शुक्रवार, 17 मई 2024

 एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, 'मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवान के लिये कहती है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं।' वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दर की बात सुन रही थी। उसने मन-ही-मन कामना की- 'मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानी के पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी?' प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपी के मन की जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया-  उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी। 

वह खुशी से छककर फूली-फूली फिरने लगी। आनन्द उसके हृदय में समा नहीं रहा था। सहेलियों ने पूछा- 'अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या?' वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी। उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्‌गद हो गयी, मुँह से बोली नहीं निकली। सखियों ने कहा- 'सखि ! ऐसी क्या बात बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है-हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं। भला, हमसे छिपाने की कौन सी बात है?' तब उसके मुँहसे इतना ही निकला- 'मैंने आज अनूप रूप देखा है।' बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेम के आँसू बहने लगे ! सभी गोपियों की यही दशा थी।

रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होने की बाट देखतीं। उनका मन श्रीकृष्ण में लगा रहता। प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीके पर रखतीं; कहीं प्राणधन आकर लौट न जायें, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दर की प्रतीक्षा में व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं - 'हा! आज प्राणप्रियतम क्यों नहीं आये? इतनी देर क्यों हो गयी? क्या आज इस दासी का घर पवित्र न करेंगे? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखन का भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे? कहीं यशोदा मैया ने तो उन्हें नहीं रोक लिया? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं। माखन की क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!' इन्हीं विचारों में आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षण में दौड़कर दरवाजे पर जाती, लाज छोड़कर रास्ते की ओर देखती, सखियों से पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युग के समान हो जाता ! ऐसी भाग्यवती गोपियों की मनःकामना भगवान् उनके घर पधार कर पूर्ण करते।

अपने निजजन व्रजवासियों को सुखी करने के लिये ही तो भगवान् गोकुल में पधारे थे। माखन तो नन्दबाबा के घर पर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्दबाबा के ही नहीं; सभी व्रजवासियों के अपने थे, सभी को सुख देना चाहते थे। गोपियों की लालसा पूरी करने के लिये ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुरा कर माखन खाते। यह वास्तव में चोरी नहीं, यह तो गोपियों की पूजा- पद्धति का भगवान्‌ के द्वारा स्वीकार था। भक्तवत्सल भगवान् भक्तकी पूजा स्वीकार कैसे न करें?

भगवान की इस दिव्यलीला - माखनचोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजान में और आगे भी वह जान न पाये- ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के घर से माखन लेते थे उनकी इच्छा से, गोपियों के अनजान में नहीं- उनकी जान में, उनके देखते-देखते और आगे जानने की कोई बात ही नहीं - उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महत्त्वकी यह है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान्‌ की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान्‌ का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चोरी कर सकते हैं? हाँ, चोर तो वास्तव में वे लोग हैं, जो भगवान्‌ की वस्तु को अपनी मान कर ममता-आसक्ति में फँसे रहते हैं और दण्ड के पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियोंसे यही सिद्ध होता है कि माखन चोरी चोरी न थी, भगवान्‌ की दिव्य लीला थी। असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान्‌ का प्रेम का नाम 'चोर' रख दिया था, क्योंकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही।

जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण को भगवान् नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान्‌ की लीलापर विचार करने का कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टि से भी इस प्रसंग में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्ष के बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेह के कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करनेवालों को कुछ सन्तोष होगा।



बुधवार, 15 मई 2024

 श्रीमद्भागवत के श्रोताओं के नियम 

श्रोता प्रतिदिन एक बार हविष्यान्न भोजन करें। पतित, दुर्जन आदि का संग तो दूर रहा, उनसे वार्तालाप भी न करें। ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन (नीचे आसन बिछा कर या तख्त पर सोना) सबके लिये अनिवार्य है। एकाग्रचित्त होकर कथा सुननी चाहिये। जितने दिन कथा सुनें- धन, स्त्री, पुत्र, घर एवं लौकिक लाभ की समस्त चिन्ताएँ त्याग दें। मल-मूत्र पर काबू रखने के लिये हल्का आहार सुखद होता है। यदि शक्ति हो तो सात दिन तक उपवास करके कथा सुनें। अन्यथा दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुनें। इससे भी काम न चले तो फलाहार या एक समय अन्न-भोजन करें। जिस तरह भी सुखपूर्वक कथा सुनने की सुविधा हो, वैसे कर लें। प्रतिदिन कथा समाप्त होनेपर ही भोजन करना उचित है। दाल, शहद, तेल, गरिष्ठ अन्न, भाव दूषित अन्न तथा बासी अन्न का परित्याग करें। काम, क्रोध, मद, मान, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेष से दूर रहें। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषों की कभी भूलकर भी निन्दा न करें। रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेद-बहिष्कृत मनुष्यों से वार्तालाप न करें। मनमें सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा उदारताको स्थान दें। श्रोताओं को वक्ता से ऊँचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिये ।

 श्रीमद्भागवत की महिमा

श्रीम‌द्भागवत की महिमा मैं क्या लिखूँ? उसके आदि के तीन श्लोकों में जो महिमा कह दी गयी है, उसके बराबर कौन कह सकता है? उन तीनों श्लोकोंको कितनी ही बार पढ़ चुकनेपर भी जब उनका स्मरण होता है, मनमें अद्भुत भाव उदित होते हैं। कोई अनुवाद उन श्लोकों की गम्भीरता और मधुरता को पा नहीं सकता। उन तीनों श्लोकों से मन को निर्मल करके

फिर इस प्रकार भगवान्‌का ध्यान कीजिये -

ध्यायतश्चरणाम्भोजं भावनिर्जितचेतसा ।

 औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ।।

 प्रेमातिभरनिर्भिन्नपुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः । 

आनन्दसम्प्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ।। 

रूपं भगवतो यत्तन्मनःकान्तं शुचापहम् । 

अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ।।

मुझ को श्रीमद्भागवत में अत्यन्त प्रेम है। मेरा विश्वास और अनुभव है कि इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य को ईश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है और उनके चरणकमलों में अचल भक्ति होती है। इसके पढ़ने से मनुष्य को दृढ़ निश्चय हो जाता है कि इस संसार को रचने और पालन करनेवाली कोई सर्वव्यापक शक्ति है-

एक अनन्त त्रिकाल सच, चेतन शक्ति दिखात । 

सिरजत, पालत, हरत, जग, महिमा बरनि न जात ।।

इसी एक शक्ति को लोग ईश्वर, ब्रह्म, परमात्मा इत्यादि अनेक नामों से पुकारते हैं। भागवत के पहले ही श्लोक में वेदव्यासजी ने ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है कि जिससे इस संसार की सृष्टि, पालन और संहार होते हैं, जो त्रिकाल में सत्य है- अर्थात् जो सदा रहा भी, है भी और रहेगा भी- और जो अपने प्रकाश से अन्धकार को सदा दूर रखता है, उस परम सत्य का हम ध्यान करते हैं। उसी स्थान में श्रीम‌द्भागवत का स्वरूप भी इस प्रकार से संक्षेप में वर्णित है कि इस भागवत में- जो दूसरों की बढ़ती देखकर डाह नहीं करते, ऐसे साधुजनों का सब प्रकार के स्वार्थ से रहित परम धर्म और वह जानने के योग्य ज्ञान वर्णित है जो वास्तव में सब कल्याण का देने वाला और आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक- इन तीनों प्रकार के तापों को मिटाने वाला है। और ग्रन्थों से क्या, जिन सुकृतियों ने पुण्य के कर्म कर रखे हैं और जो श्रद्धा से भागवत को पढ़ते या सुनते हैं, वे इसका सेवन करने के समय से ही अपनी भक्ति से ईश्वरक्षको अपने हृदय में अविचलरूप से स्थापित कर लेते हैं। ईश्वर का ज्ञान और उनमें भक्ति का परम साधन - ये दो पदार्थ जब किसी प्राणी को प्राप्त हो गये तो कौन-सा पदार्थ रह गया, जिसके लिये मनुष्य कामना करे और ये दोनों पदार्थ श्रीम‌द्भागवत से पूरी मात्रा में प्राप्त होते हैं। इसीलिये यह पवित्र ग्रन्थ मनुष्यमात्रका उपकारी है। जबतक मनुष्य भागवतको पढ़े नहीं और उसकी इसमें श्रद्धा न हो, तबतक वह समझ नहीं सकता कि ज्ञान-भक्ति-वैराग्य का यह कितना विशाल समुद्र है। भागवत के पढ़ने से उसको यह विमल ज्ञान हो जाता है कि एक ही परमात्मा प्राणी-प्राणी में बैठा हुआ है और जब उसको यह ज्ञान हो जाता है, तब वह अधर्म करने का मन नहीं करता; क्योंकि दूसरों को चोट पहुँचाना अपने को चोट पहुँचाने के समान हो जाता है। इसका ज्ञान होने से मनुष्य सत्य धर्म में स्थिर हो जाता है, स्वभाव ही से दया-धर्म का पालन करने लगता लगता है और किसी अहिंसक प्राणी के ऊपर वार करने की इच्छा नहीं करता। मनुष्योंमें परस्पर प्रेम और प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव स्थापित करने के लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं। वर्तमान समय में, जब संसार के बहुत अधिक भागों में भयंकर युद्ध छिड़ा हुआ है, मनुष्य मात्र को इस पवित्र धर्म का उपदेश अत्यन्त कल्याणकारी होगा।

मंगलवार, 14 मई 2024

 श्रीम‌द्भागवत-माहात्म्य

 (स्वयं श्रीभगवान्‌ के श्रीमुख से ब्रह्माजी के प्रति कथित)

श्रीमद्भागवतं नाम पुराणं लोकविश्रुतम् ।

शृणुयाच्छ्रद्धया युक्तो मम सन्तोषकारणम् ।।१।।

लोकविख्यात श्रीमद्भागवत नामक पुराण का प्रतिदिन श्रद्धायुक्त होकर श्रवण करना चाहिये। यही मेरे संतोष का कारण है।

नित्यं भागवतं यस्तु पुराणं पठते नरः ।

प्रत्यक्षरं भवेत्तस्य कपिलादानजं फलम् ।।२।।

जो मनुष्य प्रतिदिन भागवतपुराण का पाठ करता है, उसे एक-एक अक्षर के उच्चारण के साथ कपिला गौ दान देने का पुण्य होता है।

श्लोकार्थं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम् ।

पठते शृणुयाद् यस्तु गोसहस्रफलं लभेत् ।।३।।

जो प्रतिदिन भागवत के आधे श्लोक या चौथाई श्लोक का पाठ अथवा श्रवण करता है, उसे एक हजार गोदान का फल मिलता है।

यः पठेत् प्रयतो नित्यं श्लोकं भागवतं सुत ।

अष्टादशपुराणानां फलमाप्नोति मानवः ।।४।।

पुत्र! जो प्रतिदिन पवित्रचित्त होकर भागवत के एक श्लोक का पाठ करता है, वह मनुष्य अठारह पुराणों के पाठ का फल पा लेता है।

नित्यं मम कथा यत्र तत्र तिष्ठन्ति वैष्णवाः ।

कलिबाह्या नरास्ते वै येऽर्चयन्ति सदा मम ।।५।।

जहाँ नित्य मेरी कथा होती है, वहाँ विष्णुपार्षद प्रह्लाद आदि विद्यमान रहते हैं। जो मनुष्य सदा मेरे भागवतशास्त्र की पूजा करते हैं, वे कलि के अधिकार से अलग हैं, उनपर कलि का वश नहीं चलता ।

वैष्णवानां तु शास्त्राणि येऽर्चयन्ति गृहे नराः ।

सर्वपापविनिर्मुक्ता भवन्ति सुरवन्दिताः ।।६।।

जो मानव अपने घरमें वैष्णवशास्त्रों की पूजा करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर देवताओं द्वारा वन्दित होते हैं।

येऽर्चयन्ति गृहे नित्यं शास्त्रं भागवतं कलौ । 

आस्फोटयन्ति वल्गन्ति तेषां प्रीतो भवाम्यहम् ।।७।।

जो लोग कलियुगमें अपने घर के भीतर प्रतिदिन भागवतशास्त्र की पूजा करते हैं, वे [कलिसे निडर होकर] ताल ठोंकते और उछलते-कूदते हैं, मैं उनपर बहुत प्रसन्न रहता हूँ।

यावद्दिनानि हे पुत्र शास्त्रं भागवतं गृहे ।

तावत् पिबन्ति पितरः क्षीरं सर्पिर्मधूदकम् ।।८।। 

पुत्र ! मनुष्य जितने दिनों तक अपने घर में भागवतशास्त्र रखता है, उतने समय तक उस के पितर दूध, घी, मधु और मीठा जल पीते हैं।

यच्छन्ति वैष्णवे भक्त्या शास्त्रं भागवतं हि ये।

कल्पकोटिसहस्राणि मम लोके वसन्ति ते ।।९।।

जो लोग विष्णुभक्त पुरुषको भक्तिपूर्वक भागवतशास्त्र समर्पण करते हैं, वे हजारों करोड़ कल्पोंतक (अनन्तकालतक) मेरे वैकुण्ठधाम में वास करते हैं।

येऽर्चयन्ति सदा गेहे शास्त्रं भागवतं नराः ।

प्रीणितास्तैश्च विबुधा यावदाभूतसंप्लवम् ।।१०।।

जो लोग सदा अपने घर में भागवतशास्त्र का पूजन करते हैं, वे मानो एक कल्पतक के लिये सम्पूर्ण देवताओं को तृप्त कर देते हैं।

श्लोकार्थं श्लोकपादं वा वरं भागवतं गृहे । 

शतशोऽथ सहखैश्च किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः ।।११।।

यदि अपने घर पर भागवत का आधा श्लोक या चौथाई श्लोक भी रहे, तो यह बहुत उत्तम बात है, उसे छोड़कर सैकड़ों और हजारों तरह के अन्य ग्रन्थों के संग्रह से भी क्या लाभ है?

न यस्य तिष्ठते शास्त्रं गृहे भागवतं कलौ ।

न तस्य पुनरावृत्तिर्याम्यपाशात् कदाचन ।।१२।।

कलियुग में जिस मनुष्य के घरमें भागवतशास्त्र मौजूद नहीं है, उसको यमराजके पाश से कभी छुटकारा नहीं मिलता ।

कथं स वैष्णवो ज्ञेयः शास्त्रं भागवतं कलौ ।

गृहे न तिष्ठते यस्य श्वपचादधिको हि सः ।।१३।।

इस कलियुग में जिस के घर भागवतशास्त्र मौजूद नहीं है, उसे कैसे वैष्णव समझा जाय? वह तो चाण्डाल से भी बढ़कर नीच है!

सर्वस्वेनापि लोकेश कर्तव्यः शास्त्रसंग्रहः ।

 वैष्णवस्तु सदा भक्त्या तुष्ट्यर्थं मम पुत्रक ।।१४।। 

लोकेश ब्रह्मा ! पुत्र ! मनुष्यको सदा मुझे भक्ति-पूर्वक संतुष्ट करनेके लिये अपना सर्वस्व देकर भी वैष्णवशास्त्रों का संग्रह करना चाहिये ।

यत्र यत्र भवेत् पुण्यं शास्त्रं भागवतं कलौ ।

तत्र तत्र सदैवाहं भवामि त्रिदशैः सह ।।१५।।

कलियुग में जहाँ-जहाँ पवित्र भागवतशास्त्र रहता है, वहाँ-वहाँ सदा ही मैं देवताओं के साथ उपस्थित रहता हूँ।

तत्र सर्वाणि तीर्थानि नदीनदसरांसि च ।

यज्ञाः सप्तपुरी नित्यं पुण्याः सर्वे शिलोच्चयाः ।।१६।।

यही नहीं-वहाँ नदी, नद और सरोवररूप में प्रसिद्ध सभी तीर्थ वास करते हैं; सम्पूर्ण यज्ञ, सात पुरियाँ और सभी पावन पर्वत वहाँ नित्य निवास करते हैं।

श्रोतव्यं मम शास्त्रं हि यशोधर्मजयार्थिना ।

पापक्षयार्थं लोकेश मोक्षार्थं धर्मबुद्धिना ।।१७।।

लोकेश ! यश, धर्म और विजय के लिये तथा पापक्षय एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिये धर्मात्मा मनुष्य को सदा ही मेरे भागवतशास्त्र का श्रवण करना चाहिये ।

श्रीम‌द्भागवतं पुण्यमायुरारोग्यपुष्टिदम् ।

पठनाच्छ्रवणाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।१८।।

यह पावन पुराण श्रीमद्भागवत आयु, आरोग्य और पुष्टिको देनेवाला है; इसका पाठ अथवा श्रवण करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

न शृण्वन्ति न हृष्यन्ति श्रीमद्भागवतं परम् । 

सत्यं सत्यं हि लोकेश तेषां स्वामी सदा यमः ।।१९।।

लोकेश! जो इस परम उत्तम भागवतको न तो सुनते हैं हैं और न सुनकर प्रसन्न ही होते उनके स्वामी सदा यमराज ही हैं- वे सदा यमराजके ही वशमें रहते हैं- यह मैं सत्य सत्य कह रहा हूँ।

न गच्छति यदा मर्त्यः श्रोतुं भागवतं सुत । 

एकादश्यां विशेषेण नास्ति पापरतस्ततः ।।२०।।

पुत्र ! जो मनुष्य सदा ही- विशेषतः एकादशी को भागवत सुनने नहीं जाता, उससे बढ़कर पापी कोई नहीं है।

श्लोकं भागवतं चापि श्लोकार्थं पादमेव वा ।

लिखितं तिष्ठते यस्य गृहे तस्य वसाम्यहम् ।।२१।।

जिसके घरमें एक श्लोक, आधा श्लोक अथवा श्लोक का एक ही चरण लिखा रहता है, उसके घर में मैं निवास करता हूँ।

सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् ।

न तथा पावनं नृणां श्रीम‌द्भागवतं यथा ।।२२।।

मनुष्यके लिये सम्पूर्ण पुण्य-आश्रमोंकी यात्रा या सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करना भी वैसा पवित्रकारक नहीं है, जैसा श्रीम‌द्भागवत है।

यत्र यत्र चतुर्वक्त्र श्रीम‌द्भागवतं भवेत् ।

 गच्छामि तत्र तत्राहं गौर्यथा सुतवत्सला ।।२३।।

चतुर्मुख ! जहाँ-जहाँ भागवतकी कथा होती है, वहाँ-वहाँ मैं उसी प्रकार जाता हूँ, जैसे पुत्रवत्सला गौ अपने बछड़े के पीछे-पीछे जाती है। 

मत्कथावाचकं नित्यं मत्कथाश्रवणे रतम् । 

मत्कथाप्रीतमनसं नाहं त्यक्ष्यामि तं नरम् ।। २४।।

जो मेरी कथा कहता है, जो सदा उसे सुननेमें लगा रहता है तथा जो मेरी कथासे मन- ही-मन प्रसन्न होता है, उस मनुष्यका मैं कभी त्याग नहीं करता । 

श्रीम‌द्भागवतं पुण्यं दृष्ट्वा नोत्तिष्ठते हि यः ।

 सांवत्सरं तस्य पुण्यं विलयं याति पुत्रक ।।२५।। 

पुत्र ! जो परम पुण्यमय श्रीम‌द्भागवतशास्त्र को देखकर अपने आसन से उठकर खड़ा नहीं हो जाता, उसका एक वर्ष का पुण्य नष्ट हो जाता है। 

श्रीमद्भागवतं दृष्ट्वा प्रत्युथानाभिवादनैः । 

सम्मानयेत तं दृष्ट्वा भवेत् प्रीतिर्ममातुला ।।२६।।

जो श्रीमद्भागवतपुराणको देखकर खड़ा होने और प्रणाम करने आदिके द्वारा उसका सम्मान करता है, उस मनुष्यको देखकर मुझे अनुपम आनन्द मिलता है। 

दृष्ट्वा भागवतं दूरात् प्रक्रमेत् सम्मुखं हि यः । 

पदे पदेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयम् ।। २७।। 

जो श्रीम‌द्भागवतको दूरसे ही देखकर उसके सम्मुख जाता है, वह एक-एक पगपर अश्वमेध यज्ञके पुण्यको प्राप्त करता है- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

 उत्थाय प्रणमेद् यो वै श्रीम‌द्भागवतं नरः । 

धनपुत्रांस्तथा दारान् भक्तिं च प्रददाम्यहम् ।। २८।।

 जो मानव खड़ा होकर श्रीम‌द्भागवतको प्रणाम करता है, उसे मैं धन, स्त्री, पुत्र और अपनी भक्ति प्रदान करता हूँ।

 महाराजोपचारैस्तु श्रीमद्भागवतं सुत । 

शृण्वन्ति ये नरा भक्त्या तेषां वश्यो भवाम्यहम् ।। २९।।

 हे पुत्र ! जो लोग महाराजोचित सामग्रियोंसे युक्त होकर भक्तिपूर्वक श्रीम‌द्भागवतकी कथा सुनते हैं, मैं उनके वशीभूत हो जाता हूँ।

 ममोत्सवेषु सर्वेषु श्रीम‌द्भागवतं परम् ।

 शृण्वन्ति ये नरा भक्त्या मम प्रीत्यै च सुव्रत ।। ३०।।

वस्त्रालङ्करणैः पुष्पैर्धूपदीपोपहारकैः ।

वशीकृतो ह्यहं तैश्च सत्स्त्रिया सत्पतिर्यथा ।।३१ ।।

सुव्रत ! जो लोग मेरे पर्वों से सम्बन्ध रखने वाले सभी उत्सवों में मेरी प्रसन्नता के लिये वस्त्र, आभूषण, पुष्प, धूप और दीप आदि उपहार अर्पण करते हुए परम उत्तम श्रीम‌द्भागवतपुराण का भक्तिपूर्वक श्रवण करते हैं, वे मुझे उसी प्रकार अपने वशमें कर लेते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री अपने साधुस्वभाव वाले पति को वश में कर लेती है।  

(स्कन्दपुराण, विष्णुखण्ड, मार्गशीर्षमाहात्म्य अ० १६)







 चतुःश्लोकी भागवत


अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । 

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।।१।। 

ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । 

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ।।२।। 

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।।३।। 

एतावदेव जिज्ञास्यंतत्त्व जिज्ञासुनाऽऽत्मनः । 

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ।।४।।


सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनों का कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं ही मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं हूँ; और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ । वास्तव में न होने पर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डल के नक्षत्रों में राहु की भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझनी चाहिये । जैसे प्राणियों के पंचभूत रचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरों के कार्यरूप से निर्मित होने के कारण प्रवेश करते भी हैं और पहले से ही उन स्थानों और रूपों में कारणरूप से विद्यमान रहने के कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियों के शरीर की दृष्टि से मैं उनमें आत्मा के रूप से प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृ‌ष्टि से अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ । यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेध की पद्धति से और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है- इस अन्वय की पद्धति से यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वे ही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है ।


 STEP 1 Key Ingredients Narikela (Cocos Nuciferal 1%. Anual Magnifera indicant Nucifera) 0.5%. Almond Oil (Prunus Amygdalus) 15. Banaya (Cassia Angustifotias 77%. Rice water extract (Oryza Sativa) 15. Base Material EDTA, Stearic Acid, Polysorbate 20. Phenoxyethand. Fragrance DM Water as


STEP 2: Key Ingredients Ghritkumari (Aloe Barbadensis) 4%, Banaya (Cassia Angustifo Rice extract (Oryza Sativa) 1%. AksodalJuglans Regia) 1% Base Material Edta, Glycerin, Polyethylene Glyst SL.S. Coco Betain. Phenoxyethanol, Honey, Fragrance, Dm Water g.s


STEP 3: Key Ingredients: Rice water extract (Oryza Sativa) 1%. Ghritkumari (Aloe Barbadensis) 1% Sese Material: EDTA, Glycerin, Polyethylene Glycol, Carbomer, DM DM. Rice Protein, Fragrance Of Water g.s


STEP 4: Key Ingredients: Ghrit Kumari (Aloe Barbadensis) 1%, Sanaya (Cassia Angustifolia) 1%, Rice water extract (Oryza Sativa) 1% Base Material: EDTA, Glycerin, Polyethylene Glycol, E Wax, Stearic Acid, LLP Shee Butter, IPM, Phenoxyethanol, Tocopherol, Bentonite, Polysorbate 20, Fragrance, DM Water qs


STEP 5: Key Ingredients: Ghrit Kumari (Aloe Barbadensis) 3%, Sanaya (Cassia Angustifolia) 1%. Rice wanar extract (Oryza Sativa) 1%. Base Material: Polyethylene Glycol, Glycerin, Polysorbate 20, D-panthenol EDTA Phenoxyethanol, Fragrance, DM Water q.s


STEP 6: Key Ingredients Sanaya (Cassia Angustifolia) 1%, Rice water extract (Oryza Sativa) 1%. Base Material: Polyethylene Glycol, Glycerin, Polysorbate 20, D-panthenol, EDTA, Phenoxyethanol, Fragrance OM Water q.s


AN AYURVEDIC PROPRIETARY MEDICINE

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...