नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। ४०।।
इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है, और उलटा फलस्वरूप दोष भी नहीं होता है, इसलिए इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन, जन्म-मृत्युरूप महान भय से उद्धार कर देता है।
कृष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म का कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। इसे समझना जरूरी है। निष्काम कर्म का छोटा-सा प्रयास भी व्यर्थ नहीं जाता है। लेकिन इससे उलटी बात भी समझ लेनी चाहिए। सकाम कर्म का बड़े से बड़ा प्रयास भी व्यर्थ ही जाता है।
लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि अपेक्षा की लकीर मिटा दो। निष्काम कर्म का अर्थ यही है--अपेक्षारहित, फल की आकांक्षारहित, कामनारहित। स्वभावतः, बड़ी होशियारी की बात उन्होंने कही है। वे कह रहे हैं कि अगर अपेक्षा की लकीर मिटा दो, तो फिर छोटा-सा भी कर्म तृप्ति ही लाता है। क्योंकि कितना ही छोटा हो, तो भी बड़ा ही होता है, क्योंकि तौलने के लिए कोई नीचे लकीर नहीं होती। इसलिए निष्कामकर्मी कभी भी विषाद को उपलब्ध नहीं होता है। सिर्फ सकामकर्मी विषाद को उपलब्ध होता है। वह सकाम कर्म की छाया है। निष्काम कर्म की कोई छाया नहीं बनती, कोई विषाद नहीं बनता।
इसलिए एक बहुत मजे की बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है, गरीब आदमी ज्यादा विषाद को उपलब्ध नहीं होता, अमीर आदमी ज्यादा विषाद को उपलब्ध होता है। होना नहीं चाहिए ऐसा। बिलकुल नियम को तोड़कर चलती हुई बात मालूम पड़ती है। गरीब समाज ज्यादा परेशान नहीं होते, अमीर समाज बहुत परेशान हो जाते हैं। क्या कारण होगा?
असल में गरीब आदमी अनंत अपेक्षा की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह जानता है अपनी सीमा को। वह जानता है कि क्या हो सकता है, क्या नहीं हो सकता है। अपने वश के बाहर है बात, वह अनंत अपेक्षा की रेखा नहीं बनाता। इसलिए विषाद को उपलब्ध नहीं होता। अमीर आदमी, जिसके पास सुविधा है, संपन्नता है, अपेक्षा की रेखा को अनंत गुना बड़ा करने की हिम्मत जुटा लेता है। बस, उसी के साथ विषाद उत्पन्न हो जाता है।
तो वह कृष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म की तुझसे मैं बात कहता हूं और इसलिए कहता हूं, क्योंकि निष्काम कर्म को करने वाला व्यक्ति कभी भी असफलता को उपलब्ध नहीं होता है। यह पहली बात। और दूसरी बात वे यह कह रहे हैं कि निष्काम कर्म में छोटा-सा भी विघ्न, छोटी-सी भी बाधा नहीं आती। क्यों नहीं आती? निष्काम कर्म में ऐसी क्या कीमिया है, क्या केमिस्ट्री है कि बाधा नहीं आती, कोई प्रत्यवाय पैदा नहीं होता!
बाधा भी तो अपेक्षा के कारण ही दिखाई पड़ती है। जिसकी अपेक्षा नहीं है, उसे बाधा भी कैसे दिखाई पड़ेगी? गंगा बहती है सागर की तरफ, अगर वह पहले से एक नक्शा बना ले और पक्का कर ले कि इस-इस रास्ते से जाना है, तो हजार बाधाएं आएंगी रास्ते में। क्योंकि कहीं किसी ने मकान बना लिया होगा गंगा से बिना पूछे, कहीं कोई पहाड़ खड़ा हो गया होगा गंगा से बिना पूछे, कहीं चढ़ाई होगी गंगा से बिना पूछे। और नक्शा वह पहले बना ले, तो फिर बाधाएं हजार आएंगी। और यह भी हो सकता है कि बाधाओं से लड़-लड़कर गंगा इतनी मुश्किल में पड़ जाए कि सागर तक कभी पहुंच ही न पाए।
लेकिन गंगा बिना ही नक्शे के, बिना प्लानिंग के चल पड़ती है। रास्ता पहले से अपेक्षा में न होने से, जो भी मार्ग मिल जाता है, वही रास्ता है। बाधा का कोई प्रश्न ही नहीं है। अगर पहाड़ रास्ते में पड़ता है, तो किनारे से गंगा बह जाती है। पहाड़ से रास्ता बनाना किसको था, जिससे पहाड़ बाधा बने!
जो लोग भी भविष्य की अपेक्षा को सुनिश्चित करके चलते हैं, अपने हाथ से बाधाएं खड़ी करते हैं। क्योंकि भविष्य आपका अकेला नहीं है। किस पहाड़ ने बीच में खड़े होने की पहले से योजना कर रखी होगी, आपको कुछ पता नहीं है।
जो भविष्य को निश्चित करके नहीं चलता, जो अभी कर्म करता है और कल कर्म का क्या फल होगा, इसकी कोई फिक्स्ड, इसकी कोई सुनिश्चित धारणा नहीं बनाता, उसके मार्ग में बाधा आएगी कैसे? असल में उसके लिए तो जो भी मार्ग होगा, वही मार्ग है। और जो भी मार्ग मिलेगा, उसी के लिए परमात्मा को धन्यवाद है। उसको बाधा मिल ही नहीं सकती।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, निष्काम कर्म की यात्रा पर जरा-सा भी प्रत्यवाय नहीं है, जरा-सी भी बाधा नहीं है। पर बड़ी होशियारी की, बड़ी कलात्मक बात है, बहुत आर्टिस्टिक बात है। एकदम से खयाल में नहीं आएगी। एकदम से खयाल में नहीं आएगी कि बाधा क्यों नहीं है? क्या निष्काम कर्म करने वाले आदमी को बाधा नहीं बची?
बाधाएं सब अपनी जगह हैं, लेकिन निष्काम कर्म करने वाले आदमी ने बाधाओं को स्वीकार करना बंद कर दिया। स्वीकृति होती थी अपेक्षाओं से, उनके प्रतिकूल होने से। अब कुछ भी प्रतिकूल नहीं है। निष्काम कर्म की धारणा में बहने वाले आदमी को सभी कुछ अनुकूल है। इसका यह मतलब नहीं है कि सभी कुछ अनुकूल है। असल में जो भी है, वह अनुकूल ही है, क्योंकि प्रतिकूल को तय करने का उसके पास कोई भी तराजू नहीं है। न बाधा है, न विफलता है।
सब बाधाएं, सब विफलताएं सकाम मन की निर्मितियां हैं।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल