बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 8 भाग 7

सृष्टि और प्रलय का वर्तुल


अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।। 18।।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।। 19।।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। 20।।


इसलिए काल के तत्व को जानने वाले यह भी जानते हैं कि संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त में ही लय होते हैं।

और हे अर्जुन, वह ही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के वश में हुआ रात्रि के प्रवेशकाल में लय होता है और दिन के प्रवेशकाल में फिर उत्पन्न होता है।

परंतु उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नहीं नष्ट होता है।


अस्तित्व की व्याख्या, कैसे यह अस्तित्व पैदा होता है और कैसे लीन होता है। इसके पहले कि हम कृष्ण के वचन पर विचार करें, कुछ और प्राथमिक बातें जान लेनी जरूरी हैं।

एक तो कि काल के तत्व को जो जान लेते हैं, वे ही आने वाली इस व्याख्या को समझ पाएंगे। काल के तत्व के संबंध में एक बहुत मौलिक बात स्मरण कर लेनी जरूरी है और वह यह है कि समय के भीतर जो भी प्रकट होता है, वह स्वप्नवत है, ड्रीमलाइक है।

इसे हम ऐसा समझें कि जैसे कोई व्यक्ति दर्पण में अपनी तस्वीर देखे, तो दर्पण में जो दिखाई पड़ता है, वह स्वप्नवत है। दर्पण में वस्तुतः होता नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। लेकिन दिखाई पूरा पड़ता है। दिखाई पड़ने में कोई कमी नहीं है। या जैसे कोई रात चांद निकला हो आकाश में और झील की शांत सतह में उसका प्रतिफलन बन जाए। कोई झील में झांककर देखे, तो चांद पूरा दिखाई पड़ता है, वैसे वहां है नहीं।

ठीक समय के भीतर भी प्रतिफलन ही उपलब्ध होते हैं। समय दर्पण है या पानी की झील है, उसमें जो हमें दिखाई पड़ता है, वह वास्तविक नहीं है, स्वप्नवत है। यही अर्थ है माया का, इलूजन का। लेकिन जब तक हमें उस सत्य का पता न हो जो दर्पण के बाहर है, तब तक हमें यह भी एहसास न हो सकेगा कि जो हम देख रहे हैं समय के भीतर, वह माया है।


समय की झील में जो हमें दिखाई पड़ता है, वही संसार है। समय में पकड़ा हुआ जो हमें दिखाई पड़ता है, वही संसार है। लेकिन समय के बाहर हम देख ही नहीं पाते हैं। हम बिलकुल कुएं पर झुके खड़े हैं। और जो हमें कुएं में दिखाई पड़ता है, वही दिखाई पड़ता है। समय के मीडियम में, समय के माध्यम में जो झलकता है, उसे ही हम जानते हैं। और हम किसी चीज को जानते नहीं।

तो समय के तत्व को जो जान लेता है, वह यह भी जान लेता है, यह जगत सिर्फ एक माया है, यह जगत सिर्फ एक प्रतिबिंब है, यह जगत सिर्फ एक स्वप्न है। और जो समय से मुक्त हो जाता है, वह जगत से भी तत्क्षण मुक्त हो जाता है। या जो जगत से मुक्त हो जाता है, वह समय से मुक्त हो जाता है। अगर इसे हम और भी सूक्ष्म में कहें, तो कह सकते हैं, समय ही संसार है। समय के बाहर हो जाना संसार के बाहर हो जाना है।

लेकिन यह समय का तत्व बहुत अदभुत है। हम सभी अपनी कामना की गहनता के अनुसार अधिक या कम समय के भीतर हो सकते हैं। जितनी तीव्र वासना होती है, समय के भीतर उतना हमारा गहरा प्रवेश हो जाता है। जितनी क्षीण वासना होती है, उतना ही हम समय की परिधि पर आ जाते हैं।

समय के तत्व को जो समझ लेता है, वह यह भी समझ लेता है कि अगर मुझे समय के बाहर होना है, तो मुझे वासना के बाहर हो जाना पड़ेगा। और अगर मुझे वासना के बाहर होना है या समय के बाहर होना है, तो क्या सूत्र होगा इसका? वे जो काल के तत्व को जान लेते हैं, किस सूत्र का प्रयोग करते हैं?

एक छोटा-सा सूत्र आपसे कहता हूं। वे इसी का प्रयोग करते हैं। वे क्षण में जीना शुरू करते हैं। समय में नहीं, क्षण में। नाट इन टाइम, बट इन दि मोमेंट। एक क्षण है अभी मेरे पास; और एक क्षण से ज्यादा किसी आदमी के पास कभी होता नहीं। कितना ही बड़ा आदमी हो, कितना ही छोटा आदमी हो, दीन हो, दरिद्र हो, सम्राट हो, कमजोर हो कि शक्तिशाली हो, अज्ञानी हो कि ज्ञानी हो, एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में कभी इकट्ठा नहीं होता। जब एक क्षण सरक जाता है, तब दूसरा क्षण हाथ में आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के पास नहीं होता।

अगर कोई इस एक क्षण में ही जीना शुरू कर दे, आने वाले क्षण की वासना न करे, चिंता न करे, आकांक्षा न करे; बीते हुए क्षण को भूल जाए, छोड़ दे, स्मृति के बाहर कर दे; इस क्षण में ही ठहर जाए--तो ऐसे आदमी को वासना में जाने का उपाय नहीं होगा। क्योंकि वासना इसी क्षण में नहीं हो सकती।

इसी क्षण में तो केवल प्रार्थना ही हो सकती है। इसी क्षण में तो केवल ध्यान ही हो सकता है। इसी क्षण में तृष्णा नहीं हो सकती। तृष्णा के लिए एक क्षण से ज्यादा चाहिए। फैलाव के लिए, विस्तार के लिए भविष्य चाहिए। और भविष्य के फैलाव के लिए अतीत में जड़ें और स्मृति चाहिए। अगर अतीत भी नहीं, भविष्य भी नहीं, यही क्षण है, तो समय गिर गया और वासना भी गिर गई।

इसलिए ज्ञानी क्षण में जीना शुरू कर देता है, अभी और यहीं। और जैसे ही कोई अभी और यहीं जीता है, समय के बाहर हो जाता है। क्षण जो है, समय के बाहर होने का द्वार है।

इसे और तरह से भी समझ लें।

पिछले कुछ वर्षों की वैज्ञानिक खोजों ने पदार्थ के अंतिम कण पर मनुष्य को पहुंचा दिया, एटम पर, अणु पर पहुंचा दिया, परम अणु पर पहुंचा दिया। फिर परम अणु का भी विभाजन हो गया और परम अणु का भी विभाजित हिस्सा इलेक्ट्रान हाथ में आ गया। लेकिन एक बड़ी अदभुत घटना घटी, परमाणु के टूटते ही पदार्थ खो जाता है। परमाणु के टूटते ही पदार्थ खो जाता है। और इधर कुछ वर्षों में विज्ञान की जो बड़ी से बड़ी उपलब्धि है, वह यह है कि अब पदार्थ जगत में नहीं है।

तीन सौ वर्ष पहले जो विज्ञान सोचकर चला था कि परमात्मा जगत में नहीं है, कोई सोच भी नहीं सकता था...अगर आज पुराने वैज्ञानिकों को कब्रों से उखाड़ा जाए, न्यूटन को उखाड़ा जाए कब्र से या गैलीलियो को, तो वे विश्वास न कर सकेंगे कि यह विज्ञान ने कौन-सी उपलब्धि कर ली! सोचते थे कि ईश्वर खो जाएगा, आत्मा खो जाएगी। इस सदी के प्राथमिक समय में भी सभी वैज्ञानिक इस खयाल से भरे थे कि आत्मा-परमात्मा के बचने की कोई जगह नहीं। पदार्थ ही सत्य है, मैटर इज़ दि ओनली रियलिटी।

लेकिन इधर उन्नीस सौ पचास के करीब जो प्रतीति गहन होने लगी, वह यह है कि मैटर इज़ दि मोस्ट अनरियल थिंग, पदार्थ है ही नहीं। जैसे ही परमाणु टूटता है, पदार्थ खो जाता है और परमाणु के टूटते ही पदार्थ के बाहर प्रवेश हो जाता है, अपदार्थ में, नान-मैटीरियल में प्रवेश हो जाता है।

ठीक ऐसे ही समय का जो आखिरी टुकड़ा है, उसका नाम क्षण है, कहें कि वह समय का परमाणु है, क्षण। जो व्यक्ति क्षण में ठहर जाता है, वह समय के बाहर हो जाता है। जैसे परमाणु में जो व्यक्ति प्रवेश करता है, वह पदार्थ के बाहर हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति क्षण में, समय के परमाणु में प्रवेश करता है, वह समय के बाहर हो जाता है।

विज्ञान ने पदार्थ की खोज करके परमाणु पाया और परमाणु के बाहर द्वार पाया, जहां से अपदार्थ में, अव्यक्त में, अनमैनिफेस्टेड में प्रवेश हो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरब के धर्म ने, पूरब के धर्म के खोजियों  ने समय की खोज की । क्योंकि उनके इरादे कुछ और थे; उनके इरादे उसको जानने के थे,  शाश्वत है, सनातन है। उन्होंने समय की खोज की और समय के आखिरी टुकड़े को खोजा, जिसका नाम उन्होंने क्षण दिया है। उसको कहें टाइम एटम, कहें समय का परमाणु। और जब वे समय के इस परमाणु के भीतर प्रविष्ट हुए, खड़े हुए, उन्होंने पाया समय खो जाता है। और फिर जो बचता है, वही शाश्वत, सनातन, नित्य है।

समय के रहस्य को जानने वाले के लिए कृष्ण कहते हैं, जो समय के, काल के इस तत्व को जान लेता है, इस क्षण के द्वार को पहचान लेता है और समय के बाहर होने की कला जिसे आ जाती है, वह संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उसी अव्यक्त में लय होते हैं--इस तत्व का भी ज्ञाता हो जाता है।

यहां दोत्तीन बातें, जो कि मैंने आपसे अभी-अभी कहीं, वे खयाल में ले लें। कृष्ण कहते हैं, वह व्यक्ति जो समय को जान लेता है, वह इस सत्य को भी जान लेता है कि यह जगत कहां से पैदा होता है और कहां लीन होता है। इस जगत के पैदा होने के लिए कृष्ण ने कहा है, समस्त दृश्यमात्र भूत, सब मैटर, सब पदार्थ, ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में, ब्रह्मा के प्रथम मुहूर्त क्षण में, जब ब्रह्मा का दिन शुरू होता है...।

हमने कल समझा कि चौबीस घंटे हमारे जैसे हैं, बारह घंटे का दिन और बारह घंटे की रात भी मान लें, तो ब्रह्मा की जब सुबह होती है, ब्रह्ममुहूर्त! अभी भी हम सुबह के क्षण को ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं, सिर्फ इस याददाश्त में कि कभी हमें वास्तविक ब्रह्ममुहूर्त का भी पता चल जाएगा। जिसे हम ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं, वह ब्रह्ममुहूर्त नाम मात्र को है।

ब्रह्ममुहूर्त का अर्थ है, ब्रह्मा का वह क्षण, जब जगत शुरू होता है, जीवन प्रारंभ होता है, पदार्थ आविर्भूत होते हैं, व्यक्त होते हैं और लीला शुरू होती है। सुबह वह लीला शुरू होती है, सांझ होते-होते वह लीला अपने शिखर पर पहुंच जाती है। और जब भी कोई चीज शिखर पर पहुंचती है, तो उतरना शुरू हो जाती है। फिर रात ब्रह्मा की, और सब चीजें बिखरती जाती हैं, उतरती चली जाती हैं। और अंतिम क्षण में रात्रि के, जो जगत प्रकट हुआ था, वह पुनः अप्रकट में लीन हो जाता है। और फिर सुबह, और फिर सांझ, और फिर सुबह, ऐसा वर्तुलाकार ब्रह्मा का समय चलता रहता है।

ये पदार्थ अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं। अव्यक्त का अर्थ है जो प्रकट नहीं है। उससे प्रकट होता है सब। जो छिपा है, उससे प्रकट होता है सब। जो गुप्त है, उससे प्रकट होता है सब।

अभी विज्ञान की खोज भी इसके करीब पहुंची है। शायद इस वचन के समर्थन में शंकर जो नहीं कह सकते, रामानुज जो नहीं कह सकते, निंबार्क जो नहीं कह सकते, गीता के जो भी बड़े-बड़े चिंतक हुए वे नहीं कह सकते, वह शायद इस हमारी सदी का भौतिकविद कह सकता है। आइंस्टीन कह सकता है कि यह वक्तव्य न केवल धर्म का वक्तव्य है, यह वक्तव्य विज्ञान का भी वक्तव्य है। क्योंकि परमाणु के विभाजन के बाद विज्ञान ने पाया कि वह जो प्रकट परमाणु था, अचानक अप्रकट में लीन हो जाता है।

इसके पहले तक कभी विज्ञान को खयाल नहीं था और यह इल्लाजिकल भी है। यह वक्तव्य बहुत अतार्किक है, तर्कहीन है। बुद्धिमत्ता इसका समर्थन न करेगी, बुद्धि इसके सहयोग में खड़ी न होगी। क्यों? क्योंकि व्यक्त अगर प्रकट होता है अव्यक्त से, तो इसका तो अर्थ हुआ कि शून्य से पूर्ण का जन्म होता है। इसका तो अर्थ हुआ कि जो नहीं है, उससे, जो है, वह निकल आता है। इसका तो अर्थ हुआ, जो कहीं नहीं पाया जाता, उससे भी, सारा जो सब जगह पाया जाता है, उसका फैलाव है। यह तो बहुत तर्क में बात आती नहीं। विचार इसको पकड़ नहीं पाता। यह तो ऐसा ही हुआ कहना कि  ना-कुछ से, सब कुछ का जन्म है।

लेकिन परमाणु के विघटन ने इस गीता के वक्तव्य को वैज्ञानिक प्रामाणिकता भी दे दी। क्योंकि परमाणु के विघटन के बाद कोई उपाय न रहा। और जब किसी ने बहुत बड़े भौतिकविद प्लांक से पूछा कि यह तुम कैसी तर्कहीन बातें कर रहे हो! कि परमाणु के नीचे उतरते ही परमाणु का जो पदार्थ है, वह अपदार्थ हो जाता है, मैटर इम्मैटर हो जाता है, यह तुम कैसी तर्कहीन और अवैज्ञानिक बातें कर रहे हो! तो प्लांक का उत्तर बहुत अदभुत है।

प्लांक ने कहा, जब तक मुझे पता नहीं था, प्रयोग में जाना नहीं था, तब तक मैं भी यही कहता। अब मैं तुमसे इतना ही कहूंगा, हमारे वश के बाहर है। परमाणु का जो व्यवहार है, वह यही है कि उसके टूटते ही वह नीचे अव्यक्त में खो जाता है। अब अगर वह अतर्क है, तो हम अपने तर्क को बदल डालें, और कोई उपाय नहीं। नाउ लेट अस चेंज अवर होल लाजिक! लेकिन हम अस्तित्व को नहीं बदल सकते। अगर हमारे तर्क में बात नहीं बैठती है, तो भी अस्तित्व राजी नहीं होगा कि हमारे तर्क के अनुसार चले। हम अपने तर्क को ही बदल लें। और तो कोई उपाय नहीं है।

इसलिए पचास वर्षों में पिछले एक नए तर्क का जन्म हुआ है, पश्चिम में नए गणित का जन्म हुआ है, नई ज्यामिति का जन्म हुआ है, जिनको कि सुनकर पुराने ज्यामिति के विद्यार्थी को, पुराने गणित के विद्यार्थी को, पुराने तर्क के विद्यार्थी को कुछ भी समझ में नहीं आता कि यह क्या है!

कृष्ण कहते हैं, अव्यक्त से व्यक्त का जन्म होता है ब्रह्ममुहूर्त में, ब्रह्मा के पहले क्षण में। और फिर पुनः यह व्यक्त जब थक जाता, जीर्ण-शीर्ण हो जाता, जरा-जीर्ण हो जाता, वृद्ध हो जाता, तो पुनः लीन हो जाता है अव्यक्त में।

इसे हम अपने से समझें तो शायद आसान हो जाए।

सुबह आप उठते हैं ताजे, लेकिन कभी आपने खयाल किया, यह ताजगी कहां से आती है? निश्चित ही, रातभर आपने ताजगी के लिए कुछ भी नहीं किया; न कोई व्यायाम किया, न कोई भोजन लिया। रातभर अगर आपने कुछ भी किया, तो इतना ही किया कि अपने को सब करने से रोका। रातभर आप सोए रहे। सोने में आप पुनः अव्यक्त में गिर जाते हैं। व्यक्त से हट जाते हैं, अव्यक्त में गिर जाते हैं। उसी अव्यक्त से ताजगी लेकर सुबह पुनः उठ आते हैं। सांझ होते-होते फिर थक जाते हैं; दिन ढल जाता है, रात शुरू हो जाती है। फिर...।

इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं, निद्रा छोटी मृत्यु है, निद्रा आंशिक मृत्यु है; मृत्यु पूर्ण निद्रा है। रोज आदमी को मरना पड़ता है, इसीलिए सुबह वह पुनः जीवित हो पाता है। रात अंधेरे में डूब जाते हैं, सुबह फिर पुनरुज्जीवित होते हैं, ताजे, प्रफुल्लित; फिर काम में लग जाते हैं।

ठीक ब्रह्मा की यह पूरी सृष्टि भी दिनभर में थक जाती है, सांझ होने के करीब हो जाती है। फिर मृत्यु, फिर पुनर्जन्म। ठीक चौबीस घंटे के दिन की भांति ब्रह्मा का भी बड़ा वर्तुलाकार दिन घूमता रहता है।

इसलिए एक बात और बहुत मजे की है और वह यह कि सिर्फ पूरब के मुल्कों में और विशेषतया भारत में समय की एक धारणा विकसित की, जो सरकुलर है, वर्तुलाकार है। हम समय को हमेशा वर्तुल में सोचते रहे। पश्चिम में समय की धारणा लीनियर है, एक रेखा में, सीधी। पश्चिम को वर्तुल का खयाल ही अभी-अभी आना शुरू हुआ। नहीं तो पश्चिम सोचता है, एक रेखा में इतिहास चलता है। हम सोचते हैं कि रेखा में नहीं, गोल वर्तुल में चलता है।

इसलिए हम जानते हैं कि सब चीजें फिर लौटकर आ जाती हैं। अगर एक ही रेखा में चलता हो, तो चीजें लौटकर नहीं आ सकतीं। इसलिए पश्चिम ने इतिहास लिखा, पूरब ने कभी इतिहास नहीं लिखा। क्योंकि जब सभी चीजें बार-बार लौट आती हों, तो इतिहास की लिखने की व्यर्थ की झंझट में क्यों पड़ना? फिर-फिर यही होगा। फिर राम होंगे, फिर कृष्ण होंगे, फिर बुद्ध होंगे; चीजें वर्तुलाकार लौटती रहेंगी; तो क्या प्रयोजन है बार-बार लिखने से कि बुद्ध कब हुए, कैसे हुए, किस तिथि में हुए, किस समय में हुए!

ईसाइयत ने समय का नान-सर्कुलर दृष्टिकोण पकड़ा है, गैर-वर्तुल, रेखाबद्ध। इसलिए ईसा का जन्मदिन इतिहास की शुरुआत बन गया। वह ईवेंट बन गया, घटना बन गई। इसलिए उचित ही है कि सारी दुनिया में हम ईसा के जन्मदिन के हिसाब से समय को मापते हैं। हमारे पास ऐसा समय-माप नहीं है। और हमने जो समय-माप गढ़े भी हैं, वे भी ईसा की नकल में गढ़े हैं। और हमने बहुत दफे बहुत-से समय-माप शुरू किए, लेकिन हमारी चेतना से मेल नहीं पड़ा और वे छूट गए।

हमने पुराण तो लिखा है, इतिहास नहीं लिखा। पुराण का अर्थ है, वह जो सदा लौटता है, उसमें तिथियों के हिसाब की जरूरत नहीं, कथा का सार ही काफी है। इसलिए ईसाइयत कहती है कि जीसस इज़ दि फर्स्ट हिस्टारिक पर्सन। वे ठीक कहते हैं कि जीसस पहले ऐतिहासिक पुरुष हैं। वे कहते हैं, तुम्हारे सब पुरुष--कृष्ण हों, कि ऋषभ हों, कि राम हों, कि परशुराम हों--ये सब नान-हिस्टारिक हैं, ये सब गैर-ऐतिहासिक हैं।

इससे भारतीय मन को बड़ी पीड़ा होती है; लेकिन उसी मन को, जिसे भारत के रहस्यों का कोई पता नहीं है। इससे खुश होना चाहिए, यह पौराणिक है और पुराण इतिहास से ज्यादा गहन बात है।

इतिहास लेखा-जोखा है ऊपरी घटनाओं का; पुराण लेखा-जोखा है अंतरतम का। उसमें तिथियों का कोई मूल्य नहीं। उसमें, अखबार में जो घटनाएं छपती हैं, उनका कोई मूल्य नहीं। उसमें तो जो घटनाएं जीवन के अंतस्तल में, अस्तित्व के प्राणों में घटित होती हैं, केवल उनका लेखा-जोखा है।

इसलिए एक बहुत मजेदार घटना घट सकती है, वह सिर्फ भारत में घट सकती है। वह यह है कि वाल्मीकि ने राम के जन्मने के पहले रामायण लिखी। यह दुनिया में कहीं भी नहीं घट सकती। यह कैसे घट सकती है! क्योंकि इतिहास लिखने वाला तो इतिहास तभी लिखेगा, जब इतिहास घट जाए। कोई अखबार खबर छाप सकता है, जो अभी घटी न हो? अखबार तो खबर छाप सकता है, जो घट गई हो। इसलिए इतिहास केवल सड़ा हुआ कचरा है, जो हो चुका, जो बीत चुका। वह सिर्फ राख है मुर्दों की। इतिहास मरे का लेखा-जोखा है।

सिर्फ एक अनूठी घटना इस मुल्क में घटी है और वह यह कि वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले राम की कथा लिखी है। बड़ी अनूठी है और बड़ी बेबूझ है,  तर्कसंगत नहीं है। कोई भी कहेगा, क्या पागलपन है! पहले कथा कैसे लिखी जा सकती है?

लिखी जा सकती है, अगर पुराण का खयाल हो। वाल्मीकि को अगर यह पता है कि राम जैसा व्यक्ति हर वर्तुलाकार अस्तित्व में पैदा होता है, राम जैसा व्यक्ति ब्रह्मा के हर दिन में एक बार पैदा होता ही है, तो यह कथा लिखी जा सकती है। यह राम जैसा व्यक्ति हजारों दफे पहले भी पैदा हो चुका है।

समझें ऐसा कि हमें पता है कि हर वर्ष, वर्ष के किसी काल में वर्षा आती है। एक बार जब वर्ष का वर्तुल घूमता है, तो वर्षा आती है। तो वर्षा आने के पहले जान लेने में कौन-सी कठिनाई है! जिसे पता हो कि आषाढ़ आएगा और आषाढ़ के पहले दिन आकाश में बादल घिरेंगे, भूखी-प्यासी पृथ्वी मांग करेगी और आकाश से उसकी प्यास को तृप्त करने के लिए पानी गिरेगा। इसमें कौन-सी कठिनाई है, जिसे पता हो पिछले वर्षों का, वर्षा के होने का!

लेकिन एक नया बच्चा पैदा हुआ है, जिसने अभी पहली वर्षा भी नहीं देखी। उसका पिता अगर उससे कहे कि बहुत शीघ्र वर्षा आएगी, आषाढ़ का पहला दिन करीब आता है। आकाश में काले बादल घिरेंगे, सब मौसम गीला, धुंधला हो जाएगा। फिर बूंदें गिरेंगी, जो पृथ्वी के लिए अमृत जैसी तृप्तिदायी होंगी। वृक्ष हरे हो उठेंगे, फूलों से लद जाएंगे। सारा जीवन हरा हो जाएगा।

तो वह बच्चा प्रतीक्षा करे। फिर आषाढ़ का पहला दिन आए और बादल घिरने लगें, तो वह पिता को कहे कि तुम कैसे अदभुत हो! ठीक वैसा ही हुआ जा रहा है।

इस पिता को सिर्फ इतना ही पता है कि वर्ष के वर्तुल में, चक्र में वर्षा एक बार आती है। ठीक प्रत्येक ब्रह्मा के काल में कितने लोग पैदा होते हैं!

जैन अनुभवियों को पता है कि ब्रह्मा के एक दिन में चौबीस तीर्थंकर पैदा होते हैं। एक-एक घंटे पर, इसलिए चौबीस। चौबीस घंटे में एक-एक घंटे पर एक-एक टीचर, एक-एक सदगुरु पैदा होता है। इसलिए चौबीस तीर्थंकर पैदा होते हैं।

ये हर वर्तुल में पैदा होते हैं। इनके नाम अलग होंगे, इनके इतिहास की रेखाएं थोड़ी-बहुत अलग होंगी। क्योंकि हर बार, हर आषाढ़ के पहले दिन पर आकाश में घिरे बादलों की रूप-रेखा एक-सी नहीं होती। कोई और होगा राम, कोई और होगा कृष्ण। लेकिन ऊपर का लेखा-जोखा अलग होगा, इतिहास अलग होगा, भीतर का जो सारभूत तत्व है, वह एक ही होगा। कभी वह दशरथ का पुत्र होगा, और कभी दशरथ का पुत्र नहीं होगा। लेकिन राम जब भी पैदा होगा, तो वह भीतर का जो रामपन है,  वह जो सारभूत है, वह वही होगा।

वाल्मीकि उसी सारभूत राम की कथा लिखते थे। और बड़ी मधुर है यह बात कि राम फिर उस कथा के अनुसार जीवन का आचरण करते हैं। क्योंकि वाल्मीकि को सत्य तो होना ही चाहिए। वाल्मीकि के असत्य होने का कोई उपाय ही नहीं है। जो पुराण को जानते हैं, वे कभी असत्य नहीं होते; और जो इतिहास को जानते हैं, वे कितना ही जान लें, वे सदा ही असत्य होते हैं।


पुराण का अर्थ यह है। अव्यक्त से व्यक्त का जो जन्म है, अगर वह वर्तुलाकार है, तो हम भविष्य के ज्ञाता हो सकते हैं। और अतीत के संबंध में भी हमारी निष्पत्ति सत्य हो सकती है। कम से कम असत्य नहीं, पूर्णतः सत्य हो सकती है।

लेकिन समय की इस वर्तुलाकार दृष्टि का अगर खयाल हो, तो दो बातें स्मरण रख लेनी चाहिए। वह यह कि जो भी शुरू होता है, वह समाप्त होता है। पश्चिम को खयाल ही नहीं है प्रलय का। पश्चिम में खयाल है क्रिएशन का। ईश्वर ने जगत को बनाया। लेकिन पश्चिम यह सोच ही नहीं सकता कि वही ईश्वर इस जगत को मिटाएगा भी। क्योंकि यह मिटाना, बनाने वाले के साथ संगत नहीं मालूम पड़ता। पश्चिम सोच सकता है कि पिता है ईश्वर जगत का, लेकिन यह नहीं सोच सकता कि वही विध्वंसक और हत्यारा भी होगा।

हम सोच सके। सच तो यह है कि हमसे ज्यादा हिम्मतवर सोचने वाले लोग जमीन पर फिर नहीं हुए। यह बड़ी हिम्मत की बात है यह सोचना कि जिसने बनाया है इस जगत को, वही इसे विनाश में ले जाएगा। क्योंकि हमें एक सत्य दिखाई पड़ गया कि जो भी चीज बनती है, वह मिटती है। और जो बनाने वाला है, वही मिटाने वाला भी है। और मिटने और बनने में हमने विरोध नहीं देखा, एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से देखे। सुबह और सांझ में हमने विरोध नहीं देखा। सुबह जिसे उगते देखा, सांझ उसे डूबते देखा। वही सूरज सांझ को डूबता है, जो सुबह उगा था।

कभी आपने खयाल किया कि जिस सूरज के उगने से सुबह जन्मती है, उसी सूरज के डूबने से रात का अंधेरा उतरता है। वह एक ही सूरज दोनों काम करता है दो छोरों पर।

तो ब्रह्मा के मुहूर्त क्षण में तो सृजन होता है और ब्रह्मा के अंतिम मुहूर्त में विनाश होता है, सब पुनः खो जाता है। और फिर सब ताजा और नया होकर फिर जन्मता है। और यह जन्म की प्रक्रिया अंतहीन चलती रहती है।

अभी ज्योतिष की नवीनतम खोजों ने बताया कि जगत स्थिर नहीं है, ठहरा हुआ नहीं है, फैलता हुआ है, विस्तार कर रहा है। यह आपके खयाल में एकदम से नहीं पकड़ेगा। जैसे कि कोई बच्चा अपने रबर के गुब्बारे में, फुग्गे में हवा भर रहा हो; और फुग्गा बड़ा होता जाए, और बड़ा होता जाए, और बड़ा होता जाए, ऐसा ही यह अस्तित्व रोज बड़ा हो रहा है; रोज फैलता जा रहा है। और छोटी-मोटी गति से नहीं, बड़ी तीव्र गति से। एक सेकेंड में लाखों मील का फैलाव हो जाता है। हर तारा दूसरे तारे से दूर भागा जा रहा है। रात को जो आप तारे देखते हैं, जहां आप उन्हें आज देखते हैं, कल आप उन्हें वहीं नहीं देखेंगे। वे दूर हटते जा रहे हैं।


फैलने का आखिरी अंत विस्फोट ही हो सकता है। अगर बच्चा गुब्बारे को फुलाए ही चला जाए, तो एक सीमा आ जाएगी, जिसके आगे रबर नहीं फूल सकेगी और गुब्बारा फूटेगा। उसी को हमने प्रलय कहा है। और हमने ब्रह्मांड कहा है अस्तित्व को। ब्रह्मांड शब्द का ही यही अर्थ होता है। ब्रह्म का अर्थ होता है, विस्तार। विस्तार और ब्रह्म एक ही चीज से बने हैं। हम कहते हैं, वृहत, विस्तीर्ण, वे सब ब्रह्म से ही बने हैं। ब्रह्म का अर्थ होता है, जो फैलता ही चला जाता है, जो रुकता ही नहीं, फैलता ही चला जाता है। ब्रह्मांड का अर्थ है, जो सदा फैलता चला जाता है।

लेकिन जो भी चीज सदा फैलती रहेगी, एक दिन विस्फोट को उपलब्ध होगी। और वह घड़ी आ जाएगी, जहां सब टूटकर बिखर जाएगा। वही प्रलय का दिन है।

बच्चा कब तक बढ़ता रहेगा? कभी आपने खयाल किया कि बच्चा बढ़कर आखिर में करता क्या है? बच्चा बढ़-बढ़कर बस बूढ़ा ही होता है। और क्या करेगा? बच्चा बढ़-बढ़कर बस बूढ़ा ही होता है। और जब मां अपने बच्चे को बड़ा कर रही है, तो उसे कल्पना भी नहीं होती कि वह उसको बूढ़ा कर रही है। बूढ़ा ही कर रही है, कुछ और उपाय नहीं है। हर मां अपने बच्चे को बूढ़ा कर रही है। जो सहायता पहुंचा रही है, वह सब उसको बुढ़ापे की तरफ ले जा रही है। और हर मां अपने बच्चे को बचाकर पहुंचाएगी कहां? मौत के सिवाय कोई जगह तो है नहीं, जहां पहुंच जाए। बचाओ, सम्हालो और मौत की तरफ ले जाओ।

लेकिन मृत्यु से हम बचकर चलते हैं। हम सोचते ही नहीं उसको, हम सोचते नहीं कि जन्म मृत्यु की शुरुआत है। हम सोचते ही नहीं कि प्रारंभ अंत है। हम सोचते ही नहीं कि फैलना फूटने की तैयारी है।

लेकिन ये दो विरोधी बातें हमें एक साथ दिखाई नहीं पड़तीं, कृष्ण को दिखाई पड़ती हैं। वे कहते हैं, वह अव्यक्त से जो पैदा होता है और फैलता है, वह ब्रह्मा का दिन। फिर अव्यक्त में सिकुड़ने लगता है, वह रात। और फिर अव्यक्त में लीन हो जाता, वह प्रलय है। और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में अव्यक्त में ही सब कुछ लय हो जाता।

और हे अर्जुन, वह ही यह भूत समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के वश में हुआ, रात्रि के प्रवेशकाल में लय होता और दिन के प्रवेशकाल में फिर उत्पन्न होता है।

जैसे एक व्यक्ति के लिए मैंने कहा कि वह अपनी ही वासना के कारण, अपनी वासना के वश में हुआ, या वासना के कारण अवश हुआ, अपने वश के बाहर हुआ, फिर मरते क्षण में कामना करता है, फिर-फिर जन्म पाऊं। फिर जन्म जाता है। फिर दौड़ता है, सुबह और रात, और फिर मरता है।

ठीक ऐसे ही यह पूरा ब्रह्मांड भी कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, यह पूरा ब्रह्मांड भी, यह समस्त भूत समुदाय, यह जो कुछ भी दिखाई पड़ता है सब, इसको अगर हम इकट्ठा लें, तो यह भी वासना के वश में हुआ, कामना से प्रेरित हुआ, अपने वश के बाहर हुआ, आकांक्षा में ग्रस्त हुआ, फिर-फिर पैदा होता है, फिर-फिर लय को उपलब्ध होता है। फिर होती है सृष्टि, फिर होता है प्रलय। और यह खेल इस भांति चलता रहता है।

परंतु अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त है, वह पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है।

कृष्ण उत्तर दे रहे हैं अर्जुन के प्रश्नों का। उस उत्तर में वे कह रहे हैं कि यह तो नष्ट होता ही रहता है। यह बहुत विचार की बात है। वे अर्जुन से कह रहे हैं कि तू इसकी फिक्र करता है कि सामने जो आदमी खड़े हैं, मर जाएंगे? ये बहुत बार मर चुके, ये फिर जन्म लेंगे, ये फिर मरते रहेंगे। यह मरना और जन्म लेना प्रकृति का हिस्सा है। और इन आदमियों की तो बात ही छोड़, यह पूरी प्रकृति भी न मालूम कितनी दफे बन चुकी है और न मालूम कितनी दफे मिट चुकी है। अनंत है यह प्रक्रिया। यह सब होता ही रहा है। बनता ही रहता है, मिटता ही रहता है। वासना बनाती है, फिर वासना ही मिटा देती है। तू इसकी चिंता में मत पड़। और तू इसकी चिंता को धर्म मत समझ। तू यह मत सोच कि मैं इनको मारने से बच जाऊंगा, तो ये मरेंगे नहीं।

कृष्ण कहते हैं, तू सिर्फ निमित्त है, मृत्यु तो होकर ही रहेगी। तू अपने को कर्ता मत मान। तू मारने वाला है, ऐसा भी मत मान। और तू भाग जाएगा, तो तू बचाने वाला है, ऐसा भी मत मान। तू कर्ता नहीं है। इनकी मृत्यु इनकी जन्म की घड़ी में ही लिखी है। ये जिस दिन जन्मे, उसी दिन मृत्यु को साथ लेकर जन्मे हैं। मृत्यु इनके भीतर ही बड़ी हो रही है। तू शायद निमित्त बनेगा इनकी मृत्यु के प्रकट होने का। तू नहीं बनेगा, तो कोई और बनेगा। कोई भी नहीं बनेगा, तो भी मृत्यु घटित होगी। मृत्यु से बचने का उपाय नहीं, क्योंकि ये जन्म गए। जो जन्म गया, वह मरेगा ही। और इनकी तो बात ही छोड़ तू, यह जो पूरा ब्रह्मांड तुझे दिखाई पड़ता है, यह भी बनता और बिखरता रहता है। आदमी ही पैदा नहीं होता, तारे भी पैदा होते रहते और बिखरते रहते हैं। तारे ही पैदा नहीं होते और बिखरते रहते, यह पूरा अस्तित्व भी फैलता और सिकुड़ता है, बनता और मिटता है, व्यक्त होता और अव्यक्त होता रहता है। तू इस चिंता में मत पड़।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, मैं तुझे उसकी भी खबर देता हूं, उस अव्यक्त से भी परे...जिस अव्यक्त से यह ब्रह्मांड पैदा होता है, अदृश्य से, अगोचर से यह ब्रह्मांड पैदा होता है, वह भी अव्यक्त पूरा अव्यक्त नहीं है।

यह बहुत सूक्ष्म दर्शन की बात है, बारीक है, नाजुक भी।

कृष्ण कहते हैं, जिसे मैंने अभी अव्यक्त कहा एक क्षण पहले, अनमैनिफेस्टेड, वह भी पूर्ण अव्यक्त नहीं है, क्योंकि मैनिफेस्ट तो हो ही जाता है, प्रकट तो हो ही जाता है।

बीज है, बीज में वृक्ष अव्यक्त है, माना। लेकिन बीज को जमीन में गाड़ो, तो वृक्ष निकल आता है। तो बीज अव्यक्त था जरूर, लेकिन व्यक्त होने को आतुर था। बीज के भीतर भी आतुरता थी प्रकट होने की। छिपी थी, दिखाई नहीं पड़ती थी, लेकिन थी, बिल्ट-इन थी कहीं। एक-एक पत्ता वृक्ष का छिपा था भीतर बीज के और आतुर था कि प्रकट हो जाऊं। पानी गिरे, कोई खाद डाल दे, कोई मिट्टी में दबा दे, टूट जाऊं, खिलूं, बड़ा हो जाऊं। और फिर एक बीज करोड़ बीज बन जाए। वे करोड़ बीज भी कहीं भीतर छिपे हैं।

तो बीज अव्यक्त है, अनमैनिफेस्ट है, लेकिन फिर व्यक्त तो हो ही जाता है। इसलिए इसे पूर्ण अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। जो व्यक्त हो ही जाता है, वह कोई ज्यादा अव्यक्त नहीं है।

तो अभी जिस अव्यक्त की बात कही, कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, वह अव्यक्त माना है। लेकिन नाम मात्र को, क्योंकि व्यक्त हो जाता है। माना कि अदृश्य है, लेकिन दृश्य हो जाता है।

तो जिस अदृश्य में दृश्य छिपा हो, वह बहुत अदृश्य हो नहीं सकता। हमें दिखाई न पड़ता हो, यह और बात है। हमारी आंखें कमजोर होंगी, हमारी आंखें न पकड़ पाती होंगी, लेकिन वह बिलकुल अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। इन दोनों के पार, इस अव्यक्त के भी पार, बियांड दिस अनमैनिफेस्ट, वह ब्रह्म है। वह अव्यक्त से भी अति परे। बियांड दि बियांड, अव्यक्त से भी अति परे। उसके भी पार, पार के भी पार, अतिक्रमण का भी अतिक्रमण करता हुआ वह ब्रह्म है, जो सनातन अव्यक्त है। जो सनातन अव्यक्त है, इटरनली अनमैनिफेस्ट। यह तो टेंपररी अनमैनिफेस्ट है, अस्थायी रूप से अव्यक्त है, फिर व्यक्त हो जाता है, फिर अव्यक्त हो जाता है।

लेकिन एक ऐसा अव्यक्त भाव भी है, एक ऐसा अव्यक्त अस्तित्व भी है, एक ऐसा अव्यक्त होना भी है, जो कभी व्यक्त न हुआ है, न होगा, न हो सकता है। वह अव्यक्त के भी परे है। वही ईश्वर, वही ब्रह्म, वही परमात्मा, वही मोक्ष--या जो भी नाम हम देना चाहें, दें--वही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। क्यों? क्योंकि उसका कभी कोई सृजन नहीं हुआ, वह नष्ट नहीं हो सकता। उसकी कभी सुबह नहीं हुई, उसकी सांझ नहीं हो सकती। उसकी कभी सृष्टि नहीं हुई, तो उसकी कभी प्रलय नहीं हो सकती है।

अगर तू जानना ही चाहता है अमृत को और अगर तू जानना ही चाहता है कि कैसे मैं लोगों की मृत्यु से बचूं और कैसे मैं मृत्यु से बचूं, विनाश से बचूं, तो अर्जुन से कृष्ण ने कहा, तू उसे जान ले, जो अव्यक्त के भी पार है।

हमारे भीतर भी तीन पर्तें हैं। एक व्यक्त, जो हमारा शरीर है। एक अव्यक्त, जो हमारा मन है। और एक अव्यक्त के भी पार अव्यक्त, जो हमारी आत्मा है। मन में कुछ भी हो, तो आज नहीं कल व्यक्त हो जाता है। शरीर तो व्यक्त है ही। उसमें कुछ अव्यक्त नहीं है, वह व्यक्त है ही। लेकिन मन में जो कुछ हो, वह आज नहीं कल व्यक्त हो जाता है, बीज की तरह। और मन के ही अव्यक्त से शरीर का व्यक्त पैदा होता है। इसलिए जब हम मरते हैं, तो शरीर तो छूट जाता है, लेकिन मन नहीं छूटता। मन को हम साथ ले जाते हैं, वह बीज है, कैप्सूल है, बंद है, हमारे साथ चला जाता है। फिर नए शरीर को बना लेता है।

यह आप जानकर हैरान होंगे कि आप अगर मरते हुए आदमी के मन को पहचानने की क्षमता रखते हों, तो मरते क्षण में उसके मन के अध्ययन से यह तय किया जा सकता है कि वह किस भांति अगला जन्म लेगा, कैसा उसका व्यक्तित्व होगा, क्या उसके व्यक्तित्व का ढंग होगा। यह भी जाना जा सकता है कि वह सुंदर होगा, कुरूप होगा, बहुत अति वासना से ग्रस्त होगा, कि कम वासना से ग्रस्त होगा--यह सब जाना जा सकता है। मरते क्षण में मन सिकुड़कर बीज बन जाता है। उस बीज में बिल्ट-इन, भीतर छिप जाती है पूरी प्रक्रिया नए शरीर को ग्रहण करने की।

इसलिए इस जगत में कुरूप अकारण ही कुरूप पैदा नहीं होते, और न सुंदर अकारण सुंदर पैदा होते हैं। इस जगत में हम जो कुछ भी लेकर पैदा होते हैं, वह हमारे मन के साथ लाया हुआ बीज है। उस बीज के अनुसार ही हम निर्मित होते हैं। उस बीज के अनुसार ही ब्लूप्रिंट, नक्शा हमारे मन में छिपा है। वह हमारे शरीर को निर्मित करता है, बनाता है।

यह जो शरीर आज बनकर खड़ा होता है, योग की गहनता को जानने वाले निरंतर जानते रहे हैं कि मरते क्षण में आदमी के बीज को देखा जा सकता है, कि अब यह कहां यात्रा करेगा, कैसे यात्रा करेगा, क्या इसका फल होगा।

अभी वैज्ञानिक भी कहते हैं--उन्हें मरने का तो पता नहीं पीछे का--वे कहते हैं, जब मां के पेट में पहला अणु जन्मता है, तब उसका अध्ययन करके हम बता सकते हैं बहुत-सी बातें, कि इस आदमी की आंखों का रंग क्या होगा, इसकी ऊंचाई क्या होगी, इसके बाल कैसे होंगे, यह कितनी उम्र का हो सकेगा, इसकी बुद्धि कैसी होगी, इसका स्वास्थ्य कैसा होगा। बहुत कुछ हम मां के पेट में, जन्म का जो पहला क्षण है, मुहूर्त का, जब पहला अंडा निर्मित होता है, तब उस अंडे के अध्ययन से बहुत कुछ कह सकते हैं कि क्या-क्या होगा।

यह दूसरे छोर से बात को पकड़ा जाना है। लेकिन आज जो मां के पेट में पहला अणु बना है, वह सिर्फ मां और पिता के देह-कणों से मिलकर नहीं बन गया है, उसमें एक नया तत्व भी प्रविष्ट हुआ है, वह अव्यक्त मन है। मां का अणु भी व्यक्त है, पिता का अणु भी व्यक्त है। वे तो व्यक्त हैं, उनसे तो देह बनेगी; लेकिन उन दोनों के बीच एक तीसरा तत्व भी प्रवेश कर गया है।

इसीलिए एक ही मां-बाप बच्चों को जन्म देते हैं और सभी बच्चे भिन्न होते हैं। उसका और कोई कारण नहीं है। क्योंकि उनका व्यक्त तो सबका एक है, लेकिन अव्यक्त जो मन प्रवेश करता है, वह सबका अलग-अलग है। वे सब अपनी-अपनी यात्राएं लेकर साथ आ रहे हैं। वे सब भिन्न हो जाते हैं।

इस जगत की भिन्नता हमारे अव्यक्त मन की भिन्नता है। फिर वह रोज-रोज प्रकट होनी शुरू होगी। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, मन शरीर में फैलने लगता है और प्रकट होने लगता है। फिर जो फूल लगते हैं या कांटे लगते हैं, जो कुछ भी लगता है, वह मन से आता है और फैलता चला जाता है। लेकिन इन दोनों के पार--व्यक्त शरीर और अव्यक्त मन के पार--अव्यक्त से भी परे, अति परे आत्मा है।

यह व्यक्ति के अणु को हम समझ लें, तो ठीक ऐसा ही विराट अस्तित्व का अणु, महाअणु भी है। व्यक्ति को परमाणु कहें, अस्तित्व को महाअणु कहें। यह क्षुद्रतम है, वह विराटतम है, लेकिन इन दोनों की व्यवस्था बिलकुल एक जैसी है। इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं, जो पिंड (शरीर) में है वही ब्रह्मांड में है, फैला हुआ है सिर्फ विराट बड़ा रूप होकर।

कृष्ण ने कहा कि अगर तुझे सच में ही विनाश की संभावनाओं के पार हो जाना है, तो तू उस ब्रह्म की खोज कर, जो न कभी पैदा होता है और न कभी मरता है; जो न कभी प्रकट होता है और न कभी अप्रकट होता है; जो न बनता है, न बिगड़ता है; जो न संगृहीत होता है, न बिखरता है; जो बस है, जस्ट इज़। जो सिर्फ है; जिसकी सुबह नहीं, सांझ नहीं; आना नहीं, जाना नहीं; जो बस है, उसकी तू खोज कर।

उसकी खोज कहां से हो सकती है? एक खोज तो यह है कि हम गीता पढ़ लें और हमें पता चल जाए। काश, इतना सरल होता, तो गीता इतने लोग पढ़ चुके हैं कि इस जगत में ज्ञानी ज्यादा होते और अज्ञानी कम। अगर यह इतना सरल होता मामला कि हम पढ़ लें सिद्धांत को, समझ लें बिलकुल--और  बौद्धिक समझ बिलकुल पूरी हो जाए, तो भी कुछ नहीं होता। कभी-कभी समझ, कोरी समझ, बड़ी नासमझी की होती है। सब समझ लेते हैं शब्दों को, सिद्धांतों को, फिर भी हाथ के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता है। वह तो तभी पड़ेगा, जब इस समझ का अनुभव हो।

और इस विराट में उतरना तो बहुत कठिन है। इस विराट में उतरने वाले लोग हैं। और जब कोई इस विराट में उतर जाता है, तब उसकी हैसियत कृष्ण, बुद्ध और महावीर जैसी हो जाती है। लेकिन विराट में उतरना तो अति कठिन है, पहले तो अपने परमाणु में ही उतर जाएं, वही काफी है। अपने ही भीतर जरा उसे खोज लें, जो अव्यक्त से भी अव्यक्त है। लेकिन वह तो बहुत दूर, हमें अपने शरीर का ही पूरा पता नहीं है, जो व्यक्त है। वह तो बहुत दूर, जो व्यक्त है, मैनिफेस्ट है, हमें उस शरीर का भी पूरा पता नहीं है।

आपको अपने शरीर का भी पूरा पता नहीं है, अगर मैं ऐसा कहूं, तो आप कहेंगे, कैसी अजीब बात कर रहे हैं! नहीं, आपको बिलकुल पता नहीं है। इस शरीर में भी इतने राज छिपे हैं, उनका हमें कोई पता नहीं। इन्हीं राजों की खोज योग और तंत्र और समस्त धर्म करते रहे हैं--इन्हीं राजों की खोज। इस शरीर में कुंडलिनी जैसी शक्ति छिपी है, लेकिन उसका हमें कभी कोई पता नहीं। उसकी झलक भी नहीं मिली। वह इसी शरीर में छिपी है। व्यक्त का हिस्सा है, अव्यक्त का नहीं; बिलकुल व्यक्त है। लेकिन हम कभी उस पर पहुंचे ही नहीं।

जैसे हमारे ही घर में खजाना गड़ा हो और हमें कुछ पता न हो और हम दूसरों के घरों के सामने भीख मांग रहे हों। और हमारे घर में खजाना गड़ा हो और हम भीख मांगते-मांगते मर जाएं। लेकिन गड़े होने से खजाना खजाना नहीं होता। जब तक वह प्रकट न हो जाए, तब तक खजाने का कोई प्रयोजन नहीं है।

हमारे शरीर में अदभुत शक्तियां छिपी हैं। उन शक्क्तियों का हमें पता नहीं है। जिस व्यक्ति को इस विराट यात्रा पर निकलना है, पहले उसे अपने शरीर के भीतर छिपी हुई शक्तियों से परिचित होना पड़ता है। क्योंकि उन छिपी हुई शक्तियों के सहारे वह अपनी मन की छिपी हुई शक्तियों को खोजने में समर्थ हो जाता है। और मन में तो बहुत कुछ छिपा है, जिसका हमें बिलकुल भी पता नहीं। मन की हम सतह पर ही जीते हैं। उसकी अनंत गहराइयां हैं, उनका हमें कोई भी पता नहीं है।

आपका मन आपके समस्त जन्मों की स्मृति अपने साथ लिए हुए अभी मौजूद है, यहीं। आपने जो कुछ भी किया है अनंत-अनंत काल में, उस सबकी स्मृति  आपके भीतर मन के कोने में सब दबी पड़ी है। उसे आज भी खोला जा सकता है। और आपको जानना जरूरी नहीं है, कि आप किसी और से पूछने जाएं कि पुनर्जन्म होता है या नहीं, आपके भीतर ही आप उतर सकते हैं उन सीढ़ियों को, जहां से आपको पिछले जन्मों की याददाश्त आनी शुरू हो जाए; जहां से आप लौट पड़ें यात्रा पर और टाइम ट्रैक में वापस, समय की धारा में उलटे लौट जाएं और पीछे के सारे दृश्य फिर से देखें। वे सब के सब मौजूद हैं। वे सब के सब मौजूद हैं। कोई भी स्मृति कभी खोती नहीं है मन में, लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं है।


पतंजलि ने जिसे सिद्धियां कहा है, वे सब मन की छिपी हुई शक्तियां हैं। वे आठ शक्तियां मन की शक्तियां हैं। और मन  अव्यक्त है, बीज की भांति। वे सब प्रकट हो सकती हैं। हम तो उनके धुएं में एकदम अंधे हो जाते हैं। कभी किसी आदमी में छोटी-मोटी कोई शक्ति प्रकट हो जाती है, तो हम बिलकुल अंधे और पागल हो जाते हैं। कुछ मूल्य नहीं है उनका, क्योंकि मन से जो शक्तियां प्रकट होती हैं, वह संसार का हिस्सा है।

इसलिए पतंजलि ने अपने सिद्धियों के विवरण में स्पष्ट कहा कि इनका मैं वर्णन सिर्फ इसलिए करता हूं योग-सूत्र में, ताकि तुम्हें पता हो कि तुम्हारे भीतर क्या छिपा है। लेकिन न तो ये पाने योग्य हैं, न ये चाहने योग्य हैं; और जो इन्हें पाने और चाहने में लग जाता है, उसकी परम यात्रा में बाधा पड़ती है।

परम यात्रा तो अव्यक्त से भी अव्यक्त में जाना है, मन के भी पार। लेकिन मन की ये छिपी हुई शक्तियां अगर जगा ली जाएं और आदमी समझदार हो और इन शक्तियों के मोह में ग्रस्त न हो जाए--जो कि अति कठिन है--तो इन शक्तियों के द्वारा वह उस अव्यक्त की, अव्यक्त से भी जो अव्यक्त है, उसकी खोज पर निकल सकता है।

शक्तियों के दो उपयोग हो सकते हैं। या तो हम उस शक्ति से अपने क्षुद्र तल पर खड़े होकर कोई काम ले लें; और या उस शक्ति से कोई काम न लें, केवल जिस तल पर वह शक्ति है, उसके पार जाने के लिए धक्का ले लें।

मुझे दस रुपए मिल जाएं, तो इन दस रुपयों से मैं अपनी किसी वासना को भी तृप्त कर सकता हूं। और ये रुपए खो जाते हैं। और मेरी वासना दो दिन बाद फिर वापस अपनी जगह लौट आएगी। इसलिए रुपए मिले या न मिले, बराबर हो गए। मैं इन दस रुपयों से दस घंटे के लिए बाहर के जगत की चिंता से भी मुक्त हो सकता हूं कि अब मुझे दस घंटों के लिए भूख-प्यास की फिक्र न करनी पड़ेगी। अब ये दस रुपए मेरे पास हैं, अब मुझे शरीर की दस घंटे तक चिंता नहीं करनी है; मैं दस घंटे तक शरीर को अब भूल सकता हूं। और इन दस रुपयों का सहारा लेकर कोई आदमी दस घंटे के ध्यान में चला जाए, तो ध्यान से जो मिलेगा, वह दस रुपयों से अनंतगुना ज्यादा है, उसका कोई हिसाब नहीं। और जो मिलेगा, वह कभी खोता नहीं।

अब दस रुपए का हम दोनों उपयोग कर सकते हैं। क्षुद्र वासना में करेंगे, तो वासना पुनरुक्ति वाली है, वह कल फिर खड़ी हो जाएगी, दस रुपयों को खाकर फिर खड़ी हो जाएगी।

शक्ति मिलती है, हम उसे और निर्बल होने के काम में लाते हैं। बड़े मजे की बात है! शक्ति मिलती है, तो हम दुर्बल होने के काम में लाते हैं उसे। और जो समझदार हैं, वे दुर्बल भी होते हैं, तो दुर्बलता को भी शक्ति की खोज बना लेते हैं।

मन में अव्यक्त शक्तियां छिपी हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति ध्यान में उतरना शुरू होता है, मन की अव्यक्त शक्तियां प्रकट होने लगती हैं। और तभी खतरे शुरू हो जाते हैं।





हम सब के साथ ऐसा होता है। जरा-सा कुछ मिल जाए कि हम पागल हो जाते हैं। मन के अव्यक्त स्रोत से शक्ति जगती है, उस वक्त बहुत सावधान होने की जरूरत है। क्योंकि उस शक्ति का उपयोग हो सकता है या तो शरीर की वासनाओं के लिए, तब आप वापस गिर पड़ेंगे; या उसका उपयोग हो सकता है उस परम अव्यक्त की यात्रा के लिए ईंधन की तरह, पेट्रोल की तरह। उस शक्ति पर आप सवार हो जाएं, परम अव्यक्त की यात्रा पर निकल जाएं।

वह अव्यक्त, परम अव्यक्त आपके भीतर इस क्षण भी उतना ही मौजूद है, जितना कभी था और कभी होगा।

और जब तक आप अपने शरीर में होते हैं, तब तक दूसरा आदमी आपसे अलग है, सब शरीर आपसे अलग हैं। शरीर के तल पर सब अलग हैं। जब आप मन के करीब आते हैं, तो कभी-कभी मन के साथ दूसरे से तालमेल भी बैठ जाता है और एकता भी अनुभव होती है। कभी कोई किसी के प्रेम में गिर जाता है। प्रेम में गिरने का केवल एक अर्थ है कि दोनों के मन ने कहीं एकता का सूत्र खोज लिया।

शरीर के तल पर कोई एकता कभी नहीं हो पाती। मन के तल पर कभी-कभी एकता सध जाती है। लेकिन जो मन के भी पार उतर जाते हैं, वहां अनेकता नहीं रह जाती; वहां एकता सधी ही हुई है।

इसे हम ऐसा समझें कि मैं एक सर्किल खींचूं, एक वर्तुल खींचूं, उसके बीच में सेंटर पर एक निशान बना दूं। फिर वर्तुल की परिधि से एक रेखा खींचूं केंद्र की तरफ, फिर दूसरी रेखा खींचूं, फिर तीसरी रेखा खींचूं। ये तीनों रेखाएं परिधि पर फासले पर होंगी और जैसे-जैसे केंद्र की तरफ चलेंगी, पास होने लगेंगी। और जब केंद्र पर पहुंचेंगी, तो एक हो जाएंगी। जो परिधि पर बिलकुल भिन्न-भिन्न था, वही केंद्र पर एक हो जाता है।

जो लोग शरीर से बंधे हैं, वे इस जगत को अणुओं की तरह देखेंगे अलग-अलग, आईलैंड की तरह। जो लोग थोड़ा मन में समर्थ हो जाते हैं--कवि हैं, चित्रकार हैं, संगीतज्ञ हैं--वे इस जगत में एकता का स्वर खोजने लगते हैं। लेकिन जो बिंदु पर, केंद्र पर आ जाते हैं, परम केंद्र पर आ जाते हैं, उनके लिए अनेकता ऐसे ही तिरोहित हो जाती है, जैसे प्रकाश जल जाए और अंधेरा खो जाए; सुबह का सूरज निकल आए और रात कहीं खोजे से न मिले।

उस परम अव्यक्त में सब एक है, अद्वैत है। अर्ध अव्यक्त में कभी-कभी एकता की झलक मिल जाती है। पूर्ण व्यक्त में एकता का कोई उपाय नहीं, सभी कुछ अनेक है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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