मंगलवार, 3 नवंबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 10 भाग 4

 ध्‍यान की छाया है समर्पण


मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्थरम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।। 9।।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।

ददामि बुद्धियोग तं येन मामुययान्ति ते।। 10।।

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानज तम:।

नाशयाम्पात्मभावस्थो ज्ञानदीयेन भास्वता।। 11।।


और वे निरंतर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझ में ही निरंतर रमण करते हैं।

उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञान रूप योग देता हूं जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

और हे अर्जुन उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंत—करण में एकीभाव से स्थित हुआ अज्ञान से उत्पन्‍न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूं।



मन की दो अवस्थाएं हैं, एक दौड़ता हुआ मन, एक ठहरा हुआ मन। दौड़ता हुआ मन, निरंतर ही जहां होता है, वहां नहीं होता। ऐसा समझें कि दौड़ता हुआ मन कहीं भी नहीं होता। दौड़ता हुआ मन सदा ही भविष्य में होता है। आज नहीं होता, अभी नहीं होता, यहां नहीं होता। कल, आगे, कहीं और, कल्पना में, सपने में, कहीं दूर भविष्य में होता है। और भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है वर्तमान का, अभी का, इसी क्षण का।

जब मैं कहता हूं इसी क्षण का, इतना कहने में भी वह क्षण वर्तमान का जा चुका। इतनी भी देर हुई, तो हम वर्तमान के क्षण को चूक जाते हैं। जानने में जितना समय लगता है, उतने में भी वर्तमान जा चुका होता है।

एक क्षण हमारे हाथ में है अस्तित्व का, लेकिन मन सदा वासना में, भविष्य में होता है। भविष्य का कोई अस्तित्व नहीं। इसलिए दौड़ता हुआ मन कहीं होता ही नहीं। जहां हो सकता है, वहां होता नहीं; और जहां हो ही नहीं सकता, वहां होता है। वर्तमान में हो सकता था, लेकिन वर्तमान में दौड़ता हुआ मन नहीं होता।

आप वर्तमान में दौड़ नहीं सकते, जगह नहीं है, स्पेस नहीं है। दौड़ने के लिए भविष्य का विस्तार चाहिए। वासना के लिए अनंत विस्तार चाहिए। वर्तमान का क्षण बहुत छोटा है। उस छोटे—से क्षण में आपकी वासना न समा सकेगी।

यह जो दौड़ता हुआ मन है, यह दौड़ता ही रहता है। कहीं भी ठहरने का इसे उपाय नहीं है। जहां ठहर सकता है, वर्तमान में, वहां ठहरता नहीं। और भविष्य तो है नहीं। वहां सिर्फ दौड़ सकता है। ठहरने की वहां कोई सुविधा नहीं है। यह दौड़ता हुआ मन ही हमारी बीमारी है, रोग है।

अगर अधार्मिक आदमी की हम कोई परिभाषा करना चाहें, तो वह परिभाषा ऐसी नहीं हो सकती है कि वह आदमी, जो ईश्वर को न मानता हो। क्योंकि ऐसे बहुत—से व्यक्ति हुए हैं, जो ईश्वर को नहीं मानते और धार्मिक हैं। महावीर हैं, बुद्ध हैं, वे ईश्वर को नहीं मानते हैं, पर परम धार्मिक हैं। उनकी आस्तिकता में रत्तीभर भी संदेह नहीं। और अगर बुद्ध और महावीर की धार्मिकता में संदेह होगा, तो इस पृथ्वी पर फिर कोई भी आदमी धार्मिक नहीं हो सकता।

अधार्मिक आदमी उसे नहीं कह सकते हैं, जो ईश्वर को न मानता हो। अधार्मिक आदमी उसे भी नहीं कह सकते, जो वेद को न मानता हो, बाइबिल को न मानता हो, कुरान को न मानता हो। अधार्मिक आदमी केवल उसे कह सकते हैं कि जिसके पास केवल दौड़ता हुआ मन है, ठहरे हुए मन का जिसे कोई अनुभव नहीं। फिर वह कुछ भी मानता हो—ईश्वर को मानता हो, आत्मा को मानता हो; वेद को, कुरान को, बाइबिल को मानता हो— अगर दौड़ता हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक नहीं है। और फिर चाहे वह कुछ भी न मानता हो, लेकिन अगर ठहरा हुआ मन है, तो वह आदमी धार्मिक है। क्योंकि मन जहां ठहरता है, वही तत्‍क्षण उस परम सत्ता से संबंध जुड़ जाता है।

हम उसे क्या नाम देते हैं, यह गौण बात है। कोई उसे ईश्वर कहे, यह उसकी मर्जी। और कोई उसे आत्मा कहे, यह भी उसकी मर्जी। और कोई उसे कोई भी नाम न देना चाहे, यह भी उसकी मर्जी। और कोई उसके संबंध में चुप रह जाए, यह भी उसकी मर्जी। कोई उसे शून्य कहे, कोइ उसे मिट जाना कहे, कोई उसे पूरा हो जाना कहे, यह उसकी मर्जी की बात है। लेकिन जहां मन ठहरा, वहीं आदमी धार्मिक हो जाता है।

इस मन को ठहराने के लिए कल के सूत्र में कृष्ण ने जो शब्द उपयोग किया है, उसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें, तो इस सूत्र में प्रवेश आसान हो जाएगा। समझना कहना शायद ठीक नहीं, क्योंकि समझ तो हम बहुत बार लेते हैं, फिर भी कोई समझ पैदा नहीं होती। शायद उचित होगा कहना कि हम उस सूत्र को थोड़ा कर लें, तो यह सूत्र समझ में आ सकेगा।

कृष्ण ने कहा है, निश्चल ध्यान योग को जो उपलब्ध होता है, वह मेरे में एकीभाव से ठहर जाता है।

निश्चल ध्यान योग क्या है, वह मैंने कल आपसे कहा। लेकिन कैसे आप उसे कर सकते हैं, वह मैं आज आपसे कहना चाहूंगा। क्या है, एक बात है; कैसे किया जा सकता है, बिलकुल दूसरी बात है। निश्चल ध्यान योग का अर्थ समझ लेना एक बात है; निश्चल ध्यान योग की प्रक्रिया में उतर जाना बिलकुल दूसरी बात है। और प्रक्रिया में उतरे बिना कोई भी जान नहीं पाएगा; समझ कितना ही ले।

इसलिए बहुत बार जिन्हें हम समझदार कहते हैं, उनसे नासमझ आदमी खोजने मुश्किल होते हैं। वे सब समझते हैं और जानते कुछ भी नहीं। सच तो यह है कि वे इतना समझते हैं कि सोचते हैं, जानने की अब कोई जरूरत ही न रही। शब्द का उनके पास भंडार हो सकता है, अनुभव का उनके पास कण भी नहीं होता। अनुभव का संबंध, ध्यान क्या है, इसे समझने से नहीं है, ध्यान कैसे होता है, इसमें उतर जाने से है।

ध्यान एक अनुभूति है। ध्यान के सैकड़ों प्रकार हैं। और सैकड़ों मार्गों से लोग ध्यान को उपलब्ध हो सकते हैं। निश्चल ध्यान योग की तरफ पहुंचने के लिए भी सैकड़ों रास्ते हैं। और पृथ्वी पर अनेक— अनेक रास्तों से चलकर लोग उस क्षण को उपलब्ध हो गए हैं, जिसे हम मन का ठहर जाना कहें। एक छोटी—सी प्रक्रिया मैं आपसे कहूंगा, सरल, जिसे आप कर सकें।

और आपको निश्चल मन की थोड़ी—सी झलक और छाया भी मिलनी शुरू हो जाए, तो आपकी जिंदगी रूपांतरित होने लगेगी। एक नये आदमी का जन्म आपके भीतर हो जाएगा। पुराना आदमी बिखरने, पिघलने लगेगा, और एक नई चेतना, एक नया केंद्र, देखने का एक नया ढंग, जीने की एक नई प्रक्रिया, होने की एक नई व्यवस्था आपके भीतर पैदा हो जाएगी। जैसे अचानक अंधे की आंख खुल जाए, या जैसे अचानक बहरे को कान मिल जाएं, या जैसे अचानक कोई मरा हुआ पुनरुज्जीवित हो जाए; ठीक ध्यान के अनुभव से ऐसी ही व्यापक क्रांतिकारी घटना चेतना में घटती है। मन तो एक अंडे की तरह है। अंडा जब टूटता है, तो पक्षी पंख फैलाकर आकाश में उड़ता है। और अंडा अगर रुका रह जाए, तो जो अंडा पक्षी को सम्हालने के लिए था, उसकी सुविधा और व्यवस्था के लिए था, उसकी सुरक्षा के लिए था, वही—वही उसके लिए कब्र बन जाएगा। अंडे को टूटना ही चाहिए।

मन जरूरी है। आदमी बिना मन के पैदा हो, तो वैसा ही होगा जैसा बिना अंडे के कोई पक्षी पैदा हो, तो मुश्किल में पड़ जाए। मन बिलकुल जरूरी है; लेकिन अंडे की तरह ही जरूरी है। एक सीमा तक साथी है, एक सीमा के बाद दुश्मन हो जाता है। एक जगह तक बचाता है, एक सीमा के बाद हानि पहुंचाने लगता है। एक सीमा तक सहारा है, एक सीमा के बाद कारागृह हो जाता है।

और हमारा मन करीब—करीब कारागृह है। अनेक—अनेक जन्मों से हम उस मन को लेकर चल रहे हैं, जो हमें कभी का तोड़ देना चाहिए था। लेकिन अंडे के भीतर जो छिपा हुआ पक्षी है, उसे भी तो कुछ पता नहीं आकाश का। और उसे यह भी तो डर समाता होगा कि अंडे को तोड़ दूं तो फिर मेरा क्या होगा! वही तो मेरी सुरक्षा है, वही मेरी आड है, उसी से तो मैं बचा हूं; वह मेरा घर है।

स्वाभाविक है कि हम मन को ही अपनी सुरक्षा मानकर जीते हैं। इसलिए अगर कोई आपके शरीर को बीमार कह दे, तो आप नाराज नहीं होते। कोई अगर कह दे कि आप दुबले दिखाई पड़ते हैं, बीमार मालूम होते हैं, तबीयत खराब है! तो सहानुभूति मालूम पड़ती है। लगता है, यह आदमी मित्र है। लेकिन कोई आपसे कह दे कि आपका मन बीमार मालूम पड़ता है, कुछ मन में ज्वर मालूम होता है, मन में कुछ विक्षिप्तता दिखाई पड़ती है, पागलपन मालूम पड़ता है। तो फिर यह आदमी मित्र नहीं मालूम पड़ता, यह दुश्मन मालूम पड़ता है। क्योंकि शरीर को हम अपने से दूर मान पाते हैं, लेकिन मन के साथ तो हम अपने को एक ही मानते हैं। इसलिए जब कोई कहता है, आपका शरीर बीमार है, तो वह यह नहीं कहता कि आप बीमार हैं। आपका शरीर बीमार है। लेकिन जब कोई कहता है कि आपका मन रुग्ण है, तो आपको तत्काल लगता है कि इसका मतलब हुआ कि मैं पागल हूं मैं रुग्ण हूं!

मन के साथ हमारा तादात्म्य, हमारी आइडेंटिटी गहरी है। हमने अपने को मन के साथ एक समझ रखा है। और इस तरह पक्षी अंडे के बाहर होने में असुविधा पाता है, उपाय नहीं रह जाता। अंडे को ही पक्षी समझ ले कि मेरा होना है, तो कठिनाई हो जाती है।

ध्यान मन के तोड्ने का नाम है। या कहें मन के ठहरने का नाम, या कहें मन के तोड्ने का नाम, या कहें मन के पार हो जाने का नाम, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। एक छोटी प्रक्रिया आपसे कहता हूं जिससे आप इस अंडे के बाहर आ सकते हैं।

अगर आपने चित्र देखे हों बच्चों के उनके मां के पेट में, गर्भ में। मां के पेट में बच्चा जिस हालत में होता है, गर्भ में, उस अवस्था में मनोवैज्ञानिक कहते हैं, योग की गहरी खोज कहती है, कि मां के पेट में जब बच्चा होता है जिस पोश्चर में, जिस आसन में, उस समय बच्चे के पास न्यूनतम मन होता है, न के बराबर मन होता है। 

हमसे अगर कोई पूछे कि आपकी चेतना कहां है, तो सिर पर हाथ जाएगा। चेतना जब मन में केंद्रित होती है, तो सिर केंद्र हो जाता है। जब प्रेम में केंद्रित होती है, भाव में केंद्रित होती है, तो हृदय केंद्र हो जाता है। इसलिए प्रेमी हृदय पर हाथ रखेगा। और गणित को सुलझाने वाला आदमी अगर गणित में उलझ जाए, तो सिर को खुजलाएगा, हृदय पर हाथ नहीं रखेगा। हाथ जाएगा ही नहीं हृदय पर। और प्रेमी अगर प्रेम में पड़ा हो और सिर पर हाथ रखे, तो बहुत बेहूदा मालूम पड़ेगा। सिर से कोई संबंध नहीं है।

चेतना जब भाव में होती है, तो हृदय केंद्र होता है। और चेतना जब विचार में होती है, तो मस्तिष्क केंद्र होता है। लेकिन मस्तिष्क बहुत बाद में विकसित होता है। उसके भी पहले चेतना एक केंद्र पर होती है, वह नाभि है। बच्चा मां से नाभि से जुड़ा होता है। जीवन का पहला अनुभव बच्चे को नाभि पर होता है।

जिन लोगों को मन के पार जाना है, उन्हें हृदय, मस्तिष्क दोनों से उतरकर नाभि के पास वापस लौटना होता है। अगर आप फिर से अपनी चेतना को नाभि के पास अनुभव कर सकें, तो आपका मन तत्‍क्षण ठहर जाएगा।

तो इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए, जिसको मैं निश्चल ध्यान योग की तरफ एक विधि कहता हूं दो बातें ध्यान में रखने जैसी जरूरी हैं। जैसा कि सूफी फकीरों को अगर आपने देखा हो प्रार्थना करते, या मुसलमानों को आपने नमाज पढ़ते देखा हो, तो जिस भांति घुटने मोड़कर वे बैठते हैं वैसे घुटने मोड़कर बैठ जाएं। बच्चे के घुटने ठीक उसी तरह मुड़े होते हैं मां के गर्भ में। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें और श्वास को बिलकुल शिथिल छोड़ दें, रिलैक्स छोड़ दें, ताकि श्वास जितनी धीमी और जितनी आहिस्ता आए—जाए, उतना अच्छा। श्वास जैसे न्यून हो जाए, शांत हो जाए। श्वास को दबाकर शांत नहीं किया जा सकता है। अगर आप रोकेंगे, तो श्वास तेजी से चलने लगेगी। रोकें मत, सिर्फ ढीला छोड़ दें।

आंख बंद कर लें, और अपनी चेतना को भीतर नाभि के पास ले आएं। सिर से उतारें हृदय पर, हृदय से उतारें नाभि पर। नाभि के पास चेतना को ले जाएं। श्वास का हल्का—सा कंपन पेट को नीचे—ऊपर करता रहेगा। आप अपने ध्यान को आंख बंद करके वहीं ले आएं, जहां नाभि कंपित हो रही है। श्वास के धक्के से पेट ऊपर—नीचे हो रहा है, आंख बंद करके ध्यान को वहीं ले आएं। शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। थोड़ी ही देर में शरीर आपका आगे झुकेगा और सिर जाकर जमीन से लग जाएगा। उसे छोड़ दें और झुक जाने दें।



जब सिर आपका जमीन से लग जाएगा, तब आप ठीक उस हालत में आ गए, जिस हालत में बच्चा मां के पेट में होता है। शांत होने के लिए इससे ज्यादा कीमती आसन जगत में कोई भी नहीं है। आसन ऐसा हो जाए, जैसा गर्भ में बच्चे का होता है; और आपका ध्यान नाभि पर चला जाए। बच्चे का ध्यान और चेतना नाभि में होती है। आपका ध्यान भी नाभि पर चला जाए।

अनेक बार ध्यान उचट जाएगा, कहीं कोई आवाज होगी, ध्यान चला जाएगा। कहीं कोई बोल देगा कुछ, ध्यान चला जाएगा। नहीं कहीं कुछ होगा, तो भीतर कोई विचार आ जाएगा, और ध्यान हट जाएगा। उससे लड़े मत। अगर ध्यान हट जाए, चिंता मत करें। जैसे ही खयाल में आए कि ध्यान हट गया, वापस अपने ध्यान को नाभि पर ले आएं। किसी कलह में न पड़े, किसी कांफ्लिक्ट में न पड़े कि यह मन मेरा क्यों हटा! यह मन बड़ा चंचल है, यह क्यों हटा! नहीं हटना चाहिए। इस सब व्यर्थ की बात में मत पड़े। जब भी खयाल आ जाए, वापस नाभि पर अपने ध्यान को ले आएं।

और चालीस मिनट कम से कम— ज्यादा कितनी भी देर कोई रह सकता है—ठीक ऐसे बच्चे की हालत में मां के गर्भ में पड़े रहें। संभावना तो यह है कि दो—चार—आठ दिन के प्रयोग में ही आपको एक गहरी निश्चलता भीतर अनुभव होनी शुरू हो जाएगी। ठीक आप बच्चे के जैसी सरल चेतना में प्रवेश कर जाएंगे। मन ठहरा हुआ मालूम पड़ेगा। जितना नाभि के पास होंगे, उतनी देर मन ठहरा रहेगा। और जब नाभि के पास रहना आसान हो जाएगा, तो मन बिलकुल ठहर जाएगा।


मन भी चलता है, हृदय भी चलता है, नाभि चलती नहीं। मन की भी दौड़ है, विचार की भी दौड़ है, भाव की भी दौड़ है, नाभि की कोई दौड़ नहीं। अगर ठीक से समझें, तो मन भी भविष्य में होता है, हृदय भी भविष्य में होता है, नाभि वर्तमान में होती है—जस्ट इन दि मोमेंट, हियर एंड नाउ, अभी और यहीं।

जो आदमी नाभि के पास जितना जाएगा अपनी चेतना को लेकर, उतना ही वर्तमान के करीब आ जाएगा। जैसे बच्चा नाभि से जुड़ा होता है मां से, ऐसे ही एक अज्ञात नाभि के द्वार से हम अस्तित्व से जुड़े हैं। नाभि ही द्वार है।

जिन लोगों को—शायद दो—चार लोगों को यहां भी— कभी अगर शरीर के बाहर होने का कोई अनुभव हुआ हो। पृथ्वी पर बहुत लोगों को कभी—कभी, अचानक, आकस्मिक हो जाता है। अचानक लगता है कि मैं शरीर के बाहर हो गया। तो जिन लोगों को भी शरीर के बाहर होने का आकस्मिक, या ध्यान से, या किसी साधना से अनुभव हुआ हो, उनको एक अनुभव निश्चित होता है, कि जब वे अपने को शरीर के बाहर पाते हैं, तो बहुत हैरानी से देखते हैं कि उनके और उनके शरीर के बीच, जो नीचे पड़ा है, उसकी नाभि से कोई एक प्रकाश की किरण की भांति कोई चीज उन्हें जोड़े हुए है। पश्चिम में वैज्ञानिक उसे सिल्वर कॉर्ड, रजत— रज्जु का नाम देते हैं। जैसे हम मां से जुड़े होते हैं इस भौतिक शरीर से, ऐसे ही इस बड़े जगत, इस बड़े अस्तित्व से, इस प्रकृति या अस्तित्व के गर्भ से भी हम नाभि से ही जुड़े होते हैं। तो जैसे ही आप नाभि के निकट अपनी चेतना को लाते हैं, मन निश्चल हो जाता है।

ठीक ऐसी ही घटना निश्चल ध्यान योग में घटती है। आप समाप्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकीभाव हो जाता है। और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं।

यह जो कृष्‍ण ने कहा है कि निश्चल ध्यान योग से मुझमें एकीभाव को स्थित हो जाता है, इसका ठीक वही अर्थ है, जो बच्चे और मां के बीच स्थूल अर्थ है, वही अर्थ साधक और परमात्मा के बीच सूक्ष्म अर्थ है। इस प्रयोग को थोड़ा करेंगे, तो जो अर्थ स्पष्ट होंगे, वे अर्थ शब्दों से स्पष्ट नहीं किए जा सकते।

अब हम इस सूत्र में प्रवेश करें।

और वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं।

अब इस सूत्र का पूरा अर्थ बदल जाएगा, अगर आपने मेरी पहली बात समझी तो। क्योंकि निश्चल ध्यान योग के बाद ही इस सूत्र का अर्थ खुल सकता है, अन्यथा इस सूत्र का गलत अर्थ किया जाएगा।

गीता पर हजारों टीकाएं हैं। अधिक टीकाएं पंडितों के द्वारा हैं, जिनके पास काफी ज्ञान है, लेकिन शायद ध्यान नहीं है। इसलिए भारी विवाद है शब्दों का। सैकड़ों अर्थ किए गए हैं। स्वाभाविक है। सैकड़ों अर्थ होंगे ही। सैकड़ों मन अर्थ करेंगे, तो सैकड़ों अर्थ होंगे।

ध्यान रहे, ध्यान तो एक ही होता है, चाहे कोई भी ध्यान को उपलब्ध हो; लेकिन मन तो उतने ही होते हैं, जितने लोग होते हैं। शायद यह भी कहना कम है, क्योंकि एक आदमी के पास भी एक ही मन नहीं होता। सुबह दूसरा था, दोपहर दूसरा है, सांझ तीसरा है! शायद यह कहना भी ठीक नहीं है, एक ही आदमी के पास भी एक साथ बहुत—से मन होते हैं। अभी, एक ही साथ कई मन होते हैं। इसलिए पुराने एक मन की धारणा को मनोविज्ञान धीरे— धीरे तिलांजलि दे रहा है। मनोविज्ञान अब कहता है कि आदमी पोलीसाइकिक है, बहु—चित्तवान है। बहुत—से मन हैं उसके पास, एक मन नहीं है।

तो मन से जो अर्थ किए जाएंगे, वे तो अनेक होंगे ही। अगर एक ही आदमी जिंदगी में दो—चार—पाच बार गीता का अर्थ करे, तो दो—चार—पाच अर्थ निकलेंगे, क्योंकि उसका मन बदलता चला जाएगा। तो एक तो वे अर्थ हैं, वे कमेंट्रीज और टीकाएं हैं, जो मन से की गई हैं, उनका बहुत मूल्य नहीं है। वे कितनी ही गहरी हों, फिर भी छिछली होगी, क्योंकि मन और बुद्धि का कोई गहरा होना होता ही नहीं। बुद्धि कितना ही शोरगुल मचाए, वह सतह पर ही होती है, गहरी कभी जाती नहीं। ध्यान गहरा जाता है।

तो एक तो उपाय यह है कि गीता के शब्दों को समझें, उनकी व्याख्याएं समझ लें, और तृप्त हो जाएं। उसका अर्थ हुआ कि आप गीता से चूक गए; गीता आपके काम न आई। शायद नुकसान भी हुआ, क्योंकि आपको भ्रम होगा कि आपने जान भी लिया।

दूसरा रास्ता है कि ध्यान से प्रवेश करें और फिर गीता को समझें। और तब एक मजेदार बात घटती है। जो लोग मन से गीता को समझेंगे, वे गीता की भी हजार टीकाएं करेंगे। दो टीकाकार दुश्मन की तरह लड़ेंगे। मन से, तो गीता की भी हजार टीकाएं हो जाएंगी, और हर टीकाकार गीता का एक अर्थ करेगा और शेष को गलत कहेगा। अगर ध्यान से कोई प्रवेश करे, तो एक और दूसरी घटना घटती है, गीता का भी वही अर्थ होगा, बाइबिल का भी वही अर्थ होगा, कुरान का भी वही अर्थ होगा।

मन से कोई चले, तो गीता के हजार अर्थ होंगे। और ध्यान से कोई चले, तो दुनिया में जितनी गीताए हैं, जितने धर्म—ग्रंथ हैं, उन सबका अर्थ एक हो जाएगा। ध्यान एक नया पर्सपेक्टिव, एक नया परिप्रेक्ष्य दे देता है, देखने का एक नया ढंग, जानने का, स्पर्श करने की एक नई व्यवस्था।

तो इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को अब समझें, तो फर्क पड़ेगा। अगर हम पहले समझते, तो इसका अर्थ होता, वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, तो इसका अर्थ होगा कि निरंतर ईश्वर को स्मरण करने वाले, निरंतर उसका नाम लेने वाले। और मेरे में ही प्राणो को अर्पण करने वाले भक्तजन, मुझमें ही जो अपने को समर्पण कर देते हैं, ऐसे लोग, सदा मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए, एक—दूसरे को मेरा प्रभाव समझाते हुए, तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं। तब इसका अर्थ बहुत साधारण होगा। जो कि भक्त प्रभु—चर्चा में, सत्संग में, ईश्वर का गुणगान करने में, ईश्वर की स्तुति करने में करते हैं। यह अर्थ ध्यान से बिलकुल बदल जाएगा। ध्यान इसकी सारी की सारी दिशा को मोड़ दे देता है।

मेरे में निरंतर मन लगाने वाले का अर्थ ध्यान से जो जानेगा उसको पता चलेगा, वही, जिसका कोई मन न रहा। क्योंकि परमात्मा में मन वही लगा सकता है, जिसका मन समाप्त हो जाए। अगर आपका मन जारी है, तो मन संसार में ही लगा रहेगा। आप बीच—बीच में परमात्मा का नाम ले सकते हैं, लेकिन मन संसार में ही लगा रहेगा।

इसलिए हम देखते हैं कि भक्तजन, तथाकथित भक्तजन मंदिरों में बैठे हैं, पर आप इस भूल में मत रहना कि उनका मन वहां है। मंदिरों में बैठना आसान है, प्रभु का नाम उच्चार करना भी बहुत आसान है, लेकिन मन का वहां होना उतना आसान नहीं है।

 मन का अर्थ ही आपका जगत से जो संबंध है, उसका जोड़ आपका मन है। तो आप मन को परमात्मा में लगा नहीं सकते। मन तो संसार में ही लगेगा। हां, मन न रह जाए, तो जो लगाव घटित होगा, वह परमात्मा से होगा। इसलिए जब यह सूत्र ध्यान के अर्थ से समझेंगे, तो इसका अर्थ होगा—मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, इसका अस्तित्वगत, ध्यानगत अर्थ होगा—जिन्होंने अपना मन खो दिया और मुझमें निरंतर रहने लगे।

मन को आप परमात्मा में लगा ही नहीं सकते। मन का अर्थ ही बीमारी है। मन का अर्थ ही तरंगें है। मन का अर्थ ही बेचैनी है। मन को आप परमात्मा में नहीं लगा सकते। जब तक मन है, तब तक आप भी परमात्मा में नहीं लग सकते। मन जहां शांत, शून्य हो जाता है, वहां आप परमात्मा में लग गए। और यह लगना बहुत अलग तरह का है। क्योंकि मन को लगाते हैं, तो चेष्टा करनी पड़ती है, फिर भी मन भागता है। यह लगना चेष्टा का नहीं है, चेष्टारहित है। अब आप भागना भी चाहें, तो परमात्मा से भाग नहीं सकते।

जिस व्यक्ति का मन खो जाएगा, उसे परमात्मा में ध्यान लगाना नहीं पड़ता; वह जहां भी जाए, जहां भी ध्यान लगाए, परमात्मा ही है। वह जो भी करे, सब तरफ परमात्मा ही है। मन वाले आदमी को कोशिश कर—करके परमात्मा में लगना पड़ता है, फिर भी लग नहीं पाता। और मन खोया कि आप कोशिश भी करें कि परमात्मा से बच जाएं, तो बचने का कोई उपाय नहीं है। आप भागना चाहें, उससे दूर निकल जाएं, तो दूर नहीं निकल सकते। आप आंख बंद करें, तो वह मौजूद होगा। आप आंख खोलें, तो वह मौजूद होगा। आप कुछ भी करें, वह मौजूद होगा। तभी निरंतर मन लगाने का अर्थ जाहिर होगा। फिर कोई उपाय नहीं रह जाता आपके हाथ में। आप होते ही उसमें हैं। जैसे मछली सागर में है, ऐसे आप उसमें होते हैं। चारों ओर वही होता है। लेकिन यह अर्थ ध्यान से खुलेगा। अगर शब्द से खोलने जाएंगे, तो यह सूत्र उलटा मालूम पड़ेगा। मेरे में निरंतर मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन!

कौन करेगा अर्पण प्राणों को? आप कर सकते हैं? सोचकर तो नहीं कर सकते, विचारकर तो नहीं कर सकते, मनपूर्वक तो नहीं कर सकते। क्योंकि जब कोई मनपूर्वक कहता है कि मैं अपने प्राण अर्पित करता हूं, तो भी अंतिम निर्णायक वही रहता है। कल वह कह सकता है कि वापस लिया। प्राण अब अर्पित नहीं करते! तो परमात्मा क्या करेगा? जब आप मंदिर में जाकर सिर रखते हैं चरणों में, तो यह भी आपका निर्णय है। आप चाहें तो रखें और चाहें तो न रखें। और जब आप कहते हैं कि परमात्मा, मैं अपने प्राण तुझे देता हूं तो भी आप हैं देने वाले! कल आप वापस ले सकते हैं। आप मौजूद रहते हैं, मिटते नहीं।

लेकिन ध्यान के बाद जो समर्पण होता है, वह आपका कृत्य नहीं है, वह आपका कर्म नहीं है। ध्यान से जो समर्पण होता है, वह आपकी मजबूरी है, वह आपकी हेल्पलेसनेस है, आप असहाय हैं। जैसे ही ध्यान में कोई उतरता है, फिर ऐसा नहीं लगता है कि मैं अपने प्राण परमात्मा को समर्पित करूं। फिर ऐसा उसे पता चलता है कि मेरे प्राण सदा से उसी को समर्पित हैं। मेरे प्राण उससे ही चल रहे हैं, मेरी श्वास उसकी ही श्वास है। मैं उससे अलग नहीं हूं कि समर्पण कर सकूं। इतना भी अलग नहीं हूं कि समर्पण कर सकूं। मैं समर्पित हूं।

यह बहुत अलग बात है। अब समर्पण वापस नहीं लिया जा सकता। यह अनुभव—कि मैं उसमें ही जी रहा हूं वही मुझमें जी रहा है, मेरी कोई पृथकता नहीं है—इस अनुभव का नाम है, मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले।

लेकिन भाषा की अपनी मजबूरियां हैं। यह भाषा में जो भी कहा गया है, यह बहुत उलटा है। भाषा अक्सर चीजों को उलटा कर देती है। क्योंकि भाषा के पास जितने भी शब्द हैं—किसी भी भाषा के पास—वे सभी अहंकार—केंद्रित हैं। आदमी ने बनाई हैं भाषाएं, आदमी उनका स्रष्टा है। अहंकार केंद्र पर है। इसलिए हर चीज अहंकार से जुड़ी हुई है।

तो जब हम अहंकार के पार की कोई बात कहना चाहते हैं, तब बड़ी मुसीबत होती है। कहना पड़ता है, समर्पण करो। यह बिलकुल गलत वाक्य है। क्योंकि समर्पण कोई कैसे करेगा? और जब करेगा, तो वह समर्पण कैसे होगा? कृत्य, कर्म कैसे समर्पण हो सकता है? कर्ता तो मैं रहूंगा। मैंने किया, तो समर्पण नहीं हो सकता। लेकिन हमें कहना पड़ता है, समर्पण करो। जब कि ठीक होगा, उचित होगा कहना, समर्पण होता है, किया नहीं जाता।

लेकिन अगर ऐसा कहा जाए कि समर्पण होता है, किया नहीं जाता, तो हमारा मन तत्काल दूसरी गलत बात समझ लेगा। वह कहेगा, फिर अपने वश की बात न रही। होगा, तब हो जाएगा। हम क्या कर सकते हैं! या तो हम करेंगे समर्पण, तो अहंकार मौजूद रहेगा, समर्पण होगा नहीं। और या फिर हम कहेंगे, हम कर ही क्या सकते हैं! हम प्रतीक्षा करेंगे, होगा, तब हो जाएगा। तब भी हम धोखा दे रहे हैं।

हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को ठहरा सकते हैं। हम समर्पण नहीं कर सकते, लेकिन हम मन को तोड़ सकते हैं। और जब मन टूट जाता है, मन ठहर जाता है, तो समर्पण हो जाता है। समर्पण बाइ—प्रोडक्ट है, ध्यान की छाया है। ध्यान हम कर सकते हैं, समर्पण छाया की तरह पीछे चला आता है। जिनके जीवन में ध्यान आता है, उनके जीवन में समर्पण अचानक, बिना कोई पगध्वनि किए, बिना कोई आहट किए, बिना कोई खबर दिए, अतिथि की भांति चुपचाप, मौन, भीतर प्रवेश कर जाता है। इस समर्पण की तरफ ही इशारा है।

मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले, सदा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए..।

इसका यह मतलब नहीं है कि एक—दूसरे से प्रभु की स्तुति की बातें कर रहे हैं कि वह बहुत महान है, कि वह बड़ा दयालु है, कि वह बड़ा प्रेमी है। यह सब, यह बातों से कोई किसी को जना नहीं सकता। लेकिन जो व्यक्ति एकीभाव को उपलब्ध हो जाता है, वह आंख की पलक भी उसकी हिलती है, तो भी परमात्मा की ही खबर उसके चारों तरफ फैलती है। उसका पैर भी चलता है, तो परमात्मा ही उससे चलता है। उसके उठने में, उसके बैठने में, उसके चलने में, उसके फिरने में, उसके आचरण में, उसके शब्द में, उसके मौन में, उसके सब ओर, उसके समस्त कृत्यों में परमात्मा का ही गुणगान शुरू हो जाता है। इस सूत्र का अर्थ ऐसा नहीं है कि हम एक—दूसरे को भगवान की स्तुति का गान करके, और भगवान की तरफ स्मरण दिलाएंगे। ऐसे कोई स्मरण नहीं होता। ऐसा बहुत—सा स्मरण चलता है। लोग माइक लगाकर अखंड कीर्तन कर देते हैं चौबीस घंटे! इसी खयाल से करते हैं कि दूसरों के कान में, चाहे वे सो ही रहे हों, अगर भगवान का नाम पहुंचा, तो बड़ा लाभ होगा।

इधर मैंने सुना है कि ऐसे करने वाले लोग नर्क भेज दिए जाते हैं। क्योंकि वे केवल दूसरों की नींद हराम कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। और उन पर तो चिढ़ आती ही है सोने वालों को, इस भगवान के नाम तक से भी धीरे— धीरे चिढ़ आने लगेगी।

कोई जबरदस्ती किसी को भगवान का नाम नहीं दिलवा सकता है। और न ही कोई किसी को भगवान की स्तुति करवाकर प्रभावित कर सकता है। लेकिन जब कोई भगवान को जीता है, तो उसके उठने में, बैठने में, चलने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी भाव— भंगिमा में, उसकी मुद्राओं में, सब तरफ भगवान की स्तुति शुरू हो जाती है।

इस सूत्र को ध्यान से समझेंगे, तो इसका अर्थ हुआ, आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए; उनके व्यवहार से, उनके होने से, उनके अस्तित्व से मेरी सुगंध को उड़ाते हुए।

वही स्तुति है परमात्मा की। आपके कहने से कोई राजी न होगा, आपके होने से कोई राजी होगा। आप क्या कहते हैं, कौन चिंता करता है! आप क्या हैं?

और यह बड़े मजे की बात है कि आप क्या कहते हैं, वह दो कौड़ी का हो जाता है, अगर आप उसके विपरीत हैं। और आप कुछ भी न कहें, लेकिन जो आप कहना चाहते हैं, अगर उसके अनुकूल हैं, तो बिना कहे भी वह कह दिया जाता है। लेकिन इस सूक्ष्म भाव का खयाल तो, आप भीतर उतरें और उस एकीभाव की झलक मिले, तो ही स्पष्ट हो सकता है।

तथा मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं!

यह बड़ा प्रीतिकर, बड़ा प्रीतिकर वचन है कि मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं। अगर हम कभी ईश्वर का कथन भी किसी से करते हैं, तो हम संतुष्ट कथन करते वक्त नहीं होते। हम संतुष्ट होते हैं, अगर दूसरा राजी हो जाए, कनवर्ट हो जाए। अगर मैं किसी को अपने विचार में ढाल लूं तब मैं संतुष्ट होता हूं।

लेकिन वह संतोष अहंकार का संतोष है। सब कनवर्शन अहंकार—केंद्रित हैं। अगर मैं इस चेष्टा में लगा हूं कि जो मैं मानता हूं वही आपको मनवा दूं; और अगर आपको मनवाने में सफल हो जाता हूं तो जो संतोष मिलता है, वह अहंकार का संतोष है; वह पाप है।

नहीं, यह सूत्र यह नहीं कहता है। यह सूत्र कहता है, मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं। आप राजी हुए या नहीं हुए, आपने सुना भी या नहीं सुना, यह निष्प्रयोजन है, यह व्यर्थ है। इसकी बात ही क्या उठानी! उन्होंने प्रभु की चर्चा कर ली, यह काफी संतोष है। यह काफी संतोष है कि उन्हें प्रभु की चर्चा करने का एक क्षण मिला। उनके जीवन की समस्तता से प्रभु का गुणगान हो सका, यह संतुष्टि है।

इसलिए एक बहुत अदभुत बात है, हिंदू धर्म कनवर्टिंग धर्म नहीं है। हिंदू धर्म किसी को रूपांतरित नहीं करना चाहता। हिंदू धर्म ने अपने इतिहास में दूसरे को रूपांतरित करने की अपने धर्म में, कभी कोई चेष्टा नहीं की। यह बड़ी अदभुत बात है। क्योंकि बड़ा स्वाभाविक यह है, मन की यह स्वाभाविक आकांक्षा होती है कि जो मैं मानता हूं वही दूसरा भी मान ले।

शायद आपने सोचा न हो, यह आकांक्षा क्यों होती है! यह आकांक्षा इसलिए होती है कि मुझे खुद भी पक्का भरोसा नहीं है, जो मैं मानता हूं, उस पर। जब मैं दूसरे को भी राजी कर लेता हूं तो थोड़ा भरोसा आता है। जब भीड़ बढ़ने लगती है और मेरे साथ बहुत लोग राजी होने लगते हैं, तो मैं समझता हूं कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। अन्यथा इतने लोग कैसे मानते! मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भीतरी इनफीरिआरिटी, भीतरी हीनता है, भीतर पक्का भरोसा नहीं है। दूसरे को राजी करवाकर अपने पर भरोसा आता है। दूसरा जब बदल जाए, तो खुद भी भरोसा आता है कि ठीक है, हम जो मानते हैं, वह ठीक है। वह किताब, वह शास्त्र, वह संदेश सही होना चाहिए, नहीं तो यह आदमी कैसे राजी हो जाता!

इसलिए जब आपसे कोई राजी नहीं होता, तो आप बड़े नाराज होते हैं। वह आप उस पर नाराज नहीं हो रहे हैं, वह आपको अपने भीतर, आपका खोखलापन आपको अब दिखाई पड़ रहा है कि कोई मुझसे राजी नहीं हो रहा; किसी को मैं सहमत नहीं करवा पा रहा हूं। तब आपकी जड़ें हिलने लगीं, आपका भरोसा टूटने लगा। 

क्योंकि हिंदू मानता है, किसी को क्या बदलना! अगर मेरे जीवन की सुगंध किसी को बदल दे, तो काफी है। लेकिन मैं क्यों बदलने जाऊं! और बदलना एक तरह का आक्रमण है, हिंसा है। क्यों मैं चोट करूं किसी के ऊपर कि तुम गलत हो! और क्यों तुम्हें राजी करने के लिए आग्रहशील बनूं! अगर मेरा जीवन तुम्हें बदल दे, तो ठीक है। अगर तुम खुद इस सुगंध से प्रभावित होकर आ जाओ, तो ठीक है। अगर मंदिर की बजती हुई घंटी ही तुम्हें बुला ले, तो काफी है। और अलग से तुम्हें बुलाने जाने की कोई जरूरत नहीं है। और कभी कोई किसी को जबरदस्ती बुलाकर ला भी नहीं पाता। और ले भी आए, तो शरीर ही आता है, आत्मा पीछे छूट जाती है।

ईश्वर की स्तुति— अस्तित्व से, व्यक्तित्व से, होने से। तब फिर संतोष दूसरे को राजी करने में नहीं है। तब संतोष अपनी अभिव्यक्ति में है। तब संतोष जो मेरे भीतर था, उसको सुवासित कर देने में है, उसे बाहर फैला देने में है। दूसरे पर क्या परिणाम हुआ, यह विचारणीय भी नहीं है।

नहीं, यह सवाल ही नहीं है। जो ध्यान में गहरा उतर जाता है, उसे फिर परमात्मा की स्तुति सिर्फ उसका आनंद है, सिर्फ उसका आनंद है; वह उसमें ही संतुष्ट है। इससे आगे, इससे आगे का कोई हिसाब मन में अगर है, तो अभी ध्यान के बिना ही आप परमात्मा की तरफ चल पड़े हैं, इसे समझना। आप मन से ही चल पड़े हैं, इसे समझना।

मन तो सब जगह दुकान खोल लेता है, धंधा बना लेता है। मन तो सब जगह अहंकार के लिए रास्ते खोजने लगता है। मन तो अहंकार का भोजन जुटाता है।

और वे मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं!

वे मुझमें ही डूबते—उतराते हैं, वे मुझमें ही डुबकियां लेते रहते हैं। यह मन से संभव नहीं है। यह मन से बिलकुल ही असंभव है। इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को ध्यान का सूत्र समझें।

उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को, मैं वह तत्वज्ञान रूपी योग देता हूं जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूं।

ऐसी जिसकी चित्त—दशा निर्मित हो गई हो, कि जो परमात्मा में डूबता—उतराता हो, उसमें ही डुबकियां लेता हो, उसी में रमण करता हो, उसके अलावा जिसका कोई संसार न बचा हो; कहें, परमात्मा ही जिसका संसार हो गया हो; परमात्मा ही हो जिसकी वासना, परमात्मा ही हो जिसकी इच्छा, परमात्मा ही हो जिसकी प्रार्थना; सभी कुछ, सभी कुछ जिसका परमात्ममय हो गया हो—ऐसे व्यक्ति को, कृष्ण ने कहा है, बुद्धि उपलब्ध होती है, बुद्धियोग उपलब्ध होता है। ऐसे व्यक्ति में प्रतिभा का जन्म होता है। ऐसा व्यक्ति पहली दफा बुद्धिमत्ता को, जिसको बुद्ध ने प्रज्ञा कहा है, उसको पाता है। बुद्ध ने तीन शब्दों का उपयोग किया है, वे उपयोगी होंगे इस सूत्र को समझने के लिए। बुद्ध ने तीन शब्दों पर सारी की सारी अपनी चिंतना को केंद्रित किया है। वे तीन शब्द हैं, शील, समाधि और प्रज्ञा। शील से अर्थ है, जो आप करते हैं। समाधि से अर्थ है, जो आप हो जाते हैं। और प्रज्ञा से अर्थ है, जो आप में खिलता है।

शील से अर्थ है, आपका जीवन रूपांतरित हो। समाधि से अर्थ है, आपकी चेतना रूपांतरित हो। और प्रज्ञा से अर्थ है कि जब ये दोनों रूपांतरण घटित होते हैं, तो जो संपदा आपको उपलब्ध होती है, जो धन आपको मिलता है, जो परम धन आपको मिलता है। कृष्ण ने उस परम धन को बुद्धियोग कहा है।

हमें थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि हम सब अपने को बुद्धिमान मानते हैं। और कृष्‍ण के हिसाब से बुद्धि तब उपलब्ध होती है, जब कोई व्यक्ति परमात्मा के साथ एक हो जाता है। तो जिसको हम बुद्धि कहते हैं, वह क्या होगी?

जैसे कोई आदमी झील के किनारे खड़ा हो। तो आप खयाल करें। झील शांत है, आदमी किनारे खड़ा है, तो उस आदमी का प्रतिबिंब झील में बनता है। लेकिन प्रतिबिंब उलटा बनता है। बनेगा ही। प्रतिबिंब सभी उलटे होते हैं। अगर आपने झील के किनारे खड़े आदमी को न देखा हो और केवल झील में बनने वाले प्रतिबिंब पर ही आपकी आंख हो, तो आदमी आपको सिर के बल खडा हुआ मालूम पड़ेगा। लेकिन अगर आपने झील के ऊपर खड़े आदमी को देखा ही न हो, तो यही आदमी की ठीक स्थिति होगी!

जिसको हम अभी बुद्धि कह रहे हैं, वह हमारे मन की झील पर बनी हुई हमारी बुद्धिमत्ता का केवल प्रतिबिंब है, रिफ्लेक्शन है। हमारी मन की झील पर जो प्रतिबिंब बन रहा है, उसी को अभी हम बुद्धि कह रहे हैं। वह बुद्धि नहीं है, बुद्धि का प्रतिबिंब है। और मजा यह है कि प्रतिबिंब उलटा होता है।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, वे उस परम बुद्धि की दृष्टि से बिलकुल उलटे आदमी होते हैं। जिनको हम उलटी खोपड़ी के आदमी कहते हैं। वे किसी भी चीज को सीधा नहीं समझ सकते; उसको तत्काल उलटा कर लेते हैं। वे परमात्मा की बात में से भी ऐसी बातें निकालते हैं कि परमात्मा तक पहुंचना असंभव हो जाए। वे धर्म में भी इस तरह का तर्क खोजते हैं कि धर्म तत्काल व्यर्थ मालूम होने लगे। वे जो भी करते हैं, वह कुछ उलटा होता है। उस उलटे का कारण है। क्योंकि प्रतिबिंब को जिन्होंने बुद्धि समझा, वे उलटे चलेंगे ही।

हमारी इस सदी में, जिसको हम कह सकते हैं कि बुद्धि की सदी— प्रतिबिंब वाली बुद्धि, रिफ्लेक्टेड इंटलेक्ट। निश्चित ही, इतनी बुद्धिमान सदी कभी नहीं थी जमीन पर। लेकिन इतनी बुद्धिहीन सदी भी खोजनी मुश्किल है। यही उलटापन है। न इतनी शिक्षा थी, न इतने शास्त्र थे, न इतने विचार थे, लेकिन आदमी हमसे ज्यादा बुद्धिमान था।

बुद्धि का एक और रूप भी है। जब तक हम मन के पार न उठें, तब तक वह सीधा रूप हमें दिखाई नहीं पड़ेगा। हमारी झील से आंख उठे, तब हमें दिखाई पड़ेगा कि कोई आदमी झील पर खड़ा है, उसके पैर नीचे हैं, सिर ऊपर है। और प्रतिबिंब में पैर ऊपर हैं और सिर नीचे है। तब हमें पता चलेगा कि प्रतिबिंब उलटा था। लेकिन जिन्होंने प्रतिबिंब ही देखा है.!

हम कैसे देखते हैं, कहां से देखते हैं, किस बिंदु से देखते हैं, इस पर सब निर्भर करता है।

उलटा और सीधा सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। लेकिन अगर दोनों बातें हमारे खयाल में हों। एक ही बात हमारे खयाल में हो, तो सीधे— उलटे का सवाल ही नहीं उठता। जो होता है, उसे हम सीधा मानकर चलते हैं।

हम मन में ही देखे हैं छबि अभी अपनी संभावना की। मन में हमने प्रतिबिंब देखा है, उसको हम बुद्धि समझते हैं। और उसको ही हम शिक्षित करते हैं विश्वविद्यालयों में। ट्रेन करते हैं, प्रशिक्षित करते हैं, उसी प्रतिबिंब को। हमारा बड़े से बड़ा बुद्धिमान प्रतिबिंब से ज्यादा नहीं है।

एक और बुद्धिमत्ता है, कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, जब कोई ध्यान को उपलब्ध होता है और जब कोई मुझमें डूब जाता है, तब उसे बुद्धियोग, तब पहली दफा उसे बुद्धिमत्ता का पता चलता है कि बुद्धि क्या है।

हमारी जो बुद्धि है, वह हमें ही नुकसान पहुंचाती है। कभी आपने खयाल किया है कि आपकी बुद्धि आपको सिवाय नुकसान पहुंचाने के कुछ और भी करती है? आदमी कितने संकट में रोज बढ़ता जाता है, उसका बहुत—कुछ उसकी बुद्धि है। वह जितनी बुद्धिमानी करता है, पाता है, उतने ही संकट उसने बढ़ा लिए, अनंत गुना हो गए।

हमने सोचा था, हमारे बुद्धिमानों ने, तथाकथित बुद्धिमानों ने— अगर हम दो सौ वर्ष के बुद्धिमानों के नाम गिनें, तो हमें पता चलेगा—उन सभी तथाकथित बुद्धिमानों ने कहा था कि सारी दुनिया को शिक्षित करने से सुख का साम्राज्य उतर आएगा, यूनिवर्सल एजुकेशन चाहिए। और उनकी बात हम सबको जंचती थी। अब हमने करीब—करीब सबको को शिक्षित कर लिया है। और  जहां—जहां हमने शिक्षित कर लिया है, वहां पहली दफा मुसीबत के  नये आयाम शुरू हो गए हैं, जिनका हमें पता ही नहीं था।

आज अमेरिका सबसे ज्यादा सुशिक्षित है। लेकिन अमेरिका के बच्चे आज जो कर रहे हैं, वह ज्यादा से ज्यादा सैवेज, ज्यादा से ज्यादा जंगली हालत में जो किया जाना चाहिए, वह कर रहे हैं।। लेकिन बुद्धिमानों ने कहा था कि सबको सुशिक्षित कर दो, दुनिया  में बड़ा सुख आ जाएगा! लेकिन जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतना दुख बढ़ा है।

और शिक्षित आदमी लगता है, सुखी हो ही नहीं सकता। ऐसा मालूम पड़ता है कि वह जो शिक्षित नहीं है, शायद सुखी हो जाए; लेकिन जो शिक्षित है, वह तो सुखी हो ही नहीं सकता। शायद इतनी महत्वाकांक्षा बढ़ जाती है, शायद सुख की इतनी प्रगाढ़ आकांक्षा हो जाती है, शायद सुख पर मुट्ठी बांधने की इतनी तीव्रता हो जाती है कि जिस पर मुट्ठी बांधते हैं, वह मुट्ठी से छूट जाता है। और शायद शिक्षा इतने तनाव बढ़ा देती है कि बुद्धिमान होने का खयाल तो आ जाता है, लेकिन बुद्धिमत्ता बिलकुल नहीं होती। और तब जिंदगी बड़े खिंचाव में, बड़ी बेचैनी में उलझ जाती है।। बुद्धिमान जिनको हम कहते हैं, उनकी मानकर दुनिया चल रही। है। जिनको कृष्ण बुद्धियोगी कहते हैं, उनको मानकर दुनिया अब। तक चली नहीं। पूजा वगैरह हम उनकी कर लेते हैं। वह आसान, तरीका है उनसे निपटने का। जिससे निपटना हो, उसकी पूजा करो और अपने घर जाओ; उससे निपट गए; उससे झंझट खतम हुई। ठीक है; कि नमस्कार कर लेते हैं आपको। अब हमें क्षमा करें। अब हम जाएं।

यह जो दूसरी बुद्धिमत्ता है, जो जीवन को आनंद की तरफ ले जाती है। हमारी बुद्धि तो दुख की तरफ ले गई है। अगर दुख ही कसौटी हो, तो हम जिसे बुद्धि कहते हैं, वह जहर है। और अगर आनंद कसौटी हो, तो फिर कृष्ण और बुद्ध जिसे बुद्धि कहते हैं, उसी को तरफ ध्यान को हटाना पड़ेगा।

यह बुद्धि कुछ और है। यह उन्हें उपलब्ध होती है, जो निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए हैं, जो निरंतर मेरी भक्ति में, मेरे स्मरण में डूबे हुए है। उन्हें मैं वह तत्वयोग, बुद्धियोग देता हूं जिससे वे अंततः मुझे उपलब्ध हो जाते हैं, अंतत: परमात्म रूप हो जाते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय दीपक द्वारा नष्ट करता हूं। तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा!'

यह जो बुद्धि जब भीतर पैदा होती है, यह जो बुद्धियोग उपलब्ध होता है; जब जीवन दिखाई पड़ता है उसकी समग्रता में, जैसा वह है; हमारे विचारों के अनुसार नहीं, हमारे चश्मों के अनुसार नहीं, हमारी दृष्टियों के अनुसार नहीं, वरन जैसा है, उसकी वास्तविकता में, उसके तत्वरूप में जब दिखाई पड़ता है, तो यही प्रज्ञा दीया बन जाती है। और यह सारा अज्ञान, जिसमें हम अब तक जीए हैं, जिसको हमने अब तक अपना जीवन समझा है, जिसमें हम भटके हैं, ठुकराए गए हैं, ठोकर खाए हैं, दुखी हुए हैं, नर्कों—नर्कों का परिभ्रमण किया है, वह सारा अंधकार विलीन हो जाता है, शून्य हो जाता है।

मनुष्य एक संभावना है प्रकाश की। मनुष्य बीज है प्रकाश का; एक ज्योति उसमें छिपी है। जैसा मैंने कहा, अंडे में छिपा है एक पक्षी, पंख खोल आकाश में उड़ जाए। ऐसा ही एक ज्योतिर्मय पक्षी आपके भीतर छिपा है। एक ज्योति, जो पंख खोले और आकाश की तरफ लपट बन जाए, वह आपके भीतर छिपी है।

लेकिन मन को तोड़ना पड़े, और अहंकार को ईंधन बनाना पड़े। अहंकार बने तेल और जले, तो वह प्रकाश की ज्योति, वह बुद्धियोग आपके भीतर सघन हो। उस बुद्धियोग से जो जाना गया है, वही धर्म है। उस प्रकाश में जो पाया गया है, वही मोक्ष है। और उसके बिना जो भी हम जान रहे हैं अंधकार में, वह संसार है।

इसे हम ऐसा परिभाषित करें, अज्ञान में जो जाना जाता है, वह संसार है। वही जब ज्ञान से जाना जाता है, तो परमात्मा है। संसार और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। संसार और परमात्मा एक ही अस्तित्व के दो दर्शन हैं, एक ही अस्तित्व के दो अनुभव हैं। अज्ञान में एक अनुभव होता है, वह संसार है। परमात्मा को हम अज्ञान में जैसा जानते हैं, उसका नाम संसार है। और ज्ञान में हम जैसा संसार को जानते हैं, उसका नाम परमात्मा है। ये दो नाम हैं, ये हमारे मन की दो स्थितियों के अनुरूप नाम हैं; इनका दो चीजों से संबंध नहीं है।

लेकिन आदमी अदभुत है, और होगा, क्योंकि उसकी उलटी बुद्धि है। उलटा खड़ा हुआ वह जगत को देख रहा है। तो अगर हम कभी सोचते भी हैं परमात्मा का, तो हम सोचते हैं, परमात्मा कुछ और है, संसार कुछ और है। दुकान कुछ और है, और मंदिर कुछ और है। शरीर कुछ और है, और आत्मा कुछ और है। पत्थर कुछ और है, और परमात्मा कुछ और है। जब हम सोचते भी हैं, तो हम दो हिस्सों में सोचते हैं। हम दो अस्तित्व बना लेते हैं। उन दो अस्तित्वों के बीच और कठिनाई खड़ी हो जाती है, क्योंकि वे दोनों झूठ हैं। वे दोनों झूठ हैं।

सारी दुनिया में इन दो के बीच, दो के नाम कुछ भी हों— संसार हो, मोक्ष हो; आत्मा हो, पदार्थ हो; माइंड हो, मैटर हो— कुछ भी नाम हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। दो के बीच संबंध क्या है? दुनिया में सैकड़ों दर्शनशास्त्र विकसित हुए हैं। कोई कहता है, दोनों पैरेलल हैं, समानांतर हैं। कोई कहता है, दोनों के बीच संबंध है। कोई कहता है, दोनों के बीच कोई भी संबंध नहीं है, दोनों अपने स्वभाव से ही वर्तन करते रहते हैं। कोई कहता है कि एक झूठ है, दूसरा सत्य है। कोई कहता है, दूसरा झूठ है, पहला सत्य है। लेकिन ये सब वे ही लोग हैं, जिन्होंने प्रकाश ले जाकर देखा नहीं कि वहां दो हैं भी!

कृष्‍ण कहते हैं कि अज्ञान, अंधकार मिट जाता है। इस बुद्धियोग के द्वारा जो ज्योतिर्प्रज्ञा प्रकट होती है, जो ज्योति प्रकट होती है, अंधकार मिट जाता है।

इस अंधकार मिट जाने में दो नहीं रह जाते, एक ही रह जाता है। शायद यह भी कहना ठीक नहीं कि एक रह जाता है, क्योंकि एक से हमें तत्काल संख्या का बोध होता है। इसलिए इस देश ने बड़ा कीमती शब्द खोजा, अद्वैत। यह भी नहीं कहा कि एक रह जाता है। कहा कि बस, दो नहीं रह जाते। क्योंकि एक रह जाता है, इसमें भी ऐसा लगता है कि हमें संख्या का आग्रह है। और जब भी आप एक का सोचेंगे, तो दो का तत्काल खयाल आएगा।

एक का कोई अर्थ ही नहीं होता, अगर दो न होते हों। एक का कुछ अर्थ ही होता है दो के संदर्भ में। इसलिए फिर जिन्होंने जाना था प्रकाश में, उन्होंने इतना ही कहा कि दो नहीं हैं वहां। एक है, यह भी हम नहीं कहते। हम इतना ही कहते हैं, दो वहां नहीं हैं। वे दोनों वहां नहीं हैं, जो तुमने जाने हैं, जो तुमने सुने हैं। वहां कुछ है, एक्स, अज्ञात, रहस्यमय, और वह जानने से ही जाना जा सकता है। कहे हुए वक्तव्य, सुने हुए वचन, पढ़े हुए शब्द, उसको नहीं जनाते हैं। धर्म एक अंतर—क्रांति है, एक अल्केमी है, एक कीमिया है, जिसमें आदमी अपने को बदले और जानने के नये तलों पर स्थापित हो, नये प्रकाश और नई आंखें उपलब्ध हों, नई ज्योति और नया चैतन्य आविर्भूत हो, तो दिखाई पड़ता है।

जानना चाहता है कि उड़ना क्या है! तैरने के पहले हम जानना चाहते हैं कि स्वाद क्या है उस तैरने का! स्वतंत्रता के पहले, आकाश में पंख फैलाने के पहले, हम जानना चाहते हैं, स्वतंत्रता का अर्थ क्या है!

तब हमें बताने वाले लोग भी मिल जाते हैं। क्योंकि दुनिया में जब किसी चीज की मांग हो, डिमांड हो, तो सप्लाई भी हो जाती है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि जिस चीज की भी मांग करो, कोई न कोई देने वाला जरूर मिल जाएगा। बस मांग होनी चाहिए; बाजार का नियम है।

तो जब हम मांग करते हैं कि बिना जाने हमें जानना है, तो पंडितों का एक बड़ा वर्ग है सारी दुनिया में, जो आपको बिना जाने जनाने के लिए राजी है। जो कहता है, क्या जरूरत है! ठीक है, यह रही किताब, ये रहे शब्द, इन्हें कंठस्थ कर लो। इनको पी जाओ। इनको याद कर लो। इनको दोहराने लगो। तोतों की तरह इनको रट लो। ज्ञान हो जाएगा!

हमारे पास ऐसा ज्ञान है। कभी आपने सोचा है कि आपका ईश्वर, आपकी आत्मा तोते की तरह रटा हुआ ज्ञान है! आपके पिता से आपको मिल गया है। कृपा करके आप अपने बेटे को भी दे जाएंगे। कोई आपको रटा गया, आप किसी और को रटा देंगे। लेकिन अनुभव की, खुद की प्रतीति, खुद के साक्षात्कार की एक किरण भी भीतर नहीं है!

इसीलिए तो धर्म की इतनी चर्चा होती है और धर्म इतना व्यर्थ मालूम होता है। और धर्म का इतना—इतना व्यापक काम चलता है, और परिणाम कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता। सारी दुनिया में प्रकाश की चर्चा है और घनघोर अंधकार है! और जहां देखो वहां परमात्मा का विचार चल रहा है—मदिर में, मस्जिद में, चर्च में, गुरुद्वारे में। सब जगह प्रभु की स्तुति चल रही है, और प्रभु की कहीं भी कोई झलक किसी आंख में दिखाई नहीं पड़ती! अजीब धोखा है!

और आदमीयत अपने को धोखा देने में इतनी कुशल मालूम पड़ती है कि जिसका हिसाब नहीं। जो है ही नहीं हमारे जीवन में बिलकुल, उसकी हम कितनी चर्चा कर रहे हैं! और चर्चा से ही तृप्त हैं। और चर्चा करके सोच रहे हैं, समाप्त हुआ काम। एक औपचारिक बात है। कर लेते हैं, सुन लेते हैं बचपन से, फिर उसे दोहराए चले जाते हैं! फिर जिंदगीभर कभी खयाल भी नहीं मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं जो अपने एक—एक शब्द को तौलेगा। ईश्वर को मैंने जाना हो, तो ही इस शब्द को ओंठ पर लाऊं। अन्यथा यह शब्द बहुत कीमती है और उन ओंठों पर लाने के योग्य नहीं है, जिन ओंठों ने सिर्फ बासे शब्द को उधार ले लिया हो और दोहरा रहे हों।

आत्मा मैंने जानी है? तो मत करें उपयोग उसका, शब्द को ही मत उपयोग करें। अगर शब्द से आप बच सकें, तो शायद बेचैनी अनुभव हो कि मैं भी तो जानूं कि क्या है यह? लेकिन हम शब्दों से इतने राजी हैं, इतने राजी हैं! यह लंबी कंडीशनिंग है।

हम भी करीब—करीब शब्दों के साथ इसी तरह कंडीशंड हो गए हैं। मंदिर दिखा, हाथ जोड़ लिए। यह बिलकुल कंडीशनिंग है। बचपन से पिता के साथ गए होंगे, कहा कि मंदिर है, पिता ने हाथ जोड़े, आपने हाथ जोड़ लिए। अब कंडीशनिंग हो गई। अब मंदिर दिखता है, हाथ जुड़ जाता है। आप सोचते हैं, आप बड़े धार्मिक हैं! 

इतना आसान नहीं! हाथ जोड़े, चले गए। निपटारा हो गया मंदिर से। कभी कोई उत्सव आ गया धर्म का, मना लिया। तो धर्म एक सामाजिक कृत्य होकर रह जाता है।

इससे जागना पड़े। इससे जागना पड़े, तो हम किसी दिन जान पाएं उस प्रकाश को, उस अमृत को, उस आशीर्वाद को, उस लोक को, जिसकी कृष्‍ण जैसे लोग चर्चा करते हैं। वह हमारे बिलकुल निकट है, बस जरा ही मुड़ने की बात है। और हम अपने इस तथाकथित बंधे हुए मन से जरा भी हिल सकें, तो वह किनारे ही है हमारे। एक छलांग में वह हमें उपलब्ध हो जाए।


ऐसा बंधा हुआ, ऐसा तोते जैसा मन, यंत्र जैसा मन, धार्मिक नहीं हो सकता। इस मन को तोड़ना, इस मन को रोकना, इस मन के पार होना जरूरी है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...