न का मतलब है, कुछ सुनाओ। प्रश्न का मतलब है, मेरे कान में कुछ डालो।

लेकिन सत्य कान के रास्ते से कभी भी गया नहीं है। अब तक तो नहीं गया है। और अभी तक कोई उपाय नहीं दिखता कि कान के रास्ते से सत्य चला जाए। सत्य जब भी गया है, आंख के रास्ते से गया है।

इसलिए हम सत्य के जानने वाले को कहते हैं, द्रष्टा। श्रोता नहीं, द्रष्टा। इसलिए जिन्होंने जान लिया उनके ज्ञान को हम कहते हैं, दर्शन। श्रवण नहीं, देखा। इसलिए हम तीसरी आंख की खोज करते हैं, तीसरे कान की नहीं। कोई तीसरा कान है ही नहीं।

पूछते हैं जब आप, तो आप चाहते हैं, आपके कान में कुछ डाला जाए। सत्य उस रास्ते नहीं आता। और ध्यान रहे, कान का अनुभव सदा ही उधार होता है। सदा ही उधार है। आंख का अनुभव ही अपना हो सकता है। जब तक सवाल हैं, तब तक आप उन लोगों की तलाश कर रहे हैं, जो आपके कान को कचरे से भरते रहें। जिस दिन आपके पास कोई सवाल नहीं है, उस दिन आप उस आदमी की खोज करेंगे, जो आपको दिखा दे।

तो अर्जुन का यह कहना कि जो आप कहते हैं, ऐसा ही है, खबर देता है कि उसके सवाल गिर गए।

दूसरी बात। जिंदगी में एक तो हमारे रोजमर्रा की उलझनें हैं। अर्जुन जहां से यात्रा शुरू किया, वह रोजमर्रा की उलझन थी, युद्ध का सवाल था। क्षत्रिय के लिए रोजमर्रा की उलझन है। मारना, नहीं मारना, नैतिक, अनैतिक; क्या करें, क्या न करें, क्या उचित है क्या करने योग्य है, वह उसकी चिंतना थी। सवाल तो शुरू हुआ था जिंदगी से। जिंदगी की सामान्य उलझन थी।

हम सबको भी वही उलझन है कि यह करें या न करें? इसका क्या फल होगा? पुण्य होगा, पाप होगा? न करें तो अच्छा है कि करें तो अच्छा है? अंतिम परिणाम जन्मों—जन्मों में क्या होंगे? हम सब की भी चिंता यही है। मांसाहार करें या न करें? पाप होगा कि पुण्य होगा? धन इकट्ठा करें कि न करें? क्योंकि कहीं कोई गरीब हो जाएगा; तो हम पुण्य कर रहे हैं कि पाप कर रहे हैं? क्या करें? क्या उचित, क्या अनुचित? यही उसकी चिंतना थी। इसी से यात्रा शुरू हुई थी। अभी तक वह यही पूछता रहा था।

लेकिन अचानक इस बात को कहने के बाद— कि अब जो आप कहते हैं, वैसा ही है, ऐसी श्रद्धा का मुझमें जन्म हुआ— वह एक दूसरा ही सवाल उठा रहा है, जो जीवन की उलझन का नहीं, जीवन के पार है। वह कह रहा है कि अब मैं विराट को देखना चाहता हूं। यह आयाम, यह डायमेंशन अलग है।

जब तक आप उन सवालों को पूछ रहे हैं, जिनका संबंध इस जीवन के चारों तरफ के विस्तार से है, तब तक आप दर्शन की यात्रा नहीं कर सकते। जिस दिन आप इस उलझन के थोड़ा पार उठते हैं और परम जिज्ञासा करते हैं कि इस जीवन का स्वरूप क्या है? उस दिन ही दर्शन की बात संभव हो सकती है।

इनकी कोई भी जिज्ञासा आध्यात्मिक नहीं है। इनका प्रश्न जिंदगी के रोजमर्रा काम से उलझा हुआ है। इस रोजमर्रा के काम से सत्य के दर्शन का कोई भी संबंध नहीं है। ये जो पूछ रहे हैं, यह धार्मिक जिज्ञासा ही नहीं है।

अब तक अर्जुन जो पूछ रहा था, वह नैतिक जिज्ञासा थी, धार्मिक नहीं। अब वह जो जिज्ञासा कर रहा है, वह धार्मिक है। अर्जुन भूल गया कि युद्ध में खड़ा है।

इसको खयाल में रखें। इस घड़ी आकर अर्जुन भूल पाया कि युद्ध में खड़ा है। इस घडी आकर वह भूल पाया कि प्रियजन सामने खड़े हैं और मैं इनको मारने को आया हूं। इस घड़ी युद्ध विलीन हो गया। वह जो चारों तरफ शस्त्र— अस्त्र लिए हुए योद्धा खड़े थे, वे खो गए, जैसे स्वप्न में चले गए हों। वे नहीं हैं अब। अब सिर्फ दो ही रह गए उस बड़ी भीड़ में— अर्जुन और कृष्‍ण। आमने—सामने खड़े हैं। भीड़ तिरोहित हो गई है।

ऐसा नहीं कि भीड़ कहीं चली गई। भीड़ तो जहां है, वहीं है। पर अर्जुन के लिए अब उस भीड़ का कोई भी पता नहीं है। अर्जुन अब उस भीड़ के संबंध में नहीं सोच रहा है। यह संसार हट गया। अब अर्जुन एक सवाल पूछ रहा है कि जो आपने कहा, अनंत, जिस विराट लीला की आपने बात कही, जिस अमृत, अनंत धारा का आपने स्मरण दिलाया, मैं उसे देखना चाहता हूं। संसार खो गया। यह जिज्ञासा, यह जिज्ञासा धर्म की जिज्ञासा है।

अर्जुन को यहां युद्ध खो गया, संसार मिट गया। और उसने पूछा कि अब मैं देखना चाहता हूं क्या है अस्तित्व! सीधा, प्रत्यक्ष, आमने—सामने, सीधे देख लेना चाहता हूं। अब मैं आपको भी बीच में लेने को तैयार नहीं हूं।

जिस दिन शिष्य कहता है गुरु से कि अब आप भी हट जाएं, अब मैं सीधा ही देखना चाहता हूं उस दिन गुरु के आनंद का कोई पारावार नहीं है। जब तक शिष्य कहता रहता है, मैं तो आपके चरण ही पकड़े रहूंगा; चाहे आप नरक जाएं, तो मैं नरक चलंगूा; जहां जाएं, आपको छोड़ नहीं सकता; तब तक गुरु पीड़ित होता है। क्योंकि फिर यह एक नया मोड, एक नई आसक्ति, एक नया उपद्रव, एक नया संसार...।

यहां अर्जुन क्या कह रहा है? बहुत डिप्लोमेटिकली, बहुत राजनैतिक ढंग से— क्षत्रिय था, होशियार था, कुशल था— बड़े शिष्ट ढंग से वह कृष्ण से क्या कह रहा है, आप समझें! वह यह कह रहा है कि हटो तुम अब, अब मुझे सीधा ही देख लेने दो। अब तुम्हारा रूप भी हटा लो। अब तुम्हारी आकृति भी विदा कर लो।

अब तुम भी न हो जाओ। अब तुम्हारा दरवाजा भी हट जाए और मैं खुले आकाश को सीधा देख लूं।

और निश्चित ही, जो उस नई यात्रा पर निकल जाता है, उसे लौटकर यह जगत स्वप्न मालूम पड़ता है। लेकिन स्वप्न इसलिए मालूम पड़ता है कि अब सापेक्ष रूप से उसने जो जाना है, वह इतना विराटतर सत्य है कि तुलना में यह बिलकुल फीका और मुर्दा हो गया है। उसे ठीक यह ऐसे ही स्वप्नवत हो जाता है, जैसे आपने कागज के फूल देखे हों, और फिर आपको असली फूल देखने मिल जाएं। और तब आप कहें कि ये कागज के फूल हैं। लेकिन जिन्होंने कागज के फूल ही देखे हों, उनको इसमें कुछ भी अर्थ न मालूम पड़े, क्योंकि फूल का मतलब ही कागज के फूल होता है, और तो फूल कोई होता नहीं!

जिस दिन हम विराट को देख पाते हैं, उस दिन सीमित स्वप्न जैसा फीका, मुर्दा, बेजान, अर्थहीन मालूम पड़ने लगता है। रिलेटिव, वह सापेक्ष दृष्टि है। वह हमने कुछ और जान लिया। जैसे कोई सूरज को देख ले, फिर घर में लौटकर मिट्टी के दीए को देखकर कहे कि यह बिलकुल अंधेरा है। अंधेरा है नहीं, क्योंकि घर में जो बैठा है, उसके लिए दीया ही सूर्य है। लेकिन जो सूरज को देखकर लौटा है, उसे दीए की ज्योति दिखाई भी नहीं पड़ेगी। इतने विराट को जिसने जाना है, दीए की ज्योति अब उसकी आंखों में कहीं पकड़ में नहीं आएगी। वह कहेगा, दीया यहां है ही नहीं। तुम अंधेरे में बैठे हो।

यह सूर्य की तुलना में है। सब शब्द सापेक्ष हैं।

अर्जुन को जिस क्षण यह बाहर का सारा जगत कृष्‍ण की तल्लीनता में स्वप्नवत हो गया, वह भूल गया कि मैं कहां खड़ा हूं। कभी आप भूले हैं एकाध क्षण को कि आप कहां खड़े हैं? कभी आप भूले हैं, एकाध क्षण को, अपनी पत्नी को, बच्चे को, घर को, दूकान को, मकान को? कभी एकाध क्षण को ऐसा हुआ है कि चौंककर आपको खयाल हुआ हो कि मैं कौन हूं? कहां खड़ा हूं। क्या है मेरे चारों तरफ?

लेकिन वह क्षण हमें आता ही नहीं। हमें सब पता है कि मैं कौन हूं। नाम का पता है। पते का पता है। अपने घर का, बैंक बैलेंस सब पता है। कौन कहता है कि नहीं पता है!

अर्जुन इस घड़ी में ऐसी जगह आ गया, जहां उसे कुछ भी पता नहीं रहा। वह भूल ही गया कि युद्ध होने के करीब है। थोड़ी देर में शंख बजेंगे, युद्ध में कूद जाना पड़ेगा। वह नीति—अनीति, वह क्षुद्र सब प्रश्न, सब खो गए। अभी थोड़ी देर पहले उसे बड़े महत्वपूर्ण मालूम पड़ते थे। वह मरना—जीना, अपने—पराए, वे सब खो गए। अब उसके लिए एक ही बात महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है, यह अस्तित्व क्या है? एक्सिस्टेंस, यह होना ही क्या है? तो कृष्‍ण को कहता है, तुम भी हट जाओ। मुझे आमने—सामने सीधा हो जाने दो मैं एक दफा सीधा ही देख लूं क्या है।

यह योग्यता उसने अर्जित की गीता के इस क्षण तक। जब जीवन की क्षुद्रता प्रश्न नहीं बनती, तभी जीवन का विराट, जिज्ञासा बनता है। जिसने हमें चारों तरफ घेर रखा है अभी और यहां, समय के धेरे में, जब अचानक हमें उसका पता भी नहीं चलता, तो वह जो समय के पार है, हमें आच्छादित कर लेता है। जब क्षुद्र को हम भूल तो विराट की स्मृति आती है।

सब उपाय धर्म के क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। कहो उसे प्रार्थना कहो ध्यान, कहो पूजा, कहो जप; जो भी नाम देना हो, दो। क्षुद्र को भूलने के उपाय हैं। और क्षुद्र भूल जाए, तो हम उस किनारे पर खड़े हो जाते हैं, जहां से नौका विराट में छोड़ी जा सकती है। थोड़ी देर को भी क्षुद्र भूल जाए, तो कुछ हो सकता है; कोई नए तल पर हमारा होना, कोई नई दृष्टि, कोई नया हृदय हम में धड़क सकता है। कोई नया स्वर, जो भीतर निरंतर बजता रहा है, सनातन है। लेकिन हमारे लिए नया है, क्योंकि हम पहली दफा सुनेंगे। वह चारों तरफ की भीड़, आवाज, शोरगुल, बंद हो जाए क्षणभर को, तो वह भीतर की धीमी—सी आवाज, सनातन आवाज, हमें सुनाई लगता है।

अर्जुन भूल गया है। संसार का विस्मरण, युद्ध का विस्‍मरण, परिस्थिति का विस्मरण, उसके लिए ब्रह्म की जिज्ञासा बन गई है। और कृष्ण ने उससे एक बात भी नहीं कही। कहा कि देख।

यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है कि क्या अर्जुन को अब कुछ करना नहीं है। कृष्‍ण कहते हैं, देख। और अर्जुन देखना शुरू कर देगा! क्या हुआ होगा? यह बहुत बारीक है। और जो अध्यात्म में गहरे उतरते हैं, उन्हें समझ लेने जैसा है। या उतरना चाहते हैं कभी, तो इसे सम्हाल—सम्हालकर रख लेने जैसा है।

वह जो तीसरी आंख है, दो प्रकार से सक्रिय हो सकती है। या तो साधक चेष्टापूर्वक अपनी दोनों आंखों की ज्योति को भीतर खींच ले, आंख को बंद करके। वर्षों की लंबी साधना है, आंखों को निज्योंति करने की। क्योंकि आंख से हमारी जो चेतना बह रही है बाहर, उसे आंख बंद करके भीतर खींच लेने की। 

आपने कृष्‍ण की प्रेयसी राधा का नाम सुना है। आपको खयाल न होगा, वह धारा का उलटा शब्द है। कृष्‍ण के समय के जो भी शास्त्र हैं, उनमें राधा का कोई उल्लेख नहीं है। राधा के नाम का भी कोई उल्लेख नहीं है। बहुत बाद में, बहुत बाद की किताबों में राधा का उल्लेख शुरू हुआ। जिन्होंने उल्लेख शुरू किया, वे बड़े होशियार लोग थे। उन्होंने एक प्रतीक में बड़ा रहस्य छिपाकर रखा। लेकिन लोगों ने फिर राधा की मूर्तियां बना लीं। और फिर लोग कृष्ण और राधा बनकर मंच पर रास—लीला करने लगे!

राधा एक यौगिक प्रक्रिया है। वह जो जीवन की धारा बाहर की तरफ बह रही है, जिस दिन उलटी हो जाती है, उस दिन उस धारा का नाम राधा हो जाता है। सिर्फ शब्द को उलटा कर लेने से।

वह जो आंख से हमारी जीवन— धारा बाहर जा रही है, जब भीतर आने लगती है, तो वह राधा हो जाती है। और भीतर हमारे छिपा है कृष्ण, मैंने कहा, साक्षी। वह साक्षी, जो हमारे भीतर छिपा है, जब हमारी जीवन— धारा उसकी राधा बन जाती है, उसके चारों तरफ नाचने लगती है, बाहर नहीं जाती; भीतर, और रास शुरू हो जाता है। उस रास की बात है।

और हम नौटंकी कर रहे हैं, मंच वगैरह सजाकर। ऊधम करने के बहुत उपाय हैं। उपद्रव करने के बहुत उपाय हैं। और आदमी हर जगह से उपद्रव खोज लेता है। और अपने को भरमा लेता है, और सोचता है, बात खतम हो गई।

राधा हमारी जीवन— धारा का नाम है, जब उलटी हो जाए, वापस लौटने लगे स्रोत की तरफ। अभी जा रही है बाहर की तरफ। जब जाने लगे भीतर की तरफ, अंतर्यात्रा पर हो जाए, तब, तब जो रास भीतर घटित होता है, परम रास, वह जो परम जीवन का अनुभव और आनंद, वह जो एक्सटैसी है, वह जो नृत्य है भीतर, उसकी बात है।

तो एक तो उपाय है कि हम चेष्टा से, श्रम से, योग से, तंत्र से, साधन से, विधि से, मैथड से, सारी जीवन चेतना को भीतर खींच लें। एक उपाय है साधक का, योगी का।

एक दूसरा उपाय है भक्त का, समर्पित होने वाले का, कि वह समर्पण कर दे। जिस व्यक्ति की अंतर्धारा भीतर की तरफ दौड़ रही हो, उसको समर्पण कर दे।

तो जैसे अगर आप एक चुंबक के पास एक साधारण लोहे का टुकड़ा रख दें, तो चुंबक की जो चुंबकीय धारा है, जो मैग्नेटिक फील्ड है, वह उस लोहे के टुकड़े को भी मैग्नेटाइज कर देता है, उस लोहे के टुकड़े को भी तत्काल चुंबक बना देता है। ठीक वैसे ही अगर कोई व्यक्ति उस व्यक्ति की तरफ अपने को पूरी तरह समर्पित कर दे, जिसकी धारा भीतर की तरफ जा रही है, तो तत्‍क्षण उसकी धारा भी उलटी होकर बहने लगती है।

अर्जुन ने न तो कोई साधना की अभी। अभी साधना करने का उपाय भी नहीं। अभी तो यह चर्चा ही चलती थी। और अचानक अर्जुन ने कहा कि अगर आप समझें मुझे योग्य, समझें शक्य, अगर यह संभव हो, आपकी मर्जी हो, तो दिखा दें। और कृष्ण ने कहा, देख।

इन दोनों शब्दों के बीच में जो घटना घटी है, वह मैग्नेटाइजेशन की है। वह अर्जुन का यह समर्पण भाव कि आप जो कहते हैं, वह ठीक ही है, मैं तैयार हूं; अब मेरा कोई विरोध नहीं, अब मेरा कोई असहयोग नहीं; अब मैं सहयोग के लिए राजी हूं; अब मेरी समग्र स्वीकृति है! कृष्‍ण ने कहा, देख।

इन दोनों के बीच जो घटना घटी, उसका कोई उल्लेख गीता में नहीं है, हो भी नहीं सकता। उसका क्या उल्लेख हो सकता है! वह घटना यह घटी कि समर्पण के साथ ही, वह जो कृष्‍ण की भीतर बहती हुई धारा थी, अर्जुन की धारा उसके साथ भीतर की तरफ लौट पड़ी। कृष्‍ण खो गए और अर्जुन ने देखना शुरू कर दिया।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 15

 मंजिल है स्‍वयं में


यच्चायि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्‍स्‍यान्मया भूतं चराचरम्।। 39।।

नान्तोउस्ति मम दिव्यानां विभूतीना परंतप।

एक् तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 40।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ स्वं मम तेजोंउशसंभवम्।। 41।।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।

विष्टथ्याहमिदं कृत्नमेकांशेन स्थितो जगत।। 42।।


और हे अर्जुन जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह भी मैं ही हूं क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे।

हे परंतप मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। इसलिए हे अर्जुन जो— जो भी विभूतियुक्त अर्थात

ऐश्वर्ययुक्त एवं कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्‍तु है, उस— उस को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्‍न हुर्ड़ जान।

अथवा हे अर्जुन हम बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योग— माया के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूं। इसलिए मेरे को ही तत्व से जानना चाहिए।


 और हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह मैं ही हूं क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित हो।

इस सूत्र पर कृष्ण ने बार—बार जोर दिया है। बहुमूल्य है, और निरंतर स्मरण रखने योग्य इसलिए भी। जब भी हम ईश्वर के संबंध में विचार करते हैं, तब ऐसा ही विचार में प्रतीत होता है कि ईश्वर अस्तित्व से कुछ और है। यह विचार की भूल के कारण होता है; यह विचार के स्वभाव और विचार की प्रक्रिया के कारण होता है। जब भी विचार का उपयोग किया जाता है, तो चीजें दो में टूट जाती हैं। विचार वस्तुओं को विश्लिष्ट करने का मार्ग है। तो जब भी हम सोचते हैं ईश्वर के संबंध में, तो जगत अलग और ईश्वर अलग हो जाता है। तो हम कहते हैं सृष्टि, तो स्रष्टा अलग हो जाता है।

लेकिन वस्तुत: अनुभूति में सृष्टि और स्रष्टा पृथक—पृथक नहीं हैं, वे एक ही हैं। इसलिए पुराने अनुभव करने वाले लोगों ने कहा है कि यह सृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से जाले को निकालकर फैलाती है। यह जो इतना विस्तार है, यह परमात्मा से वैसे ही निकलता और फैलता है, जैसे मकड़ी का जाला उसके भीतर से निकलता और फैलता है।

यह विस्तार उसका ही विस्तार है। यह विस्तार उससे पृथक नहीं है। और एक क्षण को भी पृथक होकर इसका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यह है उसकी ही मौजूदगी के कारण। वह इसमें समाया है, इसीलिए इसका अस्तित्व है। वह मौजूद है, इसीलिए यह मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम ईश्वर को अस्तित्व का पर्यायवाची मानें। अस्तित्व ही ईश्वर है।

इस बात से तो विज्ञान भी राजी होगा। इस बात से तो नास्तिक भी राजी हो जाएगा। लेकिन नास्तिक या वैज्ञानिक कहेगा, फिर ईश्वर शब्द के प्रयोग की कोई जरूरत नहीं; प्रकृति काफी है, जगत काफी है, अस्तित्व काफी है। और यहां धर्म के जगत के लिए विशेष शब्द के प्रयोग का अर्थ समझ लेना उचित है।

अस्तित्व काफी है कहना, लेकिन अस्तित्व से हमारे हृदय में कोई भी आंदोलन नहीं होता। अस्तित्व से हमारे प्राणों में कोई चीज संचारित नहीं होती। अस्तित्व से हमारे हृदय की वीणा पर कोई चोट नहीं पड़ती। अस्तित्व और हमारे बीच कोई संबंध निर्मित नहीं होता। ईश्वर कहते ही हमारे हृदय में गति शुरू हो जाती है। ईश्वर शब्द इसलिए प्रयोजित है। क्योंकि ईश्वर है, इतना काफी नहीं है कहना, आदमी ईश्वर तक पहुंचे, यह भी जरूरी है।

धर्म केवल तथ्यों की घोषणा नहीं है, वरन लक्ष्यों की घोषणा भी है। यहीं विज्ञान और धर्म का फर्क है। धर्म केवल तथ्यों की, फैक्ट्स की घोषणा नहीं है। क्या है, इतने से ही धर्म का संबंध नहीं है। क्या होना चाहिए, क्या हो सकता है, उससे भी धर्म का संबंध है।

अगर बीज हमारे सामने पड़ा हो, तो विज्ञान कहेगा, यह बीज है, और धर्म कहेगा, यह फूल है। धर्म उसकी भी घोषणा करेगा जो हो सकता है, जो होना चाहिए। और जो नहीं हो पाएगा, तो बीज के प्राण कुंठित, पीड़ित और परेशान रह जाएंगे। बीज अतृप्त रह जाएगा, अगर फूल न हो पाया तो। और बीज के प्राणों में एक गहरा विषाद, एक संताप रह जाएगा, एक अधूरापन।

विज्ञान इतना कहकर राजी हो जाता है कि अस्तित्व है। धर्म कहता है, ईश्वर और अस्तित्व समानार्थी हैं, फिर भी हम अस्तित्व नहीं कहते, कहते हैं, ईश्वर है। ईश्वर कहते ही बीज और फूल, दोनों की एक साथ घोषणा हो जाती है। जब हम कहते हैं, अस्तित्व ईश्वर है, तो हम मौलिक रूप से यह कहना चाहते हैं कि प्रत्येक ईश्वर है और हो सकता है।

कृष्ण ने कहा है, ऐसा चर और अचर कोई भी नहीं है, जो मेरे से रहित होवे। ऐसी कोई भी सत्ता नहीं है, जहां मैं मौजूद नहीं हूं। लेकिन पत्थर की तो हम बात छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं चलता कि वह मौजूद है। पत्थर में भी वह मौजूद है। पत्थर को हम छोड़ दें, आदमी को भी पता नहीं चलता कि वह मेरे भीतर मौजूद है। हमें भी अनुभव नहीं होता कि वह हमारे भीतर मौजूद है। कहीं और खोजने निकलते हैं—काबा में, काशी में, मक्का में, मदीना में— कहीं उसे खोजने निकलते हैं। यह खयाल ही नहीं आता कि वह यहां भीतर हो सकता है। क्या कारण होगा?

कारण बहुत सहज, बहुत सरल है। जो अति निकट होता है, वह विस्मरण हो जाता है। जो बहुत निकट होता है, उसकी हमें याद ही नहीं आती। और जो भीतर ही होता है, उसका हमें पता ही नहीं चलता। हमें पता ही उन चीजों का चलता है, जो दूर होती हैं, जिनमें और हममें फासला होता है। बोध के लिए बीच—बीच में गैप, अंतराल चाहिए। हमारे और परमात्मा के बीच में कोई अंतराल नहीं है, इसलिए बोध पैदा नहीं हो पाता।

इसे थोड़ा हम समझ लें।

अगर आपको बचपन से ही शोरगुल के बीच बड़ा किया जाए, रेलवे स्टेशन पर बड़ा किया जाए, जहां दिनभर गाड़ियां दौड़ती रहती हों, और यात्री भागते रहते हों, और शोरगुल होता हो, इंजन आवाज करते हों, तो आपको उसी दिन पता चलेगा कि शोरगुल हो रहा है, जिस दिन रेलवे में हड़ताल हो जाए; उसके पहले पता नहीं चलेगा। जिस दिन सब गाड़ियां बंद हों और यात्री कोई न आएं, न जाएं, उस दिन आपको पहली दफा पता चलेगा कि शोरगुल हो रहा था। अन्यथा आप शोरगुल के आदी हो गए होंगे। आपको खयाल में भी नहीं आएगा।


जो बात निरंतर होती रहती है, उसका हमें बोध मिट जाता है। जो बात अचानक होती है, उसका हमें बोध होता है। जो कभी—कभी होती है, उसका हमें बोध होता है। जो सदा होती रहती है, उसका हमें बोध मिट जाता है। और परमात्मा और हमारे बीच कभी भी हड़ताल नहीं होती, यही तकलीफ है। परमात्मा और हमारे बीच कभी ऐसी घटना नहीं घटती कि परमात्मा मौजूद न हो। अगर एक क्षण को भी परमात्मा गैर—मौजूद हो जाए, तो हमें पता चले।

मछली सागर में तैरती रहती है, उसे सागर का पता नहीं चलता। मछली को सागर से निकालकर रेत पर डाल दो, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर था। तब उसकी तडफन, तब उसकी बेचैनी, तब उसके प्राणों का संकट खडा होता है, तब उसे पता चलता है कि जहां मैं थी, वह सागर था, वह मेरे प्राणों का आधार था।

लेकिन आदमी को परमात्मा के बाहर निकालकर किसी भी रेत पर डालने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आदमी को पता नहीं चलता कि वह परमात्मा में जी रहा है! यह अजीब सा लगेगा।

हम तो साधारणत: सोचते हैं कि परमात्मा बहुत दूर होना चाहिए, इसलिए हमें पता नहीं चलता है। वह बिलकुल ही गलत है। दूर होता, तो पता हम चला ही लेते। इतना निकट है, इसीलिए पता नहीं चलता। और निकटता इतनी सघन है कि कभी नहीं टूटी, इसलिए पता नहीं चलता।

दूरी कितनी ही बड़ी हो, पार की जा सकती है। और परमात्मा अगर दूर होता, तो हमने पार कर लिया होता। और एक आदमी पार कर लेता, फिर तो हम पक्का रास्ता बना लेते। फिर कोई कठिनाई न थी। एक कृष्ण पहुंच जाते, एक बुद्ध पहुंच जाते, फिर क्या दिक्कत थी! फिर कोई कठिनाई न थी। चांद पर एक आदमी उतर गया, अब सिद्धांतत: पूरी मनुष्यता उतर सकती है। अब यह कोई कठिनाई की बात नहीं रही, देर—अबेर की बात है। एक बार रास्ते का पता चल गया, तो कोई भी उतर सकता है।

दूरी की यात्रा की एक खूबी है। दूरी की यात्रा में रास्ता बन जाता है। एक आदमी पहुंच जाए, सब पहुंच सकते हैं। लेकिन परमात्मा और हमारे बीच दूरी न होने से रास्ता नहीं बन सकता। रास्ते के लिए दूरी जरूरी है। कुछ तो फासला हो, तो हम रास्ता बना लें।

इसलिए इतने लोग परमात्मा को पा लेते हैं, फिर भी रास्ता नहीं बन पाता बंधा हुआ कि जिस पर से फिर कोई भी धड़ल्ले से चला जाए। और फिर किसी को भी यह चिंता न रहे कि मुझे खोजना है। रास्ता पकड़ लिया, खोज पूरी हो ही जाएगी।

ध्यान रहे, अगर रास्ता मजबूत हो, तो आपको सिर्फ चलना जानना जरूरी है। धर्म के मामले की कठिनाई यह है कि चलना तो सबको आता है, रास्ता नहीं है। और हर एक को रास्ता अपना ही बनाना पड़ता है। कोई दूसरे का रास्ता काम नहीं पड़ता। दूरी हो तो दूसरे के रास्ते काम पड़ते हैं, दूरी यहां बिलकुल नहीं है। यहां इंचभर का फासला नहीं है।

यह बहुत पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी दिखाई पड़ेगा। जब दूरी होती है, तो हम पहुंच सकते हैं चलकर। और जब दूरी बिलकुल न हो, तो हम पहुंच सकते हैं रुककर; चलकर नहीं पहुंच सकते। अगर मुझे आपके पास आना है, तो मैं चलकर आऊंगा। और अगर मुझे मेरे ही पास आना है, तो चलना फिजूल है। और अगर मैं मेरे ही पास पहुंचने के लिए चलता हूं तो उसका मतलब, मैं पागल हूं। कोई आदमी कहे कि मैं मेरे ही पास जाने के लिए दौड़ रहा हूं तो आप कहेंगे, वह पागल है। क्योंकि दौड़ तो और दूर ले जाएगी, पास कैसे लाएगी? पास आना हो तो सब दौड़ छोड़ देनी पड़ती है।

लेकिन यही सबसे बड़ी कठिनाई है, यह सरलता, परमात्मा का निरंतर मौजूद होना। यह भाषा में फिर भी गलत है कहना कि वह हमारे पास है, क्योंकि पास का मतलब भी थोड़ी दूरी तो होती ही है। हम वही हैं! फिर भी भाषा में दो हो जाते हैं, मैं और वह।

इसलिए ज्ञानियों ने या तो कहा कि मैं ही हूं अहं ब्रह्मास्मि! और या कहा कि तू ही है। या तो मैं ही हूं और या तू ही है। क्योंकि दो का उपयोग करने में फिर थोड़ा सा फासला बनता है। उतना फासला भी नहीं है।

कृष्ण का यह कहना कि सारे अस्तित्व में, होने मात्र में, मैं ही समाया हुआ हूं इन बहुत—सी बातों की सूचना है। जिसे भी खोजना हो उसे, उसे खोजने की भूल में नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि उसे हमने कभी खोया नहीं है। जिसे हम खो दें, उसे खोज भी सकते हैं। लेकिन परमात्मा को खोने का कोई उपाय नहीं है। आप परमात्मा को खो नहीं सकते हैं।

अगर परिभाषा की तरह से कहा जाए, तो परमात्मा का अर्थ है, आपका वह हिस्सा, जिसे आप खो नहीं सकते। जो—जो हिस्से आप खो सकते हैं—शरीर आप खो सकते हैं। मन आपका कल बदल सकता है, खो सकते हैं। आंखें कल आपकी फूट सकती हैं; इंद्रियां खो सकते हैं। होश भी, जिसको हम होश कहते हैं, वह भी खो सकता है, कल आप बेहोश हो सकते हैं। लेकिन जिसे आप खो ही नहीं सकते, वही परमात्मा है आपके भीतर। आपका होना, बीइंग, आपका अस्तित्व, वह आप नहीं खो सकते। जो नहीं खोया जा सकता, वही परमात्मा है।

तब तो यह मतलब हुआ कि हम उसे खोज रहे हैं, तो हम गलती कर रहे हैं। निश्चित ही! खोजने से कोई उसे पाता नहीं। खोजने से सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि खोज व्यर्थ थी। खोजने से सिर्फ हम थकते हैं और रुकते हैं। लेकिन जिस दिन हम थकते हैं और रुकते हैं, उसी दिन उसे पा लेते हैं।

तो खोज का एक उपयोग है, नकारात्मक। उससे व्यर्थता पता चल जाती है। दौड़ना, जाना, कहीं पाने की कोशिश, वह सब व्यर्थ हो जाती है। जिस दिन हम इस हालत में आ जाते हैं कि न कुछ पाने को है, न कुछ खोजने को है, न कहीं जाने को है, और भीतर सारी गति शून्य हो जाती है, उसी क्षण हम उसे पा लेते हैं, क्योंकि उसे हम पाए ही हुए हैं। वह हमारा अस्तित्व है।

हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है।

ये जो इतने—इतने प्रतीक कृष्‍ण ने लिए और अर्जुन को इतने—इतने मार्गों से इशारा किया, वे कहते हैं, यह तो बहुत संक्षिप्त में मैंने तुझे कुछ इशारे किए हैं। मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। जिसका अंत हो जाए, वह विभूति नहीं है। जिसका अंत हो जाए, वह दिव्य भी नहीं है। जिन—जिन चीजों का अंत होता है, वे— वे चीजें सांसारिक हैं। और जिन—जिन का प्रारंभ होता है, वे भी चीजें सांसारिक हैं। दिव्य से अर्थ ही वही है कि जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है, जिसका हम खोज नहीं सकते कि कब प्रारंभ हुआ और जिसकी हम खोज नहीं कर सकते कि कब समाप्त होगा।

इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारी खोज छोटी है। नहीं, हम कितना ही खोजें, जिसका स्वभाव ही अनादि और अनंत होना है, वही दिव्यता है, वही डिवाइननेस है।

इस जगत में जहां—जहां हमें प्रारंभ मिल जाता हो और अंत मिल जाता हो, समझ लेना कि वहां—वहां संसार है। और जहां प्रारंभ न मिलता हो और अंत न मिलता हो किसी बात का, वहीं—वहीं समझना कि परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हुई।

लेकिन हम तो परमात्मा को भी वस्तुओं की तरह देखना चाहते हैं। हम तो चाहते हैं, परमात्मा भी सामने खड़ा हो जाए, तभी हम मानें। नास्तिक यही कहता है कि कहां है तुम्हारा ईश्वर? उसे सामने कर दो; हम मान लें। उसका प्रश्न सार्थक मालूम होता है, लेकिन बिलकुल ही व्यर्थ है। क्योंकि वह ईश्वर शब्द की परिभाषा भी नहीं समझ पाया।

ईश्वर से अर्थ ही उसका है कि जिसका कोई प्रारंभ नहीं, अंत नहीं, जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई गुण नहीं, फिर भी जो है। और जितने भी गुण हैं और जितने भी आकार हैं, और जितने भी रूप हैं, सबके भीतर है।

एक फूल मैं आपको दूं और कहूं कि सुंदर है। फूल तो मैं आपको दे सकता हूं फूल की परिभाषा भी हो सकती है, लेकिन सौंदर्य की परिभाषा में कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और आप सब जानते हैं कि सौंदर्य क्या है। लेकिन अगर कोई पूछ लेगा, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप बता न पाएंगे कि सौंदर्य क्या है।

सबको अनुभव है कि सौंदर्य क्या है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने कभी सौंदर्य का अनुभव न किया हो। कभी उगते हुए सूरज में, कभी डूबते हुए चांद में, कभी किसी फूल में, कभी किन्हीं आंखों में, कभी किसी चेहरे में, कभी किसी शरीर के अनुपात में, कभी किसी ध्वनि में, कभी किसी गीत की कड़ी में, कहीं न कहीं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने सौंदर्य का अनुभव न किया हो। लेकिन अब तक, प्लेटो से लेकर बर्ट्रेड रसेल तक, सौंदर्य के संबंध में निरंतर चिंतन करने वाले लोग एक परिभाषा भी नहीं दे पाए हैं कि सौंदर्य क्या है!

कुछ चीजें ऐसी हैं कि जब तक तुम नहीं पूछते, मैं जानता हूं; और तुम पूछते हो कि मुश्किल खड़ी हो जाती है। उसने कहा कि मैं भलीभांति जानता हूं कि प्रेम क्या है, लेकिन तुम पूछो और मैं मुश्किल में पड़ा। मैं भलीभांति जानता हूं कि समय, टाइम क्या है, लेकिन तुमने पूछा कि मैं मुश्किल में पड़ा।

परमात्मा इनमें सबसे गहरी मुश्किल है, सबसे बड़ी मुश्किल है। समय और प्रेम और सौंदर्य और सत्य, शुभ, ये सब अलग— अलग मुश्किलें हैं। इनकी कोई की परिभाषा नहीं हो पाती।

इसका मतलब आप समझे? ईश्वर की हम व्याख्या नहीं कर सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं। सौंदर्य की हम व्याख्या नहीं कर सकते, अनुभव हम रोज करते हैं। फूल खिलता है और हम कहते हैं, सुंदर है। और छोटा—सा बच्चा भी पूछ ले कि सौंदर्य यानि क्या? क्या मतलब सौंदर्य से? कहां है सौंदर्य इस फूल में, मुझे बताओ! हाथ रखकर, अंगुली रख दो कि यह रहा सौंदर्य।

आप पंखुड़ी पर अंगुली रखेंगे, तो लगेगा, यह भी कोई सौंदर्य हुआ! आप पूरे फूल को भी मुट्ठी में ले लेंगे, तो भी क्या आप समझते हैं, आपने सौंदर्य को मुट्ठी में ले लिया! आप कहां से बताएंगे कि सौंदर्य यह रहा! आप उस बच्चे को कहेंगे, सौंदर्य एक अनुभव है। हो तो हो, न हो तो न हो।

और फूल से सौंदर्य का कुछ लेना—देना नहीं है। क्योंकि कल सुबह आप कहेंगे, बड़ा सुंदर सूरज निकल रहा है। बच्चा पूछेगा कि फूल में और सूरज में कोई संबंध तो मालूम नहीं होता! कल फूल को सुंदर कहते थे, आज सूरज को सुंदर कहने लगे! कुछ तो समझ का उपयोग करो! और परसों आप कहेंगे किन्हीं आंखों में देखकर कि आंखें बड़ी सुंदर हैं। तो वह बच्चा कहेगा, अब आप बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। परसों फूल को कहा था सौंदर्य। कल सूरज को कहा था सौंदर्य। आज आंखों को कहने लगे सुंदर हैं! सौंदर्य क्या है?

अगर इन तीनों में है, तो इसका मतलब हुआ कि फूल से वह समाप्त नहीं होता। सूरज पर समाप्त नहीं होता। आंखों में समाप्त नहीं होता। अगर इन तीनों में है, तो तीनों जैसा नहीं है और फिर भी तीनों के भीतर कहीं छिपा है। तीनों में अनुभव होता है और हृदय एक—सा आंदोलित होता है। लेकिन कहां फूल और कहां सूरज और कहां आदमी की आंखें! इनमें कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता। कोई अदृश्य फूल में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। कोई अदृश्य आंख में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। दोनों में कहीं कोई मेल है।

ईश्वर को जब भी हम मापने चलते हैं, तभी हम आकार देते हैं। और जब भी हम पूछते हैं, कहां है ईश्वर? कैसा है ईश्वर? क्या है उसका रूप? क्या है उसका रंग? क्या है उसकी आकृति? तब हम गलत सवाल पूछ रहे हैं। सब आकृतियां जिसकी हैं, और सब रूप जिसके हैं, वही है ईश्वर।

इसे हम ऐसा समझें कि आप सागर के किनारे खड़े हो जाएं। आपने सागर कभी देखा न होगा। आप कहेंगे, बिलकुल कैसी पागलपन की आप बात कर रहे हैं! हम सब सागर के किनारे ही रहने वाले लोग, सागर हम रोज देखते हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, सागर आपने कभी नहीं देखा। सिर्फ आपने सागर के ऊपर की उठती हुई लहरें देखी हैं। लहरें सागर नहीं हैं। लहरों में सागर है, लहरें सागर नहीं हैं। क्योंकि सागर बिना लहरों के भी हो सकता है, लहरें बिना सागर के नहीं हो सकतीं।

लेकिन आप लहरों को देखकर लौट आते हैं और सोचते हैं, सागर को देखकर लौट आए। हर लहर में सागर है, सब लहरों में सागर है। लेकिन सागर लहरों के पार भी है, लहरों से गहरा भी है। लहरें सागर के ऊपर ही डोलती रहती हैं। सागर बहुत बड़ा है। हमने लहरें ही देखी हैं। इसलिए कोई यह भी पूछ सकता है कि किस लहर को आप सागर कहते हैं?

हमने आदमी देखे हैं। पौधे देखे हैं। पशु देखे हैं। पक्षी देखे हैं। हम पूछते हैं कि किसको आप भगवान कहते हैं? कौन है ईश्वर? ये सब लहरें हैं उसी एक सागर की। इन सबके भीतर जो है, इन सबके नीचे जो है, जिस पर ये लहरें उठती हैं और जिसमें ये लहरें विलीन हो जाती हैं, वह सागर परमात्मा है। वह हमने नहीं देखा, हम लहरें ही देख पाते हैं।

मैं आपको देखता हूं लेकिन उसको नहीं देखता, जो आपके पहले भी था, आपके भीतर भी है अभी; और कल आप गिर जाएंगे, तब भी होगा। आप तो सिर्फ एक लहर हैं, जो उठी जन्म के दिन और गिरी मृत्यु के दिन, और कभी जवान थी और आकाश को छूने का सपना देखा। आप सिर्फ एक लहर हैं। लेकिन जब आप नहीं थे, आपकी आकृति नहीं थी, तब भी आप सागर में थे। और कल आपकी आकृति गिरकर लीन हो जाएगी, तब भी आप सागर में होंगे। सागर सदा होगा।

जो सदा है, वही परमात्मा है। जो कभी है, वही लहर है, और कभी नहीं हो जाता है। इसलिए परमात्मा को तो यह भी कहना ठीक नहीं है कि वह है। क्योंकि जितनी चीजों को हम कहते हैं है, वे सभी नहीं हो जाती हैं। सभी नहीं हो जाती हैं। जिसको भी हमने कहा है। कल वह नहीं हो जाएगी। और परमात्मा कभी भी नहीं नहीं होता। तो हमारा है शब्द भी बहुत छोटा पड़ जाता है।

अगर कोई आपसे सागर के किनारे पूछने लगे कि सागर किस लहर जैसा है? तो आप भी सोचेंगे कि उचित है, चुप ही रहूं जवाब न दूं। अगर आप यह कहें कि इस लहर जैसा है, तो भी गलती हो जाती है। अगर आप कहें कि सब लहरों जैसा है, तो भी गलती हो जाती है। क्योंकि सब लहरों से बड़ा है। और अगर आप कहें, किसी लहर जैसा नहीं, तो भी गलती हो जाती है, क्योंकि सभी लहरों में वही है। यह है तकलीफ।

कृष्ण कहते हैं, मेरे विस्तार का कोई अंत नहीं है। तो संक्षेप में तुझे कुछ लहरों के प्रतीक मैंने दिए हैं। उन लहरों के प्रतीक से भी अगर तू नीचे झांकेगा, तो तू सागर में पहुंच जाएगा।

लेकिन खतरा एक है। अगर आप लहर में डुबकी लगाएं, तो आप सागर में पहुंच जाएं। लेकिन अगर किनारे पर बैठकर लहर का चिंतन करें, तो आप कभी सागर में नहीं पहुंच सकते। और हम सब लहर का चिंतन करते हैं। और सोचते हैं कि चिंतन करते—करते कभी तो सागर में पहुंच जाएंगे। डुबकी लगानी पड़ेगी। लहर में डुबकी लगानी पड़ेगी।

कृष्‍ण ने जो प्रतीक दिए हैं, अगर किसी में भी डुबकी लग जाए, तो परमात्मा से संबंध जुड़ जाए। लेकिन अगर आप बैठकर चिंतन करने लगें, तो आप किनारे पर बैठ गए। विचार किनारा है जगत का। अनुभूति, कहें ध्यान, कहें समाधि, छलांग है सागर में।

इसलिए हे अर्जुन, जो—जो भी विभूतियुक्त, ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त है, उस—उस को तू मेरे तेज के अंश से उत्पन्न जान।

जहां—जहां तुझे कोई अभिव्यक्ति अपनी चरम स्थिति को छूती हुई मालूम पड़े, कोई शिखर जहां गौरीशंकर बन जाता हो, कोई फूल जहां पूरा खिल जाता हो; जहां भी तुझे लगे ऐश्वर्य, जहां भी तुझे लगे कांति, जहां भी तुझे लगे विभूति, जहां भी तुझे लगे कि कुछ असाधारण घटित हुआ है, जहां भी तुझे लगे कि कोई चीज अपनी चरमता को पहुंच गई, अपनी ऊंचाई को छू ली..?।

कृष्‍ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य है, जहां—जहां अभिव्यक्ति अपनी आखिरी चोटी को छू लेती है, वहीं—वहीं मैं हूं वहीं—वहीं मेरा ही अंश प्रकट होता है।

इसे ठीक से समझ लेना। इसका अर्थ यह हुआ, जैसे सूरज किसी से कहे...। क्योंकि सूरज को सीधा देखना बहुत मुश्किल है। दस करोड़ मील दूर है सूरज, फिर भी हम आंख गड़ाकर देख नहीं सकते, आंखें मुश्किल में पड़ जाती हैं। अगर सूरज के सामने ही खड़े हों, तो आंखें अंधी हो जाएंगी। यह बड़े मजे की बात है। सूरज के बिना सारी पृथ्वी पर अंधेरा हो जाता है। सूरज के बिना हम सब अंधे हो जाते हैं। और सूरज को सामने से देखें, तो भी हम अंधे हो जाएंगे। सूरज को सीधा नहीं देखा जा सकता।

लेकिन कोई आदमी सूरज के सामने खडा हो, सूरज को तो देख नहीं सकता सीधा, आंखें बंद हो जाएंगी। करीब—करीब अर्जुन वैसे ही कृष्‍ण के सामने खड़ा है। वह भी नहीं देख पा रहा है। वह भी नहीं देख पा रहा है कि कौन सामने है, किससे वह पूछ रहा है, किससे वह समझ रहा है। वह भी नहीं देख पा रहा है, वह भी नहीं समझ पा रहा है। ठीक है, मित्र है, बुद्धिमान है, आदर योग्य है, और कभी—कभी किसी क्षण में रहस्यपूर्ण है। कुछ जानता है। सीखा जा सकता है उससे। लेकिन अभी वह सूर्य नहीं दिखाई पड़ रहा है जो कृष्‍ण हैं। वे आंखें बंद हैं।

वह पूछता है कि मैं कहां—कहां आपको देखूं? जो सामने खड़ा है, वहां न देखकर वह पूछता है, कहां—कहां आपको देखूं? जैसे कोई सूरज से पूछे, तो सूरज कहे, जहां—जहां कोई दीया तुझे दिखाई पड़े, जो अंधेरे को तोड़ता हो, तो जानना कि वहां—वहां मैं हूं। तो जहां—जहां भी कोई दीया चमके और भभककर प्रकाश कर दे, वहां— वहां समझना, मेरी ही ज्योति है, मेरा ही तेज है।

यह जो कृष्ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य तुझे दिखाई पड़े..। अगर ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू ऐश्वर्य को देख। अगर सूरज नहीं दिखाई पड़ता, तो बेहतर है कि तू प्रकाश को देख। जहां—जहां तुझे चमकदार प्रकाश दिखाई पड़े, समझना कि मेरा ही अंश, मेरा ही तेज प्रकट हो रहा है।

सूरज का तेज तो हम देख सकते हैं दीयों में, वह बड़ी कठिन बात नहीं है। छोटे—से आपके घर में भी दीये की जो ज्योति जलती है, वह सूरज का ही हिस्सा है। वह सूरज का ही हिस्सा है।

एकदम से समझना कठिन होगा। अगर आप मिट्टी का तेल जला रहे हैं, तो आपको पता नहीं होगा कि मिट्टी का तेल निर्मित इसीलिए हुआ है कि लाखों—लाखों साल में पृथ्वी के द्रव्यों ने सूरज की किरणों को पीया है। और वे ही किरणें आपको वापस आपके मिट्टी के तेल से आपके दीये में वापस उपलब्ध हो जाती हैं। जब आप एक लकड़ी को रगड़कर जलाते हैं—जैसा कि पुराने जमाने में रिवाज था—दो लकड़ियों को रगड़कर या दो चकमक पत्थरों को रगड़कर आप जब किरण पैदा करते हैं, तो आपको खयाल न होगा, अरबों—अरबों वर्षों में पत्थर सूरज को पी गए हैं। वही पुन: प्रज्वलित हो जाता है।

लकड़ी के भीतर भी सूरज छिपा है और आपके भीतर भी। जहां भी ज्योति है, वहां सूरज की किरण है। वह कब पी ली गई होगी, यह दूसरी बात है। कब छिप गई होगी, यह दूसरी बात है। लेकिन वह सूरज की किरण है। सूरज प्रतिपल अपनी रोशनी दे रहा है। वह हजारों—हजारों जगह इकट्ठी हो रही है, संगृहीत हो रही है। वही रोशनी आप पुन: पा लेते हैं।

लेकिन सूरज को सीधे देखना मुश्किल है। दीये को आप मजे से सीधा देख सकते हैं। दीया बहुत अंश में सूरज है, लेकिन तेज उसका ही है।

तो कृष्ण कहते हैं, जहां—जहां ऐश्वर्य, जहां—जहां विभूति, जहां— जहां कांति, जहां—जहां शक्ति दिखाई पड़े, वहां—वहां मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न है, ऐसा तू जानना।

जो शब्द चुने हैं, एक तो है ऐश्वर्य, विभूति, कांति, शक्ति, वे सब संयुक्त हैं। शक्ति का अर्थ है, ऊर्जा, एनर्जी। एक छोटे—से बच्चे में शक्ति दिखाई पड़ती है। एक बुजुर्ग में शक्ति क्षीण हो गई होती है, उस अर्थों में जैसी बच्चे में दिखाई पड़ती है।

इसलिए जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि बच्चे में खोजें, बुजुर्ग में खोजने न जाएं। वहां शक्ति तो क्षीण होने लगी है। जो शक्ति की खोज कर रहे हों, बेहतर है कि सुबह के सूरज में खोजें, सांझ के सूरज में खोजने न जाएं, क्योंकि वहां तो ढलने लगा सब। शक्ति तो जितनी नई हो, उतनी तीव्र और गहन होती है। जो शक्ति को खोजने चलेंगे, उनके लिए बच्चे ईश्वरीय हो जाएंगे; वहां शक्ति अभी नई है, अभी फव्वारे की तरह फूटती हुई है। अभी उबलता हुआ है वेग, अभी सागर की तरफ दौड़ेगी यह गंगा। अभी यह गंगोत्री है, छोटी है, लेकिन विराट ऊर्जा से भरी है।

यह बड़े मजे की बात है। गंगोत्री में जितनी शक्ति है, उतनी जब गंगा सागर में गिरती है, तब नहीं होती है। बड़ी तो हो जाती है गंगा बहुत, लेकिन बुढ़ी भी हो जाती है। विशाल तो हो जाती है, लेकिन शक्ति का विशालता से कोई संबंध नहीं है। शक्ति तो, सच है कि जितना छोटा अणु हो, उतनी गहन होती है।

इसलिए आज विज्ञान अणु में सर्वाधिक शक्ति को उपलब्ध कर पाया है। परमाणु में, क्षुद्र परमाणु में, अति क्षुद्र परमाणु में, उसमें जाकर शक्ति का स्रोत मिला है।

छोटे—से बच्चे में भी, पहले दिन के बच्चे में जो शक्ति है, फिर वह रोज कम होती चली जाएगी। शक्ति को देखना हो, तो नये में खोजना। इसलिए जो भी समाज नये होते हैं, वे बच्चों का आदर करते हैं। जो समाज शक्तिशाली होते हैं, वे बच्चों का आदर करते हैं, सम्मान करते हैं।

लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो बुजुर्ग में खोजना, वृद्ध में खोजना। क्योंकि ऐश्वर्य अनुभव का निखार है, वह बच्चे में कभी नहीं होता। उसमें शक्ति होती है अदम्य। लेकिन अगर ऐश्वर्य खोजना हो, तो वह वृद्ध में खोजना।

 जब सच में ही कोई आदमी वृद्ध होता है— सच में! हम सब भी बूढ़े होते हैं, लेकिन हमारा बुढा होना वृद्ध होना नहीं है, सिर्फ क्षीण होना है, दीन होना है, दरिद्र होना है। हमारा वार्धक्य एक उपलब्धि नहीं है, सिर्फ एक लंबी गवाई है, कमाई नहीं है। लंबा हमने गंवाया है। खोया है, खोया है। क्षीण हो गए। जर्जर हो गए। सब चुक गया।

 जब सच ही कोई बूढ़ा होता है, तो उसके शुभ्र बाल वैसे ही हिमाच्छादित हो जाते हैं, जैसे हिमालय के पर्वत। उसके शुभ्र बालों में वैसी ही शीतलता और वैसा ही ऐश्वर्य आ जाता है, जैसे कभी जब गौरीशंकर पर बर्फ जमी होती है।

अगर कोई व्यक्ति ठीक से जीया है, तो वार्धक्य उसका ऐश्वर्य को उपलब्ध हो जाता है। एक कांति, एक दीप्ति जो वृद्ध में ही होती है, बच्चे में नहीं हो सकती। बच्चे में एक अदम्य वेग होता है, शक्ति होती है, जो कुछ बन सकती है, नष्ट भी हो सकती है। अगर वृद्ध उसे कुछ बनाने में समर्थ हो जाए, और वह जो शक्ति बच्चे में दिखाई पड़ी थी, अगर ठीक—ठीक यात्रा करे, तो ऐश्वर्य बन जाती है अंत में। अनुभव से यात्रा करके शक्ति ऐश्वर्य बनती है।

इसलिए जो समाज पुराने होते हैं, उनमें ऐश्वर्य देखा जा सकता है। जैसे अगर शक्ति देखनी हो, तो पश्चिम में देखनी चाहिए। और अगर ऐश्वर्य देखना हो, वह आभा देखनी हो जो वार्धक्य को उपलब्ध होती है, तो पूरब में देखनी चाहिए। इसलिए जो समाज पुराने होते हैं, वे वृद्ध को आदर देते हैं, बच्चे को नहीं। उनका आदर ऐश्वर्य के लिए है, चरम के लिए है, आखिरी के लिए है, अंतिम जो शिखर होगा, उसके लिए है।

शक्तिशाली समाज बच्चों और जवानों पर निर्भर करेगा। ऐश्वर्यशाली समाज वृद्ध पर, वार्धक्य पर निर्भर करेगा। इसलिए हमने तो अपने मुल्क में वृद्ध हो जाने को ही काफी आदर की बात समझा है। जरूरी नहीं है कि बुजुर्ग आदर के योग्य हो। लेकिन फिर भी हमने ऐसे वृद्ध देखे हैं कि उनके कारण सभी के आदृत हो गए। और वृद्ध ही पा सकते हैं उस अंतिम बात को, उस सौम्यता को।

एक तो भभक है आग की, और एक सिर्फ आभा है। ऐसा समझें कि जब सांझ सूरज डूब जाता है और रात नहीं आई होती है, तब जो प्रकाश फैल जाता है; या सुबह जब सूरज नहीं निकला होता, रात जा चुकी होती है, तब जो प्रकाश, जो आलोक फैल जाता है, वह आभा है, वह ऐश्वर्य है। शक्ति जला देती है, ऐश्वर्य केवल आलोकित करता है। शक्ति आग है; ऐश्वर्य केवल प्रकाश है और शीतल है। ऐश्वर्य में कोई दंभ और दर्प नहीं है, शक्ति में होगा। शक्ति से प्रारंभ होता है जीवन का, ऐश्वर्य पर उपलब्धि होती है। कांति से यात्रा है। अगर शक्ति कांति से गुजरे, तो ही ऐश्वर्य को उपलब्ध होती है। अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन—ऊर्जा का उपयोग क्षुद्र को खरीदने में करता रहे, तो कांतिहीन हो जाता है।

हम कई बार हीरे—जवाहरातों को देकर रोटी के टुकड़े खरीद लाते हैं। कई बार कहना ठीक नहीं, अधिक बार, ज्यादातर जीवन में जो श्रेष्ठतम है, उसे गंवाकर हम क्षुद्र को खरीद लेते हैं। पूरा जीवन हमारा इसी नासमझी में बीतता है। बस, काफी धंधा किया, काफी लेन—देन किया, इसका भर सुख होता है।

कांति का अर्थ है, जो व्यक्ति अपनी जीवन—ऊर्जा को निरंतर श्रेष्ठ के लिए समर्पित कर रहा है। उस व्यक्ति को कांति उपलब्ध होती है, जो जितनी शक्ति देता है, उससे ज्यादा पाता है। जो हमेशा लाभ में है, एक आंतरिक लाभ में। अगर एक इंचभर अपनी शक्ति खोता है, तो इसीलिए कि कोई विराट का द्वार खुल रहा है, अन्यथा नहीं खोता। इसे हम ऐसा समझें, जैसा मैंने पीछे आपको कहा। काम ऊर्जा है, सेक्स एनर्जी है। आप उसे केवल शरीर के तथाकथित सुख में गंवा सकते हैं जीवनभर, सारी कांति खो जाएगी। आपके चारों तरफ जो एक मंडल चाहिए व्यक्तित्व का, वह सिकुड़ जाएगा।

कभी आपने खयाल किया है, काम—ऊर्जा के क्षीण होते ही आपको एक सिकुडाव का अनुभव होता है। कोई चीज सिकुड़ गई भीतर, आप दीन हुए। आपने कुछ खोया, पाया कुछ भी नहीं।

ठीक इससे विपरीत स्थिति उस व्यक्ति को उपलब्ध होनी शुरू होती है, जिसकी काम—ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होती है और प्रभु के चरणों में समर्पित होने लगती है, और जिसकी काम—ऊर्जा व्यक्तियों और दूसरे व्यक्तियों की तरफ प्रवाहित नहीं होती, वरन अपनी अंतरात्मा की तरफ प्रवाहित होने लगती है। हर इंच पर उसे लगता है, जीवन विराट हुआ, और बड़ा हुआ।

ब्रह्मचर्य शब्द हम सब सुनते हैं, बात करते हैं, लेकिन आपको खयाल न होगा कि इसका अर्थ क्या होता है! इसका अर्थ होता है, ब्रह्म जैसी चर्या। और ब्रह्म का आपको अर्थ पता है? ब्रह्म का अर्थ होता है, विस्तार। ब्रह्म का अर्थ है, जो विस्तीर्ण है, जो फैलता ही चला गया है, जिसका ओर—छोर नहीं है।

तो जिस दिन आपकी चर्या उस विस्तार की तरफ बढ़ने लगती है, और आपके भीतर कुछ फैलता चला जाता है और फैलता ही चला जाता है, सब सीमाएं छूट जाती हैं और आपके भीतर कोई फैलता ही चला जाता है, जिस दिन आपके भीतर चांद—सूरज घूमने लगते हैं, जिस दिन आपको लगता है कि आप फैल गए सारे आकाश में और आकाश से एक हो गए, उस दिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है।

लेकिन यह होगा, जब हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति निरंतर श्रेष्ठ के प्रति समर्पित हो रही हो। अपने से नीचे का कुछ खोजना, कांति को खोना है। अपने से ऊपर के लिए शक्ति को नियोजित करना, कांति को उपलब्ध होना है। कांति सिर्फ एक खबर है, आपके चेहरे से, आपकी आंखों से, आपके हाथों से, आपके व्यक्तित्व से, एक खबर है कि भीतर ऊर्जा ने कुछ ऊर्ध्वगमन शुरू किया है।

बड़ी मुश्किल की बात है। इस कांति की तरफ खयाल ही नहीं है। इसलिए जवान आदमी...। मैंने कहा, बच्चा होता है शक्तिशाली, बुजुर्ग होता है ऐश्वर्ययुक्त, जवान हो सकता है कांतियुक्त। बच्चा शक्तिशाली होता है, यह नैसर्गिक है। जवान कांतियुक्त हो, यह चुनाव है। और जवान अगर कांतियुक्त न हो सके, तो बुढ़ापा एक दीनता होगी, एक दरिद्रता होगी, एक बोझ।

हम इस मुल्क में पच्चीस वर्ष तक युवकों को आश्रमों में रखकर कांति की कला सिखाते थे। इसके पहले कि शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाए, उसको रूपांतरण देना जरूरी है। इसके पहले कि शक्ति नीचे से बहनी शुरू हो जाए, उसके पहले उसे ऊपर के मार्ग पर चला देना जरूरी है। क्योंकि एक बार शक्ति नीचे की तरफ बहने लगे, तो हर चीज हैबिट फार्मिग है, हर चीज की आदत बन जाती है। फिर रिपिटीटिव, फिर पुनरुक्ति होने लगती है।

और जीवन एक ऐसी बाल्टी की तरह हो जाता है, जिसे हम पानी में डालते हैं भरने के लिए, लेकिन उसमें इतने छेद होते हैं कि शोरगुल बहुत होता है, पानी भरता भी मालूम पड़ता है, लेकिन आखिर में जब बाल्टी बुढापे में हमारे हाथ आती है, तो उसमें कुछ भी नहीं होता, एक बूंद भी पानी की नहीं होती; सब बीच में गिर गया होता है। बुढ़ापे में जिस व्यक्ति की कुएं की बाल्टी भरी हुई आ जाए, समझना कि ऐश्वर्य उपलब्ध हुआ।

लेकिन यह तभी संभव होगा, जब जवानी में छिद्र व्यक्तित्व में पैदा न हों, और जवानी में छिद्रों से बचा जा सके, जो कि अति कठिन है। क्योंकि शक्ति अगर ऊपर रूपांतरित न हो, तो शक्ति बोझ बन जाती है, उसको फेंकना जरूरी हो जाता है।

इसलिए पश्चिम में एक नया विचार लोगों को पकड़ा है और वह यह है कि सेक्स इज जस्ट ए रिलीज, ए रिलीफ। कामवासना, सिर्फ एक शक्ति भारी हो जाती है, तनाव हो जाता है, उससे छुटकारा है। पश्चिम में एक बहुत क्षुद्र खयाल काम—ऊर्जा के बाबत आया है। वे कहते हैं, काम—ऊर्जा छींक जैसी है। छींक ली, तो राहत मिलती है। छींक आ गई, तो राहत मिलती है। नहीं तो नाक में सनसनाहट और तकलीफ मालूम पड़ती है। सब काम—ऊर्जा भी इसी तरह की है। उसको फेंक दी बाहर, तो राहत मिलती है।

शक्ति भारी हो जाती है, अगर काम में न लाई जाए, फिर उसे फेंकना ही पड़ेगा। केवल वे ही लोग शक्ति को फेंकने से बच सकते हैं, जो उस कला को सीख लेते हैं, जिसमें शक्ति रोज काम में आती चली जाती है, बचती ही नहीं फेंकने के लिए।

कांति का अर्थ है, ऊपर की ओर उठती हुई शक्ति। शरीर से भी झलकने लगती है। शरीर से भी उसकी सुगंध आने लगती है। शरीर भी एक अनूठे सौंदर्य से आच्छादित हो जाता है।

ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त, शक्तियुक्त जो भी है, वहीं मेरी विभूति है, वहीं मैं प्रकट हुआ हूं? वहीं तू मुझे देख लेना। और जहां भी यह घटित हो, समझना कि मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ है, मेरी ही ज्योति वहां प्रज्वलित हो रही है; मेरे ही अमृत की धार वहां बहती है; मेरे ही स्वरों का संगीत है वहां; मेरी ही सुवास है; मेरे ही हृदय की धड़कन वहां भी धड़कती है।

अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा प्रयोजन ही क्या है!

अगर तू मुझे ऐश्वर्य में भी न देख सके, कांति में भी न देख सके, शक्ति में भी न देख सके, और इतने जो मैंने तुझे प्रतीक कहे, इनमें तुझे कोई खयाल न आए, तो फिर बहुत जानने से कोई प्रयोजन नहीं है। अब मैं तुझे कितना ही कहता रहूं उससे कुछ हल न होगा। तू देखना शुरू कर।

कृष्‍ण कहते हैं, अर्जुन, तेरा इतना सब पूछने का प्रयोजन ही क्या है, अगर तू इशारा न समझ पाए! तो फिर तू पूछता चला जा सकता है और मैं तुझे जवाब देता चला जा सकता हूं उससे कुछ हल न होगा। आज जमीन पर जो इतना कनफ्यूजन, इतना विभ्रम है, वह इसलिए है कि इतने जवाब और इतने सवाल आपके मस्तिष्क में खड़े हो गए हैं कि आज तय करना ही मुश्किल है कि आपका भी कोई प्रश्न है? और प्रश्न आप पूछ रहे हैं, तो कुछ करने का इरादा है या यों ही पूछने चले आए हैं?

कृष्ण पूछते हैं, हे अर्जुन, इस बहुत जानने से फिर क्या प्रयोजन है! सिर्फ जानना ही है या तुझे उतरना भी है? तू कूदना भी चाहता है या सिर्फ सोचता ही रहेगा? तू कुछ करने को आतुर है या सिर्फ एक बौद्धिक कुतूहल है?

इस संपूर्ण जगत को अपनी योग—माया के एक अंश मात्र से धारण करके मैं स्थित हूं।

सारा जगत मेरा ही एक अंश मात्र है। यह बहुत कीमती वचन है। क्योंकि मैंने कहा, सारा जगत ईश्वर है। सारा जगत ईश्वर है, लेकिन सारा ईश्वर जगत नहीं है। सारा जगत ईश्वर है, लेकिन सारा ईश्वर जगत नहीं है। क्योंकि ईश्वर की अनंत संभावनाएं हैं, अनंत जगतों में प्रकट होने की। ईश्वर तो इस पूरे अस्तित्व की मूल संभावना है। उसमें से कभी कोई एक बीज अंकुरित होता है, तो एक जगत निर्मित हो जाता है। उसमें से कभी कोई दूसरा बीज निर्मित होता है, तो दूसरा जगत निर्मित हो जाता है। अनंत जगत हो सकेंगे, और हर जगत उसका एक अंश ही होगा।

पूरा ईश्वर अगर जगत हो, तब ईश्वर भी सीमित हो गया। तब फिर दूसरा जगत नहीं हो सकता। अगर यही जगत सब कुछ हो ईश्वर का, तो फिर आगे कोई गति और कोई विकास नहीं है।

ईश्वर के अनंत होने का अर्थ है, यह जगत उसकी एक अभिव्यक्ति है। उसकी अनेक अभिव्यक्तियां हो सकती हैं। होती रही हैं। होती रहेंगी। इसलिए कहा, एक अंश में ही मेरी योग—माया का उपयोग है।

योग—माया शब्द का ठीक वही अर्थ होता है, जो अंग्रेजी में मैजिक का होता है, जादू का होता है। लेकिन जादू तो जादूगर करता है! जादूगर कर क्या रहा है? जो नहीं है, वह आपको दिखाई पड़ने लगे, इस कला का नाम जादू है। मैजिक का अर्थ है, जो नहीं है, वह आपको दिखाई पड़े।

ईश्वर की भारतीय जो धारणा है, वह यह है कि जगत भी है नहीं, केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। यह है नहीं, केवल ईश्वर चाहता है, इसलिए दिखाई पड़ता है। इसका होना केवल उसकी धारणा है, उसका विचार है।

 योग—माया का। परमात्मा के लिए सारा का सारा विराट जो विस्तार है, यह वास्तविक सृजन नहीं है, यह केवल उसके विचार का फैलाव है।

कृष्‍ण कहते हैं, यह सारा जगत मेरी योग—माया के एक अंश का विस्तार है, मेरे विचार का, मेरे खयाल का।

यह सारा अस्तित्व एक स्वप्न है गहन, उस मूल ऊर्जा का एक स्वप्न। उस मूल ऊर्जा का एक भाव, और जगत निर्मित हो जाता है। उस मूल ऊर्जा का भाव क्षीण होता है, और जगत खो जाता है।

इसका यह मतलब नहीं है कि आप पत्थर पैर पर मारेंगे, तो खून नहीं निकलेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि आप नहीं हैं। आप हैं। लेकिन आपके होने का जो घटक है, जो बुनियादी तत्व है, जिससे आप निर्मित हैं, वह वस्तु नहीं है, विचार है। आप विचार का एक जोड़ हैं, अनंत विचारों का एक जोड़ हैं।

यह सारा जगत अनंत विचारों का एक जोड़ है।

अगर हम भौतिकवादी और गैर— भौतिकवादी विचारों में भेद करना चाहें, तो वह यही होगा कि भौतिकवादी, मैटीरियलिस्ट कहता है कि जगत की जो बुनियादी इकाई है, वह पदार्थ है; और अध्यात्मवादी कहता है, जगत की जो मौलिक इकाई है, वह विचार है। जगत जिन ईंटों से बना है, वे ईंटें विचार की हैं। और अगर पदार्थ भी हमें दिखाई पड़ता है, तो वह विचार की सघनता है, डेंसिटी आफ थाट। और जिसे हम अपने भीतर विचार कहते हैं, उसमें और बाहर पड़े हुए पत्थर में जो फर्क है, वह गुण का नहीं है, मात्रा का है, डिग्रीज का है। अगर विचार ही गहन सघन हो जाए, तो पत्थर भी मौजूद हो सकता है, मैटीरिअलाइज हो सकता है।

कृष्‍ण कहते हैं, यह मेरी योग—माया का एक अंश है और इस अंश पर ही मैं सारे जगत को धारण करके ठहरा हुआ हूं इसलिए मेरे को ही तत्व से जान। तू और विस्तार में मत पड़। तू सीधा मुझको ही तत्व से जान। मैं ही आधारभूत हूं या जो आधारभूत है, वही मैं हूं। विस्तार में तू खो सकता है।

बहुत लोग डिटेल्स में खो जाते हैं। बहुत लोग इतने विस्तार में खो जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं रहता है कि वे किसकी खोज के लिए निकले थे। कई बार जंगल में खो जाने की वजह से जिस वृक्ष की तलाश में हम निकले थे, उसकी स्मृति ही उठ जाती है।

इसलिए अंतिम वचन में कृष्ण ने याद दिलाया कि यह मैंने तुझसे थोड़े से विस्तार की बातें कही हैं, लेकिन इस विस्तार में खो जाने की जरूरत नहीं है। यह मैंने कहा ही इसलिए, ताकि सब तीर मेरी तरफ इशारा कर सकें। और तू मुझको ही सारी खोज का अंत जान, सारी खोज का केंद्र जान।

जो व्यक्ति भी ईश्वर की तरफ अपनी सारी खोज के तीरों को झुका देता है, जो अपनी सारी कामनाओं को, सारी इच्छाओं को, सारी प्रार्थनाओं को, सारी अभीप्साओं को, सारी आकांक्षाओं को एक ही ईश्वर की तरफ झुका देता है, उसे बहुत देर नहीं है कि वह पा ले।

हम अगर खोते हैं उसे, भूलते हैं उसे, विस्मरण करते हैं उसे, नहीं जान पाते उसे, तो उसका कारण केवल इतना ही है कि कभी हमने समग्रता से उसे चाहा ही नहीं, पुकारा ही नहीं। कभी समग्रता से हमने जाना ही नहीं कि वही एक पाने योग्य है। अगर हमने कभी उसे पाना भी चाहा है, तो वह हमारे हजारों पाने वाली चीजों में एक आइटम वह भी है। और वह भी आखिरी, वह भी आखिरी फेहरिस्त पर। जैसे कोई बाजार में सामान खरीदने निकला हो, तो निन्यानबे चीजें उसने सब लिख हों— नोन, तेल, लकड़ी— और आखिर में सौवां ईश्वर भी लिखा हो। ऐसे हम हैं। जब सब, तब आखिरी!

ईश्वर को जो अपनी जिंदगी की खोज में आखिरी रख रहा है, वह उसे पाने में आखिरी सिद्ध होगा। जो उसे प्रथम रखता है, वही उसे पाता है।

लेकिन हम क्षुद्र को ऊपर रखे रहते हैं। अगर अभी कोई आपको मिले और कहे कि एक कार दिए देते हैं या ईश्वर का दर्शन। क्या इरादा है? तो आप कहेंगे, ईश्वर का दर्शन तो कभी भी हो जाएगा, शाश्वत चीज है। कार पहले ले लें, इसका क्या भरोसा! क्षणिक का भरोसा भी नहीं है, इसको आज ले लें। ईश्वर को तो कल भी ले सकते हैं, अगले जन्म में भी ले सकते हैं। यह कोई जल्दी की बात नहीं है। आप पहले क्षुद्र को चुनेंगे।

कृष्‍ण कहते हैं, विस्तार में तू मत जा। मैं तेरे सामने खड़ा हूं। तू मुझको ही तत्व से जान, उसकी ही आकांक्षा कर।

अंतिम बात। कृष्‍ण ने बहुत—से प्रतीक कहे। वे सब प्रतीक इशारे हैं। कोई भी प्रतीक प्रतिमा नहीं है। कोई भी प्रतीक पूजा के लिए नहीं है। सभी प्रतीक केवल समझ के लिए सहारे हैं। जो प्रतीकों की पूजा में लग जाता है, वह भटक जाता है। प्रतीक पूजा के लिए नहीं होता; प्रतीक इशारे के लिए होता है।

एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। और किनारे पर पत्थर लगा है, मील का पत्थर लगा है और उस पर तीर लगा है। वह मील का पत्थर बैठकर पूजा करने के लिए नहीं है, वह बैठने के लिए नहीं है। वह तीर यह कह रहा है कि यहां से आगे बढ़ो। अगर मंजिल तक पहुंचना है, तो पत्थरों पर मत रुकना। यह तीर कह रहा है, आगे चलो।

ये जितने प्रतीक कृष्‍ण ने लिए हैं, यह उस महायात्रा के किनारे पर लगे हुए पत्थर हैं। इन पर रुकना नहीं है।

प्रतीक प्रतिमा नहीं है, इशारा है। सब प्रतीक उपयोगी हैं—मंदिर के, मस्जिद के, चर्च के, गुरुद्वारे के। सब प्रतीक उपयोगी हैं। कोई प्रतीक अंतिम नहीं है। प्रतीक से गुजर जाना, प्रतीक पर रुक मत जाना। प्रतीक पर ठहरना, उसका उपयोग करना और पार हो जाना। तो एक दिन विस्तार खो जाएगा, और केंद्र उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 14

 परम गोपनीय—मौन


द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोउस्थि व्यवसायोउस्मि सत्त्वं सत्ववतामहम्।। 36।।

वृष्णीनां वासुदेवोउस्मि पाण्डवानां धनंजय:।

मुनीनामध्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि:।। 37।।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 38।।


हे अर्जुन मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूं तथा मैं जीतने वालों का विजय हूं और निश्चय करने वालों का निश्चय एवं सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं।

और वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात मैं स्वयं तुम्हारा सखा और पांडवों में धनंजय अर्थात तू एवं मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूं।

और दमन करने वालों का दंड अर्थात दमन करने की शक्ति हूं जीतने की ड़च्छा वालों की नीति हूं और गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूं तथा ज्ञानवानों का तत्व— ज्ञान मैं ही हूं।



है अर्जुन, मैं छल करने वालों में जुआ, प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव, जीतने वालों का विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सत्पुरुषों का सात्विक भाव हूं। हैरानी होगी यह सोचकर कि कृष्‍ण कहते हैं कि मैं छल करने वालों में जुआ हूं।

शायद जीवन में सभी कुछ छल है। और जीवन की जो छल— स्थिति है, वह जैसी जुए में प्रकट होती है, वैसी और कहीं नहीं। जीवन जुआ है और जुए में जीवन का जो मायिक रूप है, जो छल है, वह अपनी श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को उपलब्ध होता है। इसे थोड़ा हम समझें, तो आसानी हो। और यह कीमती है।

जीवनभर हम कोशिश करते हैं जो भी पाने की, उसे कभी पा नहीं पाते हैं। लगता है कि मिलेगा। लगता है कि अब मिला। लगता है कि बस, अब मिलने में कोई देर नहीं। और हर बार निशाना चूक जाता है। और मृत्यु के क्षण में आदमी पाता है कि जो भी चाहा था, वह कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ अपनी वासनाओं की राख ही हाथ में रह जाती है।

मरते क्षण में जो पीड़ा है, वह मृत्यु की नहीं, वह व्यर्थ गए जीवन की होती है। जो लोग जीवन को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के आनंद को पा लेते हैं, वे मृत्यु से पीड़ित होते हुए नहीं देखे जाते। उन्हें तो मृत्यु एक विश्राम मालूम होती है। लेकिन अधिकतम लोग तो मृत्यु से पीड़ित होते देखे जाते हैं।

हम सबको यही लगता है कि वे मृत्यु से दुखी हो रहे हैं। वह गलत है। वे दुखी हो रहे हैं इसलिए कि वह जीवन चला गया, जिसमें पाने के बहुत मन्सुबे थे, बडी आकांक्षाएं थीं, बड़े दूर के सपने थे। बड़े तारे थे, जिन तक पहुंचना था और कहीं भी पहुंचना नहीं हो पाया। और आदमी इस पूरी दौड़ में बिना कहीं पहुंचे रास्ते पर ही मर जाता है। पड़ाव भी उपलब्ध नहीं होता, मंजिल तो बहुत दूर है। मृत्यु का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह जीवन की व्यर्थता के कारण है।

इसलिए बुद्ध को हम दुखी नहीं देखते मरते क्षण में। सुकरात को हम दुखी नहीं देखते। महावीर को हम पीड़ित नहीं देखते। मृत्यु उन्हें मित्र की तरह आती हुई मालूम पड़ती है। लेकिन हमें शत्रु की तरह आती मालूम पड़ती है। क्यों? क्योंकि हमारी वासनाएं तो पूरी नहीं हुईं; हमें अभी और समय चाहिए। हमारी इच्छाएं तो अभी अधूरी हैं। अभी हमें और भविष्य चाहिए।

ध्यान रहे, भविष्य न हो तो हमारी इच्छाओं को फैलने की जगह नहीं रह जाती। भविष्य तो चाहिए ही, तभी हम अपनी इच्छाओं की शाखाओं को फैला सकते हैं। वर्तमान में इच्छा नहीं होती, इच्छा सदा भविष्य में होती है। वासनाओं का जाल तो सदा भविष्य में होता है, वर्तमान में कोई वासना का जाल नहीं होता। अगर कोई व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में हो, अभी, यहीं हो, तो उसके चित्त में कोई वासना नहीं रह जाएगी।

वासना हो ही नहीं सकती वर्तमान में। वासना तो होती ही कल है, आने वाले कल में, आने वाले क्षण में। वासना का संबंध ही भविष्य से है। जो लोग गहरे में खोजते हैं, वे तो कहते हैं कि भविष्य ही इसीलिए मन पैदा करता है, क्योंकि बिना भविष्य के वासनाओं को फैलाएगा कहां। भविष्य कैनवस का काम करता है, जिसमें वासनाओं के सपने फैल जाते हैं।

इसलिए जो लोग वासनाओं से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिए एक ही प्रक्रिया है और वह यह है कि भविष्य को छोड़ दो और वर्तमान में जीयो। वर्तमान से आगे मत बढ़ो। जो क्षण हाथ में है, उसको ही जी लो; आने वाले क्षण का विचार ही मत करो। जब वह आ जाएगा, तब जी लेंगे। जो आदमी मोमेंट टु मोमेंट, क्षण— क्षण जीने लगता है, उसके चित्त में वासना का उपाय नहीं रह जाता। वासना के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए।

मौत दुख देती है, क्योंकि मौत के साथ पहली दफा हमें पता चलता है, अब कोई भविष्य नहीं है। मौत दरवाजा बंद कर देती है भविष्य का, वर्तमान ही रह जाता है। और वर्तमान में तो सिर्फ टूटे हुए वासनाओं के खंडहर होते हैं, राख होती है, असफलताओं का ढेर होता है, विषाद होता है, संताप होता है। कोई वासना की पूर्ति का तो उपाय नहीं दिखता, और थोड़ा भविष्य चाहिए।

मृत्यु घबड़ा देती है, क्योंकि भविष्य समाप्त हो जाता है। और तब जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है, लेकिन तब कोई प्रयोजन नहीं। तब कोई अर्थ नहीं। तब जिंदगी लगती है एक जुआ थी, जिसमें हम हारे।

जुए की एक खूबी है, वह इसलिए मैंने इतनी बात कही। जुए में कोई कभी जीतता नहीं; यही उसका छल है। और हरेक जीतता हुआ मालूम पड़ता है, यही उसका छल है। हरेक जीतने की आकांक्षा से जुए के पासे फेंकता है और हर एक को लगता है कि जीत निश्चित है। लेकिन जुए में कोई कभी जीतता नहीं। और जो जीतते हुए मालूम भी पड़ते हैं, वे केवल और बड़ी हारों की तैयारी कर रहे होते हैं।

जुए में जो हारता है, वह सोचता है, इस बार हार गया, भाग्य ने साथ न दिया, अगली बार जीत निश्चित है। और हारता चला जाता है। कभी—कभी जीत की झलक भी मिलती है। वह जीत की झलक और बड़ी हारों का आयोजन करवा देती है। उस झलक से लगता है कि जीत भी हो सकती है।

जो जीत जाता है, वह सोचता है कि एक बार जीत जाऊं, तो फिर रुक जाऊं। लेकिन जो एक बार जीत जाता है, रुकना असंभव है। क्योंकि जीत का जो स्वाद मन को लग जाता है, और जीतने की आकांक्षा प्रबल हो जाती है। वही आकांक्षा हार में ले जाती है। जो हारता है, वह सोचता है, अगली बार जीत जाऊंगा। जो इस बार जीतता है, वह सोचता है, जीत मेरे भाग्य में है; हर बार जीत जाऊंगा। और अंतत: जुआ ही चलता रहता है। सभी उसमें हारने वाले ही सिद्ध होते हैं।


इसलिए कृष्ण कहते हैं, छलों में मैं जुआ हूं।

वह शुद्धतम छल है। कभी कोई जीतता नहीं, अंतत: कोई जीतता नहीं। आखिर में हाथ खाली रह जाते हैं। खेल बहुत चलता है लेकिन, हार—जीत बहुत होती है। कोई हारता, कोई जीतता; कोई बनता, और कोई मिटता! बहुत खेल होता है। रुपये—पैसे इससे उसके पास जाते हैं। उससे इसके पास जाते हैं, बड़ा लेन—देन होता है। और आखिर में कोई जीतता नहीं। सिर्फ जीतने की और हारने की इस दौड़ में लगे हुए सभी लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, हार जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।

इसलिए जुआ जिंदगी का प्रतीक है। सारी जिंदगी जुआ है।

इसलिए आप यह मत सोचना कि जो जुआ खेल रहे हैं, वही जुआ खेल रहे हैं। ढंग हैं बहुत तरह के जुआ खेलने के! कुछ जरा हिम्मत का जुआ खेलते हैं, कुछ जरा कम हिम्मत का जुआ खेलते हैं। कुछ इकट्ठे दांव लगाते हैं, कुछ दांव छोटे—छोटे लगाते हैं। कोई बड़े दांव लगाते हैं, कोई टुकड़ों में दांव लगाते हैं। किन्हीं की जीत और हार प्रतिपल होती रहती है, किन्हीं की जीत और हार का इकट्ठा हिसाब मौत के क्षण में होता है। लेकिन हम सब जुआ खेल रहे हैं। और जब तक कोई व्यक्ति अपनी तरफ नहीं जाता, तब तक जुए में ही होता है।

इसे ऐसा समझें कि जो व्यक्ति भी दूसरे में उत्सुक है, वह जुए में ही होता है। दूसरे में उत्सुकता जुआ है, चाहे वह प्रेम की हो, चाहे धन की, चाहे यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक आप दूसरे पर निर्भर हैं, तब तक आप एक गहरा जुआ खेल रहे हैं। अगर आपको दूसरे भी अपने में उत्सुक मालूम पड़ते हैं, तो आप पक्का समझ लेना कि आप दोनों एक गहरे जुए में भागीदार हैं।

जब तक कोई व्यक्ति दूसरे की उत्सुकता से मुक्त नहीं होता और उस उत्सुकता में लीन नहीं होता, जो स्वयं की है, तब तक जुए के बाहर नहीं होता।

जुआ अकेले नहीं खेला जा सकता, उसमें दूसरे की जरूरत है। इसलिए जो व्यक्ति ध्यान की एकांतता को, अकेलेपन को उपलब्ध हो जाता है, वही जीवन के जुए के बाहर होता है।

जिस काम में भी दूसरे की जरूरत हो, समझ लेना कि जुआ होगा। जो काम भी दूसरे के बिना पूरा न हो सके, समझ लेना कि जुआ होगा। जिसमें दूसरा अनिवार्य हो, समझना कि वहां दांव है। जिस क्षण आप बिलकुल अकेले होने को राजी हों, दूसरा बिलकुल ही अर्थपूर्ण न रह जाए, उस दिन आप समझना कि आप जुए के बाहर हो रहे हैं।

ध्यान के अतिरिक्त जुए के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है। बाकी सब उपाय जुआ ही खेलने के हैं। यह दूसरी बात है कि कोई एक जुआ पसंद करता है, कोई दूसरा जुआ पसंद करता है। यह अपनी पसंद की बात है। लेकिन जिंदगी के आखिर में अगर कोई एक चीज आप मरते वक्त जान सकते हैं कि मैंने पा ली, तो वह आपकी ही आत्मा है। उसके अतिरिक्त आप जो भी पा लेंगे, मृत्यु आपसे छीन लेगी।

इससे कोई संबंध नहीं है कि आप क्या पाने की कोशिश कर रहे हैं, आपकी जिंदगी एक जुआ है, अगर आप अपने को छोड्कर कुछ भी पाने की कोशिश कर रहे हैं। और आखिर में आपके हाथ खाली होंगे, आखिर में आप हारे हुए विदा होंगे।

कृष्‍ण कहते हैं, छल करने वालों में मैं जुआ हूं।

शुद्धतम रूप जुआ है छल का। जुआरी की हम निंदा करते रहते हैं। लेकिन हम सब जुआरी हैं। जुआरी की निंदा शायद हमारे मन में इतनी ज्यादा इसीलिए है कि हम छोटे जुआरी हैं। और जुआरी को देखकर हमारा सारा जुआ उघडता है और नग्न हो जाता है। जब एक जुआरी दांव लगाता है, तो हम कहते हैं, पागल हो। और हम सब पूरी जिंदगी दांव लगाकर जीते हैं, और कभी भी नहीं सोचते कि हम पागल हैं! अपना—अपना जुआ सभी को ठीक मालूम पड़ता है। दूसरे के जुए सभी को गलत मालूम पड़ते हैं।

इस जमीन पर बड़े मजे की घटना है, हर आदमी अपने को ठीक और शेष को पागल जानता है। लेकिन तब तक जीवन में धार्मिक क्रांति घटित नहीं होती, जब तक कोई आदमी अपने को पागल जानना शुरू नहीं करता। और जब कोई आदमी यह जान लेता है कि मेरी पूरी जिंदगी, जिसको मैंने अब तक जिंदगी कहा, एक लंबा पागलपन है, उसी दिन उसकी जिंदगी में क्रांति होनी शुरू हो जाती है। जब तक आप दूसरों पर हंसते हैं, तब तक समझना, आप व्यर्थ हंसते हैं। जिस दिन आपको अपने पर हंसी आ जाए, समझना कि रास्ता बदला। अब यात्रा आपकी कुछ और हुई।

क्या है? आप क्या कर रहे हैं? लोग आपको अच्छा कहें, इसके लिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपके मकान को बड़ा कहे, इसलिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपकी तिजोड़ी को देख ले और उसकी आंखों में चकाचौंध पैदा हो जाए, इसलिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई दूसरे की आंखों के साथ आप जुआ खेल रहे हैं।

वे दूसरे की आंखें उतनी ही पानी की बनी हैं, जितनी आपकी हैं। कल पानी की तरह बह जाएंगी और इस जगत की रेत में उनका कोई भी पता नहीं चलेगा। और दूसरों के शब्द वैसे ही हवा के बबूले हैं, जैसे आपके, और हवा में खो जाएंगे। उनकी प्रशंसाएं, उनकी निदाएं, सब हवा में फूट जाएंगी बबूलों की तरह और खो जाएंगी। उनका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। और आपकी जिंदगी आप गंवा चुके होंगे।

कृष्‍ण की इस बात को खयाल में ले लेने जैसा है, छल करने वालों में मैं जुआ हूं। अगर छल को ही देखना है, तो जुए में उसकी शुद्धता है। सौ फीसदी शुद्ध! फिर जिंदगी में उसकी अशुद्धता दिखाई पड़ती है। लेकिन शुद्ध वह जुए में है।

जुए को और मौत को जो समझ ले, वह अंतर्यात्रा पर निकल सकता है।

प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव, जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं। और वृष्णिवशियों में वासुदेव अर्थात स्वयं मैं, पांडवों में धनंजय अर्थात तू एवं मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य मैं ही हूं।

कृष्‍ण कहते हैं— अपने को भी एक प्रतीक बना लेते हैं और अर्जुन को भी— वे कहते हैं, वृष्‍णिवंशियों में अगर तुझे देखना हो मुझे, अगर तुझे देखना हो प्रभु को, तो मैं तेरे सामने खड़ा हूं।

निश्चित ही, उस वंश में कृष्‍ण से ऊंचाई पाने वाला कोई व्यक्ति हुआ नहीं। असल में उस वंश को ही हम कृष्‍ण की वजह से जानते हैं। कृष्‍ण न हों, तो उनके पूरे वंश में किसी को भी जानने का कोई कारण नहीं रह जाता। वह जो कृष्‍ण का फूल खिला है उस वंश के वृक्ष पर, उस फूल की वजह से ही उस वृक्ष का भी हमें स्मरण है। वह उस वंश की श्रेष्ठतम उपलब्धि, जो नवनीत है, वह कृष्‍ण है। कृष्‍ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि जहां भी श्रेष्ठता का फूल खिलता है, वहां तू मुझे देख पाएगा। तो अगर मेरे वंश में तुझे देखना है, तो मैं तेरे सामने मौजूद हूं।

और अक्सर ऐसा होता है कि जब अंतिम फूल खिल जाता है, तो वंश नष्ट हो जाता है। क्योंकि फिर वंश के होने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। उसका प्रयोजन पूरा हो गया। इसलिए कृष्ण के साथ कृष्‍ण का वंश तिरोहित हो जाता है। और इतनी श्रेष्ठता को फिर पार करना भी संभव नहीं है। इसलिए श्रेष्ठतम जो है, वह एक वंश का अंत भी होता है। आखिरी फूल खिल जाने का अर्थ है, वृक्ष की मौत भी आ गई। पूर्णता समाप्ति भी है।

कृष्‍ण के साथ कृष्‍ण का वंश समाप्त हो जाता है। उस वंश का जो निहित प्रयोजन था, पूरा हो गया। जो नियति थी, जहां तक पहुंचना था, जो आखिरी छलांग थी, लहर जहां तक आकाश में उठ सकती थी, उठ गई।

तो वे कहते हैं, अगर मेरे वंश में तुझे देखना हो, तो मैं मौजूद हूं जहां तुझे परमात्मा दिखाई पड़ सकता है।

साथ ही एक और भी मजे की बात कहते हैं, और पांडवों में धनंजय अर्थात तू!

वह जो पांडवों का वंश है, उसमें अर्जुन भी नवनीत है, उसमें अर्जुन सार है। यह सारा महाभारत अर्जुन के इर्द—गिर्द है। यह सारा महाभारत, यह सारी कथा अर्जुन के आस—पास घूमती है।

धनंजय, अगर तुझे पांडवों में भी परमात्मा को देखना हो, तो तू खुद अपने में देख।

ये सारे प्रतीक कृष्‍ण ने कहे, ये दूर थे, पराए थे। कृष्‍ण धीरे— धीरे उस प्रतीक के पास अर्जुन को ले आए हैं, जहां वह खुद अपने में भी देख सके। ये इतने स्मरण दिलाए कि ऋतुओं में मैं वसंत हूं कि देवताओं में कामदेव हूं। इतनी—इतनी यात्रा, अगर ठीक से समझें, तो इस गहरे प्रतीक के लिए थी कि वह जगह आ जाए कि कृष्‍ण अर्जुन से कह सकें कि धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें हूं।

आपको अपनी श्रेष्ठता के स्मरण के लिए भी दूसरों की श्रेष्ठता तक जाना होता है। और कभी—कभी अपने द्वार पर आने के पहले बहुत दूसरों के द्वार भी खटखटाने होते हैं। असल में हमारा आत्म— अज्ञान इतना गहन है कि हम अपने तक भी आएं, तो हमें दूसरे के द्वारा आना पड़ता है। अगर हमें अपना भी पता पूछना हो, तो हमें दूसरे से ही पूछना पड़ता है। बेहोशी अपनी ऐसी है, ऐसी गहरी है बेहोशी हमारी, कि हमें अपना तो कोई पता ही नहीं है, बस दूसरों का ही पता है!

गुरु भी क्या करेगा शिष्य के लिए! जब कोई शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर पूछता है, तो क्या पूछता है? और गुरु क्या बताएगा अंतत:? गुरु इतना ही बता सकता है कि जिसे तू खोज रहा है, वह तू ही है। जिसकी तलाश है, वह तुझ तलाश करने वाले में ही छिपा है। और जिसकी तरफ तू दौड़ रहा है, वह कहीं बाहर नहीं, दौड़ने वाले के भीतर है। और जो सुवास, जो कस्तूरी तुझे खींच रही है और आकर्षित कर रही है, वह तेरी ही नाभि में छिपी है और दबी है।

लेकिन यह बात कृष्ण सीधी भी कह सकते थे, तब व्यर्थ होती। कृष्‍ण यह सीधा भी कह सकते थे कि अर्जुन मैं तुझमें हूं तब यह बात बहुत सार्थक न होती। यह इतनी यात्रा करनी जरूरी थी। अर्जुन बहुत—बहुत जगह थोड़ी—सी झलक पा ले, तो शायद अपने भीतर भी झलक पा सकता है।

धर्मों ने जितनी विधियां खोजी हैं, वे सभी विधियां आवश्यक हैं, अनिवार्य नहीं। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके बिना भी पहुंचा जा सकता है। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, ऐसा नहीं है। सारी विधियां एक ही प्रयोजन से निर्मित हुई हैं कि किसी दिन आपको पता चल जाए कि जिसे आप खोज रहे हैं, वह आप ही हैं।

बड़ी अजीब खोज है! क्योंकि जब कोई खुद को खोजने लगे, तो खोज असंभव है। बिलकुल असंभव है। खुद को कैसे खोज सकिएगा? और जहां भी खोजने जाइएगा, वहीं दूसरे पर नजर रहेगी। 

हम सब किसकी तलाश में हैं? किसे हम खोज रहे हैं? क्या हम पाना चाहते हैं? हम अपने को ही खोज रहे हैं। हम खुद को ही पाना चाहते हैं। हमें यही पता नहीं कि मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? क्यों हूं? यही हमारी खोज है। लेकिन हम दौड़ रहे हैं तेजी से। और जिस पर सवार होकर हम दौड़ रहे हैं, उसी को हम खोज रहे हैं। जो दौड़ रहा है, उसी को हम खोज रहे हैं। जब तक यह दौड़ बंद न हो जाए, हम थक न जाएं, दौड़ समाप्त न हो जाए, तब तक हमें खयाल नहीं आएगा। हमें पता नहीं चलेगा।

ये सारे साधन जो धर्मों ने ईजाद किए हैं, आपको थकाने के हैं। ये सारी प्रक्रियाएं जो धर्मों ने विकसित की हैं, ये आपको खूब दौड़ाकर इतना थका देने की हैं कि एक दिन आप खड़े हो जाएं थककर। जिस दिन आप खड़े हो जाएं, उसी दिन आपका अपने से मिलना हो जाए, अपने से पहचान हो जाए। ठहरते ही हम जान सकते हैं, कौन हैं। दौड़ते हम नहीं जान सकते कि कौन हैं।

तेज है इतनी रफ्तार हमारी, और तेजी हमारी रोज बढ़ती जाती है। कभी हम पैदल चलते थे। फिर बैलगाड़ी पर चलते थे। फिर मोटरगाड़ी पर चलते थे। फिर हवाई जहाज पर चलते थे। अब हमारे पास अंतरिक्ष यान हैं। हमारी दौड़ की गति रोज बढ़ती जाती है। कभी आपने खयाल किया कि आदमी की गति जितनी बढ़ती जाती है, आदमी का आत्मज्ञान उतना ही कम होता जाता है!

नहीं, खयाल नहीं किया होगा। इसमें कोई संबंध भी नहीं दिखाई पड़ा होगा। आदमी की जितनी स्पीड बढ़ती जाती है, गति बढ़ती जाती है, उससे उसका अपना संबंध छूटता जाता है। वह दूसरे तक पहुंचने में कुशल होता जाता है और खुद तक पहुंचने में अकुशल होता जाता है। किसी दिन यह हो सकता है कि हमारी रफ्तार इतनी हो जाए कि हम दूर के तारों तक पहुंचने लगें, लेकिन तब खुद तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए बहुत मजे की बात है, जितने गति वाले समाज होते हैं, उतने अधार्मिक हो जाते हैं। और जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतने धार्मिक होते हैं। जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतना भीतर पहुंचने की संभावना बनी रहती है। जितने गति वाले समाज हो जाते हैं, उतना बाहर जाने की संभावना तो बढ़ जाती है, खुद तक आने की संभावना घट जाती है।

सुना है मैंने कि ईश्वर ने सारी सृष्टि बना डाली, फिर उसने आदमी बनाया। वह बड़ा खुश था। सारी दुनिया उसने बना डाली। बहुत खुश था। सब कुछ सुंदर था। फिर उसने आदमी बनाया। और उस दिन से वह बेचैन और परेशान हो गया। आदमी ने उपद्रव शुरू कर दिए। आदमी के साथ उपद्रव का जन्म हो गया।

तो उसने अपने सारे देवताओं को बुलाया और उनसे पूछा कि एक बड़ी मुश्किल हो गई है। यह आदमी को बनाकर तो गलती हो गई मालूम होती है। और आदमी रोज—रोज उसके दरवाजे पर खड़े रहने लगे। यह शिकायत है, वह शिकायत है। यह कमी है, वह कमी है। ईश्वर ने कहा, अब एक उपाय करो कुछ। मैं किसी तरह आदमी से बचना चाहता हूं। मैं कहां छिप जाऊं?

किसी देवता ने कहा, हिमालय पर बैठ जाएं, गौरीशंकर पर। ईश्वर ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, कुछ ही समय बाद हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर चढ़ जाएंगे, फिर मेरी मुसीबत फिर शुरू हो जाएगी। किसी ने कहा, तो चलें चांद पर बैठ जाएं। तो ईश्वर ने कहा, चांद पर पहुंचने में कितनी देर लगेगी! जल्दी ही आदमी चांद पर उतर जाएगा। मुझे कोई ऐसी जगह बताओ, जहां आदमी पहुंच ही न पाए।

तब एक बुजुर्ग देवता ने ईश्वर के कान में कहा। ईश्वर ने कहा, बिलकुल ठीक। यह बात जंच गई। और देवताओं ने पूछा कि कौन— सी है वह बात? ईश्वर ने कहा, अब तुम उसको पूछो ही मत। क्योंकि लीक आउट हो जाए, आदमी तक पहुंच जाए, तो खतरा हो सकता है।

उस बुजुर्ग ने ईश्वर के कान में कहा कि आप आदमी के ही भीतर छिप जाइए। यह वहां कभी नहीं पहुंच पाएगा। एवरेस्ट चढ़ लेगा, चांद पर उतर जाएगा, भीतर खुद के...। ईश्वर ने कहा, यह बात जंच गई।

और कथा है कि तब से ईश्वर आदमी के भीतर छिप गया है। और तब से आदमी ईश्वर से शिकायत करने में असफल हो गया है। खोजता है बहुत, लेकिन मिल नहीं पाता कि उससे शिकायत कर दे, कि कोई प्रार्थना कर दे, कि कोई स्तुति कर दे।

भीतर जाना— उस भीतर जाने के लिए कृष्‍ण धीरे— धीरे अर्जुन को एक—एक कदम अनेक—अनेक इशारों को देकर आखिरी जगह ले आए हैं, जहां वे कहते हैं, अर्जुन, हे धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें हूं। तू अपने में ही देख ले। मत पूछ कि क्या मैं भाव करूं। मत पूछ कि कहां मैं खोजूं। सच ही खोजना चाहता है, तो मैं तेरे भीतर मौजूद हूं तू वहीं देख ले, वहीं खोज ले।

हम सबको भी भरोसा नहीं आता इस बात का कि परमात्मा हमारे भीतर मौजूद है। आएगा भी नहीं। अगर कोई हमसे कहे कि शैतान आपके भीतर मौजूद है, तो हम थोड़ा मान भी लें। क्योंकि हमारा अपने से जो परिचय है, उससे शैतान का तो तालमेल बैठ जाता है। लेकिन कोई हमसे कहे कि परमात्मा आपके भीतर है, तो हम सोचते हैं, कोई मेटाफिजिकल, कोई ऊंचे दर्शन की बात चल रही है! इसमें कुछ है नहीं सार।

परमात्मा, मेरे भीतर! हम किसी के भी भीतर मानने को राजी हो जाएं, खुद के भीतर मानने में बड़ी तकलीफ होगी। क्योंकि हम भीतर अपने जानते हैं कि क्या है। भीतर के चोर को हम जानते हैं। भीतर के बेईमान को हम जानते हैं। भीतर के व्यभिचारी को हम जानते हैं। कैसे हम मान लें कि परमात्मा हमारे भीतर है।

लेकिन इसका सिर्फ एक ही मतलब है कि आप भीतर को जानते ही नहीं। जिसको आप जानते हैं भीतर, वह आपका मन है, वह वस्तुत: भीतर नहीं है, वह वास्तविक इनरनेस नहीं है। जिसको आप जानते हैं मन, वह आपका आंतरिक अंतस्तल नहीं है। वह केवल बाहर की परछाईं है, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई है। वे केवल बाहर से बनी हुई प्रतिक्रियाएं हैं, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई हैं।

ऐसा समझें कि आप जिसको मन कहते हैं, वह बाहर से ही आए हुए प्रभावों का जोड़ है। वह भीतर नहीं है। मन के भी भीतर आप हैं। अगर मैं आपको देखता हूं तो बाहर एक दुनिया है। एक दुनिया मेरे बाहर है। फिर मैं भीतर आंख बंद करता हूं तो भीतर विचारों की एक दुनिया है। वह भी मुझसे बाहर है। क्योंकि उसको भी मैं देखता हूं भीतर। तो विचार मुझे दिखाई पड़ते हैं; क्रोध, कामवासना मुझे दिखाई पड़ती है। जैसे आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही विचारों की भीड़ भीतर दिखाई पड़ती है। वह भी मुझसे बाहर है। मेरे शरीर के भीतर है, लेकिन मुझसे बाहर है।

आप मुझसे बाहर हैं। आंख बंद करता हूं आपकी तस्वीर मुझे भीतर दिखाई पड़ती है, वह भी मुझसे बाहर है। और वह तस्वीर आपकी है। आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध तस्वीर देखी है, जो बाहर से न आई हो? आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध विचार देखा, जो बाहर से न आया हो? आपने भीतर ऐसा कुछ भी देखा है, जो बाहर का ही प्रतिफलन न हो?

तो फिर से खोज करें। आप अपने भीतर की जांच करें, तो आप पाएंगे, वह तो सब बाहर की ही कतरन, बाहर का ही कचरा, बाहर का ही जोड़ है। तो यह फिर भीतर नहीं है। यह बाहर का ही हाथ है, जो आपके भीतर प्रवेश कर गया है। अगर आपको अंतस्तल को जानना है, तो थोड़ा और पीछे चलना पड़े।

कृष्‍ण उसी की बात कर रहे हैं, कि धनंजय, पांडवों में मैं तेरे भीतर इसी समय मौजूद हूं।

लेकिन भीतर का अनुभव मन से नहीं होता, भीतर का अनुभव तो साक्षी से होता है। भीतर का अनुभव तो ज्ञाता से होता है। भीतर का अनुभव तो द्रष्टा से होता है। जो अपने मन को भी देखने में समर्थ हो जाता है, वह भीतर के अनुभव को उपलब्ध होता है। और जिसे भीतर का अनुभव हो जाए, उसे फिर वसंत में देखने जाने की जरूरत नहीं, उसे फिर कामधेनु में देखने की जरूरत नहीं। फिर उसे गायत्री छंद में खोजने की जरूरत नहीं। फिर तो सभी जगह उसी का छंद है। फिर तो सभी जगह उसी का वसंत है।

एक बात खयाल में ले लें। जब तक हमें भीतर परमात्मा नहीं दिखता, तब तक हमें उसे बाहर कहीं देखने की कोशिश करनी पड़ती है। और ध्यान रखें कि वह कोशिश कितनी ही प्रामाणिक हो, अधूरी होगी, पूरी नहीं हो सकती। वह कोशिश कितनी ही निष्ठा से भरी हो, अधूरी होगी, पूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि जिसने उसे अभी भीतर नहीं जाना— भीतर का अर्थ है निकटतम—जिसने उसे इतने निकटतम नहीं जाना, वह दूर उसे नहीं जान सकेगा। जो इतने पास है मेरे कि मेरे हृदय की धड़कन भी मुझसे दूर है उसके हिसाब से, मोहम्मद ने कहा है कि तुम्हारे गले में जो नस फड़कती है जीवन की, वह भी दूर है। वह परमात्मा उससे भी ज्यादा निकट है। जो इतने निकट उसको नहीं जान पाया, वह उसे दूर कैसे जान पाएगा?

और हम सब आकाश में आंखें उठाकर उसे खोजने की कोशिश करते हैं। हम अंधी आंखों से उसे खोज रहे हैं। अपने भीतर आंख बंद करके जो उसे नहीं देख पाता, वह इस विराट आकाश में आंखें खोलकर ईश्वर को देखने की कोशिश करता है! कभी भी वह कोशिश सफल न हो पाएगी।

 एक बात हो सकती है कि वह मानने लगे कि दिखाई पड़ रहा है। निष्ठापूर्वक मानने लगे, तो जिंदगी उसकी भली हो जाएगी, लेकिन धार्मिक नहीं। जिंदगी उसकी सदवृत्तियो से भर जाएगी, लेकिन सत्य से नहीं। जिंदगी उसकी शुभ हो जाएगी, लेकिन शुभ भी एक सपना होगा। क्योंकि जिस परमात्मा को वह देख रहा है, वह उसकी कल्पना है, उसका प्रक्षेपण है, उसका प्रोजेक्यान है। जिसने अभी अपने भीतर नहीं देखा, वह उसे कहीं भी देख नहीं सकता। लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हमारी नजरें बाहर घूमती हैं!

इसलिए कृष्ण ने बाहर से शुरू किया कि यहां देख, यहां देख, यहां देख। फिर वे धीरे— धीरे पास ला रहे हैं। आखिर में बहुत पास ले आए। उन्होंने कहा कि इधर मेरी तरफ देख। मेरे वंश में, मैं यहां मौजूद हूं। यह कृष्ण मौजूद है, यहां देख। वे बहुत करीब ले आए। कृष्ण और अर्जुन के बीच फासला बहुत कम है, फिर भी फासला है। फिर वे और भीतर ले गए, और अर्जुन से कहा कि अपने भीतर देख। तू भी, तू भी मेरा ही घर है। तेरे भीतर भी मैं निवास कर रहा हूं।

और एक बार कोई व्यक्ति भीतर उसकी झलक पा ले, तो सभी जगह उसकी झलक फैल जाती है। फिर ऐसा नहीं कि वसंत में ही दिखाई पड़ेगा। वसंत में तो अंधे को दिखाई पड़े, इसकी कोशिश करनी पड़ती है। फिर तो पतझड़ में भी वही दिखाई पड़ेगा। फिर श्रेष्ठ में ही दिखाई पड़े, ऐसा नहीं, निकृष्ट में भी वही दिखाई पडेगा। फिर तो उसके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा। फिर तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वही होगा। क्यों?

क्योंकि जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी सारी आंखें उससे भर जाती हैं। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी श्वास—श्वास उससे भर जाती है। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसका रोआं— रोआं उसी से स्पंदित होने लगता है। फिर तो वह आदमी जहां भी देखे, यही रंग फैल जाएगा। जहां भी देखे, यही ज्योति फैल जाएगी। फिर तो ऐसा हो गया, जैसे आप एक दीया लेकर चलें, तो जहां भी दीया लेकर जाएं, वहीं रोशनी पड़ने लगे। अंधेरे में चले जाएं, तो अंधेरा भी रोशन हो जाए।

ठीक जिस दिन आपके भीतर वह दिखाई पड़ने लगा, आपके भीतर दीया जल गया। अब आप कहीं भी चले जाएं, जहां भी यह रोशनी पड़ेगी आपके दीये की, वहीं वह दिखाई पड़ेगा। अब आप अंधेरे में जाएं, तो भी वही होगा। उजाले में जाएं, तो भी वही होगा। सुबह भी वही, सांझ भी वही। जन्म में भी वही, मृत्यु में भी वही। लेकिन एक बार यह भीतर दिखाई पड़ जाए तब। और भीतर जाने के लिए कृष्ण को इतने प्रतीक चुनने पड़े।

एवं मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य, दमन करने वाले का दंड, जीतने की इच्छा वालों की नीति, गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मौन, ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

ये दो प्रतीक बहुत बहुमूल्य हैं, इन्हें हम समझें।

गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य भावों में मौन।

यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा, क्योंकि गोपनीय तो हम किसी बात को रखते हैं। मौन को भी कोई गोपनीय रखता है? गोपनीय तो हम किसी विचार को रखते हैं। निर्विचार को भी कोई गोपनीय रखता है? कोई बात छिपानी हो तो हम छिपाते हैं। मौन का तो अर्थ हुआ कि छिपाने को ही कुछ नहीं है। जब छिपाने को ही कुछ नहीं है, तो उसे हम क्या छिपाएगे! यह सूत्र बहुत कठिन है और उन गहरे सूत्रों में से एक है, जिन पर धर्म की बुनियाद निर्मित होती है।

गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य में मैं मौन हूं।

कुछ मत छिपाना, लेकिन अपने मौन को छिपाना, इसका अर्थ होता है। किसी को पता न चले कि तुम्हारे भीतर मौन निर्मित हो रहा है। किसी को पता न चले कि तुम ध्यान में उतर रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम शांत हो रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम भीतर शून्य हो रहे हो। क्योंकि दूसरे को बताने की इच्छा भी उसे भीतर नष्ट कर देती है।

अगर एक आदमी कहता है कि मैं मौन से रहता हूं यह कहने का जो रस है, दूसरे को बताने का जो रस है, यह जो दूसरे में रस है, इसकी वजह से मौन तो हो ही नहीं पाएगा।

एक आदमी कहता है कि मुझे तो ध्यान उपलब्ध होने लगा। लेकिन जब दूसरे से यह कहता है...। दूसरे से कहते ही हम इसलिए हैं कि दूसरा प्रभावित हो। इसलिए वही कहते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। उस सबको तो हम छिपाते हैं, जिससे दूसरा गलत प्रभावित न हो जाए। वही सब बताते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। हमारा अच्छा चेहरा हम दूसरों को दिखाते हैं, ताकि दूसरे प्रभावित हों।

लेकिन दूसरे को प्रभावित करने में जो उत्सुक है, वह ध्यान में जा ही न सकेगा। क्योंकि दूसरे को प्रभावित करने में जो रस है, उसका अर्थ है, अभी अपने से ज्यादा मूल्यवान दूसरा है। अगर मैं सोचता हूं कि फलां आदमी अगर मुझसे प्रभावित हो जाए, तो जिसको भी मैं प्रभावित करना चाहता हूं उसे मैं अपने से ज्यादा मूल्यवान मानता हूं इसीलिए प्रभावित करना चाहता हूं। वह प्रभावित हो जाए, तो मैं भी अपनी नजरों में ऊंचा उठ जाऊं। वह ज्यादा कीमती है मुझसे। अगर मुझे मान ले, तो मैं अपनी नजरों में भी ऊंचा उठ जाऊं। मेरी अपनी नजरों में उठने के लिए भी मुझे दूसरों को प्रभावित करना जरूरी है।

ध्यान की भी जब कोई बात करता है, या कोई कहता है, मैंने ईश्वर को जान लिया, जब इसकी भी कोई चर्चा करता है किसी दूसरे से और उसे प्रभावित करना चाहता है, तो उसका अर्थ हुआ कि उसने अभी ईश्वर को पाया नहीं। अभी ईश्वर को पाने के रास्ते पर भी वह नहीं है। क्योंकि उस रास्ते पर तो वे ही जाते हैं, जो दूसरे की बिलकुल चिंता ही छोड़ देते हैं, जिन्हें दूसरों का पता ही नहीं रह जाता।

मौन में सबसे बड़ी कठिनाई है दूसरे की मौजूदगी, जो आपके मन में सदा बनी रहती है। जब आप मौन बैठते हैं, तब भी आप मौन कहां बैठते हैं, किन्हीं दूसरों से कल्पना में बात करते रहते हैं। आदमी दो तरह की बातें करता है, वास्तविक लोगों से और काल्पनिक लोगों से। बातचीत जारी रहती है। जिनसे आप मौन में भी बात करते हैं, अगर वे कल्पना के जीव भी आपसे प्रभावित न हों, तो भी दुख हो जाता है। असली लोगों की तो हम बात छोड़ दें। आप कल्पना में किसी से बात कर रहे हों, और वह प्रभावित न हो, और कहे कि छोड़ो भी, क्या बकवास लगा रखी है! तो भी मन दुखी और खिन्न हो जाता है। सपने में भी जीतने की इच्छा बनी रहती है दूसरे को।

सपने में भी जिन्हें हम देख लेते हैं, वे भी हमारे लिए वास्तविकताएं हैं। उनसे भी हम संबंध जोड़ना शुरू कर देते हैं। अगर आप अपने मन की खोज करें, तो आपकी जिंदगी का अधिक हिस्सा तो सपनों में और कल्पनाओं में ही बीतता है। बहुत कम हिस्सा बाहर बीतता है। बहुत हिस्सा तो भीतर ही बीतता है।

और कभी—कभी बाहर भी जो आप बोलते हैं, वह आप भूल से बोल जाते हैं। आपको पीछे पता चलता है कि आप यह भीतर बोल रहे थे, उसी का हिस्सा जुड़ गया। किसी से भीतर बात चल रही थी, वही बाहर निकल गई। कई बार जो आप नहीं कहना चाहते बाहर, वह कह जाते हैं, क्योंकि भीतर चल रहा था। कई बार आप कहते हैं, भूल से ऐसा हो गया। लेकिन भूल से हो नहीं सकता। वे भीतर चल रही थीं पंक्तियां, तो ही आपकी जीभ से सरककर बाहर गिर सकती हैं।

भीतर एक सतत डायलाग चल रहा है, एक सतत चर्चा चल रही है अपनी ही कल्पनाओं से। मौन में जब आप बैठेंगे, तो यही आपके मौन का खंडन होगा। यही आपके मौन को तोड़ देगा।

मौन का अर्थ है, भीतर कोई विचार न रह जाए, भीतर कोई विचार का कंपन न हो, जैसे झील शांत हो गई हो, कोई लहर न उठती हो।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, गोपनीयों में मैं मौन हूं।

और यह सबसे गुप्त बात है, जिसे किसी को बताना ही मत। बताते ही यह नष्ट हो जाती है। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है, आपका मन बताने का एकदम होता है। और जब भी भीतर कुछ होता है, तो आप चाहते हैं, किसी को बता दें। मन बड़ी तीव्रता से करता है कि जाओ और बोल दो और किसी को कह दो।

यह मन की सहज वृत्ति है। क्योंकि जो आपको हुआ है, जब तक आप दूसरे से न कह दें, तब तक वह वास्तविक है, इसका भी आपको भरोसा नहीं आता। जब दूसरा मान ले, तब आपको भरोसा आता है कि ठीक है।

दो व्यक्ति एक—दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं। तो कोई भी पुरुष किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो कहता है कि तुझसे ज्यादा सुंदर इस पृथ्वी पर कोई स्त्री नहीं है। और सभी स्त्रियां इसको मान लेती हैं। मानना चाहती हैं गहरे में। और इसको सुनते से ही स्त्री सुंदर हो जाती है। भरोसा आ जाता है! और जब कोई इतना सुंदर मान रहा हो, तो वह भी सुंदर दिखाई पड़ने लगता है। और तब हम कहते हैं कि तुझसे सुंदर पुरुष, तुझसे श्रेष्ठ पुरुष, खोजना असंभव है। और तब म्युचुअल कल्पना की दौड़ शुरू होती है। और तब वे दोनों एक— दूसरे को शिखर पर उठाए चले जाते हैं। और यह शिखर जितना ऊंचा होगा, उतनी ही खाई में कल गिरेंगे। क्योंकि यह शिखर कल्पना का है।

इसलिए ध्यान रखें, प्रेम—विवाह जिस खतरे में ले जाता है, कोई विवाह नहीं ले जा सकता। और प्रेम—विवाह जिस बुरी तरह असफल होता है, कोई विवाह असफल नहीं हो सकता। उसका कारण यह नहीं है कि प्रेम—विवाह बुरा है; उसका कुल कारण इतना है कि प्रेम—विवाह एक म्युचुअल कल्पना पर निर्मित होता है।

भारत में विवाह एक सफल संस्था है, क्योंकि हमने प्रेम को बिलकुल ही काट दिया है उसमें से। कल्पना का सवाल ही नहीं, जमीन पर ही चलाते हैं आदमी को। यहां पति—पत्नी होते हैं, प्रेमी— प्रेयसी होते ही नहीं। कभी आकाश में चढ़ते ही नहीं, तो गड्डे में गिरने का सवाल ही नहीं आता। समतल भूमि पर चलते रहते हैं।

अमेरिका में बुरी तरह विवाह अस्तव्यस्त हुआ जा रहा है। और उसका कारण है कि विवाह की बुनियाद दो आदमी एक—दूसरे को नशे में डालकर रखते हैं। वह नशा कितनी देर चलेगा? कितनी देर चल सकता है? वह नशा जल्दी ही उतर जाता है। और इतने बड़े सपनों के बाद जब जमीन पर लौटते हैं, तो लगता है कि बेकार हो गया, धोखा हो गया। गलती हो गई, भूल हो गई। वे सब कविताएं धुआ हो जाती हैं।

हम सब ऐसे ही जीते हैं लेकिन, इसलिए हमें खुशामद प्रीतिकर लगती है। क्योंकि कोई हमें भरोसा दिलाता है। बिलकुल झूठ भी कोई आपसे कह दे, कोई आपसे कह दे कि आप जैसा बुद्धिमान आदमी नहीं है। आपके भीतर कोई आपसे कहे भी कि झंझट में मत पड़ो, यह झूठ ही मालूम पड़ता है; क्योंकि आपको अपनी बुद्धि का अच्छी तरह पता है! फिर भी इनकार करने का मन नहीं होता, मानने का मन होता है। और दस आदमी अगर इकट्ठे होकर कहने लगें, तो फिर तो इनकार करने का सवाल ही नहीं। हजार दो हजार की भीड़ इकट्ठी हो जाए, फिर तो कोई सवाल ही नहीं। और आपको आसमान में उठाया जा सकता है।

दूसरों की आंखों में जो देख रहा है, वह भूलों में पड़ सकता है, पड़ेगा ही। साधक के लिए अनिवार्य है कि यह जो पारस्परिक लेन— देन है कल्पनाओं का, इससे हट जाए। इससे बिलकुल हट जाए। वह सिर्फ अपने पर राजी हो जाए। वह दूसरे में तलाश करने न जाए। दूसरे से कहे भी न, क्या उसके भीतर हो रहा है।

और न कहने का एक कारण और भी है, कि जैसे ही आप कहते हैं, आपकी गति अवरुद्ध हो जाती है। क्योंकि कहने का अर्थ ही यह हुआ कि आप बड़े तृप्त हो गए। जब मैं किसी से कहता हूं कि बड़ी शांति हो गई भीतर, तो उसका अर्थ है कि मैं तृप्त हो गया। गति अवरुद्ध हो जाएगी।

अगर बढ़ाए जाना है भीतर की गति को और रुक नहीं जाना है, तो मत कहें। मत कहें। इसे किसी से कहें ही मत। यह आपका ही रहस्य हो। यह आपकी निजी संपदा हो। इसका किसी को भी पता न चले। यह ऐसी कुछ बात हो कि आप और आपके परमात्मा के बीच ही रह जाए।

इसलिए इतनी सीक्रेसी, इतनी गुप्तता धर्मों ने निर्मित की है। उस सीक्रेसी के पीछे और कोई कारण नहीं है। उस गुप्तता के पीछे, गोपनीयता के पीछे और कोई कारण नहीं है। वह सहयोगी है अंतर्विकास में, इनर ग्रोथ में।

कृष्‍ण कहते हैं, गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मैं मौन हूं। अगर तुझे मुझे खोजना हो भावों में, तो तू मुझे मौन में खोजना। अर्जुन ने पूछा भी है कि किस भाव में मैं खोजूं? तो कृष्‍ण कहते हैं, तू मुझे मौन में खोजना। अगर तू बिलकुल मौन हो जाए, तो तू मुझे पा लेगा।

हमारे और सत्य के बीच दीवाल शब्दों की है। एक फूल के पास से आप गुजरते हैं। एक गुलाब का फूल खिला है। फूल दिखाई नहीं पड़ता है, उसके पहले गुलाब का फूल बीच में आ जाता है, शब्द बीच में आ जाता है। फूल देख भी नहीं पाते और आप कहते हैं, सुंदर है। यह सुंदर है, आपकी पुरानी आदत का हिस्सा है। आपको पता है, गुलाब का फूल सुंदर होता है, सुंदर कहा जाता है। सुना है, पढ़ा है, वह आपके मन में रम गया है। फूल को आप देख भी नहीं पाते। यह फूल जो अभी मौजूद है, इसकी पंखुड़ियां आपके हृदय को छू भी नहीं पातीं। इसकी सुगंध आपके प्राणों में उतर भी नहीं पाती। और आप कहते हैं, गुलाब का फूल है, सुंदर है। बात समाप्त हो गई। आपका संबंध टूट गया।

अगर इस गुलाब के फूल से संबंधित होना हो, तो एक छोटा—सा प्रयोग करें। इस गुलाब के फूल को देखें, लेकिन भीतर शब्द को न आने दें। यह ध्यान का एक प्रयोग है। बैठें इसके पास, लेकिन शब्द को न आने दें। मत कहने दें अपने मन को कि गुलाब का फूल है। मत कहने दें कि सुंदर है। मत कहने दें कि बड़ी सुगंध आ रही है। मत कहने दें कि अच्छा है। कोई निर्णय नहीं। कोई वक्तव्य नहीं। शब्द को कहें कि तू चुप रह, मेरी आंखें हैं। मैं मौजूद हूं। मुझे देखने दे।

 निश्चित ही, जब सूरज उगता है और आप कह देते हैं, सुंदर है, तो आपको पता नहीं होगा कि आपके और सूरज के बीच शब्द की एक दीवाल आ गई। हटा दें शब्दों को बीच से। आप खाली हो जाएं। उधर सूरज को उगने दें, इधर आप रह जाएं, बीच में कुछ भी न हो। तब आपको पहली दफा सूरज का संस्पर्श मिलेगा। तब पहली दफा सूरज के साथ आप आत्मसात हो जाएंगे। तब पहली दफा सूरज और आपके बीच में कोई भी नहीं होगा। सूरज और आपके बीच पहली दफा सेतु निर्मित होगा। या गुलाब के फूल और आपके हृदय के बीच पहली दफा एक संगीत निर्मित होगा।

अगर ऐसा ही मौन समस्त अस्तित्व के प्रति आ जाए, तो परमात्मा और हमारे बीच संबंध निर्मित होता है। जिस दिन शब्द न रह जाएं, समाप्त हो जाएं, अलग गिर जाएं, हम और अस्तित्व ही रह जाएं..। अस्तित्व है चारों ओर, हम हैं यहां, बीच में एक शब्दों की दीवाल है।

भाषा बड़ी उपयोगी है संसार में, बड़ी बाधा है परमात्मा में। जहां दूसरे से संबंधित होना है, भाषा जरूरी है। जहां अपने से संबंधित होना है, भाषा खतरनाक है। जहां दूसरे से मिलना है, वहां भाषा के बिना कैसे मिलिएगा? लेकिन जहां अपने से ही मिलना है, वहां भाषा की क्या जरूरत है?

लेकिन हम दूसरे से मिल—मिलकर इतने आदी हो गए हैं भाषा के, कि जब अपने से मिलने जाते हैं, तब भी भाषा का बोझ लेकर पहुंच जाते हैं। अगर परमात्मा से मिलना है, तो भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। वहां मौन ही भाषा है। वहां चुप हो जाना ही बोलना है। वहां मौन हो जाना ही संवाद है।

कृष्ण कहते हैं, भावों में अगर मुझे खोजना हो, तो मैं मौन हूं। और ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

यह आखिरी प्रतीक इस आयाम में।

ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

तत्व—ज्ञान के संबंध में थोड़ी बात मैंने आपसे कही। तत्व—ज्ञान से अर्थ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है। तत्व—ज्ञान से अर्थ है, सत्य का निजी अनुभव, अपना अनुभव।

और ध्यान रहे, अज्ञान इतना नहीं भटकाता, जितना तथाकथित उधार ज्ञान भटकाता है। अज्ञानी तो विनम्र होता है। उसे पता होता है, मुझे पता नहीं। लेकिन तथाकथित जो ज्ञानी होते हैं, जिनके मस्तिष्क में सिवाय शास्त्र के और कुछ भी नहीं होता। शास्त्र की प्रतिध्वनियां होती हैं। उनको यह भी खयाल नहीं आता कि हम नहीं जानते। उनको तो पक्का मजबूत खयाल होता है कि मैं जानता हूं। यह मैं जानता हूं यही उनकी बाधा बन जाती है।

तत्व—ज्ञान का अर्थ है, जब निजी अनुभव हो।

कृष्ण जानते होगे; आप गीता कंठस्थ कर लें, इससे कुछ ज्ञान नहीं होगा। बुद्ध जानते होगे; आप धम्मपद याद कर लें, इससे कुछ होगा नहीं। यह उधार है। और ध्यान रहे, उधार ज्ञान ज्ञान होता ही नहीं। उधार ज्ञान ज्ञान होता ही नहीं। अपना ज्ञान ही सिर्फ ज्ञान है। दूसरा क्या जानता है, वह आपको सब दे दे, आपके पास ज्ञान नहीं आता, सिर्फ शब्द आते हैं। शब्द आप इकट्ठे कर लेते हैं, स्मृति में शब्द बैठ जाते हैं। फिर स्मृति को ही आप समझते हैं कि मैं जानता हूं।

स्मृति ज्ञान नहीं है। ज्ञान का अर्थ है, अनुभव। आपका ही साक्षात्कार हो, आप ही आमने—सामने आ जाएं, आपका ही हृदय जाने, जीए, धड़के, उस अनुभव में, तो ही तत्व—ज्ञान है।

कृष्‍ण कहते हैं, ज्ञानियों, ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं अनुभव मैं ही हूं।

और यह बड़े मजे की बात है कि उस तत्व—ज्ञान में, उस निजी अनुभव में जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव में जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव ही परमात्मा है। परमात्मा के संबंध में जानना परमात्मा को जानना नहीं है। 

उपनिषद ने कहा है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं!

यह किन ज्ञानियों के लिए कहा होगा जो महाअंधकार में भटक जाते हैं! और मजा यह है कि इसी उपनिषद को लोग कंठस्थ कर लेते हैं। और इस सूत्र को भी कंठस्थ कर लेते हैं। और इस सूत्र को रोज कहते रहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। इसको भी कंठस्थ कर लेते हैं। सोचते हैं, इसे कंठस्थ करके वे ज्ञानी हो गए। इन्हीं ज्ञानियों के भटकने के लिए यह सूत्र है।

आदमी विचित्र है। और आदमी अपने को धोखा देने में अति कुशल है। और जब वह खुद को धोखा देता है, तो धोखा तोड्ने का उपाय भी नहीं बचता। दूसरे को धोखा दें, तो दूसरा बचने की भी कोशिश करता है। आप खुद ही अपने को धोखा दें, तो फिर बचने का भी कोई उपाय नहीं रह जाता।

अगर कोई आदमी सोया हो, तो उसे जगाया भी जा सकता है। लेकिन कोई जागा हुआ सोया हुआ बना पड़ा हो, तो उसे जगाना बिलकुल मुश्किल है। कैसे जगाइएगा? अगर वह आदमी जाग ही रहा हो और सोने का बहाना कर रहा हो, तब फिर जगाना बहुत मुश्किल है। नींद तोड़ देना आसान है, लेकिन झूठी नींद को तोड़ना बहुत मुश्किल है।

अज्ञानी को तत्व—ज्ञान की तरफ ले जाना इतना कठिन नहीं है, जितना पंडित को, ज्ञानी को ले जाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, मैं जानता ही हूं।

ज्ञानी, तथाकथित ज्ञानी की तकलीफ यही है। अपना ज्ञान भी नहीं है और उधार ज्ञान सिर पर इतना भारी है, वह छोड़ा भी नहीं जाता। क्योंकि वह संपत्ति बन गई। उससे अकड़ आ गई। उससे अहंकार निर्मित हो गया है। उससे लगता है कि मैं जानता हूं। बिना जाने लगता है कि मैं जानता हूं।

यह जो स्थिति हो, तो तत्व—ज्ञान फलित नहीं होगा।

कृष्‍ण कहते हैं, ज्ञानियो का मैं तत्व—ज्ञान हूं। वे यह नहीं कहते कि ज्ञानियों की मैं जानकारी हूं। ज्ञानियों के पास बड़ी जानकारी, बड़ी इनफमेंशन है। वे कहते हैं, ज्ञानियो का मैं तत्व—ज्ञान, निजी अनुभव, उनका खुद का बोध, उनका सेल्फ रियलाइजेशन, उनकी प्रतीति, उनकी अनुभूति मैं हूं। उनकी जानकारी नहीं।

लेकिन जो जानकारी हम इकट्ठी कर लेते हैं, वह जानकारी हमारे सिर पर बोझ हो जाती है। वह जो भीतर की सरलता है, वह भी खो जाती है। पंडित भी उसे पा सकते हैं, लेकिन पांडित्य को उतारकर रख दें तो ही।

और तत्व—ज्ञान मैं हूं। ज्ञान नहीं, जानकारी नहीं, सूचना नहीं, शास्त्रीयता नहीं, आत्मिक अनुभव। और निश्चित ही, उस आत्मिक अनुभव में, जहां एक भी शब्द नहीं होता, व्यक्ति होता है और अस्तित्व होता है और दोनों के बीच की सब दीवालें गिर गई होती हैं, वहां जो होता है, वही परमात्मा है।

इसे हम ऐसा कहें, परमात्मा का अनुभव नहीं होता; एक अनुभव है, जिसका नाम परमात्मा है। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता।

ऐसा नहीं होता कि आपके सामने परमात्मा खड़ा है, और आप अनुभव कर रहे हैं। इसमें तो दूरी रह जाएगी। एक अनुभव है, जहां व्यक्ति समष्टि में लीन हो जाता है। उस अनुभव का नाम ही परमात्मा है। शायद कठिन मालूम पड़े। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता। एक खास अनुभव!

वह अनुभव क्या है? वह अनुभव है, जहां बूंद सागर में खोती है। जहां बूंद सागर में खोती है, तो बूंद को जो अनुभव होता होगा! जैसे व्यक्ति जब समष्टि में खोता है, तो व्यक्ति को जो अनुभव होता है, उस अनुभव का नाम परमात्मा है।

परमात्मा एक अनुभव है, वस्तु नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, एक घटना है। और जो भी तैयार है उस घटना के लिए, उस एक्सप्लोजन के लिए, उस विस्फोट के लिए, उसमें घट जाती है। और तैयारी के लिए जरूरी है कि अपना अज्ञान तो छोड़े ही, अपना ज्ञान भी छोड़ दें। अज्ञान तो छोड़ना ही पड़ेगा, ज्ञान भी छोड़ देना पड़ेगा। और जिस दिन ज्ञान— अज्ञान दोनों नहीं होते, उसी दिन जो होता है, उसका नाम परमात्मा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...