गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 5

  मालकियत की घोषणा


उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।


और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे। क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है।


योग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही शत्रु सिद्ध होता है।

कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, उचित है, समझदारी है, बुद्धिमत्ता है इसी में कि व्यक्ति अपनी आत्मा का अधोगमन न करे, ऊर्ध्वगमन करे।

और ये दोनों बातें संभव हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है नीचे यात्रा करने के लिए भी, ऊपर यात्रा करने के लिए भी। स्वतंत्रता में सदा ही खतरा भी है। स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है, अपने अहित की भी स्वतंत्रता। अगर कोई आपसे कहे कि आप सिर्फ वही करने में स्वतंत्र हैं, जो आपके हित में है; वह करने में आप स्वतंत्र नहीं हैं, जो आपके हित में नहीं है--तो आपकी स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं होगा। कोई अगर मुझसे कहे कि मैं स्वतंत्र हूं सिर्फ धर्म करने में और अधर्म करने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं, तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा; वह परतंत्रता का ही एक रूप है।

मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है। और जब भी हम कहते हैं, कोई स्वतंत्र है, तो दोनों दिशाओं की स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती है--बुरा करने की भी, भला करने की भी। दूसरे के साथ बुरा करने की स्वतंत्रता, अपने साथ बुरा करने की स्वतंत्रता बन जाती है। और दूसरे के साथ भला करने की स्वतंत्रता, अपने साथ भला करने की स्वतंत्रता बन जाती है।

मनुष्य चाहे तो अंतिम नर्क के दुख तक यात्रा कर सकता है; और चाहे--वही मनुष्य, ठीक वही मनुष्य, जो अंतिम नर्क को छूने में समर्थ है--चाहे तो मोक्ष के अंतिम सोपान तक भी यात्रा कर सकता है।

ये दोनों दिशाएं खुली हैं। और इसीलिए मनुष्य अपना मित्र भी हो सकता है और अपना शत्रु भी। हम में से बहुत कम लोग हैं जो अपने मित्र होते हैं, अधिक तो अपने शत्रु ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि हम जो भी करते हैं, उससे अपना ही आत्मघात होता है, और कुछ भी नहीं।



किसे हम कहें कि अपना मित्र है? और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है?

एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है, तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं।

निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं!

लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है।

हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्तों को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।

मैं नदी की तरफ जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ जा रहा हूं। लेकिन अगर बाजार की तरफ चलने वाले रास्ते पर चलूंगा, तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा रहा हूं, मैं पहुंचूंगा बाजार। सोचने से नहीं पहुंचता है आदमी; किन रास्तों पर चलता है, उनसे पहुंचता है। मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्तों से तय होती हैं।

आप कोई भी सपना देखते रहें। अगर आपने बीज नीम के बो दिए हैं, तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल लगेंगे। आपके सपनों से फल नहीं निकलते। फल आपके बोए गए बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं, तो शायद आप दुखी होते हैं और पछताते हैं। सोचते हैं, मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए?

ध्यान रहे, फल ही कसौटी है, परीक्षा है बीज की। फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे। आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है।

हम सभी आनंद लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनंद! हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शांति! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख बरसे, पर बरसता कभी नहीं है।

तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल; हम जो बोते हैं, उससे आते हैं।

हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं! फिर जब फल आते हैं, तो जहर के ही आते हैं, दुख और पीड़ा के ही आते हैं, नर्क ही फलित होता है।

हम सब अपने जीवन को देखें, तो खयाल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुख के गङ्ढों के और कहीं भी नहीं पहुंचते मालूम पड़ते हैं। रोज दुख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर और संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं। फूल आनंद के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुख के। पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। फिर कहीं न कहीं हम--हम ही--क्योंकि और कोई नहीं है; हम ही कुछ गलत बो लेते हैं। उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बीज बोते वक्त खयाल रखना, क्या बो रहे हैं।

बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए, और शांति पाना चाहे! और एक आदमी घृणा के बीज बोए, और प्रेम की फसल काटना चाहे! और एक आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए, और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! और एक आदमी सब की तरफ गालियां फेंके, और चाहे कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगें!

पर आदमी ऐसी ही असंभव चाह करता है, दि इंपासिबल डिजायर! मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी ही असंभव कामना हमारे मन में बैठी चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं, और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं, और मुझे कोई धोखा न दे। मैं सबको दुख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुख न पहुंचाए। यह असंभव है। जो हम बोएंगे, वह हम पर लौटने लगेगा।

और जीवन का सूत्र है कि जो हम फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर से हमारी ही फेंकी गई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती हैं। देर लगती है। जाती है ध्वनि; टकराती है बाहर की दिशाओं से; वापस लौटती है। वक्त लग जाता है। जब तक लौटती है, तब तक हमें खयाल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी, वही वापस लौट रही है।

अपने ही शत्रु हो जाते हैं हम, कृष्ण कहते हैं। उस क्षण में हम अपने शत्रु हो जाते हैं, जब हम कुछ ऐसा करते हैं, जिससे हम अपने को ही दुख में डालते हैं; अपने ही दुख में उतरने की सीढ़ियां निर्मित करते हैं।

तो ठीक से देख लेना, जो आदमी अपना शत्रु है, वही आदमी अधार्मिक है। अधार्मिक वह है, जो अपना शत्रु है। और जो अपना शत्रु है, वह किसी का मित्र तो कैसे हो सकेगा? जो अपना भी मित्र नहीं, वह किसका मित्र हो सकेगा! जो अपने लिए ही दुख के आधार बना रहा है, वह सबके लिए दुख के आधार बना देगा।

पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूरतम लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है। हमें पता भी नहीं चलता। जैसे कि झील में कोई, शांत झील में, एक पत्थर फेंक दे। पड़ती है चोट, पत्थर तो नीचे बैठ जाता है क्षणभर में, लेकिन झील की सतह पर उठी हुई लहरें दूर-दूर तक यात्रा पर निकल जाती हैं। पत्थर तो बैठ जाता है कभी का, लेकिन लहरें चलती चली जाती हैं अनंत तक।

ऐसे ही हम जो करते हैं, हम तो करके चुक भी जाते हैं। आपने एक गाली दे दी। बात खत्म हो गई। फिर आप गीता पढ़ने लगे। लेकिन वह गाली की जो रिपल्स, जो तरंगें पैदा हुईं, वे चल पड़ीं। वे न मालूम कितने दूर के छोरों को छुएंगी। और जितना अहित उस गाली से होगा, उतने सारे अहित के लिए आप जिम्मेवार हो गए।

आप कहेंगे, कितना अहित हो सकता है एक गाली से? अकल्पनीय अहित हो सकता है। और जितना अहित हो जाएगा इस विश्व के तंत्र में, उतने के लिए आप जिम्मेवार हो जाएंगे। और कौन जिम्मेवार होगा? आपने ही उठाईं वे लहरें। आपने ही पैदा किया वह सब। आपने ही बोया बीज। अब वह चल पड़ा। अब वह दूर-दूर तक फैल जाएगा। एक छोटी-सी दी गई गाली से क्या-क्या हो सकता है! अगर आपने अकेले में दी हो और किसी ने न सुनी हो, तब तो शायद आप सोचेंगे कि कुछ भी नहीं होगा इसका परिणाम।

लेकिन इस जगत में कोई भी घटना निष्परिणामी नहीं है। उसके परिणाम होंगे ही। कठिन मालूम पड़ेगा। किसी को गाली दी हो, उसका दिल दुखाया हो, तब तो हमने कोई शत्रुता खड़ी की है। लेकिन अंधेरे में गाली दे दी हो, तो उससे कोई शत्रुता पैदा हो सकती है? उससे भी पैदा होती है।

आप बहुत सूक्ष्म तरंगें पैदा करते हैं अपने चारों ओर। वे तरंगें फैलती हैं। उन तरंगों के प्रभाव में जो लोग भी आएंगे, वे गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे। उन तरंगों के प्रभाव में गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे।

अभी इस पर बहुत काम चलता है, सूक्ष्मतम तरंगों पर। और खयाल में आता है कि अगर गलत लोग एक जगह इकट्ठे हों, सिर्फ चुपचाप बैठे हों, कुछ न कर रहे हों, सिर्फ गलत हों, और आप उनके पास से गुजर जाएं, तो आपके भीतर जो गलत हिस्सा है, वह ऊपर आ जाता है। और जो ठीक हिस्सा है, वह नीचे दब जाता है।

दोनों हिस्से आपके भीतर हैं। अगर कुछ अच्छे लोग बैठे हों एक जगह, प्रभु का स्मरण करते हों, कि प्रभु का गीत गाते हों, कि किन्हीं सदभावों के फूलों की सुगंध में जीते हों, कि सिर्फ मौन ही बैठे हों। जब आप उनके पास से गुजरते हैं--वही आप, जो गलत लोगों के पास से गुजरे थे, और आपका गलत हिस्सा ऊपर आ गया था--जब आप इन लोगों के पास से गुजरते हैं, तो दूसरी घटना घटती है। आपका गलत हिस्सा नीचे दब जाता है; आपका श्रेष्ठ हिस्सा ऊपर आ जाता है।

आपकी संभावनाओं में इतने सूक्ष्मतम अंतर होते हैं। और हम चौबीस घंटे जो कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब नहीं रखता कि हम क्या कर रहे हैं। एक छोटा-सा गलत बोला गया शब्द कितने दूर तक कांटों को बो जाएगा, हमें कुछ पता नहीं है।

अगर इस मुल्क ने राह पर चलते हुए अनजान आदमी को भी राम-राम करने की प्रक्रिया बनाई थी--वह शायद दुनिया में कहीं नहीं बनाई जा सकी।  इस मुल्क ने हजारों साल के अनुभव के बाद एक शब्द खोजा था नमस्कार के लिए, वह था, राम। राह पर कोई मिला है और हमने कहा, जय राम! उस आदमी से कोई मतलब नहीं है, जय राम जी का कोई मतलब नहीं है। यह राम का स्मरण है। उस आदमी को देखकर हमने प्रभु का स्मरण किया।

जो ठीक से नमस्कार करना जानते हैं, वे सिर्फ उच्चारण नहीं करेंगे, वे उस आदमी में राम की प्रतिमा को भी देखकर गुजर जाएंगे। उन्होंने उस आदमी को देखकर प्रभु को स्मरण किया। उस आदमी की मौजूदगी प्रभु के स्मरण की घटना बन गई। इस मौके को छोड़ा नहीं; इस मौके पर एक शुभ कामना पैदा की गई, प्रभु के स्मरण की घड़ी पैदा की गई।

और हो सकता है, वह आदमी शायद राम को मानता भी न हो, जानता भी न हो, लेकिन उत्तर में वह भी कहेगा, जय राम। उसके भीतर भी कुछ ऊपर आएगा। और अगर राह से, पुराने गांव की राह से गुजरते हैं, तो राह पर पच्चीस दफा जय राम कर लेना पड़ता है।

जीवन बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से निर्मित होता है।

मंगल की कामना या प्रभु का स्मरण, आपके भीतर जो श्रेष्ठ है, उसको ऊपर लाता है; और दूसरे के भीतर जो श्रेष्ठ है, उसे भी ऊपर लाता है। जब आप किसी के सामने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुका देते हैं, तो आप उसको भी झुकने का एक अवसर देते हैं। और झुकने से बड़ा अवसर इस जगत में दूसरा नहीं है, क्योंकि झुका हुआ सिर कुछ भी बुरा नहीं सोच पाता। झुका हुआ सिर गाली नहीं दे पाता। गाली देने के लिए अकड़ा हुआ सिर चाहिए।

और कभी आपने खयाल किया हो या न किया हो, लेकिन अब आप खयाल करना। जब किसी को हृदयपूर्वक नमस्कार करके सिर झुकाएं और कल्पना भी कर सकें अगर कि परमात्मा दूसरी तरफ है, तो आप अपने में भी फर्क पाएंगे और उस आदमी में भी फर्क पाएंगे। वह आदमी आपके पास से गुजरा, तो आपने उसको पारस का काम किया, उसके भीतर कुछ आपने सोना बना दिया। और जब आप किसी के लिए पारस का काम करते हैं, तो दूसरा भी आपके लिए पारस बन जाता है।

जीवन संबंध है, रिलेशनशिप है। हम संबंधों में जीते हैं। हम अपने चारों तरफ अगर पारस का काम करते हैं, तो यह असंभव है कि बाकी लोग हमारे लिए पारस न हो जाएं। वे भी हो जाते हैं।

अपना मित्र वही है, जो अपने चारों ओर मंगल का फैलाव करता है, जो अपने चारों ओर शुभ की कामना करता है, जो अपने चारों ओर नमन से भरा हुआ है, जो अपने चारों ओर कृतज्ञता का ज्ञापन करता चलता है।

और जो व्यक्ति दूसरों के लिए मंगल से भरा हो, वह अपने लिए अमंगल से कैसे भर सकता है! जो दूसरों के लिए भी सुख की कामना से भरा हो, वह अपने लिए दुख की कामना से नहीं भर सकता। अपना मित्र हो जाता है। और अपना मित्र हो जाना बहुत बड़ी घटना है। जो अपना मित्र हो गया, वह धार्मिक हो गया। अब वह ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे स्वयं को दुख मिले।

तो अपना हिसाब रख लेना चाहिए कि मैं ऐसे कौन-कौन से काम करता हूं, जिससे मैं ही दुख पाता हूं। दिन में हम हजार काम कर रहे हैं; जिनसे हम दुख पाते हैं, हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते हैं जीवन का कि हम इन कामों को करके दुख पाते हैं। वही बात, जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, आप फिर कह देते हैं। वही व्यवहार, जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर कर गुजरते हैं। वही सब दोहराए चले जाते हैं यंत्र की भांति।

जिंदगी एक पुनरुक्ति से ज्यादा नहीं मालूम पड़ती, जैसा हम जीते हैं। वही भूलें, वही चूकें। नई भूल करने वाले आविष्कारी आदमी भी बहुत कम हैं। बस, पुरानी भूलें ही हम किए चले जाते हैं। इतनी बुद्धि भी नहीं कि एकाध नई भूल करें। पुराना; कल किया था वही; परसों भी किया था वही! आज फिर वही करेंगे। कल फिर वही करेंगे।

इसके प्रति सजग होंगे, अपनी शत्रुता के प्रति सजग होंगे, तो अपनी मित्रता का आधार बनना शुरू होगा।

कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग अपने लिए, अपने लिए ही इतने आनंद का रास्ता बनाते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ऊपर से हमें लगता है कि ये लोग बिलकुल त्यागी हैं; लेकिन मैं आपसे कहता हूं, इनसे ज्यादा परम स्वार्थी और कोई भी नहीं है।

हम त्यागी कहे जा सकते हैं, क्योंकि हमसे ज्यादा मूढ़ कोई भी नहीं है। हम, जो भी महत्वपूर्ण है, उसका त्याग कर देते हैं; और जो व्यर्थ है, उस कचरे को इकट्ठा कर लेते हैं। और ये बहुत होशियार लोग हैं। ये, जो व्यर्थ है, उस सबको छोड़ देते हैं; जो सार्थक है, उसको बचा लेते हैं।

और कई बार ऐसा मजेदार होता है कि कृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में होती है। और बाइबिल के किसी वाक्य की व्याख्या गीता में होती है। कभी कुरान के किसी सूत्र की व्याख्या वेद में होती है। कभी वेद के किसी सूत्र की व्याख्या कोई यहूदी फकीर करता है। कभी बुद्ध का वचन चीन में समझा जाता है। और कभी चीन में लाओत्से का कहा गया वचन हिंदुस्तान का कोई कबीर समझता है।


अपना मित्र दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे उसके साथ करें। अपना शत्रु दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे कभी उसके साथ न करें। और जो अपना मित्र हो गया, वह योग की यात्रा पर निकल पड़ा है। और आत्मा अपनी मित्र भी हो सकती है, शत्रु भी हो सकती है।

ध्यान रखना, शत्रु होना सदा आसान है। शत्रु होने के लिए क्या करना पड़ता है, कभी आपने खयाल किया है! अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो एक सेकेंड में हो सकते हैं। और अगर मित्र होना है, तो पूरा जन्म भी ना काफी है। अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो क्षण की भी तो जरूरत नहीं है, क्षण भी काफी है। एक जरा-सा शब्द और शत्रुता की पूरी की पूरी व्यवस्था हो जाएगी। लेकिन अगर आपको किसी का मित्र होना है, तो पूरा जीवन भी ना काफी है। पूरी जिंदगी श्रम करने के बाद भी कहीं कोई चीज, अभी दरार बाकी रह जाएगी, जो पूरी नहीं हो पाती।

मित्रता बड़ी साधना है, शत्रुता बच्चों का खेल है। इसलिए हम शत्रुता में आसानी से उतर जाते हैं। और खुद के साथ मित्रता तो बहुत ही कठिन है। दूसरे के साथ इतनी कठिन है, खुद के साथ तो और भी कठिन है।

आप कहेंगे, क्यों? दूसरे के साथ इतनी कठिन है, तो खुद के साथ और भी कठिन क्यों होगी? खुद के साथ तो आसान होनी चाहिए। हम तो सब समझते हैं कि हम सब अपने को प्रेम करते ही हैं।

भ्रांति है वह बात,  झूठ है। हममें से ऐसा आदमी बहुत मुश्किल है, जो अपने को प्रेम करता हो। क्योंकि जो अपने को प्रेम कर ले, उसकी जिंदगी में बुराई टिक नहीं सकती; असंभव है। अपने को प्रेम करने वाला शराब पी सकता है? अपने को प्रेम करने वाला क्रोध कर सकता है?

अपने साथ मित्रता इसलिए भी कठिन है कि  दूसरा तो दिखाई पड़ता है; हाथ फैलाया जा सकता है दोस्ती का। लेकिन खुद तो  अदृश्य सत्ता है; वहां तो हाथ फैलाने का भी उपाय नहीं है। दूसरे मित्र को तो कुछ भेंट दी जा सकती है, कुछ प्रशंसा की जा सकती है, कुछ दोस्ती के रास्ते बनाए जा सकते हैं, कुछ सेवा की जा सकती है। खुद के साथ तो कोई भी रास्ते नहीं हैं। खुद के साथ तो शुद्ध मैत्री का भाव ही! और कोई रास्ता नहीं है, और कोई सेतु नहीं है। अगर हो समझ, अंडरस्टैंडिंग ही सिर्फ सेतु बनेगी। उतनी समझ हममें नहीं है।

हम सब नासमझी में जीते हैं। लेकिन नासमझी में इतनी अकड़ से जीते हैं कि समझ को आने का दरवाजा भी खुला नहीं छोड़ते। असल में नासमझ लोगों से ज्यादा स्वयं को समझदार समझने वाले लोग नहीं होते! और जिसने अपने को समझा कि बहुत समझदार हैं, समझना कि उसने द्वार बंद कर लिए। अगर समझदारी उसके दरवाजे पर दस्तक भी दे, तो वह दरवाजा खोलने वाला नहीं है। वह खुद ही समझदार है!

हमारी समझदारी का सबसे गलत जो आधार है, वह यह है कि हम अपने को प्रेम करते ही हैं। यह बिलकुल झूठ है। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो दुनिया की यह हालत नहीं हो सकती थी, जैसी हालत है। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो आदमी पागल न होते, आत्महत्याएं न करते। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो दुनिया में इतना मानसिक रोग न होता।

चिकित्सक कहते हैं कि इस समय कोई सत्तर प्रतिशत रोग मानसिक हैं। वे अपने को घृणा करने से पैदा हुए रोग हैं। हम सब अपने को घृणा करते हैं। हजार तरह से अपने को सताते हैं। सताने के नए-नए ढंग ईजाद करते हैं! अपने को दुख और पीड़ा देने की भी नई-नई व्यवस्थाएं खोजते हैं। यद्यपि हम सबके पीछे बहुत तर्क इंतजाम कर लेते हैं।

यह तो चिकित्सक कहते हैं कि सत्तर प्रतिशत बीमारियां आदमी अपने को सजा देने के लिए विकसित कर रहा है। लेकिन मनस-चिकित्सक कहते हैं कि यह आंकड़ा छोटा है अभी । असली आंकड़ा और बड़ा है। और अगर आंकड़ा किसी दिन ठीक गया, तो निन्यानबे प्रतिशत बीमारियां मनुष्य अपने को सजा देने के लिए ईजाद करता है।

इतनी घृणा है खुद के साथ! वह हमारे हर कृत्य में प्रकट होती है। हर कृत्य में! जो भी हम करते हैं--एक बात ध्यान में रख लेना, तो कसौटी आपके पास हो जाएगी--जो भी आप करते हैं, करते वक्त सोच लेना, इससे मुझे सुख मिलेगा या दुख? अगर आपको दिखता हो, दुख मिलेगा और फिर भी आप करने को तैयार हैं, तो फिर आप समझ लेना कि अपने को घृणा करते हैं। और क्या कसौटी हो सकती है?

मुंह से गाली निकलने के लिए तैयार हो गई है; पंख फड़फड़ाकर खड़ी हो गई है जबान पर; उड़ने की तैयारी है। सोच लेना एक क्षण कि इससे अपने को दुख मिलेगा या सुख! दूसरे की मत सोचना, क्योंकि दूसरे की सोचने में धोखा हो जाता है। आदमी सोचता है, दूसरे को दुख मिलेगा या सुख! यह मत सोचना। पहले तो अपना ही सोच लेना कि इससे मुझे दुख मिलेगा या सुख! और अगर आपको पता चले कि दुख मिलेगा, और फिर भी आप गाली दो, तो फिर क्या कहा जाए, आप अपने को प्रेम करते हैं!

नहीं, हम सोचने का मौका भी नहीं देते। नहीं तो डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि गाली न दे पाएं।

मित्र वह है अपना, जो अशुभ को स्थगित कर दे और शुभ को कर ले। और शत्रु वह है अपना, जो शुभ को स्थगित कर दे और अशुभ को कर ले। एक क्षण रुककर देख लेना कि जिस चीज से दुख आता हो, उसे आप कर रहे हैं? तो फिर अपने शत्रु हैं।

और जो अपना शत्रु है, उसकी अधोयात्रा जारी है। वह नीचे गिरेगा, गिरता चला जाएगा--अंधकार और महा अंधकार, पीड़ा और पीड़ा। वह अपने ही हाथ से अपने को नर्क में धकाता चला जाएगा।

लेकिन जो व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है, वह ऊपर की ऊर्ध्व-यात्रा पर निकल जाता है। उसकी यात्रा दीए की ज्योति की तरह आकाश की तरफ होने लगती है। वह फिर पानी की तरह गङ्ढों में नहीं उतरता, अग्नि की तरह आकाश की तरफ उठने लगता है।

यह जो ऊपर उठती हुई चेतना है, यही योग है। अपना मित्र होना ही योग है। अपना शत्रु होना ही अयोग है। ऊपर की तरफ बढ़ते चले जाना ही आनंद है।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि योग है मंगल अर्जुन; और सार सूत्र है कि आत्मा स्वतंत्र है। अपना अहित भी कर सकती है, हित भी। अहित करना आसान, क्योंकि गङ्ढे में उतरना आसान। हित करना कठिन, क्योंकि पर्वत शिखर की ऊंची चढ़ाई है। लेकिन जो अपना मित्र बन जाए, वह जीवन में मुक्ति को अनुभव कर पाता है। और जो अपना शत्रु बन जाए, वह जीवन में रोज बंधनों, कारागृहों में गिरता चला जाता है।

इस सूत्र को अपने जीवन में कहीं-कहीं रुककर उपयोग करके देखना, तो खयाल में आ सकेगा। कुछ चीजें हैं, जिन्हें समझ लेना काफी नहीं, जिन्हें प्रयोग करना जरूरी है। ये सब के सब लेबोरेटरी मेथड्स हैं, यह जो भी कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से।

कृष्ण उन लोगों में से नहीं हैं, जो एक शब्द भी व्यर्थ कहें। वे उन लोगों में से नहीं हैं, जो शब्दों का आडंबर रचें। वे उन लोगों में से नहीं हैं, जिन्हें कुछ भी नहीं कहना है और फिर भी कहे चले जा रहे हैं। वे कोई राजनीतिक नेता नहीं हैं।

कृष्ण उतना ही कह रहे हैं, जितना अत्यंत आवश्यक है, और जितने के बिना नहीं चल सकेगा। प्रयोगात्मक हैं उनके सारे वक्तव्य। एक-एक सूत्र एक-एक जीवन के लिए प्रयोग बन सकता है।

और एक सूत्र पर भी प्रयोग कर लें, तो धीरे-धीरे पूरी गीता, बिना पढ़े, आपके सामने खुल जाएगी। और पूरी गीता पढ़ जाएं और प्रयोग कभी न करें, तो गीता बंद किताब रहेगी। वह कभी खुल नहीं सकती। उसे खोलने की चाबी कहीं से प्रयोग करना है।

इस सूत्र को समझें, जांचें, अपने मित्र हैं कि शत्रु! बस इस छोटे-से सूत्र को जांचते चलें और थोड़े ही दिन में आप पाएंगे कि आपको अपनी शत्रुता इंच-इंच पर दिखाई पड़ने लगी है। कदम-कदम पर आप अपने दुश्मन हैं। और अब तक की पूरी जिंदगी आपने अपनी दुश्मनी में बिताई है। और फिर रोकर चिल्लाते हैं कि मैं अभागा हूं; दुख में मरा जा रहा हूं। अपने ही हाथ से कोड़े मारते हैं अपनी ही पीठ पर, लहूलुहान कर लेते हैं। और दूसरे हाथ से लहू पोंछते हैं और कहते हैं कि मेरा भाग्य! अपने ही हाथ से दुख निर्मित करते हैं और फिर चिल्लाते हैं, मेरी नियति!

नहीं, कोई नियति नहीं है, आप ही हैं। और अगर कोई नियति है, तो वह आपके द्वारा ही काम करती है। और आप उस नियति को मार्ग देने में परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप परमात्मा के हिस्से हैं।

आपकी स्वतंत्रता में रत्तीभर कमी नहीं है। आप इतने स्वतंत्र हैं कि नर्क जा सकते हैं; आप इतने स्वतंत्र हैं कि स्वर्ग निर्मित कर सकते हैं। आप इतने स्वतंत्र हैं कि आपके एक-एक पैर पर एक-एक स्वर्ग बस जाए। और आप इतने स्वतंत्र भी हैं कि आपके एक-एक पैर पर एक-एक नर्क निर्मित हो जाए। और सब आप पर निर्भर है। आपके अतिरिक्त कोई भी जिम्मेवार नहीं है।

तो अपने मित्र हैं या शत्रु, इसे थोड़ा सोचना, देखना। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि शत्रु होना मुश्किल होने लगेगा, मित्र होना आसान होने लगेगा। और तब इस सूत्र को पढ़ना। तब इस सूत्र के अर्थ, अभिप्राय प्रकट होते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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