शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

श्रीकृष्ण

 एक समय की बात है, द्वारका मे रहते समय अतुल तेजस्वी श्रीकृष्ण को पिण्डारक तीर्थ में समुद्र यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ । राजा उग्रसेन तथा वसुदेव- इन दोनों को नगर का अध्यक्ष बनाकर द्वारका पुरी में ही छोड़ दिया गया। शेष सब लोग यात्रा के लिये निकले ।                                                        बलरामजी अपने परिवार के साथ अलग थे, सम्पूर्ण जगत् के स्वामी बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण का दल अलग था तथा अमित तेजस्वी कुमारों की मण्डलियाँ भी अलग-अलग थीं।  वस्त्राभूषणों से अलंकृत तथा रूप सौन्दर्य से सम्पन्न यादव वंशी कुमारों के साथ हजारों गणिकाएँ भी यात्रा के लिये निकलीं ।   सुदृढ़ पराक्रमी यादववीरों ने दैत्यों के निवास स्थान समुद्र को जीतकर वहाँ द्वारकापुरी में हजारों वेश्याओं को बसा दिया था ।

विविध वेश धारण करने वाली वे युवतियाँ महामनस्वी यादवकुमारों के लिये सामान्य क्रीड़ा नारियाँ थीं। वे अपने गुणों द्वारा सभी कुमारों की इच्छा के अनुसार उनके उपभोग में आने वाली थीं। राजकुमारों की उपभोग्या होने के कारण वे राजन्या कहलाती थीं। प्रभो ! बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने भीमवंशी यादवों के लिये ऐसी व्यवस्था कर दी थी, जिससे यादवों में स्त्री के कारण परस्पर वैर न हो ।                                                                           प्रतापी यदुश्रेष्ठ बलरामजी सदा अपने अनुकूल रहने वाली एकमात्र रेवती देवी के साथ चकवा चकवी के समान परस्पर अनुराग पूर्वक रमण करते थे । वे कादम्बरी की मधु  का पान करके मस्त रहते थे । वनमाला से विभूषित हुए बलराम वहाँ रेवती के साथ समुद्रजल में क्रीडा करने लगे ।

 सबके प्रिय कमलनयन गोविन्द सर्वरूप से अर्थात् जितनी स्त्रियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके जल में अपनी सोलह हजार स्त्रियों को रमाते थे । उस रात में नारायण स्वरूप श्रीकृष्ण की वे सारी रानियाँ यही मानती थीं कि मैं ही इन्हें अधिक प्रिय हूँ; अतः केशव मेरे ही साथ जल में विहार कर रहे हैं ।

सभी के अङ्गों पर रति के चिह्न थे। सभी रति  सुख का अनुभव कर के तृप्त हो गयी थीं; अतः वे सब-की-सब गोविन्द के प्रति  सम्मान का भाव धारण करती थीं ।

 श्रीकृष्ण की वे सभी सुन्दर रानियाँ अपने स्नेही परिजनों के समीप प्रसन्नतापूर्वक अपने भाग्य की सराहना करती हुई कहती थीं कि मैं ही अपने प्राणनाथ को अधिक प्रिय हूँ। मैं ही उन्हें अधिक प्यारी हूँ । वे कमलनयनी सुन्दरियाँ दर्पण में अपने कुचों पर श्रीकृष्ण के नख क्षत और अधरों पर दन्त क्षत चिह्न देख देख कर हर्ष में भर जाती थीं । श्रीकृष्ण की वे सुन्दर पत्नियाँ उनके नाम ले लेकर गीत गातीं और अपने नेत्रपुटों से उनके मुखारविन्द का रस पान करती थीं ।

 उनके मन और नेत्र श्रीकृष्ण में ही लगे रहते थे। नारायण की वे कमनीय पत्नियां अत्यन्त मनोहारिणी और एक निश्चय पर अटल रहने वाली थीं। नारायण देव उनके सारे मनोरथ पूर्ण करके उन्हें तृप्त रखते थे; अतः वे सब नारियां एक को ही अपना हृदय और दृष्टि अर्पित करके भी आपस में कभी ईर्ष्या नहीं करती थीं ।

 वे सारी  की सारी मनोहर दृष्टि वाली अथवा मनोहर दिखायी देने वाली सुन्दरियाँ केशव की वल्लभा होने का अथवा केशव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य वहन करती हुई अपने सिर को बड़े गर्व से ऊँचा किये रहती थीं ।

अपने मन को वश में रखने वाले भगवान् श्रीकृष्ण समुद्र के निर्मल जल में पूर्वोक्त विश्वरूप विधि से उन सब के साथ क्रीड़ा करते थे ।

भगवान् वासुदेव के शासन से उस समय महासागर समस्त सुगन्धों से युक्त, स्वच्छ, लवण रहित और शुद्ध स्वादिष्ट जल धारण करता था। समुद्र का वह जल कहीं टखने तो कहीं घुटनों तक, कहीं जाँघों तक था तो कहीं स्तनो तक था । उन नारियोंको इतना ही जल अभीष्ट था ।

श्रीकृष्ण की रानियां सब ओर से उन पर जल उलीचने लगी। जैसे नदियों की अनेक धाराएं समुद्र को सींचती है।भगवान् गोविन्द भी उन पर जल छिड़कने लगे, मानो मेघ खिली हुई लताओं पर जल बरसा रहा हो ।

 कितनी ही मृगनयनी नारियाँ श्री हरि के कण्ठ में अपनी बाँहें डालकर कहने लगीं - ' प्रिय ! मुझे हृदय से लगा लो, अपनी भुजाओं में कस लो; अन्यथा मैं जल में गिरी जाती हूँ'।

 कितनी ही सर्वाङ्गसुन्दरी स्त्रियाँ क्रौञ्च, मोर तथा नागों के आकार में बनी हुई काठ की नौकाओं द्वारा जल पर तैरने लगीं। दूसरी स्त्रियाँ मगर, मत्स्य तथा अन्यान्य विविध प्राणियों की आकृति धारण करने वाली नौकाओं द्वारा तैरने लगीं। कितनी ही रानियाँ समुद्र के रमणीय जल में श्रीकृष्ण को हर्ष प्रदान करती हुई घड़ों के समान अपने स्तनकुम्भों द्वारा तैर रही थीं ।

 अमरशिरोमणि श्रीकृष्ण उस जल में आनन्दपूर्वक महारानी रुक्मिणी के साथ रमण करते थे। वे जिस जिस कार्य या उपाय से आनन्द मानते, उनकी वे सुन्दरी स्त्रियाँ प्रशंसापूर्वक वही  वही कार्य या उपाय करती थीं। महीन वस्त्रों से ढकी हुई दूसरी सुन्दरियां एवं कमलनयनी स्त्रियाँ भाँति-भाँति की लीलाएँ करती हुई जल में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ क्रीड़ा करती थीं ।

जिस जिस रानी के मन में जो जो भाव था, सब के भावों को जानने और मन को वश में रखने वाले श्रीकृष्ण उसी उसी भाव से उस स्त्री के अन्तर में प्रवेश करके उसे अपने वश में कर लेते थे।

इन्द्रियों के प्रेरक और सब के स्वामी होकर भी सनातन भगवान् हृषीकेश देश काल के अनुसार अपनी प्रेयसी पत्नियों के वश में हो गये थे । 

वे समस्त वनिताएँ अपने कुल के अनुरूप बर्ताव करने वाले जनार्दन को ऐसा समझती थीं कि ये कुल और शील में समान होने के कारण हमारे ही योग्य हैं । मुस्करा कर बात करने वाले तथा औदार्य  गुण से सम्पन्न उन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण को उस समय उनकी वे पत्नियाँ हृदय से चाहने लगीं तथा भक्ति एवं अनुराग के कारण उनका बहुत सम्मान करने लगीं।

यादवकुमारों की गोष्ठियाँ अलग थीं। वे वीर यादवकुमार उत्तम गुणों की खान थे और प्रकाश रूप से स्त्री समुदायों के साथ समुद्र के जल की शोभा बढ़ा रहे थे । वे स्त्रियाँ गीत और नृत्य की क्रिया को जानने वाली थीं तथा उन कुमारों के तेज से स्वयं ही उनकी ओर आकृष्ट हुई थीं तो भी वे कुमार उदारता के कारण उनके वश में स्थित थे ।

 उन उत्तम नारियों के मनोहर गीत और वाद्य सुनते तथा उनके सुन्दर अभिनय देखते हुए वे यादव वीर उन पर लट्टू हो रहे थे ।तदनन्तर श्रीकृष्ण ने विश्वरूप होने के कारण स्वयं ही प्रेरणा देकर पञ्च चूड़ा नाम वाली अप्सरा को तथा कुबेर भवन और इन्द्र भवन की भी सुन्दर अप्सराओं को वहाँ बुला लिया ।

 अप्रमेय स्वरूप जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने हाथ जोड़कर चरणों में पड़ी हुई उन अप्सराओं को उठाया और सान्त्वना देकर कहा । सुन्दरियो ! तुम निःशङ्क होकर भीमवंशी यादवकुमारों की क्रीडा युवतियों में प्रविष्ट हो जाओ और मेरा प्रिय करने के लिये इन यादवों को सुख पहुँचाओ ।

नाच, गान, एकान्त परिचर्या, अभिनय योग तथा नाना प्रकार के बाजे बजाने की कला में तुम लोगों के पास जितने गुण हों, उन सब को दिखाओ । ऐसा करने पर मैं तुम्हें मनोवाञ्छित कल्याण प्रदान करूँगा; क्योंकि ये सब के सब यादव मेरे शरीर के ही समान हैं ' ।

उस समय श्रीहरि की उस आज्ञा को शिरोधार्य कर के वे सब श्रेष्ठ अप्सराएँ यादवकुमारों की क्रीडा  युवतियों में सम्मिलित हो गयीं । उनके प्रवेश करते ही वह महासागर दिव्य प्रभा से उद्दीप्त हो उठा। ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में मेघों का समुदाय बिजलियों के चमकने से प्रकाशित हो उठता है ।

 वे सुन्दर युवतियां जल में भी स्थल की ही भाँति खड़ी हो स्वर्गलोक की ही भाँति गीत गाने, बाजे बजाने तथा सुन्दर अभिनय करने लगीं । वे विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियाँ दिव्य गन्ध, माल्य तथा वस्त्रों से सुशोभित हो अपनी विविध लीलाओं तथा हास्ययुक्त हाव-भावों से यादवकुमारों के चित्त चुराने लगीं ।

कटाक्षों, संकेतों, क्रीडाजनित रोषों तथा प्रसन्नतासूचक मनो अनुकूल भावों के द्वारा वे भीमवंशियों के मन मोहने लगीं ।वे अप्सराएँ उन यादवकुमारों को ऊपर-ऊपर आकाश में प्रवह आदि वायु के मार्गों में ले जाकर उनके साथ विहार करती थीं, अतः वे मदमत्त हुए भीमवंशी कुमार उन सुन्दरी अप्सराओं का बड़ा सम्मान करते थे।

भगवान् श्रीकृष्ण भी उन यादवों की प्रसन्नता के लिये आकाश में स्थित हो अपनी सोलह हजार स्त्रियों के साथ प्रसन्नता पूर्वक विहार करते थे । वे वीर यादव अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण का प्रभाव जानते थे; अतः आकाश में क्रीडा करने के कारण उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे उस दशा में भी अत्यन्त गम्भीर बने रहे ।

 कुछ यादव रैवतक पर्वत पर जाकर फिर लौट आते थे। दूसरे घरों में जाकर आ जाते तथा अन्य लोग अभिलषित वनों में घूम-फिर कर लौटते थे। उस समय अतुल तेजस्वी लोकनाथ भगवान् विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण  की आज्ञा से अपेय समुद्र का जल भी पीने योग्य हो गया था ।

वे कमलनयनी नारियाँ जब इच्छा होती, तब जल में भी स्थल की भाँति दौड़ती थीं और जब चाहतीं परस्पर हाथ पकड़ कर एक साथ ही गोता लगा लेती थीं । यादवों के मन से चिन्तन करते ही उनके लिये नाना प्रकार के भक्ष्य, भोज्य, पेय, चोष्य और लेह्य पदार्थ प्रस्तुत हो जाते थे। 

जो कभी कुम्हलाती नहीं थी, ऐसी माला धारण करने वाली वे दिव्य अप्सराएँ स्वर्ग में देवताओं के साथ की गयी रतिक्रीडा का अनुसरण करती हुई उन श्रेष्ठ यादवकुमारों को एकान्त में रमण का अवसर देती थीं। किसी से पराजित न होने वाले अन्धक और वृष्णिवंश के वीर सायंकाल में स्नान के पश्चात् अनुलेपन धारण करके आनन्दमग्न हो गृहाकार बनी हुई नौकाओं द्वारा क्रीडा करने लगे ।

 विश्वकर्मा ने नौकाओं में अनेक प्रकार के महल बनाये थे, जिनमें से कुछ लम्बे थे और कुछ चौकोर । कुछ गोलाकार थे और कुछ स्वस्तिकाकार । वे महल कैलास, मन्दराचल और मेरुपर्वत की भाँति इच्छानुसार रूप धारण कर लेते थे। कई नाना प्रकार के पक्षियों और पशुओं के समान रूप धारण करनेवाले थे ।

उनमें वैदूर्यमणि के तोरण लगे थे, जिनसे उन महलों की विचित्र शोभा होती थी। वे विचित्र मणिमय शय्याओं से सुसज्जित थे। मरकत, चन्द्रकान्त और सूर्यकान्त मणिमय विचित्र रागों से वे रञ्जित थे तथा नाना प्रकार के सैकड़ों आस्तरण अर्थात बिस्तर उनकी शोभा बढ़ाते थे ।

खेल के लिये बनाये गये गरुड़ के समान भी उन भवनों की आकृति थी । वे विचित्र भवन सुवर्ण की धाराओं से शोभा पाते थे। कोई क्रौञ्च के कोई तोते के तुल्य और कितने ही भवन हाथियों की सी आकृति धारण करते थे ।

सुवर्ण से प्रकाशित होने वाली वे नौकाएँ कर्णधारों के नियन्त्रण में रहकर उत्ताल तरंगों से युक्त सागर की जलराशि को सुशोभित कर रही थीं । सफेद जलपोतों, यात्रोपयोगी बड़ी-बड़ी नावों, वेगवती नौकाओं और महल आदि से युक्त विशाल जहाजों से उस वरुणालय अर्थात समुद्र  की बड़ी शोभा हो रही थी । यादवों के वे जलयान समुद्र के जल में सब ओर चक्कर लगा रहे थे । वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो गन्धर्वों के नगर आकाश में विचर रहे हों । 

नन्दनवन की आकृति और समृद्धियों से युक्त यानपात्रों में विश्वकर्मा ने सब कुछ नन्दन जैसा ही बना दिया था । उद्यान, सभा, वृक्ष, झील और झरने  या फौवारे आदि शिल्प सर्वथा वैसे ही उनमें समाविष्ट किये गये थे । स्वर्ग-जैसे बने हुए दूसरे जलयानों में विश्वकर्मा ने भगवान् नारायण की आज्ञा से स्वर्ग की सी सारी वस्तुएँ संक्षेप से रच दी थीं ।

वहाँ के वनों में पक्षी हृदय को प्रिय लगने वाली मधुर बोली बोलते थे । उनकी वह बोली उन अत्यन्त तेजस्वी यादवों को बहुत ही मनोहर प्रतीत होती थी । देवलोक में उत्पन्न हुए सफेद कोकिल उस समय यादववीरों की इच्छा के अनुसार विचित्र एवं मधुर आलाप छेड़ रहे थे । चन्द्रमा की किरणों के समान रूपवाली श्वेत अट्टालिकाओं पर मीठी बोली बोलने वाले मोर दूसरे मोरों के साथ  नृत्य करते थे।

विशाल जलयानों पर लगी हुई सारी पताकाओं पर पक्षियों के समुदाय बैठे थे। उनमें जो पुष्पमालाओं की लड़ियाँ बँधी थीं, उन पर आसक्त होकर रहने वाले भ्रमर वहाँ गुञ्जारव फैला रहे थे।

नारायण अर्थात श्रीकृष्ण  की आज्ञा से वृक्ष तथा ऋतुएँ आकाश में स्थित हो मनोहर रूप वाले पुष्पों की अधिक वर्षा करने लगीं ।

 रतिजनित खेद अथवा श्रम को हर लेने वाली मनोहर एवं सुखदायिनी हवा चलने लगी, जो सब प्रकार के फूलों के पराग से संयुक्त तथा चन्दन की शीतलता को धारण करनेवाली थी ।

 क्रीड़ा में तत्पर होकर सर्दी गरमी की इच्छा रखने वाले यादवों को उस समय वहाँ भगवान् वासुदेव की कृपा से वह सब उनकी रुचि के अनुकूल प्राप्त होती थी ।

भगवान् चक्रपाणि के प्रभाव से उस समय उन भीम वंशियों के भीतर न तो भूख प्यास, न ग्लानि, न चिन्ता और न शोक का ही प्रवेश होता था ।

अत्यन्त तेजस्वी यादवों की समुद्र के जल में होने वाली वे क्रीड़ाएँ निरन्तर चल रही थीं। उनमें बड़े-बड़े वाद्यों की ध्वनि शान्त नहीं हो रही थी तथा गीत और नृत्य उनकी शोभा बढ़ा रहे थे।

श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित वे इन्द्रतुल्य तेजस्वी यादव अनेक योजन विस्तृत समुद्र के जलाशय को रोक कर क्रीड़ा कर रहे थे ।

 विश्वकर्मा ने महात्मा भगवान् नारायणदेव के लिये उनके विशाल परिवार सोलह हजार रानियों के समुदाय के अनुरूप ही जहाज बना रखा था । तीनों लोकों में जो विशिष्ट रत्न थे, वे सभी अत्यन्त तेजस्वी श्रीकृष्ण के उस यानपात्र में लगे थे।

 श्रीकृष्ण की स्त्रियों के लिये उसमें पृथक् पृथक् निवासस्थान बने थे, जो मणि और वैदूर्य से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्पन्न तथा सुवर्ण से विभूषित थे । उन गृहों में सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल लगाये गये थे । वहाँ सभी तरह के उत्तम सुगन्ध फैल कर उन भवनों को सुवासित कर रहे थे । श्रेष्ठ यादव  वीर तथा स्वर्गवासी पक्षी उन निवासस्थानों का  सेवन करते थे ।

हरिवंश पुराण के अध्याय अठ्ठासी का अंश।

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

 एक दिन एक वजीर ने अपने बादशाह से मुल्ला नसरुद्दीन की  खूब तारीफ की। उसे बहुत लायक आदमी बताया। उसकी अकल की बहुत प्रशंसा की।

बादशाह ने कहा: “ठीक है मैं उसे भी अपना वजीर बना लेता हूँ।" बादशाह ने मुल्ला नसरुद्दीन को बुलावा भेजा । नसरुद्दीन को वजीर बना दिया गया । बादशाह ने नसरुद्दीन से कहा: "मैं अपनी जनता को खुशहाल बनाना चाहता हूँ । तुम कोई तरकीब बताओ ।

मुल्ला नसरुद्दीन का जवाब था: "इसकी एक ही तरकीब है। जनता का खून चूस चूस कर जो दौलत आप ने जमा की है, उसे जनता को वापिस कर दीजिए। जनता खुशहाल हो जाएगी।'अपने वजीर से बादशाह को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी ।


मुल्ला नसरुद्दीन बादशाह के वजीर बन गए। अब हर कोई उनका दोस्त बनना चाहता था । किसी ने कहा: “मुल्ला नसरुद्दीन आप किस्मत वाले हैं। कितने ज्यादा दोस्त हैं आपके ।"

मुल्ला नसरुद्दीन ने जवाब दिया: 'आज तो मेरे बहुत से  दोस्त हैं। मगर मेरे असली दोस्तों का पता उस दिन चलेगा जब मैं वजीर नहीं रहूँगा।"


एक दिन बादशाह ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा: "यह बताओ  जनता का किया सीजपदा पूखशी होती


आपके स्वर्गवासी होने से, " मुल्ला नसरुद्दीन का सीधा-सा जवाब था ।


एक बार मुल्ला नसरुद्दीन की आँखों में कोई तकलीफ हो गई।  उन्हें हर चीज धुंधली - धुंधली नजर आने लगी।

रोज मुल्ला नसरुद्दीन बादशाह का मजाक उड़ाया करता था। आज बादशाह को मौका मिल गया। उसने कहा: “सुना है तुम्हें एक चीज दो नज़र आने लगी है। मुबारक हो। तुम्हारे पास एक गधा है। अब तुम्हें दो दिखेंगे"

मुल्ला ने कहा: " आपने सही फरमाया । आपकी भी मुझे दो की जगह चार टांगें दीख रही हैं।"


बादशाह मुल्ला नसरुद्दीन से नाराज था। उनकी खिल्ली उड़ाना  चाहता था। उसने सबके सामने ऐलान किया: " आज से हम नसरुद्दीन को गधों का बादशाह बनाते हैं ।"

बादशाह के सारे दरबारी यह सुनकर हँस पड़े। मगर नसरुद्दीन उठा। उसने इसके लिए बादशाह का शुक्रिया अदा किया। फिर बादशाह से कहा: 'हटिये । इस गद्दी पर मुझे बैठने दीजिए।"

यह सुनकर बादशाह गुस्सा हो गया। उसने कहा: "यह क्या बदतमीजी है। तुम और मेरी गद्दी पर बैठोगे ? तुम होश में तो हो ! "नसरुद्दीन ने कहा: 'अब शोर मत मचाइये। अभी आपने मुझे गधों का बादशाह बनाया है । यह गद्दी आज से मेरी हुई।"


दिन बादशाह और मुल्ला नसरुद्दीन हँसी-मजाक कर रहे थे। मगर अचानक बादशाह गंभीर हो गया। उसने पूछा: "मुल्ला नसरुद्दीन यह तो बताओ कि मरने पर मुझे स्वर्ग मिलेगा या नर्क ?"

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: “बेशक नर्क।"

यह सुनकर बादशाह गुस्सा हो गया। उसने मुल्ला नसरुद्दीन खूब डाँटा - -फटकारा।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: "हुजूर खता माफ हो। मगर सच यह है कि आपने बड़ी तादाद में उन लोगों को मरवा दिया है, जो कि स्वर्ग जाने के काबिल थे। अब स्वर्ग उनसे खचाखच भरा हुआ है। वहाँ आपके लिए जगह नहीं बची है । '


एक दिन बादशाह ने नसरुद्दीन से कहा, मुझे ऐसा काम बताओ, जिसे करके मरने के बाद मुझे स्वर्ग मिले " नसरुद्दीन ने कहाः " दिन-रात सोइये।" बादशाह ने नाराज होकर जवाब दिया: "क्या कहते हो ? सोने से भी किसी को स्वर्ग मिलता है ?" नसरुद्दीन ने कहा: “सबको नहीं मिलता। मगर आपको मिलेगा। सोकर आप पाप करने से बचे रहेंगे ।"


एक दिन बादशाह ने नसरुद्दीन से पूछा: "मरकर तुम कहाँ  जाना चाहोगे ? स्वर्ग या नर्क ? नसरुद्दीन ने बादशाह से पूछा: "पहले आप बताइये।"बादशाह ने कहा: “जाहिर है कि स्वर्ग जाना चाहूँगा।" नसरुद्दीन ने कहा: 'तब मैं नर्क में जाऊँगा। मरने के बाद भी मैं आपके साथ रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता।"


क दिन बादशाह ने नसरुद्दीन से कहा: “नसरुद्दीन मेरे सामने तो मेरी लोग खूब तारीफ करते हैं। मगर पीठ पीछे गालियाँ देते हैं। ऐसा क्यों ?"


नसरुद्दीन ने कहा: “ऐसा इसलिए होता है कि आप कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। लोग भी आपके साथ यही सलूक करते हैं।"


बादशाह की बेगम के पैर भारी थे। बादशाह ने मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा: "तुम तो ज्योतिषी हो। यह बताओ कि मेरी बेगम को लड़का होगा या लड़की ?" "लड़की, " मुल्ला नसरुद्दीन ने जवाब दिया।बादशाह ने कहा: “लड़की हमारे किस काम की ? लड़का होगा तो हमारा वारिस बनेगा। लड़की होगी तो यह गद्दी खाली रहेगी।"नसरुद्दीन ने कहा: " अच्छा रहेगा। जनता को राहत रहेगी।'


एक दिन बादशाह और मुल्ला नसरुद्दीन साथ-साथ घूम रहे थे  बादशाह ने पूछा: " यह बताओ कि अगर मुझे बाजार में " गुलाम की तरह बेचा जाए तो मेरी कितनी कीमत लगेगी ?"

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: 'एक लाख रुपये । " बादशाह ने कहा: “तुम बेवकूफ हो। तुम्हारी अकल घास चरने गई है। एक लाख रुपये तो मेरे हार की ही कीमत है । 

"मुल्ला नसरुद्दीन ने कहाः "आपको खरीदने वाले आपकी नहीं, सिर्फ हार की कीमत देंगे। "


मुल्ला नसरुद्दीन को पक्षियों की बोली समझ में आती है। बादशाह को भी यह बात पता थी। वह एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को अपने साथ शिकार पर ले गया । रास्ते में एक इमारत दिखी। इमारत खंडहर हो चुकी थी । उस पर उल्लू बोल रहे थे । बादशाह ने पूछा कि ये क्या कह रहे हैं। मुल्ला ने जवाब दिया : "हुजूर ये कह रहे हैं कि ऐ बादशाह तू सावधान हो जा। जनता पर जुल्म ढाना बंद कर वरना तेरी सल्तनत का भी वही हाल होगा, जो इस इमारत का हुआ है।"




एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन ने देखा कि बादशाह के महल की  दीवारें ऊंची की जा रही है। एक वजीर कामकाज की देखरेख कर रहा है। नसरुद्दीन ने वजीर से पूछा: "भई यह दीवार क्यों ऊँची की जा रही है ?" वजीर ने कहा: "सीधी सी बात है। दीवार ऊँची होगी तो महल में चोर नहीं घुस सकेंगे सोना-चाँदी, हीरा-जवाहरात की चोरी बंद हो जायगी।" नसरुद्दीन ने कहा: "इससे बाहर के चोर तो रुक जाएँगे । मगर अंदर के चोर कैसे रुकेंगे ?"


एक दिन बादशाह ने नसरुद्दीन से कहा: “आज सुबह मैंने एक अपनी सूरत आईने में देखी। मैं वाकई बदसूरत हूँ । अब कभी आईने में अपना चेहरा नहीं देखूँगा।" नसरुद्दीन तुरंत बोला: " आप तो अपनी सूरत एक दिन देखकर ही घबरा गये। मुझे तो दिन-रात देखनी पड़ती है। सोचिये, मेरा क्या हाल होता होगा।"



अपना नाम शेखचिल्ली है जनाब!

 शेख बदरुद्दीन के घर बेटा हुआ तो पूरे गाँव में उन्होंने मिठाइयाँ बँटवाईं।  वे बहुत धनी तो नहीं थे लेकिन पैसों की कमी भी नहीं थी गाँव में इज्जत थी। गाँव के लोग इज्जत से उनका नाम लेते थे। लोग शेख साहब कहकर पुकारते थे। शेख साहब एक साधारण किसान थे। गाँव में दस-बारह बीघा जमीन थी। उसी की फसल पर उनका परिवार निर्भर था।

शेख बदरुद्दीन की पत्नी पूरे गाँव में रसीदा बेगम के नाम से मशहूर थीं। घर में सभ्यता और इज्जत का वातावरण था।गांव में सब उसको इज्जत की नजर से देखते थे।

 उनके घर कोई गरीब इनसान भी आ जाता तो उसे एक गिलास पानी और दो-चार बताशे पहले दिए जाते और बाद में आने का कारण पूछा जाता। रसीदा बेगम से विवाह के बाद शेख बदरुद्दीन की जीवन-शैली में भी परिवर्तन आया। सोने, जगने, खेत जाने, यार  दोस्तों से मिलने-मिलाने तक में एक सलीका आ गया। गाँव में उनकी कद्र बढ़ गई। विवाह के चार साल बाद शेख बदरुद्दीन की पत्नी की गोद भरी और शेख की किलकारियों से उनका सूना आँगन गूंजने लगा। शेख बदरुद्दीन बहुत खुश थे कि भगवान ने उनका नाम रौशन करने के लिए उनके घर का चिराग भेज दिया है।

गाँव के लोग भी शेख साहब के बेटे की खुशियां मनाते और कहते कि देखना, एक दिन यह लड़का अपना और अपने खानदान का नाम रौशन करेगा।... देखो, अभी से इसकी पेशानी कितनी चौड़ी है। इसके हाथ कितने लम्बे हैं... यह सब इसके खुशहाल होने का संकेत है... बड़ा होकर यह लड़का गमों से कोसों दूर रहेगा और खुशियां इसके कदम चूमेगी।.. सदियों तक इसकी पहचान बनी रहेगी।... गाँव के लोगों की भविष्यवाणियाँ सुन- सुनकर बेगम रसीदा फूली न समातीं। शेख बदरुद्दीन भी खुश होते।


इसी तरह समय गुजरता रहा। एक दिन शेख बदरुद्दीन के घर के दरवाजे पर गन्ने की पेराई चल रही थी। गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए अलाव जल रहा था जिस पर बड़े कड़ाहे में गन्ने का रस उबाला जा रहा था। शेख बदरुद्दीन अपने बेटे को गोद में लेकर बैठे थे। उनका सारा ध्यान काम में लगे मजदूरों पर था। उनकी गोद में बैठा नन्हा शेख कुछ देर तक चुपचाप अपने पिता जी की गोद में बैठा रहा मगर जब पिताजी की तरफ से उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तब अपने पिता का ध्यान अपनी और आकर्षित करने के लिए पूछा-"पापा ये लोग क्या कल लयें ऐं (पापा ये लोग क्या कर रहे हैं?) ?" बेटे की तोतली आवाज सुनने के बाद शेख बदरुद्दीन ने उसका सिर सहलाते हुए कहा- "बेटे! ये लोग गुड़ बना रहे हैं!"

"गुल (गुड़) क्या होता एं!” शेखू ने पूछा।

“तुम गुड़ नहीं जानते?" आश्चर्य से शेख बदरुद्दीन ने पूछा ।

"नई!" शेख ने कहा

शेख बदरुद्दीन ने एक मजदूर को आवाज लगाई - "रहमू काका! जरा गुड़ की एक छोटी भेली तो लेके आना ! मेरा शेखू 'गुड़' नहीं जानता है...उसे बताऊँ कि गुड़ क्या होता है। " रहमू गुड़ की भेली लेकर आ गया। शेख बदरुद्दीन ने शेखू के हाथ में गुड़ की भेली थमा दी

और कहा - " देख बेटा, यह है गुड़ ! चख के देख, तुम्हें पसन्द आएगा । "

शेखू ने गुड़ के उस टुकड़े को देखा फिर मुँह में डालकर उसका छोटा-सा टुकड़ा अपने नए- नुकीले दाँतों से काट लिया। गुड़ का स्वाद उसे अच्छा लगा... आह ! कितना मीठा है गुड़ ! नन्हे शेखू के लिए यह स्वाद अद्भुत था। जल्दी ही वह अपने हाथ का गुड़ खत्म कर चुका था... इच्छा हो रही थी कि और गुड़ खाए। अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए वह अपने अब्बू की गोद से उतर गया और रहमू काका के पास चला गया। गुड़ उसकी लार से सनकर उस समय उसके मुँह और ठुड्डी पर लगा हुआ था। हथेली भी गुड़ सनी लार से तर-बतर थी। इसी हाल में ढाई-तीन साल का शेखू रहमू काका से कह रहा था - "लहमू काका.... औल गुल खाएँगे...गुल दो!”

उसकी तोतली आवाज सुनकर रहमू काका हँस दिए और गुड़ का एक छोटा-सा टुकड़ा उसे थमा दिया। ठीक इसी समय रसीदा बेगम अपने दरवाजे पर किसी काम से आईं और उनकी नजर शेखू पर पड़ी जिसके मुँह और हथेली पर गुड़ चिपक रहा था... वे उसे देखते ही उसके पास आ गईं और शेखू के हाथ से गुड़ का टुकड़ा छीनते हुए बोलीं- “छीः, पूरा मुँह गन्दा कर लिया... किसने दे दिया तुम्हें इस तरह गुड़ खाने के लिए... तबीयत खराब हो जाएगी, चल! तेरा मुँह साफ करू उफ तूने अपने हाथो का क्या हाल बना रखा है! चल... धोऊँ!”

अम्मी की झिड़की और अम्मी द्वारा गुड़ छीन लिये जाने पर शेख जोर-जोर से रोने लगा।

उसके रोने की आवाज सुनकर शेख बदरुद्दीन ने उसे आवाज दी- “शेखू... चुप हो जा... क्यों चिल्ला रहा है?"

शेखू ने सुबकते हुए कहा- "मैं... कऔं चिल्ला रआ ऊँ.. अम्मी चिल्ली रई ऐ !” तोतली आवाज में शेख के इस उत्तर से वहाँ काम कर रहे मजदूर हँस पड़े। रसीदा बेगम और साहब भी हंसे बिना नहीं रहे और इसके बाद शेखू की भोली तुतली आवाज सुनने के लिए एक मजदूर ने शेखू का दामन थामकर पूछा- “कौन चिल्ली रई ऐ बेटा?"

शेखू ने भोलेपन से उत्तर दिया- “अम्मी!"

इसके बाद यह सिलसिला सा चल पड़ा 'कौन चिल्ली रई ऐ !' सवाल गाँव के छोटे-बड़े बच्चे और बड़े-बूढ़ों की जबान पर आ जाता, जैसे ही वे भोले-भाले शेखू को देखते।

देखते-देखते शेखू का नाम 'शेखचिल्ली' हो गया। फिर किसी ने शेखू को सिखाया- “कोई तुम्हारा नाम पूछेगा तो बताना-अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!"

“क्या बताओगे...?"

“शेखचिल्ली !”

"नहीं, ऐसे नहीं! बोलो अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!"

“ अपना नाम तो शेखचिल्ली है जनाब!" शेखू ने तोतली आवाज में यह वाक्य दुहराया।

लोग उससे उसका नाम पूछते और शेख के जवाब से हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते। शेखू लोगों को हँसता देखता तो खुद भी हँसने लगता। इस तरह शेखू के दिमाग में बैठ गया कि उसका नाम शेखचिल्ली है।

जब शेखू चार साल का हुआ तो शेख बदरुद्दीन उसे लेकर स्कूल में गए। रास्ते भर वे शेखू को समझाते रहे- “शेख बेटे ! अब तुम बड़े हो गए हो। अब पढ़ने के लिए तुम्हें रोज स्कूल जाना  पड़ेगा। आज तुम्हारा नाम स्कूल में लिखवा दूंगा। फिर तुम्हारे लिए स्लेट और पेंसिल खरीद दूंगा जिसे लेकर तुम रोज स्कूल जाया करोगे....और वहाँ पढ़ोगे वर्णमाला .,..।

" पढ़ने से क्या होगा अब्बू ?" शेखू ने मासूम सा सवाल पूछा। “पढ़ने से तू बड़ा आदमी बन जाएगा शेखू!” शेख बदरुद्दीन ने शेखू का उत्साह बढ़ाते हुए कहा।

शेखू कोई और सवाल करता मगर तब तक स्कूल आ गया। जब स्कूल में मौलाना ने शेख बदरुद्दीन से पूछा- “बच्चे का नाम क्या है?"

शेख बदरुद्दीन ने कुछ विचारते हुए कहा- "ऐसे तो हम लोग इसे शेखू बुलाते हैं मगर स्कूल में इसका नाम शेख कमरुद्दीन दर्ज करें...शेख कमरुद्दीन सुपुत्र शेख बदरुद्दीन! यही बढिया नाम होगा। "

मौलाना और अब्बू के बीच हो रही बातचीत को शेखू सुन रहा था। उसने जब अपना नाम कमरुद्दीन सुना तो तुरन्त बोला- "नहीं अब्बू, मेरा नाम कमरुद्दीन नहीं लिखाना... अपना नाम है शेखचिल्ली जनाब!” उसने मौलाना की तरफ मुँह करते हुए कहा ।

शेख बदरुद्दीन ने बहुत चाहा कि शेखू अपना नाम कमरुद्दीन लिखवाए मगर शेखू बार-बार यही दुहराता रहा- अपना नाम शेखचिल्ली है जनाब!' अन्ततः स्कूल में शेखू का नाम दर्ज हो गया 'शेखचिल्ली !

अपनी रईसी खाक में मिल गई

 

शेखचिल्ली जवान हो गया। स्कूल की पढ़ाई पूरी हो गई। गाँव में स्कूल की पढ़ाई के बाद उसके सामने समस्या थी कि करे भी तो क्या करे! स्कूल के आगे की पढ़ाई के लिए गाँव में कोई इन्तजाम नहीं था। शेखचिल्ली के मन में बचपन से ही काम के प्रति विशेष आग्रह था। वह प्रायः कहा करता था कि भगवान ने हमें दो हाथ दिये हैं तो काम करने के लिए। काम चाहे जैसा भी हो, करना चाहिए। शेखचिल्ली की यह बात गाँव भर में मशहूर हो गई। शेख बदरुद्दीन अपने बेटे शेख के लिए कोई काम सोच नहीं पाए और निठल्ला बैठना शेखचिल्ली को पसन्द नहीं था। इसलिए वह दिन-भर मटरगश्ती करता और जो भी उसे कोई काम कर देने को कहता, वह कर देता। उसके मन में किसी के प्रति कोई भेदभाव तो था नहीं। बस, काम करने का जज्बा था। हाथ का उपयोग करने की चाहत थी ।

लोग उससे काम कराते और उसके मुँह पर उसकी खूब तारीफ करते कि उसके जैसा काम करनेवाला व्यक्ति उस गाँव में कोई दूसरा नहीं है... वही है, जो उस काम को कर पाया। अपनी तारीफ सुनना भला किसे अच्छा नहीं लगता! शेखचिल्ली को भी अपनी तारीफ बहुत अच्छी लगती थी। जब भी कोई उसकी तारीफ करता तो वह फूलकर कुप्पा हो जाता।

एक दिन शेखचिल्ली गाँव के एक आदमी की लकड़ियों का गट्ठर तैयार करने में इतना मशगूल हो गया कि उसे समय का खयाल ही नहीं रहा। उसे पता ही नहीं चला कि कब दिन ढला और रात हो गई। उसने दिन-भर लकड़ियों का गट्ठर तैयार कर उस आदमी की बैलगाड़ी पर उन गट्ठरों को करीने से लादकर बाँध दिया ताकि वह आदमी ये लकड़ियाँ शहर ले जाकर बेच सके। अपना काम पूरा करने के बाद उसे खयाल आया कि रात हो आई है। घर में मम्मी पापा उसके लिए परेशान हो रहे होंगे। वह तेज कदमों से चलता हुआ अपने घर आ गया। दरवाजे के कुएँ पर अपने हाथ-पाँव धोकर उसने बाहर से ही आवाज लगाई-“अम्मी! कहाँ हो? मुझे जोरों की भूख लगी है। कुछ दो खाने को!"

दिन-भर उसका इन्तजार करते-करते थक चुकी रसीदा बेगम ने जब मियाँ शेखचिल्ली की आवाज सुनी तो बुदबुदाने लगीं- "आ! आज तुझे खाना खिलाती हूँ। दिन-भर आवारागर्दी करता फिरेगा और घर आते ही इसको भूख लगेगी। पता नहीं कहाँ मारा-मारा फिरता है! पाँच फीट का मुस्टंडा जवान हो गया पर जीने का शऊर नहीं आया। यह भी खयाल नहीं रहता कि शाम तक घर वापस लौट आए...आ, आज बताती हूँ तुझे!"

रसीदा बेगम का गुस्सा उबाल खा रहा था और मियाँ शेखचिल्ली लाड़ में इतराते हुए बोल रहा था-"अरे, अम्मीजान, खाना निकाल दो, बड़ी भूख लगी है।'

ऐसा बोलते हुए शेखचिल्ली ने जैसे ही घर में प्रवेश किया कि रसीदा बेगम दहाड़ उठी-"घर में घुसते ही खाना चाहिए। बता, कहाँ रहा दिन-भर? रात गए घर लौटा है... यह कोई तरीका है घर आने का? जैसे घर न हुआ सराय हो गया! जब मर्जी निकल जाओ और जब मर्जी आ जाओ! बता, कहाँ था दिन-भर?"

मम्मी का रौद्र रूप देखकर शेखचिल्ली सहम सा गया। उसके लिए मम्मी का यह रूप नया और चौका देनेवाला था। उसके अब्बू से उसे डॉट सुनने को मिली थी...लप्पड़-थप्पड़ भी खा चुका था मगर मम्मी ने कभी उसे डाँटा नहीं था।

"क्या हुआ अम्मी? ऐसे नाराज क्यों हो रही हो?" बहुत सहमे हुए अन्दाज में शेखचिल्ली ने रसीदा बेगम से पूछा ।

और कोई अवसर होता तो रसीदा बेगम अपने लाइले के इस मासूम सवाल पर फिदा हो जातीं और उसे अपने गले से लगा लेतीं मगर आज तो उन्होंने ठान रखा था कि शेखू को तबीयत भर डाटेगी और उसे दुनियादारी समझने के लिए प्रेरित करेंगी। ऐसे तो मटरगश्ती करते-करते शेख किसी काम का नहीं रह जाएगा। ऐसा सोचकर उन्होंने पूछा- “पहले बता, कहाँ रहा इतनी देर तक? सुबह ही निकल गया था, जैसे किसी जरूरी काम से जा रहा हो।"

"हाँ, अम्मी, जरूरी काम था। महमूद मियाँ ने अपना एक पेड़ कटवाया था और उसकी लकड़ियाँ चीरी थीं। कल सुबह वे बैलगाड़ी से उन लकड़ियों को लेकर शहर जाएँगे ताकि उन्हें बेच सकें। उन्होंने मुझसे कहा था कि 'बेटा, लकड़ियों की लदाई में मेरी मदद कर देना...' जब उन्होंने मुझसे मदद के लिए कहा तो मुझे आपकी कही बात याद आ गई कि 'बेटा, यदि तु किसी की मदद करेगा तो भगवान तेरी मदद करेगा।' इसलिए आज सुबह ही मैं महमूद मियाँ के घर चला गया और दिन-भर उनकी लकड़ियों का गट्ठर बनाया और शाम को उन लकड़ियों को उनकी बैलगाड़ी पर लादना शुरू किया। जैसे ही काम खत्म हुआ, मैं भागता हुआ घर आया कि अम्मी अब्बू मेरे लिए परेशान हो रहे होंगे। मुझे जोरों की भूख भी लगी है...न!"

रसीदा बेगम अपने बेटे की बात सुनकर फिर से क्रोध के उबाल में आ गईं और शेखचिल्ली पर बरस पड़ीं-"अरे, तू दिन-भर  महमूद का बेगार करता रहा और उसने तुझे खाना तक नहीं खिलाया?"

"अम्मी! उसने मुझे खाने के लिए कहा था मगर मुझे तुम्हारी सीख याद आ गई कि 'बेटा, भूखा रहना पड़े तो रह लो मगर कभी किसी गैर का दिया कबूल न करो।' मैंने सोचा कि आखिर ये महमूद मियाँ मेरे अपने तो हैं नहीं, तो वह गैर ही हुए न! इसलिए उनके बहुत कहने पर भी मैंने कुछ खाया नहीं !"

बेटे का उत्तर सुनकर रसीदा बेगम अवाक् रह गईं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा- "तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है! किसी भी बात के कहे जाने का कारण तो तू बिलकुल नहीं समझता...शब्दों में ही तेरा दिमाग अटक जाता है। चल, बैठ! खाना लगा देती हूँ। खा ले !" एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह शेखचिल्ली चोके में पीठे पर बैठ गया और रसीदा बेगम ने उसके सामने थाल सजा दी। शेखचिल्ली खाना खाने लगा। रसीदा बेगम उसे खाता हुआ देखती रहीं और सोचती रही- कितना मासूम है मेरा शेखू! दुनिया की मतलबपरस्ती को भी नहीं समझता है। आखिर यह कब समझदार बनेगा? इतना बड़ा हो गया। कुछ दिनों में इसकी शादी होगी। बाल-बच्चे होंगे। तब भी क्या यह ऐसा ही रहेगा?" वह शेखचिल्ली का मुँह देखे जा रही थीं और शेखचिल्ली सिर झुकाए खाना खाता रहा।

खाना खत्म करके वह उठा और हाथ-मुँह धोकर सोने चला गया। थका होने की वजह से उसे तुरन्त नींद आ गई।

लेकिन रसीदा बेगम की आँखों में नींद नहीं थी। शेख बदरुद्दीन ने बिस्तर पर जब बेगम की बेचैनी का कारण पूछा तो रसीदा बेगम ने शेखचिल्ली की सारी दिनचर्या बताते हुए कहा- "यह लड़का कब काबिल इनसान बनेगा, यही सोच-सोचकर मेरा जी हलकान हो रहा है।"

शेख बदरुद्दीन कुछ देर तक रसीदा बेगम की बात सुनते रहे और फिर उन्हें तसल्ली देते हुए बोले- "बेगम ! मन छोटा करने की जरूरत नहीं। शेखू अभी दुनियादारी से परिचित नहीं हुआ है। जब जिम्मेदारियाँ आएँगी तो वह भी दुनियादार हो जाएगा। तुम उसे कल कहना - 'जाओ और कुछ कमा कर लौटो!' देखना, तुम्हारी बात का उस पर जादुई असर होगा। वह तुम्हारी बात मानता है और तुम्हारा कहा नहीं टालता है।"

दूसरे दिन सुबह होते ही रसीदा बेगम ने शेखचिल्ली को जगाया और कहा- "बेटे! आज तुम जल्दी नहा-धोकर निकलो और कहीं भी जाकर कोई भी काम करके कुछ कमा कर लौटो। शाम को घर आओ तो तुम मुझे यह कहने लायक रहो कि 'अम्मी, यह लो, मेरे दिन- भर की कमाई है।

शेखचिल्ली तुरन्त बिस्तर से उठा। नहा-धोकर तैयार हुआ और काम की खोज में निकल पड़ा। आज उसके भीतर एक नया जोश भरा हुआ था। उसे लग रहा था कि वह हर तरह के काम कर सकता है। गाँव की सड़क से वह बाजार जाने की राह पर चल पड़ा। रास्ते में उसने एक आदमी को अंडों से भरे झावे के साथ बैठे देखा। उसे समझते देर नहीं लगी कि इस आदमी को मदद की जरूरत है। खुदाई खिदमतगार की तरह शेखचिल्ली उस आदमी के पास पहुँच गया और पूछा- "क्यों भाई ! कोई मदद चाहिए?"

वह आदमी शेखचिल्ली को देखकर वैसे ही खुश हुआ, जैसे कोई बिल्ली चूहे को देखकर होती है! उसने तुरन्त कहा- "हाँ, भाई! यह झावा सिर पर लादकर मैं पार वाले गाँव से आ रहा हूँ। थक गया हूँ। यदि तुम मेरा यह झाबा उठाकर बाजार तक ले चलो तो मैं तुम्हारा शुक्रगुजार होऊंगा!

और दिन होता तो शेखचिल्ली बिना किसी हील हुज्जत के वह झाबा उठाकर बाजार तक पहुँचा आता मगर आज तो अम्मी का आदेश मिला है कि कुछ कमा कर लौटना! अम्मी का आदेश याद आते ही शेखचिल्ली ने कहा- "ठीक है भाई! पहुँचा दूंगा...मगर सिर्फ शुक्रगुजार होने से काम नहीं चलेगा। बताओ, मुझे इस काम के बदले में तुम क्या दोगे?"

उस आदमी ने शेखचिल्ली से कहा- “भैया! मेरे पास पैसे नहीं है। तुम चाहो तो दो अंडे ले लेना!"

"सिर्फ दो अंडे?" शेखचिल्ली ने हैरत-भरे अन्दाज में पूछा।

"हाँ, दो अंडे !... दो अंडों को तुम कम मत समझो! दो अंडों से दो चूजे निकल सकते हैं। और बाद में यही चूजे मुर्गियों में तब्दील हो जाएँगे। मुर्गियाँ रोज अंडे देती हैं। इस तरह सोचो तो तुम्हारे पास एक मुर्गीखाना ही तैयार हो जाएगा और तुम मेरी तरह अंडों का कारोबार शुरू कर सकते हो।'

शेखचिल्ली को उसकी बात जँच गई और वह तुरन्त झाबा उठाकर बाजार की तरफ तेजी से चल पड़ा-एक नई उमंग के साथ उसके जेहन में सुनहरे ख्वाब तैरने लगे-दो अंडों से दो मुर्गियाँ, दो मुर्गियों से सैकड़ों अंडे, सैकड़ों अंडों से सैकड़ों मुर्गियां... सैकड़ों मुर्गियों से हजारों अंडे... फिर तो मैं अंडों का व्यापारी बन जाऊँगा... और गाँव के रईस वसीम खान की तरह अकड़कर चलूँगा-मूँछें ऐंठते हुए ! अगर किसी ने कभी मेरे साथ बदसलूकी की तो मैं भी उसे वसीम खान की तरह ही इस तरह लात जमा दूंगा ऐसा सोचते-सोचते शेखचिल्ली ने अपना एक पैर सामने की तरफ इस तरह उद्याला मानो वह किसी को लात मार रहा हो। सड़क पर उसके ठीक सामने एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा हुआ था। अपने ही खयालों में डूबे रहने के कारण शेखचिल्ली उस पत्थर को देख नहीं पाया था। लात जमाने के अन्दाज जब उसने अपना पैर जोरदार ढंग से सामने की तरफ उछाला तो उसका पैर उस पत्थर से टकराया और वह मुँह के बल सड़क पर गिर पड़ा। उसके सिर से झावा दूर जा गिरा और उसमें रखे अंडे चकनाचूर हो गए।

अब तो अंडेवाले का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने शेखचिल्ली का गिरेबाँ पकड़कर उठाया और उसे थप्पड़ मारते हुए कहा- "देख के नहीं चल सकता था? तूने तो मेरे सारे अंडे बरबाद कर दिए।" फिर उसने शेखचिल्ली पर लात- -घूंसे की वर्षा कर दी।

बेचारा शेखचिल्ली! बुक्का फाड़कर रोने लगा और अंडेवाले की दुहाई देता हुआ बोलने लगा-“क्यों मारते हो भाई? मुझे मारने से तेरे अंडे तो दुरुस्त नहीं हो जाएँगे...। तुम क्या जानो, मेरा कितना नुकसान हो गया...। कहाँ तो मैं गाँव का सबसे बड़ा रईस बनने जा रहा था और कहाँ अपनी रईसी खाक में मिल गई।" अंडेवाले ने शेखचिल्ली की बातें सुनकर उसे फिर एक चाँटा रसीद किया और कहा- "देखकर चला करो!" और अपनी राह चला गया।

अपना गाल सहलाता हुआ शेखचिल्ली अपने घर की तरफ चल पड़ा, अपने मन को तसल्ली देते हुए कि बेटे ! जान बची तो लाखों पाए!


बुधवार, 26 जुलाई 2023

मुल्ला नसरुद्दीन की हकीमी

मुल्ला की हकीमी


जिस तरह मुल्ला नसीरुद्दीन को चाहने वालों की कमी नहीं थी, उसी तरह उससे जलने वालों की भी कमी नहीं थी। उससे ईर्ष्या रखने वाले हमेशा ऐसे अवसर की ताक में रहते थे जिसमें उन्हें उसकी खिल्ली उड़ाने का मौका मिल जाए।एक दिन मुल्ला नसीरुद्दीन सुबह की सैर करने निकला था। हमेशा की तरह उसने लम्बा चोगा और सलवार पहन रखा था। पाँव में नक्काशीदार जूती थी और सिर पर नोकदार लम्बी टोपी। अपनी दाढ़ी सहलाता हुआ मुल्ला अपनी गली में लम्बे डग भर रहा था कि उसका एक पड़ोसी, जो कहीं से आ रहा था, रास्ते में ठोकर लगने के कारण गिर पड़ा। मुल्ला नसीरुद्दीन उस समय उसके पास ही था इसलिए बिना समय गंवाए उसने उसे उठाया और उसके कपड़ों की गर्द झाड़ने लगा तो देखा, उस व्यक्ति के पाजामे से घुटने के पास खून रिस रहा है। मुल्ला को यह समझते देर नहीं लगी कि उस व्यक्ति का घुटना गिरने के कारण जख्मी हो गया है।

मुल्ला नसीरुद्दीन ने उस व्यक्ति से कहा- " अपना पाजामा घुटने तक उठा लो । मैं गेंदे के पौधे के पत्ते तोड़ लाता हूँ। उसका रस लगा देने से तुम्हारा जख्म भर जाएगा। खून गिरना तो तुरन्त बन्द हो जाएगा।" इतना कहकर मुल्ला नसीरुद्दीन बिना किसी की इजाजत लिये एक घर के आगे सजावट के लिए लगाए गए गेंदे के पौधों से 'कुछ' पत्तियाँ तोड़ने लगा। 

यह अहाता जिसमें गेंदा के पौधे लगाए गए थे रहमत खान का था। रहमत खान मुल्ला नसीरुद्दीन से बैर रखता था । उसे इस बात की रंजिश थी कि एक ही मुहल्ले में रहते हुए मुल्ला नसीरुद्दीन को दूर-दूर तक लोग जानते और मानते हैं जबकि मुल्ला नसीरुद्दीन की माली हैसियत उसके आगे कुछ भी नहीं है और उसे कोई नहीं जानता। मानने की तो बात ही जुदा है।

जब रहमत खान ने मुल्ला नसीरुद्दीन को गेंदे के पत्ते तोड़ते देखा तो उसके तन-बदन में आग लग गई। जलन से वह सुलग उठा और झल्लाई आवाज में बोला- "मियाँ नसीर ! यह क्या कर रहे हो? गेंदे के पौधे मैंने घर की शोभा के लिए लगाए हैं और तुम उसके पत्ते नोच रहे हो? वह भी बिना इजाजत?"

मुल्ला नसीरुद्दीन जानता था कि रहमत खान उससे खार खाए रहता है, किन्तु अभी वह वाकई बिना इजाजत उसके लगाए गेंदे पौधों के पत्ते तोड़ रहा है। यह खयाल आते ही कि रहमत का टोकना उचित है, उसने मासूमियत से कहा- "माफ करना रहमू! इस आदमी के घुटने छिल गए हैं। उस रिसते खून को देखकर मुझे कुछ भी खयाल नहीं रहा सिवा इसके कि इसके जख्म से खून बहना बन्द हो जाए। मैंने यहाँ गेंदे के पौधे देखे तो याद आया कि इसके रस से खून का बहना बन्द हो सकता है। बस, मैं गेंदे के पत्ते बेखयाली में तोड़ने लगा।" ऐसा कहते हुए मुल्ला नसीरुद्दीन गेंदे के पत्तों को अपनी हथेली पर मसलता भी रहा।

रहमत खान मुल्ला नसीरुद्दीन को नीचा दिखाने पर आमादा था। उसने उससे कहा - "हाँ, ठीक है, पहले तुम इस आदमी का ठीक से इलाज कर लो। मैं भी एक हकीम की तलाश में था। अब तुम पास में हो तो क्या गम है! तुमसे ही अपना भी इलाज करवा लूँगा । दरअसल मुझे मालूम नहीं था कि तुम हकीमी भी करते हो!"

मुल्ला नसीरुद्दीन रहमत खान की बातों में छुपे व्यंग्य को समझ रहा था मगर उसकी बातों पर ध्यान दिए बिना ही उसने उस चोटिल व्यक्ति के जख्म पर गेंदे के पत्तों का रस टपकाया। वाकई खून का बहना रुक गया। वह व्यक्ति मुल्ला नसीरुद्दीन को धन्यवाद कहता हुआ विदा हो गया। तब तक रहमत खान अपने दरवाजे पर खड़ा रहकर मुल्ला नसीरुद्दीन की हकीमी देख रहा था।

जब मुल्ला नसीरुद्दीन अपने काम से मुक्त हुआ तब रहमत खान ने मुल्ला नसीरुद्दीन को व्यंग्य भरी –दृष्टि से देखते हुए कहा- "हाँ, तो हकीम साहब! मुझे भी आपसे इलाज करवाना है, आप तो खुदाई खिदमतगार हैं, मेरा भी भला करें...."

मुल्ला नसीरुद्दीन समझ रहा था कि रहमत खान उसका मजाक उड़ा रहा है मगर अपनी शैली में जीने का आदी मस्त मलंग मुल्ला अपने पड़ोसी रहमत खान की व्यंग्य-बुझी बातों से अप्रभावित रहा और मुस्कुराते हुए पूछा - "बताओ तो सही, तकलीफ क्या है? जितना तजुर्बा है उतनी मदद तो मैं किसी की भी करूँगा...।”

रहमत खान ने मुल्ला नसीरुद्दीन के सामने खड़े होकर अपनी तोंद सहलाते हुए कहा -“ कल रात एक अजीब वाकया हुआ। वह भी तब, जब मैं गहरी नींद सोया हुआ था। नींद में ही मुझे अकबकाहट महसूस हुई। मेरी आदत है कि मैं मुँह खोलकर सोता हूँ... अकबकाहट के मारे मुझे जम्हाई आई और जम्हाई के कारण मेरा मुँह पूरा खुल गया। मेरे घर में बहुत चूहे हैं। जिस वक्त मैं जम्हाई ले रहा था उसी वक्त एक चूहा तेजी से दौड़ता हुआ आया और मेरे मुँह में घुसकर गले की नली के रास्ते मेरे पेट में पहुँच गया और वहीं ऊधम मचाए हुए है। कोई ऐसा उपाय बताइए कि यह चूहा मरे और मेरे पेट में शान्ति हो । "

"बस इतनी सी बात?... यह तो कोई ऐसी समस्या नहीं है कि चिन्तित हुआ जाए!" मुस्कुराते और अपनी दाढ़ी सहलाते हुए मुल्ला नसीरुद्दीन ने कहा- "देखो रहमू! तुम बड़ा- सा मुँह खोलकर जम्हाई लेना जानते ही हो... बस, कहीं से एक छोटी-सी बिल्ली पकड़ लाओ और मुँह बड़ा-सा करके बिल्ली को गटक जाओ और दो-तीन बार बाएँ से दाएँ, दाएँ से बाएँ करवटें लो और इसके कुछ देर बाद एक कटोरा ठंडा दूध पी लो। फिर देखो कमाल ! बिल्ली चूहे को निगल जाएगी और तुम्हारे पेट में चल रहा चूहे का ऊधम बन्द हो जाएगा  ।... और हाँ, यह समस्या तो केवल सामान्य ज्ञान से हल हो जाने वाली समस्या थी,.. इसमें हकीमी की कोई जरूरत ही कहाँ थी!"

इतना कहकर मुल्ला नसीरुद्दीन फिर से लम्बे डग भरने लगा। वह अपनी दाढ़ी भी सहलाता जा रहा था और मस्त चाल से चल भी रहा था। और रहमत खान कभी मुल्ला नसीरुद्दीन को तो कभी अपने अहातें में गेंदे के पौधों को देख रहा था ठगा सा !

निशानेबाज मुल्ला नसीरुद्दीन

अपने गाँव के बाजार के चबूतरे पर बैठकर मुल्ला नसीरुद्दीन लोगों को एक कपोल कल्पित घटना सुना रहा था - "एक बार मैं अपने गदहे पर सवार होकर अपनी ससुराल जा रहा था। ससुराल के रास्ते में एक जंगल है। जब मेरा गदहा जंगल में घुसा तो मेरे सामने एक शेर आ गया। शेर को देखकर मैंने अपना साहस नहीं खोया । तुरन्त धनुष और बाण निकाला। प्रत्यंचा पर बाण रखा और कान तक प्रत्यंचा खींचकर बाण छोड़ दिया। पलक झपकते देखा कि बाण से बिंधा हुआ शेर मेरे गदहे के आगे पड़ा हुआ था । "लोगों को मुल्ला नसीरुद्दीन की बात पर भरोसा नहीं हुआ । श्रोताओं में से एक ने टोका "मैंने तो कभी आपके पास धनुष-बाण नहीं देखा?”

मुल्ला नसीरुद्दीन ने कहा- "जरूरत के समय ही मैं अपना धनुष-बाण निकालता हूँ। लेकिन मेरा यकीन करो कि मैं अचूक निशानेबाज हूं।"दूसरे श्रोता ने कहा- “जब इसे सन्देह हो ही गया है तो आप अपना धनुष-बाण लाकर इन सबको अपना अचूक निशाना दिखा ही दीजिए।”

मन-ही-मन मुल्ला नसीरुद्दीन ने सोचा- 'बुरे फँसे ।' मगर उसने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और मजमा लगाकर बैठे लोगों से कहा- "अब कौन घर जाए और धनुष-बाण लाए! इतनी देर में तो सूरज ढल जाएगा...तब क्या खाक मजा आएगा निशानेवाजी का!" मुल्ला नसीरुद्दीने की बात श्रोतावृन्द को ठीक लगी।

उनमें से एक श्रोता तेजी से उठा - " मैं अभी तीर-धनुष और लक्ष्य लेकर आता हूँ।" इतना कहते-कहते वह तेजी से दौड़ गया। थोड़ी ही देर में वह निशानेबाजी का सारा सामान लेकर चबूतरे के पास आया और मुल्ला नसीरुद्दीन को धनुष-बाण देकर कहा- "मैं लक्ष्य को सामने वाले पेड़ के तने पर लटकाकर आता हूँ। मेरे आने के बाद आप अपनी निशानेबाजी दिखाना।"

मुल्ला के पास हामी भरने के सिवा और कोई चारा नहीं था। लक्ष्य बाँधकर वह व्यक्ति लौट आया और मुल्ला नसीरुद्दीन से कहा- -“अब चलाइए बाण।" -

मुल्ला नसीरुद्दीन ने पहला बाण छोड़ा जो लक्ष्य से बहुत पहले रास्ते में ही गिर पड़ा। सभी हँसने लगे।मुल्ला ने कहा- "यह निशाना मेरा नहीं था। ऐसे बाण चलाया करते हैं हमारे कोतवाल !”लोग फिर हँस पड़े।

मुल्ला को दूसरा बाण दिया गया। मुल्ला ने इस बार थोड़ा और जोर लगाकर प्रत्यंचा खींची। बाण छूटा मगर लक्ष्य तक नहीं पहुँचा। लोग फिर हँसने लगे।

मुल्ला ने कहा- "हां तो भाइयो, वह थी काजी की निशानेबाजी। ऐसी निशानेबाजी पर मुझे भी हँसी आती है। "

मुल्ला को फिर तीसरा बाण दिया गया। मुल्ला ने इस बार प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया ही था कि लोगों ने पूछना शुरू कर दिया- “यह निशाना तो मुल्ला नसीरुद्दीन का है न?" 

मगर मुल्ला नसीरुद्दीन ने उनकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया और कान तक प्रत्यंचा खींचकर बाण छोड़ा-सन्न करता हुआ बाण लक्ष्य को बेध चुका था। बाण छोड़कर मुल्ला नसीरुद्दीन ने विजेता भाव से सबकी ओर देखा और पूछा - "देख लिया न, बन्दे का निशाना।" लोगों ने मान लिया कि मुल्ला नसीरुद्दीन निशानेबाज भी है।

महत्त्वाकांक्षी युवा तपस्वी

 


विजयनगर में प्रत्येक वर्ष कोई-न-कोई उत्सव समारोह आदि हुआ करता था। महाराज कृष्णदेव राय उत्सव- प्रेमी ही नहीं, अध्यात्म प्रेमी भी थे। उनका मानना था कि आध्यात्मिक होने का अर्थ यह नहीं है कि आप धार्मिक कर्मकांडों में उलझ जाएँ। ये कर्मकांड तो मनुष्य को विचारों की संकीर्णता की ओर ले जाते हैं। यह करो, ऐसे करो बतानेवाले कर्मकांड निषेध और वर्जनाओं पर आधारित हैं क्योंकि ये यह भी बताते हैं कि वह न करो, वैसा न करो। प्रायः महाराज अपने चिन्तन की चर्चा तेनाली राम से करते रहते थे। एक उत्सव के अवसर पर महाराज ने प्रसन्न होकर एक तपस्वी को विजयनगर में कुटिया बनाने के लिए भूमि एवं अन्य सुविधाएँ दे दीं। तेनाली राम ने महाराज के इस व्यवहार पर अपनी शंका जताई, “महाराज! मुझे तो यह युवा तपस्वी कहीं से भी पहुंचा हुआ प्राणी नहीं लगा और न ही इसमें पांडित्य की वैसी प्रखरता है जिससे यह दूसरों का मार्गदर्शन कर सके। फिर आपने यह उदारता क्यों दिखाई?"


"देखो तेनाली राम ! मैं विजयनगर का राजा हूं ।और इससे इतर भी मेरा एक निजत्व है। मैं स्वयं आध्यात्मिक चिन्तक हैं। विजयनगर मंठे हर वर्ष आयोजित होनेवाले समारोहों का उद्देश्य ही है लोगों को जोड़ना। इन समारोहों के समय ऐसे अनेक कार्यक्रम होते हैं जिनमें भाग लेकर या देख-सुनकर लोगों की दमित इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। इसलिए विजयनगर के निवासियों में तुम्हें सन्तोष और उल्लास की कमी नहीं दिखेगी। यही है मेरे शासन की सफलता का पहला सोपान ।...मेरे पास जब यह युवक पहुंचा तब मुझे यह विश्वास हो गया कि यह युवक महत्त्वाकांक्षी है, अन्यथा सामान्य साधु-सन्तों की तरह यह किसी के द्वार पर भी जा सकता था। जब इसने मुझसे वियजनगर में कुटिया बनाने की सुविधा माँगी, तो मेरे सामने यह बात साफ हो गई कि यह युवक किसी दूसरे राज्य से आया है। इस प्रकार एक राजा के समक्ष वह एक शरणागत की तरह था, तो उसे कुटिया बनाने की सुविधा देकर मैंने राजधर्मानुकूल कार्य किया है। रही उसके सिद्ध नहीं होने की बात तो मुझे विश्वास है कि वह सिद्धि तो प्राप्त कर ही लेगा, क्योंकि महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति वांछित को प्राप्त करके ही दम लेता है।” महाराज ने कहा ।


महाराज की तर्कसंगत बातें सुनकर तेनाली राम मौन हो गया।


धीरे-धीरे समय बीतता रहा। महाराज उस युवक को भूल गए। दो राज्य महोत्सव बीत गए। उस युवक ने महाराज के दर्शन नहीं किए।


तीसरे राज्य महोत्सव के प्रारम्भ मं ही वह युवक महाराज के पास पहँ ुचा। उसके मुख


से विद्वत्ता का तेज प्रकट हो रहा था। वह दूर से ही तेजस्वी प्रतीत हो रहा था। युवक ने महाराज के समीप आकर कहा, “महाराज! मैंने सभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन कर लिया है। मैं सभी शास्त्रों का ज्ञाता हो गया हैं। आप मुझे अपना गुरु बना लें!"


महाराज ने युवक की ओर मुस्कुराते हुए देखा और बोले, "युवक यह ठीक है कि तुमने सभी शास्त्र पढ़ लिये हैं मगर मेरा गुरु बनने के लिए इतना ही काफी नहीं है। अब तो तुम्हें अपने अध्ययन पर चिन्तन करना चाहिए। ...मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि तुममें अभी भी कोई कमी है जिसके कारण मैं अभी तुम्हें अपना गुरु नहीं बना सकता।"


महाराज की बातें सुनकर वह युवक वापस लौट गया।


तेनाली राम उस समय वहीं था। उसने महाराज और युवक की बातें सुनी थीं। उसने कहा, "महाराज! आपने ठीक ही कहा था कि युवक बहुत महत्त्वाकांक्षी है। सोद्देश्य साधना कर रहा है, यह भी उसके महत्त्वाकांक्षी होने का संकेत है... और देखिए उसकी महत्त्वाकांक्षा की पराकाष्ठा वह आपका गुरु बनना चाहता है। इसका अर्थ तो यही है कि वह विजयनगर का राजगुरु बनने की अभीप्सा से यहाँ आया है।"


"तुम ठीक समझे तेनाली राम !” महाराज ने उत्तर दिया।


और बात वहीं समाप्त हो गई।


महाराज अपनी सामान्य दिनचर्या में लग गए। वही रोज दरबार का काम-काज देखना और कभी-कभी प्रजा का दुख-सुख जानने के लिए विजयनगर के भ्रमण पर निकल जाना- यही थी उनकी सामान्य दिनचर्या ।


वर्ष बीतते देर नहीं लगी। महाराज अपने अभ्यास के अनुरूप ही वार्षिक समारोह की तैयारियों की स्वयं समीक्षा करते। कौन-कौन से कार्यक्रम आयोजित होंगे, कहाँ रंगमंच बनेगा, पनसाला कहाँ लगेगी और भोजनालय कहाँ बनेगा; प्रजा को इस वर्ष के समारोह के समय राज्य की ओर से मिलनेवाले भोजन के लिए क्या-क्या पकेगा-यानी छोटी से छोटी बात के लिए भी महाराज स्वयं निर्देश दे रहे थे। तेनाली राम हमेशा की तरह उनके साथ था।


हर्षोल्लास के साथ विजयनगर का वार्षिकोत्सव आरम्भ हुआ। इस वार्षिकोत्सव के आरम्भ में वह युवा तपस्वी महाराज के पास आया लेकिन इस बार उसने महाराज से गुरु बनाने को नहीं कहा। महोत्सव के अवसर पर उसने महाराज को शुभकामनाएँ दीं तथा महाराज से कहा, “महोत्सव के समय रास-रंग- मनोरंजन के साथ ही उन्हें कोई धार्मिक अनुष्ठान कराना चाहिए।'


महाराज ने तेनाली राम की ओर देखा ।

तेनाली राम ने महाराज का भाव समझा और युवा तपस्वी से कहा, “प्रभु! सभी धर्म एक सी ही बात करते हैं। इसलिए संशय है कि कौन-सा धार्मिक अनुष्ठान किया जाए और जब तक संशय है तब तक कोई अनुष्ठान हो ही नहीं सकता क्योंकि संशययुक्त मन से धर्म की बातें सम्भव नहीं हैं। "


युवा तपस्वी ने कहा, “आप ठीक कह रहे हैं।"


तेनाली राम ने उस युवा तपस्वी से विनम्रता के साथ कहा, “प्रभु! ऐसा प्रतीत होता है कि आपने चिन्तन कार्य तो पूरी निष्ठा से किया है, अब आप निष्ठापूर्वक मनन कार्य में लगें तब ही आपकी साधना पूर्ण होगी।”


वह युवक वहाँ से चला गया। महाराज महोत्सव का आनन्द उठाने में लगे और तेनाली राम सखा भाव से उनके साथ रमा रहा।


इसके बाद कई वर्षों तक युवा तपस्वी महोत्सव के समय महाराज से मिलने नहीं आया।


एक बार विजयनगर में जब महाराज और तेनाली राम वार्षिक महोत्सव के लिए कार्यक्रम तय करने बैठे तो बात ही बात में उन्हें उस युवा तपस्वी का स्मरण हो आया। उन्होंने तेनाली राम से पूछा, “कई वर्ष व्यतीत हो गए, मेरा गुरु बनने की इच्छा से विजयनगर में कुटिया बनाकर तपश्चर्या में लगा वह युवक आया नहीं...कुछ अता-पता है उसका?"


तेनाली राम ने तत्परता से उत्तर दिया, “ शीघ्र ही सूचित करूँगा महाराज!”


इसके बाद तेनाली राम ने उस युवा तपस्वी के सन्दर्भ में सूचनाएँ एकत्रित करवाईं। सूचना थी कि वह युवा तपस्वी अब कुटिया से निकलता ही नहीं। कभी-कभी किसी-किसी को दिख जाता है। वह न तो पूजा अनुष्ठान करता दिखाई देता है और न किसी से कोई याचना करने जाता है। पिछले वर्ष जब अतिवृष्टि के कारण गाँव के गाँव पानी में डूब गए थे तब इस युवा तपस्वी ने पीडित लोगों को बचाने और उनके लिए सुविधाएँ जुटाने में अपना जी-जान लगा दिया था।


तेनाली राम ने महाराज को युवा तपस्वी के सन्दर्भ में मिली समस्त सूचनाएँ दीं और


कहा, “लगता है, महाराज! यह युवा तपस्वी सिद्ध हो चुका है। "


महाराज कुछ बोले नहीं। महोत्सव आरम्भ हुआ। राजा के साथ प्रजा के मेल से उन्मुक्ति और आनन्द का एक सुखद और आह्लादकारी वातावरण बना। विजयनगर की खुशहाली के इसी सूत्र को स्मरण रखने के लिए महाराज इस महोत्सव का आयोजन कराते थे। महोत्सव के समापन के बाद महाराज ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम, चलो, जरा उस युवा तपस्वी से मिल आएँ।"


महाराज और तेनाली राम स्वयं चलकर युवा तपस्वी की कुटिया में गए। युवा तपस्वी ने उन्हें देखकर अपने हाथ जोड़ लिये और कहा, “धन्यभाग्य! हमारे गुरुजन पधारे!" महाराज विस्मित से रह गए युवक की बात सुनकर। उन्होंने कहा, “प्रभु, यह आप क्या कह रहे हैं? मैं तो यह समझता हैं कि अब आप सिद्ध हो चुके हैं इसलिए आपसे दीक्षा लेने


की इच्छा से आपके पास आया था।"


युवक ने गम्भीरता से कहा, "महाराज! आप मेरे आश्रयदाता हैं। पिता तुल्य और आदरणीय और तेनाली राम मेरे गुरु हैं उन्होंने मुझे मनन करने की सीख दी थी और मैं उनके निर्देश पर ही मन में डूब गया। तब मैंने जाना कि संसार में ऐसा कोई नहीं जिसमें ज्ञान का सागर न हो... चाहने पर कोई भी इस ज्ञान सागर में गोते लगा सकता है।" उस युवक ने तेनाली राम के चरण छुए और तेनाली राम ने उसे अपने गले से लगा लिया।

मंगलवार, 25 जुलाई 2023

भगवान नहीं, शेखचिल्ली का घर

शेखचिल्ली पन्द्रह साल का हो चुका था। उसके गाँव में कई मकान पक्के और दो-मंजिले थे। उसके एक सहपाठी शकील अहमद का मकान भी दो मंजिला बन चुका था। मगर उसका घर जैसा था वैसा ही रहा, कोई तब्दीली नहीं हुई। उसकी भी इच्छा थी कि उसका घर भी दो मंजिला  बने। कच्चे मकान में रहते-रहते उसकी तबीयत भर गई थी। 

एक दिन वह स्कूल से जल्दी वापस आ गया था। घर पहुँचने पर उसने शेख बदरुद्दीन और रसीदा बेगम को एक जगह बैठकर बातें करते देखा। हालाँकि उसे बचपन से अब तक ऐसा मौका कम मिला जब उसने अपने मम्मी-पापा को एक साथ बैठकर बातचीत करते देखा हो। उसे देखकर शेख बदरुद्दीन ने आवाज लगाई 

" तू भी इधर ही आ जा शेखू!" शेखचिल्ली ने अपना स्कूल बैग एक तरफ रखा और मम्मी पापा के बीच में जाकर बैठ गया । मम्मी ने उसका सिर प्यार से सहलाते हुए कहा- "बता तो बेटे, इस बार ईद में तू कैसे कपड़े लेगा? तू जैसे कपड़े चाहेगा, इस बार तुम्हें वैसे कपड़े दिलवाएंगे हम। मम्मी पापा को खुश देखकर शेखचिल्ली ने आखिर अपने मन की बात कह दी - “मम्मी! हर ईद में कपड़े बनते ही हैं, इस बार नहीं भी बने तो चलेगा। मेरी तमन्ना है कि अपना घर पक्का हो-दो मंजिल वाला, जिसमें ऐसा छज्जा भी हो जहाँ टहला जा सके... घूम-घूम कर पढ़ा जा सके।"

शेखचिल्ली की बातें सुनकर शेख बदरुद्दीन चौक पड़े। तभी रसीदा बेगम ने कहा- "हों जी! इस बार गन्ने की फसल अच्छी हुई हैं। हम लोग इस बार दिल खोलकर खर्च करेंगे... और कुछ नहीं तो बाहर वाले दोनों कमरों पर छत डलवाकर उसके ऊपर एक कमरा शेखू के लिए बनवा देंगे। शेखू अब बड़ा हो रहा है। कल को उसकी शादी के लिए पैगाम लेकर लोग आएँगे। इस बात का खयाल करके ही सही, अपना जी कड़ा कर लीजिए और मकान बनवाने में पैसा लगवा दीजिए। खुदा ने चाहा तो मकान बन ही जाएगा। अच्छा सम्बन्ध पाने के लिए थोड़ा दिखावा भी तो करना जरूरी है।"

शेख बदरुद्दीन अपनी पत्नी और बेटे की बात सुनकर गम्भीर हो गए और थोड़ी देर सोचने के बाद धीरे से रसीदा बेगम से बोले "ठीक है, कल मैं सुभाष मिस्तरी से बातें करूँगा... वह हिसाब लगाकर बता देगा कि कितना खर्च आएगा-यदि बाहर के दोनों कमरों पर छत डलवाई जाए तो...!"


इस घटना के दो दिनों के बाद ही शेखचिल्ली ने देखा, उसके घर में राज मिस्तरी काम कर रहे हैं। अम्मी ने उसे बताया कि उनके मकान के आगे वाले भाग में छत ढलाई का काम दो-तीन दिनों में हो जाएगा और उसके बाद छत पर उसके लिए एक अच्छा सा कमरा बनवाया जाएगा जिसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ होंगी... रोशनदान होगा। उसके कमरे का फर्श भी रंगीन होगा चकमक-बूटेदार! यह सब सुनकर शेखचिल्ली बहुत खुश हुआ और उस दिन से ही उसे प्रतीक्षा रहने लगी कि कब उसके घर में छत ढलाई हो... और कब उसके लिए कमरा बने।

और वह दिन भी जल्दी आ गया। शेख बदरुद्दीन इस बात पर आमादा थे कि जब पैसे खर्च हो ही रहे हैं तो दो-चार मजदूर बढ़ाकर मकान का सारा काम ईद से पहले पूरा करा लिया जाए। शेख बदरुद्दीन को अपने इस मकसद में कामयाबी मिली। ईद से पहले नई ढली छत पर शेखचिल्ली के लिए कमरा बनकर तैयार हो गया। नीचे के दो कमरे पापा मम्मी के  लिए और छत का शानदार फर्शवाला कमरा शेखचिल्ली के लिए तय हो गया। रसीदा बेगम ने बड़े जतन से शेखचिल्ली का सामान छतवाले कमरे में करीने से सजाया और ईद के दिन ही शेखचिल्ली को वह कमरा सौंप दिया गया।


अब शेखचिल्ली के पास जब भी वक्त होता, वह झरोखे से मुक्त आकाश का सौन्दर्य निहारता । घर के सामने की सड़क पर आने-जानेवाले लोगों को देखता । छज्जे पर टहलता । उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था क्योंकि बाहर से देखने पर उसका पूरा घर दो मंजिला ही दिखता था। उसका सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि अब गाँव में वह भी दो मंजिला मकानवाला कहा जाएगा।

एक शाम शेखचिल्ली अपने कमरे के सामने की खुली छत पर टहल रहा था तभी उसने सुना, नीचे सड़क से किसी की आवाज आई - "देखो, यह दो मंजिला मकान शेखचिल्ली का है।"

शेखचिल्ली ने जब यह सुना तो उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। “भगवान! क्या बात है! अब तो इस मकान के कारण लोग मुझे भी जानने लगे हैं!" खुश होकर उसने छत से नीचे झाँककर देखा । तीन-चार लड़के उसके मकान के सामने नुक्कड़ पर खड़े होकर बात कर रहे थे।

शेखचिल्ली छत पर टहलता हुआ उस किनारे तक गया जहाँ से नुक्कड़ पर खड़े लड़कों की बातचीत वह सुन सके।शेखचिल्ली ने सुना, उनमें से एक लड़का कह रहा था - "शेखचिल्ली का घर है। "

“यह कहकर तुम क्या जताना चाहते हो? अरे! मैं तो मानकर चलता हूँ, यह सारी दुनिया भगवान ने बनाई है इसलिए हर घर भगवान का घर है फिर शेखचिल्ली का घर कहे जाने की जरूरत ही क्या है?"

इतना सुनना था कि शेखचिल्ली गुस्से से तिलमिला उठा। वह तैश में आकर बुदबुदाने लगा-”मेरे मम्मी-पापा ने मेरे लिए यह घर बनवाया है। मेरे कहने पर बना है यह दो- मंजिला । यह मुआ कौन है जो इस बात को अहमियत देने से इनकार कर रहा है... अभी चलकर मजा चखाता हूँ इसे !" और शेखचिल्ली दनादन सीढियाँ लाँघते-कूदते उन लड़कों के पास पहुँचकर दहाड़ा-"अबे! कौन कह रहा था कि शेखचिल्ली का घर है, इस बात को अहमियत देने की जरूरत नहीं?"

शेखचिल्ली का तेवर देखकर लड़के डर गए और उनमें से एक ने उँगली दिखाकर दूसरे लड़के की तरफ इशारा कर दिया और शेखचिल्ली का एक घूँसा उस लड़के के जबड़े पर पड़ा-"तो तू है मेरे घर को भगवान का घर बताने वाला! तो ले, मेरे घूंसे को भगवान का घूँसा समझ !” इतना कहते हुए शेखचिल्ली ने दूसरा घूँसा भी जड़ दिया।

घूँसा खाकर उस लड़के ने तुरन्त माफी माँग ली। कहा- "भूल हो गई, माफ करो, अब मैं ऐसा नहीं बोलूँगा। बोलना होगा तो कहूंगा, भगवान का घर भी शेखचिल्ली का घर है।"

शेखचिल्ली शान से फिर अपनी छत पर आकर टहलने लगा।


https://archive.org/details/shekhchillikianokhiduniyahindi


https://archive.org/details/mullanaseeruddinkianokhiduniya/page/n162/mode/1up


https://archive.org/details/tenaliramkianokhiduniyahindi/page/n5/mode/1up

मुल्ला नसरुद्दीन

 मुल्ला नसरुद्दीन बहुत ही हाजिर जवाब और चतुर व्यक्ति था।  बेचारा अपनी बीवियों के सामने लाचार हो जाता था। मुल्ला नसरुद्दीन की दो बीवियां थीं। दोनों अक्सर मुल्ला नसरुद्दीन से पूछती थी कि तुम दोनों में से किसे ज्यादा प्यार करते हो। मुल्ला जी बेचारे कुछ भी जवाब नहीं दे पाता था।

एक दिन मुल्ला जी को तरकीब सूझी। उन्होंने अपनी दोनों बीवियों को एक-एक नीला मोती दिया और कहा कि किसी को मत बताना कि ये मोती मैंने तुम्हें दिया है।

 मुल्ला नसरुद्दीन की दोनों बीवियां मोती देखकर खुश हो गईं।अब जब भी मुल्ला नसरुद्दीन की बीवी पूछती कि आप किसे ज्यादा प्यार करते हो, तो मुल्ला जी कहता, मैं तो नीले मोती वाली को  ज्यादा प्यार करता हूं । दोनों बीवियां मन ही मन खुश हो जातीं और मुल्ला जी भी अपनी चतुराई पर खूब इठलाता था।

कहानी की सीख

चतुराई और समझदारी से मुश्किल से मुश्किल समस्या का हल भी आसानी से निकाला जा सकता है।


https://www.momjunction.com/hindi/kahaniya/mulla-nasruddin-ki-do-biwiyan/

सोमवार, 24 जुलाई 2023

 क्या आपको पता है, जब हाथी का बच्चा छोटा होता है तो उसे पतली एंव कमजोर रस्सी से बांधा जाता है| हाथी का बच्चा छोटा एंव कमजोर होने के कारण उस रस्सी को तोड़कर भाग नहीं सकता| लेकिन जब वही हाथी का बच्चा बड़ा और शक्तिशाली हो जाता है तो भी उसे पतली एंव कमजोर रस्सी से ही बाँधा जाता है,

 जिसे वह आसानी से तोड़ सकता है लेकिन वह उस रस्सी को तोड़ता नहीं है और बंधा रहता है| ऐसा क्यों होता है?

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब हाथी का बच्चा छोटा होता है तो वह बार-बार रस्सी को छुड़ाकर भागने की कोशिश करता है, लेकिन वह कमजोर होने के कारण उस पतली रस्सी को तोड़ नहीं सकता और आखिरकर यह मान लेता है कि वह कभी भी उस रस्सी को तोड़ नहीं सकता| हाथी का बच्चा बड़ा हो जाने पर भी यही समझता है कि वह उस रस्सी को तोड़ नहीं सकता और वह कोशिश ही नहीं करता| इस प्रकार वह अपनी गलत मान्यता अथवा गलत धारणा  के कारण एक छोटी सी रस्सी से बंधा रहता है जबकि वह दुनिया के सबसे ताकतवर जानवरों में से एक है|

रविवार, 23 जुलाई 2023

 1. केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है, जो कहीं भी, किसी भी अवस्था में और किसी भी काल में, मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। 

2. धरती पर जिस प्रकार मौसम में बदलाव आता है, उसी प्रकार जीवन में भी सुख-दुख आता जाता रहता है। 

3. युद्ध हो या जीवन सफलता केवल तीन शस्त्रों से प्राप्त होती है धर्म, धैर्य और साहस। 

4. कोई भी मनुष्य जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है। 

5. कुछ पाना है तो खुद पर भरोसा कीजिये, क्योकि सहारे कितने भी सच्चे और अच्छे हो साथ छोड़ ही जाते है। 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...