रविवार, 1 अगस्त 2021

रक्षा संस्कृति

 मात्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।

दो भाइयों में जब मनमुटाव होता है और वे अलग होते हैं तो परस्पर सबसे बड़े शत्रु बन जाते हैं। विवाद का विषय प्राय: एक ही होता है कि दूसरे ने मेरा हक मार लिया। यही झगड़ा देवों और दैत्यों में भी रहा। परिणामस्वरूप एक ही पिता, महर्षि कश्यप, की संतान होते हुये भी दोनों सत्ता के दो विपरीत धुर्व बन गये। दोनों के पिता अवश्य एक थे किन्तु माताएँ अलग-अलग थीं। देव अदिति के पुत्र थे और दैत्य दिति के इस प्रकार दोनों सौतेले भाई थे और सौतेले भाइयों का झगड़ा तो हमारे इतिहास में आम बात है।


रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी और रक्षों की शत्रुता| देव, रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न जाति हो ऐसा नहीं था किन्तु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर में इस्लाम स्वीकार कर लेने वालों को हिन्दुओं ने पूर्णत: त्याज्य मान लिया । वस्तुत: ये सब आर्य संस्कृति के अंदर ही उपसंस्कृतियाँ थी फिर भी आर्य और देव इन्हें हेय मानते थे और ये सब अपनी महत्ता स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहते थे। इसी के चलते संघर्ष उत्पन्न होता था। आर्य दैत्यों और रक्षों को एक ही पलड़े पर रखते थे और दोनों से समान रूप से घृणा करते थे।


यह सत्ता का संघर्ष था। समर्थक शक्तियों से देवों को कोई भय नहीं था। पूरे पौराणिक इतिहास में एक या दो ही ऐसे किस्से हैं जब किसी आर्य नृप ने देवों की सत्ता को चुनौती दी हो या देवेन्द्र के सिंहासन पर दावा किया हो किन्तु दैत्य और बाद में रक्ष इसके लिये सदैव प्रयत्नशील बने ही रहे। किसी भी शक्तिशाली दैत्य या रक्ष की पहली महत्वाकांक्षा देवेन्द्र को पदच्युत करना ही होती थी।


देव स्वयं में कोई बहुत बड़ी महाशक्ति हों ऐसा नहीं था किन्तु उस समय की तीनो महाशक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों से आन्तरिक सहानुभूति रखते थे। दैत्य भी हालांकि देवों के सौतेले भाई ही थे, इस कारण इन तीनों महाशक्तियों को दोनों पक्षों के साथ समभाव रखना चाहिये था पर हकीकत में ऐसा नहीं था। इन तीनों में यद्यपि ब्रह्मा और शिव प्रयास करते थे कि उन पर खुले रूप में पक्षपात का आरोप स्थापित न हो पाये और देवों के साथ सहानुभूति होते हुये भी व्यावहारिक तुला समतल पर ही स्थित रहे। इन दोनों के विपरीत विष्णु खुल कर देवों के पक्ष में खड़े हो जाते थे। इसका कारण भी था। देवराज इन्द्र उनके बड़े भाई थे। बड़े भाई के पक्ष में खड़ा होना स्वाभाविक प्रवृत्ति है। देव पराक्रमी थे किन्तु अजेय नहीं थे| दैत्यों ने उन्हें बार-बार पराजित किया किन्तु विष्णु का सहयोग मिल जाने से वे अवसर हार कर भी जीत जाते थे। अनेक उदाहरण हैं इसके और यह तो स्थापित सत्य है कि इतिहास विजेता की कलम से ही लिखा जाता हैं। विजेता की ही प्रशस्ति गाता है। पराजित को वह खलनायक (हो या न हो) के तौर पर ही दर्ज करता है।


माल्यवान आदि इन तीनों भाइयों के किस्से में भी यही हुआ था।


मात्यवान, सुमाली और माली बल पौरुष में बहुत बढ़े-बढ़े थे। अद्भुत लंका नगरी इन्होंने ही बसायी थी। बाद में इन्होंने इन्द्र को परास्त कर स्वर्ग पर भी अधिकार कर लिया था।


पराजित इन्द्र, अन्य देवताओं के साथ सहायता की प्रार्थना करने शिव के पास कैलाश पहुँचा किन्तु शिव ने यह कहते हुये इनकार कर दिया कि ये तीनों मेरे प्रगाढ़ मित्र सुकेश के पुत्र हैं। इनके विरुद्ध मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता।


इस पर इन्द्र विष्णु के पास सहायता माँगने पहुँचा। विष्णु ने क्षीर सागर (अन्य ) पौराणिक स्थलों की भाँति ही क्षीर सागर की स्थिति के विषय में भी विद्वान अभी तक निश्चित धारणा नहीं बना पाये हैं।) के चारों ओर अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया था।

पौराणिक इतिहास में विष्णु की ख्याति सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ की है। आवश्यकतानुसार वे साम-दाम-दंड-भेद सभी विधियों का प्रयोग करने में अति कुशल थे। उनका सिद्धांत था कि बड़े उद्देश्य के लिये छोटे सिद्धांतों का त्याग भी करना पड़े तो बेहिचक कर देना चाहिये। इन्हीं विशेषताओं के चलते वे सदैव इन्द्र के संकटमोचन बन कर उभरा उन्हें कभी पराजय का स्वाद नहीं चखना पड़ा। इन्हीं समरूप विशिष्टताओं के चलते कालांतर में कृष्ण को पूर्ण विष्णु की उपाधि से सम्मानित किया गया।


विष्णु के सामने माल्वान, सुमाली और माली नहीं टिक पाये। इनकी सारी सेना विष्णु ने नष्ट कर दी थी। सबसे छोटा भाई माली भी रण में खेत रहा था।


इस समय ये बचे-खुचे थोड़े से लोग जान बचाते हुये वापस लंका की ओर भाग रहे थे। विष्णु का सैन्य इनका पीछा कर रहा था इस कारण ये दिन में सघन वनों-बागों आदि में छुपे रह थे और रात्रि में जितना संभव हो सके दूर निकल जाने का प्रयास करते थे। पिछले दो दिनों से इन्हें कोई सही आश्रय नहीं मिला था और विष्णु का सैन्य पीछे था ही इसलिये ये बिना रुके दो दिन और दो रात भागते ही रहे थे, बस एक जंगल में एक प्रहर का विश्राम अवश्य किया था। पर उस जंगल में भी खाने लायक कुछ नहीं मिला था।

चपला, अचेत होने से पूर्व उसने अपना जो नाम लिया था, के असहयोगपूर्ण व्यवहार ने माल्यवान और सुमाली दोनों को ही चिंता में डाल दिया था। उन्हें आभास हो रहा था कि सागर तक नहीं तो कम से कम विन्ध्याचल तक तो अवश्य ही उन्हें ऐसे ही शत्रुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ सकता है।

उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि भले ही उनकी संस्कृति रक्ष है तो भी आर्य तो वे भी हैं,

फिर इन आर्यों के मन में उनके लिये ऐसा विकट, अतार्किक द्वेष क्यों है? क्या बिगाड़ा है उन्होंने इन आर्यों का। उन्होंने तो देवराज पर आक्रमण किया था, इस आर्यभूमि के किसी सम्राट से तो उनका कोई विवाद था ही नहीं। ठीक यही स्थिति पूर्व में दैत्यों की थी।

माल्यवान और सुमाली दोनों ही अपना विश्राम और भोजन भूल कर चपला के उपचार में लग गये थे। चोट गंभीर थी। यदि अविलम्ब उपचार न मिला तो यह जीवन भर उठने-बैठने लायक नहीं रहेगी। पूर्ण पक्षाघात का शिकार भी हो सकती हैं। भाग्य से उपचार की कुछ सामग्री उनके साथ थी। वाटिका में भी तलाश करने से भी कुछ बूटियाँ मिल गयी थीं। बस्ती में जाना दुस्साहस सिद्ध हो सकता था, अगर किसी भी प्रकार से विष्णु के किसी व्यक्ति के संज्ञान में उनकी यहाँ उपस्थिति आ गयी तो अनिष्टकारी हो सकता था। चपला के चेहरे पर कटार से हुआ घाव गंभीर था। जबड़ा चटक गया था। दाहिने जबड़े से लेकर आँख के नीचे की हड्डी तक बुरी तरह से कट गया था। उसका उपचार कर दिया गया था पर उन्हें लग रहा था कि चेहरा सदैव के लिये कुरूप तो हो ही जायेगा। ठोढ़ी टेढ़ी हो जायेगी, एक आँख पर भी असर पड़ने की संभावना है। जाँघ के दोनों ओर खपच्चियाँ रख कर औषधि लगाकर बाँध दिया गया था। अभी बच्ची है अस्थि आसानी से जुड़ जायेगी यद्यपि चाल में लंगड़ाहट रह सकती है। सबसे बुरी चोट पीठ में थी। अश्व के पैर पड़ने से रीढ़ की हड्डी के कई संधि स्थल अपने स्थान से हट गये प्रतीत हो रहे थे। माँस पेशियाँ भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे। सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। 'काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती' सुमाली ने सोचा।


साँझ होते होते दो और बालक आ गये थे। वे लड़की की अपेक्षा बहुत सहिष्णु साबित हुये थे। अगर वे भी लड़की जैसे ही निकलते तो लड़की के हित में बहुत घातक हो सकता था पर उन्होंने बिना हाथापाई किये सारी बात सुनी। माल्यवान ने उन्हें सारी घटना के बारे में बताया। जो-जो उपचार कर दिया गया था वह समझा दिया, आगे के लिये आवश्यक निर्देश भी दे दिये। सूरज ढलने तक उन दोनों को रोके रखा गया। फिर सबने अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर आगे की यात्रा आरंभ की। सुमाली का बड़ा पुत्र प्रहस्त सबसे बाद में निकल सब आँखों से ओझल होने की कगार पर आ गये तब वह लड़कों से बोला


" इसे अतिशीघ्र किसी कुशल वैद्य के संरक्षण में ले जाना। एक व्यक्ति जाकर एक चारपाई और कुछ व्यक्तियों को लिवा लाओ। चारपाई पर ही लेकर जाना इसे सावधानी से, कटि भी फट गयी थीं। जितना संभव था उतनी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी पर यह तय था कि इस लड़की की कमर सदैव के लिये टेढ़ी हो जायेगी। यह सीधी खड़ी नहीं हो सकेगी। पर वे क्या कर सकते थे| सारे कांड के लिये लड़की स्वयं उत्तरदायी थी। उनमें से किसी ने भी कोई वार नहीं किया था। 'काश वह थोड़ी सहिष्णुता का प्रदर्शन कर पाती सुमाली ने सोचा।

इतना कह कर उसने अपने घोड़े को ऐड लगा दी। पलक झपकते ही घोड़ा हवा से बातें करने लगा। अब लड़के अगर बस्ती में जाकर उनकी सूचना दे भी देते तो कोई उनकी हवा भी नहीं पा सकता था।

हां! क्षतिपूर्ति लेना इन लड़कों ने भी किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया था।

सुलभ अग्निहोत्री



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