तभी कुटिया से सीता बाहर निकलीं ।
शूर्पणखा ने सीता को देखा - पूर्ण यौवना । असाधारण सुन्दरी स्त्री । साधारण वनवासी वेश । मुख-मंडल पर कैसी सौम्यता ! मुक्त प्राकृतिक सौन्दर्य ने जैसे नारी का रूप धारण कर लिया हो— कोई श्रृंगार नहीं, कोई प्रसाधन नहीं; और फिर भी ऐसा रूप । शूर्पणखा की कल्पना ने शृंगार से पूर्व दर्पण में देखा गया अपना रूप लाकर सीता के मुख-मंडल के साथ रख दिया - उसे अपना चेहरा कंकाल के समान दिखाई दे रहा था."
तो यह कारण है ! वह अब समझ पायी थी कि क्यों राम और सौमित्र उसका इस प्रकार उपहास करते रहे हैं। जिसकी ऐसी पत्नी हो, वह राम शूर्पणखा को क्यों स्वीकार करेगा; और जिसकी ऐसी भाभी हो, वह लक्ष्मण अपनी पत्नी के रूप शूर्पणखा की कल्पना भी कैसे करेगा यही है वह स्त्री, जिसके कारण शूर्पणखा ... आज तक गले पड़ी वस्तु के समान ठुकरायी जाती रही है । यह स्त्री उसके अपमान का कारण तो है ही- यही उसके मार्ग की बाधा भी है । इसके रहते हुए शूर्पणखा को कभी सुख नहीं मिल सकता; राम अथवा सौमित्र में से कोई भी उसे नहीं अपनाएगा. इस स्त्री को नहीं रहना चाहिए, इसे मर जाना चाहिए, इसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है.
शूर्पणखा का क्रोध छिपा नही रहा, उसकी हिंस्र वृत्ति उसके चेहरे पर प्रकट होने लगी उस पर जैसे उन्माद छा गया। उसके लिए देश-काल जैसे शून्य में विलीन हो गया । वह केवल शूर्पणखा थी, और सामने थी सीता । वह भूल गयी कि वह कहां खड़ी है, उसके आस-पास कौन है उसे तो केवल अपने मार्ग की बाधा दिखाई पड़ रही थी बाधा..
शूर्पणखा ने आविष्टावस्था में अपना उत्तरीय अलग फेंका और झटके से अपनी रसना में से कटार निकाली । सीता पर छलांग लगाने के लिए उसकी एड़ियां उठी ही थीं कि लक्ष्मण का खड्ग आकर उसके कटार से लग गया। प्रहार से पूर्व ही लक्ष्मण उसे धकेलते हुए परे ले गए।
लक्ष्मण अपने खड्ग पर शूर्पणखा का दबाव अनुभव कर रहे थे. अपने वय की स्त्री की दृष्टि से शूर्पणखा का बल असाधारण था लक्ष्मण ने झटके से अपना खड्ग हटाया, तो शूर्पणखा अपने ही जोर में धरती पर आ रही; किंतु असाधारण स्फूर्ति से वह उठी और पुनः लक्ष्मण पर झपटी । लक्ष्मण ने पुनः खड्ग का प्रहार किया । शूर्पणखा के हाथ से कटार दूर जा गिरी। भूमि पर लोटती हुई, शूर्पणखा भी कटार तक गयी और पुनः उठ खड़ी हुई । इस बार उसने लक्ष्मण पर प्रहार किया । लक्ष्मण ने उसे सीधे खड्ग पर रोका और धक्का देने पूर्व, क्षण-भर शूर्पणखा के रूप को देखा - उसके श्रृंगार का सारा वैभव लुट चुका था । केश खुलकर बिखर गए थे। वस्त्र मिट्टी से मैले हो गए थे। सुगंधित द्रवों पर धूल ने कीचड़ बना दिया था । अनेक स्थानों से शरीर छिल गया था। स्वेद और धूल ने चेहरे के लेपों को विकृत कर दिया था; और उसके हृदय के विकृत भाव - हिंसा, घृणा, उग्रता आकर उसके चेहरे पर चिपक गए थे। वह राक्षसी अत्यन्त घृणित और भयंकर रूप धारण किये हुए थी.
लक्ष्मण के झटके से शूर्पणखा की कटार पुनः हवा में उछल गयी और वह स्वयं भूमि पर जा गिरी। लक्ष्मण ने खड्ग की नोक उसके वक्ष से जा लगायी, "न्याय के अनुसार तो तेरा दंड सिवाय मृत्यु के और कुछ नहीं हो सकता; किंतु त निःशस्त्र स्त्री है और हमारे आश्रम में अकेली है, इसलिए तेरा वध नहीं करूंगा । पर अदंडित तू नहीं जाएगी । 'दंड के चिह्न !"
और लक्ष्मण ने क्षण-भर में अपने कोशल से उसकी नासिका और श्रवणों पर खड्ग की एक-एक सूक्ष्म रेखा बना दी, जिनसे रक्त की बूंदें टपक रही थीं। 'लक्ष्मण पीछे हट गए, "उठ ! और चली जा ।"
शूर्पणखा सहमी-सी उठी । उसने आशंका भरी दृष्टि से लक्ष्मण को देखा और फिर झटके से पलटकर भागी ।
सब कुछ जैसे क्षण-भर में ही हो गया था। सीता अभी तक आकस्मिकता के झटके से ही नहीं उतरी थीं । बिना यह जाने कि बाहर कौन है और क्या स्थिति है - वे असावधान -सी, सहज रूप में बाहर आयी थीं। इससे पहले कि वे शूर्पणखा को देखती और समझती कि वह कौन है तथा क्या चाहती है—-शूर्पणखा उन पर आघात कर चुकी थी । वह तो सौमित्र की ही स्फूर्ति थी, जिसने उन्हें बचा
लिया; अन्यथा जाने क्या अघटनीय घटता क्षणभर स्तब्धता रही और तब राम बोले, "आर्य जटायु की बात सत्य हुई। शूर्पणखा की उग्रता अब उग्रतर ही होगी। रावण को चुनौती भेजी जा चुकी है। कल से संघर्ष के लिए प्रस्तुत रहो ।”
नरेंद्र कोहली के उपन्यास अभ्दूय का अंश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें