शुक्रवार, 6 अगस्त 2021

प्रभु कृपा

 समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥9-29॥


भावार्थ : मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट (जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है) हूँ॥9-29॥

ऐसा नहीं है कुछ, जैसा लोग कहते हैं अक्सर कि फलां व्यक्ति पर परमात्मा की बड़ी कृपा है। परमात्मा की कृपा किसी पर भी कम—ज्यादा नहीं है। भूलकर इस शब्द का उपयोग दोबारा मत करना। एक आदमी कहता है कि प्रभु की कृपा है। उसका मतलब कहीं ऐसा तो नहीं है कि कभी उसकी अकृपा भी होती है? या एक आदमी कहता है कि मुझ पर अभी प्रभु की कोई कृपा नहीं है। तो उसका अर्थ हुआ कि उसकी अकृपा होगी!

नहीं, उसकी अकृपा होती ही नहीं। इसलिए उसकी कृपा का कोई सवाल नहीं है। वह सम— भाव से सबके भीतर मौजूद है। यह कहना भी भाषा की कठिनाई है, इसलिए; अन्यथा सब में वही है, या सब वही है। जरा भी, रत्तीभर फर्क नहीं है। कृष्ण में या अर्जुन में, मुझ में या आप में, आप में या आपके पड़ोसी में, आप में या वृक्ष में, आप में या पत्थर में, जरा भी फर्क नहीं है।

लेकिन फर्क तो दिखाई पड़ता है! कोई बुद्ध है। कैसे हम मान लें कि बुद्ध में वह ज्यादा प्रकट नहीं हुआ है! कैसे हम मान लें कि बुद्ध में वह ज्यादा नहीं है, और हम में, हम में भी उतना ही है, कठिनाई है। साफ दिखाई पड़ता है। गणित कहेगा, नाप—जोख हो सकती है कि बुद्ध में वह ज्यादा है, कृष्ण में वह ज्यादा है। इसीलिए तो हम कहते हैं, कृष्ण अवतार हैं, बुद्ध अवतार हैं, महावीर तीर्थंकर हैं, जीसस भगवान के पुत्र हैं, मोहम्मद पैगंबर हैं, आदमियों से अलग करते हैं उन्हें। उनमें वह ज्यादा दिखाई पड़ता है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं सम— भाव से व्यापक हूं। फिर भेद कहां पड़ता होगा? न मेरा कोई अप्रिय है और न मेरा कोई प्रिय।

प्रेम जब पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय रह जाता, न कोई प्रिय। क्योंकि जब तक मैं कहता हूं कोई मुझे प्रिय है, तो उसका अर्थ है कि कोई मुझे अप्रिय है। और जब तक मैं कहता हूं कोई मुझे प्रिय है, उसका यह भी मतलब है कि जो मुझे प्रिय है, वह कल अप्रिय भी हो सकता है, क्योंकि आज जो अप्रिय है, वह कल प्रिय हो सकता है। जब प्रेम पूर्ण होता है, तो न कोई अप्रिय होता, न कोई प्रिय होता। और न आज प्रिय होता और न कल अप्रिय होता। ये सारे भेद गिर जाते हैं। परमात्मा पूर्ण प्रेम है, इसलिए कोई उसका प्रिय नहीं है और कोई अप्रिय नहीं है।

परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट हूं।

यह फर्क है, यहीं भेद है। यहीं बुद्ध कहीं भिन्न, महावीर कुछ और, और हम कुछ और मालूम पड़ते हैं।

जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, मैं उनमें प्रकट हो जाता हूं; जो मुझे नहीं भजते हैं, उनमें मैं अप्रकट बना रहता हूं।

व्यापकता में भेद नहीं है, लेकिन प्रकट होने में भेद है।

एक बीज है। बीज को माली ने बो दिया, अंकुरित हो गया। एक बीज हम अपनी तिजोड़ी में रखे हुए हैं। दोनों बीजों में जीवन समान रूप से व्यापक है! और दोनों बीजों में संभावना पूरी है। लेकिन एक बीज बो दिया गया और एक तिजोड़ी में बंद है। जो बो दिया गया, वह अंकुरित हो जाएगा। जो अंकुरित हो जाएगा, उसमें फूल लग जाएंगे। कल हम अपने तिजोड़ी के बीज को निकालें, और उस वृक्ष के पास जाकर कहें कि तुम दोनों समान हो, हमारा तिजोड़ी का बीज मानने को राजी नहीं होगा।

वह कहेगा कैसे समान? कहां यह वृक्ष, जिस पर हजारों पक्षी गीत गा रहे हैं। कहां यह वृक्ष, जिसके फूलों की सुगंध दूर—दूर तक फैल गई है। कहां यह वृक्ष, जिससे सूरज की किरणें रास रचाती हैं। कहां यह वृक्ष और कहां मैं, बंद पत्थर की तरह! कुछ भी तो मेरे पास नहीं है। मैं दीन—दरिद्र, मेरे पास कोई आत्मा नहीं है, कोई फूल, कोई सुवास नहीं है। मुझे इस वृक्ष के साथ एक कहकर क्यों मजाक उड़ाते हो? क्यों व्यंग करते हो?

लेकिन हम जानते हैं, उन दोनों में वृक्ष सम— भाव से व्यापक है। पर एक में प्रकट हुआ, क्योंकि खाद मिली, जमीन में पड़ा, पानी पड़ा, सूरज के लिए मुक्त हुआ, उठा, हिम्मत की, साहस जुटाया, संकल्प बनाया, आकाश की तरफ फैला, अज्ञात में गया, अनजान की यात्रा पर निकला, तो वृक्ष हो गया है।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे प्रेम से भजते हैं!

यह प्रेम से भजना ही बीज को जमीन में डालना है। प्रेम से भजने का अर्थ है कि जो आदमी दिन—रात प्रभु को सब तरफ स्मरण करता है, उसके चारों तरफ प्रभु की भूमि निर्मित हो जाती है—चारों तरफ। उठता है तो, बैठता है तो, खाता है तो, प्रभु को स्मरण करता रहता है। चारों तरफ धीरे—धीरे, उसकी चेतना के बीज के चारों तरफ प्रभु की भूमि इकट्ठी हो जाती है। उसी भूमि में बीज अंकुरित होता है। निश्चित ही, जमीन में बीज को गाड़ना पड़ता है। तो प्रकट बीज है, प्रकट जमीन है। यह जो चेतना का बीज है, अप्रकट है, अप्रकट ही इसकी जमीन होगी। उस जमीन को पैदा करना पड़ता है। चारों तरफ मिट्टी इकट्ठी करनी पड़ती है उस जमीन की। वही प्रभु की भक्ति है।

और तब वे मेरे में और मैं उनमें प्रकट होता हूं।

यह प्रकट होना भी दोहरा है। जब एक वृक्ष आकाश में खुलता है, तो दोहरी घटना घटती है। यह वृक्ष तो आकाश में प्रकट होता ही है, आकाश भी इस वृक्ष में प्रकट होता है। यह वृक्ष तो सूरज के समक्ष प्रकट होता ही है, सूरज भी इस वृक्ष के भीतर से पुन: प्रकट होता है। यह वृक्ष तो हवाओं में प्रकट होता ही है, हवाएं इस वृक्ष के भीतर श्वास लेती हैं और प्रकट होती हैं। यह वृक्ष तो प्रकट होता ही है, इस वृक्ष के साथ जमीन भी प्रकट होती है, इस वृक्ष के साथ जमीन की सुगंध भी प्रकट होती है। यह वृक्ष ही प्रकट नहीं होता, वृक्ष के साथ सारा जगत भी इसके भीतर से प्रकट होता है।

तो जब कोई एक भक्त बीज बन जाता है और अपने चारों तरफ परमात्मा के स्मरण की भूमि को निर्मित कर लेता है, तो दोहरी घटना घटती है। भक्‍त परमात्मा भक्त में प्रकट होता है। वे दोनों प्रकट हो जाते हैं। वे आमने—सामने हो जाते हैं। एनकाउंटर।

हम सब ने सदा भगवान से साक्षात्कार का मतलब ऐसा ही सोचा है कि आमने —सामने खड़े हो जाएंगे। वे मोर—मुकुट बांधे हुए  खड़े होंगे, हम हाथ जोड़े, उनके घुटनों में पैर टेके खड़े होंगे!

ऐसा कहीं नहीं होने वाला है। यह तो कवि का काव्य है, और मधुर है, प्रीतिकर है, लेकिन काव्य है। वस्तुत: जो अभिव्यक्ति होगी प्रकट होने की, वह ऐसी नहीं होगी। वह तो ऐसी होगी कि जब हम अपने भीतर के बीज को तोड्ने में समर्थ हो जाएंगे, तो जो अभिव्यक्ति होगी, वह दो व्यक्ति आमने—सामने खड़े हैं ऐसी नहीं। बल्कि दो दर्पण आमने—सामने रखे हैं।

दो दर्पण अगर आमने—सामने रखे हैं, तो पता है क्या होगा? एक दर्पण दूसरे में दिखाई पड़ेगा, दूसरा दर्पण पहले में दिखाई पड़ेगा। और फिर अनंत दर्पण, एक के भीतर, एक के भीतर, एक के भीतर दिखाई पड़ते जाएंगे। वह जो इनफिनिटी, वह जो अनंत दर्पण दिखाई पड़ेंगे, और हर दर्पण फिर उसको दिखाएगा, और फिर वह दर्पण इसको दिखाएगा। और यह अनंत होगा।

दो दर्पण एक—दूसरे के सामने हों, तो जो होगा, वही जब हमारी चेतना परमात्मा की चेतना के सामने होती है, तो होता है। अंतहीन हो जाते हैं हम। और वह तो अंतहीन है ही। अनंत हो जाते हैं हम, वह तो अनंत है ही। अनादि हो जाते हैं हम, वह तो अनादि है ही। अमृत हो जाते हैं हम, वह तो अमृत है ही। और दोनों एक—दूसरे में झांकते हैं। और यह झांकना अनंत है। इस झांकने का फिर कोई अंत नहीं होता। यह फिर कभी समाप्त नहीं होता।

तो ध्यान रखें, परमात्मा से मिलन होता है, फिर बिछुड़न नहीं होती। फिर वह मिलन अनंत है। और फिर उस मिलन की रात का कोई अंत नहीं है। उस मिलन की रात का फिर कोई अंत नहीं है। वहा से फिर कोई वापस नहीं लौटता। वहा से पुनरागमन नहीं है।

पर इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा किसी को प्रेम करता है और उसे दर्शन दे देता है, और किसी को प्रेम नहीं करता और उसको चकमा देता रहता है कि दर्शन नहीं देंगे!

नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। परमात्मा के प्रेम का सवाल नहीं है, आपके श्रम का सवाल है। उसकी कृपा का सवाल नहीं है, आपके संकल्प का सवाल है।

उसकी कृपा प्रतिपल बरस रही है, लेकिन आप अपने मटके को उलटा रखकर बैठे हैं। आप चिल्ला रहे हैं कि कृपा नहीं है। पास का मटका भरा जा रहा है। वह मटका सीधा रखा है, आप अपने मटके को उलटा रखे बैठे हैं। और अगर कोई आकर कोशिश भी करे आपके मटके को सीधा रखने की, तो आप बहुत नाराज होते हैं। आप कहते हैं, यह हमारा ढंग है; यह हमारी मान्यता है; यह हमारा दृष्टिकोण है; यह हमारा धर्म है, यह हमारा मत है; यह हमारे शास्त्र में लिखा है!

आप हजार दलीलें देते हैं अपने मटके को उलटा रखे रहने के लिए। और जब भी कोई अगर जोर—जबर्दस्ती आपके मटके के साथ सीधा करने की करे, तो कष्ट होता है, पीड़ा होती है, झंझट होती है; सुखद नहीं मालूम पड़ता। मटका उलटा रखा है सदा से। हमें लगता है, यही इसके रखे होने का ढंग है। फिर पास का मटका भर जाता है, तो हम चिल्लाते हैं, परमात्मा किसी पर ज्यादा कृपालु मालूम हो रहा है और हम पर कृपालु नहीं है।

परमात्मा की वर्षा निरंतर हो रही है, जो भी अपने मटके को सीधा कर लेता है, वह भर जाता है। और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। आपके अतिरिक्त और कोई आपका शत्रु नहीं है। आपके अतिरिक्त और किसी ने कभी कोई विध्‍न नहीं डाला है।

अगर आप परमात्मा से नहीं मिल पा रहे हैं, तो इसमें आपका ही हाथ है। अगर आप मिल पाएंगे, तो यह आपकी ही आपके ऊपर कृपा है। परमात्मा की कृपा का इसमें कुछ लेना—देना नहीं है। उसका प्रेम सम है। उसका अस्तित्व हमारे भीतर समान है। उसकी क्षमता, उसकी बीज— क्षमता हमारे भीतर एक—सी है। लेकिन फिर भी हम स्वतंत्र हैं। और चाहें तो उस बीज को वृक्ष बना लें, और चाहें तो उस बीज को बंद रख लें।

हम सब तिजोडियों में बंद बीज हैं। और सब अपनी—अपनी तिजोडियो पर ताले डाले हुए हैं मजबूत कि कोई खोल न दे! कहीं बीज बाहर न निकल जाए! इसके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। 

ओशो रजनीश




रविवार, 1 अगस्त 2021

रक्षा संस्कृति

 मात्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।

दो भाइयों में जब मनमुटाव होता है और वे अलग होते हैं तो परस्पर सबसे बड़े शत्रु बन जाते हैं। विवाद का विषय प्राय: एक ही होता है कि दूसरे ने मेरा हक मार लिया। यही झगड़ा देवों और दैत्यों में भी रहा। परिणामस्वरूप एक ही पिता, महर्षि कश्यप, की संतान होते हुये भी दोनों सत्ता के दो विपरीत धुर्व बन गये। दोनों के पिता अवश्य एक थे किन्तु माताएँ अलग-अलग थीं। देव अदिति के पुत्र थे और दैत्य दिति के इस प्रकार दोनों सौतेले भाई थे और सौतेले भाइयों का झगड़ा तो हमारे इतिहास में आम बात है।


रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी और रक्षों की शत्रुता| देव, रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न जाति हो ऐसा नहीं था किन्तु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर में इस्लाम स्वीकार कर लेने वालों को हिन्दुओं ने पूर्णत: त्याज्य मान लिया । वस्तुत: ये सब आर्य संस्कृति के अंदर ही उपसंस्कृतियाँ थी फिर भी आर्य और देव इन्हें हेय मानते थे और ये सब अपनी महत्ता स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे। इसी के चलते संघर्ष उत्पन्न होता था। आर्य दैत्यों और रक्षों को एक ही पलड़े पर रखते थे और दोनों से समान रूप से घृणा करते थे।


यह सत्ता का संघर्ष था। समर्थक शक्तियों से देवों को कोई भय नहीं था। पूरे पौराणिक इतिहास में एक या दो ही ऐसे किस्से हैं जब किसी आर्य नृप ने देवों की सत्ता को चुनौती दी हो या देवेन्द्र के सिंहासन पर दावा किया हो किन्तु दैत्य और बाद में रक्ष इसके लिये सदैव प्रयत्नशील बने ही रहे। किसी भी शक्तिशाली दैत्य या रक्ष की पहली महत्वाकांक्षा देवेन्द्र को पदच्युत करना ही होती थी।


देव स्वयं में कोई बहुत बड़ी महाशक्ति हों ऐसा नहीं था किन्तु उस समय की तीनो महाशक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों से आन्तरिक सहानुभूति रखते थे। दैत्य भी हालांकि देवों के सौतेले भाई ही थे, इस कारण इन तीनों महाशक्तियों को दोनों पक्षों के साथ समभाव रखना चाहिये था पर हकीकत में ऐसा नहीं था। इन तीनों में यद्यपि ब्रह्मा और शिव प्रयास करते थे कि उन पर खुले रूप में पक्षपात का आरोप स्थापित न हो पाये और देवों के साथ सहानुभूति होते हुये भी व्यावहारिक तुला समतल पर ही स्थित रहे। इन दोनों के विपरीत विष्णु खुल कर देवों के पक्ष में खड़े हो जाते थे। इसका कारण भी था। देवराज इन्द्र उनके बड़े भाई थे। बड़े भाई के पक्ष में खड़ा होना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। देव पराक्रमी थे किन्तु अजेय नहीं थे| दैत्यों ने उन्हें बार-बार पराजित किया किन्तु विष्णु का सहयोग मिल जाने से वे अवसर हार कर भी जीत जाते थे। अनेक उदाहरण हैं इसके और यह तो स्थापित सत्य है कि इतिहास विजेता की कलम से ही लिखा जाता हैं। विजेता की ही प्रशस्ति गाता है। पराजित को वह खलनायक (हो या न हो) के तौर पर ही दर्ज करता है।


माल्यवान आदि इन तीनों भाइयों के किस्से में भी यही हुआ था।


मात्यवान, सुमाली और माली बल पौरुष में बहुत बढ़े-बढ़े थे। अद्भुत लंका नगरी इन्होंने ही बसायी थी। बाद में इन्होंने इन्द्र को परास्त कर स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया था।


पराजित इन्द्र, अन्य देवताओं के साथ सहायता की प्रार्थना करने शिव के पास कैलाश पहुँचा किन्तु शिव ने यह कहते हुये इनकार कर दिया कि ये तीनों मेरे प्रगाढ़ मित्र सुकेश के पुत्र हैं। इनके विरुद्ध मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।


इस पर इन्द्र विष्णु के पास सहायता माँगने पहुँचा। विष्णु ने क्षीर सागर (अन्य ) पौराणिक स्थलों की भाँति ही क्षीर सागर की स्थिति के विषय में भी विद्वान अभी तक निश्चित धारणा नहीं बना पाये हैं।) के चारों ओर अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया था।

पौराणिक इतिहास में विष्णु की ख्याति सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ की है। आवश्यकतानुसार वे साम-दाम-दंड-भेद सभी विधियों का प्रयोग करने में अति कुशल थे। उनका सिद्धांत था कि बड़े उद्देश्य के लिये छोटे सिद्धांतों का त्याग भी करना पड़े तो बेहिचक कर देना चाहिये। इन्हीं विशेषताओं के चलते वे सदैव इन्द्र के संकटमोचन बन कर उभरा उन्हें कभी पराजय का स्वाद नहीं चखना पड़ा। इन्हीं समरूप विशिष्टताओं के चलते कालांतर में कृष्ण को पूर्ण विष्णु की उपाधि से सम्मानित किया गया।


विष्णु के सामने माल्वान, सुमाली और माली नहीं टिक पाये। इनकी सारी सेना विष्णु ने नष्ट कर दी थी। सबसे छोटा भाई माली भी रण में खेत रहा था।


इस समय ये बचे-खुचे थोड़े से लोग जान बचाते हुये वापस लंका की ओर भाग रहे थे। विष्णु का सैन्य इनका पीछा कर रहा था इस कारण ये दिन में सघन वनों-बागों आदि में छुपे रह थे और रात्रि में जितना संभव हो सके दूर निकल जाने का प्रयास करते थे। पिछले दो दिनों से इन्हें कोई सही आश्रय नहीं मिला था और विष्णु का सैन्य पीछे था ही इसलिये ये बिना रुके दो दिन और दो रात भागते ही रहे थे, बस एक जंगल में एक प्रहर का विश्राम अवश्य किया था। पर उस जंगल में भी खाने लायक कुछ नहीं मिला था।

चपला, अचेत होने से पूर्व उसने अपना जो नाम लिया था, के असहयोगपूर्ण व्यवहार ने माल्यवान और सुमाली दोनों को ही चिंता में डाल दिया था। उन्हें आभास हो रहा था कि सागर तक नहीं तो कम से कम विन्ध्याचल तक तो अवश्य ही उन्हें ऐसे ही शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है।

उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि भले ही उनकी संस्कृति रक्ष है तो भी आर्य तो वे भी हैं,

फिर इन आर्यों के मन में उनके लिये ऐसा विकट, अतार्किक द्वेष क्यों है? क्या बिगाड़ा है उन्होंने इन आर्यों का। उन्होंने तो देवराज पर आक्रमण किया था, इस आर्यभूमि के किसी सम्राट से तो उनका कोई विवाद था ही नहीं। ठीक यही स्थिति पूर्व में दैत्यों की थी।

माल्यवान और सुमाली दोनों ही अपना विश्राम और भोजन भूल कर चपला के उपचार में लग गये थे। चोट गंभीर थी। यदि अविलम्ब उपचार न मिला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक नहीं रहेगी। पूर्ण पक्षाघात का शिकार भी हो सकती हैं। भाग्य से उपचार की कुछ सामग्री उनके साथ थी। वाटिका में भी तलाश करने से भी कुछ बूटियाँ मिल गयी थीं। बस्ती में जाना दुस्साहस सिद्ध हो सकता था, अगर किसी भी प्रकार से विष्णु के किसी व्यक्ति के संज्ञान में उनकी यहाँ उपस्थिति आ गयी तो अनिष्टकारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हुआ घाव गंभीर था। जबड़ा चटक गया था। दाहिने जबड़े से लेकर आँख के नीचे की हड्डी तक बुरी तरह से कट गया था। उसका उपचार कर दिया गया था पर उन्हें लग रहा था कि चेहरा सदैव के लिये कुरूप तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने की संभावना है। जाँघ के दोनों ओर खपच्चियाँ रख कर औषधि लगाकर बाँध दिया गया था। अभी बच्ची है अस्थि आसानी से जुड़ जायेगी यद्यपि चाल में लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ में थी। अश्व के पैर पड़ने से रीढ़ की हड्डी के कई संधि स्थल अपने स्थान से हट गये प्रतीत हो रहे थे। माँस पेशियाँ भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे। सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। 'काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती' सुमाली ने सोचा।


साँझ होते होते दो और बालक आ गये थे। वे लड़की की अपेक्षा बहुत सहिष्णु साबित हुये थे। अगर वे भी लड़की जैसे ही निकलते तो लड़की के हित में बहुत घातक हो सकता था पर उन्होंने बिना हाथापाई किये सारी बात सुनी। माल्यवान ने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया। जो-जो उपचार कर दिया गया था वह समझा दिया, आगे के लिये आवश्यक निर्देश भी दे दिये। सूरज ढलने तक उन दोनों को रोके रखा गया। फिर सबने अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर आगे की यात्रा आरंभ की। सुमाली का बड़ा पुत्र प्रहस्त सबसे बाद में निकल सब आँखों से ओझल होने की कगार पर आ गये तब वह लड़कों से बोला


" इसे अतिशीघ्र किसी कुशल वैद्य के संरक्षण में ले जाना। एक व्यक्ति जाकर एक चारपाई और कुछ व्यक्तियों को लिवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे सावधानी से, कटि भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे| सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। 'काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती सुमाली ने सोचा।

इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बातें करने लगा। अब लड़के अगर बस्ती में जाकर उनकी सूचना दे भी देते तो कोई उनकी हवा भी नहीं पा सकता था।

हां! क्षतिपूर्ति लेना इन लड़कों ने भी किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया था।

सुलभ अग्निहोत्री



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...