शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 9 भाग 6

 ज्ञान, भक्‍ति, कर्म


ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्‍वेन पृथक्‍त्‍वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। 15।।

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमीग्नरहं हुतम्।। 16।।


कोई तो मुझ विराट स्वरूप परमत्‍मा को ज्ञान— यज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्व भाव से अर्थात जो कुछ है सब वासुदेव ही है, हम भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथकत्व भाव से अर्थात स्वामी— सेवक भाव से और कोई—कोई अच्छे प्रकार से भी उपासते हैं।

क्योंकि श्रोत—कर्म अर्थात वेदविहित कर्म मैं हूं, यज्ञ मैं हूं, स्वधा अर्थात पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न मैं हूं औषधि अर्थात सब वनस्‍पतियां मै हूं एवं मंत्र मैं है घृत मैं हूं अग्नि मैं हूं और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूं।


 मार्ग हैं अनेक, गंतव्य एक है। यात्रा—पथ बहुत हैं, यात्री भी बहुत हैं, यात्रा की विधियां भी बहुत हैं, लेकिन जब तक यात्री नहीं मिट जाता, यात्रा—पथ नहीं मिट जाता, यात्रा की विधियां नहीं मिट जातीं, तब तक वह उपलब्ध नहीं होता, जो गंतव्य है।

परमात्मा तक पहुंचने के लिए दो व्यक्तियों के लिए एक ही मार्ग नहीं हो सकता, असंभव है, क्योंकि दो व्यक्ति भिन्न हैं। वे जो भी करेंगे, भिन्न होगा, वे जैसे भी करेंगे, भिन्न होगा। और हमें यात्रा वहां से शुरू करनी होती है, जहां हम हैं।

मैं वहीं से यात्रा शुरू करूंगा, जहां मैं हूं। आप वहां से यात्रा शुरू करेंगे, जहां आप हैं। हमारी यात्रा का प्रारंभिक बिंदु एक नहीं हो सकता, क्योंकि दो व्यक्ति एक ही जगह खड़े नहीं हो सकते। लेकिन यात्रा का अंतिम पड़ाव एक हो सकता है, क्योंकि उस पड़ाव पर व्यक्ति मिट जाते हैं। व्यक्तियों के मिटते ही व्यक्तियों की भिन्नता मिट जाती है।

जब तक मैं व्यक्ति हूं, तब तक मैं जो भी करूंगा वह भिन्न होगा, इस सत्य को न समझ लेने से मनुष्य के धर्म का इतिहास अकारण ही रक्तपात से, अकारण ही हिंसा से, अकारण ही द्वेष से भर गया है।

प्रत्येक को ऐसी प्रतीति हो सकती है कि जिस मार्ग पर मैं जा रहा हूं वह सही है। इस प्रतीति में कोई भूल भी नहीं है। लेकिन जैसे ही यह भ्रांति भी भर जाती है कि जिस मार्ग से मैं जा रहा हूं वही सही है, वैसे ही उपद्रव शुरू हो जाता है। शायद इतने से भी उपद्रव न हो, अगर मैं यह जानूं कि यह मार्ग मेरे लिए सही है। मेरे लिए यही मार्ग सही है। लेकिन अहंकार यहीं तक रुकता नहीं। अहंकार एक निष्कर्ष अनजाने ले लेता है कि जो मेरे लिए सही है, वही सबके लिए भी सही है।

और ध्यान रहे, जो दूसरों को गलत करने में लग जाता है, उसकी शक्ति और ऊर्जा उस मार्ग पर तो चल ही नहीं पाती, जिसे उसने सही कहा है, उसकी शक्ति और ऊर्जा उनको गलत करने में लग जाती है, जिन पर उसे चलना ही नहीं है।

यह उपद्रव और भी गहन हो गया, क्योंकि हमने धर्मों को जन्मजात बना लिया। धर्म जन्मजात नहीं हो सकता। धर्म तो व्यक्तिजात होगा। कोई व्यक्ति पैदाइश से न हिंदू हो सकता है, न मुसलमान हो सकता है, न ईसाई हो सकता है, न जैन हो सकता है। पैदाइश से तो केवल संभावना लेकर पैदा होता है कि धार्मिक हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है।

ये दो संभावनाएं होती हैं, ये दो दरवाजे खुले होते हैं—धार्मिक हो सकता है या अधार्मिक हो सकता है। लेकिन हिंदू या मुसलमान या ईसाई पैदाइश से कोई नहीं होता। हो भी नहीं सकता। क्योंकि पिता का धर्म, या पिता की मान्यता खून से बच्चे में प्रवेश नही करती। और हम किसी आदमी की हड्डियों और खून की जांच करके नहीं कह सकते हैं कि ये मुसलमान की हैं, कि हिंदू की हैं, कि जैन की हैं। एक व्यक्ति के शरीर की हम सारी जांच—पड़ताल कर डालें, उसके जीवकोष्ठों में प्रवेश कर जाए, उसके मूल बीज—सब में उतर जाएं, उसकी भी जांच कर लें, तो धर्म का कोई भी पता नहीं चलेगा।

लेकिन एक उपद्रव पैदा हुआ कि हमने धर्मों को जन्मजात कर लिया है। तो एक मुसलमान के बेटे को मुसलमान होना पड़ता है, एक हिंदू के बेटे को हिंदू होना पड़ता है। जरूरी नहीं है कि यह बात उसके व्यक्तित्व के ढांचे से मेल खाए। तब खतरे होते हैं। तब खतरा बड़ा यह होता है कि जो धर्म उसका मार्ग बन सकता था, वह जन्म से उसे अगर न मिला हो, तो अड़चन पैदा हो जाती है। वह अड़चन गहरी है।

जन्म एक और बात है। धर्म एक और बात है। जन्म शरीर की बात है, धर्म व्यक्ति के टाइप की खोज है। धर्म व्यक्ति की अंतरात्मा की तलाश है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही ढंग से अपने धर्म को खोजना चाहिए। स्वधर्म की खोज जन्म से पूरी नहीं होती, स्वधर्म की खोज करनी पड़ती है।

इसलिए एक और घटना घटती है कि सभी धर्म जब पहली दफा अवतरित होते हैं, तो उनमें जो जीवन और जो तेज होता है, वह समय के बीतते—बीतते क्षीण हो जाता है। जब भी कोई नया धर्म अवतरित होता है—नए धर्म का अर्थ है, जब कोई नया टाइप, व्यक्तित्व का कोई नया ढंग परमात्मा की तरफ जाने का मार्ग खोज लेता है, तो एक नए धर्म का सूत्रपात होता है—जब भी कोई नया धर्म पैदा होता है, तो उसमें एक ताजगी, एक प्रफुल्लता, एक जीवन का बहाव होता है।

कृष्ण की मौजूदगी में जो कृष्ण के आस—पास घटित हुआ था, वह आज नहीं हो सकता। महावीर के साथ जो पहली दफा जैन हुए थे, उनके बच्चे उसी अर्थों में जैन नहीं हो सकते। क्योंकि महावीर के पास जिन्होंने पहली दफा जैन होने का निर्णय लिया था, वह उनका चेतना से लिया गया संकल्प था। वह उन्होंने चुना था। वह उनकी अपनी निष्ठा थी। वह उधार नहीं थी। वह बाप—दादों से नहीं आई थी। उसके लिए उन्होंने स्वयं खोज की थी।

इसलिए महावीर के आस—पास जो लोग जैन हुए, उनके जैन होने में जो रस था, उनके जैन होने में जो प्राण था, वह किसी जैन के बेटे को नहीं हो सकता। होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह रस और प्राण स्वयं के चुनाव से उत्पन्न होता है।

अगर कोई व्यक्ति गलत मार्ग भी चुन ले अपनी पूरी निष्ठा के साथ, तो मैं कहता हूं वह परमात्मा तक पहुंच जाएगा। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती है, मार्ग नहीं। और कोई व्यक्ति अगर उधार निष्ठा से ठीक से ठीक मार्ग भी चुन ले, तो कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है। क्योंकि निष्ठा पहुंचाती है, मार्ग नहीं। निष्ठा है बल। मार्ग में बल नहीं है, मेरे संकल्प में बल है।

लेकिन जन्म से तो संकल्प मिलता नहीं! जन्म से सिद्धात मिलते हैं, शास्त्र मिलता है, जन्म से शब्द मिलते हैं, संकल्प नहीं मिलता। इसलिए जन्म के साथ जब तक दुनिया में धर्म बंधा रहेगा, तब तक दुनिया अधार्मिक रहने को मजबूर रहेगी, आदमी को अधार्मिक रहना पड़ेगा। क्योंकि हम धार्मिक होने का चुनाव नहीं देते।

इसे ऐसा समझें, मैं मुसलमान घर में पैदा हुआ हूं। अगर वह मार्ग मेरी व्यक्तिगत रुझान में नहीं बैठता, अगर वहां मैं नहीं हूं, जहां से उस मार्ग पर चल सकूं अगर मैं ऐसा नहीं हूं, जो उस मार्ग से संयुक्त हो सके, अगर मुझ में और उस मार्ग में कोई तालमेल नहीं बैठता तो मेरे सामने एक ही उपाय रह जाता है कि मैं अधार्मिक हो जाऊं।

इस दुनिया में जो इतने अधार्मिक लोग दिखाई पड़ते हैं, इतने अधार्मिक नहीं हैं ये! इनका केवल दुर्भाग्य एक है कि ये जन्म के साथ धर्म को बांधने की चेष्टा में संलग्न हैं। और जब हम बीस—पच्चीस वर्ष तक एक व्यक्ति को एक धर्म की शिक्षा दें, तो वह उसके अंतस—चेतन में प्रवेश कर जाती है, फिर वह धर्म परिवर्तित भी नहीं कर सकता।

अगर एक हिंदू मुसलमान हो जाए, वह लाख उपाय करे मुसलमान होने का, उसके भीतर का हिंदू जो पच्चीस साल तक उसके भीतर निर्मित हुआ है, कभी भी मिट नहीं सकता। कभी भी मिट नहीं सकता, वह उसके भीतर बना ही रहेगा।

एक हिंदू ईसाई हो जाए, लेकिन उसके अंतस—चेतन में जो प्रवेश कर गया है, वह उसकी आधारभूमि रहेगी। उसकी ईसाइयत के नीचे हिंदू का रंग रहेगा। वह चर्च में जीसस को हाथ जोड़ेगा, लेकिन हाथ जोड्ने के ढंग वही होंगे, जो राम के मंदिर में रहे थे। उसका अंतस—चेतन, उसका अनकांशस निर्मित हो चुका है।

अब मनसविद कहते हैं कि सात साल में अंतस—चेतन निर्मित हो जाता है। और सात साल के बाद उसे बदलना असंभव के करीब है। सात साल की उम्र में अंतस—चेतन निर्मित हो जाता है, आधार रख दिए जाते हैं, फिर भवन उसके ऊपर ही उठेगा।

अगर एक व्यक्ति को ऐसे धर्म में जन्म मिल गया, जिससे उसका मेल नहीं खाता—और सौ में से नब्बे मौके पर यह घटना घटेगी। क्योंकि जन्म का धर्म से कोई संबंध नहीं है, धर्म का संबंध संकल्पपूर्वक चुनाव से है। व्यक्ति को धार्मिक होना पड़ता है, धार्मिक कोई पैदा नहीं हो सकता। और यह गौरव की बात है। अगर हम धार्मिक पैदा ही होते हों, तो धर्म बड़ी साधारण बात रह जाएगी। अगर हम धार्मिक इसी तरह होते हों—जैसे बाप से आंख पाते हैं, जैसे बाप से हाथ पाते हैं, जैसे बाप से शरीर का रंग पाते हैं—अगर ऐसे ही हम धर्म भी पाते हों, तो धर्म भी बायोलाजिकल, एक जैविक घटना हो जाएगी।

तब तो इसका अर्थ हुआ कि शरीर ही नहीं, आत्मा भी हम बाप से पाते हैं; जो कि सरासर झूठ है। शरीर मिलता है माता और पिता से, तो शरीर का जो भी है, वह माता—पिता से मिलता है। लेकिन आत्मा माता—पिता से नहीं मिलती, आत्मा की यात्रा अन्यथा है, अलग है।

और आत्मा की यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण मुकाम यह है कि आत्मा हर संकल्प से विकसित होती है। जितना बडा संकल्प, उतनी आत्मा सबल होती है। और धर्म इस जगत में सबसे बड़ा संकल्प है, सबसे बड़ी चुनौती है, सबसे बड़ा अभियान है, दुस्साहस है। क्योंकि अज्ञात में छलांग है, उसकी खोज है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं, उस तरफ की यात्रा है, जिस तरफ के हमें कोई संकेत भी नहीं मिलते, उस सागर में उतरना है, जिसका कोई नक्शा नहीं है। और एक अनजान में, अपरिचित मार्ग पर भटक जाने का डर है, पहुंच जाने की उम्मीद कम है। इसलिए धर्म सबसे बड़ा साहस है; दुस्साहस है। कमजोर का काम नहीं है धर्म। लेकिन आमतौर से हम देखते हैं, कमजोर धर्म से जुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है। अक्सर ऐसा दिखाई पड़ता है, जितने कमजोर लोग हैं, वे सब धर्म की आड़ में खड़े हो जाते हैं। इन कमजोरों ने ही धर्म को जन्म का हिस्सा बना दिया, क्योंकि सुविधा है उसमें। धर्म को भी चुनने की कठिनाई न रही! इतना भी श्रम न उठाना पड़ेगा अब कि धर्म को चुनें। वह भी जन्म के साथ जुड़कर लेबिल की तरह मिल जाएगा। उसे हमें चुनना नहीं पड़ेगा, खोजना नहीं पड़ेगा, अन्वेषण नहीं करना पड़ेगा, भूल—चूक नहीं करनी पड़ेगी, बच जाएंगे सब भूल—चूक से! तो फिर एक लेबिल ही मिलेगा, धर्म मिलने वाला नहीं है!

कृष्ण ने कहा है कि स्वधर्म। लेकिन लोग अक्सर समझते हैं कि स्वधर्म का मतलब है, जिस धर्म में पैदा हुए! भूलकर ऐसा मत समझना! कोई धर्म में पैदा होता ही नहीं, धर्म खोजना पड़ता है। यह एक अंतखोंज है। यह एक अंतखोंज है सत्य की, और निजी है। और हर आदमी को खोजना पड़ता है। यह उधार मिलता ही नहीं।

अगर कोई सोचता हो, किसी गुरु से मिल जाएगा, अगर कोई सोचता हो, किसी से मिल जाएगा, तो गलती है। खोजना ही पड़ेगा। खोजेंगे, तो ही गुरु भी मिलेगा। खोजेंगे, तो ही किसी से भी मिलने का मार्ग साफ होगा। लेकिन यह  हस्तांतरण से नहीं मिलता। कोई ट्रासफर नहीं कर सकता। कोई बाप लिख नहीं जा सकता कि मेरे धन के साथ मैं धर्म भी अपने बेटे को वसीयत में देता हूं। नहीं तो दुनिया में जैसे धन बढ़ गया, ऐसे ही धर्म भी बढ़ गया होता।

दुनिया में धन बहुत बढ़ गया है। दो हजार साल पीछे लौटें, धन और कम था। और पांच हजार साल पीछे लौटें, धन और कम था। दुनिया में सब चीजें बढ़ गईं, जिनकी वसीयत हो सकती थी। सिर्फ धर्म नहीं बढ़ा। बल्कि धर्म कम हो गया मालूम पड़ता है। जरूर कहीं कोई फर्क है।

जो भी चीज वसीयत की जा सकती है, वह बढ़ जाएगी। दुनिया की भाषाएं बढ़ गईं, दुनिया का वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ गया, दुनिया में किताबें बढ़ गईं, दुनिया के मकान बढ़ गए; दुनिया में आदमी बढ़ गए। दुनिया में सब बढ़ गया है, जो भी वसीयत हो सकती है। क्योंकि बाप दे जाता है बेटे को, तो बाप ने जो भी कमाया था, उसके ऊपर बेटा कमाना शुरू करता है। फिर बेटा उसमें जोड़ देता है, अपने बेटे को दे जाता है। बाप की भी कमाई, अपनी भी कमाई, बेटा वहा से शुरू करता है।

तो जगत में सब चीजें बढ़ती जा रही हैं, प्रोग्रेसिव हैं, गतिमान हैं, सिर्फ एक चीज घटती जा रही है, वह धर्म है। लेकिन शायद आपने कभी सोचा न हो, इसका कारण क्या है? यह धर्म क्यों घटता जा रहा है?

नासमझ हैं, वे कहते हैं कि धर्म इसलिए घट रहा है कि वैज्ञानिकों ने अधार्मिक बातें कर दीं, वे कहते हैं, लोग नास्तिक हो गए; वे कहते हैं, लोग भौतिकवादी हो गए; वे कहते हैं, लोग बिगड़ गए। ये सब बातें गलत हैं। कोई बिगड़ा नहीं है। कोई नास्तिक नहीं हो गया है। किसी भौतिकवादी की बातों से धर्म का कुछ बिगड़ नहीं सकता। और धर्म अगर इतना कमजोर है कि वैज्ञानिक की बातों से मिट जाए और भौतिकवादी की बातों से मिट जाए, तो किसी योग्य भी नहीं है, मिट ही जाना चाहिए। धर्म इतना कमजोर नहीं है। धर्म के घट जाने का कारण और है।

धर्म वसीयत नहीं किया जा सकता। इसलिए आप धर्म के मामले में अपने बाप के कंधे पर खड़े नहीं हो सकते। आपको अपने ही पैर की जमीन खोजनी पड़ती है। इसलिए धर्म में बढ़ती नहीं हो सकती है हर पीढ़ी के साथ। एक ही रास्ता है बढ़ती का कि हर पीढ़ी धर्म को खोजती चली जाए। लेकिन अगर हम अपने बाप की वसीयत पर सोचते हों कि धर्म मिल जाएगा, तो धर्म खो जाएगा। तब हम झूठे धर्म में खड़े रह जाएंगे।

इसलिए कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत कीमत की बात कही है। पहली, कि बहुत—बहुत रूपों से मेरी तरफ मार्ग आते हैं। कोई हैं, जो मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को ज्ञान के द्वारा पूजते हैं। ज्ञान ही उनका यश है। एकत्व— भाव से, जो कुछ है, सब वासुदेव ही है, ऐसे भाव से उपासते हैं। यह पहला वर्ग है बड़ा।

तीन वर्ग हैं। एक वर्ग है, जिसके व्यक्तित्व का ढांचा ज्ञान का है। इसे हम थोड़ा समझ लें। इसमें भी बहुत शाखाएं होंगी, लेकिन फिर भी एक मोटा विभाजन किया जा सकता है।

एक वर्ग है मनुष्य का, जिसका ढांचा ज्ञान का है। ज्ञान के ढाचे से अर्थ है, ऐसा व्यक्ति जानने को आतुर होता है। ऐसा व्यक्ति अपना जीवन भी गंवा सकता है जानने के लिए। जानना उसका सबसे बड़ा रस है। जिज्ञासा उसका मार्ग है। वह कुछ भी खो सकता है। वह कुछ भी दाव पर लगा सकता है। उसे अगर इतना भर पता चले कि एक इंच ज्यादा मेरा जानना हो जाएगा, तो वह सब कुछ दांव पर लगा सकता है। अगर आप ऐसे व्यक्ति से पूछें कि जानकर क्या करोगे? तो वह कहेगा, जानकर करने की कोई जरूरत नहीं, जानना काफी है। ऐसा व्यक्ति कहेगा कि जानना पर्याप्त है। वह कहेगा, जानना जानने के लिए ही। जानना काफी है, और क्या करना है!  जानना काफी है। उसके लिए जानना ही उसकी आत्मा बन जाती है।

जो जानने की दिशा में चलेगा, वह अंततः पाएगा कि एक ही शेष रहा, क्योंकि ज्ञान का जो अंतिम चरण है, वह अद्वैत है। क्यों ऐसा है, इसे हम थोड़ा समझें।

जब भी हम कुछ जानते हैं, जब भी हम कुछ जानते हैं, तो जानने की घटना में तीन हिस्से टूट जाते हैं। जानने वाला अलग हो जाता है, जिसे जानता है, वह जानी जाने वाली चीज अलग हो जाती है और दोनों के बीच ज्ञान का संबंध घटित होता है। तो ज्ञान तीन हिस्से में टूट जाता है, ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान। ज्ञान तीन हिस्सों में टूट जाता है।



लेकिन ज्ञानी की जो आकांक्षा है, वह किसी चीज को बाहर से जानने की नहीं है। क्योंकि बाहर से जाना, तो क्या जाना! अगर मैं आपके पास आऊं और आपके चारों तरफ घूमकर आपको जान लूं तो जानने वाले की इच्छा पूर्ण नहीं होगी, क्योंकि यह जानना न हुआ, केवल परिचय हुआ। अगर मैं जाऊं और एक वृक्ष के चारों तरफ चक्कर लगाकर देख लूं तो यह जानना न हुआ; एक्येनटेंस हुआ, पहचान हुई।


तो जानने की जिसकी खोज है, वह इतने से राजी नहीं होगा। वह तो कहेगा, जब तक मैं वृक्ष ही न हो जाऊं, तब तक जानना पूरा नहीं है। क्योंकि जब तक मैं वृक्ष से जरा भी दूर रहूंगा, तब तक बाहरी परिचय रहेगा, भीतरी पहचान नहीं होगी। भीतरी पहचान का तो एक ही रास्ता है कि मैं वृक्ष के फूल को बाहर से न देखूं इस तरह वृक्ष में लीन हो जाऊं कि मैं फैल जाऊं वृक्ष के पत्तों में, शाखाओं में, जड़ों में, फूल में। मैं वृक्ष के भीतर एक हो जाऊं। मुझमें और वृक्ष में रत्तीभर का फासला न रह जाए, तब जानना घटित होगा। तब मैं कह सकूंगा, मैंने वृक्ष को जाना। अगर बाहर से ही जाना, तो इतना ही कह सकूंगा कि वृक्ष की थोड़ी मुझे पहचान है। लेकिन दूरी है इस पहचान में।


तो ज्ञान की प्रक्रिया में टूट जाती है घटना तीन में। लेकिन जो ज्ञान का खोजी है, वह इस कोशिश में रहेगा कि एक दिन ऐसा आए, जब ज्ञाता ज्ञेय हो जाए; व्हेन दि नोअर बिकम्स दि नोन, ऑर दि नोन बिकम्स दि नोअर, व्हेन दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्ब्द, जब दोनों एक हो जाएं। उसके पहले ज्ञानी की तृप्ति नहीं है।


इसलिए अगर हम ज्ञानी से कहें कि परमात्मा आकाश में है, वह मानने को राजी नहीं होगा। वह तो कहेगा, जब मेरी अंतरात्मा में होगा, तभी मैं मान सकता हूं। या मैं परमात्मा की अंतरात्मा में प्रविष्ट हो जाऊं, तब मैं मान सकता हूं। इसके पहले मेरे मानने का कोई भी उपाय नहीं है।


इसलिए आकाश का परमात्मा इतनी के काम नहीं आएगा। अगर हम कहें कि मंदिर की प्रतिमा में परमात्मा है, तो वह उसे नहीं मान सकेगा। क्योंकि प्रतिमा के आस—पास घूमा जा सकता है, प्रतिमा में प्रवेश कैसे होगा? अगर हम कहें, शास्त्रों में परमात्मा है, तो वह कहेगा, शास्त्रों को पढ़ा जा सकता है, शब्दों को समझा जा सकता है, लेकिन प्रवेश कैसे होगा?


ज्ञानी की आत्यंतिक खोज इस बात के लिए है कि कब मैं उसके साथ एक हो जाऊं, तभी जानूंगा कि जाना। उसके पहले सब जानना फिजूल है। उसके पहले जिसे हम जानना कहते हैं, वह जानना नहीं है।


 ज्ञान के दो हिस्से किए जा सकते हैं, वे ठीक हैं।  एक तो ज्ञान है, जिसे हम कहें एक्वेनटेंस, परिचय। और एक वस्तुत: ज्ञान है, जिसे हम नालेज कहें।परिचय का मतलब है, बाहर से। और ज्ञान का मतलब है, भीतर से।

इसका तो यह अर्थ हुआ कि समस्त विज्ञान परिचय है, क्योंकि काई वैज्ञानिक कितना ही जान ले, बाहर ही खड़ा रहता है। असल में विज्ञान का तो आधार ही यही है कि जानने वाले को बाहर खड़ा रहना चाहिए। यहीं धर्म और विज्ञान के जानने में फर्क पड़ जाता है। वैज्ञानिक बाहर खड़ा रहता है। अपनी प्रयोगशाला में खड़ा है, जांच रहा है। घटना उसकी टेबल पर घट रही है, वह दूर खड़ा देख रहा है। बल्कि वैज्ञानिक का नियम यह है कि दूरी इतनी होनी चाहिए कि अपना भाव प्रविष्ट न हो जाए। वैज्ञानिक को बिलकुल निष्पक्ष होना चाहिए। निष्पक्ष होने के लिए दूरी चाहिए, पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए। बहुत पास हो जाओ, तो मन का लगाव बन सकता है। लगाव नहीं होना चाहिए। निष्पक्ष, एक जज की हैसियत से दूर खड़े होकर देखते रहो। जो हो रहा है, वही देखो। अपने को उसमें प्रवेश मत करो। अन्यथा तुम वह भी देख सकते हो, जो नहीं हो रहा है, जो तुम चाहते हो, होना चाहिए, वह भी देख सकते हो। इसलिए दूरी रखो, भीतर प्रवेश मत कर जाओ। बी एन आब्जर्वर, बट डोंट बी ए पार्टिसिपेट। निरीक्षक तो रहो, लेकिन भागीदार मत बन जाओ।


इसलिए विज्ञान कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा उन अर्थों में, जिन अर्थों में कृष्ण ज्ञानी की बात कर रहे हैं। क्योंकि वहा दूसरी शर्त है। वहां यह शर्त है, डोंट बी जस्ट एन आब्जर्वर, बी ए पार्टिसिपेट। बाहर मत खड़े रहो, भीतर आ जाओ। दूर मत खड़े रहो, दूरी गिरा दो। क्योंकि दूर से तुम जो जानोगे, वह बाहरी पहचान होगी। भीतर आओ, अंतरतम में प्रविष्ट हो जाओ। वहां आ जाओ,जिसके भीतर और जाने का उपाय नहीं है। आखिरी केंद्र पर आ जाओ, परिधि को छोड़ दो। उस केंद्र पर आ जाओ, जिसके भीतर और जाने की सुविधा ही नहीं है। तभी तुम जान पाओगे।

तो ज्ञान एक दिशा है। इस दिशा में बहुत मार्ग जाते हैं, क्योंकि फिर ज्ञान के भी बहुत—बहुत रूप हो जाते हैं। लेकिन मोटे अर्थों में मनुष्य का एक विभाजन है।

जिन लोगों को जानने की खोज है, उनके लिए भक्ति सदा फिजूल मालूम पड़ेगी। कीर्तन हो रहा होगा, तो वे कहेंगे, यह क्या पागलपन है! कोई गीत गा रहा होगा, वे कहेंगे, इससे क्या होगा! कोई मंदिर में पूजा करता होगा, तो उन्हें समझ में नहीं पड़ेगी।

दूसरे का मार्ग कभी भी समझ में नहीं पड़ता। लेकिन समझदार उसी का नाम है, जो दूसरे के मार्ग को भी होने की सुविधा देता है, चाहे उसकी समझ में न भी पड़ता हो। जब मैं यह कहूं कि मुझे यह कीर्तन समझ में नहीं पड़ रहा है, तो मैं इतना ही कह रहा हूं कि मुझसे इसका कहीं ताल—मेल नहीं खाता। लेकिन हम जल्दी आगे बढ़ जाते हैं। हम कहते हैं, यह गलत है। वहां भूल शुरू हो जाती है। मेरे लिए गलत होगा, तो भी किसी और के लिए सही हो सकता है। मेरे लिए भ्रांत होगा, मेरे लिए नहीं होगा ठीक, तो भी किसी और के लिए बिलकुल ठीक हो सकता है।

कृष्ण कहते हैं, यह पहला विभाजन है ज्ञान का।

लेकिन जब भी कोई अपने विभाजन के आर—पार जाने लगता है, तो दूसरों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है। अपने मार्ग पर चलना तो उचित है, लेकिन दूसरों के मार्गों को विचलित करना अनुचित है।

बहुत बार ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले लोगों ने भक्ति के मार्ग पर जाते हुए लोगों के मार्ग में बड़ी बाधाएं और बड़ी अडचनें खड़ी कर दी हैं, अनजाने ही। क्योंकि उनके लिए जो ठीक नहीं लगता, वे कहते हैं, ठीक नहीं है। लेकिन किसी दूसरे मार्ग पर वह बिलकुल ही ठीक हो सकता है।

कृष्ण कहते हैं, यह जो पहली उपासना है, ज्ञान—यज्ञ का पूजन !करने वाले जो लोग हैं, वे एकत्व— भाव से, जो कुछ है, परमात्मा है, ऐसी प्रतीति में रमते हैं। यही उनकी उपासना है। वे मुझे सभी में खोज लेते हैं। वे सभी में मुझे देख लेते हैं। वे सब पर्दों को हटा देते हैं और जो पर्दों के भीतर छिपा है, उसकी झलक पा लेते हैं।

यह झलक एक की झलक है, सारे भेद पर्दों के भेद हैं। पर्दे सब हट जाए, तो जो भीतर छिपा है, वह एक है। जैसे हम सब मकानों को गिरा दें, तो सभी मकानों के भीतर से जो आकाश प्रकट होगा,  वह एक होगा।

लेकिन सब मकान जब तक बने हैं, तब तक सभी मकानों की दीवालों में घिरा हुआ आकाश अलग मालूम पड़ता है। किसी मकान की दीवालें लाल हैं, और किसी की पीली हैं, और किसी की गरीब हैं, और किसी की मकान की दीवालें धनी हैं, और किसी का मकान आकाश छूता है, और किसी का जमीन छू रहा है। बहुत—बहुत फासले हैं। झोपड़े हैं और महल हैं, वह भीतर छिपा जो आकाश है, अलग—अलग मालूम पड़ता है।

कौन मानने को तैयार होगा कि झोपड़े के भीतर भी वही आकाश है जो महल के भीतर है? कौन मानने को तैयार होगा?

कोई मानने को तैयार नहीं होगा। कहेगा कि महल में जो आकाश है, वह बात ही और है। वह स्वर्णमडित है, हीरे—जवाहरातों से सजा है। सुगंध से भरपूर है। उसकी ज्ञान और है, उसका विलास और है। झोपड़े का भी एक गरीब आकाश है, दीन है, दरिद्र है।

लेकिन आकाश भी कहीं भिन्न हो सकता है? झोपड़ा होगा दीन—दरिद्र; महल होगा समृद्ध, लेकिन भीतर जो आकाश है, दोनों के भीतर जो रिक्त स्थान है, वह कैसे भिन्न हो सकता है? लेकिन झोपड़ा भिन्न दिखाई पड़ता है, महल भिन्न दिखाई पड़ता है।

अभिन्नता तब तक न दिखाई पडेगी, जब तक हम झोपड़े और महल को मिटाकर न देखें। झोपड़े को भी मिटा दें, महल को भी मिटा दें, और फिर फर्क करने जाएं कि दोनों के भीतर जो छिपा आकाश था, अब उसमें कुछ भेद रहा? एक दीन, एक समृद्ध! एक गरीब, एक अमीर! एक स्वर्णमडित, एक भिक्षापात्र से भरा!अब उन आकाशों में कोई भी भेद न रह जाएगा।

ज्ञानी की खोज उसकी खोज है, जो सभी रूपों के भीतर छिपा है, सभी आकारों के भीतर छिपा है। और ज्ञानी जब तक उस निराकार को नहीं खोज लेता, जो सभी आकारों में रमा है, तब तक उसकी तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी अक्सर, साकार की जो पूजा करते हैं, उनके खिलाफ मालूम पड़े। उसके खिलाफ होने का कारण है, उसकी खोज। उसकी खोज निराकार की है। इसलिए जब आपको देखेगा किसी आकार की कर रहे हैं, तो कहेगा, क्या पागलपन में पड़े हो! उसे खोजो, जो निराकार है!

लेकिन उसे पता नहीं कि कोई और आकार से भी उसकी यात्रा पर जा सकता है। उसकी हम पीछे बात करेंगे।

यह जो निराकार, एकत्व, सब में ही वासुदेव को देख लेने वाला है, समझ लेना चाहिए कि क्या यह मेरा मार्ग है? खोज लेना चाहिए तालमेल बिठाना चाहिए, क्या ज्ञान मेरी खोज है? क्या मैं उस तरह का व्यक्ति हूं जो सब आकारों को गिराकर निराकार की तलाश में लगा हूं? क्या उससे मेरी तृप्ति होगी? क्या वही मेरी आत्मा की अभीप्सा है? वही मेरी प्यास है? अगर नहीं है, तो उस उपद्रव में कभी भी पड़ना नहीं चाहिए। अगर है, तो शेष सब को भूलकर उसमें पूरी तरह लीन हो जाना चाहिए। यह स्वधर्म की खोज है।

कृष्ण कहते हैं, दूसरे पृथकत्‍व भाव से, द्वैत भाव से, अर्थात स्वामी—सेवक भाव से मेरी उपासना करते हैं।

दूसरा वर्ग है भक्त का। भक्त की खोज बिलकुल भिन्न है। खोज का अंत बिलकुल एक है, खोज का मार्ग बिलकुल भिन्न है। भक्त कहता है, जानने से कोई प्रयोजन नहीं। जानने में भक्त को बिलकुल रूखा—सूखापन मालूम पड़ता है। है भी शब्द रूखा। ज्ञान बड़ा रूखा शब्द है। उसमें कहीं कोई रस— धार नहीं बहती। ज्ञान बिलकुल मस्तिष्क की बात मालूम पड़ती है, उसमें हृदय की धड़कन नहीं सुनाई पड़ती। ज्ञान एक गणित का फार्मूला मालूम पड़ता है, किसी फूल का खिलना नहीं।

भक्त कहता है, जानने से क्या होगा? प्रेम! जानना कुछ मतलब का नहीं है। वह कहता है, जब तक मैं उसे प्रेम न कर पाऊं, तब तक मेरी कोई तृप्ति नहीं है। नोइंग नहीं, लविंग। जानना नहीं, उसके प्रेम में डूब जाना।

भक्त कहता है, जानना भी बाहर ही बाहर है, कितने ही भीतर चले जाओ, जानना फिर भी बाहर है। और भक्त ठीक कहती है। अपनी जगह से बिलकुल ठीक कहता है। वह कहता है, जब तक प्रेम में न डूब जाओ, तब तक असली जानना कहां! क्योंकि भक्त कहता है कि प्रेम ही जानने का मार्ग है।

अब इसे ऐसा समझें, एक डाक्टर है, वह एक मरीज के पास खड़ा हुआ है एक घर में। मरीज मरणासन्न है। मर रहा है। डाक्टर उसकी नाड़ी अपने हाथ में लिए हुए खड़ा है, तत्पर। नाडी की एक—एक धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के हृदय की धड़कन उसकी समझ में आ रही है। मरीज के खून की चाल उसकी समझ में आ रही है। मरीज की अवस्था उसके पूरे ज्ञान में है।

पास में ही उस मरीज की पत्नी छाती पीटकर रो रही है। हाथ उसका नाड़ी पर नहीं है मरीज की। हृदय की धड़कन का उसे कुछ पता नहीं है। मरीज की क्या अवस्था है, उसका उसे कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन उसके आंसू बहे जा रहे हैं। उसके प्राण संकट में हैं। वह मरीज नहीं मर रहा है, वह खुद मर रही है। इस मरीज के साथ उसका मरना घटित हो रहा है।

इन दोनों के जानने में बड़ा फर्क है। डाक्टर का जानना कितना ही गहरा हो, बहुत गहरा नहीं है। पत्नी का जानना बिलकुल भी नहीं है। इसे कुछ भी पता नहीं है कि घडीभर बाद यह आदमी मर जाएगा कि बचेगा, कि क्या होगा। कि इसके शरीर में क्या कमी है और क्या ज्यादा है, और क्या घट रहा है—इसे कुछ भी पता नहीं है।

गणित का इसे कोई भी पता नहीं है। लेकिन किसी अंतस्तल पर इसे पता है कि घटना समाप्त हो गई। जीवन बुझने के करीब है। इसे कुछ भी पता नहीं है। इसके पास कोई यंत्र जानने के नहीं हैं। लेकिन इसकी अंतस—चेतना आंसुओ से भर गई है। इसकी अंतस—चेतना पर मृत्यु की छाया आ गई है।

डाक्टर समझाता भी है कि घबड़ाओ मत, अभी कोई घबड़ाने की बात नहीं है, लेकिन घबड़ाहट नहीं रुकती। डाक्टर कहता है, मरीज बच जाएगा, तो भी उस स्त्री की आंखों में भरोसा नहीं आता। वह किसी और ही ढंग से जान रही है कि बचना असंभव है।

और ऐसा नहीं कि इसके लिए पास होना ही जरूरी है। ऐसी घटनाएं घटी हैं कि दूर बेटा मर रहा है, हजारों मील दूर, और मां यहां तत्काल हजारों मील दूर फासले पर बोध से भर गई है कि कुछ अघट हो रहा है। अभी तो इस पर वैज्ञानिक भी शोध करते हैं और वे कहते हैं कि इसमें वैज्ञानिक आधार है। क्योंकि जिस बच्चे का हृदय अपनी मां के हृदय के साथ नौ महीने धड़का हो, उन दोनों के हृदय के बीच एक लयबद्धता है। और वह लयबद्धता ऐसी है कि समय और स्थान के फासले को नहीं मानती। और अगर दूर बेटे का हृदय धड़कने लगे और मृत्यु के करीब आ जाए, तो मां के हृदय में भी धड़कन होती है, वह चाहे समझ पाए, चाहे न समझ पाए।

अब यह पत्नी भी जानती है कुछ, किसी और मार्ग से। यह डाक्टर भी मौजूद है, यह पत्नी भी मौजूद है। यह डाक्टर भी तत्पर है, यह भी उत्सुक है कि यह आदमी बच जाए, लेकिन इसकी बचाने की उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता है। यह पत्नी भी उत्सुक है कि यह आदमी बच जाए, लेकिन इसकी बचाने की उत्सुकता एक वैज्ञानिक की उत्सुकता नहीं है।

अगर यह आदमी मर जाएगा, तो डाक्टर भी दुखी होगा। दुखी इसलिए होगा कि केस असफल हुआ। दुखी इसलिए होगा कि दवाएं काम न कर पाईं। दुखी इसलिए होगा कि मेरा निदान उपयोगी न हुआ। दुखी इसलिए होगा कि कहीं कोई गणित में भूल हुई। दुखी इसलिए होगा। यह आदमी जो मर रहा है, उसके लिए एक केस है। इस पत्नी का दुख कुछ और ढंग का होगा। इस आदमी के मरने के साथ यह कभी दुबारा वही नहीं हो सकेगी, जो थी। इस आदमी के मरने के साथ ही उसके भीतर बहुत कुछ मर जाएगा, जो फिर कभी पुनरुज्जीवित नहीं होगा। उसका कोई हिस्सा कट जाएगा और गिर जाएगा।

वहीं हम समझें कि एक तीसरा आदमी भी बैठा हुआ है, वह एक अखबार का रिपोर्टर है। वह खबर लेने आया है कि यह आदमी कब मरे, मैं दफ्तर में जाकर खबर कर दूं। वह भी वहीं मौजूद है। वह भी अपना कागज—कलम लिए बैठा है कि यह आदमी मरे और मैं जल्दी से लिखूं। वह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। उसकी उत्सुकता और ही तीसरे ढंग की है। वह सोच रहा है कि किस ढंग से ब्योरा लिखा जाए। किस ढंग से खबर दी जाए। किस ढंग से अखबार के पढ़ने वाले लोग इस पूरी स्थिति को जान पाएंगे, जो यहां घटित हो रही है। डाक्टर से उसके जानने का फासला और भी तीसरे ढंग का है।

एक चौथा आदमी भी वहा मौजूद है, जो एक चित्रकार है। वह भी उत्सुक है इस आदमी में। लेकिन वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मौत कब आ जाए। क्योंकि वह मौत पर एक चित्र बनाना चाहता है। और जब मौत इस आदमी के सिर पर उतर आए और इसकी मौत की छाया इस आदमी को घेर ले, तब वह अनुभव करना चाहता है कि क्या होता है? रंग कैसे बदल जाते हैं? धूप—छाया कैसी भिन्न हो जाती है? वह भी उत्सुक है। वह भी उत्सुक है। लेकिन इन सब की उत्सुकताएं अलग हैं।

अगर हम इन चारों से अलग— अलग पूछें, तो शायद हमें वहम भी हो कि ये एक ही आदमी की खाट के पास मौजूद थे या चार अलग आदमियों के पास मौजूद थे। इन चारों के वक्तव्य बिलकुल अलग होंगे।

शायद वह स्त्री कोई वक्तव्य ही न दे पाए। डाक्टर जो कहेगा, उसकी भाषा मेडिकल साइंस की होगी। पत्रकार जो कहेगा, उसकी खबर—पत्री की भाषा होगी। चित्रकार जो कहेगा, वह कहेगा, रुको! जब तक मेरा चित्र न बन जाए, तब तक कुछ कहना मुश्किल है। मेरा चित्र ही कहेगा।

और इन चारों को, अगर हमें पता न हो कि ये एक ही आदमी के करीब मौजूद थे, तो हम कभी कल्पना न कर पाएंगे कि वह एक ही आदमी था, जिसके चारों तरफ ये चारों मौजूद थे!

ठीक परमात्मा के चारों तरफ भी हम इसी तरह मौजूद हैं। और हम सबके उससे संबंधित होने के रास्ते अलग हैं। और एक का रास्ता दूसरे के लिए बिलकुल बेबूझ है।

दूसरा रास्ता है, भक्त का। भक्त कहता है, जानने का क्या प्रयोजन? और जानकर भी क्या होगा? हम उसके प्रेम में डूब जाना चाहते हैं। हम उसे जानना नहीं चाहते, हम उसमें लीन हो जाना चाहते हैं। हम जानना नहीं चाहते, जानने में दूरी है। हम तो उसके हृदय में प्रवेश करना चाहते हैं और अपने हृदय में उसे प्रवेश देना चाहते हैं।

अगर भक्त से कोई कहेगा कि एक ही है, तो भक्त को समझ में नहीं आएगा। क्योंकि प्रेम की घटना, अगर एक ही है, तो घटेगी कैसे? प्रेम की घटना के लिए कम से कम दो चाहिए।

मैंने आपसे कहा कि ज्ञान की घटना तभी घटेगी, जब दो मिट जाएं और एक बचे। जब एक बचे, तो ज्ञान की घटना घटेगी। ज्ञान की अनिवार्य शर्त है कि दो—पन मिट जाए और एक ही बचे। प्रेम की शर्त है कि अगर एक ही बचा, तो प्रेम कैसे घटित होगा? तो प्रेम कहता है कि दो!

भक्तों ने गाया है कि नहीं तेरा मोक्ष चाहिए, नहीं तेरा निर्वाण, हमें तेरी वृंदावन की गली में अगर कुत्ता होने को भी मिल जाए, तो हम तृप्त हैं! पर तेरी गली हो। और जन्मों से हमें छुटकारा नहीं चाहिए। एक ही प्रार्थना है कि जन्मों—जन्मों में जहां भी हम हों, तेरी स्मृति बनी रहे, उतना काफी है।

यह कोई और ही भाषा है। इन दोनों भाषाओं में विरोध है। विरोध होगा। लेकिन ये दोनों भाषाएं एक ही घटना की तरफ खबर देती हैं। भक्त कहता है, दो तो होने ही चाहिए!

अब यह जरा मजे की बात है कि प्रेम में भी एकता घटित होती है, लेकिन वह एकता ज्ञान की एकता से भिन्न भाषा में प्रकट होती है। जैसे, ज्ञान में एकता घटित होती है, जब दो मिट जाते हैं। प्रेम में भी एकता घटित होती है, जब दो ऐसे हो जाते हैं, जैसे एक हों, लेकिन दो बने रहते हैं। प्रेम में भी एकता घटित होती है। दो बने रहते हैं और भीतर कोई एक हो जाता है। दो धडकनें होती हैं, लेकिन धड़कनों का स्वर एक हो जाता है। दो प्राण होते हैं, लेकिन दोनों के बीच एक धारा प्रवाहित होने लगती है।

प्रेम भी एक तरह की एकता को जानता है। और एक लिहाज से प्रेम की जो एकता है, वह ज्यादा समृद्ध है ज्ञान की एकता से। ज्ञान की एकता उतनी समृद्ध नहीं है। क्योंकि उसमें निश्चित रूप से एक हो जाता है। वह गाणितिक एकता है; मैथेमेटिकल यूनिटी है। दो मिलकर एक हो जाते हैं। ज्यादा जटिल नहीं है, सरल है। प्रेम की एकता ज्यादा जटिल है। दो दो रहते हैं और फिर भी एक का अनुभव करने लगते हैं। ज्यादा समृद्ध है।

इसलिए ज्ञानियों से सूखे वक्तव्य पैदा हुए हैं। प्रेमियों ने बहुत रसपूर्ण वक्तव्य दिए हैं। प्रेमियों ने गाया है, नाचा है, रंगा है, चित्र बनाए हैं, मूर्तियां बनाई हैं।

ऐसा समझें कि अगर सारा जगत ज्ञानी हो, तो सुखद नहीं होगा। क्योंकि जगत में जो रौनक है, वह जटिलता की है, कांप्लेक्सिटी की है। जगत में अगर सब बिलकुल सरल—सरल हो और सीधा—सीधा हो, तो जगत का सारा सौरभ खो जाए। भक्तों ने जगत को सौरभ दिया है। इसलिए जिन धर्मों ने सिर्फ ज्ञान को ही प्रतिष्ठा दी, वे रूखे हो गए हैं, मरणासन्न हो गए हैं।

 यह नहीं  कह रहा हूं कि जगत में भक्त ही भक्त हो जाएं। अगर भक्त ही भक्त जगत में हों, तब भी एक कमी हो जाएगी। वह ज्ञानी भी एक रंग देता है अपनी मौजूदगी से। वह भी एक स्वर देता है और एक दिशा देता है। वह दिशा भी वंचित हो जाए, तो भी नुकसान होता है।

इस जगत में जितने रूप हैं, वे सभी इस जगत को समृद्धि देते हैं। इसलिए समृद्धतम धर्म वह है, जो सभी रूपों को आत्मसात कर लेता है। इस लिहाज से हिंदू धर्म बहुत अदभुत है। अदभुत इस लिहाज से है कि वह सभी मार्गों को आत्मसात कर लेता है। वह ज्ञानी को ज्ञान का मार्ग दे देता है, भक्त को भक्ति का मार्ग देता है। दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीं है दूसरा। दूसरे सारे के सारे धर्म किसी एक विशिष्टता को आधार बनाकर चलते हैं।

जैसे जैन हैं। तो भक्ति उपाय नहीं है, ज्ञान ही उपाय है। इसलिए जैन साधु के चेहरे पर एक रूखा—सूखापन छा जाएगा। अनिवार्य है। जैन साधु नाचता हुआ मिले, तो बेचैनी होगी हमें। मीरा नाचे, तो हमें कोई बेचैनी नहीं होगी। चैतन्य नाचता हुआ गांव से गुजर जाए, तो हमें कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन जैन साधु नाचे, तो इनकसिवेबल है; यह कुछ मेल नहीं खाती बात।

उसका कारण है। क्योंकि मार्ग शुद्धतम ज्ञान का है, सूखे ज्ञान का है। जरूरत है उसकी। कुछ हैं, जो उसी मार्ग से जा सकेंगे। कुछ हैं, जिनके लिए वही उपाय है। और जिनके लिए वही उपाय है, उनके लिए श्रेष्ठतम वही है। लेकिन जो विपरीत है, उसको कठिनाई खड़ी हो जाएगी। वह अपने को सताना शुरू कर देगा।

अब अगर एक व्यक्ति जैन धर्म में पैदा हुआ है और भक्ति उसका मार्ग है, तो बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। कठिनाई इसलिए खड़ी होगी कि जैन धर्म में भक्ति के लिए उपाय नहीं है। अगर वह कोशिश करके उपाय करेगा, तो वे उपाय झूठे होंगे। जैनों ने कोशिश की है। जैनों ने कोशिश की है कि भक्ति का भी कोई मार्ग खोज लिया जाए। मगर उसमें आधार नहीं रहता, जड़ें नहीं रहती। और उसमें एक तरह का अन्याय भी मालूम पड़ता है।

अब अगर महावीर के सामने कोई भक्ति— भाव से नाचने लगे, तो महावीर के साथ निश्चित अन्याय है। अन्याय इसलिए है कि महावीर की खड़ी नग्न प्रतिमा, उससे इस नृत्य का कोई मेल नहीं होता। यह नृत्य बेमानी है।

कृष्ण के सामने यह नृत्य सार्थक मालूम होता है। इसमें तालमेल है। कृष्ण खड़े हैं मोर—मुकुट लगाए हुए, हाथ में बांसुरी लिए हुए। उनके सामने कोई नाच रहा है, तो इस नाचने में और कृष्ण के बीच एक संगति है। लेकिन महावीर नग्न खड़े हैं, उनके सामने कोई नाच रहा है, तो वह केवल इतना कह रहा है कि जिस धर्म में मैं पैदा हो गया, वह मेरे लिए नहीं था। और कुछ नहीं। वह इतना ही कह रहा है।


अगर कोई ज्ञानी को आप कृष्ण के मंदिर में ले जाएं, तो सारी बात व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सब क्या पागलपन है! यह मोर—मुकुट, यह बांसुरी, यह सब क्या पागलपन है!

यह भाषाओं का भेद है। और भक्त की जो भाषा है, वह दो को स्वीकार करके चलती है। वह सारे जगत को दो में तोड़ लेती है, एक तरफ भगवान को और एक तरफ भक्त को। और तब संबंध निर्मित करती है।

कृष्ण कहते हैं, और दूसरे हैं, जो पृथक भाव से मेरी उपासना करते हैं। जो कहते हैं मुझसे कि हम तुमसे अलग हैं। और कहते इसीलिए हैं कि हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि एक होने का मजा तभी आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। इस भक्त के विरोधाभास को ठीक से समझ लें।

भक्त कहता है, हम तुमसे अलग हैं, क्योंकि मिलने का मजा तभी आएगा, जब हम तुमसे अलग हैं। अगर हम तुमसे एक ही हैं सदा से, तो मिलने का सारा अर्थ ही खो गया। फिर मिले न मिले, बराबर है।

यह नदी जो दौडती जाती है सागर की तरफ, यह जो नाचती हुई उमंग है, यह जो उत्सवपूर्ण भागना है, यह इसीलिए है कि सागर वहां दूर है और अलग है। और यह मिलन एक घटना होगी। इस नदी को कोई कहे कि तू पागल है, तू सागर से एक है ही।

यह भी ठीक है। नदी सागर से एक है ही। उसी से पैदा हुई है। सूरज की किरणों पर चढ़कर, हवाओं में जाकर, उसी से उठकर आई है। उसी सागर से भाप उठी है, वाष्पीभूत हुई है, आकाश में बादल बनी है, बरसी है पहाड़ों पर, गंगोत्री से उतरी है, गंगा बनी है, चली है सागर की तरफ।

ज्ञानी कहेगा, व्यर्थ का इतना उत्सव है! नाहक इतनी दौड़धूप है! इतने शोर—गुल की कोई भी जरूरत नहीं है। इतने नदी—पहाड़ और इतने मैदान पार करके भागने का प्रयोजन क्या है? तू सागर के साथ एक ही।

लेकिन नदी कहेगी कि सागर को अलग ही रहने दो, उसे दूर ही रहने दो, उसे दूसरा ही रहने दो, क्योंकि मैं मिलने का आनंद लेना चाहती हूं। और यही प्रार्थना रहेगी परमात्मा से कि सदा यह मिलने की घटना घटती रहे। इतनी दूरी बनाए रखना कि मिलन संभव होता रहे। इतने दूर तो रखना ही।

 ज्ञानी की दृष्टि से, भगवान अलग है, यह अज्ञान है। भक्त की दृष्टि से, मैं भगवान हूं, ऐसी घोषणा पाप है। और दोनों सही हैं। इससे जटिलता होती है। इससे जटिलता होती है, क्योंकि दूसरे के मार्ग को समझने में हमें बड़ी कठिनाई होती है।

यह जो भक्त है, इसकी खोज का तारा है प्रेम। और यह कहता है कि प्रेम काफी है; जानना व्यर्थ है। प्रेम में लीन हो जाना सार्थक है। क्योंकि प्रेम में आत्मक्रांति घटित हो जाती है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे जो लोग हैं, वे स्वामी—सेवक भाव से, या प्रेमी—प्रेमिका के भाव से, या किन्हीं और रूपों में, लेकिन संबंध में मुझे सोचते हैं। वे कोई संबंध निर्मित करते हैं।

भक्तों ने सब तरह के संबंध बनाए हैं।

जैसे सूफियों ने बहुत प्यारा संबंध बनाया है। ऐसी हिम्मत कोई हिंदू साधक नहीं कर सका। हिंदू साधकों ने जो भी संबंध बनाए हैं, वे इतने हिम्मतवर नहीं हैं। हिंदू धारणा में परमात्मा पुरुष है और साधक उसकी प्रेयसी, पत्नी, दासी के भाव से चलता है।

सूफियों ने हद कर दी। उन्होंने परमात्मा को प्रेयसी बना दिया और खुद प्रेमी! परमात्मा को प्रेयसी और खुद प्रेमी! इस वजह से ही इस्लाम के प्रभाव में जो भी काव्य की धाराएं पैदा हुईं, सूफियों के संपर्क में जो भी काव्य पैदा हुए—चाहे अरबी, चाहे ईरानी और चाहे उर्दू—उन काव्यों में प्रेम की जो झलक उठी, वह हिंदुस्तान की किसी भाषा में पैदा हुए काव्य में नहीं उठ सकी। उसका कारण था। उसका कारण था, क्योंकि जब परमात्मा को प्रेयसी बना दिया, तो सब द्वार खुल गए। तब परमात्मा के साथ प्रेम की सारी खुलकर चर्चा हो सकी। फिर कोई बात ही न रही।

ध्यान रहे, अगर परमात्मा पुरुष है और भक्त स्त्री है, पत्नी है, प्रेयसी है, तो स्त्री लज्जावश प्रेम का निवेदन भी बहुत—बहुत झिझककर करती है। करेगी ही। इसलिए हिंदू भक्तों ने जो गाया है, वह बहुत झिझकपूर्ण है। मीरा कितनी ही हिम्मत करे, लेकिन मीरा ही है। हिम्मत कितनी ही करे—बहुत हिम्मत की है—लेकिन हिम्मत छिपी—छिपी है। जैसा कि स्त्री का स्वभाव है। वह अगर कहती भी है, तो बड़े परोक्ष, बड़े पर्दे और बड़ी ओट से कहती है। घूंघट उसका पड़ा ही रहता है। वह कहती है घूंघट उठाने की बात, फिर भी वह घूंघट के पीछे से ही कहेगी। अनिवार्य है, होगा ही ऐसा।

लेकिन जब कोई सूफी फकीर प्रेमी की तरह, पुरुष की तरह ईश्वर की तरफ जाता है, उसको पत्नी और प्रेयसी मानकर, तब पुरुष जितनी अभिव्यक्ति दे सकता है प्रकट, एक अर्थ में निर्लज्ज, उतनी स्त्री नहीं दे सकती। इसलिए उर्दू या अरबी या ईरानी, इन भाषाओं में जो प्रेम की भंगिमा प्रकट हुई, और थोड़े से शब्दों में प्रेम का जो प्रगाढ़ रूप प्रकट हुआ, वह दुनिया की किसी भाषा में नहीं हो सका है। उसका कुल मात्र कारण यही था कि परमात्मा को प्रेयसी मानते से ही, अब कोई अड़चन न रही, अब गीत कोई भी गाया जा सकता है।

और पुरुष गा रहा है। और पुरुष तो आक्रामक है, इसलिए वह संकोच नहीं करेगा। वह संकोच करे, तो पुरुष कम है, इसकी खबर देगा। स्त्री संकोच न करे, तो स्त्रैण न रही। संकोच में ही उसका सौंदर्य है। और निस्संकोच आक्रमण में ही पुरुष का शौर्य है।

भक्त या तो परमात्मा को प्रेयसी मान ले, या प्रेमी मान ले, ये दो रूप हैं। सूफियों ने वह रूप चुना परमात्मा को प्रेयसी मानने का; हिंदुओं ने परमात्मा को प्रेमी मानने का रूप चुना।

लेकिन और भी प्रेम के रूप हैं। क्योंकि प्रेम के कितने रूप हैं! परमात्मा मां हो सकता है, परमात्मा पिता हो सकता है, परमात्मा पुत्र हो सकता है, वे सारे रूप भी चुने गए। वे सारे रूप भी चुने  गए। परमात्मा मां हो सकता है, तब उसके साथ प्रेम की जो धारा बहेगी, उसका ढंग और होगा। बेटा भी मां को प्रेम करता है।

लेकिन इस प्रेम का ढंग और होगा, रंग और होगा, इसकी चाल। और होगी। परमात्मा को पिता भी मानकर कोई प्रेम कर पाता है। लेकिन एक बात तय है, कोई भी संबंध हो, भक्त सबंध खोजेगा ही, क्योंकि संबंध ही उसके प्रेम के लिए मार्ग बनेगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एकता को उपलब्ध नहीं होता। एकता को उपलब्ध होता है—संबंधों की सघनता से, संबंधों के नैकटध से, संबंधों की आत्मीयता से।

और सच तो यह है कि बाकी हमारे जीवन के सारे संबंध सिर्फ हमें धोखा देते हैं कि हम एक हो गए, एक हम हो नहीं पाते हैं। न कोई पति पत्नी से एक हो पाता है, न कोई बेटा किसी मां से एक हो पाता है; न कोई मित्र किसी मित्र से एक हो पाता है। कभी क्षणभर को वहम होता है। कभी क्षणभर को ऐसा लगता है कि एक हो गए; और लग भी नहीं पाता कि विछोह शुरू हो जाता है। सिर्फ परमात्मा के साथ, उसके दोहरेपन में भी, उसके द्वैत में भी एकता सध जाती है। वह फिर टूटती नहीं।

इसलिए भक्ति जो है, वह प्रेम की शाश्वतता है, वह प्रेम की चरम ऊंचाई है। और जितने भी प्रेमी दुनिया में तकलीफ पाते हैं, उस तकलीफ का कारण प्रेम नहीं है, उस तकलीफ का कारण यह है कि वे प्रेम से जो चाह रहे हैं, वह केवल भक्ति से मिल सकता है। जो वे प्रेम से चाह रहे हैं, वह प्रेम से नहीं मिल सकता।

प्रेम से क्षण का संबंध ही मिल सकता है, प्रेम से शाश्वतता नहीं मिल सकती। लेकिन जब भी कोई प्रेम से शाश्वतता मांगने लगता है, तभी दुख में पड़ जाता है। शाश्वतता भक्ति से मिल सकती है। वह एक ऐसा द्वैत है, जिसके भीतर सदा के लिए अद्वैत सध सकता है। बाकी हमारे सब द्वैत ऐसे हैं कि जिनके भीतर झलक मिल जाए, तो भी बहुत है। झलक भी लेकिन काफी है। और झलक को भी बुरा कहने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि शायद वही झलक हमें और ऊपर उठाने के लिए इशारा बने। लेकिन जो उस झलक में ही उलझ जाता है, वह खो जाता है। भक्त प्रेम की खोज है।

कृष्ण कहते हैं, और तीसरे लोग भी हैं, जो बहुत प्रकार से मुझे उपासते हैं। ये तीसरे लोग मूलतः कर्म से संबंधित होते हैं।

ये तीन हिस्से हैं। मनुष्य के मनस के, मनुष्य के मन के तीन हिस्से हैं, ज्ञान, भाव और कर्म। ज्ञान हमारे मस्तिष्क को केंद्र बनाकर जीता है, भाव हमारे हृदय को केंद्र बनाकर जीता है, कर्म हमारे हाथों को केंद्र बनाकर जीता है।

अब जैसे जीसस, जीसस कहते हैं कि अगर तू प्रार्थना करने आया है मंदिर में और तुझे खयाल आ जाए कि तेरा पड़ोसी बीमार है, तो मंदिर को छोड़, पड़ोसी की सेवा में जा, वही उपासना है। जीसस कहते हैं, सेवा ही धर्म है।

इसलिए ईसाइयत ने दुनिया में धर्म की एक बिलकुल नई प्रतिभा को जन्म दिया। वह प्रतिभा थी सेवा की। और ईसाइयों ने जितनी सेवा की है, उतनी सारी दुनिया के सारे लोगो ने मिलकर भी नहीं की है। कर भी नहीं सकेंगे। क्योंकि कर्म ही उपासना है, ऐसे गहन भाव पर सारी ईसाइयत की दृष्टि खड़ी है। कर्म ही उपासना है। भूल जाओ परमात्मा को, चलेगा, कर्म को मत भूल जाना। ज्ञानी कहेगा, भूल जाओ कर्म को, चलेगा, परमात्मा को मत भूल जाना।

यह जो तीसरा मार्ग है—हममें बहुत लोग हैं, जिनके व्यक्तित्व का केंद्र कर्म है; जो कुछ करेंगे, तो ही पा सकेंगे। उनसे अगर कहा जाए, खाली बैठ जाएं, शांत बैठ जाएं, तो वे और भी अशांत हो जाएंगे। इसलिए बहुत लोग हैं, दिक्कत में पड़ते हैं। इसलिए मैंने पहले कहा कि मार्ग का ठीक—ठीक चयन न हो पाए, तो हम व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।

अब कोई व्यक्ति है, वह पहुंच जाता है किसी साधु—संन्यासी के पास। साधु—संन्यासी उसे समझाता है कि शांत बैठो, एक घंटेभर बिलकुल शांत, निश्चल होकर बैठ जाओ। वह एक सेकेंड शांत नहीं बैठ सकते, घंटा भर! उनके लिए ऐसा कष्टपूर्ण हो जाता है कि घंटेभर वे बैठेंगे, तो उस वक्त पाएंगे कि दुनियाभर में जितनी परेशानी है, सब उन पर आ गई है। इससे तो जब वे भाग—दौड़ में रहते हैं, तभी शांत रहते हैं।


इसलिए अक्सर लोगों को खयाल में आता है कि जब वे ध्यान करने बैठते हैं, तब उनकी अशांति बढ़ जाती है। उसका मतलब है कि वह टाइप उनका ध्यान वाला नहीं है। उनके लिए कर्म ही ध्यान का द्वार बनेगा। ध्यान उनके लिए सीधा द्वार नहीं बन सकता। उन्हें किसी ऐसे कर्म की जरूरत है, जिसमें वे पूरा लीन हो जाएं। इस बुरी तरह डूब जाएं कि कर्ता न बचे, कर्म ही रह जाये। फिर वह कुछ भी हो—चाहे वे कोई चित्र बना रहे हों, और चाहे कोई मूर्ति बना रहे हों, और चाहे किसी के पैर दाब रहे हों, और चाहे गड्डा खोद रहे हों, और चाहे बगीचा लगा रहे हो—वह कोई भी कर्म हो; कोई ऐसा कर्म, जो उनकी उपासना बन जाए।

लेकिन अगर आपको अपने टाइप का ठीक—ठीक पता नहीं है, तो आप मुश्किल में पड़ते रहेंगे। और एक कठिनाई जरूरी रूप से पैदा हो जाती है। वह इसलिए पैदा हो जाती है कि सभी प्रकार के लोगों ने इस जगत में परमात्मा को पाया है। एक चैतन्य ने नाचकर भी पाया है। और एक बुद्ध ने शरीर का जरा भी अंग न हिलाकर भी पाया है। चैतन्य नाचकर पाते हैं, बुद्ध बिलकुल शरीर को निश्चल करके पाते हैं।

अब संयोग से अगर आप बुद्ध के पास से गुजर गए, तो आप बिना सोचे—समझे बुद्ध के पास शांत होकर बैठने की कोशिश करेंगे। या संयोग से आप चैतन्य के पास से गुजर गए, तो आप चैतन्य की तरह नाचने की कोशिश करेंगे। लेकिन इस बात को पहले ठीक से जान लें कि आप क्या हैं? क्या आपके लिए उचित होगा?


इधर मैंने अनुभव किया है कि अगर आपके टाइप का ठीक—ठीक खयाल हो जाए, तो साधना इतनी सुगम हो जाती है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। टाइप का ठीक खयाल न हो, तो साधना अकारण कठिन हो जाती है। और ध्यान रहे, दूसरे के टाइप से पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। जन्मों—जन्मों खो सकते हैं, अगर आप अपने को न पहचान पाए कि आपके लिए क्या उचित हो सकता है।


तो कृष्ण कहते हैं, और तीसरे लोग भी हैं, वे भी बहुत प्रकार से मुझे उपासते हैं। लेकिन उपासना हो कोई, मार्ग हो कोई, विधि कोई, कोई कैसा भी चले, दिशा चुने कोई, एक बात निश्चित है कि चाहे श्रोत—कर्म हो, वेद—विहित कर्म हो, गहरे में मैं ही हूं। और चाहे यज्ञ हो, गहरे में यज्ञ की लपटों में मेरी ही अग्नि है। और चाहे पितरों के निमित्त दिया जाने वाला अन्न हो, मैं ही महापितर हूं। मैं ही तुम्हारे सब पिताओं का पिता हूं। क्योंकि मैं ही सारे जन्म और सारी सृष्टि के मूल में हूं। औषधि हों, कि वनस्पतियां हों, कि कोई वनस्पतियों से पूजा कर रहा हो, कि कोई फूल चढ़ा रहा हो, मैं ही हूं। मंत्र मैं हूं घृत मैं हूं अग्नि मैं हूं और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूं।


यह सूत्र इतनी ही बात कह रहा है कि करो तुम कुछ, अगर निष्ठा से और मुझे स्मरण करते हुए तुमने किया है, तो तुम मुझे पा लोगे। चाहे तुम यज्ञ में डालो घी, अगर निष्ठा से, मुझे स्मरण करते हुए, मेरी उपस्थिति को अनुभव करते हुए और मेरे लिए ही तुमने वह डाला है, तो घृत भी मैं हूं, और जिस अग्नि में तुमने डाला है, वह भी मैं हूं। लेकिन ध्यान रहे, शर्त खयाल में रहे, अन्यथा घी व्यर्थ जाएगा। अग्नि थोड़ी देर में बुझ जाएगी।


उपासना भीतर हो, तो जो कुछ भी तुम करोगे, वहीं से मुझे पा लोगे, क्योंकि सब जगह मैं हूं। और अगर उपासना भीतर न हो, तो तुम सब कुछ घेर लो, तुम मुझे नहीं पा सकोगे, क्योंकि कहीं भी तुम मुझे नहीं खोज पाओगे।


उपासना आंख है। उपासना आंख है। उपासना का सूत्र मौलिक है। इसलिए क्या करते हो, यह सवाल नहीं है। कैसे करते हो, किस हृदय से करते हो, किस आत्मा से करते हो, वही सवाल है।


हम इसे भूल ही जाते हैं। इसलिए एक आदमी कहता है कि मैं पूजा कर रहा हूं। पूजा एक बाह्य कर्म हो जाता है। क्रिया पूरी कर देता है, खुद को वह क्रिया कहीं भी छूती नहीं। कहीं कोई एक बूंद भी उस क्रिया की अंतस में नहीं जाती।


फिर रोज—रोज करता रहता है। तो रोज—रोज करने से, पुनरुक्त करने से आदत का हिस्सा हो जाता है, यांत्रिक हो जाता है। वैसे ही यांत्रिक हो जाता है, जैसे आप अपनी कार चलाते हैं। फिर कार चलाते वक्त आपको ड्राइविंग करनी नहीं पड़ती, ड्राइविंग होने लगती है। जब तक ड्राइविंग करनी होती है, तब तक आपको लाइसेंस मिलना नहीं चाहिए, क्योंकि उसका मतलब ही यह है कि अभी खतरा है, अभी आपसे भूल—चूक हो सकती है।


ड्राइविंग उसी दिन आपकी कुशल हो पाती है, जिस दिन आप ड्राइविंग को भूल सकते हैं। अब चाहे सिगरेट पीए, अब चाहे गीत गुनगुनाए, चाहे रेडियो सुनें, चाहे मित्र से गपशप करें; अब चाहे कुछ भी करें, शरीर का जो रोबोट है, शरीर का जो यंत्र हिस्सा है, वह ड्राइविंग करता रहेगा। आपकी जरूरत कभी—कभी पड़ेगी, कोई अचानक एक्सिडेंट का मौका आ जाए, तो आपकी जरूरत पड़ेगी, तो आपको ध्यान देना पड़ेगा, अन्यथा गाड़ी चलती रहेगी! आप अपने रास्ते पर बाएं मुड़ जाएंगे, दाएं मुड़ जाएंगे, अपने घर के सामने आ जाएंगे, अपने गैरेज में चले जाएंगे। इस सब में आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा।


हमारे शरीर में, हमारे मन में एक हिस्सा है, जिसको वैज्ञानिक रोबोट पार्ट कहते हैं। वे कहते हैं कि हम इतने कर्म कर पाते हैं इसीलिए कि हमारे शरीर में एक यंत्र हिस्सा है, जिसे कुशल कर्म को हम सौंप देते हैं। फिर वह करता रहता है। फिर हमें बीच—बीच में जरूरत नहीं रहती है करने की। एक नौकर को काम दे दिया है, वह कर लेता है.। जरूरत हमारी तब पड़ती है, जब कोई अनहोनी नई बात हो। तो नौकर पूछता है कि मालिक, यह काम मैं कैसे करूं? क्योंकि यह कोई नई घटना है, इसका पहले कोई अंदाज नहीं है।

अगर रास्ते पर जाते हुए एक्सिडेंट होने के करीब हो, तो मालिक की जरूरत पडेगी। रोबोट, आपका यंत्र—मानव कहेगा, आ जाओ शीघ्रता से, जरूरत है, क्योंकि इसका कोई अभ्यास नहीं है। और एक्सिडेंट का कोई अभ्यास किया भी कैसे जा सकता है? उसका मतलब ही यह है कि वह अनहोना होगा, जब भी होगा। तो हमारे भीतर यह हिस्सा है।

लेकिन ध्यान रखें, ड्राइविंग और पूजा में यही फर्क है कि पूजा को जिसने अपने रोबोट को दे दिया, उसकी पूजा व्यर्थ हुई। आप सब काम रोबोट को दे दें। ड्राइविंग देनी ही पड़ेगी, नहीं तो फिर ड्राइविंग ही कर पाएंगे जिंदगी में, फिर और कुछ न कर पाएंगे। खाना खाने का काम रोबोट को देना पड़ता है। सब काम रोबोट को देने पड़ते हैं। टाइपिस्ट अपनी टाइपिंग रोबोट को दे देता है। हम सब अपने काम बांट देते हैं, ताकि हम मुक्त रहें। लेकिन पूजा बिलकुल उलटी ही बात है। पूजा रोबोट से नहीं की जा सकती। पूजा आपको करनी पड़ेगी। और ध्यान रखना पड़ेगा कि कभी भी वह यांत्रिक, मैकेनिकल न हो जाए। क्योंकि जिस दिन वह यांत्रिक हो गई, उसी दिन व्यर्थ हो गई।


उपासना का अर्थ है, परमात्मा का सतत स्मरण बना रहे, ऐसी कोई भी क्रिया, उसका स्मरण न खोए, ए कास्टेंट रिमेंबरिंग। कोई भी क्रिया, परमात्मा के स्मरण को सतत बनाए रखे, तो उपासना है। और कृष्ण कहते हैं फिर वह कुछ भी हो, यज्ञ हो, कि श्रोत—कर्म हो, कि अग्नि हो, कि हवनरूप क्रिया हो, कि मंत्र हो, कि तंत्र हो, कुछ भी हो, मैं तुझे भीतर मिलूंगा। कहीं से भी तू आ, तू मेरे पास पहुंच जाएगा।

पर एक ही बात खयाल रहे, उपासना यांत्रिक बन गई कि मिट जाती है। और हमारी हालतें ऐसी हैं कि यांत्रिक बनने का सवाल ही नहीं उठता, हम पहले से ही उसे यांत्रिक मानकर चलते हैं। बाप अपने बेटे को मंदिर में ले जाता है और कहता है, पूजा करो। बेटे को स्मरण कुछ भी नहीं दिलाया जाता, सिर्फ पूजा करवाई जाती है। बेटे को अभी यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। अभी उसे यह भी पता नहीं कि यह क्या हो रहा है! बाप सिर झुकाता है, बड़े—बूढ़े सिर झुकाते हैं, वह भी सिर झुकाता है। यह सिर झुकाना रोबोट हो जाएगा। फिर यह जिंदगीभर झुकाता रहेगा।। ऐसे मैं लोगों को देखता हूं। सड्कों पर से जा रहे हैं, मंदिर देखकर जल्दी से उनका सिर झुक जाता है। रोबोट! उनसे अगर पूछो कि क्या किया, तो वे कहेंगे, कुछ किया नहीं।


एक मित्र को मैं जानता हूं। गांव में कोई भी मंदिर पड़े, तो वे उसको नमस्कार करते हैं। मेरे साथ घूमने जाते थे सुबह। तो मैंने उनसे कहा, एक दफा ठीक से एक मंदिर के सामने घड़ी दो घड़ी बैठकर यह कर लो, तो ज्यादा बेहतर है बजाय फुटकर दिनभर करने के। इसमें कुछ सार नहीं मालूम पड़ता, जहां से भी निकले, जल्दी से सिर झुकाया, आगे बढ़ गए!


मेरी बात उनकी समझ में पड़ी। एक दिन उन्होंने किया। फिर मेरे। साथ घूमने गए। मंदिर पड़ा, तो उनको बड़ी बेचैनी हुई। उनको अपने हाथ—पैर रोकने पड़े। दस कदम मेरे साथ आगे बढ़े और 'मुझसे बोले, माफ करिए! मैंने कहा, क्या हुआ? उन्होंने कहा, मुझे वापस जाकर नमस्कार करनी पड़ेगी! क्या मामला है? मुझे भय लग रहा है। जिंदगी में ऐसा मैंने कभी नहीं किया। इस मंदिर को तो मैं कभी चूकता ही नहीं। तो मुझे भय लग रहा है कि पता नहीं इससे कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहा, जाओ!

अब यह ठीक वैसी ही आदत हो गई, जैसे किसी को सिगरेट पीने की हो जाए। न पीए, तो मुश्किल मालूम पड़ती है। अब यह मंदिर को हाथ जोड़ना एक आदत का हिस्सा हो गया। अब यह जबरदस्ती हाथ को रोकना पड़ता है।

मैंने उनसे पूछा, कितने साल से करते हो? वह कहते हैं, मुझे याद नहीं आता। जब से बचपन से मैं यह कर रहा हूं। मेरे पिता भी ऐसा ही करते थे। उन्हीं के साथ—साथ मैं भी सीख गया। कुछ अनुभव हुआ जिंदगी में? वे कहते हैं, कुछ अनुभव नहीं हुआ। पचास साल के हो गए हैं। पता नहीं चालीस साल से, पैंतालीस साल से, कब से कर रहे हैं! कोई अनुभव नहीं हुआ, और यह पैंतालीस साल मंदिरों के सामने सिर झुकाने में गए। तो ये सिब्दा बेकार हो गया। यह प्रार्थना फिजूल है। यह यांत्रिक हो गई। अब यह एक मजबूरी है। एक रोबोट का हिस्सा हो गई है कि करनी पड़ती है। करते रहेंगे और मर जाएंगे।

उपासना ऐसे नहीं होगी। उपासना का अर्थ है, स्मरणपूर्वक, माइंडफुली; ईश्वर को स्मरण करते हुए किया गया कोई भी कृत्य उपासना है। गड्डा खोदते हों जमीन में, ईश्वर को स्मरणपूर्वक खोदते हों; मिट्टी न निकलती हो, ईश्वर ही निकलता हो, तो प्रार्थना हो गई, उपासना हो गई। उस गड्डे में भी वही मिलेगा। किसी मरीज के पैर दाबते हों, मरीज मिट जाए, ईश्वर ही रह जाए। ईश्वर के ही पैर हाथ में रह जाएं। स्मरणपूर्वक ईश्वर के ही पैर दबने लगें। उसी मरीज में ईश्‍वर मिल जाएगा। कहां , यह सवाल नहीं है; कैसे!

तो कृष्ण कहते हैं, सब जगह मैं हूं सबके भीतर मैं छिपा हूं। तुम कहीं से भी आ जाओ, सब रास्ते मेरे पास ले आते हैं। सिर्फ मुझे स्मरण रखना, इतनी ही शर्त है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 9 भाग 5

 दैवी या आंसुरी धारा


 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवौं प्रकृतिमश्रिता:।

भजज्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 13।।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्‍या नित्‍ययुक्‍ता उपासते ।। 14।।


परंतु हे पार्थ दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन है, वे तो मेरे को अब भूतों का सनतन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्‍त हुए निरंतर भजते हैं।

और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए, और मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए अनन्य भक्‍ति से मुझे उपासते हैं।


मनुष्य की मूढ़ता के संबंध में थोड़ी बातें और जान लेनी जरूरी हैं। क्योंकि उन्हें जानकर ही हम आज के सूत्र में प्रवेश कर सकेंगे। तीन लक्षण कृष्ण ने मूढ़ता के और कहे हैं, वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले।

इन तीन शब्दों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। क्योंकि व्यर्थ आशा में जो उलझा हुआ है, वह सार्थक आशा करने में असमर्थ हो जाता है। व्यर्थ ज्ञान में जो उलझा है, सार्थक ज्ञान की ओर उसकी आंख नहीं उठ पाती। व्यर्थ कर्म में जो लीन है, वह उस कर्म को खोज ही नहीं पाता, जिसकी खोज से समस्त कर्मों के बंधन से मुक्ति संभव है।

व्यर्थ आशा क्या है? और हम सब जिस आशा में जीते हैं, उसमें हमने कभी कोई सार्थकता पाई है? सभी आशा में जीते हैं। आशा के बिना जीना तो कठिन है। आशा के सहारे ही जीते हैं। आशा का अर्थ है भविष्य। अतीत तो दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे जाता। अपने अतीत को लौटकर देखें, तो दुख का एक समूह, दुख की एक राशि मालूम पड़ती है, विफलताओं का एक ढेर, सभी सपनों की राख। पीछे लौटकर देखें, तो कोई कणभर को भी आनंद की कोई झलक नहीं दिखाई पड़ती है।

अगर मनुष्य को अतीत के सहारे ही जीना हो, तो मनुष्य इसी क्षण गिर जाए और जी न सके। क्योंकि अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो प्रेरणा बने। अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो सहारा बने। अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो जीवन को आगे ले जाने के लिए गति दे।

तो अतीत से हम जी नहीं सकते, क्योंकि अतीत में हमारा कोई अनुभव जीवन का नहीं है। अतीत तो दुख की एक लंबी कथा है। फिर भी हम जीते हैं, तो हमारे जीने की प्रेरणा कहां से आती होगी? पीछे से तो यह धक्का आता नहीं है। निश्चित ही यह खिंचाव आगे से आता होगा। भविष्य हमें खींचता है, और भविष्य के खिंचाव में हम चलते हैं। अतीत के धक्के में नहीं, भविष्य के खिंचाव में, भविष्य के आकर्षण में। भविष्य के आकर्षण का नाम आशा है। आशा का अर्थ है, जो कल नहीं हुआ, वह आने वाले कल में हो सकेगा। जो कल नहीं मिला, वह कल मिलेगा। जो पीछे संभव नहीं हुआ, वह भी आगे संभव हो सकता है। इस संभावना का जो सपना है, वही हमें जिलाता है। अतीत व्यर्थ गया, कोई हर्ज नहीं; भविष्य में सार्थकता मिल जाएगी। असफलता लगी हाथ में अब तक, लेकिन कल सफलता के फूल भी खिल सकते हैं। यह संभावना, यह आशा हमें खींचती चली जाती है। आशा के वश हम जीते हैं।



आदमी जीए चला जाता है, दौड़े चला जाता है। कोई स्वप्न पूरा हो सकेगा, इसलिए पैरों में गति बनी रहती है, प्राणों में ऊर्जा बनी रहती है। लेकिन यहीं व्यर्थ आशा को समझ लेना जरूरी होगा। आदमी आशा करता है भविष्य की। जिसे उसने आज अतीत बना लिया है, वह भी कल भविष्य था। आज का दिन बीत गया, अतीत हो गया। कल चौबीस घंटे पहले यह भी भविष्य था और मैंने अपनी आशा का दीया इस चौबीस घंटे पर जला रखा था, आज वह भी अतीत हो गया। लेकिन मैं लौटकर भी न देखूंगा कि कल जो मैंने दीया जलाया था आशा का, वह इन चौबीस घंटों में पूरा हुआ या नहीं!

न, बिना यह फिक्र किए मैं अपने दीए की ज्योति को आगे आने वाले चौबीस घंटों में सरका दूंगा। रोज अतीत होता चला जाएगा समय, और मैं कभी लौटकर यह न देखूंगा कि मेरी आशा व्यर्थ तो नहीं है? क्योंकि रोज समय बीत जाता है और वह पूरी नहीं होती। वृथा आशा का अर्थ है, इस बात की प्रतीति न हो पाए कि जो मैं चाहता हूं वह चाहना ही व्यर्थ है; वह कभी पूरा नहीं होगा। उस चाह का स्वभाव ही अपूर रहना है। जो मैं मांगता हूं, वह कभी नहीं मिलेगा। लेकिन समय का धोखा! हम रोज आगे सरका देते हैं, पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और कभी यह नहीं सोचते कि जिसे हम आज अतीत कह रहे हैं, वह भी कभी भविष्य था। उसमें भी हमने आशा के बहुत—बहुत बीज बोकर रखे थे, वे एक भी फलित नहीं हुए एक भी अंकुर नहीं निकला, एक भी फूल नहीं खिला। तो पहली तो आशा की व्यर्थता इससे बनती है कि समय बीतता चला जाता है, लेकिन जो भूल हमने कल की थी, वही हम आज भी करते हैं, वही हम कल भी करेंगे। मौत आ जाएगी, लेकिन हमारी भूल नहीं बदलेगी।

बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो लौटकर यह देखे कि मैं पचास साल जी लिया, कौन—सी आशा पूरी हुई? अगर मैंने चाहा था प्रेम, तो मुझे मिला? अगर मैंने चाहा था सुख, तो मैंने पाया? अगर मैंने चाही थी शाति, तो फलित हुई? अगर मैंने आनंद की आशा बांधी थी, तो उसकी बूंद भी मिली? मैं पचास वर्ष जी लिया हूं मैंने जो भी चाहा था, जो आशाएं लेकर जीवन की यात्रा पर निकला था, जीवन के रास्ते में वह कोई भी मंजिल घटित नहीं हुई। फिर भी मैं उन्हीं आशाओं को बांधे चला जा रहा हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी आशाएं ही दुराशाएं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो मैं चाहता हूं वह जीवन का नियम ही नहीं है कि मिले; और वह मैंने चाहा ही नहीं, जो कि मिल सकता था।

हमने क्या चाहा है, उसे हम थोड़ा विस्तार में देखें, तो खयाल में आ जाएगा कि दुराशा कैसी है।

हमने क्या चाहा है? जो भी चाहा है, एक बात पक्की है, वह मिला नहीं है। और ऐसा नहीं कि आपने ही ऐसा किया है। पूछें पड़ोसियों से! इतिहास में पीछे लौटें। पूछें उन सबसे, जिन्होंने यही चाहा है। किसी को भी नहीं मिला है। आज तक एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है कि मुझे दूसरे से सुख मिल गया हो। लेकिन सभी ने दूसरे से सुख चाहा है। अब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है कि मैं दूसरे से सुख पाने में समर्थ हो गया हूं। जिन्होंने कहा है कि मुझे सुख मिला है, उन्होंने कहा है, सुख मैंने अपने भीतर खोजा, तब मिला। और जब तक मैंने दूसरे के पास से सुख पाने की कोशिश की, तब तक केवल दुख पाया, सुख नहीं मिला।

लेकिन हम सभी दूसरे से सुख चाह रहे हैं। दूसरे बदल जाते हैं, लेकिन दूसरे से सुख चाहना नहीं बदलता। आज मैं एक स्त्री से सुख चाह सकता हूं? कल दूसरी स्त्री से, परसों तीसरी स्त्री से। स्त्रियां बदल जाती हैं। आज मैं बेटे से सुख चाहता हूं कल मित्र से चाहता हूं परसों किसी और से चाहता हूं। आज अपनी मां से सुख चाहता हूं आज अपने पिता से सुख चाहता हूं कल अपनी पत्नी से सुख चाहता हूं लेकिन दूसरा, दि अदर मेरे सुख का केंद्र होता है। और मनुष्य के पूरे इतिहास में एक भी अपवाद नहीं है, एक भी एक्सेप्शन नहीं है, एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है आज तक कि मुझे दूसरे से सुख मिला। आपको भी नहीं मिला है।

लेकिन एक बड़े मजे की बात है। जब दूसरे से सुख नहीं मिलता, तब आप एक दूसरी भूल करते हैं। और वह दूसरी भूल यह है कि दूसरे से दुख मिला। जब दूसरे से सुख नहीं मिल सकता, तो ध्यान रखना, दूसरे से दुख भी नहीं मिल सकता। भ्रांति एक ही है।

कोई सोचता है, दूसरे से सुख मिल जाए यह हो नहीं सकता। क्योंकि सुख की सारी संभावना स्वयं से खुलती है, दूसरे से नहीं। खुलती ही नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे कोई रेत से तेल निकालना चाहे और न निकले। इसमें कोई रेत का कसूर नहीं है। रेत में तेल है ही नहीं। दूसरे में सुख है ही नहीं। लेकिन जब दूसरे में विफलता आती है—जो कि आएगी ही—तो हम सोचते हैं, दूसरे से दुख मिला। यह दूसरी भूल है। क्योंकि जिससे सुख नहीं मिल सकता, उससे दुख भी नहीं मिल सकता।

तब दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं। सब दुख स्वयं के कारण मिलते हैं और सब सुख स्वयं के कारण मिलते हैं। सुख और दुख का केंद्र स्वयं की तरफ है। लेकिन हमारी आशा के जो तीर हैं, वे दूसरे की तरफ लगे रहते हैं। यह वृथा आशा है, और ऐसा व्यक्ति मूढ़ है। मूढ़ वह इसलिए कि वह जीवन के नियम को समझ ही नहीं पा रहा है। और जीवन का नियम प्रतिपल प्रकट हो रहा है।

जब भी चाहोगे दूसरे से सुख, तत्काल दुख मिलेगा। यह दुख दूसरे से नहीं मिलता, दूसरे से सुख चाहने के कारण मिलता है। आपने नियम के विपरीत चलने की कोशिश की, इसलिए दुख मिल जाता है। आपने नियम के प्रतिकूल बहने की कोशिश की, टांग टूट जाती है। आपने नियम के प्रतिकूल चलने की कोशिश की, दीवाल से सिर टकरा जाता है। इसमें दीवाल का कसूर नहीं है। दीवाल निकलने के लिए नहीं है। निकलना हो, तो दरवाजे से निकलना चाहिए।

लेकिन अगर आपका एक दीवाल से सिर टकराता है, तो आप तत्काल दूसरी दीवाल चुन लेते हैं कि इससे निकलने की कोशिश करेंगे। और जिंदगी भर दीवालें चुनते चले जाते हैं; और वह जो दरवाजा है, उसे चूकते चले जाते हैं। एक दीवाल से ऊबते हैं, तो दूसरी दीवाल को पकड लेते हैं। दूसरी से ऊबते हैं, तो तीसरी दीवाल को पकड़ लेते हैं। लेकिन दीवाल को नहीं छोड़ते!

हर आदमी दुखी है। दुख का कारण जीवन नहीं है। दुख का कारण जीवन बिलकुल नहीं है। क्योंकि जीवन तो परमात्मा का स्वरूप है। दुख वहा हो नहीं सकता। दुख का कारण है, जीवन के जो शाश्वत नियम हैं, उनकी नासमझी।

जमीन में कशिश है। आप एक झाडू पर से गिर पड़ेंगे, तो टांग टूट जाएगी। इसमें न तो झाडू का कोई हाथ है और न जमीन का कोई हाथ है। जमीन तो सिर्फ चीजों को नीचे की तरफ खींचती है। आपको झाडू पर सम्हलकर चढ़ना चाहिए। आप गिरते हैं, तो आप जिम्मेवार हैं , आप यह नहीं कह सकते हैं कि जमीन की कशिश ने मेरे पैर तोड़ डाले। जमीन को कोई आपसे मतलब नहीं है। आप न गिरे होते, तो जमीन की कशिश भीतर पड़ी रहती। वह नियम आप पर लागू न होता। नियम तो काम कर रहे हैं। जब आप उनके प्रतिकूल होते हैं, तो दुख उत्पन्न हो जाता है, जब उनके अनुकूल होते हैं, तो सुख उत्पन्न हो जाता है।

ध्यान रखें, सुख का एक ही अर्थ है, जीवन के नियम के जो अनुकूल है, वह सुख को उपलब्ध हो जाता है। दुख का एक ही अर्थ है कि जीवन के नियम के जो प्रतिकूल है, वह दुख को उपलब्ध हो जाता है। अगर आप दुखी हैं। तो स्मरण कर लें कि आप जीवन के आधारभूत नियम के प्रतिकूल चल रहे हैं। कभी भूल—चूक से अगर आपको सुख की कोई झलक मिलती है, तो वह इसीलिए मिलती कि कभी भूल—चूक से आप जीवन के नियम के अनुकूल पड़ जाते हैं। कभी भूल से आप दीवाल से निकलना भूल जाते हैं और दरवाजे से निकल जाते हैं। या कभी ऐसा हो जाता है कि आप दरवाजे को दीवाल समझ लेते हैं और निकल जाते हैं। लेकिन जब भी सुख फलित होता है, तो नियम की अनुकूलता से।

वृथा आशा का अर्थ है, नियमों के प्रतिकूल आशा। जैसा मैंने उदाहरण के लिए आपसे कहा, दूसरे से सुख मिल सकता है, यह एक वृथा आशा है। इसका चुकता परिणाम दुख होगा। और जब दुख होगा, तो हम कहेंगे, दूसरे से दुख मिल रहा है। हम अपनी भ्रांति नहीं छोड़ेंगे, यह मूढ़ता है। दुख मिल रहा है, सबूत हो गया कि मैंने जो चाह की, वह नियम के प्रतिकूल थी।

दूसरे से कुछ भी नहीं मिल सकता है। दूसरे से मिलने का कोई उपाय ही नहीं है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह हम अपने ही भीतर खोदकर पाते हैं।

और दूसरी तरफ से समझने की कोशिश करें। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारों ओर आशाओं का, इच्छाओं का एक जाल बुनता है। अगर आशाएं टूटती हैं, जाल टूटता है, इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो वह समझता है कि परमात्मा नाखुश है, भाग्य साथ नहीं दे रहा है। लेकिन वह यह कभी नहीं सोचता कि मैंने जो जाल बुना है, वह जाल गलत है।

भाग्य हर एक के साथ है। भाग्य का अर्थ है, जीवन का परम नियम, दि अल्टिमेट ला। भाग्य सबके साथ है। जब आप भाग्य के साथ होते हैं, तो सफल हो जाते हैं। जब आप भाग्य के विपरीत हो जाते हैं, तो असफल हो जाते हैं। भाग्य किसी के विपरीत नहीं है। लेकिन हमारे जाल में ही बुनियादी भूलें होती हैं। थोड़ा अपने जाल की तरफ देखें।

एक आदमी चाहता है कि धन मुझे मिल जाए, तो मैं धनी हो जाऊंगा। भीतर एक निर्धनता का बोध है हर आदमी को, एक इनर पावर्टी है। हर आदमी को लगता है भीतर, मेरे पास कुछ भी नहीं है; एक खालीपन, एंप्टीनेस, रिक्तता है। भीतर कुछ भी नहीं है। इसे कैसे भर लूं! इस रिक्तता को भरने की दौड़ शुरू होती है।

कोई आदमी धन से भरना चाहता है। गलत जाल रचना शुरू कर दिया। क्योंकि ध्यान रहे, धन भीतर नहीं जा सकता, और भीतर है निर्धनता। और धन बाहर रह जाएगा। धन भीतर जाता ही नहीं। इसलिए एक बड़े मजे की घटना घटती है, जितना धन इकट्ठा होता है, उतनी भीतर की निर्धनता और प्रकट होने लगती है। इसलिए अमीर आदमी से ज्यादा गरीब आदमी जमीन पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि अमीरों के बेटे—बुद्ध और महावीर—अमीरी को छोड्कर सड़क पर भीख मांगने चले गए। यह बड़े मजे की बात है! जैसे ही किसी मुल्क में अमीरी बढ़ती है, वैसे ही उस मुल्क में एक भीतरी दीनता का भाव गहन हो जाता है। जब तक मुल्क गरीब होता है, तब तक भीतरी गरीबी का पता नहीं चलता। आज पश्चिम के सभी विचारक आंतरिक दरिद्रता की बात करते हैं। चाहे सार्त्र, चाहे कामू चाहे हाइडेगर, वे सभी यह कहते हैं कि आदमी भीतर बिलकुल खाली है, एंप्टी है। इसको हम कैसे भरें?

गरीब आदमी को पता चलता है, पेट खाली है; अमीर आदमी को पता चलता है, आत्मा खाली है। पेट को भरना बहुत कठिन नहीं है, आत्मा को भरना बहुत कठिन है। असल में पेट खाली होता है, तो आत्मा के खाली होने का खयाल ही नहीं उठ पाता। इसलिए असली गरीबी तो उस दिन शुरू होती है, जिस दिन यह बाहरी गरीबी मिटती है। उस दिन असली गरीबी शुरू होती है।

एक और गहरी गरीबी है। उस गरीबी को भरने का भाव मन में होता है। क्योंकि खाली कोई भी नहीं रहना चाहता। खाली होना पीड़ा है। भरापन चाहिए, एक फुलफिलमेंट चाहिए।

कैसे उसको भरें? आदमी धन इकट्ठा करने में लग जाता है। नियम की भूल हुई जा रही है। धन इकट्ठा हो जाएगा, तो भी भीतर भर नहीं सकता। क्योंकि बैंक बैलेंस किसी भी तरह इनर बैलेंस नहीं बन सकता। वह तिजोड़ी में भरता जाएगा। आत्मा में कैसे धन जाएगा?

तो जो आदमी धन इकट्ठा करके सोचता हो कि मैं भरापन पा लूं वह वृथा आशा कर रहा है। अगर असफल हुआ, तब तो असफल होगा ही; अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।

इसको और ठीक से समझ लें।

अगर असफल हुआ, धन न कमा पाया, तब तो असफल होगा ही। क्योंकि जीवन दुख से भर जाएगा, फ्रस्ट्रेशन से, विषाद से, कि इतनी कोशिश की और धन भी न कमा पाया! और अगर सफल हो गया, तो और भी बड़ी असफलता अनुभव होगी कि धन कमा लिया; पूरा जीवन गंवा दिया; और धन का ढेर लग गया; और मैं तो खाली का खाली हूं!

कठिनाई धन में नहीं है, बुराई धन में नहीं है। धन का कोई कसूर नहीं है। आपको नियम की समझ नहीं है। आप उससे भरना चाहते थे भीतर की कमी को, जो भीतर नहीं जा सकता! इसमें धन का क्या कसूर है? फिर यह पागल धन को गालियां देना शुरू करेगा। दूसरी भूल शुरू हुई। फिर यह धन को गाली देना शुरू करेगा कि धन पाप है, कि धन बुरा है, कि धन मैं छूना नहीं चाहता। यह वही की वही भूल है। धन का इसमें कोई कसूर नहीं है। धन क्या कर सकता है? धन बाहर की चीज है, बाहर के काम आ सकता है। उसे भीतर भरने की कोशिश आपकी भूल थी, धन का कोई कसूर न था।

तीसरी तरफ से देखें।

एक आदमी यश पाना चाहता है, प्रतिष्ठा पाना चाहता है, अहंकार पाना चाहता है—जाना जाए कि वह कोई है! एक अर्थ में ठीक है। खोज है यह भी आंतरिक। हर आदमी जानना चाहता है, वस्तुत: मैं कौन हूं। यह बिलकुल भीतरी भूख है। जानना चाहता है, मैं कौन हूं। लेकिन गलत रास्ते पर जा सकता है। बजाय यह जानने के कि मैं कौन हूं दूसरों को जनाने चल पड़े कि मैं कौन हूं। तो उपद्रव शुरू हो गया! बजाय जानने के कि मैं कौन हूं क्योंकि मैं कौन हूं यह तो भीतरी खोज है, दूसरों को जनाने की कोशिश कि मैं कौन हूं...।

जरा देखें, किसी राजनीतिज्ञ को आपका धक्का लग जाए, तो वह आपकी तरफ आंख उठाकर कहेगा, जानते नहीं, मैं कौन हूं? उसको खुद भी पता नहीं है। लेकिन जब वह कह रहा है, जानते नहीं, मैं कौन हूं तो उसका मतलब है कि अखबार में रोज फोटो छपती है, फिर भी जानते नहीं, मैं कौन हूं! अभी न भी होऊं मिनिस्टर, तो कोई हर्ज नहीं। पहले मिनिस्टर रह चुका हूं भूतपूर्व हूं एक्स मिनिस्टर हूं! जानते नहीं, मैं कौन हूं!

आदमी जानना चाहता है स्वयं कि मैं कौन हूं यह उसकी भीतरी भूख है। लेकिन नियम की भूल हो सकती है। और तब वह आदमी दूसरों को जनाने निकल पड़ेगा कि मैं कौन हूं। जिंदगी बीत जाएगी दूसरों को समझाते—समझाते कि मैं यह हूं, मैं यह हूं। और आखिर में वह पाएगा, अगर सफल हो गया, तो भी असफल हो जाएगा। आखिर में पाएगा, सबने जान लिया है कि मैं कौन हूं—प्रधानमंत्री हूं कि राष्ट्रपति हूं कि यह हूं या वह हूं—और मुझे खुद तो अभी तक पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूं। तब एक भारी विफलता हाथ लगेगी। अगर असफल हुआ, तो असफल होगा। अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।

वृथा आशा का अर्थ है, सफलता संभव ही नहीं है। चाहे जीतो, चाहे हारो, हार निश्चित है। सफलता संभव ही नहीं है। तो दुनिया में जो लोग। बहुत यश पा लेते हैं, बड़ी पीड़ा से भर जाते हैं। जिंदगी भर कोशिश की यश को कमाने के लिए। अखबारों की कटिंग काटकर घर में रख लेते हैं। फाइल बना लेते हैं। फिर कोई पूछता ही नहीं। फिर एक वक्त आता है कि सब जान लेते हैं। अब बात समाप्त हो गई। भीतर कुछ घटित नहीं होता। भीतर कुछ घटित नहीं होता।

इसलिए बहुत प्रतिष्ठित लोग भीतर बहुत अप्रतिष्ठा में मरते हैं। बहुत यशस्वी लोग भीतर बड़ी हीनता के बोध से भर जाते हैं; बड़ी इनफीरिआरिटी पकड़ लेती है। सब जानते हैं उन्हें, वे खुद ही अपने को नहीं जानते हैं! सब पहचानते हैं उन्हें, खुद ही वे अपने को नहीं पहचानते हैं! सारी दुनिया उन्हें जान लेती है, और वे अपने से अपरिचित खड़े हैं! पीड़ा पैदा होगी। वृथा आशा!

तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ता का पहला लक्षण, वृथा आशा।

वृथा कर्म। ऐसे कर्म हैं, जो वृथा हैं, लेकिन हम किए चले जाते हैं। वृथा कर्म से अर्थ है, ऐसा कर्म, जिससे सिवाय अहित के और कुछ भी नहीं होता। उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध वृथा कर्म है, लेकिन रोज किए चले जाते हैं। रोज करते हैं, रोज पछता भी लेते हैं। रोज मन में तय भी कर लेते हैं कि अब नहीं करूंगा, क्योंकि वृथापन समझ में आता है। लेकिन घड़ी दो घड़ी भी नहीं बीत पाती है कि क्रोध फिर होता है।

इस कर्म से आपको कोई फायदा नहीं होता। कभी किसी को नहीं हुआ। हो नहीं सकता है। क्योंकि क्रोध का अर्थ है, दूसरे की गलती के लिए अपने को सजा देना। एक आदमी ने मुझे गाली दे दी, यह गलती उसकी है। क्रोध मैं कर रहा हूं सजा मैं अपने को दे रहा हूं। वृथा कर्म का अर्थ है, गलती किसी और की, अपराधी कोई और, सजा कोई और भुगत रहा है।

वृथा कर्म का अर्थ है, जिससे सिवाय हानि के और कुछ भी नहीं होता, लेकिन फिर भी हम किए चले जाते हैं। क्यों किए चले जाते हैं? एक यांत्रिक आदत के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। एक मूर्च्छा, एक निद्रा पकड़े हुए है, और किए चले जाते हैं। कल भी किया था, आज भी किया है। सौ में निन्यानबे मौके हैं कि कल भी करेंगे। जीवनभर—अगर आप अपने वृथा कर्मों का अनुपात जोड़े, तो आपको पता चलेगा कि आपका पूरा जीवन वृथा कर्मों का एक जोड़ है।

अहंकार के लिए हम कितने कर्म करते रहते हैं! शायद हमारे जीवन का निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा ऐसे कर्मों में संलग्न होता है, जिससे हम अपने अहंकार को मजबूत करके दूसरों को दिखाना चाहते हैं। चाहे हम कपड़े पहनते हों, चाहे हम मकान बनाते हों, चाहे हम अपनी पत्नी को गहने से लाद देते हों, इन सबके पीछे, इस सारी दौड़ के पीछे, एक मैं को प्रकट करने की चेष्टा चल रही है कि मैं हूं। और मैं साधारण नहीं हूं नोबडी नहीं हूं समबडी हूं। इस मैं को मजबूत करने की कोशिश चल रही है। इस कोशिश में हम सारा जीवन गंवा देते हैं। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है, सिर्फ इसलिए कि दूसरों के मकानों को छोटा करके दिखा दे। समझ लीजिए, दिखा भी दिया। दूसरों के मकान छोटे भी हो गए, आपका मकान बड़ा हो गया। होगा क्या? इससे क्या फलित होगा?

यह छोटे बच्चे जैसी दौड़ है। छोटे बच्चे अक्सर अपने बाप के पास टेबल पर ऊपर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा हो गया। अगर आपके मकान के बड़े होने से आप पड़ोसी से बड़े होते हैं, तो इस बच्चे के तर्क में कोई गलती नहीं है। तब तो जो छिपकली आपकी छत पर चल रही है, वह आपसे बड़ी हो गई! अगर मकान ऊंचा होने से आप बड़े हो सकते, तो बड़ा होना एकदम आसान था। तब तो आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो गई। तब तो उनके ऊपर और बादल उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो गई। और चांद—तारे हैं; कहा तक ऊपर जाइएगा? और कहीं ऊंचाई, भौतिक ऊंचाई, भीतरी ऊंचाई से कोई संबंध रखती है?

अक्सर उलटा होता है। अक्सर यह होता है कि भीतरी ऊंचाई से भरा हुआ आदमी बाहरी ऊंचाई की चिंता ही नहीं करता। क्योंकि इतना आश्वस्त होता है भीतरी ऊंचाई से कि बाहरी ऊंचाई से क्या फर्क पड़ता है! इसलिए अक्सर अगर बाप से उसका बेटा कुर्सी पर चढ़कर कहे कि मैं तुमसे बड़ा हो गया, तो बाप खुश होता है, और कहता है, बिलकुल ठीक, जरूर बड़े हो गए। अगर बाप से बेटा कुश्ती लड़ता है, तो बाप चित जमीन पर लेट जाता है, बेटे को जीत जाने देता है। क्योंकि खुद की जीत इतनी सुनिश्चित है कि उसे सिद्ध करने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। बेटे को हराने में भी क्या अर्थ है? हारा ही हुआ है।

लेकिन अगर बाप कभी ऐसा मिल जाए—और बहुत बाप मिल जाएंगे, जो छोटे—से बेटे को दबाकर उसकी छाती पर बैठ जाएंगे कि मैं तेरा बाप हूं तू मुझे हराने की कोशिश कर रहा है?

यह जो छाती पर बेटे की बैठा हुआ बाप है, यह हार गया। इसे भरोसा ही नहीं है, बाप होने का भी भरोसा नहीं है। जो गुरु अपने शिष्य को हराने में लगा हो, वह हार गया। गुरु की तो गुरुता इसमें है कि शिष्य अगर लड़ने आ जाए तो वह हार जाए और कह दे कि बैठ जाओ मेरी छाती पर; जीत गए तुम।

जितना आश्वासन हो अपने भीतर की स्थिति का, यथार्थ का, उतनी ही बाहर की बातें बेमानी हो जाती हैं। लेकिन हम जो कर्म कर रहे हैं, वे बाहर की बातों के लिए हैं। हम सफल भी हो जाएंगे, तब हम पाएंगे कि वृथा हुआ कर्म, वृथा हुई दौड़।

यह सारे जीवन की दौड़ का क्या हुआ? क्या है निष्पत्ति? यह इतना कर्म, इतने विराट कर्म का आयोजन, फल क्या है? इतनी दौड़— धूप, पहुंचना कहां होता है? पसीना बहुत बह जाता है, हाथ तो कुछ आता नहीं है!

कृष्ण इसे वृथा कर्म कहते हैं। क्या कहते हैं, यह कर्म व्यर्थ है। मूढूजन व्यर्थ कर्म करते रहते हैं।

सार्थक कर्म क्या है? सार्थक कर्म का अर्थ है, व्यर्थ कर्म से कितना ही हम कुछ करें, कभी कुछ नहीं निकलता; और सार्थक कर्म से अभी निकलता है और यहीं निकलता है। व्यर्थ कर्म से कभी कुछ नहीं निकलता। और सार्थक कर्म से अभी निकलता है, यहीं निकलता है, कल की प्रतीक्षा नहीं करनी होती।

जैसा मैंने कहा, जब आप क्रोध करते हैं, तो आप भीतर जल जाते हैं। रास्ते पर चलते हुए एक अनजान बच्चे की तरफ देखकर आप मुस्कुरा देते हैं, तो भीतर आप खिल जाते हैं। एक आदमी रास्ते पर चला जा रहा है, उसका सामान गिर जाता है, आप उठाकर दे देते हैं और अपने रास्ते पर चले जाते हैं। यह कृत्य बहुत छोटा है, लेकिन भीतर बहुत अर्थ रखता है। कृत्य बिलकुल छोटा है। एक आदमी का छाता गिर गया है और आपने उठाकर दे दिया और अपने रास्ते पर चले गए। कहीं कोई विराट कर्म नहीं हो गया है। कोई अखबारों में इसकी खबर नहीं छपेगी। इतिहास में कोई लेखा—खोजा नहीं होगा।

लेकिन जो आदमी दूसरे के छाते के लिए झुक जाता है, उठाकर हाथ में दे देता है और चल पड़ता है, इसके भीतर इसी वक्त कुछ हो गया। दूसरे के लिए इतना करने का जो सदभाव है, वह भीतर आनंद को इसी क्षण जन्म दे जाता है—इसी क्षण, कल के लिए नहीं रुकना पड़ेगा।

लेकिन हम किसी का छाता भी इतनी आसानी से उठाकर नहीं दे सकते। छाता उठाकर हम खड़े होकर देखेंगे कि धन्यवाद देता है या नहीं। तब हमने व्यर्थ आशा शुरू कर दी। और हम चूक गए एक मौका, एक शुद्ध प्रेम के कृत्य का, ए प्योर एक्ट आफ लव। मौका चूक गए। हमने धन्यवाद में उसको भी बेच दिया। अपेक्षा ने उसे भी नष्ट कर दिया।

सार्थक कर्म वह है, जो हमारी आत्मा से सहज फलित होता है और जिस कर्म में अनिवार्य रूप से प्रेम मौजूद होता है। व्यर्थ कर्म वह है, जो हानिकर है, और जिसमें अनिवार्य रूप से क्रोध मौजूद रहता है, या अहंकार मौजूद रहता है; या ईर्ष्या मौजूद रहती है। वे सब एक ही बीमारी के अलग— अलग नाम है।

सार्थक कर्म अगर हमारे जीवन में बढ़ जाएं, तो हमें कल के लिए आशा नहीं रखनी पड़ती, आज ही हम धनी हो जाते हैं। लेकिन सार्थक कर्म को पहचानने का क्या रास्ता है? एक ही रास्ता है, जो कर्म इसी क्षण सारे प्राण को आनंद से भर जाए—इसी क्षण।

और ध्यान रहे, इसी क्षण केवल वे ही कृत्य आपके प्राण को आनंद से भर सकते हैं, जिन्हें पुराने धर्मशास्त्रों में पुण्य कहा है। पाप का अर्थ है, वृथा कर्म, जिससे कभी कोई निष्पत्ति न होगी। पुण्य का अर्थ है, ऐसा कर्म, जो अभी आनंद से भर जाता है।

लेकिन हम ऐसे बेईमान हैं और ऐसे चालाक हैं कि हम पुण्य को भी वृथा कर्म की कोटि में बना लिए हैं, रख दिए हैं। हम अगर पुण्य भी करते हैं, तो इसलिए कि आगे कुछ मिले। एक आदमी अगर एक पैसा भी दान करता है, तो वह पक्का कर लेता है कि इसके कितने गुना ज्यादा मुझे स्वर्ग में मिलेगा।

व्यर्थ हो गया। पुण्य का शुद्ध कृत्य, किसी आदमी को एक पैसा देने का, यह छोटा—सा कृत्य भी बहुत बड़ा हो सकता था, अगर इसके पीछे कोई मांग न होती, इसके पीछे अगर कोई आशा न होती, कोई अपेक्षा न होती। सिर्फ इस घडी में एक आदमी पीड़ा में था और मैंने, चूंकि मेरे पास था, दे दिया था। इससे ज्यादा इसमें कुछ भी न होता, तो यह पुण्य का कृत्य था और एक फूल की तरह मेरे जीवन में खिल जाता और इसकी सुगंध कभी भी समाप्त न होती। और यह फूल कभी भी मुर्झाता नहीं। और यह मेरे प्राणों की। अनिवार्य संपत्ति हो जाती।

धन से प्राण नहीं भरे जा सकते, लेकिन ऐसे फूल इकट्ठे होते चले जाएं, तो प्राण भर जाते हैं। और फुलफिलमेंट, एक भरापन अनुभव होने लगता है।

लेकिन मैं चूक गया। मैंने पहले पक्का कर लिया कि यह एक पैसा जो मैं दे रहा हूं इसका कितने गुना मुझे मिलेगा। मैंने इसको भी भविष्य में खींच दिया। मैंने इसे भी वासना बना दिया। मैंने इसमें भी भविष्य को निर्मित कर लिया और आशा निर्मित कर ली। अब मैं दुख पाऊंगा। यह क्षण भी मैंने खोया, यह पैसा भी मैंने खोया, और अब यह भविष्य मुझे दुख देगा। क्योंकि कोई स्वर्ग इसके उत्तर में मिलने वाला नहीं है। स्वर्ग इतना सस्ता नहीं है।

पुण्य से स्वर्ग नहीं मिलता; पुण्य स्वयं स्वर्ग है। तो पुण्यों के जोड़ से स्वर्ग नहीं मिलता, पुण्य में होना ही स्वर्ग में होना है। पुण्य! एटामिक एक्ट का नाम है; एक—एक आणविक कृत्य। बस, मुझे आनंद था, बात समाप्त हो गई। इसके आर—पार नहीं देखना है। लेकिन हम हमेशा आशा में जीते हैं।

कृष्ण कहते हैं, और वृथा ज्ञान वाले।

वृथा ज्ञान क्या है? जो ज्ञान अपने काम न आए, वह वृथा है। और हम सबके पास ऐसा—ऐसा ज्ञान है, जो काम कभी भी नहीं आता। दुनिया में ज्ञान की कोई भी कमी नहीं है। शायद जरूरत से ज्यादा है। और हर आदमी के पास पर्याप्त मात्रा में है, जरूरत से ज्यादा है। इसलिए हरेक बांटता रहता है, हर किसी को बांटता रहता है।

इस दुनिया में जितने मुक्तहस्त होकर हम ज्ञान बांटते हैं, और कोई चीज नहीं बांटते। हालांकि कोई लेता नहीं आपके ज्ञान को, पर आप बांटते चले जाते हैं। क्योंकि दूसरे के पास भी पहले से ही काफी है। कोई किसी की सलाह नहीं मानता। इस दुनिया में जो सबसे ज्यादा दी जाती है चीज, वह सलाह है। और जो सबसे कम ली जाती है, वह भी सलाह है। कोई नहीं मानता, लेकिन आप बाटे चले जाते हैं।

यह ज्ञान, जो आप बांटते फिरते हैं, आपके किसी काम आया है कभी? इसका आपने कभी कोई उपयोग किया? यह ज्ञान कभी आपके जीवन का अंतरंग हिस्सा बना? यह ज्ञान आपकी बीइंग, आपकी आत्मा बना? यह ज्ञान कभी आपके हृदय में धड़का और आपके खून में बहा? यह ज्ञान कभी आपके मस्तिष्क की मज्जा बन पाया? या बस कोरे शब्द हैं, जो आपके भीतर गूंजते रह जाते हैं? आप एक ग्रामोफोन रिकार्ड हैं?

जरा खयाल करेंगे अपनी बुद्धि का तो आपको पता लगेगा कि बिलकुल ग्रामोफोन रिकार्ड हैं। कुछ है, जो डाल दिया जाता है भीतर, फिर आप उसे बाहर डालते रहते हैं। यह ज्ञान वृथा है। क्योंकि जो ज्ञान जीवन को रूपांतरित न कर जाए, आपके खुद ही काम न आए, वह इस दुनिया में किसी और के काम न आ सकेगा। ज्ञान वही सार्थक है, जिसे जानने से ही मेरे जीवन में रूपांतरण हो।

ज्ञान का अर्थ ही है, जो क्रांति हो जाए! जानूं और बदल जाऊं। जानूं और बदलू न, जानकर भी वही रह जाऊं, जो अनजाने में था, अज्ञान में था, तो इस ज्ञान और अज्ञान में फर्क क्या है?

आप गीता पढ़ जाएं और वही के वही आदमी रहें, जो गीता पढ़ने के पहले थे, तो इस गीता के साथ जो मेहनत हुई, वह व्यर्थ गई। और इस गीता ने जो आपको दिया, वह बेकार है, दो कौड़ी का भी नहीं है। क्योंकि आप वही के वही हैं, कहीं कोई फर्क नहीं हुआ।

मैं देखता हूं गीतापाठी हैं, चालीस साल से गीता पढ़ रहे हैं।  कई सत्संगी हैं, वे रोज सुबह से उठकर सत्संग करते रहते हैं। नियमित करते रहते हैं। कौन वहां बोल रहा है, कौन नहीं बोल रहा है, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं है, सत्संग करना उनका धंधा है। अपना रोज सुबह सत्संग कर आते हैं। वह वैसे ही, जैसे कोई आदमी रोज सुबह उठकर चाय पीता है, कोई रोज सुबह उठकर सिगरेट पीता है, ये सत्संग करते हैं!

चालीस साल से ये सत्संग कर रहे हैं। शायद सिगरेट पीने वाले को कुछ असर भी हुआ हो, कैंसर हो गया हो, टी बी हो गई हो, वह भी इनको नहीं हुआ। कुछ नहीं हुआ इन्हें। ये सत्संग से ऐसे बचकर निकल जाते हैं! और इनको करवाने वाले लोग भी बैठे हुए हैं कि वे इनको करवाते रहते हैं! वे भी इनको करवाते रहते हैं! उनको भी इससे प्रयोजन नहीं है।’

कुछ हैं, जिनको सत्संग करवाना ही है, वह उनकी बीमारी है। कुछ हैं, जिनको सत्संग करना ही है, वह उनकी बीमारी है। ये दोनों तरह के बीमार मिल जाते हैं, फिर चलता रहता है ज्ञान का लेन—देन! कहीं कोई फल नहीं होता। हां, एक फल होता दिखाई पड़ता है कि धीरे— धीरे ये सुनने वाले सुनाने वाले बन जाते हैं, यह एक फल दिखाई पड़ता है! जो सुनते रहे काफी दिन, फिर इतना ज्ञान इकट्ठा हो जाता है कि अब उसका क्या करें मे तो ज्ञान का एक ही उपयोग मालूम पड़ता है कि दूसरे को ज्ञानी बनाओ! स्वयं से उसका कोई लेना—देना नहीं है।

अपने भीतर आप जांच करना, कौन—सा ज्ञान है, जिसने आपको छुआ हो, जिसने आपको स्पर्श किया हो, जिसके बाद आप वही आदमी न रह गए हों, जो आप पहले थे, रत्तीभर भी बदल गया हो कुछ!

कुछ बदलता दिखाई नहीं पड़ता हो, तो कृष्ण कहते हैं, यह वृथा ज्ञान है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति, ऐसा वृथा ज्ञानी मूढ़ है। थोड़ा—सा ज्ञान काफी है, जो बदले। ऐसी आग को घर में जलाकर भी क्या करेंगे, जिससे आंच भी न निकलती हो! एक प्याली चाय भी बनानी हो, तो न बनती हो! और जला रहे हैं जिंदगी भर से, और घर में चिल्लाते फिर रहे हैं कि आग जल रही है! कुछ नहीं होता।

थोड़ा—सा इंचभर भी जीवन बदलता हो, ऐसे ज्ञान की तलाश करनी चाहिए; और ऐसे ही ज्ञान पर भरोसा करना चाहिए; और ऐसे ही ज्ञान को भीतर जाने देना चाहिए। व्यर्थ के ज्ञान को भीतर नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि भीतर कचरा भरने के लिए स्थान नहीं है। जो बहुत कचरा भीतर भर लेता है, फिर कभी सार्थक भी दरवाजे पर आ जाए तो वह कचरे की वजह से भीतर नहीं जा सकता।

तो कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान वृथा है, जिस ज्ञान से कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा व्यक्ति मूढ़ है। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान से भरे हुए मूढूजन।

इसके बाद वे दूसरे हिस्से में उनकी बात करते हैं, जो मूढ़ नहीं हैं। वे कहते हैं, हे पार्थ, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन, मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर भजते हैं।

इसमें दो बातें समझ लेने की हैं। एक तो दैवी प्रकृति के आश्रित हुए—यह कीमती हिस्सा है।

इस जगत में ऊपर की तरफ जाने वाला प्रवाह है, नीचे की तरफ जाने वाला प्रवाह है। आप जिस प्रवाह को चुन लेते हैं, वही प्रवाह आपके जीवन को गतिमान करने लगता है। इस जीवन में पूरब की तरफ भी हवाएं चलती हैं, और पश्चिम की तरफ भी। जब पश्चिम की तरफ हवाएं चलती हैं, तब अगर आप अपनी नाव को खोल देते हैं, तो आप पश्चिम की तरफ पहुंच जाते हैं। इस जगत में पूरब की तरफ भी हवाएं चलती हैं। जरा प्रतीक्षा करें और नाव का पाल तब खोलें, जब पूरब की तरफ हवाएं चलती हैं, तो आप पूरब पहुंच जाते हैं।

प्रतिपल जीवन में नीचे की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं और ऊपर की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं। आप जिन हवाओं का सहारा ले लेते हैं, आप उसी यात्रा पर निकल जाते हैं। जब कोई आपको गाली देता है, तब यह हवा दूसरी तरफ जा रही है। अगर आपने अभी पाल खोल दी अपनी नाव की, तो आप क्रोध के जगत में उतर जाएंगे। यह आपका जिम्मा है, यह गाली देने वाले का नहीं है। इस जगत में सब हो रहा है, यह आप पर निर्भर है। जब कोई शांत ध्यान में बैठा है, तब भी एक हवा दूसरी तरफ बह रही है। काश, आप भी इसके पास शांत होकर थोड़ी देर बैठ जाएं, तो शायद आपकी नाव किसी दूसरी यात्रा पर निकल जाए।

कृष्ण कहते हैं, यह मूढ़ता है, यह मूढ़— भाव है।

अमूढ़, बुद्धिमान वह है, जो अपने को दैवी प्रकृति के आश्रित कर लेता है। जो चौबीस घंटे इस खोज में रहता है कि परमात्मा की तरफ कहां हवा बह रही है, मैं उसमें सम्मिलित हो जाऊं। मेरे सहारे तो शायद मैं न जा सकूं। शायद अकेला मेरा इतना बल नहीं; शायद मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं; लेकिन हवा जब बह रही हो, तो मैं सम्मिलित हो जाऊं।

हम भी खोजते हैं हवाएं, लेकिन हम वे हवाएं खोजते हैं, जो हमें नर्क की तरफ ले जाएं। हवाओं का कोई कसूर नहीं है। आप खोल लेते हैं पाल बेवक्त, फिर दुख पाते हैं। समझदार आदमी समय पर पाल खोलना जानता है। और सदा तलाश में रहता है कि कब पाल बंद कर ले, कब पाल को खोल ले; कब नाव को छोड़ दे, कब नाव को रोक ले। थोड़े ही दिन में उसे पता चल जाता है कि इस जीवन में दो धाराएं हैं, दो आकर्षण हैं, दो मैग्नेट्स हैं, जो काम कर रहे हैं।

जैसा मैंने आपको कल कहा कि मनुष्य अपूर्ण है और वह नीचे की तरफ भी जा सकता है, आखिरी नीचाई तक जा सकता है; और वह आखिरी ऊंचाई तक भी जा सकता है। वह निम्नतम हो सकता है और श्रेष्ठतम भी। अब यह उस पर ही निर्भर है कि वह किस धारा के वशीभूत होता है।

दैवी धारा उसे कहते हैं, जो आपके भीतर रोज—रोज दिव्यता को बढ़ाती चली जाए। तो जांचते रहें अपने भीतर कि मैं जिस जीवन में चल रहा हूं उसमें मेरी दिव्यता बढ़ रही है या घट रही है?

अक्सर तो ऐसा होता है कि बुजुर्ग लोग कहते हैं कि बचपन बहुत अच्छा था, स्वर्ग था। इसका मतलब क्या हुआ? मैं बूढ़े कवियों को मिलता हूं तो वे गीत गाते हैं बचपन के। वे कहते हैं, बचपन स्वर्ग था। वह शाति! वह निर्दोषता!

तो जिंदगी भर कहा बहे तुम? बचपन तो शुरुआत थी यात्रा की। अब बूढ़े हो गए, अस्सी साल के हो गए, अभी भी कहते हो, बचपन बड़ा निर्दोष था, तो यह पूरी जिंदगी यात्रा तुमने किस दिशा में की? गलत, कहीं तुम उलटे ही बहे। अन्यथा बुजुर्ग आदमी को कहना चाहिए कि बचपन निर्दोष था, अब महानिदोंषता फलित हुई है। बचपन आनंद था, लेकिन इस आनंद के सामने कुछ भी नहीं था, जो आज उतरा है। तब तो यात्रा बढ़ती हुई, तब तो आप दिव्य की ओर बढ़े।

अगर एक आदमी बगीचे की तरफ जाता है, तो बगीचा नहीं भी आता, तो भी बहुत पहले ठंडी हवाएं मालूम पड़ने लगती हैं, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन पक्षियों की चहचहाहट सुनाई पड़ने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब आया। अगर आप बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं, और पक्षियों की आवाज खो जाती है, फूलों की सुगंध आनी बंद हो जाती है, फिर ठंडी हवाओं का भी पता नहीं चलता, तो एक दफा तो रुककर सोचें कि बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं कि बगीचे से विपरीत चले जा रहे हैं?

हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी हमें और घने दुख में ले जाती है। हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह और बड़े नर्कों का द्वार खोलती चली जाती है। तो हम विकसित होते हैं या पतित होते हैं? हम नीचे गिरते हैं या ऊपर उठते हैं?

दैवी धारा का अर्थ है, जहां से भी, जिस परिस्थिति में भी, जिस घटना में भी खड़े हों, वहा तत्काल खोजें कि इसमें दैवता की तरफ जाने का मार्ग क्या है? और मैं आपसे कहता हूं ऐसी कोई घटना नहीं है, जहां दोनों धाराएं मौजूद न हों।

एक आदमी आपको गाली देता है। आप यह भी सोच सकते हैं कि इस आदमी ने गाली दी। अगर ऐसे मैंने बरदाश्त कर लिया, तब तो हर कोई मुझे गाली देने लगेगा। इसका मुंह बंद करना जरूरी है। आपने एक धारा चुनी। आप वहीं खड़े होकर यह भी सोच सकते थे कि इस आदमी ने एक ही गाली दी; सिर्फ गाली ही दी, मुझे मारा नहीं। बड़ी कृपा है। आदमी बड़ा भला है। मार भी सकता था। आपने दूसरी धारा चुनी।

प्रत्येक घटना में दोनों धाराएं मौजूद हैं, चुनाव आपका है। ऐसा आदमी नहीं है बुरे से बुरा, जिसमें परमात्मा की झलक न हो। और ऐसा आदमी नहीं है भले से भला, जिसमें आप शैतान को न खोज लें। चुनाव आपका है। चुनाव बिलकुल आपका है। और जो आप चुनेंगे, वही आपके जीवन का प्रवाह हो जाएगा।

तो कृष्ण कहते हैं, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन हे

और महात्मा का इतना ही अर्थ होता है कि जो दैवी प्रकृति के आश्रित हुआ, जो अब सब जगह दैवता का मार्ग खोजता है, जो सब जगह मंदिर की तलाश करता है।

मैंने लोगों को मंदिर में जाते देखा है। वहां वे पता नहीं क्या तलाश करते हैं! अगर मंदिर में बैठे हुए लोगों की बातचीत सुनें, तो पता चलेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं! साधु समझा रहे हैं, उनके आस—पास बैठी हुई स्त्रियों की बातचीत सुनें कि वे क्या बातचीत कर रही हैं?

स्त्रियां इसलिए कह रहा हूं कि पुरुष तो अब साधुओं को सुनने जाते ही नहीं, इसलिए उनकी बात छोड़ दें। या जाते भी हैं, तो कुछ अपनी पत्नी के पीछे चले जाते हैं, कुछ दूसरों की पत्नियों के पीछे चले जाते हैं! साधु से कुछ लेना—देना नहीं होता।

ये जो बैठे हुए लोग हैं, इनसे पूछें कि वहां किसलिए जाते हैं? क्या बात करते हैं? क्या सोचते हो मंदिर में बैठकर? चर्च में भी बैठकर चिंतन क्या चलता है? मस्जिद में भी भीतर क्या होता रहता है? क्योंकि मस्जिद काम नहीं आएगी; वह जो भीतर हो रहा है, वही काम आएगा।

वेश्या के घर में भी बैठकर अगर भीतर दैवी आश्रित कोई बह रहा हो, तो शायद परमात्मा तक पहुंच जाए। और मंदिर में भी बैठकर अगर भीतर कोई उलटी धारा में जा रहा हो, तो परमात्मा कुछ भी नहीं कर सकता, कोई उपाय नहीं है। आप कहां है, यह सवाल नहीं है। आपकी अंतर्धारा किस ओर बही जा रही है!

महात्मा, कृष्ण उसे कहते हैं, जो दैवी प्रवाह में है। जो शुभ की, सौंदर्य की, सत्य की, सब दिशाओं से खोज करता रहता है। जिसका चुनाव शुभ का है। अशुभ दिखाई भी पड़े, तो आंख बंद कर लेता है। शुभ दिखाई न भी पड़े, तो भी देखता है। धीरे — धीरे सारा जगत शुभ हो जाता है।

सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर मुझे भजते हैं।

कुछ भी वे करते हों, कुछ भी वे सोचते हों, एक बात निरंतर, सब ओर, मैं उन्हें दिखाई पड़ता हूं। सबमें आत्यंतिक कारण की भांति छिपा हुआ, सबके भीतर सनातन मूल की तरह अप्रकट, सब स्थितियों में, सब दशाओं में मेरा भजन उनके चित्त में अनन्य रूप से चलता रहता है।

और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए, तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए भक्ति से मुझे उपासते हैं।

इसमें दो—तीन बातें समझ लेने की हैं।

एक, परमात्मा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; आप भक्त हो सकते हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। इसे फिर से दोहरा दूं? परमात्मा न हो, चलेगा। आप भक्त न हुए, नहीं चलेगा। भगवान मूल्यवान नहीं, भक्त मूल्यवान है।

ऐसा समझें कि भगवान तो खूंटी की तरह है, भक्त टांग दिए कपड़े की भांति है। खूंटी के लिए तो कोई खूंटी नहीं लगाता, कपड़ा टांगने के लिए कोई लगाता है। कपड़ा टांगने को ही न हो, तो खूंटी व्यर्थ है। और कपड़ा टांगने को हो, तो हम किसी भी चीज को खूंटी बना सकते हैं। जिस घर में खूंटी नहीं होती, लोग दरवाजे पर टांग देते हैं, खिड़की पर टांग देते हैं, कीली पर टांग देते हैं। खूंटी हो, कपड़ा ही न हो, तो क्या टागिएगा? कपड़ा हो, खूंटी न हो, तो कहीं भी टांग लेते हैं।

असली सवाल भगवान नहीं है; असली सवाल भक्त है। भगवान तो केवल निमित्त है। क्योंकि उसके बिना भक्त होना मुश्किल हो जाएगा। वह तो केवल सहारा है।

इसलिए योग के जो पुराने शास्त्र हैं, वे बहुत अदभुत हैं। वे कहते हैं कि भगवान भी एक साधन है, वह भी एक उपकरण है, जस्ट ए मीन्स। परम उपलब्धि के लिए, जीवन के परम आनंद की उपलब्धि के लिए भगवान भी एक उपकरण है, एक साधन है। और ऐसे लोग भी हुए हैं, जैसे कि बौद्ध हैं या जैन हैं; वे कहते हैं, भगवान के बिना भी चला लेंगे।

लेकिन भगवान के बिना भक्त होना बहुत मुश्किल है। भगवान के होते हुए भक्त होना मुश्किल है, तो भगवान के बिना भक्त होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। महावीर ने चला लिया, लेकिन महावीर के भक्त नहीं चला पाए। उनको फिर महावीर को ही भगवान बना लेना पड़ा। महावीर ने कहा, कोई भगवान की जरूरत नहीं, उपासना काफी है, साधना काफी है, सदभाव काफी है, सत्य काफी है। और कोई जरूरत नहीं है।

महावीर बहुत सबल व्यक्ति हैं, वे बिना भगवान के भक्त हो सके। बड़ा कठिन है। कठिन ऐसा है कि प्रेमी मौजूद न हो, प्रेमिका मौजूद न हो और आप प्रेमी हो सकें। हो सकते हैं; कठिन नहीं है। जब कोई आदमी पूरे प्रेम से भरा होता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि प्रेमी पास है या नहीं है। न हो, तो भी प्रेम तो मौजूद ही रहेगा। कोई प्रेमी के कारण तो प्रेम पैदा होता नहीं। प्रेम तो भीतर होता है, उसके कारण प्रेमी पैदा होता है। लेकिन हमारा प्रेम तो ऐसा है कि प्रेमी क्षणभर को हट जाए, तो प्रेम खो गया! वह था ही नहीं। धोखा था, प्रवंचना थी, बहाना था। एक शक्ल थी, एक चेहरा था, कोई अंतर— अवस्था न थी।

तो कृष्ण कहते हैं, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन है।

और महात्मा का इतना ही अर्थ होता है कि जो दैवी प्रकृति के आश्रित हुआ, जो अब सब जगह दैवता का मार्ग खोजता है, जो सब जगह मंदिर की तलाश करता है।

मैंने लोगों को मंदिर में जाते देखा है। वहां वे पता नहीं क्या तलाश करते हैं! अगर मंदिर में बैठे हुए लोगों की बातचीत सुनें, तो पता चलेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं! साधु समझा रहे हैं, उनके आस-पास बैठी हुई स्त्रियों की बातचीत सुनें कि वे क्या बातचीत कर रही हैं?

स्त्रियां इसलिए कह रहा हूं कि पुरुष तो अब साधुओं को सुनने जाते ही नहीं, इसलिए उनकी बात छोड़ दें। या जाते भी हैं, तो कुछ अपनी पत्नी के पीछे चले जाते हैं, कुछ दूसरों की पत्नियों के पीछे। चले जाते हैं! साधु से कुछ लेना-देना नहीं होता।

ये जो बैठे हुए लोग हैं, इनसे पूछें कि वहां किसलिए जाते हैं? क्या बात करते हैं , क्या सोचते हो मंदिर में बैठकर? चर्च में भी बैठकर चिंतन क्या चलता है? मस्जिद में भी भीतर क्या होता रहता है? क्योंकि मस्जिद काम नहीं आएगी; वह जो भीतर हो रहा है, वही काम आएगा।

वेश्या के घर में भी बैठकर अगर भीतर दैवी आश्रित कोई बह रहा हो, तो शायद परमात्मा तक पहुंच जाए। और मंदिर में भी बैठकर अगर भीतर कोई उलटी धारा में जा रहा हो, तो परमात्मा कुछ भी नहीं कर सकता, कोई उपाय नहीं है। आप कहां है, यह सवाल नहीं है। आपकी अंतर्धारा किस ओर बही जा रही है!

कृष्ण कहते हैं कि ये जो भक्तजन हैं, यह जो भक्ति की धारा है, यह जो सतत अनन्य चिंतन है, यह जो परमात्मा का स्मरण है—उसके नाम का, उसके गुणों का, उसकी स्तुति है—यह भक्त के हृदय को निर्मित करती है।

ठीक वैसे ही, जैसे बीज को हम बो देते हैं। वृक्ष तो बीज में छिपा होता है, वृक्ष बाहर से नहीं आता, वह तो बीज में छिपा होता है, लेकिन अगर पानी न डाला जाए, और अगर सूरज की धूप न मिले, तो वह जो छिपा है, वह भी प्रकट नहीं हो पाता। और अगर प्रकट भी हो जाए, और अगर माली का सहारा न मिले, और माली की सुरक्षा न मिले, तो प्रकट हो जाए, तो भी टूट जाता है।

जो है, वह तो बीज में है, लेकिन गौण सहारे आस—पास खड़े करने होते हैं। एक दिन जरूर बीज इतना बड़ा वृक्ष बन जाता है कि फिर पशुओं का डर नहीं रहता, कि फिर उसे कोई तोड़ सकेगा, इसका भय नहीं रहता। फिर वर्षा न भी हो, तो अब बीज वर्षा के भरोसे नहीं है। अब उसने अपनी जड़ें फैला ली हैं। वह दूर नीचे पाताल तक पहुंच गया है। अब वह अपना पानी खुद खींच सकता है। अब सूरज कुछ दिन न भी निकले, तो वृक्ष को बहुत चिंता नहीं है। अब उसने सूर्य की बहुत—सी ऊर्जा को छिपाकर अपने भीतर राशि—कोष निर्मित कर लिए हैं। अब वह उनसे काम चला लेगा। अब माली भूल भी जाए और छूट भी जाए, तो वृक्ष अब अपनी खुद ही सुरक्षा करने में समर्थ हो गया है। लेकिन बीज ये बातें नहीं कर सकता।

तो महावीर तो वृक्ष जैसे व्यक्ति हैं, इसलिए बिना ईश्वर के चला लेते हैं। कोई कठिनाई नहीं आती। और ईश्वर को पा लेते हैं। लेकिन हम तो छोटे—छोटे बीज हैं, इनके लिए आस—पास बहुत तरह की व्यवस्था चाहिए।

तो कृष्ण कहते हैं, ईश्वर की धारणा, ईश्वर की तरफ उन्मूखता, उपासना उपयोगी है।

उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। कहीं भी बैठे हों, अगर अनुभव करें कि परमात्मा के पास बैठे हैं, तो उपासना हो गई। घर में बैठे हों, कि मंदिर में, कि जंगल में, कहीं भी बैठे हों, अगर उसकी उपस्थिति अनुभव कर सकें, अगर अनुभव कर सकें उसका स्पर्श—कि हवाओं में वही छूता है, और सूरज की किरणों में वही आता है, और पक्षियों के गीत में उसी के गीत हैं, और वृक्षों में जो सरसराहट होती है हवा की, पत्ते जो कंपते हैं, वही कंपता है, सागर की जो लहर हिलती है, यह उसी की तरंगें हैं—अगर ऐसी प्रतीति हो सके, तो उपासना हो गई।

उपासना का अर्थ यह नहीं कि गए मंदिर में, घंटा बजाया, पूजा की; घर लौट आए। ऐसा भी नहीं है कि उसमें उपासना नहीं हो सकती है। उसमें हो सकती है। लेकिन जितनी जल्दबाजी में आदमी घंटे बजाते हैं, उससे शक होता है। जितनी जल्दी में घंटा बजाते हैं, जितनी जल्दी में पूजा—प्रार्थना करते हैं!

और देखें उनकी पूजा—प्रार्थना का जो समय है, वह काफी फ्लेक्सिबल होता है। कभी जब उन्हें फुर्सत होती है, या पत्नी से घर झगड़ा हो गया हो, या दुकान आज बंद हो, या आज अदालत न जाना हो, तो उपासना लंबी हो जाती है। आज जल्दी दफ्तर पहुंचना हो, उपासना सिकुड़कर छोटी हो जाती है। संक्षिप्त में भी निपटा देते हैं। जल्दी से घंटी बजाई है, जल्दी से सब किया है! जो और भी ज्यादा जल्दी में हैं और जिनके पास सुविधा है, वे खुद उपासना नहीं करते, नौकर—चाकर रख लेते हैं, उनसे करवा देते हैं। पंडित हैं, पुजारी हैं, उपासना के लिए आप बीच में दलाल रख लेते हैं। भगवान से आपको लेना—देना है, पंडित—पुजारी को आपसे कुछ लेना—देना है, दोनों के बीच संबंध हो जाता है, समझौता हो जाता है, सौदा हो जाता है। वह कहता है, हमें आप इतना दे देना, हम इतनी उपासना कर देंगे। और आप निश्चित हैं ' कि उपासना चल रही है!

उपासना भी उधार हो सकती है? उपासना का अर्थ है, खुद उसके पास होना। दूसरा उसके पास कैसे होगा? और वह दूसरा भी हो सकता था, उसको उसकी चिंता नहीं है। उसको चिंता आपसे पैसे लेने की है। वह जब उपासना कर रहा है मंदिर में, तब वह गिनती कर रहा है, महीने के कितने दिन बाकी बचे, कि आज तनख्वाह का दिन आ गया कि नहीं आ गया, कि वह देख रहा है, यहां से उपासना करके दूसरे के घर जाना है, फिर तीसरे के घर जाना है। दिन में एक पंडित दस—पांच घरों को निपटा देता है! निपटाना है उसे।

इसलिए ध्यान रहे, पुजारी परमात्मा से जितने दूर रह जाते हैं, उतना शायद ही कोई रह पाता हो। क्योंकि पुजारी को प्रयोजन ही नहीं रह जाता। उसका मतलब कुछ और है। यह उसके लिए धंधा है। उपासना आप उधार नहीं करवा सकते, आपको ही करनी पड़ेगी। और ऐसी उपासना का कोई मूल्य नहीं है कि मंदिर में तो परमात्मा के निकट होते हों और मंदिर के बाहर निकलते ही परमात्मा खो जाता हो। ऐसी उपासना से क्या होगा? अगर वह है, तो सब जगह है। और अगर नहीं है, तो कहीं भी नहीं है, मंदिर में भी नहीं है। अगर नहीं है, तो सब मंदिर व्यर्थ हैं। और अगर है, तो सारी पृथ्वी, सारा जगत उसका मंदिर है।

इन दो के बीच उपासक को चुन लेना चाहिए। या तो वह समझ ले कि वह मंदिर में भी नहीं है; और या फिर वह जान ले कि जहां भी अस्तित्व है, वहीं वह है। और उसकी यह जो खोज चलती रहे, जहां भी वह है।

एक वृक्ष के पास बैठें, तो भी परमात्मा के पास बैठें। और एक पशु के पास खड़े हों, तो भी परमात्मा के पास खड़े हों। एक मित्र पास हो, तो भी परमात्मा पास हो, और एक शत्रु पास हो, तो भी परमात्मा पास हो। आपके लिए वही रह जाए। जितना यह बढ़ता चला जाए विस्तार, जितनी यह प्रतीति उसकी गहन होती चली जाए, उतने ही आप उपासना में रत हो रहे हैं।

उसके गुणों की चर्चा उपयोगी होगी। लेकिन हम गुणों की क्या चर्चा करते हैं? हम उसके गुणों की चर्चा कम करते हैं। हम गुणों की चर्चा में भी अपना हिसाब ज्यादा रखते हैं। मंदिर में मैं सुनता हूं लोगों को जाकर, वे कहते हैं कि हम पापी हैं और तुम पापियों का उद्धार करने वाले। इन्हें उसकी चर्चा से कम प्रयोजन है। इन्हें प्रयोजन इसका है, इनको एक बात का पक्का है कि ये पापी हैं! इसका बिलकुल पक्का नहीं है कि वह पापियों का उद्धार करने वाला है। ये तो केवल अपने पापों से बचाव का उपाय खोज रहे हैं। ये अपने पापों से बचाव का उपाय कर रहे हैं। इन्हें उसमें उत्सुकता नहीं है।

और मजा यह है कि बाहर निकलकर मंदिर के, ये कोई पापों में कमी करने वाले नहीं हैं। अब ये बड़े निश्चित हैं, क्योंकि वह पापियों का उद्धार करने वाला है। अगर ये पाप न करेंगे, तो वह बेचारा किसका उद्धार करेगा! परमात्मा भी खाली पड़ जाए,  अगर ये पापी जो हैं, पाप न करें! इसलिए उसको काम में लगाए रखने के निमित्त ये बाहर आकर पाप किए चले जाते हैं। नहीं, कोई उससे प्रयोजन नहीं है। उसके गुणों की स्तुति का मतलब यह नहीं है कि हम एक खुशामद करें। स्तुति खुशामद नहीं है। और परमात्मा की आप कभी भी खुशामद नहीं कर सकते। क्योंकि खुशामद आप उसी की कर सकते हैं, जिसके और आपके बीच मूल्यों की समानता हो।

आप एक आदमी के पास जाकर कह सकते हैं कि आप जैसा महान कोई भी नहीं है। और वह खुश होगा, क्योंकि वह अहंकार की तलाश में है। परमात्मा से आप यह कहकर उसे खुश न कर पाएंगे कि आपसे महान कोई भी नहीं है। क्योंकि अहंकार की कोई तलाश नहीं है। और आप कितना भी कहें, वह जितना विराट है, आपके शब्द उतना विराट होना प्रकट न कर पाएंगे। और वह जितना महान है, आपके कोई शब्द उसको छू न पाएंगे। इसलिए आपके कहने का कोई मतलब नहीं है।

उसकी स्तुति का क्या अर्थ है? उसकी प्रार्थना का क्या अर्थ है? उसके गुणों के कीर्तन का क्या अर्थ है?

बडे अलग अर्थ हैं। बड़े अलग अर्थ हैं।

जीवन में कोई भी अवसर न जाए जब हम उसकी अनुकंपा को अनुभव न करें। दुख हो कि सुख, शाति हो कि अशांति, सफलता मिले कि असफलता, रात हो कि दिन, सूरज उगता हो कि ढलता हो—उसकी अनुकंपा हमें प्रतीत होती रहे, उसके गुणों का एक सरगम हमारे भीतर बजता रहे, तो स्तुति है, तो कीर्तन है। हम जीएं कैसे ही, लेकिन भीतर एक सतत स्मरण उसका बना रहे। उसके स्मरण से हम न चूके, तो उसका स्मरण है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरा कीर्तन करते हुए मुझे बार—बार नमस्कार करते हुए।बार—बार कैसे नमस्कार करिएगा? जहां भी आपको उसकी अनुकंपा अनुभव हो—और कहा उसकी अनुकंपा नहीं अनुभव होगी? अनुभव करने की दृष्टि हो, तो सब जगह उसकी अनुकंपा अनुभव होगी।

जीवन में हर घड़ी चुनते रहें, जहां से उसकी स्तुति और उसका स्मरण हो सके, तो एक दिन भीतर वह सघन भाव उपस्थित हो जाता है भक्त का, जो कि द्वार है भगवान के अनुभव के लिए।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

गीता दर्शन अध्याय 9 भाग 4

 विराट की अभीप्‍सा

मयाध्‍यक्षेण प्रकृति: सूयतेसचाराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्धइयीश्वर्त्से।। 10।।।

अवजानीन्त मां मूढ़ा मानुषी तनुमख्सिम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 11।।

मोघाशा मोघकर्माणो मोख्ताना विचेतस:।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मौहिनौं श्रिता:।। 12।।


और हे अर्जुन मुझ अधिष्ठता की उपस्थिति मात्र से यह मेरी प्रकृति अर्थात माया चराचर— सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह जगत बनता—बिखरता रहता है।

ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्‍मा को तुच्‍छ समझते है। जो कि वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात तामसी स्वभाव को ही धारण किए हुए हैं।


 इस सूत्र में बहुत—सी बातें कही गई हैं महत्वपूर्ण, विचार के लिए भी, साधना के लिए भी, गहरी और ऊंची भी। पहली बात। परमात्मा जगत का सृजन करता हो, तो कैसे करता होगा? क्या वैसे ही, जैसे कुम्हार अपने चके पर बर्तन रचता है? या वैसे, जैसे मूर्तिकार अपनी छेनी से पत्थर को काटता और मूर्ति को रचता है? या वैसे ,. जैसे एक कवि शब्दों की संयोजना करता और गीत को रचता है? परमात्मा का सृजन किस विधि का है?

इस सूत्र में एक बहुत गहरी बात कही गई है। और जो लोग विज्ञान को थोड़ा समझते हैं, उन्हें समझनी बहुत आसान हो जाएगी। क्योंकि विज्ञान मानता है कि कुछ ऐसा सृजन भी है, जब करने वाला कुछ भी नहीं करता, केवल उसकी मौजूदगी ही सृजन हो जाती है। विज्ञान उसे कैटेलिटिक एजेंट कहता है। उसके बिना घटना नहीं घटती; उसकी मौजूदगी से ही घटना घट जाती है, वह स्वयं कुछ करता नहीं।

जैसे अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिलाएं, तो पानी नहीं बनेगा, यद्यपि पानी को हम तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है। अगर हम पानी को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं, लेकिन हाइड्रोजन और आक्सीजन को साथ रख दें, तो पानी नहीं बनता। यह बड़ी अजीब बात है! क्योंकि पानी को तोड्ने पर हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता, इसलिए स्वभावत: हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से पानी बन जाना चाहिए।

लेकिन एक चीज खो रही है, एक मिसिंग लिंक है। हाइड्रोजन और आक्सीजन तब तक नहीं मिलते, जब तक बिजली मौजूद न हो। अगर विद्युत मौजूद हो, तो आक्सीजन और हाइड्रोजन मिल जाते हैं और पानी बन जाता है।

और मजे की बात यह है कि बिजली मौजूदगी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करती, वह पानी में सम्मिलित नहीं होती। अगर सम्मिलित होती, तो जब हम पानी को तोड़ते, तो बिजली भी मिलनी चाहिए। लेकिन पानी को तोड्ने पर हाइड्रोजन और आक्सीजन ही मिलते हैं। अगर बिजली मौजूद न हो, तो भी घटना नहीं घटती। बिजली मौजूद हो, तो बिजली प्रवेश नहीं करती, लेकिन उसकी मौजूदगी से ही घटना घट जाती है। जस्ट प्रेजेंस। मौजूदगी प्रविष्ट हो जाती है, बिजली प्रविष्ट नहीं होती।

इसे थोड़ा समझ लें। और मौजूदगी को तो तोड़कर पाया नहीं जा सकता। जब हम पानी को तोड़ेंगे, तो बिजली मौजूद थी पानी बनते वक्त, उसकी मौजूदगी को हम पानी से नहीं निकाल सकते हैं। परमात्मा की मौजूदगी से जगत रचता है, कृष्ण यह कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं कि मैं कैटेलिटिक एजेंट हूं। मैं बनाता नहीं, मेरा होना ही सृजन का सूत्रपात है।

यह बहुत गहरी बात है। और होना भी यही चाहिए। क्योंकि परमात्मा को भी अगर घड़े की तरह निर्माण करना पडे जगत को, तो कुम्हार से बड़ी उसकी हैसियत नहीं है फिर। अगर उसे भी कार्य में संलग्न होना पड़े, तो उसका मतलब यह हुआ कि जिस पर वह काम कर रहा है, उस पर उसकी पूरी मालकियत नहीं है। पूरी मालकियत का मतलब यह होता है कि इशारा भी न करना पड़े और काम हो जाए। मौजूदगी काफी होनी चाहिए।

अगर पिता अपने घर वापस लौटे और बेटे की तरफ आंख से इशारा करना पड़े कि मेरे पैर छु मैं तेरा पिता हूं मेरा आदर कर; तो वह पिता नहीं रहा। उसकी मौजूदगी ही आदर बन जानी चाहिए। वह मौजूद है, तो आदर हो जाना चाहिए।

एक शिक्षक अपने वर्ग में आए और ठोंककर टेबल पर विद्यार्थियों को शांत करे, तो उसका अर्थ यह है कि वह शिक्षक है ही नहीं। उसका कमरे में प्रवेश ही शांति हो जानी चाहिए। उसकी मौजूदगी काफी होनी चाहिए।

जब भी कोई गुरु होता है, तो सम्मान जरूर होता है।  क्योंकि गुरु का मतलब ही यह होता है कि वह मौजूद है, तो सम्मान की घटना घटती ही है, उसे घटाना नहीं पड़ता। उसके लिए आयोजन नहीं करना पड़ता। गुरु की परिभाषा ही यह होनी चाहिए कि जिसकी मौजूदगी में आदर उत्पन्न हो। अगर गुरु को भी आदर उत्पन्न करना पड़े, तो वह आदमी गुरु तो नहीं है, और कुछ भी होगा। क्योंकि जो उत्पन्न करना पड़े, वह कृत्रिम हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, मेरी मौजूदगी में रचना का सिलसिला शुरू होता है। मैं बनाता भी नहीं, यह मेरा कृत्य नहीं है, यह मेरी उपस्थिति मात्र, मेरे मौजूद होते ही जीवन चल पड़ता है।

सुबह सूरज निकलता है, फूल खिल जाते हैं। ऐसा सूरज एक—एक फूल पर आकर फूल को खिलाता नहीं है। बस, उसकी मौजूदगी! पक्षी गीत गाने लगते हैं। अब सूरज एक—एक पक्षी की गर्दन पकड़कर गीत गवाता नहीं है। बस, उसकी मौजूदगी! नींद टूट जाती है, आंखें खुल जाती हैं, जागरण फैल जाता है। सूरज किसी के द्वार पर आकर खटखटाता नहीं, कि उठो! बस, उसकी मौजूदगी।

लेकिन इससे भी गहरी बात है, कैटेलिटिक एजेंट। सूरज की तो किरणें आती हैं। नहीं दरवाजा खटखटाती होंगी, फिर भी किसी सूक्ष्म तल पर दरवाजा खटखटाती हैं। और नहीं एक—एक कली को सूरज पकड़कर खोलता है, फिर भी उसकी किरणें आकर एक—एक कली को सहलाती हैं। और न ही पक्षियों की गर्दन दबाता है कि गीत गाओ, फिर भी उसकी किरणें कोई गहरा संस्पर्श देती हैं और पक्षी के कंठ से गीत फूट पड़ता है। न ही, आपको झकझोरता नहीं है कि उठो! लेकिन फिर भी किसी गहरे रासायनिक तल पर उसकी किरणों की मौजूदगी हवा में आक्सीजन को बढ़ा देती है, और आक्सीजन का बढ़ जाना आपके भीतर एक झकझोर ले आता है और आपको उठ जाना पड़ता है।

कैटेलिटिक एजेंट और भी सूक्ष्म बात है। इतना भी नहीं करता। बस, सिर्फ मौजूद होता है। सिर्फ मौजूदगी ही काम करती है;. रासायनिक प्रवेश नहीं होता। इसलिए हम पीछे, जो निर्माण है अगर उसे तोड़े, तो जिसकी मौजूदगी में हुआ था, उसे हम कभी भी न खोज पाएंगे।

इसलिए जगत को हम कितना ही खोजें, हम परमात्मा को न खोज पाएंगे। इसलिए विज्ञान ठीक कहता है कि हम बहुत खोजते हैं, लेकिन परमात्मा मिलता नहीं। और जब तक न मिले, तब तक विज्ञान माने भी कैसे! उसकी बात भी ठीक है। क्योंकि हम हर चीज को खोज लेते हैं, परमात्मा कहीं मिलता नहीं। और अगर यह उसका सृजन है, तो कहीं न कहीं उसकी सृष्टि में उसको मिलना ही चाहिए। लेकिन अगर कृष्ण का यह सूत्र याद रखा जाए, तो विज्ञान अधैर्य नहीं दिखाएगा। क्योंकि विज्ञान भलीभांति जानता है कि कैटेलिटिक एजेंट भी होते हैं, और उनकी मौजूदगी से घटनाएं घटती हैं। फिर घटी हुए घटना को तोड़ने से कैटेलिटिक एजेंट को नहीं पाया जा सकता।

तो क्रिएटर की तरह नहीं, स्रष्टा की तरह नहीं, उपस्थिति मात्र काम करती हो, ऐसे कैटेलिटिक एजेंट की तरह मैं इस जगत को निर्मित करता हूं।

यदि यह ठीक है, तो विज्ञान उसी दिन परमात्मा को अनुभव कर पाएगा, जिस दिन विज्ञान सृजन की प्रक्रिया में मौजूद हो, सृष्टि से उसे कभी खोजा नहीं जा सकता।

ध्यान रखें, यह और थोड़ा गहरे जाने की जरूरत पड़ेगी। सृष्टि का अर्थ है, जो बन गई चीज। तो बन गई चीज से उसे कभी नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि उसकी उपस्थिति से बनी है। उसके हाथ की कोई छाप नहीं है उस पर। उसके हस्ताक्षर नहीं हैं। तो हम कितने ही  जासूस लगाएं, कहीं कोई छाप उसकी मिलती नहीं है। फूल खिलता है, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। पहाड़ बनते हैं, मिट जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। चांद—तारे जन्मते हैं, खो जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। जो चीज बन गई है, उसमें उसकी छाप नहीं मिलेगी।

इसलिए विज्ञान असमर्थ मालूम पड़ता है। वह करीब—करीब से गुजर जाता है और परमात्मा की कोई झलक नहीं मिलती। और जब तक स्पष्ट प्रमाण न मिलें, तब तक विज्ञान की अपनी मजबूरी है, वह स्वीकार नहीं कर सकता।

परमात्मा की झलक किसको मिलती है? परमात्मा की झलक उसको मिलती है, जो सृष्टि में खोजने नहीं जाता, बल्कि सृजन की प्रक्रिया में मौजूद होता है।

इसलिए बहुत मजे की बात है कि कभी किसी कवि को झलक मिल जाती है उसकी; वैज्ञानिक को नहीं मिल पाती। कभी किसी मूर्तिकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। कभी किसी नृत्यकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। ध्यानी को सदा उसकी झलक मिलती रही है। ये सारे के सारे लोग सृजन की प्रक्रिया में मौजूद होते हैं।

 कभी आपने खयाल किया हो, जब कोई स्त्री पहली दफा गर्भवती होती है, तो उसके सौंदर्य में शरीर के पार की कोई चीज उतरनी शुरू हो जाती है! असल में मां बने बिना स्त्री सौंदर्य के पूरे निखार को कभी उपलब्ध नहीं होती है। जब उसके भीतर कोई जन्म हो रहा होता है, कोई सृजन हो रहा होता है, तब उसके आस—पास परमात्मा की छबि और मौजूदगी अनिवार्य है।

अगर स्त्रियां इस सत्य को जान लें कि जब उनके भीतर कुछ निर्मित हो रहा है, तब वे परमात्मा के अति निकट होती हैं, अगर वे क्षण उनके ध्यानपूर्ण हो जाएं, तो एक स्त्री को अलग से साधना करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका मां होना ही उसकी साधना हो जा सकती है।

पुरुष इस लिहाज से वंचित है, स्त्री इस लिहाज से बहुत गरिमा युक्त है। क्योंकि पुरुष के भीतर कुछ भी निर्माण नहीं होता, सृजन नहीं होता, स्त्री के भीतर कुछ सृजन होता है। स्त्री के भीतर सृजन की प्रक्रिया गुजरती है। और छोटा—मोटा सृजन नहीं होता। एक फूल जब खिलता है पौधे पर, तो सारा पौधा सुंदर हो जाता है। क्यों? क्योंकि फूल का सृजन हुआ। लेकिन जब जीवन का श्रेष्ठतम फूल, मनुष्य, किसी स्त्री के भीतर निर्मित होता है, तो स्वभावत: उसका सारा व्यक्तित्व एक अनोखे सौंदर्य से भर जाता है। उस क्षण परमात्‍मा बहुत निकट है।

इसलिए मातृत्व एक गहरी धार्मिकता है। इसलिए जिस दिन स्त्री मां नहीं होना चाहेगी, उस दिन स्त्री का धार्मिक होना असंभव हो जाएगा।

मैंने कहा कि स्त्री को यह सुलभ है कि उसके भीतर सृजन की प्रक्रिया घटती है। जैसे इस पूरे जगत के गर्भ में किसी दिन सारे चांद—तारे पैदा हुए, एक बहुत छोटे—से रूप में स्त्री के भीतर जीवन पुन: निर्मित होता है; बार—बार निर्मित होता है।

यह उसका गौरव भी है, यह उसकी दुविधा भी है। क्योंकि इसी कारण स्त्री कुछ और सृजन नहीं कर पाती। स्त्री कोई अच्छे गीत नहीं निर्मित कर पाई। उसने कोई अच्छी मूर्तियां नहीं बनाईं। स्त्री के नाम पर कोई बड़ी कला नहीं है। स्त्री किसी धर्म को जन्म नहीं दे पाई। स्त्री ने कोई भी ऐसा अनूठा काम किया हो सृजन का? वह नहीं किया। उसका कुल कारण इतना है कि उसके भीतर सृजन की इतनी बड़ी घटना घटती है कि उसे बाहर सृजन का खयाल नहीं आता है। यह दुर्भाग्य भी है। अगर भीतर की सृजन की घटना में ईश्वर का अनुभव न हो पाए और बाहर सृजन की क्षमता टूट जाए, तो यह दुर्भाग्य भी है।

पुरुष ने बहुत कुछ सृजन किया है। मनसविद कहते हैं, पुरुष कमी अनुभव करता है भीतर, इसलिए बाहर से पूर्ति करता है सृजन करके। इसलिए जब एक माइकलएंजलो एक चित्र निर्मित कर लेता है, जब एक मोजार्ट एक गीत की तरंग, एक संगीत की लय तय कर लेता है, या तानसेन जब एक राग को जन्म दे देता है, या जब एक महावीर एक जीवन के नए आयाम को पैदा कर देते हैं, या जब एक बुद्ध एक नया द्वार खोल देते हैं, तब इन्हें जो प्रतीति और जो तृप्ति होती है, वह प्रतीति और तृप्ति सृजन की है।

ध्यान रहे, जहां भी सृजन की क्षमता है, वहां परमात्मा का अनुभव आसान है। इसलिए नान—क्रिएटिव, असृजनात्मक लोग परमात्मा को कभी अनुभव नहीं कर पाते।

लेकिन बड़ी हैरानी की बात है। अनेक लोग हैं, जो परमात्मा की खोज में जाते हैं और बिलकुल गैर—सृजनात्मक हो जाते हैं। हमारे मुल्क में तो बहुत लोग हैं। हमारे मुल्क में तो कुछ ऐसा है कि जो व्यक्ति परमात्मा की खोज में जाता है, उसका सृजन से कोई संबंध ही नहीं रह जाता।

और ध्यान रहे, सृजन निकटतम है, जहां से उसकी प्रतीति हो सकती है। इसलिए अगर एक साधु सृजन छोड्कर और मुर्दे की भांति जीने लगता है, तो उसे परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाएगा,

कठिन हो जाएगा। क्योंकि सृजन की घड़ी में परमात्मा की मौजूदगी अनिवार्य है। उसकी मौजूदगी के बिना कहीं भी सृजन नहीं होता। वह कैटेलिटिक एजेंट है। जहां भी कुछ पैदा होगा, वह सदा मौजूद होता है। उसके बिना पैदा ही नहीं होता। और जहां भी विध्वंस होगा, वहा वह सर्वाधिक दूर होता है।

ध्यान रहे, जितना सृजनात्मक क्षण हो, उसकी निकटता होती है। जितने विध्वंस का क्षण हो, उससे उतनी ही ज्यादा दूरी हो जाती है। इसलिए महावीर ने अगर हिंसा को अधर्म कहा है, तो उसका कारण है। उसका कुल कारण इतना है कि जब भी हम विध्वंस कर रहे होते हैं, तब हम परमात्मा से सर्वाधिक दूरी के बिंदु पर होते हैं। अगर इसे इस भांति समझेंगे, तो अहिंसा का नया अर्थ खयाल में आएगा। इसे ऐसा समझें, हिंसा का अर्थ है विध्वंस; अहिंसा का अर्थ है सृजन।

जब तक अहिंसा सृजनात्मक न हो, तब तक नपुंसक होती है। और इस मुल्क की अहिंसा नपुंसक हो गई है, इंपोटेंट हो गई है। क्योंकि उसका अर्थ हो गया है, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो! डोंट उसका स्वर हो गया है। तो इससे इतना तो हुआ कि विध्वंस मत करो, लेकिन क्या करो, उसका कोई स्वर नहीं है।

परमात्मा की गहनतम प्रतीति सृजन के क्षण में होती है, क्योंकि उसके बिना सृजन नहीं हो सकता।

तो कृष्ण कहते हैं, मैं मौजूद, मेरी मौजूदगी काफी है। हे अर्जुन! मेरी उपस्थिति मात्र से प्रकृति सर्व जगत को रच लेती है। और इस ऊपर कहे गए कारण से ही जगत बनता और बिखरता रहता है। मैं कुछ करता नहीं हूं। मुझे कुछ करना नहीं पड़ता है। मुझे हिलना भी नहीं पड़ता है। मुझे वासना भी नहीं करनी पड़ती है। मुझे इच्छा भी नहीं करनी पड़ती है। बस, मेरा होना ही सृजन है।

अगर हम इसे ऐसा कहें, तो बहुत आसान हो जाएगा। हम सदा कहते रहे हैं, गॉड इज दि क्रिएटर, ईश्वर स्रष्टा है। बेहतर हो, हम कहें, गॉड इज दि क्रिएटिविटी, ईश्वर सृजन की प्रक्रिया है, ईश्वर सृजनात्मकता है। व्यक्ति कम, प्रक्रिया ज्यादा। व्यक्ति कम, प्रवाह ज्यादा। क्योंकि व्यक्ति तो रुका हुआ हो जाता है, प्रवाह सतत गतिमान है। और व्यक्ति की तो सीमा हो जाती है, प्रवाह की कोई सीमा नहीं है।

तो परमात्मा एक सृजन का प्रवाह है। और जहां उसकी मौजूदगी है, वहीं अनंत—अनंत रूपों में सृजन प्रकट होने लगता है। जीवन का खेल उसकी मौजूदगी का आनंद है। उसके मौजूद होते ही जीवन उत्सव से भर जाता है। उसके मौजूद होते ही राग— रंग; उसके मौजूद होते ही फूल खिल उठते हैं और गीत का जन्म हो जाता है।

जहां भी कुछ जन्म रहा हो, वहां मौन होकर बैठ जाना, परमात्मा निकट है। एक कली फूल बन रही हो, तो भागे हुए मंदिर मत चले जाना!

मगर पागलों का जगत है। फूल जन्म रहा है, वहा वे खड़े भी न होंगे! बल्कि उस कली को तोड़कर भागेंगे मंदिर की तरफ, परमात्मा को चढ़ा देने के लिए!

अच्छा होता कि वहीं बैठ जाते, जब कली फूल बन रही थी। वहां परमात्मा ज्यादा संभव था, बजाय उस मंदिर के, जहां आप फूल को तोड़कर ले आए हैं। पता ही नहीं।

जहां भी कोई चीज पैदा हो रही हों—सुबह का सूरज जन्म ले रहा हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो; सुबह आ रही हो, भोर पैदा हो रही हो; या सांझ का पहला तारा उग रहा हो—वहा रुक जाना! पवित्र मंदिर बहुत करीब है; वहीं है, वहा ठहर जाना! वहा शांत, उस सृजन के साथ एक हो जाना! तो उसकी उपस्थिति अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी।

इसलिए यह हमारी सदी परमात्मा से दूर हो गई मालूम पड़ती है, उसका कारण यह है कि हम आदमी की बनाई हुई चीजों से इस बुरी तरह घिर गए हैं कि सृजन का कोई सवाल ही नहीं है! क्योंकि आदमी की बनाई हुई चीजों में ग्रोथ तो होती नहीं। आप एक मकान बनाते हैं, वह बढ़ता तो है नहीं। आप एक कार ले लेते हैं, वह बढ़ती तो है नहीं। आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज में ग्रोथ तो होती नहीं, विकास तो होता नहीं, जन्म तो होता नहीं। आदमी की तो सब बनाई हुई चीजें मुर्दा हैं; उनमें जीवन की कोई धारा तो है नहीं।

तो बड़े मकान हैं सीमेंट—कांक्रीट के, वे आकाश को छू रहे हैं। उनके पास आदमी कितनी ही देर खड़ा रहे, परमात्मा की प्रतीति नहीं हो पाएगी, क्योंकि वहा कुछ भी तो जन्म नहीं हो रहा है। सीमेट—कांक्रीट, जैसे मृत्यु का साकार रूप! जैसे मुर्दा होने का इससे ज्यादा और कोई अच्छा ढंग नहीं हो सकता!

आदमी जितना आदमी की बनाई चीजों से घिर जाता है, उतना ही उसे जन्म के क्षण में खड़ा होना मुश्किल हो जाता है, उतना ही वह सृजन के करीब नहीं रह जाता।

अभी लंदन में सर्वे हुआ, तो दस लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। पांच लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है।

अगर ये बच्चे बड़े होकर पूछें कि परमात्मा कहां है? तो कोई कठिनाई है? जिन्होंने गाय नहीं देखी, जिन्होंने खेत नहीं देखा, अगर ये कल कहें कि परमात्मा कहां है? तो इनके प्रश्न में कोई आपको बुराई मालूम पड़ती है? इनका प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि जीवन को इन्होंने कहीं भी बढ़ते हुए नहीं देखा। चीजों की दुनिया देखी है, सृजन की दुनिया नहीं देखी।

तो फिर स्वाभाविक है, अगर ये कविता भी लिखेंगे, तो उसमें रेल का इंजन आएगा, आकाश के तारे नहीं आएंगे। ये कविता लिखेंगे, तो उसमें भी मिल की चिमनियां आएंगी, खिलते हुए फूल नहीं आएंगे। अगर ये चित्र भी बनाएंगे—जैसा कि पिछले पचास साल की पूरी चित्रकला कहेगी—अगर ये चित्र भी बनाएंगे, तो उन चित्रों में भी अखबार की कटिंग काट—काटकर चिपका देंगे, कोलाज कहेंगे! उसमें भी आदमी की जो—जो विकृतियां हैं, वे उभरकर सामने आएंगी।

पिकासो के चित्रों को अगर देखा जाए, तो वे हमारे मन की पूरी कथा हैं। लेकिन उनमें फूल खिलते मालूम नहीं पड़ेंगे; उनमें कोई चीज बढ़ती हुई मालूम नहीं पड़ेगी; उनमें किसी का जन्म होता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक अस्वाभाविक वस्तुओं के जगत में घिरकर जी रहे हैं, जहां कोई चीज पैदा नहीं  होती; हर चीज बनाई जाती है। जहां किसी चीज का जन्म नहीं होता, जहां हर चीज सिर्फ जोड़ी जाती है।

आदमी को प्रभु को खोजना हो, तो सृजन के निकट ही उसे खोज सकता है।

ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग, मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं।

मूढ़ एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ मूर्ख नहीं होता, यह पहले समझ लें। मूढ़, मूर्ख से भी खतरनाक अवस्था है। मूर्ख का मतलब होता है,  जिसे पता नहीं है। मूढ़ का मतलब होता है,  जिसे पता नहीं है लेकिन जो सोचता है कि उसे पता है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

मूर्ख वह है, जिसे पता नहीं है। उसे क्षमा किया जा सकता है। उसे पता ही नहीं है। अज्ञानी है। लेकिन यह अज्ञान सिर्फ अभाव है। इसमें उसे कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। पता नहीं है। एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। मूढ़ होने के लिए जरा ज्यादा उम्र होना जरूरी है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। वह सुविधा बूढ़ों के लिए ही है, मूढ़ होने की। तो जितनी ज्यादा उम्र हो, उतना आदमी ज्यादा मूढ़ हो सकता है। क्योंकि उसे पता बिलकुल नहीं है, लेकिन ऐसा पता लगने लगता है जीवनभर के अनुभव से कि मुझे पता है।

आप अपनी तरफ सोचें, तो आपको पता चलेगा, मूर्खता बड़ी बीमारी नहीं है, मूढ़ता बड़ी बीमारी है। कितने सवाल हैं, जिनके जवाब आप देते हैं, बिना जाने हुए!

अगर छोटा बच्चा अपने बाप से पूछता है कि ईश्वर है? बाप को बिलकुल पता नहीं है। लेकिन वह या तो कहता है, हां है; या कहता है, नहीं है। कोई भी जवाब दे, लेकिन एक जवाब कभी नहीं देता कि मुझे पता नहीं है। यह मूढ़ता है।

लेकिन एक छोटे बच्चे के सामने बाप कैसे यह माने कि मैं नहीं जानता हूं! पर उसे पता नहीं है, यह बच्चा कितने दिन छोटा रहेगा? थोड़े दिन में इसे पता चल जाएगा कि यह बाप झूठ बोलता रहा है। इसलिए अगर हर बेटा उम्र पाने के बाद बाप का आदर छोड़ देता है, तो उसका कुल कारण इतना है, बाप के द्वारा की गई बेईमानिया, जो बचपन में बच्चे के साथ की गई हैं। क्योंकि उस वक्त तो बाप ने बड़ा मजा लिया ज्ञानी होने का। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह पाता है, यह बाप भी उतना ही अज्ञानी है जितना मैं! इसको भी कुछ पता नहीं है। इसने नाहक ही झूठी ज्ञान और झूठा अहंकार मेरे ऊपर थोपा। तो आदर खो जाएगा।

सिर्फ वही बाप अपने बेटे का आदर पाने में समर्थ हो सकता है, जो ईमानदार है। ईमानदार का अर्थ है, जो मूढ़ नहीं है, जो मूढ़ता नहीं करता। क्या जरूरत है! जो हमें पता नहीं है, कह दें कि पता नहीं है। जो हमें पता है, कह दें कि पता है। इसमें जो आदमी डावांडोल होता है, वह मूढ़ है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा होने पर भी—कि परमात्मा की मौजूदगी ही सारे जीवन की सृजनात्मकता है, कि उससे ही सारा जीवन गतिमान है, कि उससे ही सारा जीवन परिपूर्ण है, कि वही है जीवन का मूल, कि वही उसकी आत्मा है—ऐसा होने पर भी, मूढ़ लोग चारों तरफ यह सब देखकर भी, इस चारों तरफ जीवन को अनुभव करके भी, अपनी मूढ़ता नहीं छोड़ते मालूम पड़ते हैं।

जब भी कोई व्यक्ति ईश्वर के संबंध में बिना जाने वक्तव्य देता है, तब वह अपने ही साथ नहीं, औरों के साथ भी अपराध कर रहा है। लेकिन हम क्षुद्र बातों के संबंध में कहीं ज्यादा सही वक्तव्य देते हैं। जितनी विराटतर होती है बात, उतने ही हमारे वक्तव्य झूठे होते चले जाते हैं। जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, वे उनको समझाए चले जाते हैं, जो उनसे पूछने चले आए हैं।

कृष्ण कहते हैं कि ऐसे मूढ़ लोग, चारों तरफ मैं मौजूद हूं तो भी अनुभव नहीं कर पाते। चारों तरफ सब जगह मैं मौजूद हूं? तो भी अनुभव नहीं कर पाते। वे कहते हैं, सामने आ जाओ, तो हम पहचानें!

सदा से नास्तिकों ने यह कहा है। यह बहुत समझने जैसा है। सदा से नास्तिकों ने कहा है, अगर परमात्मा है, तो सामने आ जाए! वह सब जगह सामने है। वही है, और दूसरा कोई भी नहीं है। लेकिन नास्तिक सदा कहता रहा है कि वह सामने आ जाए, तो हम मान लें। और मजे की बात यह है कि कृष्ण कहते हैं कि जब मेरे जैसा व्यक्ति सामने आ जाता है, कहते हैं कि जब मैं सामने खड़ा हो जाता हूं तो वे ही मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। अगर मैं सामने आ जाऊं, तो वे कहते हैं कि अरे! तुम तो आदमी ही हो! तुम भगवान कैसे? अगर मैं सामने न आऊं, तो वे कहते हैं, सामने आ जाओ। क्योंकि अगर तुम हो, तो प्रकट हो जाओ। अगर मैं प्रकट हो जाऊं, तो वे मूढ़जन कहते हैं कि तुम? तुम तो ठीक हमारे ही जैसे हो! तुम भगवान कैसे?

एक बात तय है कि भगवान चाहे अप्रकट रूप से सब तरफ मौजूद हो, और चाहे प्रकट रूप से आपके सामने खड़ा हो जाए, अगर मूढ़ता की दृष्टि है, तो दोनों हालत में वह दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि वह सामने है या नहीं, सवाल यह है कि भीतर मूढ़ता है या नहीं।

आप खुद ही सोचो! आपको भी कई दफे लगा होगा कि भगवान सामने हो, तो अभी मान लूं। लेकिन जरा यह सोचो कि अगर भगवान सामने हो, आप मान लोगे?

अति कठिन है। बहुत कठिन है। कठिनाइयों के कारण हैं। वे मूढ़ता की अनेक सीढ़ियां उसके कारण हैं। उनको हम थोड़ा समझ लें।

पहली बात, अपने से जो श्रेष्ठ है, उसे देखना बहुत मुश्किल है। मुश्किल नहीं, असंभव कहना चाहिए, करीब—करीब असंभव। क्यों? क्योंकि जहां तक हमारी चेतना गई है, उसके पार हमारी आंख उठ नहीं सकती। जो हम हैं, वहीं तक हम देख सकते हैं।

इसे ऐसा समझें, आप चल रहे हैं, पास से चींटियों का एक समूह जा रहा है। आपको खयाल है, चींटियों को आपके होने का पता भी नहीं चल सकता! हां चींटियों को एक ही ढंग से पता चल सकता है कि आपका पैर पड़ जाए और वे मर जाएं; और समझें कि कोई विपत्ति आ गई। लेकिन एक मनुष्य हमारे पास से गुजर रहा है, यह चींटियों को पता नहीं चल सकता। क्योंकि मनुष्य को देखने के लिए कम से कम मनुष्य की चेतना चाहिए।

हम केवल समान तल पर अनुभव कर सकते हैं। श्रेष्ठ जो है, वह हमारी आंख से ओझल हो जाता है। आप चींटी को देख सकते हैं, चींटी आपको नहीं देख पाती। ऊंचाई से नीचे देखना आसान है, क्योंकि आप उस रास्ते से गुजर चुके हैं। लेकिन नीचाई से ऊपर देखना असंभव है।

आप गीता लेकर बैठे पढ़ रहे हैं। आपका कुत्ता भी आपके पास बैठकर पूंछ हिला रहा है। क्या किसी भी तरह हम कल्पना कर सकते हैं कि उसे गीता का पता चल रहा होगा, जो आप हाथ में लिए बैठे हैं?

आप चाहे जोर—जोर से दोहरा रहे हों, तो भी कुत्ता बैठकर अपनी मक्खियां उड़ाता रहेगा। उसकी चेतना में कहीं से भी, यह आपका जो जोर से पाठ चल रहा है, प्रवेश नहीं करेगा। अगर आप गीता को छोड्कर चले जाएं, तो गीता उसे दिखाई पड़ सकती है, पर गीता की तरह नहीं। हो सकता है, वह उससे खेलने लगे। हो सकता है, उसे फाड़ने लगे। हो सकता है, उसे मुंह में दबाकर बाहर घूमने निकल जाए। वह गीता के साथ कुछ कर सकता है, लेकिन गीता का उसे कोई बोध नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है, उसकी चेतना बंद है।

चेतना वहीं तक देख पाती है, जहां तक विकसित होती है। तो परमात्मा अगर सामने भी मौजूद हो जाए, तो भी हम उसे समझ नहीं पा सकते, हम उसे देख नहीं पा सकते। हमारी हालत उसके सामने वैसी ही है, जैसी हमारे सामने एक चींटी की हो जाती है। उसका जो परमात्मा रूप है, वह हमारी आंखें कैसे पकड़े? जहां तक हमारी चेतना का विकास नहीं है, वहां हम देख कैसे पाएंगे? हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं।

इसलिए अगर कृष्ण भी सामने खड़े हों, तो हमें कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ेगा भलीभांति। और हम गलत नहीं हैं। हम गलत नहीं हैं। जहां तक कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ता है, हम बिलकुल सही हैं। गलती हमारी वहा शुरू होती है कि आदमी के पार हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। आदमी का दिखाई पड़ना तो बिलकुल ठीक है। कृष्ण आदमी तो हैं ही, लेकिन तब हम सब जोड़ लगाकर कहते हैं कि आदमी तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भगवान कहीं दिखाई नहीं पड़ते। और जब आदमी दिखाई पड़ते हैं, तो हमारे अहंकार को कष्ट होगा बहुत कि हम सामने खड़े आदमी को, मांस—हड्डी के आदमी को, इसको हम भगवान मान लें! तो हमारे अहंकार को भारी पीड़ा होगी।

ध्यान रहे, पहला सूत्र हमारी मूढ़ता का यह है कि जो हमें दिखाई पड़ता है, उसके पार हम झांकने को भी तैयार नहीं होते। दिखाई तो पड़ेगा ही नहीं, झांकने को भी तैयार नहीं होते। तैयारी भी नहीं दिखाते कि हम उसके पार भी देखने के लिए तैयार हैं, बल्कि हम गैर—तैयारी दिखाते हैं। वह हमारी मूढ़ता है।

हम कहेंगे कि कहां! भगवान तो दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि हम सब तरह से सिद्ध करेंगे कि भगवान है ही नहीं। क्योंकि हम कहेंगे कि इस आदमी को कल मैंने देखा था। प्यास लगी थी, तो यह कह रहा था, पानी लाओ! भगवान को पानी की क्या जरूरत? हमने देखा, यह आदमी भोजन कर रहा था। भगवान को भोजन की क्या जरूरत? धूप पड़ती है, तो कृष्ण को भी पसीना आ जाता है। भगवान को पसीने की क्या जरूरत?

हम हजार कसौटियां रखेंगे। और सब कसौटियों से हम सिद्ध करेंगे कि यह आदमी भगवान नहीं है, आदमी ही है। और जब हम सिद्ध कर लेंगे कि यह आदमी है, तो हम को बड़ी तृप्ति होगी। यह हमारी मूढ़ता है।

मजा यह है कि इस सिद्ध करने से हमें कुछ मिलेगा नहीं। अगर यह सही भी है कि यह आदमी ही है और हमने सिद्ध कर लिया कि आदमी है, तो भी हमें मिलेगा क्या? यह हमारी मूढ़ता है।

दूसरी बात सोचें, हो सकता है, यह भगवान न हो। लेकिन हम इस सिद्ध करने में न पड़े कि यह भगवान नहीं है। बल्कि यह कहता है, तो हम थोड़ा खोज में लगें विधायक रूप से; मूढ़ता को तोड्ने में लगें। कोशिश करें कि यह आदमी कहता है कि, भगवान प्रकट हुआ है, तो देखें, चलें, थोड़ा आगे बढ़े। थोड़ी अपनी चेतना को ऊपर उठाएं। थोड़ी अपनी जगह छोड़े। थोड़ा अपना पर्सपेक्टिव, अपना परिप्रेक्ष्य बदलें। देखें कि शायद यह आदमी ठीक कहता हो।

तो मैं आपसे कहता हूं कि यह भगवान न भी हो, तो भी यह खोज आपकी चेतना को बड़ा कर जाएगी। अगर यह हो, तब तो बात ही अलग। अगर यह न भी हो, तो भी इस खोज में आप ऊपर उठ जाएंगे।

मूढ़ता हमारी कहती है कि सिद्ध करो, यह नहीं है। लेकिन हमें पता नहीं कि इसे हम सिद्ध करके कि नहीं है, केवल अपने विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं, एक द्वार बंद कर रहे हैं। यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण कि यह है या नहीं, हम इसे देखने की कोशिश करें।

अगर कोई व्यक्ति पत्थर को भी भगवान मानकर चल पड़े, तो पत्थर भगवान होगा कि नहीं होगा, यह सवाल नहीं है, वह आदमी जरूर ऊपर उठना शुरू हो जाएगा। यह सवाल उस आदमी के अपने अंतर्विकास का है। और हम जितने विराटतर को मान लेते हैं, उतने विराटतर तक पहुंचने की हमारी चेतना का मार्ग साफ हो जाता है।

इसे हम ऐसा देखें, अगर मूढ़ न हो आदमी, अमूढ़ हो, तो वह क्या करेगा?

मूढ़ आदमी कहेगा कि कृष्ण को भूख लगती हमारे जैसी, तो यह आदमी है। कृष्ण को भी कांटा गड़ता, खून निकलता, तो ये हमारे जैसे आदमी हैं। भगवान हम न मानेंगे। यह मूड का तर्क है।

अमूढ़ का तर्क इससे उलटा होगा, यही, लेकिन दिशा बदल जाएगी। वह कहेगा, कृष्ण को भी भूख लगती है और ये भगवान हो सकते हैं; मुझे भी भूख लगती है, मैं भी भगवान क्यों नहीं हो सकता हूं! यह अमूढ़ आदमी का तर्क है। वही है, तर्क में कोई फर्क नहीं है। लेकिन दिशा बिलकुल बदल गई है। वह कहेगा, कृष्ण के भी पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है; मेरे पैर में भी कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है। अगर कृष्ण भगवान हो सकते हैं, तो मैं भगवान क्यों नहीं हो सकता हूं!

कृष्ण की मनुष्यता कृष्ण के भगवान होने में बाधा नहीं बनेगी अमूढ़ के लिए; कृष्ण की मनुष्यता स्वयं की मनुष्यता के पार जाने का द्वार बन जाएगी।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, मूढुजन मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं।

वे अपने को श्रेष्ठ नहीं समझ पाते मेरे कारण, अपने कारण मुझको भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने को श्रेष्ठ समझने का एक मौका उन्हें था कि वे अपनी दीनता से मुक्त हो जाते, कि महिमा से भर जाते, कि गौरवान्वित हो जाते, कि देखते कि मेरी क्या अनंत संभावना है; कि उनका बीज भी भरोसे से भर जाता, कि आशाएं उनमें भी खिल जातीं; कि अभीप्सा उनकी भी जग जाती, दूर का आकाश उनको भी अपने पास मालूम होने लगता, अनंत की दूरी मिट जाती, अगर वे यह देखते कि ठीक मेरे जैसा मनुष्य भी भगवान है। लेकिन वे ऐसा नहीं देखते। वे ऐसा देखते हैं कि अच्छा, मेरे जैसा मनुष्य भगवान का दावा कर रहा है! धोखेबाज है, तुच्छ है। ऐसा दावा नहीं करना चाहिए; यह बात ठीक नहीं है!

मूढ़ता अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का नाम है। लेकिन अपने पैर पर कोई कुल्हाड़ी नहीं मारता। मारने वाला तो यही समझता है कि दूसरे के पैर पर मार रहे हैं। लेकिन कृष्ण के पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कोई उपाय नहीं है। सब कुल्हाड़ी आखिर में अपने ही पैर पर पड़ जाएगी। इसलिए वे मूढ़ कह रहे हैं। कह रहे हैं, मुझे तुच्छ समझने में मैं तुच्छ नहीं हो जाता हूं लेकिन मुझे तुच्छ समझने में तुम्हारी जो गरिमा की संभावना थी, वह खो जाती है। 

फिर आदमी की मूढ़ता का जो केंद्र है, वह उसका अहंकार है, ईगो है। इसलिए दूसरी बात, जब भी कोई आदमी हमें किसी के खिलाफ कुछ कहे, हमारे मन में बड़ी प्रफुल्लता होती है। इसे खयाल करना।

 अगर कोई आदमी किसी के संबंध में कुछ बुराई करे, तो हमारे हृदय का फूल ऐसे खिल जाता है, जैसे वर्षा हो गई, नई सब ताजगी आ गई भीतर। जैसे कोई किसी की निंदा करे हमारे कान में, तो ऐसा लगता है कि कोई संगीत बजने लगा! प्राण नाचने लगते हैं।

इसलिए मजे की बात है, जब भी हमसे कोई किसी की निंदा करे, हम कभी इसकी फिक्र में नहीं पड़ते कि यह सही है या गलत? हम मान लेते हैं। निंदा में कोई तर्क करता ही नहीं। अगर कोई आदमी आकर आपको मेरे बाबत कहे कि वह आदमी चोर है, तो आप एक गवाह तक न पूछेंगे उससे कि कोई गवाह है? आप कहेंगे, मैं तो पहले ही जानता था, पहले ही से पता था। एक गवाह की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर यह भी न सोचेंगे आप कि यह जो आदमी बोल रहा है, कहीं यह खुद तो चोर नहीं है। न, यह भी न सोचेंगे। क्योंकि इस वक्त ऐसी बातें सोचना शोभनीय नहीं है। इस वक्त इस आदमी पर शक करना बिलकुल ही अशोभन है। संदेह करना ही नहीं, इस वक्त तो श्रद्धा एकमात्र मार्ग है।

जब कोई किसी की निंदा कर रहा हो, तो हमारे चित्त ऐसे श्रद्धावान हो जाते हैं! क्यों? क्योंकि दूसरा अच्छा है, इससे हमारे अहंकार को पीड़ा पहुंचती है। क्योंकि ऐसा लगता है, फिर मैं? दूसरा बुरा है, हमारा अहंकार आनंदित होता है कि बिलकुल ठीक। अगर सारी दुनिया बुरी है, तो फिर मैं ही अच्छा बच रहता हूं!

तो हम सारी दुनिया बुरी है, ऐसा मानकर चलते हैं। जिनके बाबत हमें अभी पता नहीं है, उनके बाबत भी हम समझते हैं कि सिर्फ पता नहीं है, बाकी होंगे तो बुरे ही। भला आदमी तो कोई हो नहीं सकता, यह हमारी अंतर्निहित आस्था है। यह हमारी आस्तिकता है। सारा जगत बुरा है। किसी का पता चल गया है, किसी का अभी पता नहीं चला है। यह सारा जगत बुरा है।

तो जिसका पता नहीं चला है, उसके बाबत हम अपने मन में संदेह रखते हैं कि आज नहीं कल! आप एक दिन धोखा दे सकते हैं, दो दिन धोखा दे सकते हैं, कोई भी आदमी सदा तो धोखा नहीं दे सकता! आज नहीं कल कलई खुल ही जाएगी। आज नहीं कल वस्त्र झांककर हम देख ही लेंगे कि तुम भी नंगे हो। कब तक डाके रहोगे!

तो हम यह भाव रखते हैं। और जैसे ही किसी का पता चल जाता है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। हम जानते हैं कि यह तो हम पहले ही जानते थे। यह हमारा अंतर्निहित विश्वास था। यह तो हमारी अंतरात्मा की पहले से ही दृढ़ आस्था थी कि यह आदमी बुरा है। लेकिन जब कोई आदमी किसी के बाबत कहता है कि वह भला है, अच्छा है, तो हमारा मन मानने का नहीं करता। सुन भी लें, तो टालरेट करते हैं। सह लेते हैं कि ठीक है, होगा। होगा भी। दूसरी चर्चा छेड़ो! कोई दूसरी बात करें।

और अगर कोई ज्यादा जिद्द करे कि नहीं, भला है ही। संत है। महात्मा है। फलां है, ढिका है। तो हम कहेंगे, कोई गवाही है? किसने कहा? कौन कहता है? जो कहते हैं, उनकी नैतिकता का कुछ पक्का है? तुमने कैसे जाना? क्या प्रमाण हैं?

जब भी कोई किसी की भलाई की बात करे, तो हमें पीड़ा होती है मानने में, क्योंकि हमारी अंतर्निहित निष्ठा के विपरीत है। यह हमारी मूढ़ता है।

क्योंकि मजा यह है इस मूढ़ता का कि जितना ही हम सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं कि सारी दुनिया बुरी है, उतना ही हमारे अच्छे होने का उपाय बंद हो जाता है। जब सारी दुनिया बुरी है, तो मुझे अच्छे होने का कोई भी कारण नहीं रह जाता। जब आप सुबह से अखबार पढ़ते हैं और देख लेते हैं कि कितनी औरतें भगाई गईं, कितनी हत्याएं की गईं, कौन—कौन कालाबाजारी में पकड़े गए, तब भीतर— भीतर कोई खड़ा खुश होने लगता है। वह कहता है कि सारी दुनिया ऐसी है।

इसका मतलब यह है कि हम बिलकुल निश्चित रह सकते हैं। हम जैसे हैं, निश्चित रह सकते हैं। अभी तक न हमने किसी की औरत भगाई। सोचा है, भगाई नहीं है! तो सोचने में क्या ऐसी बुराई है, जब लोग भगा ही रहे हैं! तो विचार मात्र कोई इतना बुरा नहीं है। यह सब कालाबाजारी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, सब हो रहा है। भीतर एक तृप्ति होती है कि हम काफी अच्छे हैं। और जिसको यह तृप्ति हो जाती है कि मैं काफी अच्छा हूं उसने आत्महत्या कर ली अपनी।

अच्छा आदमी कभी भी तृप्त नहीं होता अपनी अच्छाई से, बुरा आदमी सदा ही अपनी अच्छाई से तृप्त होता है। अच्छा आदमी सदा एक डिसकटेंट में जीता है, एक असंतोष में, कि मैं और अच्छा, और अच्छा, और अच्छा कैसे होता चला जाऊं! बुरा आदमी सदा संतोषी होता है अपने बाबत, भीतर के बाबत, कि मैं बिलकुल अच्छा हूं। और तब बुरा आदमी रोज—रोज नीचे गिरता जाता है। अगर आज वह पहले नर्क में राजी है, तो कल दूसरे में राजी हो जाएगा; परसों तीसरे नर्क में उतरकर राजी हो जाएगा। अच्छा आदमी पहले स्वर्ग में भी खड़ा हो, तो राजी नहीं होता है कि यह स्वर्ग है। वह दूसरे स्वर्ग की आकांक्षा रखता है। दूसरे में पहुंच जाए, तो तीसरे की आकांक्षा रखता है। वह बढ़ता चला जाता है। ध्यान रहे, वह आदमी मूढ़ है, जो सारी दुनिया को बुरा सिद्ध करने में लगा है। क्योंकि अंतत: यह सारी दुनिया की बुराई लौटकर उसकी अपनी बुराई हो जाएगी, और उसके विकास का कोई उपाय न रह जाएगा।

अमूढ़ उसे कहते हैं, जो सारी दुनिया के भले होने का भरोसा रखता है। जिसकी अंतर्निहित आस्था इस बात की है कि सब लोग भले हैं। और अगर कभी किसी आदमी की बुराई की खबर मिलती है, तो भी वह यह नहीं कहता कि वह आदमी बुरा है। इतना ही कहता है, आदमी भला है, लेकिन भले आदमी से भी भूल—चूक हो जाती है। आदमी तो भला ही है। तो भला आदमी भी कभी भटक जाता है। अंतर्निहित आस्था उसकी भलाई की है। वह सारी दुनिया में चारों तरफ भलाई को खड़ा हुआ देखता है। तब उसे अपनी बुराई दिखाई पड़नी शुरू होती है। तब वह अनुभव करता है, इस दुनिया में शायद सबसे पिछडा हुआ मैं ही हूं! तब उसके विकास की संभावना, उत्‍क्रांति, उठ सकता है ऊपर।

लेकिन हमारी मूढ़ता का कोई अंत नहीं है। हम सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि कृष्ण भगवान हैं या नहीं। आसान इसलिए है कि उनकी मनुष्यता हमारे सामने से तिरोहित हो गई होती है। राम पर उनके गांव के धोबी को भी भरोसा नहीं था कि यह आदमी भगवान है। अब हम आराम से राम को भगवान मान सकते हैं। अब हमें तकलीफ नहीं है। अब मनुष्य रूप तिरोहित हो गया है। इसलिए अब हमें यह सोचने की सुविधा नहीं है कि वे भी हमारे जैसे मनुष्य हैं, भगवान कैसे हो सकते हैं!





लेकिन कृष्ण कहते हैं, वे मुझे तुच्छ समझते हैं, क्योंकि मैं मनुष्य के शरीर में खड़ा हूं।

वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात स्वभाव को ही धारण किए हुए हैं।

एक आखिरी बात, मनुष्य अनिर्मित, अपूर्ण चेतना है। जानवरों के पास पूरा व्यक्तित्व है। एक गाय पूरी गाय है, एक कुत्ता पूरा कुत्ता है; आदमी पूरा आदमी कभी नहीं हो पाता। आदमी कम—ज्यादा होता रहता है। आदमी आदमी की तरह पैदा नहीं होता, आदमी उसे बनना होता है। आदमी में विकास है। 

आदमी इस जगत में अपूर्ण व्यक्तित्व है, बाकी सबके पास पूरा व्यक्तित्व है। इस लिहाज से बड़ी कठिनाई है। वह कठिनाई यह है कि आदमी पूरा आदमी न होने से, चाहे तो जानवरों से भी नीचे गिर सकता है। और यही उसकी गरिमा भी है कि वह चाहे तो आदमी से भी ऊपर, देवताओं से भी ऊपर उठ सकता है।

इसलिए, आपको यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जानवरों में राक्षस कोई भी नहीं होता, क्योंकि जानवरों में देवता कोई भी नहीं होता। आदमी आदमी भी हो सकता है; नीचे गिर जाए तो राक्षस भी हो सकता है; ऊपर उठ जाए, तो देवता भी हो सकता है। आदमी एक संक्रमण व्यवस्था है। आदमी सुनिश्चित नहीं है, सृजन में, प्रक्रिया में है। तो आदमी दोनों तरफ जा सकता है।

और ध्यान रहे कि जीवन में ठहराव नहीं होता। अगर आप ईश्वर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप राक्षस की तरफ जाने लगेंगे। क्योंकि जाना पड़ेगा ही; रुकाव नहीं है। जीवन में एक गति है। जाना तो पड़ेगा ही। आप रुक नहीं सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैं जहां हूं वहीं ठहर जाऊंगा। आप कहीं हैं नहीं। जीवन एक गति है। आपको चलना तो पड़ेगा ही। इसमें कोई चुनाव नहीं है। अगर आप ऊपर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप नीचे की तरफ जाने लगेंगे।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि यह जो तुच्छ समझने वाली दृष्टि है, मुझे, ईश्वर अगर साकार खड़ा हो, तो तुच्छ समझती है, निराकार हो, तो कहती है, कहां है? यह जो बुद्धि है, यह जो मूढ़ता वाली बुद्धि है, यह राक्षसों जैसी हो जाती है, आसुरी हो जाती है। और फिर अपने ही—अपने ही—हाथ से बनाए गए अंधकार में अपने को डुबाती चली जाती है।

परमात्मा का कहीं भी लक्षण मिले? कहीं भी जरा—सी झलक मिले, उसे इनकार मत करना। क्योंकि वह तुम्हारे विकास का रास्ता है। कहीं बुराई बिलकुल पक्की भी हो, प्रमाणित भी हो, तो भी संदेह जारी रखना। क्योंकि उसे मान लेना, तुम्हारे गिरने का उपाय हो जाएगा। शैतान बिलकुल दरवाजे पर भी आकर बैठ जाए घर के, तो भी समझना कि नहीं है। और परमात्मा कहीं भी दिखाई न पड़े, तो भी जानना कि यहीं है। क्योंकि उसकी यह प्रतीति तुम्हारे भीतर जो हो सकता है विकास, उसके लिए सहयोगी होगी।

श्रेष्ठ को स्वीकार कर लेना, न दिखाई पड़ता हो तो भी; अश्रेष्ठ को इनकार कर देना, बिलकुल प्रत्यक्ष हो तो भी। तो ही मनुष्य ऊपर की ओर गति कर पाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...