मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 21


 जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।

ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।। 29।।


और जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को तथा संपूर्ण अध्यात्म को और संपूर्ण कर्म को जानते हैं।



जो मेरी शरण होकर!

इस छोटे-से शब्द शरण में, धर्म का समस्त सार समाया हुआ है। यह शरण इस पूरब में खोजी गई समस्त साधनाओं की आधारभूत बात है।

जो मेरी शरण होकर!

शरण होने का अर्थ है, जो अपने को इतना असहाय पाता है। और जो पाता है, मेरे किए कुछ भी न हो सकेगा। और जो पाता है, मेरे किए कभी कुछ हुआ नहीं। और जो पाता है कि मैं हूं न होने के बराबर, नहीं ही हूं। जो पाता है, मैं कुछ भी नहीं हूं। न श्वास मेरे कारण चलती है, न खून मेरे कारण बहता है; न बादल मेरे कारण इकट्ठे होते हैं, न वर्षा मेरी वजह से होती है। अज्ञात, अनंत शक्ति सब किए चली जाती है। मैं व्यर्थ अपने को बीच में क्यों लिए फिरूं! मैं अपने को छोड़ दूं; मैं बह जाऊं। इस अनंत के साथ संघर्ष छोड़ दूं; इस अनंत के साथ सहयोगी हो जाऊं; इस अनंत के चरणों में अपने को डाल दूं और कह दूं, जो तेरी मर्जी

एक बार भी अगर कोई पूर्ण हृदय से कह पाए, जो तेरी मर्जी, उसके जीवन से दुख विदा हो जाता है। मेरी मर्जी दुख है; उसकी मर्जी कभी भी दुख नहीं है।

ऐसा नहीं कि फिर पैर में कांटे न गड़ेंगे, और ऐसा भी नहीं कि फिर कोई बीमारी न आएगी, और ऐसा भी नहीं कि फिर मृत्यु न आएगी। लेकिन मजे की बात यह है कि कांटे तो फिर भी पैर में गड़ेंगे, लेकिन कांटे नहीं मालूम पड़ेंगे। बीमारी तो फिर भी आएगी, लेकिन आप अछूते रह जाएंगे। मौत तो फिर भी घटेगी, लेकिन आप नहीं मर सकेंगे। घटनाएं बाहर रह जाएंगी, आप पार हो जाएंगे।

असल में मैं के अतिरिक्त इस जगत में और कोई दुख नहीं है, और कोई पीड़ा नहीं है। और हम इतने मैं से भरे हैं कि अगर परमात्मा हमारे भीतर प्रवेश भी करना चाहे, तो जगह न मिल सकेगी। रोएं-रोएं से मैं बोल रहा है। वह मैं ही हमें समर्पित नहीं होने देता। वह मैं ही हमें कहीं शरण, सिर नहीं रखने देता। वह मैं कहता है कि तुम, और सिर झुकाओगे? वह मैं कहता है, सारी दुनिया से हम ही सिर झुकवा लेंगे।


जिंदगी में ऐसा रोज होता है। जिस परमात्मा को हम सदा छोड़े रहते हैं कि पाने योग्य नहीं है, और जिस परमात्मा को हम सदा बाहर रखते हैं जिंदगी के, वही परमात्मा अंत में पता चलता है कि शरण होने योग्य था--वही परमात्मा।

शरण बड़ा अदभुत शब्द है। शरण का अर्थ है कि मैं कहता हूं अब मैं नहीं हूं, तू ही है। और अब तू जो करेगा, जो करवाएगा, उससे मैं राजी हूं, स्वीकार करता हूं। 

जिस क्षण कोई व्यक्ति अपने को परमात्मा की शरण में छोड़ देता है, उसी क्षण परमात्मा के साथ एक हो जाता है।

अब यह जिंदगी का पैराडाक्स है कि जब तक हम अपने को बचाते हैं, अपने को खोते हैं; और जिस दिन अपने को खो देते हैं, उस दिन हम अपने को बचा लेते हैं। और जब तक हम अपने को बचाएंगे, कुछ हमारे हाथ में आएगा नहीं; खाली होगी मुट्ठी। और जिस दिन हम खोल देंगे, उस दिन यह सारी संपदा, यह सारा जगत, यह सब कुछ, यह सब कुछ हमारा है। लेकिन जब तक मैं है भीतर, तब तक यह सब हमारा नहीं हो सकता है। यह मैं ही हमारा दुश्मन है, लेकिन मैं हमें मित्र मालूम पड़ता है।


कभी देखें। कभी देखें, जमीन पर ही लेट जाएं। किसी मंदिर में जाने की उतनी जरूरत नहीं है। जमीन पर ही लेट जाएं चारों हाथ-पैर छोड़कर, और कह दें परमात्मा से कि अब घंटेभर तू ही है, मैं नहीं। और पड़े रहें घंटेभर। अपनी तरफ से कोई बाधा न दें। सिर्फ पड़े रहें, जैसे कि मुर्दा पड़ा हो या कोई छोटा बच्चा अपनी मां की गोद में सिर रखकर सो गया हो। करते रहें, करते रहें। एक पंद्रह-बीस दिन के भीतर आपको शरण का क्या अर्थ है, वह पता चलेगा। यह शब्द नहीं है, यह अनुभव है।

जमीन पर पड़ जाएं; अपने कमरे को भी बंद कर लें, जमीन पर पड़ जाएं चारों हाथ-पैर छोड़कर। सिर रख लें जमीन पर, पड़ जाएं, और कह दें, प्रभु, घंटेभर के लिए तू है, अब मैं नहीं हूं। पड़े रहें। विचार चलते रहेंगे, भाव चलते रहेंगे। दो-चार-आठ दिन में विचार, भाव विलीन हो जाएंगे। पंद्रह दिन में आपको लगेगा कि वह जमीन, जिस पर आप पड़े हैं, और आप अलग नहीं हैं; एक हो गए; किसी गहरी इकाई में जुड़ गए। एक महीना पूरा होते-होते आपको पता चलेगा कि शरण का क्या अर्थ है। आपके भीतर प्रभु की किरणें सब तरफ से प्रवेश करने लगेंगी। क्योंकि शरण का अर्थ है । बस, इतनी ही प्रक्रिया है  कि तू अपने को छोड़ दे परमात्मा के हाथों में।  इसको कृष्ण कहते हैं, सरेंडरिंग। इसको वे कहते हैं, खुले अपने सब दरवाजे छोड़ दें। परमात्मा से कोई बचाव तो नहीं करना है, इसलिए खिड़की-दरवाजे सब खुले छोड़ दें। और ऐसा पड़ जाएं, जैसे परमात्मा है और हम उसकी गोद में पड़े हैं।

और एक तीन सप्ताह में परिणाम गहरे होने लगते हैं। जैसे ही आप अपने को खुला छोड़ते हैं...। रेसिस्टेंस छोड़ने में थोड़ा वक्त लगता है। दो-चार दिन तो आप कहेंगे, लेकिन छोड़ न पाएंगे। धीरे-धीरे धीरे-धीरे छोड़ पाएंगे। जिस दिन भी छोड़ना हो जाएगा, उसी दिन आप पाएंगे, आपके भीतर कोई विराट ऊर्जा प्रवेश कर रही है। आपकी मांसपेशियों में कोई और नई चीज बहने लगी। आपकी हड्डियों के आस-पास किसी नई चीज ने प्रवाह लिया। आपके हृदय की धड़कनों के पास कोई नई शक्ति आ गई। आपके खून में कुछ और भी बह रहा है। आपकी श्वासों में कोई और भी तिर रहा है। और आप एक तीन महीने के अनुभव में पाएंगे कि आप नहीं बचे, परमात्मा ही बचा है। फिर तो यह भी कहने की जरूरत न रहेगी कि मैं शरण आता हूं। क्योंकि फिर इतना भी आप न बचेंगे कि कह सकें कि मैं शरण आता हूं।



कृष्ण ने कहा है, शरण। कृष्ण की पूरी गीता का सार है, शरणागति।

तो कृष्ण भी यही कहते हैं, शरणागति से मैं मिट जाएगा। और तब तो शरण जाने को कोई नहीं बचता। किसकी जाओगे? कौन जाएगा? दोनों खो जाते हैं। बूंद सागर में गिर जाती है और एक हो जाती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो शरण चला जाता है, वह सब कुछ पा लेता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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