गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 8

  दिव्य जीवन, समर्पित जीवन—


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। 9।।


हे अर्जुन! मेरा यह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक है। इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।


जीवन विपरीत ध्रुवों का संगम है, अपोजिट पोलेरेटीज का। यहां प्रत्येक चीज अपने विपरीत के साथ मौजूद है; अन्यथा संभव भी नहीं है। अंधेरा है, तो साथ में जुड़ा हुआ प्रकाश है। जन्म है, तो साथ में जुड़ी हुई मृत्यु है। जो विपरीत हैं, वे सदा साथ मौजूद हैं।

जो हमें दिखाई पड़ता है, वह लौकिक है। जो हमारी इंद्रियों की पकड़ में आता है, वह लौकिक है। जिसे हमारी आंख देखती और कान सुनते और हाथ स्पर्श करते हैं, वह लौकिक है। हमारी इंद्रियों के जगत का नाम लोक है। लेकिन इंद्रियों की पकड़ के बाहर भी कुछ सदा मौजूद है, वह अलौकिक है।

इंद्रियां जिसे नहीं पकड़तीं, हाथ जिसे स्पर्श नहीं कर पाते, वाणी जिसे प्रकट नहीं करती, मन जिसे समझ नहीं पाता, वह भी सदा मौजूद है; उस मौजूद का नाम अलौकिक है। वह लोक के साथ ही निरंतर उपस्थित है।

जो व्यक्ति इंद्रियों पर ही अपने को समाप्त कर लेता है, उसे अलौकिक का कोई संस्पर्श नहीं हो पाता। जो ऐसा मानकर बैठ जाता है कि इंद्रियां ही सब कुछ हैं, वह अलौकिक से वंचित रह जाता है।

कृष्ण कहते हैं, मेरा यह जीवन अलौकिक है।

जीवन सभी का अलौकिक है। जन्म और मृत्यु लौकिक है, जीवन अलौकिक है। शरीर में जीवन है, लेकिन शरीर जीवन नहीं है। फूल में सौंदर्य है, लेकिन सौंदर्य फूल नहीं है। दीए में ज्योति है, लेकिन ज्योति दीया नहीं है। यद्यपि ज्योति दीए के बिना प्रकट न हो सकेगी; इंद्रियों की पकड़ में न आ सकेगी। सौंदर्य फूल के बिना तिरोहित हो जाएगा, खोजे से भी मिलेगा नहीं।

जीवन भी जन्म और मृत्यु के दो तटों के बीच बहती हुई धारा है। दोनों तट न होंगे, धारा दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। लेकिन फिर भी स्मरण रखें, तट धारा नहीं है। और ऐसा भी हो सकता है कि धारा सूख जाए; तट बने रहें और धारा न हो। तट बिना धारा के भी हो सकते हैं। तट स्थूल हैं, दिखाई पड़ते हैं; धारा सूक्ष्म है, अगर तट न हों तो दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी।

जीवन सभी का अलौकिक है, लेकिन कृष्ण जोर देकर कहते हैं, मेरा जीवन अलौकिक है। इस जोर का कारण क्या है? इस जोर के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि दूसरों का जीवन अलौकिक नहीं है, कृष्ण का जीवन अलौकिक है; ऐसा जो अर्थ लेंगे, वे भूल में पड़ेंगे। जीवन तो सभी का अलौकिक है, कृष्ण का ही नहीं। फिर कृष्ण क्यों जोर देकर कहते हैं कि मेरा जीवन अलौकिक है?

वे इसलिए जोर देकर कहते हैं कि जिस दिन कोई अपने भीतर के अलौकिक जीवन को जानेगा, उस दिन वह मुझसे भिन्न नहीं रह जाता; वह मुझसे एक ही हो जाता है। उस दिन से उसका जीवन उसका नहीं रह जाता, परमात्मा का ही हो जाता है। मेरा जीवन अलौकिक है, ऐसा जानते ही, जीवन मेरा नहीं रह जाता। इस तथ्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

जैसे ही बूंद ने जाना कि वह सागर है, वैसे ही बूंद बूंद नहीं रह जाती; सागर ही हो जाती है। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मेरे भीतर कुछ असीम भी मौजूद है, वैसे ही वह व्यक्ति नहीं रह जाता, असीम हो जाता है।

यहां कृष्ण उस असीम की तरफ से ही कहते हैं कि मेरा जीवन अलौकिक है। इसलिए जो भी इस अलौकिक का दर्शन कर लेता है, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है। इसलिए वे कहते हैं, मरकर वह व्यक्ति नए जन्म को नहीं उपलब्ध होता, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है।

जन्म का अर्थ है, बूंद अभी अपने को बूंद ही मानती है; बूंद अभी अपने को सीमा में बंधा हुआ मानती है। न जन्म होने का अर्थ है कि बूंद ने अब सीमाओं के बाहर अतिक्रमण किया, ट्रांसेंडेंस हुआ। अब बूंद अपने को बूंद नहीं मानती; अब बूंद अपने को सागर ही जानती है।

कृष्ण कहते हैं, जो भी अलौकिक जीवन के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है, वह फिर मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। फिर उसका जन्म नहीं होता; फिर उसका जीवन ही होता है।

जन्म और मृत्यु का भ्रम जिन्हें है, उन्हें जीवन का अनुभव नहीं है। जिन्हें जीवन का अनुभव है, उन्हें जन्म और मृत्यु का भ्रम नहीं है। जब तक हमें लगता है, मैं जन्मा और मैं मरा, तब तक मुझे उसका पता नहीं चलेगा, जो जन्म और मृत्यु के तट के बीच अदृश्य बहता था, जो जीवन था। मुझे किनारों का पता है, बीच की धारा का कोई भी पता नहीं है। इन दोनों किनारों के बीच में तीसरी चीज भी थी; जीवन भी था। जन्म से शुरू हुआ, मृत्यु से तिरोहित हुआ, लेकिन इन दोनों के बीच में जीवन भी था। वह जीवन, उसका हमें कोई पता नहीं है, वह अलौकिक है।

अलौकिक का अर्थ यह हुआ, इंद्रियों से पकड़ में आने योग्य नहीं है। अलौकिक का अर्थ यह हुआ कि पदार्थ को जिस भांति हम जानते हैं, उस भांति उसे जानने का उपाय नहीं है।

पत्थर को मुझे हाथ में उठाकर देखना है, तो मैं स्पर्श करके देख सकता हूं। आपको अगर मुझे देखना है, तो आपके शरीर के स्पर्श से मैं आपको नहीं जानता; केवल आपके गृह को, आपके घर को जानता हूं। आप भीतर अछूते, अनटच्ड छूट जाते हैं। शरीर छू जाता है, आपको नहीं छू पाता हूं। स्पर्श की सीमा है; वह पदार्थ के पार नहीं जाती।

इसलिए विज्ञान कठिनाई में पड़ गया है। क्योंकि विज्ञान का खयाल है, जो इंद्रियों के भीतर है, वही रियलिटी है, वही यथार्थ है; जो इंद्रियों के भीतर नहीं है, वह यथार्थ नहीं है। लेकिन अब विज्ञान को रोज-रोज उन चीजों का पता चल रहा है, जो इंद्रियों की सीमा के भीतर नहीं हैं।

जैसे आज तक किसी ने भी इलेक्ट्रिसिटी नहीं देखी। आप कहेंगे, हम रोज देखते हैं। घर हमारे बल्ब जलता है, पंखा चलता है, रेडियो बजता है; हम रोज देखते हैं। लेकिन जो आप देख रहे हैं, वह सिर्फ परिणाम है, विद्युत नहीं है। वह सिर्फ कांसिक्वेंस है, रिजल्ट है, काज़ नहीं है। आप जो देख रहे हैं, वह विद्युत का परिणाम है, काम है; विद्युत नहीं है। जब आप बल्ब को फोड़ देते हैं, तो विद्युत नहीं फूटती, सिर्फ विद्युत को प्रकट करने वाला उपकरण टूट जाता है, इंस्ट्रूमेंट टूट जाता है; विद्युत नहीं टूट जाती। आप बिजली के तार को काट देते हैं, तब बिजली नहीं कटती; सिर्फ बिजली का तार कटता है, जिससे बिजली बहती थी। जब आप बिजली के तार को पकड़ लेते हैं, तो जो झटका, जो शॉक आपको लगता है, वह भी बिजली नहीं है; वह भी बिजली का परिणाम है। हम सिर्फ बिजली का परिणाम जानते हैं, बिजली को नहीं जानते; वह अदृश्य है।

अगर हम जीवन को इसी तरह खोजें, तो हम पाएंगे कि हम सिर्फ परिणाम जानते हैं। मूल कारण भीतर अदृश्य रह जाता है। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। जड़ें अदृश्य में रह जाती हैं। उस अदृश्य का नाम अलौकिक है।

इस अलौकिक को जो पुरुष जान लेता है, कृष्ण कहते हैं, वह फिर शरीर में जन्म नहीं लेता। क्योंकि वह विराट शरीर के साथ एक हो जाता है। फिर उसे छोटे-छोटे शरीरों में जन्म लेने की जरूरत नहीं रह जाती। फिर वह मेरे साथ ही एक हो जाता है। यहां जब कहते हैं कृष्ण, मेरे साथ, तो उसका अर्थ है अस्तित्व के साथ। वन विद दि एक्झिस्टेंस; वह जो समस्त अस्तित्व है, उसके साथ एक हो जाता है। फिर उसे अलग-अलग छोटे-छोटे घर बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।


कृष्ण उसी का दूसरा हिस्सा कह रहे हैं। कह रहे हैं, छोटे घर इसलिए नहीं बनाने पड़ेंगे कि घर नहीं रहेगा; छोटे घर इसलिए नहीं बनाने पड़ेंगे कि सारा विश्व, सारा अस्तित्व, वैसी चेतना का घर हो जाता है। फिर छोटे की जरूरत नहीं रह जाती।

स्वभावतः, जिसे हीरे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर मुट्ठी से छोड़ देता है; और जिसे महल मिल जाएं, वह झोपड़ियों को भूल जाता है। जिसे अलौकिक का दर्शन हो जाए, लौकिक कंकड़-पत्थर जैसा हो जाता है; फिर उसमें प्रवेश की आकांक्षा नहीं रह जाती।

यहां कृष्ण का यह जोर कि मेरा जीवन दिव्य और अलौकिक है, इस बात का ही जोर है कि जीवन दिव्य और अलौकिक है। यहां कृष्ण जीवन के प्रतिनिधि की तरह बोलते हैं। और इससे बड़ी भ्रांति होती है। उनकी भी मजबूरी है।



इस बात को ठीक से समझ लें। कृष्ण कहते हैं, तुम जो हो सकते हो, मैं उसका प्रतिनिधि हूं। तुम जो हो सकते हो, वह मैं हो गया हूं। तुम जो कल होओगे, वह मैं आज हूं। मैं तुम्हारा कल हूं। मैं तुम्हारा भविष्य हूं। मैं तुम्हारे भविष्य की तरफ से बोलता हूं।

लेकिन यह हम न समझे। हम समझे कि कृष्ण कह रहे हैं, वे भगवान हैं; ठीक है; पूजा करो। हम यह न समझे कि वे हमारे भविष्य के प्रतिनिधि हैं, वे हमारी तरफ से बोल रहे हैं। जो हमारे बीज में छिपा है, वह उनका वृक्ष हो गया है। जो हमारे भीतर अभी अप्रगट है, वह उनके भीतर प्रगट हो गया है। जो अभी हम नहीं जानते अपने ही खजाने को, वह उन्होंने जान लिया है। वे हमारे सारे भविष्य, हमारी सारी संभावनाओं की आवाज हैं।


हमने आज तक दुनिया में दो तरह की भूलें की हैं। न समझे, तो सूली लगा दी। न समझे, तो पूजा कर ली। पूजा में हम सिंहासन पर बिठा देते हैं और दूर कर देते हैं। सूली पर हम सूली पर लटका देते हैं और दूर कर देते हैं। लेकिन दोनों हालत में हम यह बात मानने को राजी नहीं होते कि यह आदमी हमारे भीतर की छिपी हुई संभावनाओं की आवाज है।

इसलिए कृष्ण दूसरे ही वचन में कहते हैं कि जो यह अनुभव कर लेगा, फिर उसे जन्म की जरूरत नहीं; वह फिर मुझको उपलब्ध हो जाता है।

बड़ी कठिनाई है। उनकी कठिनाई भी है। आदमी के पास जो भाषा है, उसी भाषा में बोलना पड़ता है। उस भाषा में मैं के बिना बोले काम नहीं चल सकता, या फिर हमारी समझ में कुछ भी न आएगा।

अगर परमात्मा भी जमीन पर उतरकर खड़ा हो, तो भी हमारी भाषा में ही उसे बोलना पड़ेगा। अगर वह अपनी भाषा में बोलेगा, तो हमें पागल मालूम पड़ेगा। उसे हमारी भाषा में ही बोलना पड़ेगा।

और मजा यह है कि हमारी भाषा में बोले, तो भी हम नहीं समझ पाते; अपनी भाषा में बोले, तो भी नहीं समझ सकते। हमारी भाषा में भी बोले, तो भी हम नहीं समझ पाते; लेकिन अपनी भाषा में बोले, तब तो हम बिलकुल ही न समझ पाएंगे। हमारी भाषा में बोले, तो कम से कम हम नासमझी कर पाते हैं। वह भी समझने का एक गलत ढंग है। लेकिन कोई शायद समझ ले, इसलिए कृष्ण हमारी भाषा में बोलते हैं, मैं का प्रयोग करते हैं।



कृष्ण जैसे व्यक्तियों के भीतर मैं बचता नहीं। बचे, तो गीता बेकार है; फिर गीता पैदा नहीं हो सकती। लेकिन कृष्ण बार-बार मैं शब्द का प्रयोग करते हैं।

हमारी भी कठिनाई है। जब वे मैं का प्रयोग करते हैं, तो हम समझते हैं, जिस भांति हम मैं का प्रयोग करते हैं, उसी भांति वे भी करते होंगे। हमारे और उनके प्रयोग में बिलकुल ही कोई साम्य नहीं है।

कृष्ण जब कहते हैं मैं, तो उनके मैं में सब तू समाए हुए हैं। और जब हम कहते हैं मैं, तो हमारे मैं में सब तू अलग हैं, बाहर हैं; कोई भी समाया हुआ नहीं है। कृष्ण के मैं में तू इनक्लूसिव है। हमारे मैं में तू एक्सक्लूसिव है, बाहर है।

हम जब बोलते हैं मैं, तो हम तू से फासला बताने के लिए बोलते हैं। कृष्ण जब बोलते हैं मैं, तो वे तू को ढांक लेने के लिए बोलते हैं। लेकिन यह हमारे खयाल में नहीं आ सकता।

उनका मैं इतना बड़ा है कि उस मैं के बाहर और कोई भी नहीं। और हमारा मैं इतना छोटा है कि उस मैं के भीतर हमारे सिवाय और कोई भी नहीं। इस फर्क को खयाल में रखेंगे, तो बार-बार उनके मैं का प्रयोग ठीक से समझ में आ सकता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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