मंगलवार, 9 जुलाई 2024

  हाथ हमारे शरीर का अभिन्न अंग है। यह अपने पोषण हेतु शरीर से रक्त, ऑक्सीजन, विटामिन आदि प्राप्त करता है और इसके बदले में यह शरीर के लिए आवश्यक कार्य करता है। यदि हाथ यह सोचने लगे कि शरीर की सेवा करना एक बोझ है और यह निर्णय कर ले कि शरीर ही उसकी सेवा करे तब हाथ एक क्षण के लिए भी चेतन नहीं रह सकता। यदि वह शरीर के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करता है तब हाथ का निजी स्वार्थ भी पूरा हो जाता है। समान रूप से जीवात्माएँ भगवान का अणु अंश हैं और भगवान की अनन्त सृष्टि में हम सब को भी अपनी भूमिका का निर्वाहन करना चाहिए। जब हम अपने समस्त कार्यों को यज्ञ के रूप में भगवान की सेवा में अर्पित करते हैं तब इससे हमारे निजी हित की भी स्वाभाविक रूप से तुष्टि होती है। 

प्रायः हवन कुंड में अग्नि प्रज्जवलित कर हवन करने को यज्ञ कर्म कहा जाता है। परन्तु भागवद्गीता में वर्णित 'यज्ञ' में धार्मिक ग्रंथों में लिखित सभी नियत कर्म भी सम्मिलित हैं जिन्हें हम भगवान को अर्पित करने के भाव से सम्पन्न करते हैं।

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