बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 8 भाग 10

 दक्षिणायण के जटिल भटकाव


धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। 25।।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।। 26।।


तथा जिस मार्ग में धूम है और रात्रि है, तथा कृष्णपक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है।

क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक अर्चिमार्ग के द्वारा गया हुआ पीछे न आने वाली परम गति को प्राप्त होता है। और दूसरा धूममार्ग द्वारा गया हुआ पीछे आता है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।


जो व्यक्ति प्रभु की साधना में लीन उत्तरायण के मार्ग से मृत्यु को उपलब्ध होता है, उसकी पुनःवापसी नहीं होती है। 

लेकिन दक्षिणायण के मार्ग पर जी रहा व्यक्ति भी साधना में संलग्न हो सकता है, साधना की कुछ अनुभूतियां और गहराइयां भी उपलब्ध कर सकता है, लेकिन वैसे व्यक्ति की मृत्यु ज्यादा से ज्यादा स्वर्ग तक ले जाने वाली होती है, मोक्ष तक नहीं। और स्वर्ग में उसके कर्मफल के क्षय हो जाने पर वह पुनः वापस पृथ्वी पर लौट आता है। इस संबंध में पहले कुछ प्राथमिक बातें समझ लेनी चाहिए, फिर हम दक्षिणायण की स्थिति को समझें।

एक, जिस व्यक्ति की काम ऊर्जा बहिर्मुखी है, बाहर की तरफ बह रही है, और जिस व्यक्ति की कामवासना नीचे की ओर प्रवाहित है, वैसा व्यक्ति, कामवासना नीचे की ओर बहती रहे, तो भी अनेक प्रकार की साधनाओं में संलग्न हो सकता है, योगी भी बन सकता है।

और अधिकतर जो योग-प्रक्रियाएं दमन पर खड़ी हैं, वे काम ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी नहीं करती हैं, केवल काम ऊर्जा के अधोगमन को अवरुद्ध कर देती हैं, रोक देती हैं। तो ऊर्जा काम-केंद्र पर ही इकट्ठी हो जाती है, उसका बहिर्गमन बंद हो जाता है।

इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।

काम-केंद्र पर, सेक्स सेंटर पर ऊर्जा इकट्ठी हो, तो तीन संभावनाएं हैं। एक संभावना है कि पुरुष के शरीर की काम ऊर्जा स्त्री के शरीर की ओर, बाहर की तरफ बहे। या स्त्री की काम ऊर्जा पुरुष शरीर की ओर, बाहर की ओर बहे। यह बहिर्गमन है।

फिर दो स्थितियां और हैं। काम ऊर्जा काम-केंद्र पर इकट्ठी हो और ऊर्ध्वगामी हो, ऊपर की तरफ बहे, सहस्रार तक पहुंच जाए। उस संबंध में हमने कल बात की। एक और संभावना है कि काम ऊर्जा ऊपर की ओर भी न बहे, बाहर की ओर भी न बहे, तो स्वयं के शरीर में ही नीचे के केंद्रों की ओर बहे। इस स्वयं के ही शरीर में काम-केंद्र से नीचे की ओर ऊर्जा का जो बहना है, वही दक्षिणायण है।

निश्चित ही, ऐसा पुरुष स्त्री से मुक्त मालूम पड़ेगा। ठीक वैसा ही मुक्त मालूम पड़ेगा जैसा ऊर्ध्वगमन की ओर बहती हुई चेतना मालूम पड़ेगी। लेकिन दोनों में एक बुनियादी फर्क होगा। और वह फर्क यह होगा कि बाहर का गमन तो दोनों का बंद होगा, लेकिन जिसने दमन किया है अपने भीतर, उसकी ऊर्जा नीचे की ओर बहेगी और जिसने अपने भीतर ऊर्ध्वगमन की यात्रा पर प्रयोग किए हैं, उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर बहेगी।

काम-केंद्र से नीचे भी ठीक वैसे ही छः सेंटर हैं, जैसे छः सेंटर काम-केंद्र के ऊपर हैं। इन छः पर अगर ऊर्जा बहे, तो भी कुछ अनुभूतियां उपलब्ध हो सकती हैं। हठयोग की अधिक क्रियाएं काम ऊर्जा को बाहर से रोक लेती हैं, लेकिन ऊपर की तरफ प्रवाहित नहीं कर पातीं। शरीर में ही अंतर्प्रवाह शुरू हो जाता है नीचे की ओर, पैरों की तरफ।

ऐसा साधक भी अनेक उपलब्धियों को पा सकता है। लेकिन ऐसे साधक की जो उपलब्धियां हैं, पश्चिम में जिसे ब्लैक मैजिक कहते हैं और पूरब में जिसे मैली विद्या कहते हैं, उस तरह की होंगी। फिर भी इस साधक की एक क्षमता तो तय ही है कि इसने काम ऊर्जा को बाहर जाने से अवरुद्ध किया है। तो जीवन के प्रवाह में बायोलाजिकल जो शृंखला है, जीवन के उस प्रवाह से तो यह आदमी बाहर हो गया। और यह जो बाहर हो जाना है, यही इसका पुण्य है। इस पुण्य के बल पर यह व्यक्ति गहनतम सुखों को पा सकेगा; आनंद को नहीं।

गहनतम सुखों को पाने की अवस्था का नाम ही स्वर्ग है। यह ऐसे सुख पा सकेगा, जो बाहर ऊर्जा बहती हो, वैसे व्यक्ति ने कभी भी नहीं जाने होंगे। लेकिन यह वैसा आनंद कभी न पा सकेगा, जैसा आनंद ऊपर की ओर बहती हुई ऊर्जा के मार्ग में उपलब्ध होता है। लेकिन बाहर बहने वाली ऊर्जा से तो बहुत गहन आनंद इसे उपलब्ध होंगे।

तंत्र ने भी इस आंतरिक प्रवाह में बहुत-से प्रयोग किए हैं। और जो लोग सुखाकांक्षी हैं, जिन्हें आनंद का न कोई स्मरण है, न कोई खयाल; और जिन्हें मुक्त होने की भी कोई भावना नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता की कामना, परम स्वतंत्रता की कामना अति कठिन बात है। यदि हम चाहते भी हैं ज्यादा से ज्यादा, तो यही चाहते हैं कि दुख मिट जाएं और सुख उपलब्ध हों। धर्म की खोज में जाने वाले लोग भी सौ में निन्यानबे मौकों पर दुख से बचने के लिए सुख की खोज में जाते हैं।

इसलिए बर्ट्रेंड रसेल जैसे लोग कहते हैं कि जिस दिन विज्ञान जमीन पर सुख की सारी व्यवस्था जुटा देगा, उस दिन धर्म का विनाश हो जाएगा।

उनकी बात निन्यानबे मौकों पर सही है। वह रसेल का वक्तव्य निन्यानबे मौकों पर सही है। यह बात सच है, अगर विज्ञान उन सारे सुखों को आपको दे दे, उन सारे दुखों को मिटा दे जो आपको पीड़ित करते हैं, तो मंदिर और मस्जिद और चर्च में इकट्ठे होने वाले सौ लोगों में से निन्यानबे लोग तो तत्काल विदा हो जाएंगे। क्योंकि जिन सुखों के लिए वे मंदिर में आए थे और प्रभु की प्रार्थना के लिए आए थे, वे सुख अब विज्ञान ही उन्हें दे सकता है।

लेकिन एक आदमी फिर भी मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों में बच जाएगा। या हो सकता है, एक आदमी गिरजाघरों और मंदिरों को न बचा सके, तो जहां भी होगा, वहीं मंदिर में होगा, वहीं मस्जिद में होगा। वह एक आदमी सुख की तलाश में नहीं है, वह आनंद की तलाश में है। थोड़ा-सा फर्क खयाल में ले लें, तो आगे की बात समझ में आ जाएगी और प्रतीक भी समझ में आ सकेंगे।

दुख से जो मुक्त होना चाहता है, वह सुख चाहता है। लेकिन दुख और सुख दोनों से जो मुक्त होना चाहता है, वह आनंद चाहता है। आनंद का अर्थ है, मैं सुख-दुख दोनों से मुक्त होना चाहता हूं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो सुख-दुख दोनों से मुक्त होना चाहे। यद्यपि जिस आदमी ने भी जीवन का अनुभव लिया है, वह जानता है कि सुख भी दुख का ही एक रूप है। और सुख भी थोड़ी ही देर में दुखदायी हो जाते हैं। और वह यह भी जानता है कि सुख का भी एक तनाव है, सुख की भी एक विक्षिप्तता है और सुख की भी एक उत्तेजना है और सुख भी उसी तरह थका डालता है जैसे दुख थका डालता है।

दुख ही नहीं उबाता, सुख की भी अपनी बोर्डम है, अपनी ऊब है। और वही सुख, वही सुख रोज मिले, तो उससे भी हम इतने ही ऊब जाते हैं जैसे दुख से ऊब जाते हैं। बल्कि सचाई तो यह है कि हम दुख से इतने जल्दी कभी नहीं ऊबते, जितने जल्दी हम सुख से ऊब जाते हैं। दुख से हम इसलिए नहीं ऊबते कि दुख से हम छूटने की खुद ही चेष्टा में रत रहते हैं। सुख से हम इसलिए ऊब जाते हैं कि सुख से हम छूटना भी नहीं चाहते और सुख भी रोज-रोज दोहरकर बेरस, बेस्वाद और नीरस हो जाता है।

इसलिए एक बहुत अदभुत घटना मनुष्य के इतिहास में दिखाई पड़ती है कि दुखी समाज इतने ऊबे हुए नहीं होते, क्योंकि उनको एक आशा होती है कि आज नहीं कल दुख मिटेगा और सुख मिलेगा। उस आशा के भरोसे वे जी लेते हैं। इसलिए दुखी समाज बहुत संतापग्रस्त नहीं होते। दुखी समाज, दीन-दरिद्र, भिखारी समाज बहुत चिंतित, बहुत परेशान नहीं होते। दुखी समाज में आत्महत्याएं कम होती हैं, लोग कम पागल होते हैं। दुखी समाज में मानसिक बीमारी कम होती है। उसका कारण कि एक आशा, एक भविष्य तो आगे होता ही है। आज दुख है, कल सुख हो सकेगा। लेकिन सुखी समाज में यह आशा भी नष्ट हो जाती है।


सुख भी उबा देता है।

जीवन का अनुभव कहता है कि सुख और दुख जब दोनों से ही छुटकारे की कामना पैदा होती है, तो मनुष्य उत्तरायण की तरफ चलता है। उत्तरायण की तरफ चलने का अर्थ है कि मनुष्य अब मुक्ति चाहता है, कोई अनुभव नहीं, क्योंकि सभी अनुभव बंधन हैं। सभी अनुभव बंधन हैं, चाहे वे दुख के हों और चाहे सुख के, और चाहे अशांति के और चाहे शांति के। सभी अनुभव बंधन हैं, चाहे संसार का और चाहे परमात्मा का। सभी अनुभव बंधन हैं, क्योंकि प्रत्येक अनुभव से अंततः छूटने का मन हो जाएगा।

हम जो चाहते हैं जब वह मिल जाता है, तब जितना दुख उपलब्ध होता है, उतना चाहते क्षण में कभी भी नहीं हुआ था। असल में चाहत कभी दुख नहीं देती, उपलब्धि दुख देती है। जिसे हमने चाहा, अभागे हैं हम, अगर उसे पा लें। भाग्यवान हैं, अगर पाने से बच जाएं। क्योंकि जिसे हम नहीं पा पाते, उसकी आकांक्षा का रस जारी ही रहता है--इंतजार में, प्रतीक्षा में, सपने में, आशा में। फूल मुरझाते नहीं, पौधा सूखता नहीं; वासना हरी ही बनी रहती है। उसमें नए-नए पत्ते निकलते ही चले जाते हैं। लेकिन मिल जाए जिसे हमने चाहा, जो हमने चाहा वह हम पा लें, तब अचानक सब गिर जाता है, सब स्वप्न भंग हो जाते हैं।

अमेरिका में जो आज डिसइलूजनमेंट है, एक भ्रम का टूट जाना, स्वप्नभंग, वह उन सारी उपलब्धियों को पा लेने का परिणाम है, जो आदमी ने हजारों-हजारों साल तक चाही थीं और आज मिल गई हैं। आगे अब कोई भविष्य नहीं है। सुख बड़े गहन दुख में उतार देता है।

सुख भी दुख है, ऐसी जिस दिन प्रतीति होती है, उस दिन आदमी का उत्तरायण, उसके भीतर का सूर्य ऊपर की ओर उठना शुरू होता है। मुक्ति की दिशा! ध्यान रहे, मैं नहीं कह रहा हूं, मुक्ति की आकांक्षा। क्योंकि जब तक आकांक्षा है, तब तक आशा है, तब तक सुख है, तब तक भविष्य है। मुक्ति का आयाम, डायमेंशन आफ फ्रीडम, डिजायर फॉर फ्रीडम नहीं। मुक्ति के आयाम में भीतर का सूर्य उठना शुरू होता है।

लेकिन मुक्ति की आकांक्षा तो बड़ी दुर्लभ है। मुक्त कोई होना नहीं चाहता। जो कहते भी हैं कि हम मुक्त होना चाहते हैं, वे भी मुक्त होना नहीं चाहते।

और इसलिए एक बहुत मजे की घटना घटती है। जिनसे हम मुक्त होना चाहते हैं, जब उनसे मुक्त हो जाते हैं, तो हम पाते हैं कि उनसे मुक्त होकर हमारा जीवन बिलकुल बेस्वाद हो गया, तिक्त हो गया, एकदम रूखा हो गया। एकदम हम पाते हैं कि हम वहां खड़े हो गए, जहां अब करने को फिर पुनः कुछ भी नहीं बचा है।

हम अपने मित्रों को खोकर इतना कभी नहीं खोते, जितना अपने शत्रुओं को खोकर खो देते हैं। क्योंकि मित्र कभी हमारे जीवन के इतने अनिवार्य अंग नहीं होते। और मित्र जो हैं, वे रिप्लेस किए जा सकते हैं; उन्हें बदलना बहुत कठिन नहीं है। शत्रु बहुत आसानी से रिप्लेस नहीं होते। शत्रु बड़ी स्थायी घटना है। और आदमी शत्रुओं में जीता है। और शत्रुओं के बीच उनसे ही मुक्त होने को, उन्हें ही समाप्त करने को जीता है, और उनको समाप्त करके पाता है कि वह बिलकुल निर्वीर्य हो गया।

जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं, अगर हम मुक्त हो जाएं उससे, तो हम शायद पुनः चाहें कि फिर से वह बंधन मिल जाए तो बेहतर है। क्योंकि मुक्त होने का रस उस व्यक्ति से, उस स्थिति से भिन्न नहीं है, जिससे हम मुक्त होना चाहते हैं।

इसलिए मुक्त होने की कामना, फ्रीडम फ्राम समवन, फ्राम समथिंग--फ्रीडम फ्राम--किसी से मुक्त होने की जो वासना है, वह मोक्ष की वासना नहीं है। संसार से मुक्त होने की जो वासना है, वह मोक्ष की वासना नहीं है। मोक्ष का आयाम बिलकुल निर्वासना का आयाम है। वहां किसी से मुक्त नहीं होना है। वहां बस मुक्त होना है। जस्ट फ्रीडम, नाट फ्राम समथिंग।

इसे और एक तरफ से समझ लें।

तीन तरह की मुक्तताएं होती हैं, तीन तरह की फ्रीडम होती हैं। किसी से स्वतंत्रता; किसी के लिए स्वतंत्रता; और बस स्वतंत्रता। किसी से स्वतंत्रता का अर्थ होता है, अतीत से मुक्ति, पीछे से मुक्ति। और किसी के लिए स्वतंत्रता का अर्थ होता है, भविष्य की वासना। दोनों ही स्थितियों में मन मौजूद होता है, और उत्तरायण की पूरी यात्रा नहीं हो सकती है।

लेकिन बस स्वतंत्रता--नाट फ्राम, नाट फॉर--जस्ट। न ही किसी से स्वतंत्र होने की वासना; न ही किसी के लिए स्वतंत्र होने की वासना; बस स्वतंत्र होने का आयाम, बस स्वतंत्र होना।

 हम असल में मोक्ष को भी संसार की भाषा में ही समझ सकते हैं। हमें अगर ईश्वर से भी मिलना हो, तो हम दुकान की ही भाषा में मिलने की तैयारी करते हैं। हमारी सारी खोज सशर्त है, क्या दोगे? क्या पाओगे? क्या मिलेगा? वही हमारी आकांक्षा का केंद्र बना रहता है।

उत्तरायण तो तब शुरू होता है, जब कोई व्यक्ति सुख-दुख दोनों से छूटता है। छूटता है अर्थात दोनों के अनुभव ने उसे बता दिया, व्यर्थ हैं दोनों, निरर्थक हैं दोनों, असार हैं दोनों; और अब दोनों में कोई चुनाव नहीं करना है, दोनों को एक साथ ही छोड़ देना है।

और चुनाव संभव भी नहीं है। जैसे कोई एक ही सिक्के के एक पहलू को बचाना चाहे और दूसरे को छोड़ना चाहे, उसे हम पागल कहेंगे। क्योंकि जब एक सिक्के का एक पहलू बचाया जाता है, तो दूसरा अनिवार्य रूप से बच जाता है। सिक्के का एक पहलू बच नहीं सकता; दो ही बचते हैं, या दोनों ही फेंक देने पड़ते हैं।

जिसने सुख को बचाना चाहा, दुख को हटाना चाहा, वह दुख को भी पीछे बचा लेगा। जिसने दोनों फेंक दिए, वही केवल दुख से मुक्त हो पाएगा। जिसने सुख को फेंकने की भी तैयारी कर ली। इस सुख-दुख को फेंकते ही ऊर्ध्वगमन शुरू होता है।

लेकिन अगर आप दुख को हटाना चाहते हैं, सुख को बचाना चाहते हैं, तो दक्षिणायण का पथ, तो नीचे की यात्रा है। यदि आप सुख को बचाना चाहते हैं, दुख को हटाना चाहते हैं, तो बाहर जाना बंद कर दें, दुख कम से कम हो जाएंगे; क्योंकि दुख सदा किसी के कारण और किसी के द्वारा मिलते हुए मालूम पड़ते हैं।

इसलिए आदमी जब बहुत दुखी होता है, तो शराब पी लेता है, बेहोश हो जाता है। शराब कोई सुख नहीं देती। शराब एक काम करती है, सिर्फ बाहर से संबंध टूट जाता है। आदमी एनक्लोज्ड, अपने में बंद हो जाता है। और जब बाहर से संबंध टूट जाते हैं, तो जिस पत्नी के कारण दुख मिलता था, जिस पति के कारण चिंता होती थी, जिस बेटे के कारण मन में व्यथा आती थी, जिस परिवार के कारण विक्षिप्तता पैदा होती थी, जिस समाज को नष्ट कर डालने का मन होता था या स्वयं मर जाने की वृत्ति पैदा होती थी, वह फिर कुछ भी पैदा नहीं होता।

शराब संबंधों के जगत को तोड़ डालती है। इतना बेहोश कर देती है आपको कि बाहर का आपको स्मरण नहीं रह जाता; अपने में बंद। जब आप होश में आते हैं, तो कहते हैं, बड़ा सुख अनुभव किया। सुख अनुभव नहीं किया, केवल दुख के जगत से थोड़ी देर के लिए विस्मरण में डूब गए; तंद्रा में, निद्रा में, बेहोशी में, मूर्च्छा में खो गए। जब भी हम कहते हैं, हमें सुख मिला, तो आमतौर से यही होता है कि हम उन संबंधों से टूट गए होते हैं, जिनसे हमें दुख मिलता है।

दक्षिणायण का पथ समस्त संबंधों को बिना बेहोश हुए तोड़ने का पथ है। बिना बेहोश हुए तोड़ने का पथ है। बेहोश नहीं होना है, लेकिन समस्त वासना को काम-केंद्र पर इकट्ठा करके काम-केंद्र का द्वार बंद कर लेना है। दमन का जो ब्रह्मचर्य है, वह यही है। काम-केंद्र को अवरुद्ध कर लेना है। ऊर्जा इकट्ठी होगी और मुक्ति की कोई दिशा नहीं है, तो ऊर्जा गति करेगी।

ऊर्जा का नियम है कि ऊर्जा गत्यात्मक है, डायनैमिक है। ऊर्जा स्टैटिक नहीं है। ऊर्जा थिर नहीं रह सकती; ऊर्जा दौड़ती है। अगर आपने नदी का एक द्वार बंद कर दिया, तो नदी दूसरे द्वार से दौड़ना शुरू कर देगी। अगर आपने दूसरा द्वार भी बंद कर दिया, नदी तीसरा द्वार खोज लेगी और तीसरे मार्ग से दौड़ना शुरू कर देगी।

तीन पथ हैं। एक, मनुष्य की ऊर्जा का बहिर्गमन, जो कि प्राकृतिक, नेचरल मार्ग है; जिससे सब पशु-पक्षी, पौधे जीते हैं और जिससे अधिक मनुष्य भी जीते हैं। वह प्राकृतिक है।

दूसरा मार्ग है, ऊर्ध्वगमन का। वह अति प्राकृतिक है, वह प्रकृति के पार जाने का है, वह परमात्मा तक जाने का है।

एक तीसरा मार्ग भी है, नीचे की ओर जाने का। वह भी अति प्राकृतिक है, वह भी प्रकृति के पार है। लेकिन ऊपर जाने वाला मार्ग है बियांड नेचर; नीचे जाने वाला मार्ग है बिलो नेचर। एक ऊपर की तरफ जाने वाली अति है, दूसरी नीचे की तरफ जाने वाली अति है।

इस नीचे जाने वाली अति का कृष्ण ने जो ब्यौरा दिया है वह ऐसा है, तथा जिस मार्ग में धुआं है...।

अग्नि की जगह धुआं। पहले मार्ग में अग्नि थी, इस मार्ग में अग्नि की जगह धुआं है।

जिस मार्ग में धुआं है, रात्रि है, कृष्ण पक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर पीछे वापस लौट आता है।

इन प्रतीकों को समझें।

उत्तरायण के मार्ग पर अग्नि पहला प्रतीक थी। ऊपर की तरफ अग्नि बढ़ती, तो ज्योति बन जाती। ज्योति और ऊपर बढ़ती, तो दिन बन जाती। दिन और ऊपर बढ़ता, तो शुक्ल पक्ष बन जाता। और पूर्णिमा पर अंत होता। नीचे के मार्ग पर--अग्नि अब बीच में है। ऊपर की तरफ जाती, तो ज्योति बनती; नीचे की तरफ जाती है, तो धुआं बन जाती है। क्योंकि जितना ही हम नीचे उतरते हैं वासना में, उतना ही गीला ईंधन अग्नि को उपलब्ध होता है। वासना गीला ईंधन है।

एक सूखी लकड़ी को जलाओ, तो धुआं नहीं पैदा होता या कम पैदा होता है। गीली लकड़ी को जलाओ, तो धुआं ज्यादा पैदा होता है और बहुत पैदा होता है। जितनी गीली हो उतना ही धुआं पैदा होता है। बहुत गीली हो, तो लपट तो निकलती ही नहीं, धुआं ही धुआं पैदा होता है।

गीली और सूखी लकड़ी में फर्क क्या है? गीली लकड़ी अभी भी जीवन के प्रति आतुर है, रस से भरी है। अभी भी जीवन का जल-स्रोत उसमें बहता है। अभी भी जीव-ऊर्जा उसमें प्रवाहित है। सूखी लकड़ी मृतवत है, मुर्दा है। जीवन का सब रस-स्रोत सूख गया है। अब कोई धारा रस की उसमें नहीं बहती, इसलिए सूखी है।

जितना वासना भरा मन हो, उतना गीला है, उतनी लकड़ी गीली है अभी। अभी बहुत रस बहता है।

तो जिसने अपनी कामवासना को रोक लिया बाहर जाने से, वासना तो रुक जाएगी, रस नहीं रुकता है। ऊर्जा रुक जाएगी, एनर्जी रुक जाएगी, लेकिन वह जो वृत्ति का रस था भीतर, वह नहीं रुकता है। वह रस अभी भी भीतर बहा जा रहा है। वह रस गीलापन है।

इसलिए प्रतीक कृष्ण ने चुना है, धूम का, धुएं का। अब नीचे की तरफ बढ़ने पर जो पहली घटना घटती है, वह गहन धुएं का अनुभव है।

अगर कभी आपने जबरदस्ती किसी वासना को रोका हो, तो आपको सफोकेशन, बड़ी भीतर रुकावट और भीतर सब धुआं-धुआं हो गया, ऐसी प्रतीति भी हो सकती है। ज्योति की जो प्रकटता है, स्पष्टता है--निर्धूम ज्योति की--वह कभी दबी हुई, दबाई गई वासनाओं में अनुभव नहीं होती।

इसलिए दबे हुए व्यक्ति बहुत धुआं-धुआं हो जाते हैं। उनके भीतर सब धुंधियारा हो जाता है। और सब तरफ से उनके भीतर स्पष्टता खो जाती है, क्लैरिटी खो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी वासना को रोका तीव्रता से, उसके भीतर जो स्पष्टता होनी चाहिए चित्त की, वह खो जाती है। और दर्पण पर जैसे धुआं जम जाए, ऐसा उसके चित्त पर भी धुआं जम जाता है। फिर उसमें कुछ ठीक-ठीक प्रतिफलित नहीं होता। फिर साफ-साफ कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। फिर वह अंधेरे में अंधे जैसा टटोलने लगता है।

सभी वासनाएं अंधी हैं और सभी वासनाएं अंधेरे में टटोलती हैं। और अगर एक बार किसी ने ऊर्जा को रोक लिया, तो बहुत गहन धुआं भीतर पैदा होता है। यह धुआं अगर बढ़ता ही चला जाए नीचे की ओर, तो शीघ्र ही रात्रि में परिवर्तित हो जाता है। गहन हो गया धुआं, सघन हो गया धुआं, रात्रि का अंधकार बन जाता है।

जैसे दिवस बन जाती है ज्योति, ऐसे ही धुआं बन जाता है रात्रि। अग्नि है बीच में, ऊपर बढ़ें तो ज्योति, नीचे बढ़ें तो धुआं। और ऊपर बढ़ें तो दिन, और नीचे आएं तो रात्रि। धुएं का अर्थ है, चित्त की स्वच्छता का खो जाना।

निर्विचार स्थिति में वह व्यक्ति है, जो चाहे तो विचार कर सकता है, लेकिन विचार नहीं करता। और अविचार की स्थिति में वह व्यक्ति है, जो चाहे भी तो विचार नहीं कर सकता है। नपुंसकता और ब्रह्मचर्य में जो फर्क है, वैसा ही फर्क निर्विचार और अविचार में है।

नपुंसक भी एक अर्थ में ब्रह्मचारी है। लेकिन वह ब्रह्मचारी इसलिए नहीं है, कि ब्रह्मचारी न होना चाहे, तो स्वतंत्र नहीं है। ऊर्जा ही नहीं है, पुंसत्व ही नहीं है। वह चाहे तो भी ब्रह्मचर्य को नहीं तोड़ सकता। और जो ब्रह्मचर्य चाहकर तोड़ा न जा सके, उस ब्रह्मचर्य का क्या मूल्य हो सकता है! ब्रह्मचर्य तो वही है--जीवंत, पोटेंशियल, शक्तिवान--जो चाहा जाए, तो तोड़ा जा सके। लेकिन नहीं चाहते, नहीं तोड़ते, यह अलग बात है, यह भिन्न बात है। ऊर्जा भीतर है, उसके प्रवाह की मालकियत हमारे हाथ है। लेकिन ऊर्जा ही भीतर नहीं है! जो धन आपके पास नहीं है, उसको अगर आप खर्च नहीं करते, तो आप किस स्थिति में धनी हैं!

इस भीतर के प्रवाह पर पहला अनुभव धुएं का होगा। धुएं का अर्थ है, भीतर एक क्लैरिटी का, स्वच्छता का खो जाना। दूसरा अनुभव अंधकार का होगा। भीतर गहन, निबिड़ रात्रि का छा जाना, जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। कोई परवस्तु दिखाई नहीं पड़ती। स्वयं का थोड़ा-सा बोध शेष रह जाता है।

जैसे आप गहरे से गहरे अंधेरे में भी हों, तो कुछ और दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन इतना तो पता चलता ही रहता है कि मैं हूं। अंधेरी से अंधेरी रात में, अमावस में भी इतना तो पता चलता ही रहता है कि मैं हूं। सब दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। घर नहीं दिखाई पड़ता, मित्र-प्रियजन नहीं दिखाई पड़ते, वस्तुएं नहीं दिखाई पड़तीं, पर मैं हूं इतना स्मरण बना रहता है। रात्रि जितनी गहन हो जाएगी, उतना ही पर का बोध खोता चला जाएगा।

अब यह बहुत मजे का, यह समानांतर विचार ठीक से समझ लें। जितने आप ऊपर बढ़ेंगे, उतना स्व का बोध कम होता चला जाएगा। और जितने आप नीचे उतरेंगे, उतना पर का बोध कम होता चला जाएगा। जितना उत्तरायण के मार्ग पर आगे जाएंगे, स्व का बोध विसर्जित होता चला जाएगा।

अग्नि जब तक है, तब तक स्व का सघन बोध होगा, जलन से भरा हुआ बोध होगा। दि ईगो विल बी फेल्ट टू मच। बहुत गहन अनुभव होगा अहंकार का। लेकिन जैसे ही अग्नि ज्योति बनेगी, वैसे ही अहंकार विरल हो जाएगा। और जैसे ही ज्योति दिन बनेगी, वैसे ही अहंकार बिलकुल बिखरा-बिखरा हो जाएगा। और जब दिन भी शीतल शुक्ल पक्ष बनने लगेगा, तो उधर चांद बड़ा होने लगेगा और इधर अहंकार क्रमशः क्षीण होने लगेगा। जिस दिन पूर्णिमा का चांद होगा, उस दिन अहंकार शून्य हो जाएगा।

लेकिन नीचे की यात्रा पर, दक्षिणायण के पथ पर अहंकार महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ेगा; महत्वपूर्ण मालूम पड़ेगा, पर का बोध कम होता चला जाएगा। जितना अंधेरा बढ़ेगा, धुआं आएगा बीच में, तो दूसरे धुंधले दिखाई पड़ने लगेंगे। पत्नी धुंधली हो जाएगी, पुत्र धुंधले हो जाएंगे, धन-संपत्ति धुंधली हो जाएगी। छूट नहीं जाएगी, धुंधली हो जाएगी। बीच में धुएं की एक पर्त आ जाएगी। और आदमी अपने भीतर सिकुड़ने लगेगा। और जितना भीतर सिकुड़ेगा, उतना ही अहंकार सख्त और ठोस और क्रिस्टलाइज्ड होने लगेगा।

रात्रि जब गहन हो जाएगी, अंधकार काफी हो जाएगा, धुआं सघन हो जाएगा, तो दूसरे दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे। उनसे सिर्फ टकराहट होगी, दिखाई नहीं पड़ेंगे। कभी-कभी टकराहट होगी, तो मालूम पड़ेगा, दूसरा है। लेकिन दूसरे का बोध क्रमशः कम होने लगेगा, जड़ता घनी होने लगेगी। आदमी चारों तरफ एक परकोटे से घिर जाएगा अंधकार के। लेकिन अभी भी दूसरे की टकराहट का पता चलेगा।

और फिर आता है कृष्ण पक्ष, अंधेरी रातों का बढ़ता हुआ क्रम, अमावस की तरफ यात्रा। फिर रोज-रोज रात भी और अंधेरी होने लगती है। और चांद की रोशनी रोज-रोज कम, और चांद रोज-रोज घटने लगता है। अंधेरी रात रोज-रोज बढ़ने लगेगी।

जिस मात्रा में, जैसा मैंने कहा, शुक्ल पक्ष के पंद्रह क्रम होंगे, वैसे ही कृष्ण पक्ष के भी पंद्रह खंड होंगे और रोज-रोज अंधकार गहन होगा। जिस मात्रा में अंधकार गहन होगा, उसी मात्रा में पर, संसार भूलने लगेगा। मिटने नहीं लगेगा, भूलने लगेगा। और इसी से भ्रम पैदा होता है कि जो अब भूलने लगा, वह शायद मिट गया।

इसलिए शुक्ल पक्ष के यात्री की तरह से कृष्ण पक्ष का यात्री सोच सकता है कि मैं भी उसी मार्ग पर चल रहा हूं। वह अर्थ ले सकता है कि अब मुझे संसार नहीं दिखाई पड़ता, तो मैं मुक्त हो गया हूं!

लेकिन जब तक अहंकार भीतर है, संसार से कोई मुक्त नहीं होता। कितने ही दूर हो जाए, कितने ही दूर और कितने ही गहन अपने अंधेरे में खो जाए, संसार से उसके संबंध विसर्जित नहीं होते और वह कभी भी वापस लौट आता है। जब तक अहंकार शेष है, जब तक वापसी शेष है। तब तक आदमी वापस लौट आएगा।

एक-एक दिन, जैसे कृष्ण पक्ष बढ़ता है, अमावस करीब आती है, वैसे-वैसे जगत खोता चला जाता है। और अमावस के दिन, अमावस की रात, जैसे पूर्णिमा की रात्रि अहंकार शून्य हो जाता है और परमात्मा पूर्ण हो जाता है, ठीक वैसे ही अमावस की रात्रि अहंकार पूर्ण हो जाता है और पर बिलकुल शून्य हो जाता है। और पर के साथ परमात्मा भी शून्य हो जाता है, लेकिन अहंकार पूर्ण हो जाता है।

मजे की बात है--और शब्द इसीलिए धोखा दे सकते हैं-- पूर्णिमा की रात को उपलब्ध हुआ व्यक्ति भी कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका अर्थ होता है कि मैं अब नहीं हूं, ब्रह्म ही है। अमावस की स्थिति में पहुंचा हुआ व्यक्ति भी कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि। लेकिन उसका मतलब बिलकुल भिन्न होता है। वह भी कहता है, मैं ब्रह्म हूं। लेकिन उसका मतलब यह होता है, अब और कोई ब्रह्म नहीं, मैं ही ब्रह्म हूं!

पूर्णिमा की रात्रि को पहुंचा हुआ व्यक्ति कहता है, अहं ब्रह्मास्मि! क्योंकि वह कहता है, जो कुछ भी है, सभी ब्रह्म है। मैं भी ब्रह्म हूं, क्योंकि सभी कुछ ब्रह्म है। उसके इस अहं ब्रह्मास्मि में, उसके इस अहं में, उसके इस मैं में, मैं बिलकुल नहीं है और सब समा गया है। कहें, उसका यह अहं पूर्णरूपेण अहं-शून्य है, ईगोलेस ईगो। शब्द भर मैं है, लेकिन उसमें मैं-पन जरा भी नहीं है। क्योंकि वह पूरे ब्रह्म के साथ अपने को एक अनुभव करता है।

जैसे बूंद सागर में गिर जाए और कहे कि मैं सागर हूं। लेकिन गिरते ही बूंद तो खो जाती है। और अब मैं सागर हूं, इसका मतलब ही यह होता है कि अब सागर ही है, और मैं नहीं हूं। एक ही अर्थ होता है।

अमावस की रात को पहुंचा हुआ व्यक्ति भी यही कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि! जैसे बूंद सागर को बिलकुल भूल जाए और सागर का उसे पता ही न रहे और तब अकड़कर बूंद कह सके कि मैं ही सागर हूं, क्योंकि मुझसे बड़ा और कौन है! तब मैं ही सब कुछ रह जाता है और सब पर आरोपित हो जाता है।

अहं ब्रह्मास्मि की दक्षिणायण की भी अनुभूति है, उत्तरायण की भी। 

अगर कृष्ण भी आकर हमारे बीच खड़े होकर कहें कि मैं ब्रह्म हूं, तो हम कहेंगे, यह आदमी अहंकारी है। क्राइस्ट भी कहें कि मैं ईश्वर का पुत्र हूं, तो हम कहेंगे, यह अहंकारी है। हमने ही कहा है युग-युग में, और हमने ही इन सारे लोगों को सूलियां और फांसियां दे दी हैं।

जैसे-जैसे अंधेरे की तरफ, नीचे की तरफ बढ़ेगी चेतना, ऊर्जा, वैसे-वैसे पर का बोध खोता जाएगा। दि कांशसनेस आफ दि अदर, दूसरे का जो होश है हमें, वह विलीन हो जाएगा। एक घड़ी आएगी, जब मुझे सिर्फ मेरा ही होश रह जाएगा। एक घड़ी आएगी, जब मुझे मेरा ही होश रह जाएगा, मैं ही रह जाऊंगा। सारा जगत बंद और मैं एक अलग जगत, अपने भीतर हो जाऊंगा।

जो उत्तरायण में जाते हैं, उनकी साधना है समर्पण की, सरेंडर की। जो दक्षिणायण में जाते हैं, उनकी साधना है संकल्प की, विल की। और ये साधनाएं बड़ी उलटी हैं।

संकल्प का अर्थ ही है, स्वयं को, मैं को साधना। समर्पण का अर्थ है, स्वयं को, मैं को विसर्जित करना, खोना। दोनों की अलग-अलग साधनाएं हैं। हठयोग संकल्प की साधना है, राजयोग समर्पण की साधना है।

और जगत में दो ही तरह के योग हैं। उन्हें नाम कुछ भी दे दें। एक संकल्प के योग हैं, जिनमें अपने संकल्प को मजबूत करना है। इतना मजबूत करना है कि कोई जगत की ताकत मेरे संकल्प को न तोड़ पाए। तब मैं एक किले की दीवाल बनाकर उसके भीतर छिप जाऊंगा। फिर मैं सुरक्षित हूं।

और एक साधना है समर्पण की, कि अपने सब द्वार-दरवाजे खुले छोड़ देने हैं, कि कमजोर से कमजोर ताकत भी आए, कमजोर से कमजोर हवा का झोंका भी आए, तो भीतर चला आए, कोई बाधा न हो। मुझे मिटाने के लिए कोई ताकत आए, तो उसे जरा भी अड़चन न हो। मुझे मार डालने को कोई शक्ति निकले, तो मैं उसे द्वार पर ही स्वागत करता मिलूं। उसे दरवाजा खोलने की भी असुविधा न पड़े। समर्पण का अर्थ है, टु बी वलनरेबल, सब तरह से खुले हो जाना, जो हो उसके लिए राजी हो जाना।

ये दो साधनाएं हैं। एक साधना उस जगह पहुंचा देती है, जहां से कोई लौटना नहीं। दूसरी साधना भी कहीं पहुंचाती है, लेकिन वहां से लौटना है।

कृष्ण कहते हैं, इस दूसरे मार्ग से मरकर गया हुआ योगी--योगी कहते हैं उसे भी; वह भी संकल्प का योग साध रहा है--स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है। लेकिन एक बात और कही है, जो थोड़ी दुविधा में डालेगी, और वह यह है, धूम है, रात्रि है तथा कृष्ण पक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं। उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने कर्मों को भोगकर पीछे आता है।

यह चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर! इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, क्योंकि इस अंधेरे के रास्ते पर चंद्रमा की ज्योति कहां? इस दक्षिणायण के मार्ग पर अमावस मिलेगी। यहां चंद्रमा की ज्योति कहां? यहां चंद्रमा कहां? इसे थोड़ा समझना पड़ेगा, यह थोड़ा दुरूह है, लेकिन समझेंगे तो खयाल में आ जाएगा।

जैसा मैंने कहा कि आकाश में चांद हो, तो झील में उसका प्रतिबिंब बन जाता है। जब कोई व्यक्ति अंधकार की झील हो जाता है, जस्ट ए डार्कनेस, गहन अंधकार की झील हो जाता है, तो अंधकार इतना सघन हो जाता है कि झील बन जाता है। तो भी, उसकी ही ऊर्ध्व यात्रा का जो अंतिम बिंदु है, उसकी झलक इस गहन अंधकार में दिखाई पड़ने लगती है।

यह थोड़ा समझना पड़ेगा।

जब नीचे का हिस्सा व्यक्ति का पूर्ण अंधकार से भर जाता है, तो इस अंधकार की गहराई में ही, इस गहनता में ही अंधकार की, वह जो ऊपर का शीर्ष बिंदु है व्यक्ति का, वह झलक उसकी दिखाई पड़ने लगती है। यह झलक अंधकार के अति पारदर्शी होने से घटित होती है; अंधकार के भी ट्रांसपैरेंट हो जाने से घटित होती है। संकल्प जब अंधकार से जुड़ता है और अंधकार को संवारता है, साधता है, तो अंधकार भी झलक देने लगता है।

 जब कोई अपने ही अंधेरे के गर्त में उतर जाता है, अंधेरे के कुएं में नीचे और नीचे, और ऊपर उठकर देखता है, तो अपने ही शीर्ष पर जो चांद सदा से छिपा है, उसकी झलक उसे इतनी साफ दिखाई पड़ती है, जितनी साफ इस अंधेरे के कुएं के बाहर रहकर कभी दिखाई नहीं पड़ी थी, पता ही नहीं चला था। विपरीत की पृष्ठभूमि में चीजें बहुत साफ होकर दिखाई पड़ती हैं। इस अंधेरे से झलक मिलती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर!

चंद्रमा की एक ज्योति उसे उपलब्ध होती है, चंद्रमा उपलब्ध नहीं होता। चंद्रमा तो उपलब्ध होता है उत्तरायण के व्यक्ति को। इस व्यक्ति को तो चंद्रमा की ज्योति दिखाई पड़ती है, बड़ी प्रकट, बड़ी स्पष्ट। उसे यह उपलब्ध होती है। और स्वर्ग में अपने कर्मों का फल भोगकर वापस लौट आता है। स्वर्ग के संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक, स्वर्ग दोहरा अर्थवाची है। एक तो स्वर्ग उस अवस्था का नाम है, जहां दुख का हमने सब भांति निषेध कर दिया और केवल सुख का एक छोटा-सा कोना बचा लिया। सब दुख बंद कर दिए और केवल सुख को बचा लिया। पीछे छिपे रहेंगे दुख, जा नहीं सकते, क्योंकि वे सुख के ही हिस्से हैं। हमने एक ऐसा घर बना लिया, जिसमें हमने सिक्के चांदी के लगाकर उनका मुख अपनी तरफ कर लिया और पीठ पीछे की तरफ कर दी। हम उस घर के भीतर छिपकर खड़े हो गए। अब हम कह सकते हैं कि हमारे सभी सिक्कों में एक ही पहलू है। शक्ल वाला हिस्सा हमें दिखाई पड़ता है, पीठ पीछे है। लेकिन पीठ पीछे मौजूद है, बहुत जल्द वह पीठ हमें अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी। वही लौटना है वापस।

स्वर्ग का एक अनुभव है, दुख को छिपाकर सुख को पूरी तरह बचा लेने की स्थिति। यह मानसिक अवस्था भी है, भौतिक अवस्था भी है। ऐसे स्थान हैं इस विश्व में, जिन स्थानों पर ऐसे सुख की अधिकतम संभावना है। ऐसे स्थान हैं इस विश्व में, जहां इससे विपरीत दुख ही दुख हैं, उनकी संभावना है। लेकिन जो व्यक्ति भी ऐसी अवस्था को, या ऐसी स्थिति को, या ऐसे स्थान को उपलब्ध होता है, उसके पास संचित पूंजी है, वह उसे खर्च करके वापस लौट आता है। नर्क से भी लौट आता है आदमी, पाप की सारी पूंजी खर्च करके। स्वर्ग से भी लौट आता है आदमी, पुण्य की सारी पूंजी खर्च करके।

अब एक बात यहां खयाल ले लें। जब भी आप पाप करते हैं, तो संकल्प की कमी के कारण करते हैं। आपने तय किया है कि चोरी नहीं करूंगा, लेकिन हीरा पड़ा हुआ मिल जाता है। संकल्प कहता है, मत करो; लेकिन वासना कहती है, यह मौका चूकने जैसा नहीं। कसम फिर खा लेना, व्रत फिर ले लेना; यह हीरा फिर दुबारा मिले न मिले। व्रत तो कभी भी लिया जा सकता है। तोड़ भी दिया, तो पश्चात्ताप की व्यवस्था हो सकती है। प्रायश्चित्त कर लेना; कुछ दान-पुण्य कर देना। जो चाहो, कर देना, लेकिन इसे मत छोड़ो। पाप सदा ही संकल्प की कमी से होते हैं, ध्यान रखना; संकल्प की कमी से।

सब पाप--क्योंकि पापी से पापी व्यक्ति भी पाप करने का तय कभी नहीं करता, हालांकि पाप कर लेता है। यह खयाल में रखना आप। पापी से पापी व्यक्ति भी पाप करने का तय नहीं करता, तय तो सदा पुण्य करने का ही करता है, लेकिन पाप कर लेता है। सब पाप संकल्प की कमी से पैदा होते हैं। संकल्प की कमी नर्क का द्वार है।

सब पुण्य संकल्प की सामर्थ्य से पैदा होते हैं, इसलिए संकल्प स्वर्ग की कुंजी है।

लेकिन मोक्ष न संकल्प से मिलता और न संकल्प की कमी से मिलता। संकल्प की कमी भी संकल्प की ही कमी है। वहां भी संकल्प मौजूद है, कमजोर, दीन-हीन, कुटा-पिटा, लेकिन मौजूद है। मोक्ष मिलता है संकल्प के विसर्जन से, संकल्प के पूर्ण विसर्जन से, संकल्प के समर्पण से, सरेंडर से।

तीन बातें। संकल्प हो पूरा, तो आदमी दक्षिणायण के पथ पर विकसित हो जाता है। संकल्प न हो पूरा, तो आदमी प्रकृति के मार्ग पर ही भटकता रहता है। अगर संकल्प बहुत कमजोर हो, तो भटकता है, भटकता है, नर्क बना लेता है। संकल्प मजबूत हो, तो स्वर्ग निर्मित कर लेता है। लेकिन स्वर्ग से भी वापसी है, नर्क से भी वापसी है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, इस मार्ग को गया हुआ व्यक्ति भी अपने कर्मों के फल को भोगकर वापस लौट आता है। क्योंकि जगत के ये दो प्रकार, शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान की गति अर्थात मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक के द्वारा गया हुआ पीछे न आने वाली गति को प्राप्त होता है; और दूसरे के द्वारा गया हुआ पीछे आता है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।

संक्षिप्त में, एक है हमारे कर्मों की उपलब्धि, हमारे किए हुए का फल। बुरा होगा तो बुरा मिल जाएगा, भला होगा तो भला मिल जाएगा, लेकिन है हमारे कर्मों का किया हुआ। जो हम कर्म से करते हैं, वह चुक जाएगा।

हमारा किया हुआ शाश्वत नहीं हो सकता। कितनी ही बड़ी संपदा हो, चुक जाएगी। कितने ही बड़े पुण्य हों, खर्च हो जाएंगे, भोग लिए जाएंगे। कितना ही बड़ा सुख हो, रिक्त हो जाएगा। सागर भी बूंद-बूंद गिरकर रिक्त हो सकता है। क्योंकि सागर भी बूंद-बूंद गिरकर ही भरता है। कितना ही महापुण्य हो, कितना ही दूर-दूर, वर्षों-वर्षों, जन्मों-जन्मों तक चलने वाला सुख हो, चुक ही जाता है। और चुककर हम वापस रिक्त, दीन-हीन, वहीं खड़े हो जाते हैं, जहां से हमने एक दिन संकल्प करके उसे कमाया था। कर्म शाश्वत को नहीं देते, कर्म नित्य को नहीं देते। कर्म जो भी देते हैं, वह क्षणिक है। वह क्षण कितना ही लंबा हो सकता है।

और एक मजे की बात है कि स्वर्ग कितना ही लंबा हो, क्षणिक से ज्यादा कभी नहीं होता। यह थोड़ा कठिन लगेगा। वही काल का रहस्य फिर थोड़ा खयाल में लेना पड़ेगा। स्वर्ग कितना ही लंबा हो, क्षण से ज्यादा नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि जितना ज्यादा सुख हो, उतना ही समय छोटा मालूम पड़ता है।


पर आदमी के किए हुए कर्म सभी चुक जाते हैं। क्या ऐसा भी कुछ है आदमी के जीवन में, जो उसके कर्म से नहीं मिलता? जो उसका किया हुआ नहीं है? अगर ऐसा कुछ है, तो आदमी उससे कभी वापस नहीं लौटेगा।

इसलिए संकल्प के मार्ग से गया हुआ व्यक्ति वापस लौट आएगा, क्योंकि संकल्प है आदमी का कर्म।

समर्पण के मार्ग से गया हुआ व्यक्ति कभी वापस नहीं लौटेगा, क्योंकि समर्पण के मार्ग पर जो घटना घटती है, वह व्यक्ति के कर्म का फल नहीं, व्यक्ति के समर्पण का फल है। और समर्पण कर्म नहीं है, समस्त कर्मों का विसर्जन है। असल में समर्पण से जो उपलब्ध होता है, वह प्रभु-प्रसाद है, वह ग्रेस है, वह अनुकंपा है। संकल्प से जो मिलता है, वह मेरी उपलब्धि है। समर्पण से जो मिलता है, वह मैं मिट जाता हूं, तब मिलता है; वह मेरी उपलब्धि नहीं है, वह मेरे खो जाने की उपलब्धि है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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