सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। ३८।।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा न हो, तो भी सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर, उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो। इस प्रकार युद्ध को करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।
सुख और दुख को समान समझकर, लाभ और हानि को समान समझकर, जय और पराजय को समान समझकर, युद्ध में प्रवृत्त होने पर पाप नहीं लगेगा। कृष्ण का यह वक्तव्य बहुत निर्णायक है। पाप और पुण्य को थोड़ा समझना पड़े।
साधारणतः हम समझते हैं कि पाप एक कृत्य है और पुण्य भी एक कृत्य है। लेकिन यहां कृष्ण कह रहे हैं कि पाप और पुण्य कृत्य नहीं हैं, भाव हैं। अगर पाप और पुण्य कृत्य हैं, एक्ट हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं लाभ-हानि को बराबर समझूं या न समझूं? अगर मैं आपकी हत्या कर दूं, लाभ-हानि बराबर समझूं या न समझूं, आपकी हत्या के कृत्य में कौन-सा फर्क पड़ जाएगा? अगर मैं एक घर में चोरी करूं लाभ-हानि को बराबर समझकर, तो यह पाप नहीं होगा; और लाभ-हानि को बराबर न समझूं, तो यह पाप होगा? तब इसका मतलब यह हुआ कि पाप और पुण्य का कृत्य से, एक्ट से कोई संबंध नहीं है, बल्कि व्यक्ति के भाव से संबंध है। यह तो बहुत विचारने की बात है।
हम सब तो पाप और पुण्य को कृत्य से बांधकर चलते हैं। हम कहते हैं, बहुत बुरा काम किया। हम कहते हैं, बहुत अच्छा काम किया। कृष्ण तो इस पूरी की पूरी व्यवस्था को तोड़े डालते हैं। वे कहते हैं, काम अच्छे और बुरे होते ही नहीं, करने वाला अच्छा और बुरा होता है। कृत्य नहीं कर्ता! जो होता है वह नहीं, जिससे होता है वह!
लेकिन मनुष्य की सारी नीति कृत्य पर निर्भर है। कहती है, यह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। अच्छे काम करो और बुरे काम मत करो। कौन-सा काम बुरा है? कौन-सा काम अच्छा है? क्योंकि कोई भी काम एटामिक नहीं है, आणविक नहीं है; काम एक शृंखला है। समझें उदाहरण से।
आप रास्ते से गुजर रहे हैं, एक आदमी आत्महत्या कर रहा है। आप उसे बचाएं या न बचाएं? स्वभावतः, आप कहेंगे कि आत्महत्या करने वाले को बचाना चाहिए, कृत्य अच्छा है। लेकिन आप उसे बचा लेते हैं और कल वह पंद्रह आदमियों की हत्या कर देता है। आप नहीं बचाते, तो पंद्रह आदमी बचते थे। आपने बचाया, तो पंद्रह आदमी मरे। कृत्य आपका अच्छा था या बुरा?
कृत्य एक सीरीज है अंतहीन। आप समाप्त हो जाएंगे, आपका कृत्य समाप्त नहीं होगा, वह चलता रहेगा। आप मर जाएंगे, और आपने जो किया था, वह चलता रहेगा।
आपने एक बेटा पैदा किया। यह बेटा पैदा करना अच्छा है या बुरा? यह बेटा कल हिटलर बन सकता है। यह एक करोड़ आदमियों को मार डाल सकता है। लेकिन यह बेटा कल हिटलर बनकर एक करोड़ आदमियों को मार डाले, तो भी कृत्य अच्छा है या बुरा? क्योंकि वे एक करोड़ आदमी क्या करते अगर बचते, इस पर सब निर्भर होगा। लेकिन यह शृंखला तो अनंत होगी।
कृष्ण इससे उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह सवाल नहीं है कि तुमने जो किया है, वह ठीक है या गलत। गहरे में सवाल दूसरा है, और वह सवाल यह है कि तुम कौन हो? तुम क्या हो? तुम्हारी मनोदशा क्या है? इस पर सब निर्भर है।
मेरे देखे भी, कृत्य पर आधारित जो नीति है, बहुत बचकानी है। लेकिन हम सभी ऐसा सोचते हैं। हम सभी ऐसा सोचते हैं।
कृष्ण कह रहे हैं, व्यक्ति की भावदशा क्या है? और वे एक सूत्र दे रहे हैं कि अगर लाभ और हानि बराबर है, अगर सुख और दुख समान हैं, अगर जय और पराजय में कोई अंतर नहीं, तो तू जो भी करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है। क्या करेगा, इसकी वे कोई शर्त ही नहीं रखते। कहते हैं, फिर तू जो भी करेगा, उसमें कोई पाप नहीं है।
विचारणीय है, और गहरी है बात। क्योंकि कृष्ण यह कह रहे हैं कि दूसरे को चोट पहुंचाने की बात तभी तक होती है, जब तक लाभ और हानि में अंतर होता है। जिसे लाभ और हानि में अंतर ही नहीं है...शर्त बड़ी मुश्किल है। क्योंकि लाभ-हानि में अंतर न हो, यह बड़ी गहरी से गहरी उपलब्धि है।
ऐसा व्यक्ति, जिसे लाभ और हानि में अंतर नहीं है, क्या ऐसा कोई भी कृत्य कर सकता है, जिसे हम पाप कहते हैं! जिसे जय और पराजय समान हो गई हों, जिसे असफलता और सफलता खेल हो गए हों, जो दोनों को एक-सा स्वागत, स्वीकार देता हो, जिसकी दोनों के प्रति समान उपेक्षा या समान स्वीकृति हो, क्या ऐसा व्यक्ति गलत कर सकता है?
कृष्ण का जोर व्यक्ति पर है, कृत्य पर नहीं। और व्यक्ति के पीछे जो शर्त है, वह बहुत बड़ी है। वह शर्त यह है कि उसे द्वंद्व समान दिखाई पड़ने लगे, उसे प्रकाश और अंधेरा समान दिखाई पड़ने लगे। यह तो बड़ी ही गहरी समाधि की अवस्था में संभव है।
इसलिए ऊपर से तो वक्तव्य ऐसा दिखता है कि कृष्ण अर्जुन को बड़ी स्वच्छंद छूट दे रहे हैं; क्योंकि अब वह कुछ भी कर सकता है। ऊपर से ऐसा लगता है, इससे तो स्वच्छंदता फलित होगी, अब तुम कुछ भी कर सकते हो। लेकिन कृष्ण अर्जुन को गहरे से गहरे रूपांतरण और ट्रांसफार्मेशन में ले जा रहे हैं, स्वच्छंदता में नहीं।
असल में जिस व्यक्ति को जय और पराजय समान हैं, वह कभी भी स्वच्छंद नहीं हो सकता है। उपाय नहीं है, जरूरत नहीं है, प्रयोजन नहीं है। लाभ के लिए ही आदमी पाप में प्रवृत्त होता है; हानि से बचने के लिए ही आदमी पाप में प्रवृत्त होता है।
एक आदमी असत्य बोलता है। दुनिया में कोई भी आदमी असत्य के लिए असत्य नहीं बोलता है, लाभ के लिए असत्य बोलता है। अगर दुनिया में सत्य बोलने से लाभ होने लगे, तो असत्य बोलने वाला मिलेगा ही नहीं। तब बड़ी मुश्किल से खोजना पड़ेगा। कोई त्यागी, महात्यागी असत्य बोले, बात अलग। कोई बड़ा संकल्पवान तय ही कर ले कि असत्य बोलूंगा, तो बात अलग। लेकिन अगर सत्य के साथ लाभ होता हो, तो असत्य बोलने वाला नहीं मिलेगा। तब तो इसका मतलब यह हुआ कि असत्य कोई नहीं बोलता, लाभ ही असत्य का मार्ग लेता है। हानि से बचना ही असत्य का मार्ग लेता है। आदमी चोरी के लिए चोरी नहीं करता, लाभ के लिए चोरी करता है। कोई दुनिया में चोरी के लिए चोरी नहीं करता।
आज तक दुनिया में किसी ने भी कोई पाप लाभ के अतिरिक्त और किसी कारण से नहीं किया; या हानि से बचने के लिए किया, दोनों एक ही बात है। पाप भी--और मजे की बात है, पुण्य भी--पुण्य भी आदमी लाभ के लिए करता है या हानि से बचने के लिए करता है।
कृष्ण नीति को बड़े दूसरे तल पर ले जा रहे हैं, बिलकुल अलग डायमेंशन में। वे यह कह रहे हैं, यह सवाल ही नहीं है। इसीलिए तो जो शक्तिशाली होता है, वह नीति-अनीति की फिक्र नहीं करता।
नीति और अनीति के गहरे में लाभ-हानि पकड़ में आती हैं।
दुनिया रोज अनैतिक होती जा रही है, ऐसा हमें लगता है। कुल कारण इतना है कि दुनिया में इतने लोग शक्तिशाली कभी नहीं थे, जितने आज हैं। कुल कारण इतना है। दुनिया अनैतिक होती हुई दिखाई पड़ती है, क्योंकि दुनिया में इतना धन इतने अधिक लोगों के पास कभी भी नहीं था। जिनके पास था, वे सदा अनैतिक थे। दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती है, क्योंकि अतीत की दुनिया में राजाओं-महाराजाओं के हाथ में ताकत थी। नई दुनिया लोकतंत्र है, वहां एक-एक व्यक्ति के पास शक्ति वितरित कर दी गई है। अब प्रत्येक व्यक्ति शक्ति के मामले में ज्यादा समर्थ है, जितना कभी भी नहीं था। दुनिया अनैतिक होती मालूम पड़ती है, क्योंकि इतने अधिक लोग शिक्षित कभी नहीं थे और शिक्षा एक शक्ति है। जो लोग शिक्षित थे, उनके नैतिक होने का कभी भरोसा नहीं था।
जितनी शिक्षा बढ़ेगी, उतनी अनीति बढ़ जाएगी; जितनी समृद्धि बढ़ेगी, उतनी अनीति बढ़ जाएगी; जितनी शक्ति बढ़ेगी, उतनी अनीति बढ़ जाएगी। मजा यह है कि नीति और अनीति के बहुत गहरे में लाभ-हानि ही बैठी है।
इसलिए कृष्ण का यह वचन बड़े गहरे इंप्लिकेशंस का है। वे अर्जुन से कहते हैं कि जब तक तुझे लाभ और हानि में भेद है, तब तक तू जो भी करेगा, वह पाप है। और जिस दिन तुझे लाभ-हानि में कोई भेद नहीं है, उस दिन तू निश्चिंत हो। फिर तू जो भी करेगा, वह पाप नहीं है।
इसलिए सवाल नहीं है यह कि हम चुनें कि क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है। असली सवाल और गहरे में है और वह यह है कि क्या मेरे चित्त में लाभ और हानि का प्रभाव पड़ता है? अगर पड़ता है, तो मैं मंदिर भी बनाऊं तो पाप होगा, उसके बहुत गहरे में लाभ-हानि ही होगी। अगर मैं पुण्य भी करूं, तो सिर्फ दिखाई पड़ेगा, पुण्य हो रहा है; पीछे पाप ही होगा। और सब पुण्य करने के लिए पहले पाप करना जरूरी होता है। मंदिर भी बनाना हो, तो भी मंदिर बनाने के लायक तो धन इकट्ठा करना ही होता है।
सब पुण्यों के लिए पाप करना जरूरी होता है, क्योंकि कोई पुण्य बिना लाभ के नहीं हो सकते। दान के पहले भी चोरी करनी पड़ती है। असल में जितना बड़ा चोर, उतना बड़ा दानी हो सकता है। असल में बड़ा दानी सिर्फ अतीत का चोर है। आज का चोर कल का दानी हो सकता है। क्योंकि चोरी करके भी करिएगा क्या? एक सीमा आ जाती है सेच्युरेशन की, जहां चोरी से फिर कोई लाभ नहीं मिलता। फिर उसके बाद दान करने से लाभ मिलना शुरू होता है।
कृष्ण का वक्तव्य बहुत अदभुत है। वे यह कहते हैं कि तू लाभ और हानि का जब तक भेद कर पा रहा है, तब तक तू कितने ही पुण्य की बातें कर, लेकिन तू जो भी करेगा वह पाप है। और अगर तू यह समझ ले कि लाभ-हानि में कोई फर्क नहीं, जय-पराजय में कोई फर्क नहीं, जीवन-मृत्यु में कोई फर्क नहीं, तो फिर तू जो भी करे, वह पुण्य है।
यह पुण्य और पाप का बहुत ही नया आयाम है। कृत्य से नहीं, व्यक्ति के अंतस्तल में हुई क्रांति से संबंधित है।
(भगवान कृष्ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल