गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 11


 युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।

अयुक्तः कामकारेण फलै सक्तो निबध्यते।। 12।।


इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है। और सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है।


दो ही प्रकार के वर्ग हैं जगत में, दो ही प्रकार के लोग हैं जगत में, सकामी और निष्कामी। आध्यात्मिक अर्थों में दो ही विभाजन हो सकते हैं। वे, जो कर्म में लीन होते हैं तभी, जब फल की आकांक्षा से उत्प्रेरित होते हैं। जब तक फल की आकांक्षा का तेल न मिले, तब तक उनके कर्म की ज्योति जलती नहीं। फ्यूल जो है, वह फल की आकांक्षा से मिलता है। वह जो ईंधन है, उसके बिना उनकी कर्म की अग्नि जलती नहीं। उनके कर्म की अग्नि को जरूरी है कि ईंधन मिले फल की आकांक्षा का।

और ध्यान रहे, फल की आकांक्षा बड़ी गीली चीज है; सूखी चीज नहीं है। होगी ही गीली। क्योंकि सूखी चीज भविष्य में कभी नहीं होती। सूखी चीज सदा अतीत में होती है। भविष्य में तो गीली आकांक्षाएं होती हैं। हो सकता है, हो भी जाएं; हो सकता है, न भी हों। पता नहीं क्या मार्ग लें, क्या फल आए। कुछ पक्का नहीं होता।

भविष्य बहुत गीला है। गीली लकड़ी की तरह है; मुड़ेगा; मुड़ सकता है। अतीत सूखा होता है, सूखी लकड़ी की तरह; मुड़ नहीं सकता। भविष्य की आकांक्षाओं को जो ईंधन बनाते हैं अपने जीवन की कर्म-अग्नि में, धुएं से भर जाते हैं। गीला है ईंधन। हाथ में फल नहीं लगता है, सिर्फ धुआं लगता है--दुख--आंखों में आंसू भर जाते हैं धुएं से, और कुछ परिणाम नहीं लगता है हाथ में।

एक तो इस तरह के लोग हैं जो कर्म में इंचभर भी न चलेंगे, जब तक फल उनको खींचे न। फल उनको ऐसे ही न खींचे, जैसे कि कोई जानवर की गर्दन में रस्सी बांधकर खींचता है। क्या आपको पता है कि पशु हम जानवर को इसीलिए कहते हैं। पशु संस्कृत का बहुत अदभुत शब्द है। उसका अर्थ है, जिसे खींचना हो, तो गले में पाश बांधना पड़ता है, उसको पशु कहते हैं। जिसे खींचने के लिए पाश बांधना पड़े, वह पशु। इसलिए बहुत पुराने ज्ञानी हमको पशु ही कहेंगे। जो भी भविष्य की आकांक्षा से बंधे हुए चलते हैं, वे पशु हैं।

पशु का मतलब, कर्म से नहीं चलते, फल से बंधे हुए चलते हैं। गर्दन फंसी है एक जाल में। भविष्य के हाथ में है वह रस्सी। वह खींच रहा है। या तो भविष्य खींचे, तो हम चलते हैं; कोई हमारी गर्दन में रस्सी बांध ले। और या अतीत धक्का दे, तो हम चलते हैं। जैसे कोई जानवर को पीछे से लकड़ी मारे या कोई बाहर से रस्सी खींचे आगे से।  तो ही जानवर चले।

तो पुराने ज्ञानी कहते हैं कि वह आदमी पशु है, जो या तो अतीत के कर्मों के धक्के की वजह से चलता है और या भविष्य की आकांक्षाओं के पाश में बंधकर खिंचता है। वह आदमी नहीं है अभी।

आदमी कौन है? आदमी वह है, जो अतीत के धक्के को भी नहीं मानता और जो भविष्य की आकांक्षा को नहीं मानता, जो वर्तमान के कर्म में जीता है। जो अतीत के धक्के को भी स्वीकार नहीं करता और जो भविष्य के आकर्षण को भी स्वीकार नहीं करता। जो कहता है, मैं तो अभी, यह जो क्षण मिला है, इसमें जीऊंगा।

लेकिन यह जीना तभी संभव है, जब कोई अतीत को और भविष्य को परमात्मा पर समर्पित कर दे। अन्यथा अतीत धक्के मारेगा, अन्यथा भविष्य खींचेगा।


आदमी बहुत कमजोर है। आदमी स्वभावतः बहुत सीमित शक्ति का है। आदमी भविष्य को और अतीत को बिना परमात्मा के सहारे के छोड़ना बहुत मुश्किल पाएगा। लेकिन परमात्मा को समर्पित करके आसान हो जाती है बात। छोड़ देता है कि जो तेरी मर्जी होगी, कल वह हो जाएगा। अभी जो समय मुझे मिला है, वह मैं काम में लगा देता हूं। और मेरा आनंद इतना ही है कि मैंने काम किया; फल से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।

आनंद जिसका कर्म बन जाता है! लेकिन तभी बन पाता है, जब कोई प्रभु पर समर्पित करने की सामर्थ्य रखता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, फल की आकांक्षा को छोड़कर, निष्काम होकर प्रभु को समर्पित कर देता है जो सारा जीवन, वही आनंद को उपलब्ध होता है। कामीजन, सकामीजन कभी आनंद को उपलब्ध नहीं होते। दुख का धुआं ही उनका फलश्रुति है।

लेकिन हम तो अगर मंदिर में परमात्मा पर कुछ समर्पण भी करने जाएं, तो सकाम होते हैं। प्रार्थना भी हम मुफ्त में नहीं करते; प्रार्थना में भी हम कुछ पाना चाहते हैं! हाथ भी जोड़ते हैं परमात्मा को, तो शर्त, कंडीशन होती है। कुछ मिल जाए। जिसे कुछ नहीं चाहिए, वह मंदिर जाता नहीं। जाता ही तब है कोई, जब उसे कुछ चाहिए।

और ध्यान रहे, जब कोई कुछ मांगने मंदिर जाता है, तो मंदिर पहुंच ही नहीं पाता। मंदिर पहुंच ही नहीं सकता है। मंदिर के द्वार पर ही निष्काम हो जाए जो, वही भीतर प्रवेश कर सकता है।

आप कहेंगे, हम तो मंदिर में रोज प्रवेश कर जाते हैं।

आप मकान में प्रवेश करते हैं, मंदिर में नहीं। मंदिर और मकान में बड़ा फर्क है। जिस मकान में भी आप निष्काम प्रवेश कर जाएं, वह मंदिर हो जाता है। और मंदिर में भी सकाम प्रवेश कर जाएं, वह मकान हो जाता है।

यह आप पर निर्भर करता है कि जहां आप प्रवेश कर रहे हैं, वह मंदिर है या मकान। जिस भूमि पर आप निष्काम होकर खड़े हो जाएं, वह तीर्थ हो जाती है। और जिस भूमि पर आप सकाम होकर खड़े हो जाएं, वह पाप हो जाती है। भूमि पर निर्भर नहीं है यह। यह आप पर निर्भर है। लेकिन हम तो पूरे समय कामवासना से ही जीते हैं। कुछ भी करेंगे...।

एक मित्र कल मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि इस भजन-कीर्तन से क्या मिलेगा? मैं भी करना चाहता हूं, लेकिन मिलेगा क्या? स्वाभाविक। न मिले, तो नाहक परेशान होने से कोई सार नहीं। मैंने उनसे कहा कि जब तक मिलने का खयाल है, तब तक कीर्तन न कर पाओगे। क्योंकि मिलने के खयाल से तो कीर्तन का कोई संबंध ही नहीं जुड़ता। फिर दूकान करो।

कीर्तन का तो अर्थ ही यह है कि कुछ घड़ी ऐसी भी है, जब हम कुछ भी नहीं पाना चाहते। कुछ दस क्षण के लिए हम ऐसे जीना चाहते हैं कि कुछ पाना नहीं, नान-परपजिव, कोई प्रयोजन नहीं है। जीवन मिला है, इसके आनंद में, इसके उत्सव में नाच रहे हैं। श्वास चल रही है, इसके आनंद-उत्सव में नाच रहे हैं। परमात्मा ने हमें भी इस योग्य समझा कि जीवन दे, इसकी खुशी में नाच रहे हैं। कुछ पाने के लिए नहीं, धन्यवाद की तरह, एक आभार, ग्रेटिटयूड की तरह। कीर्तन एक आभार है, थैंक्स गिविंग। कुछ पाने के लिए प्रयोजन नहीं है। कुछ मिलेगा नहीं उससे।

ऐसा जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं उससे, तो आप यह मत समझ लेना कि जो कीर्तन करते हैं, उन्हें कुछ मिलता नहीं है। ऐसा मत समझ लेना। जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं, तो मैं यह कहता हूं कि कीर्तन में आना हो, तो मिलने का खयाल छोड़कर आना। जो आ जाता है, उसे तो बहुत मिलता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन उसका खयाल रखकर जो आएगा, उसको नहीं मिलेगा। यह कठिनाई है।

अगर आप यह खयाल रखकर आए कि बहुत कुछ मिलेगा, तो आप खाली हाथ लौट जाएंगे। और अगर आप खाली मन आए; कुछ लेने नहीं, सिर्फ प्रभु को धन्यवाद देने, बेशर्त; हृदय भर जाएगा किसी अनूठे आनंद से। एक नया ही द्वार खुल जाएगा।

ध्यान रहे, कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि जो निष्काम कर्म करता है, उसे फल मिलता नहीं है। इस भूल में मत पड़ जाना कि उसको फल नहीं मिलता। और इस भूल में भी मत पड़ जाना कि जो सकाम कर्म करता है, उसको फल मिलता है। हालत बिलकुल उलटी है।

जो सकाम जीता है, उसे फल कभी नहीं मिलता। और जो निष्काम जीता है, उसके जीवन पर प्रतिपल फल की वर्षा होती है! लेकिन बड़ा उलटा नियम है जिंदगी का। जो मांगता है, वह भिखारी की तरह मांगता रहता है, उसे कभी नहीं मिलता। और जो नहीं मांगता, वह सम्राट की तरह खड़ा हो जाता है और सब उसे मिल जाता है।


कृष्ण की बात को भी ठीक से समझ लें। वे कहते हैं, दो तरह के लोग हैं। एक कामना से जीने वाले, सकामी। कुछ भी करेंगे, पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रेम तक करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रार्थना करने जाएंगे, तो पहले पक्का कर लेंगे कि फल क्या मिलेगा! फल पहले, फिर कुछ कदम उठाएंगे। इन्हें फल कभी नहीं मिलेगा। मेहनत ये बहुत करेंगे। दौड़ेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। इनकी हालत करीब-करीब वैसी होगी...।

जिंदगीभर कामना दौड़ाती है--लकड़ी के घोड़े ही हैं; कहीं पहुंचाते नहीं--दौड़ाती है। शायद आपको खयाल न हो, यह संस्कृत का शब्द संसार बहुत अदभुत है। इसका मतलब होता है, चक्कर, दि व्हील। 

यह पूरा का पूरा संसार सकाम चक्कर है, बस, इच्छा होती है, यह मिल जाएगा, यह मिल जाएगा। चक्कर लगा लेते हैं, मिलता कभी कुछ नहीं है। मरते हुए आदमी से पूछो कि क्या मिला?

वह आदमी शक्तिशाली है, जो कमजोरी को स्वीकार कर लेता है, क्योंकि तब कमजोरी के पार हुआ जा सकता है। सकाम दौड़ता है बहुत, पहुंचता कहीं भी नहीं है, सिवाय दुख के। निष्काम कहीं भी नहीं पहुंचना चाहता है, और जहां खड़ा होता है, वही से पहुंच जाता है।

तो यह मत सोचना आप कि निष्काम व्यक्ति को फल नहीं मिलता। निष्काम को ही फल मिलता है। लेकिन निष्काम फल चाहता नहीं। वह कर्म को पूरा कर लेता है और चुप रह जाता है। परमात्मा पर छोड़ देता है।

इतने भरोसे से जो समर्पण कर सकता है परमात्मा पर, वह अगर निष्फल चला जाए, तो इस पृथ्वी पर धर्म की फिर कोई जगह नहीं है। जो इतने भरोसे से परमात्मा पर छोड़ देता है कि करूंगा मैं और सो जाऊंगा, फल तेरे ऊपर रहा। अगर वह भी निष्फल चला जाए, तो फिर इस पृथ्वी पर धर्म की कोई भी जगह नहीं है।

लेकिन वह कभी निष्फल नहीं गया। इसलिए धर्म का कितना ही ह्रास होता चला जाए, धर्म मर नहीं सकता। और धर्म का कितना ही विरोध होता रहे, कोई न कोई उसे फिर जगा लेता है, फिर पुनरुज्जीवित कर देता है।

जिसको भी जिंदगी में इस राज का पता चल जाता है कि बिना मांगे मिलता है और मांगने से नहीं मिलता, वही व्यक्ति धार्मिक हो जाता है। और जब तक आपको इस सीक्रेट का पता नहीं है, आप चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान, चाहे जैन, चाहे ईसाई, चाहे आप कोई भी हों; मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों--कुछ भी न होगा।

जिस दिन आपको यह पता चल जाएगा कि जो नहीं मांगता, उसे मिलता है। जो प्रभु पर छोड़ देता है, वह पा लेता है। और जो अपने ही हाथ में सब कुंजी रखता है, वह सब गंवा देता है। जब तक आपको इसका पता नहीं है। तब तक आपकी जिंदगी में धर्म का अवतरण नहीं हो सकता है।

इस सूत्र में कृष्ण ने धर्म की बुनियादी 'की', कुंजी की बात कही है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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