शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 28

 

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।। 29।।

अपाने- निम्नगामी वायु में जुह्वति-अर्पित करते हैं; प्राणम् - प्राण को; प्राणे प्राण में; अपानम् - निम्नगामी वायु को; तथा-ऐसे ही अपरे अन्य प्राण-प्राण का अपान- निम्नगामी वायुः गती - गति को; रुद्धवा-रोककर प्राण आयाम श्वास रोक कर समाधि में परायणा:- प्रवृत्तः अपरे अन्य; नियत- संयमित, अल्प आहारा: खाकर प्राणान् प्राणों को प्राणेषु प्राणों में, जुद्धति-हवन करते हैं, अर्पित करते हैं।


अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं ( प्राणायाम) । वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण अपान को रोककर समाधि में रहते हैं। अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं।



योग का एक और आयाम इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं।

मनुष्य के पास अस्तित्व से जुड़े होने के बहुत द्वार हैं; एक द्वार नहीं, अनंत द्वार हैं। हम परमात्मा से बहुत-बहुत भांति से जुड़े हुए हैं। जैसे एक वृक्ष एक ही जड़ से नहीं जुड़ा होता पृथ्वी से, बहुत जड़ों से जुड़ा होता है। ऐसे हम भी अस्तित्व से बहुत जड़ों से जुड़े हुए हैं, एक ही जड़ से नहीं। और इसलिए अस्तित्व तक पहुंचने के लिए किसी भी एक जड़ के सहारे हम प्रवेश कर सकते हैं।



अभी मैंने कहा कि जीवन-ऊर्जा नाभि पर इकट्ठी है; यह एक द्वार है। जीवन-ऊर्जा प्राण पर भी संचालित है; श्वास पर भी। श्वास चलती है, तो हम कहते हैं, व्यक्ति जीवित है। श्वास गई, तो हम कहते हैं, व्यक्ति भी गया। श्वास पर सब खेल है। श्वास से ही शरीर और आत्मा जुड़ी है। श्वास सेतु है। इसलिए श्वास पर भी प्रयोग करके योगीजन उस परम अनुभूति को उपलब्ध हो पाते हैं।

श्वास या प्राण, उसका अपना प्राणयोग है। इसके भी बहुत-बहुत रूप हैं। संक्षिप्त में, थोड़ा-सा सारभूत प्राणयोग के संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक तो, श्वास की गति मनोदशा से बंधी है। जैसा होता मन, वैसी हो जाती श्वास की गति। जैसी होती अंतर-स्थिति, श्वास के आंदोलन और तरंगें, वाइब्रेशंस, फ्रीक्वेंसीज बदल जाती हैं। श्वास की फ्रीक्वेंसी, श्वास की तरंगों का आघात खबर देता है, मन की दशा कैसी है।

अभी तो मेडिकल साइंस उसकी फिक्र नहीं कर पाई, क्योंकि अभी मेडिकल साइंस शरीर के पार नहीं हो पाई है! इसलिए अभी प्राण पर उसकी पहचान नहीं हो पाई। लेकिन जैसे मेडिकल साइंस खून की गति को नापती है; रक्तचाप को, ब्लडप्रेशर को, खून के दबाव को नापती है। जब तक पता नहीं था, तब तक कोई खून के दबाव का सवाल नहीं था। रक्तचाप नई खोज है। रक्त का परिभ्रमण भी नई खोज है।

तीन सौ साल पहले किसी को पता नहीं था कि शरीर में खून चलता है। खयाल था कि भरा हुआ है। चलता है, ऐसा खयाल नहीं था, भरा हुआ है। जैसे बाल्टी में पानी भरा हुआ है, ऐसा आदमी में खून भरा हुआ है। उसमें परिभ्रमण हो रहा है, चल रहा है, इसका पता नहीं था। पता होता भी कैसे? क्योंकि हमें भीतर तो पता चलता नहीं कि खून चल रहा है।

खून के चलने का पता तीन सौ साल पहले ही लग पाया। और जब खून के चलने का पता लगा, तो यह भी पता लगा धीरे-धीरे कि खून का जो चाप है, जो प्रेशर है, वह व्यक्ति के स्वास्थ्य के गहरे अंगों से जुड़ा हुआ है। इसलिए ब्लडप्रेशर चिकित्सक के लिए नापने की खास चीज हो गई।

लेकिन अभी तक भी हम यह नहीं जान पाए कि जैसे ब्लडप्रेशर है, वैसा ब्रेथप्रेशर भी है, वैसा ही वायुचाप भी है। वैसे वायु का अधिक दबाव और कम दबाव, वायु की गति और तरंगों का आघात-भेद, व्यक्ति की अंतर मनोदशा को परिवर्तित करता है। वह उसकी जीवन-ऊर्जा से संबंधित है। थोड़ी-सी बातें आपको कहूं, तो खयाल में आ जाएगा।

जब आप क्रोध में होते हैं, तो आप खयाल करना, आपकी श्वास की गति बदल जाती है। वैसी ही नहीं रह जाती, जैसी साधारण होती है। क्यों? क्रोध में श्वास की गति बदलने की क्या जरूरत है? इसका मतलब यह भी कि अगर आप श्वास की गति पर काबू पा लें, तो आप फिर क्रोध पर काबू पा सकते हैं। अगर न बदलने दें श्वास की गति, तो क्रोध आना मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए जापान में वे बच्चों को घरों में सिखाते हैं। वह प्राणयोग का ही एक सूत्र है। वे बच्चों को यह नहीं कहते कि तुम क्रोध मत करो। और मैं मानता हूं कि जापानी इस मामले में सर्वाधिक होशियार हैं और सबसे कम क्रोध करते हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराती कौम हैं। और राज प्राणयोग का एक सूत्र है।

मां-बाप बच्चों को परंपरा से घर में यह सिखाते हैं कि जब क्रोध आए, तब तुम श्वास को आहिस्ता लो, धीमे-धीमे लो। गहरी लो और धीमे लो। स्लोली एंड डीप, धीमे और गहरी। बच्चों को वे यह नहीं कहते कि क्रोध मत करो, जैसा कि हम कहते हैं।

सारी दुनिया कहती है, क्रोध मत करो। क्रोध न करना, हाथ की बात नहीं है इतनी कि आपने कह दिया और बच्चा न करे। और मजा तो यह है कि जो बाप बच्चे को कह रहा है, क्रोध मत करो, अगर बच्चा न माने तो बाप ही क्रोध करके बता देता है कि नहीं मानता! इतना कहा कि क्रोध मत कर! वह भूल ही जाता है कि अब हम खुद ही वही कर रहे हैं, जो हम उसको मना किए थे।

क्रोध इतना हाथ में नहीं है, जितना लोग समझते हैं कि क्रोध मत करो। क्रोध इतना वालंटरी नहीं है, नान वालंटरी है। इतना स्वेच्छा में नहीं है, जितना लोग समझते हैं। इसलिए शिक्षा चलती रहती है; कुछ अंतर नहीं पड़ता है!

जापान ज्यादा ठीक समझा। योग का पुराना सूत्र, बुद्ध के द्वारा जापान पहुंचा। बुद्ध ने श्वास पर बहुत जोर दिया। बुद्ध का सारा योग, कृष्ण जो इस सूत्र में कह रहे हैं, प्राणयोग है।

इसलिए बुद्ध के सूत्र की गहरी बात अनापानसती योग कही जाती है। आती-जाती श्वास को देखना ही योग है, बुद्ध ने कहा। अगर कोई आती-जाती श्वास के राज को पूरा समझ ले, तो फिर उसको दुनिया में और कुछ करने को नहीं रह जाता। इसलिए बुद्ध तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया कि सब सध गया। बात ठीक कहते हैं। उधर से भी सब सध जा सकता है।

क्रोध आता है, तब आप देखें कि श्वास बदल जाती है। जब आप शांत होते हैं, तब श्वास बदल जाती है, रिदमिक हो जाती है। आप आरामकुर्सी पर भी लेटे हैं, शांत हैं, मौज में हैं, चित्त प्रसन्न है, पक्षियों जैसा हलका है, हवाओं जैसा ताजा है, आलोकित है। तब देखें, श्वास ऐसी हो जाती है, जैसे हो ही नहीं। पता ही नहीं चलता। बहुत हलकी हो जाती है; न के बराबर हो जाती है।

देखें, जब कामवासना मन को पकड़ती है, सेक्स मन को पकड़ता है, तो श्वास कैसी हो जाती है? श्वास एकदम अस्तव्यस्त हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, जब कामवासना मन में आंदोलित होती है। रक्तचाप बढ़ जाता है; शरीर पसीना छोड़ने लगता है, श्वास तेज हो जाती है और अस्तव्यस्त हो जाती है, टूट-फूट जाती है।

प्रत्येक समय भीतर की स्थिति के साथ श्वास जुड़ी है। अगर कोई श्वास में बदलाहट करे, तो भीतर की स्थिति में बदलाहट की सुविधा पैदा करता है, और भीतर की स्थिति पर नियंत्रण लाने का पहला पत्थर रखता है।

प्राणयोग का इतना ही अर्थ है कि श्वास बहुत गहरे तक प्रवेश किए हुए है, वह हमारी आत्मा को भी छूती है। एक तरफ शरीर को स्पर्श करती है, दूसरी तरफ आत्मा को स्पर्श करती है। एक तरफ जगत को छूती है बाहर, और दूसरी तरफ भीतर ब्रह्म को भी छूती है। श्वास दोनों के बीच आदान-प्रदान है--पूरे समय, सोते-जागते, उठते-बैठते। इस आदान-प्रदान में श्वास का रूपांतरण प्राणयोग है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि ब्रीदिंग प्रोसेस। वह जो प्रक्रिया है हमारे श्वास की, उसको बदलना। और उसको बदलने के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो सकता है।

जो लोग भी ध्यान का कभी थोड़ा अनुभव किए हैं, उनको पता है। मेरे पास निरंतर लोग ध्यान के प्रयोग के बाद आते हैं। जो गहरा प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि श्वास बंद हो गई, चलती ही नहीं! तो हम बहुत घबड़ा जाते हैं कि इससे कुछ खतरा तो न हो जाएगा।

घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं है। घबड़ाएं तब, जब श्वास बहुत जोर से चले, अस्तव्यस्त, तब घबड़ाएं। जब बिलकुल लगे कि ठहर गई, जब लगे कि श्वास का कंपन ही नहीं है, तब आप उस बैलेंस को, उस संतुलन को उपलब्ध होते हैं, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। तब ऊपर की श्वास ऊपर और नीच की नीचे रह जाती है। बाहर की बाहर और भीतर की भीतर रह जाती है। और एक क्षण के लिए ठहराव आ जाता है। सब ठहर जाता है। न तो बाहर की श्वास भीतर जाती, न भीतर की श्वास बाहर आती। न ऊपर की श्वास ऊपर जाती, न नीचे की श्वास नीचे जाती। सब ठहर जाता है।

श्वास के इस ठहराव के क्षण में परम अनुभव की किरण उत्पन्न होती है। श्वास के इस पूरे ठहर जाने में अस्तित्व पूरा संतुलित हो जाता है, संयम को उपलब्ध हो जाता है। फिर कोई मूवमेंट नहीं, आंदोलन नहीं। फिर कोई परिवर्तन नहीं। फिर कोई हेर-फेर नहीं, बदलाहट नहीं, कोई गति नहीं। उस क्षण में आदमी परमगति में उतर जाता है या शाश्वत में डूब जाता है या इटरनल, सनातन से संपर्क साध लेता है।

श्वास का आंदोलन हमारा परिवर्तनशील जगत से संबंध है। श्वास का आंदोलनरहित हो जाना, हमारा अपरिवर्तनशील नित्य जगत से संबंधित हो जाना है।

इसलिए श्वास का यह ठहर जाना बड़ी अदभुत अनुभूति है। कोशिश करके ठहराने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि कोशिश करके कभी नहीं ठहरा सकते। अगर आप कोशिश करके ठहराएंगे, तो भीतर की श्वास बाहर जाना चाहेगी, बाहर की श्वास भीतर जाना चाहेगी।

कोशिश करके कोई व्यक्ति श्वास को रोक नहीं सकता। हां, श्वास को आहिस्ता-आहिस्ता प्रशिक्षित किया जा सकता है, रिदमिक किया जा सकता है, तैयार किया जा सकता है लयबद्धता के लिए। और साथ में अगर कोई ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, तो एक क्षण ऐसा आ जाता है कि प्रशिक्षित श्वास और ध्यान की शांत स्थिति का कभी मेल, टयूनिंग हो जाती, तो श्वास ठहर जाती है।

और भी एक मजे की बात कि जब श्वास ठहरती है, तब तत्काल विचार ठहर जाते हैं। बिना श्वास के विचार नहीं चल सकते। इसे जरा देखें, कभी ऐसे ही एक सेकेंड को श्वास को ठहराकर। अभी यहीं एक सेकेंड श्वास ठहराएं। इधर श्वास ठहरी, भीतर विचार ठहरे, एकदम ब्रेक! श्वास बिलकुल ब्रेक का काम करती है विचार पर।

लेकिन जब आप ठहराते हैं, तब ज्यादा देर नहीं ठहर सकती। श्वास भी निकलना चाहेगी और विचार भी हमला करना चाहेंगे। क्षणभर को ही गैप आएगा। लेकिन जब श्वास, प्रशिक्षित श्वास ध्यान के संयोग से अपने आप ठहर जाती है, तो कभी-कभी घंटों ठहरी रहती है।

विचार के बाहर हुए, निर्विचार में गए, ब्रह्म के द्वार पर खड़े हैं। विचार में आए, विचार में पड़े, कि संसार के बीच आ गए हैं। संसार और मोक्ष के बीच पतली-सी विचार की पर्त के अतिरिक्त और कोई फासला नहीं है। पदार्थ और परमात्मा के बीच पतले, झीने विचार के पर्दे के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है। लेकिन यह विचार का पर्दा कैसे जाए?

दो तरह से जा सकता है। या तो कोई सीधा विचार पर प्रयोग करे ध्यान का, साक्षी-भाव का, तो विचार चला जाता है। जिस दिन विचार शून्य होता है, उसी दिन श्वास भी शांत होकर खड़ी रह जाती है। या फिर कोई प्राणयोग का प्रयोग करे, श्वास का। श्वास को गति दे, व्यवस्था दे, प्रशिक्षण दे; और ऐसी जगह ले आए, जहां श्वास अपने आप ठहर जाती है--बाहर की बाहर, भीतर की भीतर, ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे। और बीच में गैप, अंतराल आ जाता है; खाली, वैक्यूम हो जाता है, जहां श्वास नहीं होती। वहीं से छलांग, दि जंप। उसी अंतराल में छलांग लग जाती है परमसत्ता की ओर।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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