गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 22

 मन साधन बन जाए


यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।। 26।।


परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोककर बारंबार परमात्मा में ही निरोध करे।


मन चंचल है। वही उसकी उपयोगिता भी है, वही उसका खतरा भी। मन चंचल होगा ही, क्योंकि मन का प्रयोजन ही ऐसा है कि उसे चंचल होना पड़े। मन की चंचलता ठीक वैसी है, जैसे कि हवा का रुख देखने के लिए कोई घर के ऊपर पक्षी का पंख लगा दे। अगर पंख चंचल न हो, तो हवा का रुख न बता पाए। हवा जिस तरफ बहे, पंख को उसी तरफ घूम जाना चाहिए, तो ही वह खबर दे पाएगा कि हवा का रुख क्या है।


मन, मनुष्य के व्यक्तित्व में चारों तरफ जो अंतर हो रहे हैं, उनकी खबर देने का यंत्र है। इसलिए वह चंचल होगा ही। चंचल होगा, तो ही अर्थपूर्ण है, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं है। आपके बाहर सर्दी बदलकर गर्मी हो गई है। मन अगर खबर न दे, तो जीवन असंभव है। रास्ते पर कांटा पड़ा है, मन अगर खबर न दे; पैर में चोट लग गई है, मन अगर खबर न दे; मित्र शत्रु हो गया है, मन अगर खबर न दे; भूख लगी है, मन अगर खबर न दे--तो जीवन असंभव है।

तो मन को तो प्रतिपल खबर देनी पड़ेगी, हजार तरह की। और वह हजार तरह की खबर तभी दे सकता है, जब प्रत्येक छोटी-सी घटना से चंचल हो, विचलित हो--तभी खबर दे पाएगा।

तो मन का प्रयोजन ही यही है कि वह आपके जीवन को अस्तित्व में रखने का यंत्र है। और अस्तित्व प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वही नहीं है, जो एक क्षण पहले था। सब कुछ बदलता जा रहा है। हर घड़ी, हर क्षण, चारों तरफ प्रवाह है परिवर्तन का।

इस परिवर्तन की आपको खबर होनी चाहिए, अन्यथा आप जी न सकेंगे। और इस परिवर्तन की जो खबर देगा, उसको हवा का रुख बताने वाले पंख की तरह कंपते रहना पड़ेगा, तैयार रहना पड़ेगा कि हवा कब बदल जाए, पंख उसके साथ ही बदल जाए। क्षणभर की देरी, कि जीवन खतरे में पड़ सकता है।

तो मन की उपादेयता, यूटिलिटी ही यही है। मन है ही इसलिए कि वह जीवन में हो रहे परिवर्तन की सूचना आपको प्रतिपल देता रहे। यह उसका प्रयोजन है। लेकिन यहीं उसका खतरा भी शुरू होता है। क्योंकि हम इसी मन से परमात्मा को भी जानना चाहते हैं, जिस मन से संसार जाना जाता है। तब भूल हो जाती है। क्योंकि संसार है प्रतिपल परिवर्तन, और परमात्मा है सनातन, शाश्वत। वह कभी बदलता नहीं। वह सदा वही है, जो है। और संसार कभी वही नहीं है, जो क्षणभर पहले था। संसार तो बहती हुई गंगा है, जहां एक क्षण भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है। फ्लक्स है, प्रवाह है। और परमात्मा सदा वही है, जहां कभी कुछ कणभर भी नहीं बदला है।

तो मन संसार को जानने में तो बिलकुल ही समर्थ और सहयोगी है, परमात्मा को जानने में बिलकुल व्यर्थ और बाधा है। अगर इसी मन से परमात्मा को जानना चाहा, तो आप कभी न जान पाएंगे। कभी कोई उपाय इससे परमात्मा को जानने का नहीं है।

इस बात को ठीक से समझ लें। मन के दुश्मन हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ मन का प्रयोजन समझ लेने की जरूरत है।

मन का प्रयोजन ही जो चंचल है उसको जानना है, इसलिए मन चंचल है। मन का प्रयोजन ही नहीं है उसको जानना, जो शाश्वत है, नित्य है। इसलिए शाश्वत और नित्य की तरफ मन का उपयोग करना पागलपन है। गलत, असंगत आयाम है परमात्मा मन के लिए। या परमात्मा के लिए मन असंगत विधि है।

इसलिए जो भी परमात्मा की तरफ, सत्य की तरफ, नित्य की तरफ, अपरिवर्तनीय की तरफ, शाश्वत की तरफ, इटरनल की तरफ यात्रा करना चाहता है, उसे मन की चंचलता को छोड़कर, मन को ठहराकर ही गति करनी पड़ेगी।

इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप बिलकुल जड़ हो जाएं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मन आपका पत्थर हो जाए। इसका इतना ही मतलब है कि मन को आन और आफ करने की कला आपके पास होनी चाहिए। जब आप चाहें, तो मन की गति शून्य की जा सके; और जब आप चाहें, तो मन की गति पूरी की जा सके। इसकी गुलामी न रह जाए, इसकी परवशता न रह जाए; इसके आप मालिक हो जाएं कि आप बटन दबाएं और मन काम बंद कर दे, ताकि आप शाश्वत को जान सकें। आप बटन दबाएं और मन सक्रिय हो जाए, ताकि आप संसार में जी सकें।

और अस्तित्व दोहरा है। बाहर की तरफ संसार है, भीतर की तरफ परमात्मा है। इसलिए अक्सर एक भूल हो जाने का डर है कि जो लोग परमात्मा की तरफ जाते हैं, वे मन को इस भांति बंद कर देते हैं कि संसार से टूट जाते हैं। वह वही की वही भूल हो गई, जो पहले हो रही थी, कि इस मन को इतना गतिमान कर लेते हैं कि उस पर काबू नहीं रह जाता और परमात्मा से टूट जाते हैं।

सम्यक! सम्यक व्यक्तित्व वह है, कृष्ण कह रहे हैं, जो मन का मालिक हो जाए। मालकियत का मतलब, मन को मार डालना नहीं है। मरी हुई चीज के मालिक होने का कोई मतलब नहीं होता। मरी हुई चीज के मालिक होने का क्या मतलब होता है? दुश्मन को मार डाला और उसकी छाती पर बैठ गए, उसका क्या मतलब? मृत चीज की मालकियत का कोई मतलब नहीं होता है; जीवित चीज की मालकियत का कुछ मतलब होता है।

मालकियत का इसलिए अर्थ, मन को मार डालना नहीं है। मालकियत का अर्थ, मन को स्वेच्छा से गतिमान करना या गतिहीन कर देने की क्षमता है--स्वेच्छा से, जब चाहें। जैसे कोई आदमी अपने घर के बाहर आ जाता है। जब चाहता है, घर के भीतर चला जाता है। बाहर आ जाता है, तो बाहर ऐसा नहीं अटक जाता कि अब कहे कि मैं घर के भीतर कैसे जाऊं! भीतर चला जाता है, तो अटक नहीं जाता। यह नहीं कहता कि अब भीतर आ गया, तो घर के बाहर कैसे जाऊं!

घर के भीतर और बाहर जैसी सहज गति आप करते हैं, ऐसे ही स्वयं के बाहर और भीतर सहज गति स्वेच्छा से संभव हो जाए, तो मन की मालकियत है। तो कहा जाएगा, मन निरुद्ध हुआ। लेकिन मन पूरी तरह जीवित है। और जब उसकी जरूरत हो, तब उसको स्फुरणा दी जा सकती है। और उसकी जरूरत चौबीस घंटे पड़ेगी। अस्तित्व संसार में है। मन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मन आपके हाथ में एक साधन हो जाए, तो आप मालिक हो गए।

अभी तो हम मन के हाथ में एक साधन हैं। मन चलता है; हम उससे कहते हैं, कृपा करो, मत चलो! वह सुनता ही नहीं। वह चलता ही चला जाता है! हमारे मन की हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी के पैरों की हालत हो जाए। उसको चलना नहीं है, लेकिन पैर उसको कहें कि हम तो चलेंगे! उसको कहीं जाना नहीं है, उसे कुर्सी पर बैठकर आराम करना है, लेकिन पैर हैं कि चले जा रहे हैं। तो उस आदमी को हम विक्षिप्त कहेंगे। हम कहेंगे, इस आदमी के पैर इसके मालिक हो गए। यह कहता है, रुको। लेकिन पैर नहीं रुकते। जब यह कभी कहता है, चलो! तब पैर कहते हैं, नहीं चलते; रुकेंगे।

नहीं, लेकिन पैर के आप मालिक हैं। जब आप चलना चाहते हैं, पैर चलते हैं। जब आप रुकना चाहते हैं, पैर थिर हो जाते हैं। ठीक ऐसी ही मालकियत मन की भी होनी चाहिए। मन भी एक उपकरण है, जैसे पैर एक उपकरण है। मन भी एक इंस्ट्रूमेंट है।

लेकिन आप रात सोने को बिस्तर पर पड़े हैं। आप मन से कहते हैं कि अब चुप हो जाओ; अब बंद हो जाओ; मुझे सो जाने दो। लेकिन वह चले चला जा रहा है! वह आपकी सुनता ही नहीं। इसमें मन का कोई कसूर नहीं है, ध्यान रखना। नहीं तो आप सोचें कि अरे, यह मन ही ऐसी चीज है। मन का इसमें कोई कसूर नहीं है। इसमें मन का कोई भी कसूर नहीं है, इसलिए जो मन को गालियां देते रहते हैं, वे निपट नासमझ हैं।

आपने ही मन की ऐसी व्यवस्था कर रखी है। आपने ही मन को जीवनभर इस तरह का शिक्षण दिया है। आपने ही कभी मन पर अपनी मालकियत की घोषणा नहीं की। आपने कभी मन को बंद करने का कोई उपाय नहीं किया। आप अपने मन को चलाते ही रहे हैं। आप चलाते ही रहे हैं अकारण-कारण। मन को चलाते ही रहे हैं। मन का ट्रैक तैयार हो गया है।

मन जन्मों-जन्मों से चलने का आदी हो गया है। ठहरने की उसे कोई खबर ही नहीं रही। उसे पता ही नहीं है कि ठहरना भी होता है। और इसलिए जब आप अचानक एक दिन मन से कहते हैं, ठहर जाओ, तब वह नहीं ठहरता, तो इसमें उसका कसूर नहीं है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा।

सच तो यह है कि आप जितने घबड़ाकर कहते हैं कि ठहर जाओ, वह भी मन की ही गति है। आपका घबड़ाकर कहना कि ठहर जाओ, मन की ही गति है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा, आपको कला आनी चाहिए ठहराने की।

कार चलाते हों और ब्रेक लगाना न आता हो, और चिल्लाते हों कि ठहर जाओ; वैसा ही पागलपन है। चिल्लाते रहें, कार नहीं ठहरेगी। और एक्सेलरेटर पर पैर दबाए चले जा रहे हैं! और चिल्ला रहे हैं, ठहर जाओ! और ब्रेक लगाना आता नहीं। और ब्रेक कभी लगाया नहीं। ब्रेक जाम हो गए हैं। आज अचानक पैर भी रखेंगे, तो जंग खा गए हैं। उनको तेल की जरूरत पड़ेगी; ब्रेक आयल की जरूरत पड़ेगी। उनको फिर से गति देने के लिए सुगम, सरल और ढीला होना पड़ेगा। उनको कभी नहीं लगाया, सदा एक्सेलरेटर दबाया और सदा चिल्लाते रहे। फिर धीरे-धीरे आपको पता चलने लगा कि कितना ही चिल्लाओ, यह कार बड़ी खराब है; यह रुकती नहीं है।

कार का कोई भी कसूर नहीं है। कोई भी कसूर नहीं है। और मजा यह है कि जब आप चिल्ला रहे हैं, तब भी आपका पैर एक्सेलरेटर को दबाए चला जा रहा है--तब भी! ठीक हम मन के साथ ऐसा ही कर रहे हैं। और इसलिए मन को दोष देते हैं जीवनभर, लेकिन हल नहीं होता कुछ।

कृष्ण कहते हैं, मन चंचल है। स्वभाव है मन का चंचल होना। होना ही चाहिए मन चंचल, नहीं तो मन का कोई अर्थ नहीं है। मन का प्रयोजन ही वही है। लेकिन मन के यंत्र में मन को रोकने की भी व्यवस्था है। उस व्यवस्था को, उस ब्रेक सिस्टम को ठीक से समझ लेना चाहिए कि वह क्या व्यवस्था है, जो मन को रोकती भी है।

दो बातों का ध्यान रखना जरूरी है, एक तो जब मन को रोकना हो, तो एक्सेलरेटर पर पैर न रहे। इसलिए कार में एक ही पैर से दो काम लेते हैं हम, ताकि भूल न हो जाए। नहीं तो एक पैर से ब्रेक लगा सकते हैं, एक से एक्सेलरेटर चला सकते हैं। लेकिन एक ही पैर से दोनों काम लेते हैं, ताकि कभी भूल न हो जाए। जब ब्रेक दबाएं, तो एक्सेलरेटर न दब जाए साथ में। अगर दोनों पैर से काम लें, तो खतरे का पूरा डर है। एक पैर से एक्सेलरेटर दबा दें और एक से ब्रेक दबा दें, तो उपद्रव हो ही जाने वाला है। इसलिए एक ही पैर से दो काम लेते हैं। उसी पैर को ब्रेक पर रखते हैं, ताकि एक्सेलरेटर अनिवार्यतः छूट जाए।

मन में भी वैसी ही व्यवस्था है। ठीक वैसी ही व्यवस्था है। जिस ढंग से हम दबाते हैं मन को काम लेने के लिए, उसी ढंग से मन की रुकावट के लिए भी उसी व्यवस्था का उपयोग करना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान हटना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान भर पैर को हटाना पड़ता है। उसे समझ लें कि वह व्यवस्था क्या है।

जब आपको मन को दौड़ना होता है, तो क्या व्यवस्था है? एक्सेलरेटर क्या है मन का? उसको गत्यात्मक करने का क्या ढांचा है? हम सब दौड़ाते हैं; इसलिए दौड़ाने से ही शुरू करना ठीक होगा। जब आपको मन को दौड़ाना होता है, तब आप क्या करते हैं?

शायद आपने खयाल न किया हो, जब मन को दौड़ाना हो, तो मन के साथ तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। जितना तादात्म्य स्थापित हो जाए, मन उतना ही दौड़ता है। तादात्म्य एक्सेलरेटर है। तादात्म्य का मतलब है कि मन की जिस वृत्ति को दौड़ाना हो, उसके साथ एकात्म हो जाना पड़ता है।

अगर आपको कामवासना के साथ मन को दौड़ाना है, तो आप दूर खड़े रहेंगे, तो मन नहीं दौड़ेगा। ऐसे ही होगा कि कार स्टार्ट कर दी और एक्सेलरेटर नहीं दबाया। भड़भड़, भड़भड़ होगी, लेकिन गाड़ी चलेगी नहीं; और थोड़ी देर में इंजन बंद पड़ जाएगा। अगर कामवासना के साथ दौड़ाना है, तो ऐसा मत सोचें कि मैं कामवासना का विचार करता हूं; ऐसा सोचेंगे, तो एक्सेलरेटर पर पैर नहीं पड़ेगा। ऐसा सोचें कि मैं कामवासना हूं। बस, मन दौड़ना शुरू कर देगा। थोड़ी देर में कामवासना आपकी पूरी आत्मा को घेर लेगी। आप उसके साथ एक हो जाएंगे। और जितना एक हो जाएंगे, उतनी मन की गति तेज हो जाएगी।

ब्रेक की व्यवस्था ठीक उलटी है; तादात्म्य तोड़ना पड़ेगा। जितना मन की किसी भी वृत्ति से दूर हो जाएंगे, पार हो जाएंगे, अलग हो जाएंगे, अनुभव कर पाएंगे, मैं भिन्न हूं, उतना ही ब्रेक लग जाएगा।

एक ही पैर का उपयोग करना है--तादात्म्य। अगर दबाया तादात्म्य को, एक हुए, तो गति पकड़ेगा; मन और चंचल हो जाएगा। अगर दूर हटाया तादात्म्य को, मन अचंचल हो जाएगा। और आपके सहयोग के बिना न तो चंचल हो सकता है, न आपके असहयोग के बिना अचंचल हो सकता है।

सहयोग गति देता है, असहयोग गति तोड़ देता है।

तो जिस वृत्ति को चलाना हो, उसके साथ सहयोग कर लें; इतना सहयोग कर लें कि आप उसी वृत्ति के रंग में रंग जाएं। इसका जो टेक्निकल, तकनीकी शब्द है, वह है, राग। राग का मतलब रंग ही होता है। राग का मतलब रंग ही होता है। किसी भी वृत्ति के राग में पड़ जाएं, अर्थात वृत्ति में ऐसे रंग जाएं कि रंग आपके ऊपर पूरा फैल जाए, तो मन की गति तीव्र हो जाती है।

अनेक हत्यारे अदालतों में कहते हैं कि हत्या हमने नहीं की। वे ठीक ही कहते हैं। पहले तो लोग सोचते थे कि हत्यारे सिर्फ इसलिए कहते हैं कि हमने हत्या नहीं की, क्योंकि वे अदालत को धोखा देना चाहते हैं। लेकिन अब मनसविद कहते हैं कि बहुत अर्थों में वे ठीक ही कहते हैं, धोखा देने के लिए नहीं कहते।

असल में हत्यारा जब हत्या करता है, तो हत्यारा मौजूद ही नहीं रहता; हत्या के साथ इतना रंग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। सोचने वाला, विवेक का जरा-सा भी बिंदु बाहर नहीं रह जाता, जो कहे कि मैंने हत्या की। हत्या हुई। मैं इतना भी अलग नहीं बचता कि वह कह सके, मैंने हत्या की। हत्यारा इतना ही कह सकता है कि हत्या के भाव ने मुझे इस बुरी तरह पकड़ लिया कि मैं तो था ही नहीं। हत्या मुझसे हुई है, मैंने की नहीं है। और मनसविद कहते हैं कि वह ठीक ही कह रहा है।

सच तो यह है कि बहुत-से हत्यारे हत्या करने के बाद भूल ही जाते हैं कि उन्होंने हत्या की। भूल ही जाते हैं! और बहुत जांच-पड़ताल करके पता चला है कि उनके भीतर कोई भी स्मृति नहीं रह जाती कि उन्होंने हत्या की है। क्यों नहीं रह जाती?

स्मृति बनने के लिए भी थोड़ा-सा फासला चाहिए; थोड़ा-सा फासला, अन्यथा स्मृति नहीं बनेगी। अगर आप वृत्ति के साथ पूरे रंग गए, तो घटना हो जाएगी, लेकिन स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति बनेगी किसको? मैं तो बचता ही नहीं, जो नोट कर ले कि हत्या की जा रही है। मैं इतना डूब जाता हूं, इतना बेहोश हो जाता हूं, इतना एक हो जाता हूं कि मेरे द्वारा हत्या हो जाती है, लेकिन मेरे द्वारा उसकी कोई स्मृति नहीं बन पाती। मेरा कांशस माइंड इतना लीन हो जाता है कि वह कोई स्मृति नहीं बनाता। अनकांशस मेमोरी बनती है।

इसलिए हत्यारा कहता है होश में कि मैंने हत्या नहीं की। लेकिन उसे हिप्नोटाइज करके बेहोश करते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की। शराब पिला देते हैं, उसे बेहोश कर देते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की। होश में रहता है, तो कहता है, मैंने हत्या नहीं की। होश वाले मन को कोई खबर ही नहीं है। खबर के लिए दूरी चाहिए। वह दूरी मौजूद नहीं है।

आपने हत्या तो नहीं की है, सोचा बहुत बार होगा। क्योंकि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी न किसी की हत्या करने का कभी न कभी न सोचा हो। अगर किसी और की नहीं, तो अपनी करने का सोचा होगा। फर्क नहीं है। किसी न किसी की--उसमें स्वयं भी सम्मिलित हैं--हत्या करने का न सोचा हो, ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है, रेयर।

जो जानते हैं, वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी सत्तर साल की उम्र में औसतन दस बार अपनी या किसी की हत्या करने का विचार करता है। कम से कम, यह मिनिमम है। करता नहीं है, यह दूसरी बात है। लेकिन विचार करता है। क्यों नहीं कर पाता? कारण वही है। एक्सेलरेटर पूरा नहीं दब पाता, नहीं तो हो जाए। थोड़ा फासला बना रहता है। थोड़ा सोच-विचार भीतर कायम रहता है कि यह मैं क्या सोच रहा हूं! यह मैं क्या सोच रहा हूं! या भय के कारण एक्सेलरेटर पूरा नहीं दबा पाता कि कहीं स्पीड बहुत तेज न हो जाए, कोई एक्सिडेंट न हो जाए; तो धीरे चलाता है।

फासला रह जाए, तो वृत्ति नहीं कार्य कर पाती; फासला छूट जाए, तो वृत्ति कार्य कर जाती है। वृत्ति के साथ तादात्म्य मन को गति, मन को प्राण देना है, खून देना है। और वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ लेना मन को रुकावट डालनी है, ठहराना है।

इसको प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा। जिस वृत्ति के साथ मन दौड़ रहा हो, यह मत कहें कि रुक जाओ। रुक जाओ कहने का कोई मतलब नहीं है। उस वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ें। मन में क्रोध आ रहा है, तब ऐसा न समझें कि मैं क्रोध कर रहा हूं। ऐसा ही समझें कि मन में क्रोध आ रहा है, मैं दूर खड़े होकर देख रहा हूं, जस्ट ए विटनेस, एक साक्षी। मैं देख रहा हूं कि मन कह रहा है कि क्रोध करो; मन कह रहा है कि गर्दन दबा दो; मन कह रहा है कि आग लगा दो--मैं देख रहा हूं।

और जैसे ही देखने का खयाल आएगा, आप अचानक पाएंगे कि एक्सेलरेटर से पैर हट गया, मन की गति धीमी हो गई। और यह अनुभव इतना सहज और सरल है कि प्रत्येक को ही होगा, इसमें कोई अड़चन नहीं है। सिर्फ खड़े होकर देखने की प्रक्रिया का अभ्यास जरूरी है।

और कर सकते हैं अभ्यास। रोज मौके मिलते हैं। रात विचार चल रहे हैं मन में, यह मत कहें, करवट न बदलें परेशानी से कि मन बंद हो जाए, तो मैं सो जाऊं। न; जब विचार चल रहे हैं मन में, तो देखना शुरू करें। यह मत कहें कि बंद हो जाएं। विचारों को देखें कि विचार चल रहे हैं, मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं एक साक्षी हूं। मैं सिर्फ देखूंगा; तुम चलो।

और आप पाएंगे, जैसे ही आपने निर्णय लिया कि मैं देखूंगा, तुम चलो, उनकी चलने की ताकत कम होने लगी, उनके पैर शिथिल होने लगे, उनकी गति नीचे गिरने लगी। और जिस क्षण आप पूरे देखने वाले की तरह खड़े हो जाएंगे, मन एकदम शांत हो जाएगा। इधर आया साक्षी, उधर गया मन। इस द्वार से साक्षी ने प्रवेश किया, उस द्वार से मन विदा हुआ। यह एक साथ, युगपत घटना घटती है।

मन से लड़ने की जरूरत नहीं है। लड़ने वाला तो पागल है। मन के प्रति जागने की जरूरत है। जागने से निरोध फलित होता है।

और जब तक मन का निरोध न हो जाए, तब तक प्रभु की तरफ यात्रा नहीं होती। क्योंकि मन संसार के लिए साधन, प्रभु के लिए बाधा। मन संसार के लिए सहयोगी, प्रभु के लिए विरोधी।

इसमें कोई कसूर नहीं है। यह मैकेनिज्म की बात है सिर्फ। यह अनिवार्यता है। क्योंकि ऐसा मैकेनिज्म नहीं हो सकता, जो दोनों तरफ काम दे सके। क्योंकि संसार के लिए बिलकुल और तरह की जरूरत है। वहां सब बदल रहा है, इसलिए बदलने वाला सचेतन चित्त चाहिए, जो पूरे समय बदलता रहे।



और ध्यान रखें, जो चित्त जितनी गति से बदल सकता है संसार में, संसार में उसका सरवाइवल उतना ही सुनिश्चित है; उसका अस्तित्व उतना ही सुरक्षित है।

जमीन पर आदमी जीत गया, और पशु हार गए। उसका और कोई कारण नहीं था। पशुओं के पास इतना चंचल मन नहीं है; और कोई कारण नहीं है। आदमी के पास चंचल मन है, वह जीत गया।

इस पृथ्वी पर बड़े शक्तिशाली पशु नष्ट हो गए हैं, पूरी की पूरी जातियां नष्ट हो गईं। उनके पास शरीर महा शक्तिशाली था। आज से कोई दस लाख साल पहले वैज्ञानिक कहते हैं--अब तो अस्थिपंजर भी मिलते हैं--हाथी हमारा छोटा-सा जानवर है उस जमाने का, बहुत छोटा-सा; उस जमाने का बहुत मिनिएचर, बहुत छोटा-सा प्रतीक। हाथी से दस-दस गुने, पंद्रह-पंद्रह गुने बड़े जानवर इस पृथ्वी पर थे। लेकिन सबके सब नष्ट हो गए। बात क्या है?

शरीर तो उनके पास बहुत बड़े थे, शक्ति उनके पास महान थी। छोटे-मोटे पहाड़ी को धक्का दे दें, तो खिसक जाए, गिर जाए। लेकिन उनके पास बहुत चंचल चित्त नहीं था, जो कि स्थितियों के साथ बदल सके। स्थितियां बदलीं, उनका मन नहीं बदला। स्थितियां बदल गईं, मन नहीं बदला; मर गए। क्योंकि स्थिति के साथ जिसका मन नहीं बदलेगा, वह मर जाएगा।

स्थिति के साथ बदलने से ही एडजस्टमेंट होता है। नहीं तो आप मैलएडजस्टेड हो जाएंगे। आपकी उम्र तो ज्यादा हो गई, लेकिन पायजामा बचपन का पहने चले गए, वैसी मुसीबत हो जाएगी। पायजामा बदलना पड़ेगा। जवानी आ गई और बुद्धि बचपन की रही आई, मन नहीं बदला, थिर मन हुआ आपके पास, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। वही काम बच्चा करेगा, तो हम खुश होंगे। वही जवान करेगा, तो जेलखाने में डाल देंगे। क्यों? बच्चा कर रहा है, तो कोई परेशान नहीं हो रहा है! क्योंकि हम मानते हैं कि बच्चा अभी जिस परिस्थिति में है, उसके साथ उसका मन बिलकुल एडजस्टेड है। लेकिन आदमी जवान हो गया है और वही काम कर रहा है, तो बर्दाश्त के बाहर हो जाएगा। उसका मतलब यह है कि उसका मन रिटार्डेड है। उसका मन बच्चा था, तभी वहीं रुक गया। और वह तो बड़ा हो गया, और मन पीछे छूट गया। हमारी जिंदगी की अधिक तकलीफें यही हैं।

पिछले महायुद्ध में अमेरिका में जिन सैनिकों को भर्ती किया गया, उनके आई क्यू, उनकी बुद्धि के माप की जांच की गई पहली दफा बड़े पैमाने पर, तो बड़ी हैरानी हुई। किसी आदमी की बुद्धि तेरह साल से ज्यादा नहीं निकली। तेरह साल पर बुद्धि रुकी हुई मालूम पड़ी।

औसत बुद्धि तेरह साल पर रुक जाती है। बड़ी घबड़ाहट की बात है। आदमी सत्तर साल का हो जाता है, लेकिन बुद्धि का अंक उसका तेरह साल के पास ठहरा रहता है। इसी से सब दिक्कतें खड़ी होती हैं। जैसे बूढ़ा भी क्रोध में आ जाए, तो बच्चों की तरह पैर पटकने लगता है। वह तेरह साल की बुद्धि भीतर काम करने लगती है। रिग्रेस करना आसान हो जाता है।

आपके घर में आग लग जाए, आप एकदम पैर पटककर छाती पीटकर रोने लगते हैं, वैसे ही जैसे छोटा तीन साल का बच्चा, उसका खिलौना टूट जाए, तो रोता और छाती पीटता है। फर्क क्या है? फर्क इतना ही है कि साधारण हालतों में आप गंभीरता बनाए रखते हैं, असाधारण हालतों में आपका बचकानापन प्रकट हो जाता है। वह जुवेनाइल भीतर जो छिपा है, वह असाधारण हालत में प्रकट हो जाता है। साधारणतः अपने को सम्हाल-सम्हूलकर चलाते रहते हैं। जरा-सी कोई विशेष घटना घट जाए, पता चल जाता है कि भीतर का बच्चा जाहिर हो गया।

तेरह साल पर रुक जाती है बुद्धि! हां, जिसकी नहीं रुकती, वह जीनियस है। लेकिन नहीं रुकने का मतलब है कि गति जारी रहे। बुद्धि इतनी गतिमान रहे कि कहीं ठहरे न; हर स्थिति के साथ बदलती चली जाए; हर नई स्थिति में नई हो जाए।

तो मन को तो बदलना ही पड़ेगा। बदले मन, यही शुभ है। लेकिन यह सामर्थ्य के भीतर हो कि हम जब चाहें, तब कहें, बस। और मन शांत होकर बैठ जाए। और हम उस दिशा में भी चेहरा फेर पाएं, जहां अपरिवर्तनीय का वास है, जहां नित्य का निवास है। हम उस मंदिर की तरफ भी आंखें उठा पाएं, जहां वह रहता है, जो कभी नहीं बदलता।

और उसको देखते ही ऐसी अपूर्व शांति प्राणों को घेर लेती है। क्योंकि परिवर्तन के साथ शांति कभी नहीं हो सकती। परिवर्तन के साथ अशांति ही होगी। परिवर्तन के साथ तनाव और टेंशन ही होगा। परिवर्तन के साथ तो बेचैनी और चिंता ही होगी। अपरिवर्तनीय के साथ ही शाश्वत शांति उतर आती है।

और एक बार आदमी इस कला में निष्णात हो जाए कि जब चाहे मन को रोक दे, जब चाहे मन को गतिमान कर दे, तो वैसा व्यक्ति संसार में भी और परमात्मा में भी, दोनों में समान रूप से जीने लगता है। और वैसा व्यक्ति फिर कह पाता है कि संसार भी परमात्मा का रूप है। फिर वैसे व्यक्ति को संसार और परमात्मा में कोई शत्रुता नहीं दिखाई पड़ती।

शत्रुता हमें दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमारा मन दोनों तरफ नहीं मुड़ पाता। हमारी चेतना एक ही तरफ फिक्स्ड, फोकस्ड हो जाती है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी की गर्दन को लकवा लग जाए और वह एक ही तरफ देख पाए; सिर न घुमा पाए। हमारी वैसी मन की हालत है--लकवा खा गई, पैरेलाइज्ड। बस, संसार को ही देख पाते हैं। जब इधर देखना चाहते हैं, तो कुछ मुड़ नहीं पाता। पर इसमें कसूर मन का नहीं है। कसूर आपका है।

लेकिन इधर मैं देखता हूं कि अधिक धार्मिक लोग मन का कसूर समझकर गालियां देते रहते हैं। वह जो गालियां दे रहा है, वह भी मन है। वह जो कह रहा है, मन चंचल है, वह भी मन है। क्योंकि वह जो मन नहीं है, वह तो बोला ही नहीं कभी; वह तो अबोल है। वह जो मन नहीं है, उसने तो गाली क्या, कभी प्रशंसा भी नहीं की। उससे तो शब्द भी नहीं निकला है। वह जो धार्मिक आदमी बेचैनी जाहिर कर रहा है कि बड़ा खराब है यह मन, बड़ा दुष्ट है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं! वह मन ही कह रहा है ये सब बातें। क्योंकि मन के बाहर जो है वहां तो मौन है, सतत मौन है। वहां तो कभी कोई शब्द की झंकार पैदा नहीं हुई। वहां तो निःशब्द का निवास है।

वह मन ही कह रहा है। और मन की यह खूबी है कि वह अपने विपरीत भी वक्तव्य देता है। देना ही पड़ता है। जिसे प्रतिदिन बदलना पड़ेगा, उसे अपने ही वक्तव्य के खिलाफ बोलना पड़ेगा। एक क्षण पहले उसने कहा था कि मैं तुम्हारे लिए जान दे दूंगा। और एक क्षण बाद सोचता है कि तुम्हारी जान ले लूं! एक क्षण पहले कहा था, तुम्हारे बिना एक क्षण न जी सकूंगा; और एक क्षण बाद सोचता है कि इससे छुटकारा कैसे हो!

स्थिति बदलती है, मन बदल जाता है। मन कभी कंसिस्टेंट नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है। उसको इनकंसिस्टेंट होना ही पड़ेगा, असंगत होना ही पड़ेगा। हर बार बदलना पड़ेगा; हर बार रूप नया लेना पड़ेगा। तो मन अपने ही खिलाफ बोलता चला जाएगा। अशांत होगा, और कहेगा कि शांति चाहिए मुझे। मन ही कहेगा। मन ही कहेगा, मुझे शांति दो। और आप मन को ही मन के खिलाफ लड़ाने लगेंगे। एक मन का हिस्सा कहेगा, शांति चाहिए। और एक मन का हिस्सा अशांति को बुनता चला जाएगा। फिर आप दोनों पर एक साथ पैर रख रहे हैं, एक्सेलरेटर पर भी और ब्रेक पर भी। अब एक्सिडेंट सुनिश्चित है।

और हम में से अधिक लोग एक्सिडेंट हैं। आदमी नहीं, दुर्घटनाएं हैं। हम में से अधिक लोग दुर्घटनाएं हैं। लेकिन चूंकि सभी दुर्घटनाएं हैं, इसलिए पता लगाना मुश्किल होता है। हम सब दुर्घटनाएं हैं, क्योंकि जो हम हो सकते थे, वह हम नहीं हो पाए हैं; और जो हमें नहीं होना चाहिए था, वह हम हो गए हैं।

इसलिए तो इतनी पीड़ा है, इतना दुख है, इतनी परेशानी है। हमारी पूरी जिंदगी एक लंबी दुर्घटना है। हर चीज दुर्घटना है। प्रेम करने जाओ, घृणा हाथ लग जाती है। मित्रता बनाओ, शत्रुता बन जाती है। किसी को सुख देने जाओ, दुख के सिवा कुछ भी नहीं दिया जाता। किसी से अच्छी बात बोलो, वह न मालूम क्या समझ लेता है। वह कुछ अच्छी बात बोलता है, हम न मालूम क्या समझ लेते हैं। न कोई किसी को समझता, न कोई किसी से सहानुभूति कर पाता, न कोई किसी पर करुणा कर पाता। सब विक्षिप्त की तरह दौड़ते चले जाते हैं। और हर चीज उलझती चली जाती है।

इसीलिए तो बूढ़े आदमी कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। बचपन में था क्या आपके जिसकी वजह से सुखद था? हां, ये बुढ़ापे में जितनी आपने जटिलताएं पैदा कर लीं, ये भर नहीं थीं। और कोई खास बात नहीं थी। ये जितने उपद्रव आपने इकट्ठे कर लिए बूढ़े होते-होते, ये नहीं थे। कोई पाजिटिव, खास बात नहीं थी बचपन में। अगर होती, तो बुढ़ापा इतना उलझा हुआ नहीं हो सकता था। आपके पास कोई हीरे नहीं थे। अगर होते तो और बड़े हो गए होते; उनकी और ग्रोथ हो गई होती। कुछ नहीं था। बचपन सिर्फ कोरी स्लेट थी।

हां, बुढ़ापे में दुख होता है। कुछ लिखा नहीं था उस पर, कोई अमृत वचन नहीं लिखे थे, कोई वेद नहीं लिखा था उस पर; सिर्फ कोरी स्लेट थी। लेकिन बुढ़ापे में पाते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे कार्बन का बहुत उपयोग किया गया हो, तो जो उसकी गति हो जाती है, ऐसी सब चित्त की स्थिति हो जाती है।

कुछ समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है। और फिर भी लिखते चले जाते हैं, उसके ऊपर ही लिखते चले जाते हैं! और जटिल होता चला जाता है, आखिर में सिर्फ एक पागलपन के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता। खुद नहीं पढ़ सकते, दूसरे की तो बात अलग है। जिंदगी के बाद में जिंदगी ने क्या पाया, जिंदगी ने क्या निष्कर्ष लिया, जिंदगी कहां पहुंची, खुद नहीं बता सकते; दूसरे की तो बात अलग है।


यह होगा; यह होने वाला है। इसीलिए हम बुढ़ापे में बचपन की याद करते हैं कि बड़े सुखद दिन थे! सुखद वगैरह कुछ भी न था। बच्चों से पूछो। सब बच्चे जल्दी बड़े होना चाहते हैं। बचपन बड़ी तकलीफ में गुजरता है। क्योंकि बचपन से ज्यादा गुलामी और कभी नहीं होती जिंदगी में। मां कहती है, इधर बैठो। बाप कहता है, उधर बैठो। इसी में वक्त जाया होता है।

एक बच्चे से उसके स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा कि तू बनना क्या चाहता है? उसने कहा, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हूं। क्यों? क्योंकि मेरी मां मुझे गणितज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बाप मुझे कवि बनाना चाहता है। मेरी चाची मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बड़ा भाई मुझे नेता बनाना चाहता है। और भी बहुत रिश्तेदार हैं, वे सब बनाना चाहते हैं। और मुझे तो कुछ पता नहीं है कि मुझे क्या बनना है। बस, इस सबके बीच डोल रहा हूं।

बचपन, बच्चों से पूछो, सुखद नहीं है! बच्चे बहुत पीड़ा से गुजरते हैं। और एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक जी.एन.पियागेट ने, जिसने बच्चों के साथ कोई पचास वर्ष मेहनत की है, उसका कहना है कि पांच साल के पहले की स्मृति इसीलिए भूल जाती है, क्योंकि बहुत दुखद है। आपको याद नहीं आती, पांच साल की उम्र के पहले की कोई स्मृति याद नहीं आती। क्यों भूल जाती है? कारण क्या है? जी.एन.पियागेट कहता है कि सिर्फ इसलिए भूल जाती है कि वह इतनी दुखद है कि मन उसे याद नहीं करना चाहता। लेकिन बुढ़ापे में हम कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था, स्वर्ग था!

वह बुढ़ापे के नर्क की वजह से कह रहे हैं; और कोई कारण नहीं है। नर्क हम अपने हाथ से बना लेते हैं।

इस मन की विक्षिप्त अवस्था को जब तक कोई संयम में न ले आए, निरोध को न उपलब्ध हो जाए, तब तक प्रभु की यात्रा नहीं हो सकती है। और निरोध को उपलब्ध होने की विधि साक्षी भाव है, विटनेसिंग है, तादात्म्य को तोड़ देना है। तादात्म्य को तोड़ना ही योग है। योग का अर्थ है, जुड़ जाना।

संसार से जो टूटने की कला सीख लेता है, वह प्रभु से जुड़ने की कला सीख लेता है। वह एक ही चीज के दो नाम हैं। इसलिए जैन-शास्त्रों ने योग का बड़ा दूसरा उपयोग किया है। इसलिए कई दफे बड़ी भ्रांति होती है।

जो लोग हिंदू-शास्त्र को पढ़ते हैं और हिंदू योग की परिभाषा से परिचित हैं, वे अगर जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी हैरानी में पड़ेंगे। क्योंकि जैन-शास्त्र कहते हैं, तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता है--अयोग को, योग को नहीं!

लेकिन जैन-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, संसार से जुड़ना। तो तीर्थंकर अयोग को उपलब्ध हो जाता है; संसार से टूट जाता है। हिंदू-शास्त्र योग का अर्थ करते हैं, परमात्मा से जुड़ना। इसलिए परम ज्ञानी योग को उपलब्ध हो जाता है, क्योंकि परमात्मा से जुड़ जाता है।

अगर आप जैन-शास्त्र पढ़ेंगे, तो बड़ी बेचैनी में पड़ेंगे कि ये जैन-शास्त्र कहते हैं, योग से छूटो, अयोग को उपलब्ध हो जाओ। हिंदू-शास्त्र कहते हैं, योग को उपलब्ध होओ।

दोनों उपयोग हो सकते हैं। क्योंकि एक जगह से छूटना, दूसरी जगह जुड़ना है। संसार से छूटो, अयोग हो जाए, तो परमात्मा से योग हो जाता है। संसार से योग हो जाए, जुड़ जाओ, तो परमात्मा से अयोग हो जाता है।

कला, जो आर्ट है जीवन का, जीवन की जो कला है, वह इतनी ही है कि तुम मालिक हो जाओ। जब चाहो जुड़ सको, जब चाहो टूट सको। मालकियत इतनी हो कि क्षण का इशारा और बात बदल जाए, हवा का रुख बदल जाए, चेतना दूसरी तरफ बहने लगे। ऐसे, ऐसे स्वतंत्रचेता व्यक्ति को ही प्रभु की उपलब्धि होती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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