शनिवार, 7 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 14

 परम गोपनीय—मौन


द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।

जयोउस्थि व्यवसायोउस्मि सत्त्वं सत्ववतामहम्।। 36।।

वृष्णीनां वासुदेवोउस्मि पाण्डवानां धनंजय:।

मुनीनामध्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि:।। 37।।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 38।।


हे अर्जुन मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूं तथा मैं जीतने वालों का विजय हूं और निश्चय करने वालों का निश्चय एवं सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं।

और वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात मैं स्वयं तुम्हारा सखा और पांडवों में धनंजय अर्थात तू एवं मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूं।

और दमन करने वालों का दंड अर्थात दमन करने की शक्ति हूं जीतने की ड़च्छा वालों की नीति हूं और गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मौन हूं तथा ज्ञानवानों का तत्व— ज्ञान मैं ही हूं।



है अर्जुन, मैं छल करने वालों में जुआ, प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव, जीतने वालों का विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सत्पुरुषों का सात्विक भाव हूं। हैरानी होगी यह सोचकर कि कृष्‍ण कहते हैं कि मैं छल करने वालों में जुआ हूं।

शायद जीवन में सभी कुछ छल है। और जीवन की जो छल— स्थिति है, वह जैसी जुए में प्रकट होती है, वैसी और कहीं नहीं। जीवन जुआ है और जुए में जीवन का जो मायिक रूप है, जो छल है, वह अपनी श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति को उपलब्ध होता है। इसे थोड़ा हम समझें, तो आसानी हो। और यह कीमती है।

जीवनभर हम कोशिश करते हैं जो भी पाने की, उसे कभी पा नहीं पाते हैं। लगता है कि मिलेगा। लगता है कि अब मिला। लगता है कि बस, अब मिलने में कोई देर नहीं। और हर बार निशाना चूक जाता है। और मृत्यु के क्षण में आदमी पाता है कि जो भी चाहा था, वह कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ अपनी वासनाओं की राख ही हाथ में रह जाती है।

मरते क्षण में जो पीड़ा है, वह मृत्यु की नहीं, वह व्यर्थ गए जीवन की होती है। जो लोग जीवन को, जीवन की सार्थकता को, जीवन के आनंद को पा लेते हैं, वे मृत्यु से पीड़ित होते हुए नहीं देखे जाते। उन्हें तो मृत्यु एक विश्राम मालूम होती है। लेकिन अधिकतम लोग तो मृत्यु से पीड़ित होते देखे जाते हैं।

हम सबको यही लगता है कि वे मृत्यु से दुखी हो रहे हैं। वह गलत है। वे दुखी हो रहे हैं इसलिए कि वह जीवन चला गया, जिसमें पाने के बहुत मन्सुबे थे, बडी आकांक्षाएं थीं, बड़े दूर के सपने थे। बड़े तारे थे, जिन तक पहुंचना था और कहीं भी पहुंचना नहीं हो पाया। और आदमी इस पूरी दौड़ में बिना कहीं पहुंचे रास्ते पर ही मर जाता है। पड़ाव भी उपलब्ध नहीं होता, मंजिल तो बहुत दूर है। मृत्यु का जो दंश है, जो पीड़ा है, वह जीवन की व्यर्थता के कारण है।

इसलिए बुद्ध को हम दुखी नहीं देखते मरते क्षण में। सुकरात को हम दुखी नहीं देखते। महावीर को हम पीड़ित नहीं देखते। मृत्यु उन्हें मित्र की तरह आती हुई मालूम पड़ती है। लेकिन हमें शत्रु की तरह आती मालूम पड़ती है। क्यों? क्योंकि हमारी वासनाएं तो पूरी नहीं हुईं; हमें अभी और समय चाहिए। हमारी इच्छाएं तो अभी अधूरी हैं। अभी हमें और भविष्य चाहिए।

ध्यान रहे, भविष्य न हो तो हमारी इच्छाओं को फैलने की जगह नहीं रह जाती। भविष्य तो चाहिए ही, तभी हम अपनी इच्छाओं की शाखाओं को फैला सकते हैं। वर्तमान में इच्छा नहीं होती, इच्छा सदा भविष्य में होती है। वासनाओं का जाल तो सदा भविष्य में होता है, वर्तमान में कोई वासना का जाल नहीं होता। अगर कोई व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में हो, अभी, यहीं हो, तो उसके चित्त में कोई वासना नहीं रह जाएगी।

वासना हो ही नहीं सकती वर्तमान में। वासना तो होती ही कल है, आने वाले कल में, आने वाले क्षण में। वासना का संबंध ही भविष्य से है। जो लोग गहरे में खोजते हैं, वे तो कहते हैं कि भविष्य ही इसीलिए मन पैदा करता है, क्योंकि बिना भविष्य के वासनाओं को फैलाएगा कहां। भविष्य कैनवस का काम करता है, जिसमें वासनाओं के सपने फैल जाते हैं।

इसलिए जो लोग वासनाओं से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिए एक ही प्रक्रिया है और वह यह है कि भविष्य को छोड़ दो और वर्तमान में जीयो। वर्तमान से आगे मत बढ़ो। जो क्षण हाथ में है, उसको ही जी लो; आने वाले क्षण का विचार ही मत करो। जब वह आ जाएगा, तब जी लेंगे। जो आदमी मोमेंट टु मोमेंट, क्षण— क्षण जीने लगता है, उसके चित्त में वासना का उपाय नहीं रह जाता। वासना के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए।

मौत दुख देती है, क्योंकि मौत के साथ पहली दफा हमें पता चलता है, अब कोई भविष्य नहीं है। मौत दरवाजा बंद कर देती है भविष्य का, वर्तमान ही रह जाता है। और वर्तमान में तो सिर्फ टूटे हुए वासनाओं के खंडहर होते हैं, राख होती है, असफलताओं का ढेर होता है, विषाद होता है, संताप होता है। कोई वासना की पूर्ति का तो उपाय नहीं दिखता, और थोड़ा भविष्य चाहिए।

मृत्यु घबड़ा देती है, क्योंकि भविष्य समाप्त हो जाता है। और तब जिंदगी की व्यर्थता दिखाई पड़ती है, लेकिन तब कोई प्रयोजन नहीं। तब कोई अर्थ नहीं। तब जिंदगी लगती है एक जुआ थी, जिसमें हम हारे।

जुए की एक खूबी है, वह इसलिए मैंने इतनी बात कही। जुए में कोई कभी जीतता नहीं; यही उसका छल है। और हरेक जीतता हुआ मालूम पड़ता है, यही उसका छल है। हरेक जीतने की आकांक्षा से जुए के पासे फेंकता है और हर एक को लगता है कि जीत निश्चित है। लेकिन जुए में कोई कभी जीतता नहीं। और जो जीतते हुए मालूम भी पड़ते हैं, वे केवल और बड़ी हारों की तैयारी कर रहे होते हैं।

जुए में जो हारता है, वह सोचता है, इस बार हार गया, भाग्य ने साथ न दिया, अगली बार जीत निश्चित है। और हारता चला जाता है। कभी—कभी जीत की झलक भी मिलती है। वह जीत की झलक और बड़ी हारों का आयोजन करवा देती है। उस झलक से लगता है कि जीत भी हो सकती है।

जो जीत जाता है, वह सोचता है कि एक बार जीत जाऊं, तो फिर रुक जाऊं। लेकिन जो एक बार जीत जाता है, रुकना असंभव है। क्योंकि जीत का जो स्वाद मन को लग जाता है, और जीतने की आकांक्षा प्रबल हो जाती है। वही आकांक्षा हार में ले जाती है। जो हारता है, वह सोचता है, अगली बार जीत जाऊंगा। जो इस बार जीतता है, वह सोचता है, जीत मेरे भाग्य में है; हर बार जीत जाऊंगा। और अंतत: जुआ ही चलता रहता है। सभी उसमें हारने वाले ही सिद्ध होते हैं।


इसलिए कृष्ण कहते हैं, छलों में मैं जुआ हूं।

वह शुद्धतम छल है। कभी कोई जीतता नहीं, अंतत: कोई जीतता नहीं। आखिर में हाथ खाली रह जाते हैं। खेल बहुत चलता है लेकिन, हार—जीत बहुत होती है। कोई हारता, कोई जीतता; कोई बनता, और कोई मिटता! बहुत खेल होता है। रुपये—पैसे इससे उसके पास जाते हैं। उससे इसके पास जाते हैं, बड़ा लेन—देन होता है। और आखिर में कोई जीतता नहीं। सिर्फ जीतने की और हारने की इस दौड़ में लगे हुए सभी लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, हार जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।

इसलिए जुआ जिंदगी का प्रतीक है। सारी जिंदगी जुआ है।

इसलिए आप यह मत सोचना कि जो जुआ खेल रहे हैं, वही जुआ खेल रहे हैं। ढंग हैं बहुत तरह के जुआ खेलने के! कुछ जरा हिम्मत का जुआ खेलते हैं, कुछ जरा कम हिम्मत का जुआ खेलते हैं। कुछ इकट्ठे दांव लगाते हैं, कुछ दांव छोटे—छोटे लगाते हैं। कोई बड़े दांव लगाते हैं, कोई टुकड़ों में दांव लगाते हैं। किन्हीं की जीत और हार प्रतिपल होती रहती है, किन्हीं की जीत और हार का इकट्ठा हिसाब मौत के क्षण में होता है। लेकिन हम सब जुआ खेल रहे हैं। और जब तक कोई व्यक्ति अपनी तरफ नहीं जाता, तब तक जुए में ही होता है।

इसे ऐसा समझें कि जो व्यक्ति भी दूसरे में उत्सुक है, वह जुए में ही होता है। दूसरे में उत्सुकता जुआ है, चाहे वह प्रेम की हो, चाहे धन की, चाहे यश की, पद की, प्रतिष्ठा की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक आप दूसरे पर निर्भर हैं, तब तक आप एक गहरा जुआ खेल रहे हैं। अगर आपको दूसरे भी अपने में उत्सुक मालूम पड़ते हैं, तो आप पक्का समझ लेना कि आप दोनों एक गहरे जुए में भागीदार हैं।

जब तक कोई व्यक्ति दूसरे की उत्सुकता से मुक्त नहीं होता और उस उत्सुकता में लीन नहीं होता, जो स्वयं की है, तब तक जुए के बाहर नहीं होता।

जुआ अकेले नहीं खेला जा सकता, उसमें दूसरे की जरूरत है। इसलिए जो व्यक्ति ध्यान की एकांतता को, अकेलेपन को उपलब्ध हो जाता है, वही जीवन के जुए के बाहर होता है।

जिस काम में भी दूसरे की जरूरत हो, समझ लेना कि जुआ होगा। जो काम भी दूसरे के बिना पूरा न हो सके, समझ लेना कि जुआ होगा। जिसमें दूसरा अनिवार्य हो, समझना कि वहां दांव है। जिस क्षण आप बिलकुल अकेले होने को राजी हों, दूसरा बिलकुल ही अर्थपूर्ण न रह जाए, उस दिन आप समझना कि आप जुए के बाहर हो रहे हैं।

ध्यान के अतिरिक्त जुए के बाहर होने का कोई उपाय नहीं है। बाकी सब उपाय जुआ ही खेलने के हैं। यह दूसरी बात है कि कोई एक जुआ पसंद करता है, कोई दूसरा जुआ पसंद करता है। यह अपनी पसंद की बात है। लेकिन जिंदगी के आखिर में अगर कोई एक चीज आप मरते वक्त जान सकते हैं कि मैंने पा ली, तो वह आपकी ही आत्मा है। उसके अतिरिक्त आप जो भी पा लेंगे, मृत्यु आपसे छीन लेगी।

इससे कोई संबंध नहीं है कि आप क्या पाने की कोशिश कर रहे हैं, आपकी जिंदगी एक जुआ है, अगर आप अपने को छोड्कर कुछ भी पाने की कोशिश कर रहे हैं। और आखिर में आपके हाथ खाली होंगे, आखिर में आप हारे हुए विदा होंगे।

कृष्‍ण कहते हैं, छल करने वालों में मैं जुआ हूं।

शुद्धतम रूप जुआ है छल का। जुआरी की हम निंदा करते रहते हैं। लेकिन हम सब जुआरी हैं। जुआरी की निंदा शायद हमारे मन में इतनी ज्यादा इसीलिए है कि हम छोटे जुआरी हैं। और जुआरी को देखकर हमारा सारा जुआ उघडता है और नग्न हो जाता है। जब एक जुआरी दांव लगाता है, तो हम कहते हैं, पागल हो। और हम सब पूरी जिंदगी दांव लगाकर जीते हैं, और कभी भी नहीं सोचते कि हम पागल हैं! अपना—अपना जुआ सभी को ठीक मालूम पड़ता है। दूसरे के जुए सभी को गलत मालूम पड़ते हैं।

इस जमीन पर बड़े मजे की घटना है, हर आदमी अपने को ठीक और शेष को पागल जानता है। लेकिन तब तक जीवन में धार्मिक क्रांति घटित नहीं होती, जब तक कोई आदमी अपने को पागल जानना शुरू नहीं करता। और जब कोई आदमी यह जान लेता है कि मेरी पूरी जिंदगी, जिसको मैंने अब तक जिंदगी कहा, एक लंबा पागलपन है, उसी दिन उसकी जिंदगी में क्रांति होनी शुरू हो जाती है। जब तक आप दूसरों पर हंसते हैं, तब तक समझना, आप व्यर्थ हंसते हैं। जिस दिन आपको अपने पर हंसी आ जाए, समझना कि रास्ता बदला। अब यात्रा आपकी कुछ और हुई।

क्या है? आप क्या कर रहे हैं? लोग आपको अच्छा कहें, इसके लिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपके मकान को बड़ा कहे, इसलिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई आपकी तिजोड़ी को देख ले और उसकी आंखों में चकाचौंध पैदा हो जाए, इसलिए जिंदगी गंवा रहे हैं। कोई दूसरे की आंखों के साथ आप जुआ खेल रहे हैं।

वे दूसरे की आंखें उतनी ही पानी की बनी हैं, जितनी आपकी हैं। कल पानी की तरह बह जाएंगी और इस जगत की रेत में उनका कोई भी पता नहीं चलेगा। और दूसरों के शब्द वैसे ही हवा के बबूले हैं, जैसे आपके, और हवा में खो जाएंगे। उनकी प्रशंसाएं, उनकी निदाएं, सब हवा में फूट जाएंगी बबूलों की तरह और खो जाएंगी। उनका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। और आपकी जिंदगी आप गंवा चुके होंगे।

कृष्‍ण की इस बात को खयाल में ले लेने जैसा है, छल करने वालों में मैं जुआ हूं। अगर छल को ही देखना है, तो जुए में उसकी शुद्धता है। सौ फीसदी शुद्ध! फिर जिंदगी में उसकी अशुद्धता दिखाई पड़ती है। लेकिन शुद्ध वह जुए में है।

जुए को और मौत को जो समझ ले, वह अंतर्यात्रा पर निकल सकता है।

प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव, जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय, सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूं। और वृष्णिवशियों में वासुदेव अर्थात स्वयं मैं, पांडवों में धनंजय अर्थात तू एवं मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य मैं ही हूं।

कृष्‍ण कहते हैं— अपने को भी एक प्रतीक बना लेते हैं और अर्जुन को भी— वे कहते हैं, वृष्‍णिवंशियों में अगर तुझे देखना हो मुझे, अगर तुझे देखना हो प्रभु को, तो मैं तेरे सामने खड़ा हूं।

निश्चित ही, उस वंश में कृष्‍ण से ऊंचाई पाने वाला कोई व्यक्ति हुआ नहीं। असल में उस वंश को ही हम कृष्‍ण की वजह से जानते हैं। कृष्‍ण न हों, तो उनके पूरे वंश में किसी को भी जानने का कोई कारण नहीं रह जाता। वह जो कृष्‍ण का फूल खिला है उस वंश के वृक्ष पर, उस फूल की वजह से ही उस वृक्ष का भी हमें स्मरण है। वह उस वंश की श्रेष्ठतम उपलब्धि, जो नवनीत है, वह कृष्‍ण है। कृष्‍ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि जहां भी श्रेष्ठता का फूल खिलता है, वहां तू मुझे देख पाएगा। तो अगर मेरे वंश में तुझे देखना है, तो मैं तेरे सामने मौजूद हूं।

और अक्सर ऐसा होता है कि जब अंतिम फूल खिल जाता है, तो वंश नष्ट हो जाता है। क्योंकि फिर वंश के होने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। उसका प्रयोजन पूरा हो गया। इसलिए कृष्ण के साथ कृष्‍ण का वंश तिरोहित हो जाता है। और इतनी श्रेष्ठता को फिर पार करना भी संभव नहीं है। इसलिए श्रेष्ठतम जो है, वह एक वंश का अंत भी होता है। आखिरी फूल खिल जाने का अर्थ है, वृक्ष की मौत भी आ गई। पूर्णता समाप्ति भी है।

कृष्‍ण के साथ कृष्‍ण का वंश समाप्त हो जाता है। उस वंश का जो निहित प्रयोजन था, पूरा हो गया। जो नियति थी, जहां तक पहुंचना था, जो आखिरी छलांग थी, लहर जहां तक आकाश में उठ सकती थी, उठ गई।

तो वे कहते हैं, अगर मेरे वंश में तुझे देखना हो, तो मैं मौजूद हूं जहां तुझे परमात्मा दिखाई पड़ सकता है।

साथ ही एक और भी मजे की बात कहते हैं, और पांडवों में धनंजय अर्थात तू!

वह जो पांडवों का वंश है, उसमें अर्जुन भी नवनीत है, उसमें अर्जुन सार है। यह सारा महाभारत अर्जुन के इर्द—गिर्द है। यह सारा महाभारत, यह सारी कथा अर्जुन के आस—पास घूमती है।

धनंजय, अगर तुझे पांडवों में भी परमात्मा को देखना हो, तो तू खुद अपने में देख।

ये सारे प्रतीक कृष्‍ण ने कहे, ये दूर थे, पराए थे। कृष्‍ण धीरे— धीरे उस प्रतीक के पास अर्जुन को ले आए हैं, जहां वह खुद अपने में भी देख सके। ये इतने स्मरण दिलाए कि ऋतुओं में मैं वसंत हूं कि देवताओं में कामदेव हूं। इतनी—इतनी यात्रा, अगर ठीक से समझें, तो इस गहरे प्रतीक के लिए थी कि वह जगह आ जाए कि कृष्‍ण अर्जुन से कह सकें कि धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें हूं।

आपको अपनी श्रेष्ठता के स्मरण के लिए भी दूसरों की श्रेष्ठता तक जाना होता है। और कभी—कभी अपने द्वार पर आने के पहले बहुत दूसरों के द्वार भी खटखटाने होते हैं। असल में हमारा आत्म— अज्ञान इतना गहन है कि हम अपने तक भी आएं, तो हमें दूसरे के द्वारा आना पड़ता है। अगर हमें अपना भी पता पूछना हो, तो हमें दूसरे से ही पूछना पड़ता है। बेहोशी अपनी ऐसी है, ऐसी गहरी है बेहोशी हमारी, कि हमें अपना तो कोई पता ही नहीं है, बस दूसरों का ही पता है!

गुरु भी क्या करेगा शिष्य के लिए! जब कोई शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर पूछता है, तो क्या पूछता है? और गुरु क्या बताएगा अंतत:? गुरु इतना ही बता सकता है कि जिसे तू खोज रहा है, वह तू ही है। जिसकी तलाश है, वह तुझ तलाश करने वाले में ही छिपा है। और जिसकी तरफ तू दौड़ रहा है, वह कहीं बाहर नहीं, दौड़ने वाले के भीतर है। और जो सुवास, जो कस्तूरी तुझे खींच रही है और आकर्षित कर रही है, वह तेरी ही नाभि में छिपी है और दबी है।

लेकिन यह बात कृष्ण सीधी भी कह सकते थे, तब व्यर्थ होती। कृष्‍ण यह सीधा भी कह सकते थे कि अर्जुन मैं तुझमें हूं तब यह बात बहुत सार्थक न होती। यह इतनी यात्रा करनी जरूरी थी। अर्जुन बहुत—बहुत जगह थोड़ी—सी झलक पा ले, तो शायद अपने भीतर भी झलक पा सकता है।

धर्मों ने जितनी विधियां खोजी हैं, वे सभी विधियां आवश्यक हैं, अनिवार्य नहीं। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके बिना भी पहुंचा जा सकता है। उनसे पहुंचा जाता है, लेकिन उनके द्वारा ही पहुंचा जा सकता है, ऐसा नहीं है। सारी विधियां एक ही प्रयोजन से निर्मित हुई हैं कि किसी दिन आपको पता चल जाए कि जिसे आप खोज रहे हैं, वह आप ही हैं।

बड़ी अजीब खोज है! क्योंकि जब कोई खुद को खोजने लगे, तो खोज असंभव है। बिलकुल असंभव है। खुद को कैसे खोज सकिएगा? और जहां भी खोजने जाइएगा, वहीं दूसरे पर नजर रहेगी। 

हम सब किसकी तलाश में हैं? किसे हम खोज रहे हैं? क्या हम पाना चाहते हैं? हम अपने को ही खोज रहे हैं। हम खुद को ही पाना चाहते हैं। हमें यही पता नहीं कि मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? क्यों हूं? यही हमारी खोज है। लेकिन हम दौड़ रहे हैं तेजी से। और जिस पर सवार होकर हम दौड़ रहे हैं, उसी को हम खोज रहे हैं। जो दौड़ रहा है, उसी को हम खोज रहे हैं। जब तक यह दौड़ बंद न हो जाए, हम थक न जाएं, दौड़ समाप्त न हो जाए, तब तक हमें खयाल नहीं आएगा। हमें पता नहीं चलेगा।

ये सारे साधन जो धर्मों ने ईजाद किए हैं, आपको थकाने के हैं। ये सारी प्रक्रियाएं जो धर्मों ने विकसित की हैं, ये आपको खूब दौड़ाकर इतना थका देने की हैं कि एक दिन आप खड़े हो जाएं थककर। जिस दिन आप खड़े हो जाएं, उसी दिन आपका अपने से मिलना हो जाए, अपने से पहचान हो जाए। ठहरते ही हम जान सकते हैं, कौन हैं। दौड़ते हम नहीं जान सकते कि कौन हैं।

तेज है इतनी रफ्तार हमारी, और तेजी हमारी रोज बढ़ती जाती है। कभी हम पैदल चलते थे। फिर बैलगाड़ी पर चलते थे। फिर मोटरगाड़ी पर चलते थे। फिर हवाई जहाज पर चलते थे। अब हमारे पास अंतरिक्ष यान हैं। हमारी दौड़ की गति रोज बढ़ती जाती है। कभी आपने खयाल किया कि आदमी की गति जितनी बढ़ती जाती है, आदमी का आत्मज्ञान उतना ही कम होता जाता है!

नहीं, खयाल नहीं किया होगा। इसमें कोई संबंध भी नहीं दिखाई पड़ा होगा। आदमी की जितनी स्पीड बढ़ती जाती है, गति बढ़ती जाती है, उससे उसका अपना संबंध छूटता जाता है। वह दूसरे तक पहुंचने में कुशल होता जाता है और खुद तक पहुंचने में अकुशल होता जाता है। किसी दिन यह हो सकता है कि हमारी रफ्तार इतनी हो जाए कि हम दूर के तारों तक पहुंचने लगें, लेकिन तब खुद तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए बहुत मजे की बात है, जितने गति वाले समाज होते हैं, उतने अधार्मिक हो जाते हैं। और जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतने धार्मिक होते हैं। जितने कम गति वाले समाज होते हैं, उतना भीतर पहुंचने की संभावना बनी रहती है। जितने गति वाले समाज हो जाते हैं, उतना बाहर जाने की संभावना तो बढ़ जाती है, खुद तक आने की संभावना घट जाती है।

सुना है मैंने कि ईश्वर ने सारी सृष्टि बना डाली, फिर उसने आदमी बनाया। वह बड़ा खुश था। सारी दुनिया उसने बना डाली। बहुत खुश था। सब कुछ सुंदर था। फिर उसने आदमी बनाया। और उस दिन से वह बेचैन और परेशान हो गया। आदमी ने उपद्रव शुरू कर दिए। आदमी के साथ उपद्रव का जन्म हो गया।

तो उसने अपने सारे देवताओं को बुलाया और उनसे पूछा कि एक बड़ी मुश्किल हो गई है। यह आदमी को बनाकर तो गलती हो गई मालूम होती है। और आदमी रोज—रोज उसके दरवाजे पर खड़े रहने लगे। यह शिकायत है, वह शिकायत है। यह कमी है, वह कमी है। ईश्वर ने कहा, अब एक उपाय करो कुछ। मैं किसी तरह आदमी से बचना चाहता हूं। मैं कहां छिप जाऊं?

किसी देवता ने कहा, हिमालय पर बैठ जाएं, गौरीशंकर पर। ईश्वर ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, कुछ ही समय बाद हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर चढ़ जाएंगे, फिर मेरी मुसीबत फिर शुरू हो जाएगी। किसी ने कहा, तो चलें चांद पर बैठ जाएं। तो ईश्वर ने कहा, चांद पर पहुंचने में कितनी देर लगेगी! जल्दी ही आदमी चांद पर उतर जाएगा। मुझे कोई ऐसी जगह बताओ, जहां आदमी पहुंच ही न पाए।

तब एक बुजुर्ग देवता ने ईश्वर के कान में कहा। ईश्वर ने कहा, बिलकुल ठीक। यह बात जंच गई। और देवताओं ने पूछा कि कौन— सी है वह बात? ईश्वर ने कहा, अब तुम उसको पूछो ही मत। क्योंकि लीक आउट हो जाए, आदमी तक पहुंच जाए, तो खतरा हो सकता है।

उस बुजुर्ग ने ईश्वर के कान में कहा कि आप आदमी के ही भीतर छिप जाइए। यह वहां कभी नहीं पहुंच पाएगा। एवरेस्ट चढ़ लेगा, चांद पर उतर जाएगा, भीतर खुद के...। ईश्वर ने कहा, यह बात जंच गई।

और कथा है कि तब से ईश्वर आदमी के भीतर छिप गया है। और तब से आदमी ईश्वर से शिकायत करने में असफल हो गया है। खोजता है बहुत, लेकिन मिल नहीं पाता कि उससे शिकायत कर दे, कि कोई प्रार्थना कर दे, कि कोई स्तुति कर दे।

भीतर जाना— उस भीतर जाने के लिए कृष्‍ण धीरे— धीरे अर्जुन को एक—एक कदम अनेक—अनेक इशारों को देकर आखिरी जगह ले आए हैं, जहां वे कहते हैं, अर्जुन, हे धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें हूं। तू अपने में ही देख ले। मत पूछ कि क्या मैं भाव करूं। मत पूछ कि कहां मैं खोजूं। सच ही खोजना चाहता है, तो मैं तेरे भीतर मौजूद हूं तू वहीं देख ले, वहीं खोज ले।

हम सबको भी भरोसा नहीं आता इस बात का कि परमात्मा हमारे भीतर मौजूद है। आएगा भी नहीं। अगर कोई हमसे कहे कि शैतान आपके भीतर मौजूद है, तो हम थोड़ा मान भी लें। क्योंकि हमारा अपने से जो परिचय है, उससे शैतान का तो तालमेल बैठ जाता है। लेकिन कोई हमसे कहे कि परमात्मा आपके भीतर है, तो हम सोचते हैं, कोई मेटाफिजिकल, कोई ऊंचे दर्शन की बात चल रही है! इसमें कुछ है नहीं सार।

परमात्मा, मेरे भीतर! हम किसी के भी भीतर मानने को राजी हो जाएं, खुद के भीतर मानने में बड़ी तकलीफ होगी। क्योंकि हम भीतर अपने जानते हैं कि क्या है। भीतर के चोर को हम जानते हैं। भीतर के बेईमान को हम जानते हैं। भीतर के व्यभिचारी को हम जानते हैं। कैसे हम मान लें कि परमात्मा हमारे भीतर है।

लेकिन इसका सिर्फ एक ही मतलब है कि आप भीतर को जानते ही नहीं। जिसको आप जानते हैं भीतर, वह आपका मन है, वह वस्तुत: भीतर नहीं है, वह वास्तविक इनरनेस नहीं है। जिसको आप जानते हैं मन, वह आपका आंतरिक अंतस्तल नहीं है। वह केवल बाहर की परछाईं है, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई है। वे केवल बाहर से बनी हुई प्रतिक्रियाएं हैं, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई हैं।

ऐसा समझें कि आप जिसको मन कहते हैं, वह बाहर से ही आए हुए प्रभावों का जोड़ है। वह भीतर नहीं है। मन के भी भीतर आप हैं। अगर मैं आपको देखता हूं तो बाहर एक दुनिया है। एक दुनिया मेरे बाहर है। फिर मैं भीतर आंख बंद करता हूं तो भीतर विचारों की एक दुनिया है। वह भी मुझसे बाहर है। क्योंकि उसको भी मैं देखता हूं भीतर। तो विचार मुझे दिखाई पड़ते हैं; क्रोध, कामवासना मुझे दिखाई पड़ती है। जैसे आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही विचारों की भीड़ भीतर दिखाई पड़ती है। वह भी मुझसे बाहर है। मेरे शरीर के भीतर है, लेकिन मुझसे बाहर है।

आप मुझसे बाहर हैं। आंख बंद करता हूं आपकी तस्वीर मुझे भीतर दिखाई पड़ती है, वह भी मुझसे बाहर है। और वह तस्वीर आपकी है। आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध तस्वीर देखी है, जो बाहर से न आई हो? आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध विचार देखा, जो बाहर से न आया हो? आपने भीतर ऐसा कुछ भी देखा है, जो बाहर का ही प्रतिफलन न हो?

तो फिर से खोज करें। आप अपने भीतर की जांच करें, तो आप पाएंगे, वह तो सब बाहर की ही कतरन, बाहर का ही कचरा, बाहर का ही जोड़ है। तो यह फिर भीतर नहीं है। यह बाहर का ही हाथ है, जो आपके भीतर प्रवेश कर गया है। अगर आपको अंतस्तल को जानना है, तो थोड़ा और पीछे चलना पड़े।

कृष्‍ण उसी की बात कर रहे हैं, कि धनंजय, पांडवों में मैं तेरे भीतर इसी समय मौजूद हूं।

लेकिन भीतर का अनुभव मन से नहीं होता, भीतर का अनुभव तो साक्षी से होता है। भीतर का अनुभव तो ज्ञाता से होता है। भीतर का अनुभव तो द्रष्टा से होता है। जो अपने मन को भी देखने में समर्थ हो जाता है, वह भीतर के अनुभव को उपलब्ध होता है। और जिसे भीतर का अनुभव हो जाए, उसे फिर वसंत में देखने जाने की जरूरत नहीं, उसे फिर कामधेनु में देखने की जरूरत नहीं। फिर उसे गायत्री छंद में खोजने की जरूरत नहीं। फिर तो सभी जगह उसी का छंद है। फिर तो सभी जगह उसी का वसंत है।

एक बात खयाल में ले लें। जब तक हमें भीतर परमात्मा नहीं दिखता, तब तक हमें उसे बाहर कहीं देखने की कोशिश करनी पड़ती है। और ध्यान रखें कि वह कोशिश कितनी ही प्रामाणिक हो, अधूरी होगी, पूरी नहीं हो सकती। वह कोशिश कितनी ही निष्ठा से भरी हो, अधूरी होगी, पूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि जिसने उसे अभी भीतर नहीं जाना— भीतर का अर्थ है निकटतम—जिसने उसे इतने निकटतम नहीं जाना, वह दूर उसे नहीं जान सकेगा। जो इतने पास है मेरे कि मेरे हृदय की धड़कन भी मुझसे दूर है उसके हिसाब से, मोहम्मद ने कहा है कि तुम्हारे गले में जो नस फड़कती है जीवन की, वह भी दूर है। वह परमात्मा उससे भी ज्यादा निकट है। जो इतने निकट उसको नहीं जान पाया, वह उसे दूर कैसे जान पाएगा?

और हम सब आकाश में आंखें उठाकर उसे खोजने की कोशिश करते हैं। हम अंधी आंखों से उसे खोज रहे हैं। अपने भीतर आंख बंद करके जो उसे नहीं देख पाता, वह इस विराट आकाश में आंखें खोलकर ईश्वर को देखने की कोशिश करता है! कभी भी वह कोशिश सफल न हो पाएगी।

 एक बात हो सकती है कि वह मानने लगे कि दिखाई पड़ रहा है। निष्ठापूर्वक मानने लगे, तो जिंदगी उसकी भली हो जाएगी, लेकिन धार्मिक नहीं। जिंदगी उसकी सदवृत्तियो से भर जाएगी, लेकिन सत्य से नहीं। जिंदगी उसकी शुभ हो जाएगी, लेकिन शुभ भी एक सपना होगा। क्योंकि जिस परमात्मा को वह देख रहा है, वह उसकी कल्पना है, उसका प्रक्षेपण है, उसका प्रोजेक्यान है। जिसने अभी अपने भीतर नहीं देखा, वह उसे कहीं भी देख नहीं सकता। लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हमारी नजरें बाहर घूमती हैं!

इसलिए कृष्ण ने बाहर से शुरू किया कि यहां देख, यहां देख, यहां देख। फिर वे धीरे— धीरे पास ला रहे हैं। आखिर में बहुत पास ले आए। उन्होंने कहा कि इधर मेरी तरफ देख। मेरे वंश में, मैं यहां मौजूद हूं। यह कृष्ण मौजूद है, यहां देख। वे बहुत करीब ले आए। कृष्ण और अर्जुन के बीच फासला बहुत कम है, फिर भी फासला है। फिर वे और भीतर ले गए, और अर्जुन से कहा कि अपने भीतर देख। तू भी, तू भी मेरा ही घर है। तेरे भीतर भी मैं निवास कर रहा हूं।

और एक बार कोई व्यक्ति भीतर उसकी झलक पा ले, तो सभी जगह उसकी झलक फैल जाती है। फिर ऐसा नहीं कि वसंत में ही दिखाई पड़ेगा। वसंत में तो अंधे को दिखाई पड़े, इसकी कोशिश करनी पड़ती है। फिर तो पतझड़ में भी वही दिखाई पड़ेगा। फिर श्रेष्ठ में ही दिखाई पड़े, ऐसा नहीं, निकृष्ट में भी वही दिखाई पडेगा। फिर तो उसके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं पड़ेगा। फिर तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वही होगा। क्यों?

क्योंकि जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी सारी आंखें उससे भर जाती हैं। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसकी श्वास—श्वास उससे भर जाती है। जिसे भीतर दिखाई पड़ गया, उसका रोआं— रोआं उसी से स्पंदित होने लगता है। फिर तो वह आदमी जहां भी देखे, यही रंग फैल जाएगा। जहां भी देखे, यही ज्योति फैल जाएगी। फिर तो ऐसा हो गया, जैसे आप एक दीया लेकर चलें, तो जहां भी दीया लेकर जाएं, वहीं रोशनी पड़ने लगे। अंधेरे में चले जाएं, तो अंधेरा भी रोशन हो जाए।

ठीक जिस दिन आपके भीतर वह दिखाई पड़ने लगा, आपके भीतर दीया जल गया। अब आप कहीं भी चले जाएं, जहां भी यह रोशनी पड़ेगी आपके दीये की, वहीं वह दिखाई पड़ेगा। अब आप अंधेरे में जाएं, तो भी वही होगा। उजाले में जाएं, तो भी वही होगा। सुबह भी वही, सांझ भी वही। जन्म में भी वही, मृत्यु में भी वही। लेकिन एक बार यह भीतर दिखाई पड़ जाए तब। और भीतर जाने के लिए कृष्ण को इतने प्रतीक चुनने पड़े।

एवं मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य, दमन करने वाले का दंड, जीतने की इच्छा वालों की नीति, गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मौन, ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

ये दो प्रतीक बहुत बहुमूल्य हैं, इन्हें हम समझें।

गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य भावों में मौन।

यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा, क्योंकि गोपनीय तो हम किसी बात को रखते हैं। मौन को भी कोई गोपनीय रखता है? गोपनीय तो हम किसी विचार को रखते हैं। निर्विचार को भी कोई गोपनीय रखता है? कोई बात छिपानी हो तो हम छिपाते हैं। मौन का तो अर्थ हुआ कि छिपाने को ही कुछ नहीं है। जब छिपाने को ही कुछ नहीं है, तो उसे हम क्या छिपाएगे! यह सूत्र बहुत कठिन है और उन गहरे सूत्रों में से एक है, जिन पर धर्म की बुनियाद निर्मित होती है।

गोपनीयों में, गुप्त रखने योग्य में मैं मौन हूं।

कुछ मत छिपाना, लेकिन अपने मौन को छिपाना, इसका अर्थ होता है। किसी को पता न चले कि तुम्हारे भीतर मौन निर्मित हो रहा है। किसी को पता न चले कि तुम ध्यान में उतर रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम शांत हो रहे हो। किसी को पता न चले कि तुम भीतर शून्य हो रहे हो। क्योंकि दूसरे को बताने की इच्छा भी उसे भीतर नष्ट कर देती है।

अगर एक आदमी कहता है कि मैं मौन से रहता हूं यह कहने का जो रस है, दूसरे को बताने का जो रस है, यह जो दूसरे में रस है, इसकी वजह से मौन तो हो ही नहीं पाएगा।

एक आदमी कहता है कि मुझे तो ध्यान उपलब्ध होने लगा। लेकिन जब दूसरे से यह कहता है...। दूसरे से कहते ही हम इसलिए हैं कि दूसरा प्रभावित हो। इसलिए वही कहते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। उस सबको तो हम छिपाते हैं, जिससे दूसरा गलत प्रभावित न हो जाए। वही सब बताते हैं, जिससे दूसरा प्रभावित हो। हमारा अच्छा चेहरा हम दूसरों को दिखाते हैं, ताकि दूसरे प्रभावित हों।

लेकिन दूसरे को प्रभावित करने में जो उत्सुक है, वह ध्यान में जा ही न सकेगा। क्योंकि दूसरे को प्रभावित करने में जो रस है, उसका अर्थ है, अभी अपने से ज्यादा मूल्यवान दूसरा है। अगर मैं सोचता हूं कि फलां आदमी अगर मुझसे प्रभावित हो जाए, तो जिसको भी मैं प्रभावित करना चाहता हूं उसे मैं अपने से ज्यादा मूल्यवान मानता हूं इसीलिए प्रभावित करना चाहता हूं। वह प्रभावित हो जाए, तो मैं भी अपनी नजरों में ऊंचा उठ जाऊं। वह ज्यादा कीमती है मुझसे। अगर मुझे मान ले, तो मैं अपनी नजरों में भी ऊंचा उठ जाऊं। मेरी अपनी नजरों में उठने के लिए भी मुझे दूसरों को प्रभावित करना जरूरी है।

ध्यान की भी जब कोई बात करता है, या कोई कहता है, मैंने ईश्वर को जान लिया, जब इसकी भी कोई चर्चा करता है किसी दूसरे से और उसे प्रभावित करना चाहता है, तो उसका अर्थ हुआ कि उसने अभी ईश्वर को पाया नहीं। अभी ईश्वर को पाने के रास्ते पर भी वह नहीं है। क्योंकि उस रास्ते पर तो वे ही जाते हैं, जो दूसरे की बिलकुल चिंता ही छोड़ देते हैं, जिन्हें दूसरों का पता ही नहीं रह जाता।

मौन में सबसे बड़ी कठिनाई है दूसरे की मौजूदगी, जो आपके मन में सदा बनी रहती है। जब आप मौन बैठते हैं, तब भी आप मौन कहां बैठते हैं, किन्हीं दूसरों से कल्पना में बात करते रहते हैं। आदमी दो तरह की बातें करता है, वास्तविक लोगों से और काल्पनिक लोगों से। बातचीत जारी रहती है। जिनसे आप मौन में भी बात करते हैं, अगर वे कल्पना के जीव भी आपसे प्रभावित न हों, तो भी दुख हो जाता है। असली लोगों की तो हम बात छोड़ दें। आप कल्पना में किसी से बात कर रहे हों, और वह प्रभावित न हो, और कहे कि छोड़ो भी, क्या बकवास लगा रखी है! तो भी मन दुखी और खिन्न हो जाता है। सपने में भी जीतने की इच्छा बनी रहती है दूसरे को।

सपने में भी जिन्हें हम देख लेते हैं, वे भी हमारे लिए वास्तविकताएं हैं। उनसे भी हम संबंध जोड़ना शुरू कर देते हैं। अगर आप अपने मन की खोज करें, तो आपकी जिंदगी का अधिक हिस्सा तो सपनों में और कल्पनाओं में ही बीतता है। बहुत कम हिस्सा बाहर बीतता है। बहुत हिस्सा तो भीतर ही बीतता है।

और कभी—कभी बाहर भी जो आप बोलते हैं, वह आप भूल से बोल जाते हैं। आपको पीछे पता चलता है कि आप यह भीतर बोल रहे थे, उसी का हिस्सा जुड़ गया। किसी से भीतर बात चल रही थी, वही बाहर निकल गई। कई बार जो आप नहीं कहना चाहते बाहर, वह कह जाते हैं, क्योंकि भीतर चल रहा था। कई बार आप कहते हैं, भूल से ऐसा हो गया। लेकिन भूल से हो नहीं सकता। वे भीतर चल रही थीं पंक्तियां, तो ही आपकी जीभ से सरककर बाहर गिर सकती हैं।

भीतर एक सतत डायलाग चल रहा है, एक सतत चर्चा चल रही है अपनी ही कल्पनाओं से। मौन में जब आप बैठेंगे, तो यही आपके मौन का खंडन होगा। यही आपके मौन को तोड़ देगा।

मौन का अर्थ है, भीतर कोई विचार न रह जाए, भीतर कोई विचार का कंपन न हो, जैसे झील शांत हो गई हो, कोई लहर न उठती हो।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, गोपनीयों में मैं मौन हूं।

और यह सबसे गुप्त बात है, जिसे किसी को बताना ही मत। बताते ही यह नष्ट हो जाती है। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है, आपका मन बताने का एकदम होता है। और जब भी भीतर कुछ होता है, तो आप चाहते हैं, किसी को बता दें। मन बड़ी तीव्रता से करता है कि जाओ और बोल दो और किसी को कह दो।

यह मन की सहज वृत्ति है। क्योंकि जो आपको हुआ है, जब तक आप दूसरे से न कह दें, तब तक वह वास्तविक है, इसका भी आपको भरोसा नहीं आता। जब दूसरा मान ले, तब आपको भरोसा आता है कि ठीक है।

दो व्यक्ति एक—दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं। तो कोई भी पुरुष किसी स्त्री के प्रेम में पड़ता है, तो कहता है कि तुझसे ज्यादा सुंदर इस पृथ्वी पर कोई स्त्री नहीं है। और सभी स्त्रियां इसको मान लेती हैं। मानना चाहती हैं गहरे में। और इसको सुनते से ही स्त्री सुंदर हो जाती है। भरोसा आ जाता है! और जब कोई इतना सुंदर मान रहा हो, तो वह भी सुंदर दिखाई पड़ने लगता है। और तब हम कहते हैं कि तुझसे सुंदर पुरुष, तुझसे श्रेष्ठ पुरुष, खोजना असंभव है। और तब म्युचुअल कल्पना की दौड़ शुरू होती है। और तब वे दोनों एक— दूसरे को शिखर पर उठाए चले जाते हैं। और यह शिखर जितना ऊंचा होगा, उतनी ही खाई में कल गिरेंगे। क्योंकि यह शिखर कल्पना का है।

इसलिए ध्यान रखें, प्रेम—विवाह जिस खतरे में ले जाता है, कोई विवाह नहीं ले जा सकता। और प्रेम—विवाह जिस बुरी तरह असफल होता है, कोई विवाह असफल नहीं हो सकता। उसका कारण यह नहीं है कि प्रेम—विवाह बुरा है; उसका कुल कारण इतना है कि प्रेम—विवाह एक म्युचुअल कल्पना पर निर्मित होता है।

भारत में विवाह एक सफल संस्था है, क्योंकि हमने प्रेम को बिलकुल ही काट दिया है उसमें से। कल्पना का सवाल ही नहीं, जमीन पर ही चलाते हैं आदमी को। यहां पति—पत्नी होते हैं, प्रेमी— प्रेयसी होते ही नहीं। कभी आकाश में चढ़ते ही नहीं, तो गड्डे में गिरने का सवाल ही नहीं आता। समतल भूमि पर चलते रहते हैं।

अमेरिका में बुरी तरह विवाह अस्तव्यस्त हुआ जा रहा है। और उसका कारण है कि विवाह की बुनियाद दो आदमी एक—दूसरे को नशे में डालकर रखते हैं। वह नशा कितनी देर चलेगा? कितनी देर चल सकता है? वह नशा जल्दी ही उतर जाता है। और इतने बड़े सपनों के बाद जब जमीन पर लौटते हैं, तो लगता है कि बेकार हो गया, धोखा हो गया। गलती हो गई, भूल हो गई। वे सब कविताएं धुआ हो जाती हैं।

हम सब ऐसे ही जीते हैं लेकिन, इसलिए हमें खुशामद प्रीतिकर लगती है। क्योंकि कोई हमें भरोसा दिलाता है। बिलकुल झूठ भी कोई आपसे कह दे, कोई आपसे कह दे कि आप जैसा बुद्धिमान आदमी नहीं है। आपके भीतर कोई आपसे कहे भी कि झंझट में मत पड़ो, यह झूठ ही मालूम पड़ता है; क्योंकि आपको अपनी बुद्धि का अच्छी तरह पता है! फिर भी इनकार करने का मन नहीं होता, मानने का मन होता है। और दस आदमी अगर इकट्ठे होकर कहने लगें, तो फिर तो इनकार करने का सवाल ही नहीं। हजार दो हजार की भीड़ इकट्ठी हो जाए, फिर तो कोई सवाल ही नहीं। और आपको आसमान में उठाया जा सकता है।

दूसरों की आंखों में जो देख रहा है, वह भूलों में पड़ सकता है, पड़ेगा ही। साधक के लिए अनिवार्य है कि यह जो पारस्परिक लेन— देन है कल्पनाओं का, इससे हट जाए। इससे बिलकुल हट जाए। वह सिर्फ अपने पर राजी हो जाए। वह दूसरे में तलाश करने न जाए। दूसरे से कहे भी न, क्या उसके भीतर हो रहा है।

और न कहने का एक कारण और भी है, कि जैसे ही आप कहते हैं, आपकी गति अवरुद्ध हो जाती है। क्योंकि कहने का अर्थ ही यह हुआ कि आप बड़े तृप्त हो गए। जब मैं किसी से कहता हूं कि बड़ी शांति हो गई भीतर, तो उसका अर्थ है कि मैं तृप्त हो गया। गति अवरुद्ध हो जाएगी।

अगर बढ़ाए जाना है भीतर की गति को और रुक नहीं जाना है, तो मत कहें। मत कहें। इसे किसी से कहें ही मत। यह आपका ही रहस्य हो। यह आपकी निजी संपदा हो। इसका किसी को भी पता न चले। यह ऐसी कुछ बात हो कि आप और आपके परमात्मा के बीच ही रह जाए।

इसलिए इतनी सीक्रेसी, इतनी गुप्तता धर्मों ने निर्मित की है। उस सीक्रेसी के पीछे और कोई कारण नहीं है। उस गुप्तता के पीछे, गोपनीयता के पीछे और कोई कारण नहीं है। वह सहयोगी है अंतर्विकास में, इनर ग्रोथ में।

कृष्‍ण कहते हैं, गोपनीयों में अर्थात गुप्त रखने योग्य भावों में मैं मौन हूं। अगर तुझे मुझे खोजना हो भावों में, तो तू मुझे मौन में खोजना। अर्जुन ने पूछा भी है कि किस भाव में मैं खोजूं? तो कृष्‍ण कहते हैं, तू मुझे मौन में खोजना। अगर तू बिलकुल मौन हो जाए, तो तू मुझे पा लेगा।

हमारे और सत्य के बीच दीवाल शब्दों की है। एक फूल के पास से आप गुजरते हैं। एक गुलाब का फूल खिला है। फूल दिखाई नहीं पड़ता है, उसके पहले गुलाब का फूल बीच में आ जाता है, शब्द बीच में आ जाता है। फूल देख भी नहीं पाते और आप कहते हैं, सुंदर है। यह सुंदर है, आपकी पुरानी आदत का हिस्सा है। आपको पता है, गुलाब का फूल सुंदर होता है, सुंदर कहा जाता है। सुना है, पढ़ा है, वह आपके मन में रम गया है। फूल को आप देख भी नहीं पाते। यह फूल जो अभी मौजूद है, इसकी पंखुड़ियां आपके हृदय को छू भी नहीं पातीं। इसकी सुगंध आपके प्राणों में उतर भी नहीं पाती। और आप कहते हैं, गुलाब का फूल है, सुंदर है। बात समाप्त हो गई। आपका संबंध टूट गया।

अगर इस गुलाब के फूल से संबंधित होना हो, तो एक छोटा—सा प्रयोग करें। इस गुलाब के फूल को देखें, लेकिन भीतर शब्द को न आने दें। यह ध्यान का एक प्रयोग है। बैठें इसके पास, लेकिन शब्द को न आने दें। मत कहने दें अपने मन को कि गुलाब का फूल है। मत कहने दें कि सुंदर है। मत कहने दें कि बड़ी सुगंध आ रही है। मत कहने दें कि अच्छा है। कोई निर्णय नहीं। कोई वक्तव्य नहीं। शब्द को कहें कि तू चुप रह, मेरी आंखें हैं। मैं मौजूद हूं। मुझे देखने दे।

 निश्चित ही, जब सूरज उगता है और आप कह देते हैं, सुंदर है, तो आपको पता नहीं होगा कि आपके और सूरज के बीच शब्द की एक दीवाल आ गई। हटा दें शब्दों को बीच से। आप खाली हो जाएं। उधर सूरज को उगने दें, इधर आप रह जाएं, बीच में कुछ भी न हो। तब आपको पहली दफा सूरज का संस्पर्श मिलेगा। तब पहली दफा सूरज के साथ आप आत्मसात हो जाएंगे। तब पहली दफा सूरज और आपके बीच में कोई भी नहीं होगा। सूरज और आपके बीच पहली दफा सेतु निर्मित होगा। या गुलाब के फूल और आपके हृदय के बीच पहली दफा एक संगीत निर्मित होगा।

अगर ऐसा ही मौन समस्त अस्तित्व के प्रति आ जाए, तो परमात्मा और हमारे बीच संबंध निर्मित होता है। जिस दिन शब्द न रह जाएं, समाप्त हो जाएं, अलग गिर जाएं, हम और अस्तित्व ही रह जाएं..। अस्तित्व है चारों ओर, हम हैं यहां, बीच में एक शब्दों की दीवाल है।

भाषा बड़ी उपयोगी है संसार में, बड़ी बाधा है परमात्मा में। जहां दूसरे से संबंधित होना है, भाषा जरूरी है। जहां अपने से संबंधित होना है, भाषा खतरनाक है। जहां दूसरे से मिलना है, वहां भाषा के बिना कैसे मिलिएगा? लेकिन जहां अपने से ही मिलना है, वहां भाषा की क्या जरूरत है?

लेकिन हम दूसरे से मिल—मिलकर इतने आदी हो गए हैं भाषा के, कि जब अपने से मिलने जाते हैं, तब भी भाषा का बोझ लेकर पहुंच जाते हैं। अगर परमात्मा से मिलना है, तो भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। वहां मौन ही भाषा है। वहां चुप हो जाना ही बोलना है। वहां मौन हो जाना ही संवाद है।

कृष्ण कहते हैं, भावों में अगर मुझे खोजना हो, तो मैं मौन हूं। और ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

यह आखिरी प्रतीक इस आयाम में।

ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं।

तत्व—ज्ञान के संबंध में थोड़ी बात मैंने आपसे कही। तत्व—ज्ञान से अर्थ शास्त्रीय ज्ञान नहीं है। तत्व—ज्ञान से अर्थ है, सत्य का निजी अनुभव, अपना अनुभव।

और ध्यान रहे, अज्ञान इतना नहीं भटकाता, जितना तथाकथित उधार ज्ञान भटकाता है। अज्ञानी तो विनम्र होता है। उसे पता होता है, मुझे पता नहीं। लेकिन तथाकथित जो ज्ञानी होते हैं, जिनके मस्तिष्क में सिवाय शास्त्र के और कुछ भी नहीं होता। शास्त्र की प्रतिध्वनियां होती हैं। उनको यह भी खयाल नहीं आता कि हम नहीं जानते। उनको तो पक्का मजबूत खयाल होता है कि मैं जानता हूं। यह मैं जानता हूं यही उनकी बाधा बन जाती है।

तत्व—ज्ञान का अर्थ है, जब निजी अनुभव हो।

कृष्ण जानते होगे; आप गीता कंठस्थ कर लें, इससे कुछ ज्ञान नहीं होगा। बुद्ध जानते होगे; आप धम्मपद याद कर लें, इससे कुछ होगा नहीं। यह उधार है। और ध्यान रहे, उधार ज्ञान ज्ञान होता ही नहीं। उधार ज्ञान ज्ञान होता ही नहीं। अपना ज्ञान ही सिर्फ ज्ञान है। दूसरा क्या जानता है, वह आपको सब दे दे, आपके पास ज्ञान नहीं आता, सिर्फ शब्द आते हैं। शब्द आप इकट्ठे कर लेते हैं, स्मृति में शब्द बैठ जाते हैं। फिर स्मृति को ही आप समझते हैं कि मैं जानता हूं।

स्मृति ज्ञान नहीं है। ज्ञान का अर्थ है, अनुभव। आपका ही साक्षात्कार हो, आप ही आमने—सामने आ जाएं, आपका ही हृदय जाने, जीए, धड़के, उस अनुभव में, तो ही तत्व—ज्ञान है।

कृष्‍ण कहते हैं, ज्ञानियों, ज्ञानवानों का तत्व—ज्ञान मैं ही हूं अनुभव मैं ही हूं।

और यह बड़े मजे की बात है कि उस तत्व—ज्ञान में, उस निजी अनुभव में जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव में जो जाना जाता है, वही परमात्मा है। निजी अनुभव ही परमात्मा है। परमात्मा के संबंध में जानना परमात्मा को जानना नहीं है। 

उपनिषद ने कहा है कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं!

यह किन ज्ञानियों के लिए कहा होगा जो महाअंधकार में भटक जाते हैं! और मजा यह है कि इसी उपनिषद को लोग कंठस्थ कर लेते हैं। और इस सूत्र को भी कंठस्थ कर लेते हैं। और इस सूत्र को रोज कहते रहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महाअंधकार में भटक जाते हैं। इसको भी कंठस्थ कर लेते हैं। सोचते हैं, इसे कंठस्थ करके वे ज्ञानी हो गए। इन्हीं ज्ञानियों के भटकने के लिए यह सूत्र है।

आदमी विचित्र है। और आदमी अपने को धोखा देने में अति कुशल है। और जब वह खुद को धोखा देता है, तो धोखा तोड्ने का उपाय भी नहीं बचता। दूसरे को धोखा दें, तो दूसरा बचने की भी कोशिश करता है। आप खुद ही अपने को धोखा दें, तो फिर बचने का भी कोई उपाय नहीं रह जाता।

अगर कोई आदमी सोया हो, तो उसे जगाया भी जा सकता है। लेकिन कोई जागा हुआ सोया हुआ बना पड़ा हो, तो उसे जगाना बिलकुल मुश्किल है। कैसे जगाइएगा? अगर वह आदमी जाग ही रहा हो और सोने का बहाना कर रहा हो, तब फिर जगाना बहुत मुश्किल है। नींद तोड़ देना आसान है, लेकिन झूठी नींद को तोड़ना बहुत मुश्किल है।

अज्ञानी को तत्व—ज्ञान की तरफ ले जाना इतना कठिन नहीं है, जितना पंडित को, ज्ञानी को ले जाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, मैं जानता ही हूं।

ज्ञानी, तथाकथित ज्ञानी की तकलीफ यही है। अपना ज्ञान भी नहीं है और उधार ज्ञान सिर पर इतना भारी है, वह छोड़ा भी नहीं जाता। क्योंकि वह संपत्ति बन गई। उससे अकड़ आ गई। उससे अहंकार निर्मित हो गया है। उससे लगता है कि मैं जानता हूं। बिना जाने लगता है कि मैं जानता हूं।

यह जो स्थिति हो, तो तत्व—ज्ञान फलित नहीं होगा।

कृष्‍ण कहते हैं, ज्ञानियो का मैं तत्व—ज्ञान हूं। वे यह नहीं कहते कि ज्ञानियों की मैं जानकारी हूं। ज्ञानियों के पास बड़ी जानकारी, बड़ी इनफमेंशन है। वे कहते हैं, ज्ञानियो का मैं तत्व—ज्ञान, निजी अनुभव, उनका खुद का बोध, उनका सेल्फ रियलाइजेशन, उनकी प्रतीति, उनकी अनुभूति मैं हूं। उनकी जानकारी नहीं।

लेकिन जो जानकारी हम इकट्ठी कर लेते हैं, वह जानकारी हमारे सिर पर बोझ हो जाती है। वह जो भीतर की सरलता है, वह भी खो जाती है। पंडित भी उसे पा सकते हैं, लेकिन पांडित्य को उतारकर रख दें तो ही।

और तत्व—ज्ञान मैं हूं। ज्ञान नहीं, जानकारी नहीं, सूचना नहीं, शास्त्रीयता नहीं, आत्मिक अनुभव। और निश्चित ही, उस आत्मिक अनुभव में, जहां एक भी शब्द नहीं होता, व्यक्ति होता है और अस्तित्व होता है और दोनों के बीच की सब दीवालें गिर गई होती हैं, वहां जो होता है, वही परमात्मा है।

इसे हम ऐसा कहें, परमात्मा का अनुभव नहीं होता; एक अनुभव है, जिसका नाम परमात्मा है। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता।

ऐसा नहीं होता कि आपके सामने परमात्मा खड़ा है, और आप अनुभव कर रहे हैं। इसमें तो दूरी रह जाएगी। एक अनुभव है, जहां व्यक्ति समष्टि में लीन हो जाता है। उस अनुभव का नाम ही परमात्मा है। शायद कठिन मालूम पड़े। परमात्मा का कोई अनुभव नहीं होता। एक खास अनुभव!

वह अनुभव क्या है? वह अनुभव है, जहां बूंद सागर में खोती है। जहां बूंद सागर में खोती है, तो बूंद को जो अनुभव होता होगा! जैसे व्यक्ति जब समष्टि में खोता है, तो व्यक्ति को जो अनुभव होता है, उस अनुभव का नाम परमात्मा है।

परमात्मा एक अनुभव है, वस्तु नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। परमात्मा एक अनुभव है, एक घटना है। और जो भी तैयार है उस घटना के लिए, उस एक्सप्लोजन के लिए, उस विस्फोट के लिए, उसमें घट जाती है। और तैयारी के लिए जरूरी है कि अपना अज्ञान तो छोड़े ही, अपना ज्ञान भी छोड़ दें। अज्ञान तो छोड़ना ही पड़ेगा, ज्ञान भी छोड़ देना पड़ेगा। और जिस दिन ज्ञान— अज्ञान दोनों नहीं होते, उसी दिन जो होता है, उसका नाम परमात्मा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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