शनिवार, 27 मई 2023

शूर्पणखा

 तभी कुटिया से सीता बाहर निकलीं ।

शूर्पणखा ने सीता को देखा - पूर्ण यौवना । असाधारण सुन्दरी स्त्री । साधारण वनवासी वेश । मुख-मंडल पर कैसी सौम्यता ! मुक्त प्राकृतिक सौन्दर्य ने जैसे नारी का रूप धारण कर लिया हो— कोई श्रृंगार नहीं, कोई प्रसाधन नहीं; और फिर भी ऐसा रूप । शूर्पणखा की कल्पना ने शृंगार से पूर्व दर्पण में देखा गया अपना रूप लाकर सीता के मुख-मंडल के साथ रख दिया - उसे अपना चेहरा कंकाल के समान दिखाई दे रहा था."

तो यह कारण है ! वह अब समझ पायी थी कि क्यों राम और सौमित्र उसका इस प्रकार उपहास करते रहे हैं। जिसकी ऐसी पत्नी हो, वह राम शूर्पणखा को क्यों स्वीकार करेगा; और जिसकी ऐसी भाभी हो, वह लक्ष्मण अपनी पत्नी के रूप शूर्पणखा की कल्पना भी कैसे करेगा यही है वह स्त्री, जिसके कारण शूर्पणखा ... आज तक गले पड़ी वस्तु के समान ठुकरायी जाती रही है । यह स्त्री उसके अपमान का कारण तो है ही- यही उसके मार्ग की बाधा भी है । इसके रहते हुए शूर्पणखा को कभी सुख नहीं मिल सकता; राम अथवा सौमित्र में से कोई भी उसे नहीं अपनाएगा. इस स्त्री को नहीं रहना चाहिए, इसे मर जाना चाहिए, इसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है.

शूर्पणखा का क्रोध छिपा नही रहा, उसकी हिंस्र वृत्ति उसके चेहरे पर प्रकट होने लगी उस पर जैसे उन्माद छा गया। उसके लिए देश-काल जैसे शून्य में विलीन हो गया । वह केवल शूर्पणखा थी, और सामने थी सीता । वह भूल गयी कि वह कहां खड़ी है, उसके आस-पास कौन है उसे तो केवल अपने मार्ग की बाधा दिखाई पड़ रही थी बाधा..

शूर्पणखा ने आविष्टावस्था में अपना उत्तरीय अलग फेंका और झटके से अपनी रसना में से कटार निकाली । सीता पर छलांग लगाने के लिए उसकी एड़ियां उठी ही थीं कि लक्ष्मण का खड्ग आकर उसके कटार से लग गया। प्रहार से पूर्व ही लक्ष्मण उसे धकेलते हुए परे ले गए।

लक्ष्मण अपने खड्ग पर शूर्पणखा का दबाव अनुभव कर रहे थे. अपने वय की स्त्री की दृष्टि से शूर्पणखा का बल असाधारण था लक्ष्मण ने झटके से अपना खड्ग हटाया, तो शूर्पणखा अपने ही जोर में धरती पर आ रही; किंतु असाधारण स्फूर्ति से वह उठी और पुनः लक्ष्मण पर झपटी । लक्ष्मण ने पुनः खड्ग का प्रहार किया । शूर्पणखा के हाथ से कटार दूर जा गिरी। भूमि पर लोटती हुई, शूर्पणखा भी कटार तक गयी और पुनः उठ खड़ी हुई । इस बार उसने लक्ष्मण पर प्रहार किया । लक्ष्मण ने उसे सीधे खड्ग पर रोका और धक्का देने पूर्व, क्षण-भर शूर्पणखा के रूप को देखा - उसके श्रृंगार का सारा वैभव लुट चुका था । केश खुलकर बिखर गए थे। वस्त्र मिट्टी से मैले हो गए थे। सुगंधित द्रवों पर धूल ने कीचड़ बना दिया था । अनेक स्थानों से शरीर छिल गया था। स्वेद और धूल ने चेहरे के लेपों को विकृत कर दिया था; और उसके हृदय के विकृत भाव - हिंसा, घृणा, उग्रता आकर उसके चेहरे पर चिपक गए थे। वह राक्षसी अत्यन्त घृणित और भयंकर रूप धारण किये हुए थी.


लक्ष्मण के झटके से शूर्पणखा की कटार पुनः हवा में उछल गयी और वह स्वयं भूमि पर जा गिरी। लक्ष्मण ने खड्ग की नोक उसके वक्ष से जा लगायी, "न्याय के अनुसार तो तेरा दंड सिवाय मृत्यु के और कुछ नहीं हो सकता; किंतु त निःशस्त्र स्त्री है और हमारे आश्रम में अकेली है, इसलिए तेरा वध नहीं करूंगा । पर अदंडित तू नहीं जाएगी । 'दंड के चिह्न !"


और लक्ष्मण ने क्षण-भर में अपने कोशल से उसकी नासिका और श्रवणों पर खड्ग की एक-एक सूक्ष्म रेखा बना दी, जिनसे रक्त की बूंदें टपक रही थीं। 'लक्ष्मण पीछे हट गए, "उठ ! और चली जा ।"


शूर्पणखा सहमी-सी उठी । उसने आशंका भरी दृष्टि से लक्ष्मण को देखा और फिर झटके से पलटकर भागी ।


सब कुछ जैसे क्षण-भर में ही हो गया था। सीता अभी तक आकस्मिकता के झटके से ही नहीं उतरी थीं । बिना यह जाने कि बाहर कौन है और क्या स्थिति है - वे असावधान -सी, सहज रूप में बाहर आयी थीं। इससे पहले कि वे शूर्पणखा को देखती और समझती कि वह कौन है तथा क्या चाहती है—-शूर्पणखा उन पर आघात कर चुकी थी । वह तो सौमित्र की ही स्फूर्ति थी, जिसने उन्हें बचा


लिया; अन्यथा जाने क्या अघटनीय घटता क्षणभर स्तब्धता रही और तब राम बोले, "आर्य जटायु की बात सत्य हुई। शूर्पणखा की उग्रता अब उग्रतर ही होगी। रावण को चुनौती भेजी जा चुकी है। कल से संघर्ष के लिए प्रस्तुत रहो ।”

नरेंद्र कोहली के उपन्यास अभ्दूय का अंश

शुक्रवार, 26 मई 2023

 बात ऋषि ने ही आरम्भ की, "राम ! मेरे इस आश्रम के निकट समुद्र में जो अशिमपुरी द्वीप है, उससे कालकेयों के पीछे-पीछे अन्य आततायियों के आने की भी पर्याप्त संभावना थी। उनके कारण इस जनपद के लोगों ने कष्ट भी बहुत सहे हैं । किंतु जब से कालकेयों का नाश हुआ है, तब से यह दिशा सुरक्षित हो गयी है। मैं तब से जमकर यहीं बैठा हूं, कि इधर से और कोई आक्रांता प्रवेश न करे । इधर तुमने चित्रकूट से आरंभ कर, अत्रि आश्रम, शरभंग, सुतीक्ष्ण, आनन्दसागर तथा धर्मभृत्य के आश्रमों के बीच का सारा क्षेत्र एक प्रकार से संगठित और शस्त्र- बद्ध कर दिया है। केवल एक ही दिशा असुरक्षित है— जनस्थान की दिशा । इसको राक्षस भी समझते हैं, इसलिए वे लोग अपना ध्यान वहीं केन्द्रित कर रहे हैं। उनके सर्वश्रेष्ठ योद्धा वहां हैं, उनके उन्नत और विकसित शस्त्र वहां हैं । और जहां राक्षसों का इतना जमघट होगा, वहां जन सामान्य का पक्ष उतना ही दुर्बल होगा। यदि इस समय राक्षसों को वहीं नहीं रोका गया, तो वह सारा क्षेत्र श्मशान में बदल जाएगा। उनकी सेनाएं यदि तुम्हारे द्वारा नाकाबन्दी किए गए क्षेत्र में घुस आयीं तो सारे किए धरे पर पानी फिर जाएगा। छोटे-छोटे आश्रम अपनी आश्रम - वाहिनियों और ग्राम वाहिनियों से साम्राज्य का सामना नहीं कर पाएंगे। अतः आवश्यक है कि इस राक्षसी सेना को वहीं रोक रखने के लिए तुम पंचवटी में एक ऐसा सबल व्यूह रचो कि राक्षसी सेना वहीं उलझकर समाप्त हो जाए ।"

अपने में डूबे - डूबे राम बड़ी तन्मयता से ऋषि की बात सुन रहे थे। यह कहना कठिन था कि वे आत्मलीन अधिक थे, अथवा ऋषि की बात सुनने में अधिक तल्लीन । कदाचित् उनमें दोहरी प्रतिक्रिया चल रही थी । "मैं आपकी योजना भली प्रकार समझ रहा हूं, और उससे सहमत भी हूं । मुझे लगता है कि अब पंचवटी के इधर के क्षेत्र में मेरी आवश्यकता नहीं है ।"

 राम का एक-एक शब्द आत्मबल से भरपूर था ।

"वह तो ठीक है, पुत्र !" ऋषि का स्वर कुछ उदास भी था, "यह बूढ़ा मन तुम्हें वहां भेजना भी चाहता है, और भेजने से डरता भी है ।"

" आप और डर ?" लक्ष्मण अनायास ही बोल पड़े। "वीरता और मूर्खता में भेद है, पुत्र !" ऋषि बोले, "निर्भय होकर तुम लोगों को वहां भेजना चाहता हूं, क्योंकि तुममें वह क्षमता दिखाई पड़ी है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है। किंतु कैसे भूल जाऊं कि वहां तुम उन अत्याचारियों का साक्षात्कार करोगे, जिनके मन में न न्याय है, न मानवता । वहां स्वयं रावण के भाई, अपने चुने हुए चौदह सहस्र सैनिकों के साथ टिके हुए हैं। वहां रावण की सगी बहन है - शूर्पणखा, जो भाई के हाथों अपने पति के वध के पश्चात् उद्दंड भी हो चुकी है और शक्ति सम्पन्न भी। वह रावण के द्वारा संरक्षित भी है और रावण के अनुशासन से मुक्त भी। जनस्थान में वे लोग हैं, जिनसे मुठभेड़ होते ही लंका की सेनाएं दौड़ी चली आएंगी। शूर्पणखा अथवा उसकी सेना का विरोध करते ही रावण ही नहीं, शिव तथा ब्रह्मा भी चौकन्ने हो उठते हैं। ऐसे शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करने के लिए तुम लोगों को भेज रहा हूं, पुत्र ! वैदेही के लिए भी मन में अनेक प्रकार की आशंकाएं हैं। नारी के प्रति राक्षसों के मन में कोई सम्मान नहीं है । इसीलिए डरता हूं। बाढ़ में चढ़ी हुई नदी के सम्मुख, चार ईंटें रखकर आशा कर रहा हूं कि वे ईंटें प्राचीर का कार्य करेंगी ।" "आप निश्चित रहें, ऋषिवर !" राम अपने आश्वस्त गंभीर स्वर में बोले, "ये ईंटें प्राचीर ही बन जाएंगी, और नदी की बाढ़ को बांध लिया जाएगा।"

गुरुवार, 25 मई 2023

 पहले कुछ दिनों से लक्ष्मण और मुखर अधिक-से-अधिक व्यस्त होते गए थे । वे लोग थोड़े-थोड़े समय के पश्चात् राक्षसों की सैनिक टुकड़ियों की गतिविधियों की सूचनाएं ला रहे थे। सूचनाओं से लगता था कि राक्षस बड़ी सावधानी से योजनाबद्ध रूप में आगे बढ़ रहे थे, और उनकी इच्छा बड़े तथा आकस्मिक आक्रमण की थी।

ग्रामवासी क्रमशः अपना भय छोड़ते गए थे और उनमें से खेतों में काम करने वालों की संख्या बढ़ती चलती गयी थी। शीघ्र ही गांव की पूरी जनसंख्या कृषि- कर्म में सम्मिलित हो गयी थी। जैसे-जैसे उनका भय कम हुआ था, स्त्रियां और बच्चे भी उस सामूहिक जीवन में सहभागी हो गए थे। कृषि के साथ ही वे अन्य गतिविधियों में भी सम्मिलित हो गए थे। करघे चलने लगे थे, कुंभकार का चाक घूमने लगा था और लकड़ी का विविध प्रकार का सामान बनने लगा था । अन्य प्रकार की शालाओं के साथ-साथ मुखर की संगीतशाला भी बहुत लोकप्रिय हो गयी थी। किंतु इतना होते हुए भी माखन और उसके साथी न तो भूमि को अपना मानने को तैयार थे और न वे लोग आश्रम के सैनिक प्रशिक्षण में सम्मिलित होने को सहमत हुए थे। इन दो कामों के लिए राम ने जब-जब प्रयत्न किया, असफल रहे। ग्राम का धातुकर्मी आश्रम के लिए शस्त्र बना देता था, किंतु अपने पास एक खड्ग रखने के लिए भी कभी तत्पर नहीं हुआ ।

इसलिए राम को ग्रामीणों की अधिक चिन्ता थी। अभी तक कुछ निश्चित नहीं था कि राक्षस कितनी संख्या में आएंगे और एक ही स्थान पर आक्रमण करेंगे अथवा एकाधिक टुकड़ियों में बंटकर, अनेक स्थानों पर धावा बोलेंगे वैसे तो अनिन्द्य की बस्ती, धर्मभृत्य का आश्रम, भीखन का ग्राम तथा आनन्दसागर का आश्रम ऐसी संचार व्यवस्था में बंधे हुए थे कि छोटी-छोटी घटनाओं की सूचनाएं भी तत्काल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच रही थीं - फिर भी यदि ग्रामवासी किसी ऐसे स्थान पर घिर गए, जहां तत्काल सहायता पहुंचाना संभव नहीं हुआ तो शस्त्रहीन होने के कारण वे लोग तनिक भी प्रतिरोध नहीं कर पाएंगे.''। दूसरी कठिनाई यह थीं कि वे नहीं चाहते थे कि राक्षस उन्हें राम के पक्ष में मानें, इसलिए वे अपनी सुरक्षा के लिए भी, आश्रम में आने को प्रस्तुत नहीं थे...

आश्रम में युद्ध समिति बैठी और विभिन्न कोणों से विचार-विमर्श किया गया। सुरक्षा की दृष्टि से खान, बस्ती, धर्ममृत्य का आश्रम, भीखन का गांव, आनन्दसागर का आश्रम तथा खेत सब ही महत्त्वपूर्ण स्थान थे। किन्तु सबसे , महत्त्वपूर्ण थी जनसंख्या । जन-प्राण की रक्षा सबसे अधिक आवश्यक थी, दूसरी कोटि में थी प्राकृतिक सम्पत्ति अर्थात् खान और खेत आनन्दसागर आश्रम में रखा हुआ शस्त्रागार भी महत्त्वपूर्ण था, किन्तु राम का तत्संबंधी प्रस्ताव मान लिया गया कि समस्त शस्त्र योद्धा अपने साथ रखें- - आवश्यक होने पर एकाधिक शस्त्र रखें, ताकि न शस्त्रागार की समस्या रहे, न ये शस्त्र शत्रुओं के हाथ पड़ें ।


नरेंद्र कोहली के उपन्यास अभ्दूय का एक अंश 

बुधवार, 24 मई 2023

 "आओ, भास्वर ! स्वागत, मुर्त !" अगस्त्य मुस्करा रहे थे।

मुर्त ने चौंककर अगस्त्य को देखा, “आपको मेरा नाम कहां से ज्ञात

हुआ ?"

"क्या वह कोई गोपनीय वस्तु है ?" ऋषि अब भी मुसकरा रहे थे।

"नहीं। पर..." 'मुर्त समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, आपका इस क्षेत्र के जन-जीवन से इतना अधिक संपर्क है कि किसी एक गांव के किसी एक साधारण व्यक्ति का खोया हुआ बेटा लौट आए, तो उसकी भी सूचना आपको हो जाए ।"

गुरु की मुसकान कुछ और गहरी हुई, "वैसे तो किसी के खोए हुए बेटे का घर लौट आना भी मानव जीवन की बहुत बड़ी घटना है; किंतु इस समाचार को हमारे आश्रम ने दूसरे ही प्रकार से देखा है। समाचार यह नहीं है कि भास्वर का बेटा मुर्त घर लौट आया है।"

"तो क्या समाचार है..?” मुर्त अचकचाता सा गुरु को देख रहा था।

" समाचार है.." गुरु की मुसकान स्निग्ध थी, "कि राक्षसों का एक जलपोत समुद्र में चुपचाप ठहर गया । उसमें से एक नाव जल में उतारी गयी और वह नाव एक व्यक्ति को समुद्र तट पर उतारकर चुपके से लौट गयी । वह व्यक्ति जो तट पर उतारा गया, भास्वर का बेटा मुर्त तो है ही, रावण के अनेक विशाल जलपोतों का निर्माता तथा नियंत्रक रहा है; और जल परिवहन के साधनों का अधिकारी विद्वान है।"

"क्या ?" मुर्त का मुख आश्चर्य से खुल गया, "आप यह कैसे जानते हैं ? ये तथ्य मेरे माता-पिता तक नहीं जानते। उन्होंने कभी यह जानने की चिंता ही नहीं की । ...."

" उन्हें इन बातों की भी चिंता करनी चाहिए, यह मैं उन्हें सिखा रहा हूं ।" " पर आपको ये सूचनाएं कैसी मिलीं ?"

"मेरे अपने साधन हैं, पुत्र ! समय आने पर तुम्हें ज्ञात हो जाएगा गुरु मुसकराए, “बताओ, तुम्हारा कार्यक्रम क्या है ? मेरा तात्पर्य है कि रावण के साम्राज्य का वैभव देखने के पश्चात् तुम इस वानर- यूथ के सदस्य बनकर यहां रहना चाहोगे ? रह सकोगे ? या लौट जाओगे ?"

"बाधा तो मुझे यहां है ही, ऋषिवर!" मुर्त का स्वर अनायास ही सम्मानपूर्ण हो गया, "मुझे यहां रुकने में तो कोई लाभ नहीं दिखता ।"

"लाभ किस दृष्टि से, पुत्र ?" ऋषि ने पूछा, "तुम्हारी आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से, तुम्हारे माता-पिता के सुख की दृष्टि से अथवा तुम्हारे जनपद और यूथ की प्रगति की दृष्टि से ?"

मुर्त क्षण-भर के लिए मौन रहा, फिर बोला, "मैंने इस ढंग से सोचा ही नहीं है । मैंने केवल अपने लाभ की बात कही है; और लाभ से मेरा अभिप्राय है सुख, जो भौतिक समृद्धि से ही मिल सकता है।"

"तुमने बहुत ठीक सोचा है, पुत्र !" ऋषि बोले, "रावण के साम्राज्य के किसी भी जलपत्तन में तुम्हें अपने ज्ञान और कौशल को बेचने पर पुष्कल धन प्राप्त होगा। संभव है कि तुम्हारे हाथ में कुछ प्रस्ताव भी हों, और तुम उन्हीं को ध्यान में रखकर सुख-सुविधा को नाप रहे हो ।"

"आप ठीक कह रहे हैं।" मुर्त ने सहज ही स्वीकार कर लिया, "वस्तुतः मेरे पास अनेक जलपत्तनाधिकारियों के ही प्रस्ताव नहीं हैं, साम्राज्य की जल-सेना ने भी मुझसे जलपोतों के निर्माण के लिए अनुरोध किया है। मैं उनमें से किसी एक 'प्रस्ताव को भी मान लूं तो मुझ अकेले के पास इतना धन हो जाएगा, जितना इस सारे जनपद के पास नहीं है ।"

" तुम्हारे सुख के लिए यही उचित भी है ।" अगस्त्य कुछ वक्र होकर बोले, " मेरा परामर्श है कि तुम वापस लौट जाओ । रावण की जल सेना के लिए नये, दृढ़, शक्तिशाली तथा अधिक प्रहारक जलपोतों का निर्माण करो । उसकी सेना उन जलपोतों को लेकर आएगी और इस सारे समुद्र तट पर आक्रमण करेगी। यहां से स्त्रियों, पुरुषों तथा बच्चों का उसी प्रकार अपहरण करेगी, जिस प्रकार उन्होंने एक दिन तुम्हारा अपहरण किया था। यहां की उपज वह लूटकर ले जाएगी। यहां के घर, खेत और उद्यान नष्ट करेगी। यहां किसी को नौका तक का पता नहीं है, युद्धपोतों का क्या कहना। कोई उनको रोक नहीं पाएगा और वे सकुशल लोट जाएंगे। ...."

" ऋषिवर!..." मुर्त ने कुछ कहना चाहा।

"पूरी बात सुन लो, पुत्र !" अगस्त्य शांत स्वर में बोले, "उन अपहृत लोगों में तुम्हारे वृद्ध माता-पिता भी हो सकते हैं। तुम्हारी मां युवती नहीं है, अतः वह किसी की भोग्या नहीं हो सकती। तुम्हारा पिता किसी के यहां श्रमिक नहीं हो सकता। उन्हें या तो वे लोग खरीदेंगे, जो उनकी हत्या कर उनका मांस बेचेंगे, या वे भूखे-प्यासे मरने को छोड़ दिए जाएंगे। उनके पास अन्न के लिए धन नहीं होगा । अतः वे किसी मार्ग पर घिसटते घिसटते संज्ञाशून्य होकर गिर पड़ेंगे और मर जाएंगे। उनके शवों को भी कोई उठाकर ले जाएगा और पशु-मांस में मिलाकर, उनका मांस बेच देगा। तुम्हारा दास उसे खरीदकर लाएगा और पकाकर तुम्हें खिलाएगा..."

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...