शनिवार, 13 जुलाई 2024

 कितना आधुनिक थे रामायण के समय धरती और मनुष्य ? 


1. उस समय नदी में नाव और जलपोत चलते थे।

 2. कई लोगों के पास मायावी विमान तक होते थे जिनपर एक साथ 4 लोग बैठते थे!

3. रावण के पास पुष्पक विमान के साथ और कई विमान और आधुनिक नाव व समुंद्री जलपोत थे।

4. उस समय लोकप्रिय खेल शतरंज था जिसकी रचना रावण की पत्नी मंदोदरी ने की थी उस समय इसे चतुरंग कहते थे!

5. पुराणों के अनुसार श्रीराम और रावण का युद्ध धनुष, बाण,गदा, तलवार और आदि से भी ज्यादा शस्त्रो से लड़ा गया था!

6. जिस तरह आज के समय कई तरह की Missile, Rocket, Bomb, Tank और कई हथियार होते है उसी तरह के एक हथियार से सदासुर राक्षस ने श्रीराम की सेना पर प्रहार किया जिसने सुवेल नामक पर्वत के साथ दक्षिण भारत के गिरी को समंदर में गिरा दिया था।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

ऑफिस के बिजी शेड्यूल और थकान के उपरांत एक महिला मेट्रो में चढ़ी और अपनी सीट पे बैठकर आंखें बंद करके थोड़ा मानसिक आराम कर तनाव दूर कर रही थी..

जैसे ही ट्रेन स्टेशन से आगे बढ़ी, वर्मा जी जो कि महिला के बगल वाली सीट पर बैठे थे...

अपना मोबाइल निकाला और जोर जोर से बातें करने लगे.. वर्मा जी का संवाद इस प्रकार था :-

जानेमन, मैं अनिल बोल रहा हूं और मेट्रो पकड़ ली है.. हां, मुझे पता है कि अभी सात बजे है पांच नहीं.. मैं मीटिंग में व्यस्त था इसलिए देर हो गई..

नहीं जानेमन, मैं एकाउन्टेंट प्रीति के साथ नहीं बल्कि बॉस के

साथ मीटिंग में था..

नहीं जान, केवल तुम अकेली ही मेरे जीवन मे हो.. हाँ, पक्का कसम से..!!

पन्द्रह मिनट बाद भी जब वर्मा जी जोर जोर से वार्तालाप जारी किए हुए थे..

तब वो महिला जो कि परेशान हो चुकी थी.. फोन के पास जाकर जोर से बोली :-

अनिल डार्लिंग फ़ोन बंद करो ना.. बहुत हो चुका.. अब तुम्हारी प्रीती और इंतजार नहीं कर सकती..!!

अब वर्मा जी हॉस्पीटल से वापिस आ चुके है और..उन्होंने सार्वजनिक स्थान पर मोबाइल का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर दिया है..!!

आप भी ध्यान रखें वरना कोई प्रीति आपकी जिंदगी खराब कर सकती हैं।

 श्रवण कुमार के पिता रत्नऋषि नंदीग्राम के राजा अश्वपति के राजपुरोहित थे और कैकेयी राजा अश्वपति की बेटी थी। रत्नऋषि ने कैकेयी को सभी शास्त्र वेद पुराण की शिक्षा दी।

एक दिन बातों ही बातों में अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ की चर्चा चल पड़ी। रत्नऋषि ने कैकेयी को बतलाया कि दशरथ की कोई संतान राज गद्दी पर नहीं बैठ पायेगी और साथ ही ज्योतिष गणना के आधार पर यह भी बतलाया कि दशरथ की मृत्यु के पश्चात यदि चौदह वर्ष के दौरान कोई संतान गद्दी पर बैठ भी गया तो रघुवंश का नाश हो जाएगा।

यह बात कैकेयी ने पूरी तरह हृदयगंम कर लिया और विवाह के बाद भी कैकेयी के जेहन मे यह बात पूरी तरह समायी हुई थी।

जब राम के राज तिलक करने का अवसर आया तो बुद्धिमती कैकेयी को राजपुरोहित के कथन का स्मरण हो आया और उसने यह निश्चय कर लिया कि वह अपने प्रिय पुत्र राम को रघुवंश के विनाश का कारण नहीं बनने देगी और वही हुआ।

राम के वन गमन के पश्चात् भी कैकेयी भरत के लिए भी यही चाहती थी कि वह राजसिंहासन पर बैठ कर राज्य का संचालन न करे और यही हुआ। भरत ने राज कार्य तो संभाला लेकिन राजसिंहासन धारण न कर सिंहासन पर राम की चरण पादुका स्थापित कर राज्य का शासन कुशासन पर बैठ कर संचालित किया।

गुरुवार, 11 जुलाई 2024

 एक बार भूतभावन भगवान् शंकर ने अपनी प्राणवल्लभा पार्वती जी से अपने ही साथ भोजन करने का अनुरोध किया। भगवती पार्वती जी ने यह कहकर टाला कि वे विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर रही हैं। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके शिवजी ने जब पुनः पार्वती जी को बुलाया तब भी पार्वती जी ने यही उत्तर दिया कि वे विष्णुसहस्रनाम के पाठ के विश्राम के पश्चात् ही आ सकेंगी। शिव जी को शीघ्रता थी। भोजन ठण्डा हो रहा था। अतः भगवान् भूतभावन ने कहा- पार्वति! राम राम कहो। एक बार राम कहने से विष्णुसहस्रनाम का सम्पूर्ण फल मिल जाता है। क्योंकि श्रीराम नाम ही विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है। इस प्रकार शिवजी के मुख से ‘राम’ इस दो अक्षर के नाम का विष्णुसहस्रनाम के समान सुनकर ‘राम’ इस द्व्यक्षर नाम का जप करके पार्वती जी ने प्रसन्न होकर शिवजी के साथ भोजन किया।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।

 सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥

हे पार्वति! मैं भी इन्हीं मनोरम राम में रमता रहता हूँ। यह राम नाम विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है। 

इस मंत्र को श्री राम तारक मंत्र भी कहा जाता है। और इसका जाप, सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समतुल्य है। यह मंत्र श्री राम रक्षा स्तोत्रम् के नाम से भी जाना जाता है।

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण

कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम

राम राम हरे हरे॥

 श्रील प्रभुपाद जी महाराज ने इस 'हरे कृष्ण महामंत्र' को पूरे विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। यह अति पवित्र मंत्र है । 

दुनियाभर में भगवान कृष्ण के असंख्य भक्त हैं. इन सभी के लिए एक इंटरनेशनल संगठन का निर्माण किया गया.जिसका इस्कॉन नाम दिया गया, इस्कॉन का पूरा नाम इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कॉन्शसनेस है. 

1. इस्कॉन मंदिर के अनुयाई तामसिक भोजन जैसे प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा का सेवन नहीं करते.

2. इन लोगों को अनैतिक आचरण वाली चीजों से दूर रहना होता है.

3. नियमित रूप से सभी को एक घंटा शास्त्रों का अध्ययन करना होता है. जिसमें गीता और भारतीय धर्म से जुड़े शास्त्रों के बारे में पढ़ते हैं.

4. सबसे मुख्य नियम हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे महामंत्र की 16 बार माला करनी होती है.



बुधवार, 10 जुलाई 2024

प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है। शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए कृष्ण से कहता है। सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यही माना है कि मन की इस कायरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। 

तब मोहयुक्त हो अर्जुन कायरता तथा शोक युक्त वचन कहता है। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

कृष्ण ने अर्जुन की वह स्थिति देखकर जान लिया कि अर्जुन का शरीर ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने से पहले ही उस अद्भुत क्षत्रिय का मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु कर्तव्य आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

मंगलवार, 9 जुलाई 2024

 15. सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता ना इस लोक में है ना ही कहीं और।

16. जब इंसान अपने काम में आनंद खोज लेता हैं, तब वे पूर्णता प्राप्त कर लेता हैं। 

17. व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को वश में रखने के लिए बुद्धि और मन को नियंत्रित रखना होगा।

 7. जो व्यवहार आपको दूसरों से अपने लिए पसंद ना हो, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ भी ना करें। 

8. हे पार्थ, तुम फल की चिंता मत करो, अपना जरुरी कर्म करते रहो, मै फल जरूर दुंगा। 


9. तुम्हारे साथ जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वो भी अच्छा है और जो होगा वो भी अच्छा होगा।


10. जीवन का आनंद ना तो भूतकाल में है और ना भविष्यकाल में। बल्कि जीवन तो बस वर्तमान को जीने में है।


11. मन की शांति से बढ़कर इस संसार में कोई भी संपत्ति नहीं है।


12. जो व्यक्ति मन को नियंत्रित नहीं करते, उनके लिए मन शत्रु के समान कार्य करता हैं। 


13. जो लोग बुद्धि को छोड़कर भावनाओं में बह जाते हैं, उन्हें हर कोई मुर्ख बना सकता हैं। 


14. कोई भी इंसान अपने जन्म से नहीं, बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।

 1. कोई भी अपने कर्म से भाग नहीं सकता, कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ता हैं। इसलिए अच्छे कर्म करो ताकि अच्छे फल मिले। 

2. ज्यादा खुश होने पर और ज्यादा दुखी होने पर निर्णय नहीं लेना चाहिए। क्योंकि यह दोनों परिस्थितियां आपको सही निर्यय नहीं लेने देती हैं। 


3. जो होने वाला हैं वो होकर ही रहता है, और जो नहीं होने वाला वह कभी नहीं होता, जो ऐसा मानते हैं, उन्हें चिंता कभी नहीं सताती हैं। 

4. सही कर्म वह नहीं है जिसके परिणाम हमेशा सही हो बल्कि सही कर्म वह है जिसका उद्देश्य कभी भी गलत ना  हो। 

5. धरती पर जिस तरह मौसम में बदलाव आता हैं, उसी तरह जीवन में भी सुख- दुःख आता जाता रहता हैं। 


6. मानव कल्याण ही भगवद गीता का प्रमुख उद्देश्य है, इसलिए मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय, मानव कल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए। 

 आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले जो भक्त पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।

वैदिक परम्परा में भोजन इस भावना से बनाया जाता था कि भोजन भगवान के सुख के लिए है। फिर भोज्य पदार्थों के एक भाग को किसी पात्र में रखकर मौखिक रूप से या मन से भगवान से इसका भोग लगाने की प्रार्थना की जाती थी। भगवान का भोग लगाने के पश्चात पात्र में रखे भोजन को भगवान का प्रसाद या भगवान की कृपा समझा जाता है।  श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह व्याख्या की है कि सर्वप्रथम भगवान के भोग के लिए अर्पित किए गए भोजन को जब प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है तब वह मनुष्यों को पाप मुक्त करता है और जो भगवान को भोग लगाए बिना भोजन ग्रहण करते हैं, वे पाप अर्जित करते हैं।

यदि हम अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन ग्रहण करते हैं तब भी हम जीवन के विनाशकारी कर्मफलों से बंधन में पड़ जाते हैं। इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द आत्म-कारणात् का अर्थ 'अपना निजी सुख' है। किन्तु यदि हम भगवान को अर्पित करने के पश्चात यज्ञ के अवशेषों का प्रसाद के रूप में सेवन करते हैं तब हमारी भावना परिवर्तित हो जाती है और हम अपने शरीर को भगवान की धरोहर के रूप में देखते हैं जिसकी देखभाल भगवान की सेवा के लिए की जाती है। हमें भगवान की कृपा से प्राप्त अनुमत्य भोजन को इस भावना के साथ ग्रहण करना चाहिए कि यह हमारे शरीर को स्वस्थ बनाए रखेगा। 

 परमपिता परमात्मा संसार की शासन व्यवस्था के नियंत्रण और संचालन संबंधी अपने कार्य देवताओं के माध्यम से करते हैं। ये देवता भौतिक ब्रह्मांड के उच्च लोक जिसे स्वर्ग या देवलोक कहा जाता है, में निवास करते हैं। देवतागण भगवान नहीं हैं अपितु वे भी हमारे जैसी आत्माएँ हैं। उन्हें संसार के संचालन से संबंधित दायित्वों का निर्वाहन करने हेतु पद सौंपे गये हैं। संसार के प्रशासन संबंधी कार्यों का संचालन करने के लिए  कुछ पद जैसे अग्निदेव अग्नि का देवता, वायु देव वायु का देवता, वरुणदेव समुद्र का देवता, इन्द्रदेव स्वर्ग के देवताओं का राजा आदि पदों का सृजन किया गया है। पूर्वजन्म के संस्कारों, गुणों और पाप-पुण्यमय कर्मों के आधार पर जीवात्मा को इन पदों पर नियुक्त किया जाता है। ये पद दीर्घकाल के लिए निश्चित होते हैं और इन पदों पर आसीन लोग ब्रह्मांड के शासन का संचालन करते हैं। ये सब देवता हैं। वेदों में स्वर्ग के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के कर्मकाण्डों एवं धार्मिक विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है और इनके बदले में देवता लौकिक सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। जब हम अपने यज्ञ कर्म भगवान की संतुष्टि के लिए करते हैं तब स्वर्ग के देवता भी स्वतः संतुष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार हम किसी वृक्ष की जड़ को पानी देते है तब वह स्वतः उसके पुष्पों, फलों, पत्तियों शाखाओं और लताओं तक पहुँच जाता है। 

 विष्णु भगवान की उपासना करने से सभी देवताओं की स्वतः उपासना हो जाती है क्योंकि वे अपनी शक्तियाँ उनसे प्राप्त करते हैं। इसलिए यज्ञ कर्म के निष्पादन से देवतागण वास्तव में प्रसन्न होते हैं और वे कृपापूर्वक भौतिक प्रकृति के उपादानों का सामंजस्य करते हुए मानव समाज के लिए सुख समृद्धि की व्यवस्था करते हैं।

  हाथ हमारे शरीर का अभिन्न अंग है। यह अपने पोषण हेतु शरीर से रक्त, ऑक्सीजन, विटामिन आदि प्राप्त करता है और इसके बदले में यह शरीर के लिए आवश्यक कार्य करता है। यदि हाथ यह सोचने लगे कि शरीर की सेवा करना एक बोझ है और यह निर्णय कर ले कि शरीर ही उसकी सेवा करे तब हाथ एक क्षण के लिए भी चेतन नहीं रह सकता। यदि वह शरीर के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करता है तब हाथ का निजी स्वार्थ भी पूरा हो जाता है। समान रूप से जीवात्माएँ भगवान का अणु अंश हैं और भगवान की अनन्त सृष्टि में हम सब को भी अपनी भूमिका का निर्वाहन करना चाहिए। जब हम अपने समस्त कार्यों को यज्ञ के रूप में भगवान की सेवा में अर्पित करते हैं तब इससे हमारे निजी हित की भी स्वाभाविक रूप से तुष्टि होती है। 

प्रायः हवन कुंड में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन करने को यज्ञ कर्म कहा जाता है। परन्तु भागवद्गीता में वर्णित 'यज्ञ' में धार्मिक ग्रंथों में लिखित सभी नियत कर्म भी सम्मिलित हैं जिन्हें हम भगवान को अर्पित करने के भाव से सम्पन्न करते हैं।

 डाकू हत्या करने के प्रयोजन से चाकू का प्रयोग करता है जबकि एक सर्जन उसी चाकू का प्रयोग एक उपकरण के रूप में लोगों का जीवन बचाने के लिए करता है। यह चाकू स्वयं न तो किसी की हत्या करता है और न ही किसी के जीवन की रक्षा करता है। इसके प्रभाव का परिणाम इसका प्रयोग करने के प्रयोजन से ज्ञात होता है। कोई भी कर्म बुरा या अच्छा नहीं होता किन्तु हमारी सोच इन्हें ऐसा बनाती है।  मनुष्य की मनोदशा के अनुसार यह बंधन या उत्थान का कारण हो सकता है। इन्द्रिय सुख भोगों और अपने अहम् की तुष्टि के लिए किया गया कार्य भौतिक संसार में बंधन का कारण होता है और भगवान के सुख के लिए यज्ञ के रूप में किया गया कर्म माया के बंधनों से मुक्त करता है तथा भगवान की दिव्य कृपा प्राप्त करने की ओर उत्साहित करता है। क्योंकि कर्म करना हमारी प्रकृति है और हम दो प्रकार के कार्यों में किसी एक को करने के लिए बाध्य होते हैं। हम एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकते क्योंकि हमारा मन खाली नहीं रह सकता। अगर कोई भी कार्य हम भगवान को अर्पण किए बिना करते हैं तब हम अपने मन और इन्द्रियों की तुष्टि के लिए कार्य करने के लिए विवश होंगे। जब हम किसी कार्य को समर्पण की भावना से सम्पन्न करते हैं तब हम यह पाते हैं कि यह सारा संसार और उसमें व्याप्त सभी वस्तुएँ भगवान से संबंधित हैं और उनका उपयोग भगवान की सेवा के लिए ही है। 

सोमवार, 8 जुलाई 2024

 जब श्रीकृष्ण धरती पर मनुष्य के रूप में प्रकट हुए तब उन्होंने योद्धा राजाओं के परिवार के एक सदस्य के रूप में समाज में अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार उपयुक्त सभी प्रकार के अपेक्षित शिष्टाचारों और कुलाचारों को अपनाया। यदि वे इसके विपरीत कर्म करते तब अन्य मनुष्य भी यह सोचकर उनका अनुकरण करते कि उन्हें भी धर्मपरायण राजा वासुदेव के सुयोग्य पुत्र के आचरण का अनुकरण करना चाहिए। यदि श्रीकृष्ण वैदिक कर्म का अनुपालन करने में असफल हो जाते तब मानव जाति भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर कर्म के अनुशासन से पलायन कर अराजकता की स्थिति में आ जाती। यह एक गम्भीर अपराध होता और श्रीकृष्ण इसके दोषी कहलाते इसलिए वे अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि यदि वह अपने वर्ण धर्म का पालन नहीं करेंगे तब उसके कारण समाज में अराजकता उत्पन्न होगी। 

अर्जुन युद्ध में पराजित न होने वाला विश्व विख्यात योद्धा था और धर्मपरायण सत्यवादी राजा युधिष्ठर का भाई था। यदि अर्जुन धर्म की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करने से मना कर देता तब अन्य पराक्रमी और श्रेष्ठ योद्धा भी उसका अनुकरण करते हुए धर्म की रक्षा के निमित्त अपने नियत कर्त्तव्य पालन को त्याग देते। इससे संसार का संतुलन डगमगा जाता और निर्दोष तथा सदगुणी लोगों का विनाश हो जाता। इसलिए श्रीकृष्ण ने समूची मानव जाति के कल्याणार्थ अर्जुन को उसके लिए निश्चित वैदिक कर्त्तव्यो की उपेक्षा न करने के लिए मनाया।

 हम सब इसलिए कार्य करते हैं क्योंकि हमारी कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। हम सब भगवान के अणु अंश हैं जो आनन्द के महासागर हैं और इसलिए हम भी आनन्द चाहते हैं। फिर भी हमें अभी तक पूर्ण आनन्द प्राप्त नहीं हुआ है क्योंकि हम स्वयं को असंतुष्ट और अपूर्ण समझते हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, केवल आनन्द की प्राप्ति के लिए ही करते हैं लेकिन आनन्द भगवान की एक शक्ति है और केवल वे ही असीम आनन्द के स्वामी हैं। भगवान ही पूर्ण और स्वयंसिद्ध हैं और उन्हें किसी बाहरी पदार्थ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती इसलिए उन्हें आत्माराम, आत्मरति और आत्मक्रिया भी कहा जाता है। यदि ऐसा परम पुरुष कोई कार्य करता है तब उसका केवल एकमात्र यह कारण होता है कि वे अपने लिए कुछ न कर लोगों के कल्याण के लिए ही कार्य करेगा। इस प्रकार से श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि साकार रूप में भी ब्रह्माण्ड में मेरे लिए किस प्रकार के नियत कर्म नहीं हैं लेकिन फिर भी मैं लोगों के कल्याण के लिए कर्म करता हूँ। अब वे स्पष्ट करते हैं कि जब वे कर्म करते हैं तब भी उससे किस प्रकार से मानव मात्र का कल्याण पूरा होता है।

 प्राचीनकाल में सौभरि नाम के परम तपस्वी थे सौभरि का अपने शरीर पर इतना नियंत्रण था कि वे यमुना नदी के बीच में जल में डुबकी लगाकर जल के नीचे तपस्या करते थे। एक दिन उन्होंने दो मछलियों को मैथुन क्रिया करते हुए देख लिया। इस दृश्य ने उनके मन और इन्द्रियों को हर लिया और उनमें संभोग करने की इच्छा जागृत हो गयी। उन्होंने तपस्या को बीच में छोड़ दिया और नदी से बाहर निकल आये और अपनी काम-वासना की तृप्ति के संबंध में सोचने लगे। उस समय अयोध्या में मान्धाता नामक राजा, जो बहु-यशस्वी और दयालु शासक था। उसकी पचास कन्याएँ थीं जो सब एक-दूसरे से सुन्दर थीं। सौभरि ने राजा के पास जाकर उससे पचास राजकुमारियों में से एक कन्या उसे सौंपने को कहा। राजा को उस तपस्वी की विवेकशीलता पर आश्चर्य हुआ और वह समझ गया-"यह वृद्ध तपस्वी विवाह करना चाहता है। राजा, तपस्वी सौभरि की शक्ति से परिचित होने के कारण वह भयभीत थे कि यदि उन्होंने सौभरि मुनि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो वे राजा को श्राप दे देंगे। राजा के लिए इस प्रस्ताव को मानने का अर्थ यह होता कि उसकी एक कन्या का जीवन नष्ट हो जाता। वह दुविधा में पड़ गया। राजा ने कहा, "हे पुण्यात्मा! मुझे आपके आग्रह को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। कृपया आसन ग्रहण करें, मैं अपनी पचास कन्याओं को आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ और जो भी कन्या आपका वरण करेगी, मैं उससे आपका विवाह कर दूंगा।" राजा को विश्वास था कि उसकी कोई भी कन्या उस बूढ़े तपस्वी का चयन नहीं करेगी और इस प्रकार से वह उस मुनि के श्राप से बच जाएगा। सौभरि राजा के अभिप्राय को भली-भांति समझ गया। उन्होंने राजा से कहा कि वे कल आएँगे। संध्या के समय उसने अपनी योग शक्ति द्वारा स्वयं को एक सुंदर नवयुवक के रूप में परिवर्तित कर लिया। अगले दिन जब सौभरि मुनि महल में पहुंचे तब सभी पचास राजकुमारियों ने उन्हें पति के रूप में वरण कर लिया। राजा ने अपने दिए गये वचन से बंधे होने के कारण विवश होकर अपनी सभी कन्याओं का विवाह तपस्वी के साथ कर दिया। अब राजा को अपनी कन्याओं में परस्पर कलह होने की चिन्ता सताने लगी क्योंकि उन्हें एक ही पति के साथ जीवन व्यतीत करना था। सौभरि ने पुनः अपनी योग शक्ति का प्रयोग किया। राजा की आशंका को दूर करने के लिए उसने अपने पचास रूपा धारण कर लिए और अपनी पत्नियों के लिए पचास महल बना दिए और उन सभी के साथ अलग-अलग रहने लगा। इस प्रकार सहस्रों वर्ष व्यतीत हो गए। 

पुराणों में उल्लेख है कि सौभरि की उन सभी पत्नियों से अनेक सन्तानों ने जन्म लिया और उनकी आगे और संतानें हुई और यहाँ तक कि एक छोटा नगर बस गया। एक दिन सौभरि के चित्त में विचार आया और वे शोक से कहने लगे “अहो इमं पश्यत मे विनाशं " अर्थात हे मनुष्यों! तुम में से जो लौकिक पदार्थों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे सावधान हो जाएँ। मेरे अधोपतन की ओर देखें कि पहले मैं कहाँ था और अब मैं कहाँ पर हूँ। मैंने योग शक्ति द्वारा पचास शरीर धारण किए तथा सहस्त्रों वर्षों तक पचास स्त्रियों के साथ रहा फिर भी इन्द्रिय भोगों से तृप्ति नहीं हुई, अपितु और अधिक तुष्टि की लालसा बनी रही। अतः मेरे अधोपतन से शिक्षा लें और सावधान रहकर इस दिशा की ओर न भटकें।"

 यह गीता के सभी 18 अध्यायों का सार मात्र 18 वाक्यों में हैं।

वन लाइनर गीता

अध्याय 1 - गलत सोच ही जीवन की एकमात्र समस्या है।

अध्याय 2 - सही ज्ञान ही हमारी सभी समस्याओं का अंतिम समाधान है।

अध्याय 3 - निःस्वार्थता ही प्रगति और समृद्धि का एकमात्र मार्ग है।

अध्याय 4 - प्रत्येक कार्य प्रार्थना का कार्य हो सकता है।

अध्याय 5-व्यक्तित्व के अहंकार को त्यागें और अनंत के आनंद का आनंद लें।

अध्याय 6 - प्रतिदिन उच्च चेतना से जुड़ें।

अध्याय 7 - आप जो सीखते हैं उसे जिएं।

अध्याय 8 - अपने आप को कभी मत छोड़ो।

अध्याय 9 - अपने आशीर्वाद को महत्व दें।

अध्याय 10 - चारों ओर देवत्व देखें।

अध्याय 11 - सत्य को जैसा है वैसा देखने के लिए पर्याप्त समर्पण करें।

अध्याय 12 - अपने मन को उच्चतर में लीन करें।

अध्याय 13 - माया से अलग होकर परमात्मा से जुड़ो।

अध्याय 14 - एक ऐसी जीवन-शैली जिएं जो आपकी दृष्टि से मेल खाती हो।

अध्याय 15 - देवत्व को प्राथमिकता दें।

अध्याय 16 - अच्छा होना अपने आप में एक पुरस्कार है।

अध्याय 17 - सुखद पर अधिकार चुनना शक्ति की निशानी है।

अध्याय 18 - चलो चलें, ईश्वर के साथ मिलन की ओर बढ़ते हैं।

 इन्द्रियों की तुष्टि करने के लिए उसके विषयों से संबंधित इच्छित पदार्थों की आपूर्ति करते हुए इन्द्रियों को शांत करने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे जलती आग में घी की आहुति डालकर उसे बुझाने का प्रयास करना। इससे अग्नि कुछ क्षण के लिए कम हो जाती है किन्तु फिर एकदम और अधिक भीषणता से भड़कती है।  इन इच्छाओं की तुलना शरीर के खाज रोग से की जा सकती है। खाज कष्टदायक होती है और खुजलाहट करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न करती है। खुजलाहट समस्या का समाधान नहीं है, कुछ क्षण इससे राहत मिलती है और फिर यह खुजलाहट अधिक वेग से बढ़ती है। यदि कोई इस खाज को कुछ समय तक सहन कर लेता है तब इसका दंश दुर्बल होकर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। यह खाज से राहत पाने का रहस्य है। यही तर्क कामनाओं पर भी लागू होता है। मन और इन्द्रियाँ सुख के लिए असंख्य कामनाएँ उत्पन्न करती हैं लेकिन जब तक हम इनकी पूर्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं तब ये सब सुख मृग-तृष्णा की भांति भ्रम के समान होते हैं। किन्तु जब हम भगवान का अलौकिक सुख प्राप्त करने के लिए इन सब कामनाओं का त्याग कर देते हैं तब हमारा मन और इन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं। 

 

 "सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए साकाम कर्मों में संलग्न रहते हैं किन्तु फिर भी उन्हें इससे संतोष नहीं मिलता अपितु फल के प्रति आसक्त होकर कर्म करने से उनके कष्ट और अधिक बढ़ जाते हैं।" परिणामस्वरूप व्यावहारिक रूप से सभी लोग इस संसार मे दुखी है। कुछ शारीरिक और मानसिक कष्ट भोग रहे हैं। कुछ लोग अपने परिवार के सदस्यों या सगे-संबंधियों से उत्पीड़ित होते हैं और कुछ धन और जीवन यापन के लिए मूलभूत वस्तुओं के अभाव से दुखी होते हैं। भौतिक सुखों में लिप्त सांसारिक मनोवृत्ति वाले लोग जानते हैं कि वे वास्तव मे दुखी हैं किन्तु वे सोचते हैं कि जो अन्य लोग उनसे अधिक समृद्ध हैं, वे सुखी होंगे और इसलिए वे भी सांसारिक सुख सुविधाओं को बढ़ाने की दिशा की ओर निरन्तर भागने में लगे रहते हैं। यह अंधी दौड़ अनेक जन्मों तक चलती रहती है और फिर भी सुख की कोई किरण दिखाई नहीं देती। जब लोगों को यह अनुभव होता है कि साकाम कर्मों में संलग्न होने से कभी भी कोई मनुष्य सुख प्राप्त नहीं कर सकता, तब उन्हें समझ में आता है कि वे जिस दिशा की ओर भाग रहे हैं, वह निस्सार है और फिर वे आध्यात्मिक जगत की ओर मुड़ने के लिए सोचते हैं। 

वे बुद्धिमान पुरुष जो आध्यात्मिक ज्ञान से दृढ़-निश्चयी हो जाते हैं और यह जान जाते हैं कि भगवान सभी पदार्थों के भोक्ता हैं। परिणामस्वरूप वे अपने कर्मों के प्रति आसक्ति के भाव को त्याग कर सब कुछ भगवान को अर्पित करते हैं और सुख-दुख आदि सभी को समान रूप से स्वीकार करते हैं। ऐसा करने से उनके कर्म उन प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाते हैं जो मनुष्य को जन्म और मृत्यु के बंधन मे बांधते हैं।

रविवार, 7 जुलाई 2024

 

स्वर्गलोक में भौतिक ऐश्वर्य और इन्द्रिय तृप्ति और जीवन का आनन्द उठाने के भरपूर साधन उपलब्ध होते हैं। किन्तु स्वर्गलोक जाने की कामना आध्यात्मिक उत्थान के लिए सहायक नहीं होती। स्वर्गलोक में भी मायाबद्ध संसार की तरह राग और द्वेष पाया जाता है और स्वर्ग लोक में जाने के पश्चात जब हमारे संचित पुण्यकर्म समाप्त हो जाते है तब हमें पुनः मृत्युलोक में वापस आना पड़ता है।

 अल्पज्ञानी लोग स्वर्ग की कामना रखते हैं और सोचते हैं कि वेदों का केवल यही उद्देश्य है। इस प्रकार वे भगवद्प्राप्ति का प्रयास किए बिना निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं। जबकि आध्यात्मिक चिन्तन में लीन साधक स्वर्ग की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं बनाते।

"जो स्वर्ग जैसे उच्च लोकों का सुख पाने के प्रयोजन से वेदों में वर्णित आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों में व्यस्त रहते है और स्वयं को धार्मिक ग्रंथों का विद्वान समझते हैं किन्तु वास्तव में वे मूर्ख हैं। वे एक अंधे व्यक्ति द्वारा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाने वाले के समान हैं।"

 हमारे सामने सबसे बड़ा भय यह है कि अगले जन्म में हमें संभवतः मानव देह प्राप्त होने के स्थान पर कहीं निम्न योनियों जैसे पशु, पक्षी आदि की योनियों में जन्म लेना और नरक लोकों आदि में न जाना पड़े। हमें यह आत्मसंतुष्टि नहीं हो सकती कि अगले जन्म में हमारे लिए मनुष्य योनि सुरक्षित रहेगी क्योंकि पुनर्जन्म का निर्धारण हमारे कर्मों और इस जीवन की चेतनावस्था के अनुसार होता है। 

पृथ्वी पर 84 लाख योनियों का अस्तित्व पाया जाता है। मनुष्य से निम्न योनियों-पशु-पक्षी, मीन, कीट-कीटाणु, आदि में मनुष्यों के समान बुद्धि नहीं होती। यद्यपि वे मनुष्य की भांति खाने, सोने और अपनी रक्षा व संभोग आदि गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त करने के प्रयोजनार्थ मानवजाति को बुद्धि के गुण से सम्पन्न किया गया है ताकि वह इसका प्रयोग स्वयं के आत्म उत्थान के लिए कर सके। अगर मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग पशुओं की भांति केवल खाने, सोने, संभोग और अपनी रक्षा करने आदि जैसे कार्यों में भोग विलास के लिए करता है तब यह मानव जीवन को व्यर्थ करने के समान है। यदि कोई मनुष्य जीवन के क्षणिक सुख के लिए खाद्य पदार्थों का सेवन करने में ही जीवन व्यतीत कर देता है तब अगले जन्म में उस व्यक्ति के लिए सुअर का शरीर अति उपयुक्त होगा और उस मनुष्य को अगले जन्म में सुअर का शरीर मिलेगा। अगर कोई निद्रा को ही जीवन का लक्ष्य बनाता है तब भगवान उसकी रुचि के अनुरूप पोलर बीयर के शरीर को उपयुक्त समझ कर अगले जन्म में उसे ध्रुवीय भालू की पशु योनि में भेजेंगे। 

 यदि हम छोटे शिशु की गतिविधियों पर ध्यानपूर्वक विचार करते हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है कि वह बिना किसी स्पष्ट कारण के कभी प्रसन्न, कभी उदास और कभी भयभीत दिखाई देता है।  छोटा शिशु अपने पूर्वजन्म का स्मरण करता रहता है और इसी कारण समय-समय पर उसकी मनोदशा में परिवर्तन देखने को मिलता है। हालांकि जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती है तब उसके मन-मस्तिष्क मे वर्तमान जीवन के संस्कार पूरी तरह अंकित हो जाते हैं तथा जिसके परिणामस्वरूप उसके पूर्वजन्म की स्मृतियाँ विलुप्त हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया भी अत्यंत पीड़ादायक होती है जो हमारी पूर्वजन्म की स्मृतियों के ठोस अंशों को मिटा देती है।  

 नवजात शिशु को भाषा का कोई ज्ञान नहीं होता। तब फिर कोई माँ जब अपने बालक के मुँह में अपना स्तन डाल कर उसे दूध पीना या स्तनपान करना कैसे सिखा सकती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नवजात शिशु ने अपने अनन्त पूर्व जन्मों में यहाँ तक कि पशु की योनी में स्तन, निप्पल और थन से अपनी असंख्य माताओं का दूध पिया होता है। इसलिए 

जब माँ अपने बच्चे के मुँह में स्तन का अग्रभाग डालती है, तब बच्चा स्वतः अपने पूर्व जन्म के अभ्यास के आधार पर अपनी माँ का स्तनपान करना आरंभ कर देता है।

 पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार किए बिना मानव मात्र में भेद करना अनिवर्चनीय और तर्कहीनता है।  यदि कोई व्यक्ति जन्म से अंधा है तब वह व्यक्ति यह कहे कि उसे ऐसा दण्ड क्यों मिला तब इसका तर्कसंगत उत्तर क्या होना चाहिए? यदि हम कहते हैं कि ये सब उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है तब वह यह तर्क देगा कि उसने केवल वर्तमान जीवन को देखा है और इस प्रकार से जन्म लेते समय उसके कोई पूर्वकर्म ही नहीं है जो उसे इस जन्म में बुरा फल देते। यदि हम कहते हैं कि यह भगवान की इच्छा थी तब यह भी अविश्वसनीय लगता है क्योंकि अकारण करुणा-करण भगवान जो सब पर बिना भेदभाव के करुणा करते हैं और वे कभी किसी को अनावश्यक रूप से अंधा नहीं बनाना चाहेंगे। इसकी तर्कसंगत व्याख्या यही है कि वह मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों के कारणवश अंधा है। इस प्रकार सामान्य मत और धर्मग्रंथों के प्रमाणों के आधार पर हमें पूर्वजन्म की अवधारणा को स्वीकार करना चाहिए।

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...