मंगलवार, 3 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 10

 आभिजात्‍य का फूल


अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।

गन्‍धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:।। 26।।

उच्चै: श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोदृभवम्।

ऐरावत गजेन्द्राणां नराणां च नराधियम्।। 27।।


और सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देवर्षियों में नारद मुनि तथा गंधर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूं। और हे अर्जुन तू घोडों में अमृत से उत्पन्‍न होने वाला उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा और हाथियों में ऐरावत नामक हाथी तथा मनुष्यों में राजा मेरे को ही जान।


और सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि तथा गंधर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल हूं।

एक तीसरे द्वार से कृष्ण और प्रतीकों का भी उपयोग करते हैं, वृक्षों में पीपल!

पीपल बहुत विशेष वृक्ष है। हिंदुओं की मान्यता के अनुसार ही नहीं, वनस्पतिशास्त्र के अनुसार भी। और वनस्पतिशास्त्र के अनुसार ही नहीं, अब तो मनोविज्ञान के अनुसार भी। सारे वृक्ष रात्रि में कार्बन डाइआक्साइड छोड़ते हैं, सिर्फ पीपल को छोड्कर। पीपल भर रात में कार्बन डाइआक्साइड नहीं छोड़ता है।

इसलिए किसी भी वृक्ष के नीचे रात रुकना हानिकर है, सिर्फ पीपल को छोड्कर। किसी भी वृक्ष के नीचे रात रुकने का अर्थ घातक हो सकता है। कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ जाए, तो मृत्यु भी घटित हो सकती है। इसलिए रात्रि वृक्षों के नीचे रहने की मनाही है। लेकिन पीपल के वृक्ष के नीचे रात भी रहा जा सकता है। पीपल इस अर्थ में अनूठा है। चौबीस घंटे उससे जीवन निःसृत होता है।

मनोविज्ञान के हिसाब से अब एक बहुत अनूठी बात का पता चला है। मनसविद और शरीरशास्त्री दोनों ही निरंतर इस खोज में रहे हैं कि मनुष्य की चेतना का केंद्र कहां है। शरीर में सारी ग्रंथियों की खोज बीन की गई है। मस्तिष्क में जिन ग्रंथियों के पास चेतना की निकटता मालूम पड़ती है, उन ग्रंथियों में जो रसस्राव है, बहुत चकित करने वाली बात है कि मस्तिष्क में जिस कारण बोध और चेतना निर्मित होती है, या जिसके अभाव में आदमी बेहोश हो जाता है, उस रासायनिक तत्व की सर्वाधिक उपलब्धि पीपल वृक्ष में है। मनुष्य के भीतर जो बुद्धि है, उस बुद्धि के प्रकट होने के लिए जिस रासायनिक प्रक्रिया की जरूरत है और जिन रासायनिक तत्वों की मस्तिष्क में जरूरत है, उनकी सर्वाधिक मात्रा पीपल में उपलब्ध है।  

बुद्ध का बुद्धत्व जिस वृक्ष के नीचे हुआ— वट—वृक्ष, वह पीपल की जाति का ही वृक्ष है—उस वृक्ष के नीचे बुद्ध का बुद्धत्व घटित होना, किसी गहरे अर्थ में वृक्ष से भी संबंधित हो सकता है। क्योंकि चैतन्य की प्रक्रिया जिस रासायनिक संभावना से बढ़ती है, वह वट या पीपल, उस तरह के वृक्षों में सर्वाधिक है।

तो बोधि—वृक्ष, सिर्फ बुद्ध के नीचे बैठने से बोधि—वृक्ष कहलाए, ऐसा नहीं। बोधि—वृक्ष सारे वृक्षों में सर्वाधिक बुद्धि की संभावना वाला वृक्ष भी है।

कृष्ण कहते हैं, वृक्षों में मैं पीपल हूं।

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर हम परमात्मा की खोज करने जाएं वृक्षों में भी, तो जहां भी बुद्धिमत्ता की छोटी—सी किरण हो, उसी से हमें खोज करनी पड़ेगी। जहां भी बुद्धिमत्ता है, वहीं ईश्वर है। अगर वृक्ष में भी बुद्धिमत्ता की कोई किरण है, तो वहीं ईश्वर है।

वर्षों तक विज्ञान ऐसा सोचता था कि बुद्धि केवल आदमी में है, लेकिन वह बात भ्रांत सिद्ध हुई। बुद्धि पशुओं में भी है। उसकी मात्रा भिन्न होगी, उसका ढंग और होगा। उसे हम न समझ पाते हों, यह भी हो सकता है, क्योंकि हमसे पशुओं की बुद्धि का कोई संवाद नहीं है। लेकिन अब तो विज्ञान यह भी स्वीकार करता है कि पौधों में भी बुद्धि है। और पौधों के पास भी स्मृति है, मेमोरी है। और पौधे भी स्मृति को संरक्षित रखते हैं। शायद शीघ्र ही हम ये सारे रास्ते खोज लेंगे, जिनसे पौधों की स्मृति को भी खोला जा सके।

तो बोधि—वृक्ष के नीचे अगर बुद्ध को   ज्ञान उत्पन्न हुआ हो, तो इस बोधि—वृक्ष को बुद्ध के इस ज्ञान के होने की घटना की भी स्मृति है। और वह वृक्ष तो अब तक बचाया जा सका है। बोधि—वृक्ष, जिसके नीच बुद्ध को ज्ञान हुआ, अब तक सुरक्षित है। क्या उस वृक्ष के अंतस्तल में, बुद्ध के जीवन में जो घटना घटी उस वृक्ष के नीचे, वह जो महाप्रकाश हुआ, उसकी कोई स्मृति संरक्षित है?

अब वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्षों की भी, पौधों की भी स्मृति है। उनका भी बोध है और उनकी भी संवेदनशीलता है। इतना ही नहीं, वे कहते हैं...। और इस पर अब काफी प्रयोग किए जा चुके हैं, रूस में, अमेरिका में, दोनों जगह। अब ऐसे यंत्र भी निर्मित हुए हैं, जो यह बता सकें कि वृक्ष की भावदशा क्या है।

जैसे आप बैठे हों और अचानक एक आदमी छुरा लेकर आपके सिर पर खड़ा हो जाए, आप भयभीत हो जाएंगे। आपके रोएं—रोएं में भय का संचार हो जाएगा। तो अब वैज्ञानिक यंत्र उपलब्ध हैं, जो आपके पास लगे होंगे, वे तत्काल खबर दे देंगे कि आप भय से कांप रहे हैं। आपके भीतर भय दौड़ रहा है। क्योंकि जब आपके भीतर भय दौड़ता है, तो आपके शरीर की विद्युत, आपके शरीर की बिजली, एक खास ढंग से कंपित होने लगती है। वह कंपन पास के विद्युत यंत्रों में पकडा जा सकता है। जब आप प्रेम से भरे होते हैं, तब भी आपके भीतर दूसरे तरह के कंपन होते हैं। जब आप आनंद से भरे होते हैं, तो तीसरे तरह के कंपन होते हैं।

यह आश्चर्य की बात है, अचानक ही यह घटना घट गई। अचानक ही, एक वैज्ञानिक को ऐसे ही खयाल आया कि आदमी तो कांप जाता है, क्या पशु भी इसी तरह, उनके भीतर भी कुछ इसी तरह की स्थिति बनती होगी? तो उसने पशुओं पर प्रयोग किए। पशु भी इसी तरह भयभीत होते हैं, प्रेम से भरते हैं, क्रोध से भरते हैं। उसे खयाल आया, क्या पौधे में भी यह संभव होगा?

तो उसने अपने कमरे में लाकर एक गमला रखा पौधे का, छुरा उठाकर आया पौधे के पास कि पौधे को अब काटे, तो पता चले कि पौधे को कटते वक्त भीतर क्या होता है। लेकिन वह चकित हुआ, जब वह छुरा पास लाया, तभी उसके यंत्र ने बताया कि पौधे के प्राण भीतर वैसे ही भय से कंप रहे हैं, जैसे आदमी के प्राण भय से कंपते हैं। छुरा मारा नहीं है अभी। अभी सिर्फ छुरा लेकर वह खड़ा है। तब तो स्वीकार करना पड़ेगा कि पौधे के पास भी हमारे जैसी ही संवेदनशीलता, हमारे ही जैसी आत्मा है।

और भी आकस्मिक रूप से एक घटना घटी कि वह जिस पौधे के ऊपर छुरा लेकर खड़ा था, उसके पास रखे दूसरे पौधे में भी भय का संचार हो गया। और तब तो उसने बहुत—से प्रयोग किए। और उसने पाया कि अगर आप एक पौधे को भी जाकर बगीचे में नुकसान पहुंचाते हैं, तो आपके चारों तरफ जितने पौधे आस—पास होते हैं, वे सब भी दुखी और पीड़ित हो जाते हैं; वह पौधा तो होता ही है।

तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि पौधे की संवेदनशीलता शायद आदमी की संवेदनशीलता से भी ज्यादा शुद्ध है। क्योंकि आपके पास में कोई मारा जा रहा हो, तो जरूरी नहीं है कि आप दुखी हों; खुश भी हो सकते हैं, सुखी भी हो सकते हैं। लेकिन उस वैज्ञानिक के प्रयोगों में ऐसा कभी उसने नहीं पाया कि एक पौधे को काटा जा रहा हो, या काटे जाने की स्थिति बनाई जा रही हो, तो पास का कोई भी पौधा प्रसन्न हुआ हो। वे सभी एक साथ दुखी हो जाते हैं

आदमी में ऐसा पाना मुश्किल है। अगर हिंदू मारा जा रहा हो, तो मुसलमान खुश हो सकता है। मुसलमान मारा जा रहा हो, हिंदू खुश हो सकता है। मित्र मारा जा रहा हो, तो दुख होता है, दुश्मन मारा जा रहा हो, तो हम प्रसन्न भी हो सकते हैं। उस वैज्ञानिक के प्रयोगों से यह पता चला है कि पौधों में ऐसा दुर्भाव नहीं है, ऐसी ईर्ष्या और ऐसी शत्रुता—मित्रता का विभाजन नहीं है।

यह पूरा जीवन ही आत्मा से व्याप्त है। हम पहचान पाते हों, न पहचान पाते हों; हम समझ पाते हों, न समझ पाते हों; क्योंकि हमारी समझ की बड़ी छोटी—सी सीमा है। आदमी की समझ आदमी के बाहर काम नहीं पड़ती। सच तो यह है कि एक आदमी की समझ भी दूसरे आदमी के काम नहीं पड़ती। और एक आदमी की समझ भी दूसरे आदमी को समझने में असमर्थ हो जाती है।

दूसरे तक भी पहुंचना मुश्किल होता है। आपको मैं खुश देखता हूं तो भी मैं आपकी खुशी नहीं समझ पाता कि आपके भीतर क्या हो रहा है। आपकी मुस्कुराहट देखता हूं? आपके चेहरे पर आ गई झलक देखता हूं लेकिन आपके भीतर कौन—सा सुख घटित हो रहा है, कैसे सुख की तरंग आपके भीतर बह रही है, उसका मैं कोई अनुभव नहीं कर पाता, अनुमान लगाता हूं। वह अनुमान झूठा भी हो सकता है। क्योंकि आप अभिनय कर रहे हों, यह भी हो सकता है।

हममें से अधिक लोग अभिनय कर रहे हैं। उससे बड़ी जटिलता पैदा होती है। हर आदमी को अपने दुख का पता होता है और दूसरे आदमी की झूठी हंसियों का पता होता है, झूठी मुस्कुराहटों का। तो हर आदमी सोचता है, मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं। सारे लोग कितने प्रसन्न मालूम हो रहे हैं! हर आदमी सोचता है, सारे लोग प्रसन्न हैं, सारी दुनिया खुश मालूम होती है, मैं ही एक दुखी हूं मैं ही एक परेशान हूं! यह परमात्मा मुझसे ही नाराज क्यों है!

उसे पता नहीं कि वह भी जब दूसरों के सामने मुस्कुराता है, जब सुबह उससे कोई रास्ते पर पूछता है कि कैसे हो, तो वह कहता है, बहुत अच्छा हूं मजे में हूं, तब उसे पता भी नहीं कि भीतर उसके न कोई मजा होता है, न बहुत अच्छे की कोई खबर होती है, लेकिन उस दूसरे आदमी को वहम पैदा होगा कि बहुत मजे में है, बहुत अच्छा है। यह औपचारिक वक्तव्य था।

हमारे चेहरे औपचारिक हैं, फार्मल हैं, दूसरों को दिखाने के लिए हैं। भीतर वैसी बात नहीं है। हमारा दुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो। हमारा सुख भी जरूरी नहीं कि सच्चा हो। लेकिन हम दूसरों के चेहरे ही देख सकते हैं, उनकी आत्मा को नहीं देख पाते। हम अंदाज लगा सकते हैं कि ऐसा ही हमें होता है। किसी आदमी की आख से आंसू गिर रहे हों, तो हम अनुमान लगाते हैं, इनफरेंस करते हैं कि जब दुख होता है, तो मेरे आंसू बहते हैं। उसको भी दुख हो रहा होगा। यह जरूरी नहीं है। यह आवश्यक नहीं है। यह अनुमान है।

एक आदमी की समझ भी दूसरे के प्राणों में प्रवेश नहीं कर पाती दूसरे आदमी की, जो कि ठीक हमारे जैसा ही है। तो अगर आदमी की समझ पशुओं में प्रवेश न कर पाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। इसलिए दुनिया के बहुत—से धर्मों ने पशुओं में आत्मा ही नहीं मानी, इसलिए पशुओं को काटने में कोई अड़चन नहीं पाई। समझा कि पशु शायद आदमी के लिए ही बने हैं कि उनको काटो; वे आदमी का भोजन हैं! उसका कुल कारण इतना था कि पशुओं के पास आत्मा के होने का जो ढंग है, उससे हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ पाता। हमारे और पशुओं के बीच कोई संवाद नहीं हो पाता।। हमारी और उनकी भाषा कहीं मिल नहीं पाती। उनके संकेत हमारी समझ में नहीं आते। और इसलिए स्वभावत:, पशु हमारे लिए यंत्रवत मालूम होता है।

फिर पौधे तो और भी दूर हो जाते हैं। इसलिए पौधों को तो कोई कठिनाई हम सोच ही नहीं सकते कि उनको पीड़ा होती होगी, कि दुख होता होगा, कि सुख होता होगा, कि वे भी कभी आनंदित होकर समाधिस्थ होते होंगे, कि कभी वे भी नाचते होंगे किसी खुशी में, और कभी उनके प्राणों से भी आंसू बहते होंगे। उनके आंसू का ढंग हमें पता नहीं, उनकी मुस्कुराहट हमें पता नहीं, उनकी भाषा का कोई संकेत भी हमारे पास नहीं है।

कृष्‍ण कहते हैं, वृक्षों में मैं पीपल हूं।

आपको तो अंदाज नहीं होगा, लेकिन जो लोग— बहुत कम लोग जमीन पर वृक्षों के साथ मेहनत किए हैं—जिन्होंने पता लगाने की कोशिश की कि वृक्षों में सबसे ज्यादा प्रतिभा कहां है। तो उन सबके नतीजे पीपल जाति के वृक्षों के करीब आते हैं। पीपल बहुत प्रतिभावान, बहुत प्रज्ञावान वृक्ष है। वृक्षों में प्रज्ञा सर्वाधिक उसमें प्रकट हुई है।

इसलिए पीपल की पूजा ऐसे ही आकस्मिक शुरू नहीं हो गई थी।। वह पीपल के भीतर जो प्रज्ञा की संभावना है, उसके कारण शुरू हो गई थी।

कई बार जब विज्ञान खो जाते हैं, तो हमारे हाथ में अंधविश्वास रह जाते हैं। आज भी हम पीपल के नीचे अपने परमात्मा को स्थापित करते हैं, मूर्ति को निर्मित करते हैं। आज भी हम पीपल की पूजा करते हैं, आज भी पीपल को नमस्कार कर लेते हैं, उसको सिर झुका लेते हैं। लेकिन शायद हमें पता कुछ भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं! और अगर पता न हो, तो हमारे नमस्कार में कोई भी अर्थ नहीं रह जाता।

पीपल को नमस्कार का एक ही अर्थ है कि प्रज्ञा कहीं भी हो, नमस्कार के योग्य है। पीपल में हो तो भी।

लेकिन हम तो अगर मनुष्य भी हमारे पड़ोस में प्रज्ञावान हो, तो उसको भी नमस्कार करने में पीड़ा अनुभव करेंगे। और पीपल को हम नमस्कार कर लेंगे! और अगर पड़ोसी में भी प्रज्ञा हो, उसमें भी ज्ञान का जन्म हुआ हो, तो भी हमारा सिर उसके सामने नहीं झुकेगा। तो साफ है कि हमें पता नहीं कि पीपल को नमस्कार करते वक्त हम क्या कर रहे हैं। पीपल को नमस्कार करते वक्त कौन—सा विज्ञान काम कर रहा है, कौन—सा स्मरण काम कर रहा है, उसका हमें कोई भी बोध नहीं है।

अगर वृक्षों में भी प्रज्ञा स्थापित होती हो, अगर उनमें भी कहीं बुद्धि का फूल खिलता हो, तो भी हमारा सिर झुकेगा, यह भाव है। लेकिन आदमी में अगर प्रज्ञा का फूल खिले, तो हमारा तो सिर वहां भी झुकने को राजी नहीं होता। अहंकार बाधा डालता है।

और मजे की बात यह है कि जो आदमी पीपल के सामने आसानी से झुक सकता है, वह आदमी के सामने आसानी से न झुक सकेगा। क्योंकि पीपल के सामने झुकने में ऐसा हमें खयाल ही नहीं होता है कि हम किसी के सामने झुक रहे हैं। आदमी के सामने झुकने में पता चलता है, हम किसी के सामने झुक रहे हैं।

इसलिए पत्थर की मूर्ति के सामने सिर रख देना आसान है, जिंदा आदमी के सामने सिर रखना बहुत कठिन है। इसीलिए जब गुरु मर जाते हैं, तो मूल्यवान हो जाते हैं। जब जिंदा होते हैं, तब मूल्यवान नहीं होते। क्राइस्ट मर जाएं, तो ईश्वर हो जाते हैं। जिंदा हों, तो सूली पर लटकाए जाते हैं! बुद्ध जिंदा हों, तो हम पत्थर मारते हैं। और मर जाएं, तो हम उनकी इतनी प्रतिमाएं बनाते हैं कि सारी पृथ्वी को उनकी प्रतिमाओं से भर देते हैं! क्या होगा कारण? क्या होगा राज इसके भीतर? 




यह वर्ग महावीर और बुद्ध के पास इकट्ठा कभी भी नहीं होगा। यह वर्ग कृष्‍ण के पास नहीं जा सकता। क्योंकि कृष्‍ण कहेंगे, सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं वज— सब छोड़, सब धर्म—वर्म छोड़ और मेरी शरण आ। यह वर्ग कहेगा, क्या आप कह रहे हैं? आपकी शरण और हम आएं! आपमें ऐसा क्या है? आप हैं कौन?

लेकिन जब कोई कहता है, मनुष्य आखिरी सत्य है, तो उसका अर्थ है कि अब प्रगति का कोई उपाय न रहा। जब कोई कहता है, मनुष्य आखिरी सत्य है, तो उसका अर्थ है कि अब ऊपर आंखें उठाने की कोई जगह न रही। उसका अर्थ है कि अब हम जो हैं, अब हम वही होने को आबद्ध हैं। अब इसमें कोई क्रांति, इसमें कोई विस्फोट, इसके पार जाने का अब कोई उपाय नहीं है।

अपने से श्रेष्ठतर की तरफ जो आंख है, वह पार जाने का उपाय है, द्वार है। और जिस दिन आदमी स्वयं के पार जाना बंद कर देता है, उसी दिन आदमी सड़ जाता है, नष्ट हो जाता है।

ये हिंदू बहुत अदभुत लोग थे एक अर्थ में, कि अगर पीपल में भी उन्हें कोई पार जाने वाली चीज दिखाई पड़ी, प्रज्ञा की कोई झलक मिली, कोई लौ, कोई छोटा—सा दीया वहां भी दिखाई पड़ा, तो उन्होंने वहां भी अपना सिर जमीन पर रख दिया।

कोई जरूरत नहीं है आदमी को पीपल के सामने झुकने की। क्या है जरूरत? और पीपल की क्या है सामर्थ्य कि आदमी को अपने सामने झुका ले! आदमी चाहे तो काटे और सारे पीपल पृथ्वी से अलग कर दे। लेकिन असहाय पीपल के सामने भी, जिसको काटकर हटाया जा सकता है, जब आदमी ने सिर झुकाया, तो कुछ गहरा कारण था। और वह गहरा कारण यह था कि समस्त वृक्षों में पीपल के पास एक अपनी तरह की बुद्धिमत्ता है। उस बुद्धिमत्ता से संबंध भी जोड़ा जा सकता है।

यूनानी चिकित्सा के जन्मदाता लुकमान ने एक लाख वनस्पतियों के गुणधर्म लिखे हैं। बड़ी चकित करने वाली बात है। क्योंकि लुकमान के पास न तो कोई प्रयोगशाला थी, न कोई रासायनिक उपाय थे, न यंत्र थे, जिनके माध्यम से एक लाख वनस्पतियों के गुणधर्म जाने जा सकें। लुकमान तो गांव—गांव भटकने वाला फकीर था। एक झोली के सिवाय उसके पास कुछ भी न था, जिसमें उसका भिक्षा का पात्र होता। इस लुकमान को एक लाख वनस्पतियों के गुणधर्मों का पता चलना, बड़ी हैरानी की बात है। और इसके पहले किसी को भी पता न था, इसलिए किसी दूसरे से पता चला हो, इसका उपाय नहीं है।

लुकमान ने खुद जो कहा है, वह भरोसे की बात नहीं थी। लेकिन अब उस पर भरोसा आ सकता है। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं कि हमें जल्दी गैर— भरोसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि हो सकता है, बाद की खोज—बीन हमारे संदेहों को गिरा दे।

लुकमान ने कहा है कि मैंने तो पौधों से ही पूछ लिया कि तुम्हारा गुणधर्म क्या है! और तो मेरे पास कोई उपाय न था। मैं तो पौधों के पास ही आंख बंद करके ध्यानस्थ होकर बैठ जाता था। उसी से पूछ लेता था कि तू किस बीमारी में काम आ सकता है, तू मुझे बता दे! पौधा जो बता देता, वह मैं लिख लेता था। ऐसे मैंने एक लाख पौधों से पूछ लिया।

और बड़ी हैरानी की बात है कि लुकमान ने जिस पौधे का जो गुणधर्म कहा है, हमारी श्रेष्ठतम विज्ञान की प्रक्रिया भी उससे भिन्न गुणधर्म नहीं बता पाती है। वही गुणधर्म उस पौधे के हैं! उसी बीमारी पर वह काम आता है!

तो इतिहासविदों को, चिकित्साशास्त्रियो को, सभी को हैरानी रही है कि कोई कारण तो दिखाई नहीं पड़ता है कि लुकमान को पता कैसे चला। लेकिन लुकमान जो कारण बताता है, वह भी मानने योग्य मालूम नहीं पड़ता। पौधे क्या बताएंगे!


कृष्ण का यह कहना कि वनस्पतियों में मैं पीपल हूं सिर्फ प्रतीक ही नहीं है; बहुत उदबोधक है।

दूसरा प्रतीक कृष्ण कहते हैं, देवर्षियों में मैं नारद मुनि।

नारद एक अनूठा चरित्र हैं। शायद विश्व की किसी भी माइथोलाजी में नारद जैसा चरित्र नहीं है। अगर नारद को हम समझना चाहें, तो दों—तीन बातें समझें, तो खयाल में आए कि कृष्‍ण को नारद से अपना संबंध जोड्ने की क्या जरूरत पड़ी होगी!

नारद पहली बात तो गंभीर व्यक्तित्व नहीं है, गैर—गंभीर व्यक्तित्व है। नारद के व्यक्तित्व में गंभीरता बिलकुल नहीं है। जीवन को एक खेल और नाटक से ज्यादा समझने की वृत्ति नहीं है। और जीवन को एक मनोरंजन, एक उत्सव, और वह भी बहुत गैर—गंभीर ढंग से।

तो नारद के साथ कृष्ण का यह कहना कि देवर्षियो में मैं नारद हूं कुछ बातों की सूचना है। एक तो यह सूचना है कि कृष्ण, जो गंभीर ऋषि हैं, उनके साथ अपने को नहीं जोड़ेंगे। नहीं जोड्ने का कारण है। गंभीरता भी एक तरह की बीमारी है। सीरियसनेस एक तरह की बीमारी है। और गहरी बीमारी है।

गंभीर आदमी न तो हंस सकता है, न नाच सकता है, न जी सकता है। गंभीर आदमी जीता है मरा—मरा। गंभीर आदमी की जिंदगी एक क्रमिक मौत है। गंभीर आदमी होता है आत्मघाती, सुसाइडल। गंभीरता उसके ऊपर होती है, जैसे मरघट उसके चारों तरफ हो, जिंदगी नहीं। और गंभीर आदमी न तो प्रार्थना कर सकता है, न पूजा कर सकता है। क्योंकि पूजा और प्रार्थना, सब जीवन के उत्सव से संबंधित हैं, जीवन की गंभीरता से नहीं।

गंभीर ऋषि हुए हैं। लेकिन जो गंभीर ऋषि है, उसका अर्थ यह हुआ कि अभी जीवन के आधे हिस्से से ही उसने अपने को एक माना है, शेष आधे हिस्से से नहीं। जीवन की समग्रता से उसका संबंध नहीं है। जीवन के अधूरे हिस्से से उसका संबंध है। जो ठीक है, उससे उसका संबंध है; जो साफ—सुथरा है, उससे उसका संबंध है; जो उपयोगी है, उससे उसका संबंध है। लेकिन जो गैर—उपयोगी है, जो मात्र खेल है, जो मात्र मनोरंजन है, उससे उसका संबंध नहीं है। हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि झूठ बोल सके, लेकिन नारद बोल सकते हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि किसी को उलझाए, लेकिन नारद उलझा सकते हैं। हम सोच भी नहीं सकते कि ऋषि को इसमें कुछ रस आए, उलझाने में, लेकिन नारद को रस है। तो जो गंभीर हैं, वे तो नारद को ऋषि तक मानने को राजी न होंगे।

नारद भी उसी तरह का व्यक्तित्व हैं, दूसरे पहलू से। नारद के लिए जगत एक मंच है, एक नाटक है। और कृष्ण का नारद को चुनना, कि देवर्षियो में मैं नारद हूं कुछ बातों की सूचना देता है।

एक, कि जगत को एक खेल और एक नाटक से जो ज्यादा समझता है, वह आदमी धार्मिक नहीं है। यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंकि धार्मिक आदमी जगत को बड़ी गंभीरता से लेता है, बड़ी गंभीरता से! धार्मिक आदमी जगत के प्रति बड़ा गणित का हिसाब रखता है, कैलकुलेटिग होता है। धार्मिक आदमी मजाक में भी असत्य का उपयोग नहीं कर सकता। और धार्मिक आदमी एक— एक कदम सम्हलकर रखता है कि कहीं कोई भूल—चूक न हो जाए। धार्मिक आदमी हंसता है, तो भी सोचता है, हंसना कि नहीं हंसना!


तो बीमारों और विक्षिप्तों के समूह कहीं न कहीं तो इकट्ठे होंगे। और धर्म उनके लिए बहुत सुगम उपाय है। क्योंकि धर्म के नाम पर उदास होना, एक रेशनलाइजेशन बन जाता है, एक बुद्धियुक्त बात बन जाती है। फिर उनकी उदासी को आप बीमारी नहीं कह सकते, उनकी उदासी तपश्चर्या हो जाती है। और उनके दुख को फिर आप यह नहीं कह सकते कि तुम नाहक दुखी हो। उनका दुख एक मेटाफिजिक्स, एक दर्शनशास्त्र बन जाता है। वे दुखी यूं ही नहीं हैं, बल्कि वे दुखी लोग इकट्ठे होकर सभी हंसने वालों को पापी कहेंगे।

और हालत यह है— यह सोचने जैसी है— कि दुखी लोग हमेशा मुखर होते हैं। पीड़ित और परेशान लोग बहुत बकवासी होते हैं। वे काफी बोलने वाले लोग होते हैं। वे अपने दुख को मुखर कर देते हैं, और वे दुख के आस—पास दर्शनशास्त्र खड़े कर लेते हैं। और जो हंसता है, उसे वे कंडेम, उसे वे निंदा कर सकते हैं।

अगर हम दुनिया के धर्मों का इतिहास देखें, तो बड़ी दुर्घटना मालूम पड़ती है। महावीर बहुत प्रसन्न आदमी मालूम पड़ते हैं। उनके रोएं—रोएं से प्रसन्नता की झलक है। उनके रोएं—रोएं से जो हवा उठती है, वह एक गहरे आनंद की है। लेकिन उनके आस—पास धीरे— धीरे जो वर्ग इकट्ठा होता है, वह बिलकुल ही रुग्ण है।

कृष्‍ण तो बांसुरी बजाते हुए मालूम पड़ते हैं। नाचते हुए मालूम पड़ते हैं। जिंदगी से उन्हें प्रेम है। जिंदगी एक उत्सव है। और जिंदगी अपने आप में एक आनंदपूर्ण खेल है। लेकिन बांसुरी बजाने वाले आदमी के आस—पास भी ऐसे लोग इकट्ठे होने लगते हैं, जो उदास हैं, रुग्ण हैं, जिंदगी से थके हैं, परेशान हैं। धीरे— धीरे ये लोग सख्ती से संगठन निर्मित कर लेते हैं। और सारे धर्म पैदा होते हैं आनंद से, और सारे धर्म दुखी लोगों के हाथ में पड़ जाते हैं।

धर्म जब भी पैदा होता है, तो किसी विराट आनंद से पैदा होता है; और जब भी धर्म संगठित होता है, तो गलत लोग उसे संगठित कर लेते हैं। असल में आनंदित आदमी तो संगठित होना भी नहीं चाहता। आनंदित आदमी तो अकेला भी काफी होता है। लेकिन दुखी आदमी समूह इकट्ठे करने लगते हैं। उदास आदमी समूह इकट्ठे करने लगते हैं।

कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत विचारने जैसा है कि वे कहते हैं कि मैं देवर्षियों में नारद हूं।

जिंदगी एक नाटक है। और वही है ऋषि, जो जिंदगी की पूरी नाटकीयता को समझ ले। जीवन एक खेल है, एक लीला है। उसे जो गंभीरता से लेता है, वह बीमार है। जिंदगी को जो हल्केपन से ले ले, खेल से ज्यादा मूल्य का न माने..।

इसे हम ऐसा समझें तो आसान हो जाए। एक आदमी धन इकट्ठा करता है, बड़ी गंभीरता से। एक—एक पाई—पाई जोड़ता है। वहीं जिंदगी लगी है उसकी। सभी कुछ यही है। अगर वह एक ढेर लगा लेगा धन का, तो उपलब्धि हो जाएगी जीवन की। बड़ी गंभीरता से धन इकट्ठा करता है। फिर पाता है कि सब व्यर्थ हो गया। जिंदगी तो हाथ से चली गई, ढेर रह गया मिट्टी का। तब वह इतनी ही गंभीरता से इसका त्याग भी करता है। तब वह इसे छोड्कर भागता है।


नारद इस जिंदगी में इन दोनों तरह के आदमियों से अलग आदमी हैं। दोनों से अलग आदमी हैं। जिंदगी कोई गंभीर बात नहीं है। जैसे कोई रामलीला के मंच पर राम बन गया हो, और रावण बन गया हो।

तो रावण भी कोई रामलीला के मंच पर ऐसा नहीं समझता कि मैं कोई पाप कर रहा हूं। पाप एक ही है कि अगर वह खेल ठीक से न खेल पाए; अगर अभिनय ठीक से न कर पाए, तो एक ही पाप है। रावण होने में कोई पाप नहीं है। और न राम ही यह समझते हैं कि हम कोई बड़ा भारी पुण्य कर रहे हैं। एक ही पुण्य है कि अभिनय कुशलता से हो जाए। मंच के बाहर उतरकर बात समाप्त हो जाती है। इस झगड़े को घर तक ले जाने की कोई जरूरत भी नहीं पड़ती। मंच के पीछे भी ले जाने की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी को लेकिन हम गंभीरता से ले लेते हैं।

जिंदगी को जो अभिनय की तरह ले पाए, उसने गहन  सत्य को जान लिया। फिर अतियों में चुनाव नहीं होता, फिर आदमी मध्य में चल सकता है। फिर उसे एक पागलपन छोड्कर दूसरे पागलपन में उतरने की जरूरत नहीं रहती। फिर वह दोनों पागलपन छोड़ सकता है, या दोनों पागलपन के बीच हंसते हुए गुजर सकता है।

नारद इस जिंदगी को एक खेल समझते हैं, एक मंच से ज्यादा नहीं। उसका कोई आत्यंतिक मूल्य नहीं है, कोई अंतिम मूल्य नहीं है। इसलिए नारद के लिए अभिनय है सब कुछ। कृष्‍ण के लिए भी वही बात है। कृष्‍ण के लिए भी जीवन एक अभिनय है। कृष्ण के लिए भी जीवन कोई गंभीर बात नहीं है।

इसीलिए हमने इस मुल्क में कृष्‍ण को पूर्णावतार कहा। राम को हम पूर्णावतार नहीं कह सके। कारण है। राम थोड़े गंभीर हैं। मर्यादा है, तो गंभीरता होगी। गैर—गंभीर आदमी में मर्यादा नहीं हो सकती। गैर—गंभीर आदमी मर्यादा—तोड़क होगा। इसलिए राम को हमने अवतार कहा, लेकिन पूर्ण अवतार हम न कह सके। इसलिए हिंदू चिंतन की समझ बड़ी गहरी है। हमने अवतार कहा, हमने श्रेष्ठतम जगह पर राम को रखा। लेकिन फिर भी हमने कहा, वह अंश ही अवतार हैं।

पूर्ण अवतार तो हम कृष्ण को ही कह सके, क्योंकि कोई मर्यादा नहीं है। कृष्ण से ज्यादा मर्यादा—मुक्त व्यक्तित्व पृथ्वी पर हुआ ही नहीं। और अब शायद कभी हो भी न सके। क्योंकि उतना मर्यादा— मुक्त व्यक्ति पैदा हो, इसके लिए एक बड़ा मर्यादा—मुक्त समाज चाहिए। नहीं तो आप पहचान ही नहीं सकेंगे।

आप भला कहते हों कि हम कृष्‍ण के भक्त हैं। अभी चौपाटी पर खड़े होकर बांसुरी वगैरह बजाने लगें और दो चार सखियां नाचने लगें, आप पुलिस में खबर कर दोगे, कि यह आदमी भ्रष्ट किए दे रहा है! यह तो सारा आचरण समाप्त हो जाएगा। और यह तो नीति— नियम का क्या होगा? फासला लंबा है अब, इसलिए आपको अड्चन नहीं होती।

लेकिन जिन लोगों के बीच कृष्‍ण पैदा हुए थे, वे लोग भी बहुत अदभुत रहे होंगे। इस आदमी में भी वे कुछ देख सके। इस मर्यादा— मुक्त, मर्यादा—शून्य व्यक्तित्व में भी उन्हें कोई झलक मिल सकी। वे लोग भी साधारण न रहे होंगे।

कृष्‍ण को हमने कहा पूर्ण अवतार, इसलिए कि जीवन को उसकी समग्रता में उन्होंने किया है स्वीकार—समग्रता में। किसी चीज का कोई अस्वीकार नहीं है। जिसको हम आमतौर से बुरा कहें, कृष्ण के लिए उसका भी कोई अस्वीकार नहीं है।

इसलिए जो लोग कृष्‍ण के जीवन में कसिस्टेंसी खोजते हैं, संगति खोजते हैं, वे बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। कृष्‍ण जैसा आदमी होना तो कठिन है— कृष्‍ण को  पूरा का पूरा स्वीकार करने में भी हमारी हिम्मत नहीं होती।

अगर हम सूरदास से पूछें, तो वे कृष्‍ण के बालपन को ही स्वीकार करते हैं। बाद की अवस्था में सूरदास जरा पीछे हट जाते हैं, झिझक जाते हैं। क्योंकि अगर बच्चा है और स्त्रियों से छेड़खानी कर रहा है, तो हम बर्दाश्त कर सकते हैं; समझ में आ जाता है; छोड़ा जा सकता है। लेकिन जवान ? तो सूरदास को भी चिंता होती है कि यह बात तो थोड़ी आगे हो जाएगी।

केशव ने हिम्मत की है कृष्‍ण के युवा व्यक्तित्व को पकड़ने की, लेकिन लोग केशव को गाली देते हैं। और कृष्‍ण के भक्त कहते हैं, केशव ने सब खराब कर डाला। लोग तो यह कहते हैं कि केशव ने अपने ही विचारों को कृष्ण में डाल दिया। यह बात सच नहीं है। यह बात सच नहीं है। केशव ने तो कृष्‍ण के उस युवा व्यक्तित्व को उभारा है, जो सूर से बच गया। लेकिन केशव की भी तकलीफ वही है। वे भी एक ही हिस्से को, उनके युवा प्रेम की कथा को, उनके रास को ही उभार पाते हैं, बाकी हिस्से उनको भी मुश्किल हो जाते हैं।

यह महाभारत प्रतीक नहीं है। यह महाभारत वास्तविक युद्ध है। इस वास्तविक युद्ध में हिंसा हुई है। उसी हिंसा से कृष्ण भागते हुए अर्जुन को रोक रहे हैं। उसी हिंसा से डरकर अर्जुन भाग रहा है।  कृष्ण मिल गए, इसलिए सारा का सारा मामला दूसरा हुआ। पूरा इतिहास और हुआ। 

कृष्ण के साथ यह कठिनाई सदा रही है। कृष्ण ने वायदा किया था कि मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा युद्ध में, और फिर शस्त्र उठा लिया। वचन भंग हो गया! कृष्ण जैसे आदमी से हम वचन भंग की आशा नहीं करते। जब कहा था कि शस्त्र नहीं उठाएंगे, तो नहीं उठाना था। फिर शस्त्र उठा लिया! असंगत है यह आदमी!

लेकिन हमारे सोचने का ढंग गंभीर है, इसलिए मालूम पड़ती है। कृष्ण के सोचने का ढंग गैर—गंभीर है। यह खेल की बात है। इसमें बहुत गंभीर कृष्ण नहीं हैं। इसमें गंभीर होने का उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है।

यह एक संगति है! कृष्ण में ऐसी संगति न खोजी जा सकेगी। कृष्ण पल—पल असंगत हैं। अगर एक ही कोई संगति है उनमें, तो वह यह है कि वह सब असंगतियों के बीच भी एक तालमेल है। अपनी असंगतियों में वे बिलकुल संगत हैं। और किसी चीज में संगत नहीं हैं।

यह जो विराट, यह जो बहुमुखी, बहुआयामी, बहुत दिशाओं में फैला हुआ व्यक्तित्व है, इसको हमने पूर्ण कहा। राम तक को हम अपूर्ण ही कहेंगे, आंशिक कहेंगे। राम गंभीर हैं, अति गंभीर हैं। कृष्ण का यह जो गैर—गंभीर, लीलामयी व्यक्तित्व है, उसके ही प्रतीक के लिए उन्होंने देवर्षियों में नारद को चुना।

गंधर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिल मुनि हूं।

कपिल के संबंध में थोड़ी—सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। कृष्‍ण को समझना आसान होगा।

जगत में दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम है योग, और एक निष्ठा का नाम है सांख्य। यह बड़ा हैरानी का मालूम होगा, क्योंकि कृष्‍ण को हम योगेश्वर कहते हैं। यह फिर असंगत बात है। कृष्‍ण ने जो कपिल को चुना, कपिल का योग से कोई संबंध नहीं है। कपिल योग—विरोधी हैं।

दो निष्ठाएं हैं। एक है योग। योग का मानना है कि सत्य को, परमात्मा को पाना हो, तो कुछ करना पड़ेगा। कोई अभ्यास, कोई साधन, कोई साधना, कोई प्रक्रिया, कुछ क्रिया से गुजरना पड़ेगा। बिना क्रिया से गुजरे हुए उस परमात्मा तक नहीं पहुंचा जा सकता। क्योंकि आदमी है अशुद्ध, तो किसी आग से गुजरकर उसे शुद्ध होना पड़ेगा। माना कि छिपा है उसमें वह सत्य, लेकिन वह सत्य ऐसे ही है जैसे कि सोना मिट्टी से मिला हुआ पडा हो। उस मिट्टी को छानकर अलग करना पड़ेगा। जलाना पड़ेगा, सोने को आग में तपाना पड़ेगा, ताकि कचरा जल जाए और शुद्ध स्वर्ण निखर आए। कुछ करना पड़ेगा। योग का मानना है, बिना कुछ किए कुछ भी नहीं हो सकता।

सांख्य का मानना इसके बिलकुल विपरीत है। सांख्य का मानना है कि कुछ करने का सवाल ही नहीं है, मात्र जानना काफी है। सिर्फ जानना काफी है, करने का कोई सवाल नहीं है। यह कोई सोना नहीं है, जो अशुद्ध हो गया है। आदमी परमात्मा है, सिर्फ विस्मृत हो गया स्वयं को। इसे कुछ शुद्ध नहीं होना है। आदमी शुद्ध परमात्मा ही है। कोई अशुद्धि उसमें नहीं हो गई। और सांख्य का कहना है, अगर परमात्मा भी अशुद्ध हो सके, तो फिर इस दुनिया में शुद्धि का कोई उपाय नहीं है। परमात्मा का तो अर्थ ही है कि जो अशुद्ध हो ही न सके। सिर्फ विस्मरण है यह, अशुद्धि नहीं है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें। यह विस्मरण है। आप एक नशे में हैं और भूल गए हैं कि आप कौन हैं। या आप नींद में हैं और कोई ने आपको चौंकाकर उठा दिया और आपको याद न आया कि आप कौन हैं। या आप अपने को कुछ और समझ बैठे हैं और आपने अपना तादात्म्य वही बना लिया और आपको खयाल में न रहा कि आप कौन हैं। यह सिर्फ एक विस्मरण है।

सांख्य कहता है, आदमी ऐसे ही भ्रम में है। कुछ अशुद्ध नहीं हो गया है, सिर्फ पहचान खो गई। 

कपिल सांख्य की दृष्टि के आधार हैं। यह बहुत मजे की बात है कि कृष्‍ण कहें कि मैं मुनियों में कपिल मुनि हूं। कृष्‍ण भी गहरे में तो यही मानते हैं और जानते हैं कि आदमी केवल भूल गया है, मात्र भूलने की दुर्घटना हुई है।

कृष्‍ण ने ध्यान रखा है। उन्होंने कहा कि मैं कपिल मुनि हूं। आत्यंतिक सत्य तो यही है, परम सत्य तो यही है, परम दृष्टि तो यही है कि आपको कुछ भी करना नहीं है।

लेकिन हमारी भी मुसीबत है। हम इस जगत में जो भी पाते हैं, करके ही पाते हैं। धन पाना हो, तो कुछ करके पाते हैं। यश पाना हो, तो कुछ करके पाते हैं। बिना किए न तो यश मिलता है, न बिना किए धन मिलता है। विद्या—बुद्धि, कुछ भी पाते हों, करके पाते हैं। इस जगत में जो भी मिलता है, उसके लिए चलना पड़ता है, करना पड़ता है। इसलिए हमारी पूरी की पूरी समझ करने से बंध जाती है। हम यह सोच ही नहीं सकते कि कोई ऐसी चीज भी हो सकती है, जो न करें और मिल जाए। कुछ न करें, शांत बैठ जाएं, और मिल जाए। कुछ न करें, मौन हो जाएं, और मिल जाए।

लेकिन ऐसी भी एक चीज है और उसी चीज का नाम धर्म है— आत्मा कहें, भगवत्ता कहें, जो नाम देना चाहें। एक सत्य ऐसा भी है, जो आपके करने से नहीं मिलता।

और ध्यान रहे, जो आपके करने से मिलेगा, वह आपसे छोटा होगा। आप करके पाएंगे, वह आपसे बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए परमात्मा करने से नहीं मिल सकता। क्योंकि अगर करने से मिलता हो, तो वह भी एक कमोडिटी, तो वह भी एक चीज, वस्तु होगी, जो आपने कर ली। तिजोड़ी में जैसे और चीजें रख दी हैं लाकर, वैसे ही एक दिन परमात्मा को भी लाकर रख दिए! वह आपकी मुट्ठी की चीज होगी, अगर आपके करने से मिल जाए। क्षुद्र हो जाएगी।

एक बात तय है कि आप जो भी करेंगे, वह आपसे बड़ा नहीं हो सकता। आप जो भी करके पाएंगे, वह आपसे छोटा होगा। अगर आपको अपने से बड़े को पाना है, तो करने से मिलने वाला नहीं है, खोने से मिलेगा। अपने को खोने से मिलेगा। अपने को छोड़ने से मिलेगा। कर्ता का भाव ही छोड़ देना पड़ेगा, कर्म भी छोड़ देना पड़ेगा। चुप बैठकर, शांत बैठकर।

एक ही है तीर्थयात्रा। जब कोई सब यात्राएं बंद कर देता है— शरीर की भी और मन की भी— तब तीर्थयात्रा शुरू हो जाती है। एक ही है मार्ग उस तक पहुंचने का कि जब कोई सब मार्ग छोड़ देता है, और अपने ही भीतर ठहर जाता है। एक ही है दिशा उसकी, जब कोई सारी दस दिशाओं को छोड़ देता है, और ग्यारहवीं दिशा में भीतर ठहर जाता है, कोई यात्रा नहीं करता। यह है सांख्य। और दो ही जगत की निष्ठाएं हैं, योग और सांख्य।

कृष्‍ण कहते हैं, मैं सांख्य हूं मैं कपिल हूं। समस्त मुनियों में, सिद्धों में, मैं कपिल हूं।

सिद्ध कहते हैं उन्हें, जिन्होंने पा लिया। पाने वाले दो तरह के लोग हैं, जिन्होंने कुछ कर—कर के पाया, और जिन्होंने बिना किए पाया। कृष्ण कहते हैं, मैं वही हूं जिन्होंने बिना किए पाया। करके पाया, तो उसका अर्थ है कि बड़ा गहन अंधकार रहा होगा। बड़ा गहन अंधकार रहा होगा। बड़ा गहन अहंकार रहा होगा, इसलिए कर—करके।


सांख्य का यही अर्थ है। सांख्य का यही अर्थ है कि जो मिलेगा, वह मिला ही हुआ है। जो जानेंगे कभी हम, वह मौजूद है अभी, इसी क्षण। उसे कहीं बाहर से पाना नहीं है। वह अशुद्ध भी नहीं है कि उसे शुद्ध करना है। सिर्फ लौटकर, शांत होकर, मौन होकर, उसे देखना है।

कृष्ण कहते हैं, सिद्धों में मैं कपिल मुनि हूं।

और हे अर्जुन, घोड़ों में उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा, हाथियों में ऐरावत नामक हाथी और मनुष्यों में मैं ही सम्राट हूं।

अर्जुन जिस तरह भी समझ सके, कृष्ण हर एक कोटि में जो भी श्रेष्ठतम संभावना है, उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन एक बात कीमती समझ लेने जैसी है कि घोड़ा हो, कि हाथी हो, कि वृक्ष हो, कृष्ण के मन में कोई दुर्भाव नहीं है। कृष्‍ण को कहते हुए जरा भी ऐसा संकोच नहीं मालूम पड़ता है इसमें कि मैं घोड़ों में फलां घोडा हूं हाथियों में फलां हाथी हूं। जरा भी संकोच मालूम नहीं पड़ता। अन्यथा इसे कहने की कोई जरूरत न थी।

कृष्ण के लिए निकृष्ट और श्रेष्ठ, छोटा और बड़ा, ऐसा कुछ भी नहीं है। कृष्‍ण कहते हैं, मैं सभी के भीतर हूं। लेकिन जिस कोटि में भी आभिजात्य प्रकट होता है, जिस कोटि में भी कोई व्यक्तित्व पूरी खिलावट को उपलब्ध होता है, वहां तू मेरी प्रतीति आसानी से कर सकेगा। अगर तू घोड़ों को ही समझना चाहता हो, तो घोड़ों में भी मैं हूं। अगर तू हाथियों को समझना चाहता हो, तो हाथियों में भी मैं हूं। अगर वृक्षों को समझना चाहता हो, तो वृक्षो में भी मैं हूं। और कहां आसानी होगी तुझे जानने को, उस तरफ मैं इशारा किए देता हूं।

अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है कि मैं किस—किस भाव में आपको खोजूं? कहां—कहां खोजूं? कैसे देखूं? तो वे कहते हैं, कहीं भी। अगर घोड़े भी खड़े हों, तो वहां भी मैं मौजूद हूं। वहां भी तू देख लेना। तो मैं तुझे सूत्र दिए देता हूं। अगर हाथी खड़े हों, तो वहां भी मैं मौजूद हूं। तुझे सूत्र दिए देता हूं कि कहां तू मुझे खोज लेगा। अगर वृक्षों की पंक्ति हो, तो वहां भी मैं मौजूद हूं। तू जहां भी खोजना चाहे, मैं मौजूद हूं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां मैं नहीं हूं। लेकिन जहां भी तू मुझे खोजेगा, वहां आसानी होगी तुझे कि तू श्रेष्ठतम को देख।

ऐसा है कि एक बीज पड़ा हो यहां और एक फूल भी पड़ा हो यहां, आपको बीज दिखाई नहीं पड़ेगा, फूल दिखाई पड़ेगा। हालांकि बीज भी कल फूल बन सकता है। लेकिन बीज दिखाई नहीं पड़ेगा, फूल दिखाई पड़ेगा। बीज में भी फूल है। और हाथियों में भी कृष्‍ण वैसे ही हैं, जैसे ऐरावत में। और पौधों में भी वैसे ही हैं, जैसे पीपल में। लेकिन पीपल में देखना आसान होगा, वहां व्यक्तित्व खिला हुआ है। ऐरावत में देखना आसान होगा, वहां व्यक्तित्व खिला हुआ है। फूल जहां है, वहां पहचान आसान होगी; बीज में पहचान मुश्किल होगी। इसलिए कृष्ण गिनाते जा रहे हैं कि कहां— कहां, कहां—कहां मैं खिल गया हूं।

और ऐसा आप मत सोचना कि मनुष्यों में ही खिलावट होती है। पशुओं में भी होती है, पौधों में भी होती है। और ऐसा भी आप मत सोचना कि मनुष्यों में ही श्रेष्ठ मनुष्य और निकृष्ट मनुष्य होते हैं। पौधों में भी होते हैं, पशुओं में भी होते हैं।


अगर हम पशुओं को भी गौर से देखें, तो आपको पता चलेगा, उनमें भी व्यक्तित्व है। श्रेष्ठ, निकृष्ट उनमें भी है। उनमें भी आपको ब्राह्मण और शूद्र मिल जाएंगे। अब तो हम आदमियों में भी मिटाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनमें भी आपको ब्राह्मण—शूद्र मिल जाएंगे। वहां भी आपको लगेगा कि कोई वृत्ति और ही है।

तो कृष्ण का यह कहना कि घोड़ों में भी मैं हूं कभी तो बहुत ऐसा लगेगा कि कैसी बात है! कुछ और प्रतीक कृष्ण को नहीं मिले! ये घोड़े और हाथी और वृक्ष, यह क्या बात है! लेकिन यह बहुत विचारपूर्वक है।

अस्तित्व जहां भी है, वहीं परमात्मा है। लेकिन अर्जुन से उन्होंने कहा कि तू पहचान सकेगा अस्तित्व को जहां खिलता है फूल, बीज तुझे नहीं दिखाई पड़ सकते।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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