गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 30

  त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। ४५।।


हे अर्जुनसब वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार को विषय करने वालेअर्थात प्रकाश करने वाले हैं,
इसलिए तू असंसारीअर्थात निष्कामी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों से रहितनित्य वस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को
न चाहने वाला और आत्मवान हो।


राग और द्वेष से मुक्तद्वंद्व से रहित और शून्य
 राग और द्वेष से मुक्तदो में से एक पर होना सदा आसान है। राग में होना आसान हैविराग में भी होना आसान है। विराग द्वेष है। धन को पकड़ना आसान हैधन को त्यागना आसान है। पकड़ना राग हैत्यागना द्वेष है। राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो जाओशून्य हो जाओरिक्त हो जाओतो जिसे महावीर ने वीतरागता कहा हैउसे उपलब्ध होता है व्यक्ति।


द्वंद्व में चुनाव आसान हैचुनावरहित होना कठिन है। च्वाइस आसान हैच्वाइसलेसनेस कठिन है। कहें मन को कि इसे चुनते हैंतो मन कहता है--ठीक। कहें मन कोइसके विपरीत चुनते हैंतो भी मन कहता है--ठीक। चुनो जरूर! क्योंकि जहां तक चुनाव हैवहां तक मन जी सकता है। चुनाव कोई भी होइससे फर्क नहीं पड़ता--घर चुनोजंगल चुनोमित्रता चुनोशत्रुता चुनोधन चुनोधन-विरोध चुनोकुछ भी चुनोप्रेम चुनोघृणा चुनोक्रोध चुनोक्षमा चुनोकुछ भी चुनो--च्वाइस होतो मन जीता है। लेकिन कुछ भी मत चुनोतो मन तत्काल--तत्काल--गिर जाता है। मन के आधार गिर जाते हैं। च्वाइस मन का आधार हैचुनाव मन का प्राण है।

इसलिए जब तक चुनाव चलता है जीवन मेंतब तक आप कितना ही चुनाव बदलते रहेंइससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। संसार छोड़ेंमोक्ष चुनेंपदार्थ छोड़ेंपरमात्मा चुनेंपाप छोड़ेंपुण्य चुनें--कुछ भी चुनें। यह सवाल नहीं है कि आप क्या चुनते हैंसवाल गहरे में यह है कि क्या आप चुनते हैंअगर चुनते हैंअगर च्वाइस हैतो द्वंद्व रहेगा। क्योंकि किसी को छोड़ते हैं और किसी को चुनते हैं।

यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसे छोड़ते हैंउसे पूरा कभी नहीं छोड़ पा सकते हैं। क्योंकि जिसे छोड़ना पड़ता हैउसकी मन में गहरी पकड़ होती है। नहीं तो छोड़ना क्यों पड़ेगाअगर एक आदमी के मन में धन की कोई पकड़ न होतो वह धन का त्याग कैसे करेगात्याग के लिए पकड़ अनिवार्य है। अगर एक आदमी की कामवासना मेंसेक्स में रुचि न होलगाव न होआकर्षण न होतो वह ब्रह्मचर्य कैसे चुनेगाऔर जिसमें आकर्षण हैलगाव हैउसके खिलाफ हम चुन रहे हैंतो ज्यादा से ज्यादा हम दमन कर सकते हैंसप्रेशन कर सकते हैं। और कुछ होने वाला नहीं हैदब जाएगा। जिसे हमने इनकार कियावह हमारे अचेतन में उतर जाएगा। और जिसे हमने स्वीकार कियावह हमारा चेतन बन जाएगा।

हमारा मनजिसे अस्वीकार करता हैउसे अंधेरे में ढकेल देता है। हमारे सबके मन के गोडाउन हैं। घर में जो चीज बेकार हो जाती हैउसे हम कबाड़खाने में डाल देते हैं। ऐसे ही चेतन मन जिसे इनकार कर देता हैउसे अचेतन में डाल देता है। जिसे स्वीकार कर लेता हैउसे चेतन में ले आता है। चेतन मन हमारा बैठकखाना है।

लेकिन किसी भी आदमी का घर बैठकखाने में नहीं होता। बैठकखानों में सिर्फ मेहमानों का स्वागत किया जाता हैउसमें कोई रहता नहीं। असली घर बैठकखाने के बाद शुरू होता है। बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं हैतो भी चलेगा। कह सकते हैं कि बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है। क्योंकि घर वाले बैठकखाने में नहीं रहतेबैठकखाने में सिर्फ अतिथियों का स्वागत होता है। बैठकखाना सिर्फ फेस हैबैठकखाना सिर्फ एक चेहरा हैदिखावा है घर काअसली घर नहीं है।

 बैठकखाना एक डिसेप्शन हैएक धोखा हैजिसमें बाहर से आए लोगों को धोखा दिया जाता है कि यह है हमारा घर। हालांकि उसमें कोई रहता नहींन उसमें कोई सोतान उसमें कोई खातान उसमें कोई पीता। उसमें कोई नहीं रहतावह घर है ही नहीं। वह सिर्फ घर का धोखा है। बैठकखाने के बाद घर शुरू होता है।

चेतन मन हमाराजगत के दिखावे के लिए बैठकखाना है। उससे हम दूसरों से मिलते-जुलते हैं। लेकिन उसके गहरे में हमारा असली जीवन शुरू होता है। जब भी हम चुनाव करते हैंतो चुनाव से कोई चीज मिटती नहीं। चुनाव से सिर्फ बैठकखाने की चीजें घर के भीतर चली जाती हैं। चुनाव सेसिर्फ जिसे हम चुनते हैंउसे बैठकखाने में लगा देते हैं। वह हमारा डेकोरेशन है।

इसलिए दिनभर जो आदमी धन को इनकार करता हैकहता है कि नहींमैं त्याग को चुना हूंरात सपने में धन को इकट्ठा करता है। जो दिनभर कामवासना से लड़ता हैरात सपने में कामवासना से घिर जाता है। जो दिनभर उपवास करता हैरात राजमहलों में निमंत्रित हो जाता है भोजन के लिए।

सपने में एसर्ट करता है वह जो भीतर छिपा है। वह कहता हैबहुत हो गया दिनभर अब चुनावअब हम प्रतीक्षा कर रहे हैं दिनभर से भीतरअब हमसे भी मिलो। वह जाता नहीं हैवह सिर्फ दबा रहता है।

और एक मजे की बात है कि जो भीतर दबा हैवह शक्ति-संपन्न होता जाता है। और जो बैठकखाने में हैवह धीरे-धीरे निर्बल होता जाता है। और जल्दी ही वह वक्त आ जाता है कि जिसे हमने दबाया हैवह अपनी उदघोषणा करता हैविस्फोट होता है। वह निकल पड़ता है बाहर।

अच्छे से अच्छे आदमी कोजिसकी जिंदगी बिलकुल बढ़ियासुंदरस्मूथसमतल भूमि पर चलती हैउसे भी शराब पिला देंतो पता चलेगाउसके भीतर क्या-क्या छिपा है! सब निकलने लगेगा। शराब किसी आदमी में कुछ पैदा नहीं करती। शराब सिर्फ बैठकखाने और घर का फासला तोड़ देती हैदरवाजा खोल देती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैंचुनना मत। क्योंकि चुनाव किया कि भीतर गया वहजिसे तुमने छोड़ादबायावह अंदर गया। और जिसे तुमने उभारा और स्वीकारावह ऊपर आया। बसइससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। द्वंद्व बना ही रहेगा। और द्वंद्व क्या हैकांफ्लिक्ट क्या है?

द्वंद्व एक ही हैचेतन और अचेतन का द्वंद्व है। आपने कसम ली हैक्रोध नहीं करेंगे। कसम आपकी चेतन मन मेंकांशस माइंड में रहेगी। और क्रोध की ताकतें अचेतन मन में रहेंगी। कल कोई गाली देगाअचेतन मन कहेगाकरो क्रोध! और चेतन मन कहेगाकसम खाई है कि क्रोध नहीं करना है। और द्वंद्व खड़ा होगा। लड़ोगे भीतर।

और ध्यान रहेजब भी लड़ाई होगीतो अचेतन जीतेगा। इमरजेंसी में हमेशा अचेतन जीतेगा। बेकाम समय में चेतन जीतता हुआ दिखाई पड़ेगाकाम के समय में अचेतन जीतेगा। क्योंक्योंकि मनोविज्ञान की अधिकतम खोजें इस नतीजे पर पहुंची हैं कि चेतन मन हमारे मन का एक हिस्सा है। अगर हम मन के दस हिस्से करेंतो एक हिस्सा चेतन और नौ हिस्सा अचेतन है। नौगुनी ताकत है उसकी।

तो वह जो नौगुनी ताकत वाला मन हैवह प्रतीक्षा करता है कि कोई हर्जा नहीं। सुबह जब गीता का पाठ करते हो तब कोई फिक्र नहींकसम खाओ कि क्रोध नहीं करेंगे। मंदिर जब जाते होतब कोई फिक्र नहींमंदिर कोई जिंदगी है! कहो कि क्रोध नहीं करेंगे। देख लेंगे दुकान पर! देख लेंगे घर में! जब मौका आएगा असलीतब एकदम चेतन हट जाता है और अचेतन हमला बोल देता है।

इसीलिए तो हम कहते हैंक्रोध करने के बाद आदमी कहता है कि पता नहीं कैसे मैंने क्रोध कर लिया! मेरे बावजूद क्रोध हो गया। लेकिन आपके बावजूद क्रोध कैसे हो सकता हैनिश्चित हीआपने अपने ही किसी गहरे हिस्से को इतना दबाया है कि उसको आप दूसरा समझने लगे हैंकि वह और है। वह हमला बोल देता है। जब वक्त आता हैवह हमला बोल देता है।

यह जो द्वंद्व हैयह जो कांफ्लिक्ट हैयही मनुष्य का नरक है। द्वंद्व नरक है। कांफ्लिक्ट के अतिरिक्त और कोई नरक नहीं है। और हम इसको बढ़ाए चले जाते हैं। जितना हम चुनते जाते हैंबढ़ाए चले जाते हैं।

तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैंराग और द्वेष से--द्वंद्व सेकांफ्लिक्ट से--जो बाहर हो जाता हैजो चुनाव के बाहर हो जाता हैवही जीवन के परम सत्य को जान पाता है। और जो द्वंद्व के भीतर घिरा रहता हैवह सिर्फ जीवन के नरक को ही जान पाता है।

इस द्वंद्व-अतीत वीतरागता में ही निष्काम कर्म का फूल खिल सकता है। या निष्काम कर्म की भूमिका होतो यह द्वंद्वरहितराग-द्वेषरहितयह शून्य-चेतना फलित हो सकती है।

चेतना जब शून्य होती हैतभी शुद्ध होती है। यह शून्य का कृष्ण का कहना! चेतना जब शून्य होती हैतभी शुद्ध होती हैजब शुद्ध होती हैतब शून्य ही होती है।

करीब-करीब ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण कब शुद्धतम होता हैजब दर्पण में कुछ भी नहीं प्रतिफलित होताजब दर्पण में कोई तस्वीर नहीं बनती। जब तक दर्पण में तस्वीर बनती हैतब तक कुछ फारेनकुछ विजातीय दर्पण पर छाया रहता है। जब तक दर्पण पर कोई तस्वीर बनती हैतब तक दर्पण सिर्फ दर्पण नहीं होताकुछ और भी होता है। एक तस्वीर निकलती हैदूसरी बन जाती है। दूसरी निकलती हैतीसरी बन जाती है। दर्पण पर कुछ बहता रहता है। लेकिन जब कोई तस्वीर नहीं बनतीजब दर्पण सिर्फ दर्पण ही होता हैतब शून्य होता है।

चेतना सिर्फ दर्पण है। जब तक उस पर कोई तस्वीर बनती रहती है--कभी राग कीकभी विराग कीकभी मित्रता कीकभी शत्रुता कीकभी बाएं कीकभी दाएं की--कोई न कोई तस्वीर बनती रहती हैतो चेतना अशुद्ध होती है। लेकिन अगर कोई तस्वीर नहीं बनतीचेतना द्वंद्व के बाहरचुनाव के बाहर होती हैतो शून्य हो जाती है। शून्य चेतना में क्यो बनता हैजब दर्पण शून्य होता हैतब दर्पण ही रह जाता है। जब चेतना शून्य होती हैतो सिर्फ चैतन्य ही रह जाती है।

वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति हैवही ब्रह्म का अनुभव है। वह जो शुद्ध चैतन्य की अनुभूति हैवही मुक्ति का अनुभव है। शून्य और ब्रह्मएक ही अनुभव के दो छोर हैं। इधर शून्य हुएउधर ब्रह्म हुए। इधर दर्पण पर तस्वीरें बननी बंद हुईं कि उधर भीतर से ब्रह्म का उदय हुआ। ब्रह्म के दर्पण पर तस्वीरों का जमाव ही संसार है।

हम असल में दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। हम तो कैमरे की फिल्म की तरह व्यवहार करते हैं। कैमरे की फिल्म प्रतिबिंब को ऐसा पकड़ लेती है कि छोड़ती ही नहीं। फिल्म मिट जाती हैतस्वीर ही हो जाती है।

अगर हम कोई ऐसा कैमरा बना सकेंबना सकते हैंजिसमें कि एक तस्वीर के ऊपर दूसरी और दूसरी के ऊपर तीसरी ली जा सकेएक फिल्म पर अगर हजार तस्वीरेंलाख तस्वीरें ली जा सकेंतो जो स्थिति उस फिल्म की होगीवैसी स्थिति हमारे चित्त की है। तस्वीरों पर तस्वीरेंतस्वीरों पर तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। कनफ्यूजन के सिवाय कुछ नहीं शेष रहता। कोई शकल पहचान में भी नहीं आती है कि किसकी तस्वीर है। कुछ पता भी नहीं चलता कि क्या है।  एक दुख-स्वप्न जैसा चित्त हो जाता है।

दर्पण तो फिर भी बेहतर है। एक तस्वीर बनती हैमिट जाती हैतब दूसरी बनती है। हमारा चित्त ऐसा दर्पण हैजो तस्वीरों को पकड़ता ही चला जाता हैइकट्ठा करता चला जाता हैतस्वीरें ही तस्वीरें रह जाती हैं।

उर्दू के किसी कवि की एक पंक्ति हैजिसमें उसने कहा है कि मरने के बाद घर से बस कुछ तस्वीरें ही निकली हैं। मरने के बाद हमारे घर से भी कुछ तस्वीरों के सिवाय निकलने को कुछ और नहीं है। जिंदगीभर तस्वीरों के संग्रह के अतिरिक्त हमारा कोई और कृत्य नहीं है।

कृष्ण कहते हैंशून्यनिर्द्वंद्व चित्त...। छोड़ो तस्वीरों कोजानो दर्पण को। मत करो चुनावक्योंकि चुनाव किया कि पकड़ा। पकड़ो ही मतनो क्लिंगिंग। रह जाओ वहीजो हो। उस शून्य क्षण में जो जाना जाता हैवही जीवन का परम सत्य हैपरम ज्ञान है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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