रविवार, 1 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 9 भाग 9

 वासना और उपासना


      ते तं भुक्त्‍वा स्वर्ग्लोकं विशलं क्षीणे पुण्ये मर्त्‍यलोकं विशान्‍ति।

एवं त्रयींधर्ममच्छुयन्‍ना गतरगतं काक्कामा लभन्ते।। 21।।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।

तेषां नित्याभिस्त्युक्‍तानां योग्स्सेमं वहाम्यहम्।। 22।।


और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरूष बारंबार जाने-आने को प्राप्त होते हैं।

और जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से उपासते है, उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति वाले पुरुषों का योग-क्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूं।


मन बाहर तो बांटता ही है, भीतर भी बांटता है। मन से बाहर जो भी हम जानते हैं, वह तो खंड-खंड हो ही जाता है, मन के ही कारण हम भीतर भी खंड-खंड हो जाते हैं। मन के इस दूसरे पहलू को भी समझ लेना जरूरी है।

मन के साथ कभी भी कोई व्यक्ति एक व्यक्ति नहीं होता, बल्कि एक भीड़ होता है। भीतर भी मन एक नहीं है, अनेक है। सदा से आदमी ऐसा समझता रहा है कि उसके भीतर एक मन है। वैसा सत्य नहीं है। आपके भीतर बहुतेरे मन हैं, बहु-मन हैं। अब मनोविज्ञान स्वीकार करता है कि मैन इज पोलीसाइकिक; बहुत मन हैं भीतर, एक मन नहीं है। ये बहुत मन भी इसीलिए हैं कि मन जहां भी चरण रखता है, वहीं खंड हो जाते हैं।

समझें, भीतर मन की इस खंड-खंड हो गई स्थिति को भी समझना जरूरी है।

आपने शायद ही कभी ऐसी कोई मन की दशा पाई हो, जिसके विपरीत स्वर आपके भीतर मौजूद न रहा हो। किसी को आपने किया हो प्रेम और साथ ही उसे घृणा न की हो, ऐसा असम्भव है। किसी को की हो श्रद्धा, और साथ ही भीतर मन का एक हिस्सा अश्रद्धा से न भरा रहा हो, असंभव है। चाहा हो किसी को, और साथ ही चाह से बचना भी न चाहा हो, ऐसा नहीं होगा।

मन जब भी कुछ तय करता है, तो द्वंद्व में ही तय करता है; उसका विपरीत स्वर भी भीतर मौजूद होता है। जिसको आप मित्र मानते हैं, कहीं किसी मन की गहराई में उसे आप शत्रु भी मानते हैं। इसीलिए तो मित्रता इतनी जल्दी शत्रुता बन जाती है! अन्यथा जिस आदमी को मैं पचास साल तक मित्र समझा हूं एक क्षण में शत्रु कैसे हो जाएगा? कोई उपाय नहीं है; कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं है कि पचास साल की मित्रता एक क्षण में, एक शब्द से शत्रुता बन जाए। बन जाती है लेकिन। गहरे खोजेंगे, तो पाएंगे, ऊपर मित्रता बन रही थी, भीतर शत्रुता भी पल रही थी। इसलिए एक क्षण में मित्रता नीचे चली गई, शत्रुता ऊपर आ गई। यह सिर्फ पलड़ा भारी हो गया। जब हम एक पलड़े पर तराजू के मित्रता रख रहे थे, तभी हम शत्रुता भी दूसरे पलड़े पर रखे जाते थे। यह सिर्फ समय और संयोग की बात है कि जिस दिन भी पलड़ा भारी हो जाएगा शत्रुता का, उसी दिन शत्रुता प्रकट हो जाएगी। लेकिन मन से कोई आदमी किसी को अनन्य भाव से मित्र नहीं बना सकता है।

मन, एक तरह की समझें  एक लोकतंत्र है। मन पार्लियामेंटरी है। उसमें जो भी निर्णय होते हैं, वे बहुमत से होते हैं, लेकिन अल्पमत विरोध में खड़ा ही रहता है। और भरोसा नहीं है कि जो सदस्य आज पक्ष में मत दिया है, वह कल भी देगा। मन के भीतर भी दल-बदलू सदस्य हैं। वे दल बदल लेते हैं।

तो हम जो भी निर्णय मन से लेते हैं, वह मेजर माइंड का होता है। हमारे भीतर जो मन का बहुमत होता है, वह कहता है, ठीक। लेकिन अल्पमत प्रतीक्षा करता है कि कितनी देर तक ठीक! समय आएगा, स्थिति बदलेगी, और हम तोड़ लेंगे। इसलिए हमारा मन कभी भी एक स्वर उपलब्ध नहीं कर पाता। कर भी नहीं सकता है। मन के काम करने का ढंग ही द्वंद्व है।

 मन के साथ निरंतर ही एक डायलाग है, एक वार्तालाप है, जो मन अपने को ही दो हिस्सों में तोड़कर चलाए चला जाता है।

जब आप सोचते हैं कुछ, तो आपका मन दो हिस्सों में टूट जाता है; एक पक्ष में बोलता है, एक विपक्ष में बोलता है। समस्त विचार, मन का दो हिस्सों में टूटकर वार्तालाप है। एक खेल है, जो आप भीतर खेलते हैं; इस तरफ से भी, उस तरफ से भी।

यह जो मन का भीतर भी दो हिस्सों में टूट जाना है और बाहर भी जगत दो हिस्सों में टूट जाता है, इसके परिणाम क्या होते हैं? पहला परिणाम तो यह होता है कि जगत में हमें उस एक के दर्शन नहीं हो पाते, जो कि सबके भीतर छिपा है। और जब भीतर भी द्वंद्व हो जाता है, तो भीतर भी उस एक के दर्शन नहीं हो पाते हैं, जो मौजूद है।

तो चाहे कोई बाहर उस एक को देख ले, शर्त एक ही होगी कि मन को छोड्कर देखे; और चाहे कोई भीतर उस एक को देख ले, शर्त फिर भी वही होगी कि मन को छोड्कर देखे। और जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो बाहर और भीतर का द्वंद्व भी गिर जाता है। क्योंकि वह भी दो की भाषा है। भीतर और बाहर, वह भी दो की भाषा है। जब भीतर का एक दिखाई पड़ता है, तो भीतर और बाहर दोनों खो जाते हैं, एक ही रह जाता है। जब बाहर का एक दिखाई पड़ता है, तब भी एक ही रह जाता है, भीतर और बाहर का द्वंद्व खो जाता है।

इसे अगर हम संक्षिप्त में कहें, तो ऐसे, कि समस्त धर्म की यात्रा मन को खोने की यात्रा है, और समस्त संसार की यात्रा मन को शक्तिशाली करने की यात्रा है। संसार का अर्थ है, मन को शक्तिशाली किए जाना। धर्म का अर्थ है, मन को विसर्जित किए जाना। धर्म का अर्थ है, ऐसी चेतना को पा लेना, जहां मन न हो। और संसार का अर्थ है, ऐसे मन को पा लेना, जहां चेतना न हो, मन ही मन रह जाए, आत्मा बिलकुल पता न चले।

ऐसा हो जाता है। कभी किसी नदी पर देखा हो, पत्तों की बाढ आ जाती है, काई छा जाती है। सारी नदी ढंक जाती है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। नीचे के जल का कण भी दिखाई नहीं पड़ता। सारी नदी की छाती पर पत्ते फैल जाते हैं, नदी भीतर छिप जाती हैं।

ठीक ऐसे ही, मन इतना फैल जाता है-फैल सकता है-कि वह जो आत्मा है, वह बिलकुल दिखाई पड़नी बंद हो जाए। नदी बिलकुल मौजूद है। एक पत्ते का जरा-सा फासला है। पत्ते की मोटाई ही कितनी है? लेकिन फिर भी दिखाई नहीं पड़ती, ओझल हो जाती है।

संसार का अर्थ है, मन ही मन रह जाए और आत्मा का बिलकुल पता न चले।

आपको अपनी आत्मा का पता चलता है?

ऐसे ही मन को समझाने के लिए मत कह लेना कि हां, पता चलता है। आत्मा का पता चलना आसान नहीं है। क्योंकि हमारी सारी चेष्टा तो मन को मजबूत करने की है। ये जो मन के पत्ते हैं, इनको ही तो हम शक्ति दिए चले जाते हैं। और फिर इन्हीं को हम फैलाए चले जाते हैं। फिर भी हम मानते हैं कि आत्मा है। वह मानना भी हमारे मन का एक विचार है। वह भी मन का एक पत्ता है।

हम मानते हैं कि आत्मा है। वह भी मन के ही कारण है। इसलिए वह मानना भी हमारा कभी पूरा नहीं हो पाता। जरा-सी असुविधा आती है और शक पैदा हो जाता है कि है भी, या नहीं है।

द्वंद्व कोई भी हो-चाहे लोभ का हो, अलोभ का हो; भय का हो, अभय का हो-द्वंद्व कोई भी हो, सत्य का हो, असत्य का हो, जीवन का हो, मृत्यु का हो, इससे कोई संबंध नहीं है। द्वंद्व की भाषा, मन की भाषा है।

कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं कि वे लोग, जो सकाम साधना करते हैं अर्थात सुख की मांग करते हैं, वे फिर-फिर वापस लौट आते हैं। क्योंकि सुख की साधना का अर्थ है, दुख को हम अंगीकार करने को राजी नहीं है, दुख को इनकार करते हैं, सुख को अंगीकार करते हैं।

द्वंद्व शुरू हो गया। कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह नहीं चाहिए; और कुछ है, जिसे हम कहते हैं, यह चाहिए। हमनें विभाजन कर लिया। हमने जीवन को अविभाज्य स्वीकार नहीं किया। यह टोटल एक्सेप्टिबिलिटी नहीं है कि हम समग्र जीवन को स्वीकार करते हैं, जीवन जैसा है, हम राजी हैं। इसमें हम भेद करते हैं कि हम जीवन के इस पहलू से राजी हैं, सुख दे जीवन तो हम राजी हैं, दुख दे तो हम राजी नहीं है।

लेकिन कठिनाई यह है कि दुख जो है, वह सुख की छाया है। तो मुझसे कोई राजी है, वह कहता है, आओ मेरे घर, लेकिन अपनी छाया को अपने साथ मत लाना; निमंत्रण है, स्वागत है, लेकिन छाया को छोड्कर आना।

ज्यादा से ज्यादा मैं इतना ही कर सकता हूं कि छाया को पीछे छिपाकर आ जाऊं, छोड्कर तो कैसे आ सकता हूं! इस भांति आऊं कि छाया सामने न पड़े, पीछे छिपी रहे। और जब घर में मैं प्रवेश करूंगा, तो छाया भी प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि छाया को कांटा नहीं जा सकता।

दुख सुख की छाया है। जो सुख को मांगता है, वह दुख को भी मांग रहा है। जानकर नहीं मांगता, क्योंकि कोई दुख को नहीं मांगता है। फिर भी उसे पता नहीं कि वह मांगे या न मांगे, सुख की मांग में ही दुख को भी निमंत्रण मिल जाता है। दुख पीछे आता है, सुख सामने दिखाई पड़ता है। जब भेंट होती है, तो थोड़ी देर में सुख बिखर जाता है और दुख की राख हाथ में आ जाती है।

बार-बार हमें यह अनुभव होता है। जहां-जहां सुख पर मुट्ठी बांधते हैं, आखिर में पाते हैं कि दुख हाथ में रह गया। और जहां-जहां सुख के सपने संजोते हैं, वहीं-वहीं पाते हैं कि सिवाय दुख के, दुखस्वप्नों के कुछ हाथ नहीं लगता है। जहां-जहां सुख का फूल खोजने जाते हैं, वहां-वहां दुख का कांटा चुभ जाता है। लेकिन फिर भी मन मांगे चला जाता है सुख को। और जितने जोर से मांगता है, उतने ही जोर से दुख आए चला जाता है।

इस मांग को हम बदल भी सकते हैं, बदल लेते हैं लोग। फिर बड़े मकान बनाने की मांग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी दुकान सजाने की माग छोड़ देते हैं। फिर बड़ी पद-प्रतिष्ठा, धन की मांग छोड़ देते हैं। लेकिन मन नहीं बदलता। मन फिर स्वर्ग में, परलोक में इन्हीं सुखों की मांग शुरू कर देता है।

तो कृष्ण कहते हैं, और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरुष बारंबार आने-जाने को प्राप्त होते हैं।

वेद भी सहायता न कर सकेंगे, कृष्ण भी सहायता न कर सकेंगे, कोई भी सहायता न कर सकेगा। अगर आपकी मांग ही गलत है, तो इस जगत में कोई भी सहायता न कर सकेगा। जगत अपने नियमों से घूमता है। अगर आपने गलत मांगा है, तो गलत आपको मिल जाएगा।

आप कहेंगे, हमने तो सुख मांगा है! लेकिन वह जो सुख की छाया है, वह किसको मिलेगी? वह भी आपको ही मिलेगी। आप पूरा देखें। मन तोड़ देता है, इसलिए सुख अलग मालूम पड़ता है, दुख अलग मालूम पड़ता है। थोड़ा समझें और मन के बिना जगत को देखें, तब आपको पता चलेगा कि वे दोनों अलग नहीं हैं। मन के कारण ही दो मालूम पड़ते हैं, वे एक ही हैं।

किस चीज में हमें सुख मिलता है? और जिस चीज में हमें सुख मिलता है, उसी में दुख मिल सकता है, फिर भी हमारी आंख नहीं खुलती। सच तो यह है, उसी में दुख मिलता है, जिसमें हमें सुख मिलता है। ऐसी किसी चीज में आपको कभी दुख मिला है, जिसमें आपको सुख पहले न मिला हो? जहां सुख मिलता है, वहीं दुख मिलता है। जिसमें सुख मिलता है, उसी में दुख मिलता है। जिससे अपेक्षा बाधते हैं, उसी से अपेक्षा टूटती है। जिससे आशा बांधते हैं, उसी से विषाद फलित होता है। एक ही बीज होता है, फिर भी हम देख नहीं पाते और जन्मों-जन्मों तक यह कथा ऐसी ही दोहरती चलती है। यह आना-जाना ऐसे ही होता रहता है।

कहां, कठिनाई कहां होगी? वही कठिनाई है मन के देखने में। मन जब किसी चीज में सुख देखता है, तो दुख दूसरा हिस्सा होता है; वह पीछे छिपा होता है, मन को पूरा दिखाई नहीं पड़ता। जब वह सुख देखता है, तो उसे सुख दिखाई पड़ता है, वह कहता है, सुख है यहां। दुख दिखाई नहीं पड़ता। वह ओझल होता है। वह विपरीत है। वह खयाल में ही नहीं आता। और जब दुख दिखाई पड़ता है, तब सुख ओझल हो गया होता है। तब सुख दिखाई नहीं पड़ता।

यह मन के देखने का जो अधूरा ढंग है, उसके कारण जो एक इकट्ठा सत्य है, वह हमें दो हिस्सों में टूटकर दिखाई पड़ता है। क्या हम मन के बिना जीवन के सत्य को पूरा देख सकते हैं?

जिन्होंने भी देखने की कोशिश की है, उन्हें मन को छोड़ देना पड़ा। मन को छोड़ने का अर्थ ही होता है, कामना को छोड़ देना। क्योंकि मन कामना का विस्तार है। मन वासना है, मन डिजायरिंग है-यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए! और कठिनाई तो यह है, अगर न मिले, तो दुख होता है, और मिल जाए तो भी सुख नहीं होता। न मिले, तो दुख होता है खोने का, और मिल जाए, तो बोर्डम, ऊब हो जाती है।

ऐसा कोई सुख आपने जाना है, जो आपको मिल जाए, फिर उबाए न? जिससे ऊब न होने लगे?

गरीब आदमी का दुख होता है अभाव का, और अमीर आदमी का दुख होता है उपलब्धि का। गरीब आदमी पीड़ित होता है, जो नहीं मिला उससे; अमीर आदमी पीड़ित होता है उससे, जो मिल गया। बुद्ध को पीड़ा क्या है? बुद्ध को पीड़ा यह है कि जो भी मिल गया है, उसमें कोई सुख नहीं है। घर छोड्कर भाग जाते हैं। उस युग की, उस इलाके की जितनी सुंदर युवतियां थीं, सभी बुद्ध को उपलब्ध थीं। उनसे घबड़ाकर भाग जाते हैं। महावीर को क्या तकलीफ है? सब मिल गया है, और सुख तो दिखाई पड़ता नहीं! तो सड़क पर भीख मांगने निकल जाते हैं। अमीर आदमी का दुख है कि वह जो चाहता था, वह मिल गया। गरीब आदमी का दुख है कि जो उसने चाहा, वह नहीं मिला है।

गरीब और अमीर के दुख अलग-अलग होते हैं, लेकिन दुख में कोई फर्क नहीं होता। एक ही चीज के दो छोर होते हैं। गरीब वहां खड़ा है, जहां कभी अमीर खड़ा था। और अमीर वहा खड़ा है, जहां गरीब अगर कोशिश करता रहा, तो कभी खड़ा हो जाएगा। लेकिन दोनों दुखी हैं।

लेकिन गरीब को दिखाई पड़ता है कि चीजें नहीं हैं, इसलिए दुखी हूं। उसे दूसरा पहलू दिखाई नहीं पड़ता। अमीर को दिखाई पड़ता है कि चीजें हैं, और दुखी हूं। उसे भी दूसरा पहलू नहीं दिखाई पड़ता। और हम दूसरे पहलू को बदलने के लिए आतुर रहते हैं। इसलिए गरीब अमीर बनने को राजी रहता है। और बहुत बार अमीर गरीब बनने को राजी हो गए हैं।

आखिर अमीर लड़कों ने, बुद्ध ने और महावीर ने, सब छोड्कर भिखारी के रूप में खड़े हो गए! यह दूसरे छोर पर जाने की इनकी तैयारी का कारण क्या है । एक ही कारण है कि जो हमारे पास होता है, उसी से दुख मिलने लगता है। जितनी हो दूरी, उतने ही सुख का आभास होता है। जितनी हो निकटता, उतना ही दुख प्रकट होने लगता है। जो भी चीज पास आ जाए, वही दुख देने लगती है। जो भी चीज दूर हो, वही सुख देती मालूम पड़ती है। क्योंकि दूर है; दे तो नहीं सकती, सिर्फ आभास हो सकता है। अगर किसी व्यक्ति को, जो भी उसने चाहा है, सभी मिल जाए इसी वक्त, तो उससे ज्यादा दुखी आदमी खोजना संसार में मुश्किल होगा।

कल्पवृक्ष के बारे में हम सुनते हैं कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष है। उसके नीचे आदमी बैठे, तो जो भी चाहे, उसे मिल जाए। शायद हम सोचते होंगे, उस वृक्ष के नीचे बैठकर लोग कैसे सुख को न उपलब्ध हो जाते होंगे! मैं आपसे एक राज की बात कहता हूं। कभी वह वृक्ष मिले, तो भूलकर उसके नीचे मत बैठना। अन्यथा आपसे बड़ा दुखी व्यक्ति फिर संसार में कोई भी नहीं होगा। क्योंकि सुख सिर्फ उसकी आशा में है, जो नहीं मिला है। और जब तक नहीं मिला है, तभी तक। और जब मिल जाता है, तभी दुख हो जाता है।

तो सुख का जो आभास है, वह वासना का आभास है। वासना जब तक अतृप्त है, तब तक सुख का आभास है। वासना जब तृप्त होती है, तब सब बिखर जाता है। आदमी लेकिन चाहे चला जाएगा! यश को चाहेगा, अपयश को नहीं। सुख को चाहेगा, दुख को नहीं।

लेकिन जो यश को चाहेगा, उसे अपयश मिलेगा ही। वह उसकी छाया है। जो लाभ चाहेगा, वह हानि में पड़ेगा ही। वह उसकी छाया है। जो जीवन के प्रति मोहित होगा, मृत्यु उसे भयभीत करेगी ही। वह उसकी छाया है। अगर मृत्यु के भय से बचना है, तो जीवन के मोह से बचना पड़ेगा। और अगर दुख में गिरने से बचना है, तो सुख के आकर्षण को छोड़ देना पड़ेगा। सुख का आकर्षण जो छोड़ देता है, उसे फिर कोई दुखी नहीं कर सकता। और यश की जिसकी आकांक्षा न रही, उसका अपमान करना असंभव है।

मेरा अपमान मैं ही करवा सकता हूं, आप नहीं कर सकते हैं। अगर मैं मान की आकांक्षा करूं, तो अपमान करवा सकता हूं। अगर मैं यश चाहूं तो अपयश मेरा किया जा सकता है। अगर मैं प्रशंसा चाहूं? तो मुझे गाली दी जा सकती है। लेकिन अगर मैं प्रशंसा ही न चाहूं, तो आपकी गाली बिलकुल ही व्यर्थ हो जाती है। उसका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। क्योंकि जिसे मैं चाहता ही नहीं, उसको मिटाने के प्रयोजन से आप मिटा भी क्या पाएंगे? अगर मैं आदर चाहूं तो निरादर के लिए मुझे तैयार होना चाहिए। और अगर निरादर की मेरी तैयारी न हो, तो आदर का मुझे खयाल छोड़ देना चाहिए। फिर कोई भी निरादर कर नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है। मैं बाहर हो गया।। तो कृष्ण कहते हैं कि जो लोग सुख की कामना से धर्म की साधना में भी लगते हैं, वे अपने को कितना ही धोखा दे लें, वापस लौट आएंगे। कितने ही बड़े सुख को पा लें, लेकिन चुक जाएगा पुण्य। पाते ही चुक जाता है। कीमत वसूल हो गई। किया हुआ श्रम पूरा हो गया। फल मिल गया हाथ में, फिर स्वर्ग भी बासा हो जाता है।

सुना है मैंने कि स्वर्ग के देवी-देवता भी पृथ्वी के लिए तरसने लगते हैं। कथाएं हैं, पुराणों में कथाएं हैं कि स्वर्ग के देवता अप्सराओं से ऊब जाते हैं, बुरी तरह ऊब जाते हैं। पृथ्वी की स्त्रियों की कामना करने लगते हैं। पुरूरवा की कथा है कि स्वर्ग से आज्ञा मांगी उसने कि मुझे पृथ्वी पर जाने दें, ताकि मैं पृथ्वी की किसी स्त्री को प्रेम कर सकूं!

क्या हुआ होगा पुरूरवा को? यहां पृथ्वी पर तो अप्सराओं के लिए लोग दीवाने हैं। यहां भी कोशिश करते हैं स्त्रियों को अप्सराओं जैसी सजाने की! कोशिश असफल जाती है! लेकिन पुरूरवा को क्या हुआ? वह अप्सराओं को छोड्कर यहां पृथ्वी पर किसी स्त्री से प्रेम करने आना चाहता है! कोई स्त्री स्वर्ग में-कथाएं हैं-बूढ़ी नहीं होती! सोलह वर्ष पर ही उम्र ठहर जाती है! तो आदमी तो कितना चाहता है, कितनी कविताएं लिखता है, और स्त्रियां तो कितनी कोशिश करती हैं! सोलह साल के बाद उनकी उम्र बढ़ती ही नहीं! बहुत कोशिश करती हैं! फिर भी, यहां तो सब बढ़ ही जाती है। वहां तो बढ़ती ही नहीं! पुरूरवा क्यों ऊब गया होगा?

यह सोलह साल पर अगर सबकी उम्र ठहर जाए, तो भी उबाने वाली हो जाएगी; यह भी घबड़ाने वाला हो जाएगा। और जो फूल कुम्हलाता ही न हो, वह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। जो फूल कुम्हलाता ही न हो, वह प्लास्टिक का मालूम पड़ने लगेगा। तो अप्सराएं बिलकुल प्लास्टिक की मालूम पड़ी होंगी, कागजी मालूम पड़ी होंगी। न कुम्हलाती हैं; न पसीना आता है; न उम्र ढलती है, न कभी आंख से आंसू बहते हैं, होंठों की मुस्कुराहट है कि ऐसी बनी रहती है, जैसी कि नेताओं के मुंह पर चिपकी रहती है! वह चिपकी ही रहती है। वह कभी हटती ही नहीं। अप्सराएं सोती भी हैं, तो भी होंठ मुस्कुराते रहते हैं। यह मुस्कुराहट भी घबड़ाने वाली हो जाएगी, बेस्वाद हो जाएगी।

पुरूरवा घबड़ा गया। उसने कहा कि मुझे आज्ञा दो, मैं पृथ्वी पर जाऊं, किसी स्त्री को प्रेम करूं, जो बूढ़ी भी होती हो, जो रोती भी हो, जिसके शरीर पर पसीना भी आ जाता हो; जिसकी जिंदगी में सब उतार-चढाव होते हों। ताकि मुझे कुछ असलियत का अनुभव हो, यहां तो सब कागजी हो गया है।

स्वर्ग पाकर भी वासना तो क्षीण नहीं होगी, वासना नए आयाम पकड़ लेगी, नई दुनियाओं में खोज करने लगेगी, नई जगह तलाश करने लगेगी। और फिर जो स्वर्ग पा लिया है, जो सुख पा लिया है।

स्वर्ग का अर्थ है मनोवैज्ञानिक कि जो भी सुख पा लिया है, वह पाते ही क्षीण होना शुरू हो जाता है-पाते ही। जिस शिखर को भी हम पा लेते हैं, पाते से ही उतार शुरू हो जाता है, उतरना शुरू हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, लौट आएगा वापस वह व्यक्ति, जिसने सकाम साधना की है। परमात्मा को भी जिसने वासना के माध्यम से चाहा और मांगा है, उसे सुख तो मिल जाएगा, लेकिन वह लौट आएगा।

और ध्यान रखें, सुख को जानकर जब कोई लौटता है, तो महादुख में पड़ जाता है। कभी आपने देखा है, रास्ते से गुजर रहे हैं; अंधेरी रात, सन्नाटा है, अंधेरा है रास्ते पर। फिर एक मोटरगाड़ी पास से गुजर जाती है। तेज प्रकाश आपकी आंख में पड़ता है।

मोटर गुजर गई, पीछे आप और महाअंधकार अनुभव करते हैं, जितना कि इस गाड़ी के गुजरने के पहले नहीं था। अंधेरा तो वही है, पर आपकी आंखों की कठिनाई हो गई; आंखों ने प्रकाश जान लिया, अब अंधेरा और भी घना मालूम पड़ेगा।

तो जो भी व्यक्ति स्वर्ग में हो आता है, सुख को जान लेता है, गिरते ही महानर्क की गर्त को अनुभव करता है। सुख को जानना महंगा सौदा है, गिरना तो पड़ेगा। और जब चित्त गिरता है वापस, तो सभी कुछ दुख हो जाता है। सभी कुछ दुख हो जाता है। चित्त का अनुभव अब सुख के लिए और भारी मांग से भर जाता है। और सभी चीजें उदास कर जाती हैं, और सभी चीजें दुख दे जाती हैं। कृष्ण कहते हैं, ऐसे व्यक्ति का आना-जाना जारी रहता है। वह परिभ्रमण में भटकता रहता है। वह एक वर्तुल में पड़ जाता है। जैसे बैलगाड़ी के चाक में एक आरा ऊपर आता है, फिर नीचे जाता है, फिर ऊपर आता है, फिर नीचे जाता है।

संसार हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण शब्द रहा है। संसार का मतलब होता है, चाक, दि व्हील। संसार का मतलब होता है, चक्के की तरह जो घूमता रहता है। जो अभी ऊपर है, वह थोड़ी देर में नीचे आ जाता है, जो अभी नीचे है, वह थोड़ी देर में ऊपर आ जाता है। और यह चाक घूमता चला जाता है। और जो नीचे है, वह ऊपर आने की आशा करता रहता है। और ऊपर आ भी नहीं पाता है कि नीचे जाना शुरू हो जाता है, क्योंकि चाक घूमता रहता है। जो ऊपर है, वह ऊपर बने रहने की कितनी ही कोशिश करे, बना नहीं रह पाता, नीचे उतरना पड़ता है।

कृष्ण कहते हैं, कामना से अगर स्वर्ग भी मिल जाए, तो भी लौट आना पड़ता है। कामना की कोई भी उपलब्धि वास्तविक नहीं है। कामना की कोई भी उपलब्धि यथार्थ नहीं है। कामना की कोई भी उपलब्धि स्वप्न से ज्यादा नहीं है। स्वप्न टूटेगा ही। कितना ही लंबा कोई स्वप्न देखे, स्वप्न टूटेगा ही।

क्या कोई उपाय है कि व्यक्ति इस स्वप्न और इस चाक के परिभ्रमण से बाहर हो जाए?

तो कृष्ण कहते हैं, जो अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से उपासते हैं, उन नित्य एकीभाव से मुझ में स्थित पुरुषों का योग- क्षेम मैं स्वयं सम्हाल लेता हूं।

इसमें तीन बातें समझने जैसी हैं।

एक, निष्काम भाव से जो मुझे उपासते हैं। कठिन है बहुत। यही उपासना और वासना का भेद है। हमारी उपासना भी वासना ही है। हम परमात्मा के पास भी जाते हैं, तो परमात्मा के लिए नहीं, कारण कुछ और ही होता है। कोई बीमार है, इसलिए मंदिर में जाता है। कोई बेकार है, इसलिए मंदिर में जाता है। कोई निर्धन है, इसलिए मंदिर में जाता है। कोई निस्संतान है, इसलिए मंदिर में जाता है। जो किसी भी कारण से मंदिर में जाता है, वह मंदिर में पहुंच ही नहीं पाता है। शरीर भीतर प्रवेश कर जाएगा, मूर्ति सामने आ जाएगी, लेकिन उपासना संभव नहीं है। क्योंकि जहां वासना है, वहां उपासना संभव ही नहीं है।

उपासना का अर्थ होता है, परमात्मा के पास होना। और जब मैं धन मांगने के लिए उसके पास जाता हूं तो मैं धन के पास होता हूं; उसके पास कैसे होऊंगा? मेरी मांग ही मेरी निकटता है। जो मैं चाहता हूं वही मेरे निकट है, और जिससे मैं चाहता हूं, वह तो केवल साधन है। अगर परमात्मा पूरा कर दे, तो ठीक है; अगर पूरा न करे, तो फिर मैं वहा नहीं जाऊंगा। कोई और पूरा कर दे, तो उसके पास जाऊंगा। जहां मेरी वासना पूरी होगी, वहां मैं जाऊंगा। परमात्मा कर सकता है, तो वहा भी तलाश कर लेता हूं! लेकिन परमात्मा मेरी इच्छा का हिस्सा नहीं है। मेरी इच्छा कोई और है। 

वासना और उपासना का यह फर्क है। वासना सकाम होगी, कुछ मांगने के लिए होगी। तो जो हम मांगते हैं, वही श्रेष्ठ है, जिससे हम मांगते हैं, वह श्रेष्ठ नहीं है। उससे मिलता है, इसलिए हम उसको श्रेष्ठ मान लेते हैं। लेकिन जो मांगते हैं, वही श्रेष्ठ है। उपासना का तो अर्थ ही यह है कि एक नया जगत शुरू हुआ किसी के पास होने का, जिससे कुछ भी मांगना नहीं है, जिसके पास होना ही काफी आनंद है, जिससे और कोई मांग का सवाल नहीं है। उपासना का अर्थ है, परमात्मा के पास होना। और पास होने में ही सारी उपलब्धि मानना। पास होने में ही, उसकी निकटता ही सब कुछ है। उसके पास होने में ही सब मिल गया। सब स्वर्ग, सब मोक्ष। उसकी निकटता से ज्यादा और कोई चाह नहीं है।

निष्काम साधना का अर्थ है, परमात्मा को चाहना उसके ही लिए, किसी और कारण से नहीं,इस जगत में हम सभी को किसी और कारण से चाहते हैं। अगर मैं एक स्त्री को प्रेम करता हूं, तो इसलिए कि वह सुंदर है। लेकिन कल वह असुंदर हो सकती है। फिर प्रेम कैसे टिकेगा? क्योंकि जिस सौंदर्य के लिए प्रेम था, वह खो गया। फिर धोखा ही टिकेगा। फिर मुझे खींच-तानकर चलाना पड़ेगा। फिर मैं कहता रहूंगा कि ठीक है, अब भी प्रेम है। लेकिन प्रेम तिरोहित हो गया होगा। क्योंकि प्रेम का कोई कारण था।

कोई जवान है, इसलिए मेरा उससे प्रेम है। कल वह बूढ़ा हो जाएगा, फिर कैसे प्रेम टिकेगा? कोई बुद्धिमान है, इसलिए मेरा उससे प्रेम है; कारण है। कोई धनी है, कोई स्वस्थ है, कोई कलाकार है। कुछ है कारण।

इस जगत में हम जितने भी संबंध बनाते हैं, वे सभी सकारण हैं, सभी सकाम हैं। इसी वजह से, आदत के वश, हम परमात्मा से भी जो संबंध बनाते हैं, वे भी सकाम हैं। इसलिए सकाम भक्त परमात्मा के संबंध में जो बातें कहता है, जो गीत गाता है, उनको ठीक से अध्ययन करें, तो पता चलेगा कि वह क्या-क्या कह रहा है!

वह कहता है कि तुम्हारे नयन बहुत प्यारे हैं, इसलिए; कि तुम बड़े मनमोहन हो, इसलिए; कि तुमने सबको रचा, कि तुम सबके पालनहार हो, इसलिए; कि तुम जो पतित हैं, उनके सहारे हो, इसलिए; कि तुमने पापियों को उद्धारा, इसलिए। लेकिन सबके पीछे देअरफोर, इसलिए है।

लेकिन अगर वह पापियों का उद्धारक नहीं, अगर उसकी आंखें बहुत सुंदर नहीं, बड़ी कुरूप हैं, मनमोहन नहीं, फिर क्या होगा? हम जो इस जगत में संबंध बनाते हैं, उन्हीं के आधार पर हम परमात्मा से भी संबंध बनाने की कोशिश करते हैं, यही सकाम धारणा है।

कृष्ण कह रहे हैं, जो निष्काम भाव से मुझे उपासेगा!

जो किसी कारण से नहीं, अकारण। जो कहेगा, कोई कारण नहीं है, कोई वजह नहीं है, बेवजह, बिना कारण, तुम्हारे पास होना बस काफी है। तुम कैसे हो, इसकी कोई शर्त नहीं है। तुम क्या करोगे, इसकी कोई मांग नहीं है। तुमने कब क्या किया है, उसका कोई हिसाब नहीं है। तुम सुख ही दोगे, यह भी पक्का नहीं है। तुम दुख न दोगे, इसका भी पक्का नहीं है। यह सब कुछ पक्का नहीं है। लेकिन तुम्हारे पास होना, और तुम जैसे भी हो, तुम्हारे पास होना ही मेरा आनंद है। बस, तुम्हारे पास होने में ही मेरा सब समाप्त हो जाता है, मैं मंजिल पर पहुंच जाता हूं।

इसलिए निष्काम साधना बड़ी कठिन है; आदमी सोच भी नहीं पाता। कोई आदमी चाहता है, मन अशांत है, इसलिए। दुखी है, इसलिए। संताप है, चिंता है, इसलिए। अकारण? अकारण की भाषा ही हमारी समझ में नहीं आती!

लेकिन ध्यान रहे, इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, सभी अकारण घटित होता है, और जो भी क्षुद्र है, वह सकारण होता है। अगर इस जगत में भी कभी प्रेम घटित होता है, तो वह उपासना जैसा होता है, वासना जैसा नहीं होता। कभी हम एक व्यक्ति को इसलिए प्रेम नहीं करते कि कोई भी कारण है। बस, उसके पास होना काफी है। वह क्या करेगा, यह नहीं। उससे कोई मांग नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। बस, वह है, इतना काफी है। उसकी उपस्थिति काफी है। उससे क्या मिलता है, इसका भी कोई हिसाब नहीं है। बिना कारण।तो जगत में भी प्रेम का फूल खिलता है कभी बिना कारण। प्रार्थना भी कभी बिना कारण हो, तो फूल बन जाती है।

मंदिर में जाएं, सब कारण बाहर रख जाएं जहां जूते उतारते हैं। एक बार जूता भी भीतर चला जाए, तो मंदिर अपवित्र नहीं होगा। लेकिन कारण भीतर मत ले जाएं। कारण भीतर ले गए, तो सब अपवित्र हो जाता है। कारणों को वहीं उतार जाएं, जहां जूते उतार देते हैं। सब कारण वहा रख जाएं। सब वासनाएं वहा रख जाएं। मंदिर में तो सिर्फ होने के आनंद के लिए जाएं। थोड़ी देर उसके पास होंगे। कुछ मत करें वहां। कुछ करना जरूरी नहीं है। बस, चुपचाप वहां बैठ जाएं। सिर्फ उसकी मौजूदगी अनुभव करें। उसमें भी अनुभव क्या करना है! शांत बैठें, तो अनुभव होने लगेगी। वह वहां है ही, सभी जगह है।

एक बार मंदिर में होने लगे, तो कोई कारण नहीं है कि मस्जिद में क्यों न हो! एक बार मस्जिद में होने लगे, तो कोई कारण नहीं है कि चर्च में क्यों न हो! और एक बार कहीं भी होने लगे, तो कोई भी कारण नहीं है कि और कहीं क्यों न हो! कहीं भी होगा। कहीं भी शांत बैठ जाएं, वह मौजूद है। चुप हो जाएं, सिर्फ उसकी मौजूदगी को अनुभव करें, तो उपासना है।

और मांग कोई भी न हो। रत्तीभर भी नहीं। रत्तीभर भी नहीं। अगर वह देने को भी राजी हो जाए, अगर वह कहे भी कि मांग लो, तो भी खोजने से मांग का भीतर पता न चले। कहना पड़े उससे कि असमर्थ हूं कोई मांग नहीं है। ऐसी स्थिति में होगी निष्काम भाव से उपासना। और जो निष्काम भाव से उपासना करता है, कृष्ण कहते हैं, उसका योग- क्षेम, दोनों ही मैं सम्हाल लेता हूं।

योग और क्षेम शब्द को समझ लेना चाहिए।

योग से अर्थ है, वह परम प्रतीति, अंतिम प्रतीति प्रभु-मिलन की, पूर्ण के साथ एक होने की। योग से अर्थ है, व्यक्ति के मिटने की घटना परमात्म में, वह मैं सम्हाल लेता हूं। और क्षेम से अर्थ है, जब तक वह घटना न घट जाए, तो जो भी जरूरी है, वह भी मैं सम्हाल लेता हूं। क्षेम से अर्थ है, योग जब तक न घटे, तब तक जो भी जरूरी हो! अगर शरीर की जरूरत हो, तो शरीर को सम्हाल लूंगा। अगर भोजन की जरूरत है, तो भोजन को सम्हाल लूंगा। अगर श्वास की जरूरत है, तो श्वास को सम्हाल लूंगा। जब तक वह परम घटना नहीं घटती है, तब तक उसके पहले जो-जो आवश्यक है, वह भी मैं सम्हाल लूंगा। उसका नाम है क्षेम। और जब क्षेम के बाद वह परम घटता घट जाएगी, आखिरी, वह भी मैं सम्हाल लूंगा।

कृष्ण यह कहते हैं कि एक बार तू अपनी मांग छोड़, तो मैं सब सम्हालने को तैयार हूं। और जब तक तू मांग किए जाता है, तब तक मैं कुछ भी नहीं सम्हाल सकता हूं। न सम्हालने का कारण है। क्योंकि जब तक तू मांग किए जाता है, तब तक तू अपने को मुझसे ज्यादा समझदार समझे चला जाता है।

मांग का मतलब ही यह होता है। एक आदमी जाता है मंदिर में और भगवान से कहता है कि यह क्या किया? यह कैसा न्याय है?

वह यह कह रहा है कि तुमसे ज्यादा अक्ल तो हममें है! हम समझते हैं कि यह न्याय नहीं है। और क्या कर रहे हो बैठे वहां? 

यह सशर्त, सकाम भावना है। भक्त, सच में निष्काम भक्त परमात्मा से कहेगा कि जो भी तूने दिया, मैं आनंदित हूं; वह फूल गिराए तो। जो भी तूने दिया, मैं आनंदित हूं। क्योंकि तू जो देगा, वह ठीक होगा ही। गलत तो वह तब होता है, जब मेरी मांग के विपरीत पड़ता है। जब मेरी कोई मांग नहीं, तो गलत होने का कोई उपाय नहीं। अन्याय तो तब मालूम पड़ता है, जब मैं सोचता था कुछ और मिलेगा, और मिलता कुछ और है। जब मैं देखता हूं कि जो भी मिलता है, वही न्याय है, तब तो कोई सवाल नहीं है।

कृष्ण कहते हैं कि जो मुझ पर सब छोड़ देता है, उसे मैं सम्हाल लेता हूं। और जो मुझ पर छोड़ता नहीं, खुद ही सम्हालता है, उसे खुद ही सम्हालना पड़ता है।

हम सब खुद सम्हाल-सम्हालकर बोझ से दबे जाते हैं। हम सोचते हैं, जीवन चले, न चले! अपना-अपना जीवन तो खींचना ही पड़ेगा। और अपना-अपना खींचने से भी जिनको बोझ काफी नहीं मालूम पड़ता, वे दूसरों का भी खींचते हैं!

हम सबका मन होता है कि मैं चला रहा हूं सब! ऐसा व्यक्ति निष्काम भावना को कैसे उपलब्ध हो सकता है? निष्काम भावना को तो वही उपलब्ध हो सकता है, जो जानता है कि वही चला रहा है, तो मैं फिर बीच-बीच में क्यों मांगें खड़ी करूं। फिर मैं बीच-बीच में क्यों कहूं कि ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए!

आस्तिक की मेरी तरफ एक ही परिभाषा है, वह आदमी नहीं, जो कहता है, ईश्वर है। वह आदमी नहीं, जो कहता है कि ईश्वर है, इसके मैं प्रमाण दे सकता हूं। वह आदमी नहीं? जो ईश्वर है, ऐसी मान्यता रखकर जीता है। आस्तिक का एक ही अर्थ है, वह आदमी, जिसकी अस्तित्व के प्रति कोई शिकायत नहीं है। ईश्वर का नाम भी न ले, तो चलेगा। चर्चा ही न उठाए, तो भी चलेगा। ईश्वर की बात भी न करे, तो भी चलेगा। लेकिन अस्तित्व के प्रति, जीवन के प्रति उसकी कोई शिकायत नहीं है।

यह सारा जीवन उसके लिए एक आनंद-उत्सव है। यह सारा जीवन उसके, लिए एक अनुग्रह है, एक ग्रेटिटयूड है। यह सारा जीवन एक अनुकंपा है, एक आभार है। उसके प्राण का एक-एक स्वर धन्यवाद से भरा है, जो भी है, उसके लिए। उसमें रत्तीभर फर्क की उसकी आकांक्षा नहीं है। '

ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से उपासता है मुझे।। उसके योग- क्षेम की मैं स्वयं ही चिंता कर लेता हूं। उसे अपने न तो योग की चिंता करनी है और न क्षेम की।

यहां एक बड़ी अदभुत बात है। और आमतौर से जब भी कोई इस सूत्र को पढ़ता है, तो उसको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है, योग में नहीं! इस सूत्र पर, जितने व्याख्याकार हैं, उनको कठिनाई क्षेम में मालूम पड़ती है। वे कहते हैं, योग तो ठीक है कि परमात्मा सम्हाल लेगा, अंतिम मिलन को, लेकिन यह जो रोज दैनंदिन का जीवन है, यह जो रोटी कमानी है, यह जो कपड़ा बनाना है, यह जो मकान बनाना है, यह जो बच्चे पालने हैं-यह सब-यह परमात्मा कैसे करेगा? हालत दूसरी होनी चाहिए। हालत तो यह होनी चाहिए कि ये छोटी-छोटी चीजें शायद परमात्मा कर भी लेगा। योग, साधना की अंतिम अवस्था, वह कैसे करेगा! लेकिन वह किसी को खयाल नहीं उठता।

हम सबको डर इन्हीं सब छोटी चीजों का है, इसीलिए। उस बड़ी चीज पर तो हमारी कोई दृष्टि भी नहीं है। योग- क्षेम मैं ही सम्हाल लेता हूं कृष्ण कहते हैं।

उतने भाव से, फिर जो भी हो, वही क्षेम है, ध्यान रखना आप! इसका यह मतलब नहीं है कि वैसे व्यक्ति को कभी मुसीबत न आएगी। इसका यह मतलब भी नहीं है कि उसे रोज सुबह चेक उसके हाथ में आ जाएगा! ऐसा कोई मतलब नहीं है। अगर इसे ठीक से समझेंगे, तो इसका मतलब यह है कि सुबह जो भी हाथ में आ जाएगा, वही उसका क्षेम है। जो भी उसे आ जाएगा हाथ में-भूख, तकलीफ, सुख, दुख-जो भी, वही परमात्मा के द्वारा दिया गया क्षेम है। वह उसे ही अपना क्षेम मानकर आगे चल पड़ेगा।

और योग और भी कठिन बात है। कृष्ण कहते हैं, वह भी मैं सम्हाल लेता हूं।

उसका मतलब? ऐसे उपासक को न साधना की जरूरत है, न साधन की जरूरत है; न तप की जरूरत है, न यश की जरूरत है, न किसी विधि की जरूरत है, न किसी व्यवस्था की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति को परमात्मा से मिलने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। अगर निष्काम उपासना उसका भाव है, तो मैं उसे मिल ही जाता हूं। वह मिलने का काम मैं सम्हाल लेता हूं।

ऐसी बहुत कथाएं हैं, बड़ी मीठी, और मनुष्य के अंतरतम के बड़े गहरे रहस्यों को लाने वाली, जब परमात्मा उपासक को खोजता हुआ उसके पास आया है। ये प्रतीक कथाएं हैं; और इनको समझने में भूल हो जाती है। इन प्रतीक कथाओं का अर्थ यह होता है कि वे एक इंगित करती हैं स्व तथ्य की ओर।

अगर उपासक निष्काम भाव में जीता हो, तो उसे परमात्मा को खोजने भी जाना नहीं पड़ता, परमात्मा ही उसे खोजता चला आता है। आ ही जाएगा। जैसे जब कोई गड्डा होता है, तो वर्षा का पानी भागता हुआ गड्डे में चला आता है। पहाड़ पर भी गिरता है, लेकिन पहाड़ वंचित रह जाते हैं। वे अपने से पहले से ही भरे हुए हैं। उनका अहंकार मजबूत है। गड्डा खाली है, निरहंकार है, पानी भागता हुआ आकर गड्डे में भर जाता है। ठीक ऐसे ही, जहां निष्काम भाव है उपासना का, परमात्मा भागता चला आता है, और हृदय को घेर लेता है।

लेकिन इतनी भी वासना की जरूरत नहीं है-इतनी भी-कि वह आए, कि वह मुझे मिले। यह आखिरी कठिन बात है, जो खयाल में ले लेनी चाहिए। क्योंकि भक्त अगर यह भी कहे कि तू मुझे मिल, तो भी वासना है।

भक्त तो यह कहता है कि तू है ही चारों तरफ। बस, मैं निर्वासन। हो जाऊं, तो तू यहीं है। तू मुझे यहीं दिखाई पड़ जाएगा। मेरी आंख खुल जाए, तो तू यहीं है। सिर्फ मैं आंख बंद किए बैठा हूं इसलिए तू दिखाई नहीं पड़ता है। भक्त यह नहीं कहता है कि तू आ। इतनी भी वासना नहीं है। इतना ही कि अपने को मिटा देता है। वासना के खोते ही मिट जाता है।

वासना ही हमारे अहंकार का आधार है। जब तक हम कुछ मांगते हैं, तभी तक मैं हूं। जब मैं कुछ भी नहीं मांगता, तो मेरे होने का कोई कारण नहीं रह जाता। मैं न होने के बराबर हो जाता हूं। एक खालीपन, एक शून्यता घटित हो जाती है। वही शून्यता उपासना है, वही शून्य परमात्मा की सन्निधि है।

यह जो व्यक्ति के भीतर वासना से छूटकर शून्य का निर्मित होना है, इस पर ध्यान दें। इस पर ध्यान दें, तो कोई कारण नहीं है, कोई कारण नहीं है कि जो हमारे लिए बड़े-बड़े शब्द मालूम पड़ते हैं, खाली और व्यर्थ, वे सार्थक और जीवंत न हो जाएं।

परमात्मा एक खाली शब्द है हमारे लिए। इस शब्द में हमारे लिए कुछ भी मालूम नहीं पड़ता कि क्या है। अगर कोई कहता है दरवाजा, तो दरवाजे में कोई अर्थ है, कोई कहता है पानी, तो पानी में कोई अर्थ है; कोई कहता है वृक्ष, तो वृक्ष में कोई अर्थ है, जब मैं कहता हूं परमात्मा, तब कोई भी अर्थ नहीं है।

वृक्ष कहने से वृक्ष की तस्वीर घूम जाती है।   

परमात्मा हमारा अनुभव ही नहीं है, इसलिए शब्द खाली है! घोड़ा हमारा अनुभव है, इसलिए शब्द आते से अनुभव भी सामने आ जाता है। परमात्मा हमारा अनुभव नहीं है, इसलिए परमात्मा शब्द खाली है। सुन लेते हैं, बार-बार सुनने से ऐसा वहम भी पैदा हो जाता है कि अर्थ हमें मालूम है।

अर्थ अनुभव में होता है, शब्दकोश में नहीं। शब्दकोश में लिखा हुआ है अर्थ, लेकिन अर्थ अनुभव में होता है। और जब तक अनुभव न हो, तब तक हम कितनी ही बार सुनें परमात्मा, परमात्मा, परमात्मा, कुछ होगा नहीं। अर्थ कहां से प्रकट होगा?

इसलिए परमात्मा को छोड़े, उपासना पर ध्यान दें। उपासना से अर्थ निकलेगा। उपासना असली चीज है। जैसे अंधे आदमी से हम कहें कि तू प्रकाश की फिक्र छोड़, तू आंख का इलाज करवा। प्रकाश की फिक्र ही छोड़ दे। जिस दिन आंख ठीक हो जाएगी, उस दिन प्रकाश प्रकट हो जाएगा। ऐसे मैं आपसे कहूं कि आप फिक्र छोड़ दें परमात्मा की, फिक्र कर लें उपासना की। उपासना आंख है। आंख जिस दिन खुल जाएगी, उस दिन परमात्मा प्रकट हो जाएगा। वह यहीं मौजूद है।

उपासना का अर्थ क्या है? उपासना का अर्थ है, हम उसकी उपस्थिति को प्रतिपल स्मरण करते रहें, अनुभव करते रहें। कुछ भी घटित हो, वही हमें याद आए। कुछ भी घटित हो, पहली खबर हमें उसकी ही मिले। कुछ भी हो जाए चारों तरफ, नंबर दो पर दूसरी याद आए, पहली याद उसकी आए। रास्ते पर एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़े, तो सुंदर चेहरा नंबर दो हो, पहले उसकी खबर आए। एक फूल खिलता हुआ दिखाई पड़े, फूल नंबर दो हो, पहले उसकी खबर आए। कोई गाली दे, गाली देने वाला बाद में दिखाई पड़े, पहले उसकी खबर आए।


आपकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाएगी, उसकी खबर को प्राथमिक बना लें। इसको ही मैं स्मरण कहता हूं। उसकी खबर को प्राथमिक बना लें। रास्ते पर पागल की तरह अगर राम-राम, राम-राम कहते हुए गुजरते रहें, तो कुछ भी न होगा। बहुत लोग गुजर रहे हैं। राम-राम कहने का सवाल नहीं, स्मरण का है।

जो भी हो, पहले राम, फिर दूसरी बात। सारी जिंदगी बदल जाएगा। अगर किसी ने गाली दी, और पहले राम का स्‍मरण तो फिर गाली का उत्‍तर गाली से देना मुश्‍किल हो जायेगा। कैसे? राम बीच में आ गया, अब गाली देना असंभव है। मौत भी आ जाए, पहले राम का स्मरण आए। फिर मौत में भी दंश न रह जाएगा। कुछ भी हो, राम पहले खड़ा हो जाए।

इसको ही मैं उपासना कह रहा हूं। चौबीस घंटे-उठते, बैठते, सोते-राम का, प्रभु का, परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता रहे। धीरे- धीरे यह सघन हो जाता है। यह इतना सघन हो जाता है कि सब चीजें पिघलकर बह जाती हैं, यही सघनता रह जाती है। धीरे- धीरे सब चीजें ओझल हो जाती हैं, परमात्मा की चारों तरफ उपस्थिति हो जाती है।

फिर आप चलते हैं, तो परमात्मा आपके साथ चलता है। आप उठते हैं, तो परमात्मा आपके साथ उठता है। आप हिलते हैं, तो परमात्मा आपके साथ हिलता है। आप सोते हैं, तो उसमें सोते हैं। आप जागते हैं, तो उसमें जागते हैं। फिर चारों तरफ वही है। श्वास-श्वास में वही है। हृदय की धड़कन में वही है।

यह उपासना है। और मांग कुछ भी नहीं है। उससे चाहना कुछ भी नहीं है। और मजा यह है, जो उससे कुछ भी नहीं चाहता, उसे सब कुछ मिल जाता है। और जो उससे सब कुछ चाहता रहता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है।

वासना से भरा हुआ व्यक्ति दरिद्र ही मरता है, उपासना से भरा हुआ व्यक्ति सम्राट हो जाता है, इसी क्षण। वासना भिक्षा-पात्र है, मांगते रहो, मांगते रहो, वह कभी भरता नहीं। उपासना भिक्षा-पात्र को तोड़कर फेंक देना है। उपासना इस बात की खबर है कि वह हमारा ही है, उससे मांगना क्या है! वह मुझमें ही है, उससे मांगना क्या है! और जो भी उसने दिया है, वह सब कुछ है, अब और उसमें जोड़ना क्या है!

उपासना का अर्थ है, स्वयं के भीतर छिपी हुई परम संपदा का अनुभव। और वासना का अर्थ है, स्वयं के भीतर एक भिक्षा-पात्र की स्मृति कि मैं एक भिखारी का पात्र हूं, मांगता रहूं? मांगता रहूं! 

उपासना परमात्मा की इतनी सघन प्रतीति करा देती है! वासना धीरे- धीरे दीन बना देती है; दीन से दीनतर बना देती है। वासना में जीने वाला सिकंदर भी दीन ही मरता है। वासना में जीने वाला बड़े से बडा धनपति भी निर्धन ही मरता है। वासना आखिर में भिखारी को और बड़ा कर जाती है।

मांगें मत! यह प्रार्थना शब्द है हुमारे पास। हमने इतना मांगा है प्रार्थना के साथ कि प्रार्थना का मतलब ही लगने लगा मांगना! हम प्रार्थना के साथ सदा मांगते हैं, इसलिए प्रार्थना का मतलब ही मालूम पड़ने लगा, कुछ मांगना। प्रार्थना करो, इसका मतलब ही होता है, मांगो।

प्रार्थना का मतलब मांगना जरा भी नहीं है। प्रार्थना का मतलब है. उस तान में एक हो जाना, उस तान के साथ डोलने लगना, उस तान के साथ नाचने लगना, जो कि चारों तरफ मौजूद है। प्रार्थना एक लीनता है। उपासना उसकी उपस्थिति को अनुभव करने का नाम है।

और बिना मांगे जो उसे अनुभव करने को तैयार है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर लौटता नहीं। वह फिर चक्कर के बाहर हो जाता है। वह चाक से छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। फिर यह चाक घूमता रहे, वह नहीं घूमता।

 वह कृष्ण कहते हैं, कहते होंगे! अर्जुन से कुछ नाता-रिश्ता रहा होगा। इसलिए कहा कि तेरा योग- क्षेम मैं सम्हाल लूंगा। इधर तो हमने छोड़ी अपनी लकड़ी, कि मरे! सिर के बल गिरेंगे, सब टूट-फूट जाएगा। कोई सम्हालने वाला नहीं मिलेगा। अपना पकड़े रहो जोर से!

प्रार्थना कभी-कभी करते हैं कि हे परमात्मा! लकड़ी को जरा बड़ी कर दे, ताकि ठीक से पकड़े रहें; कि मेरे हाथों को जरा मजबूत कर, कि लकड़ी छूट न जाए! ये हमारी प्रार्थनाएं हैं।

हमारी प्रार्थनाएं हमारे बंधन को और मजबूत करने वाली हैं। हमारी प्रार्थनाएं हमारे संसार को और गहरा करने वाली हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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