मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 18


 अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 24।।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। 25।।


बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अर्थात जिससे उत्तम और कुछ भी नहीं है, ऐसे अविनाशी परम भाव को अर्थात अजन्मा अविनाशी हुआ भी अपनी माया से प्रकट होता हूं, ऐसे प्रभाव को तत्व से न जानते हुए मन-इंद्रियों से परे मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा को मनुष्य की भांति जन्म कर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।

तथा अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूं। इसलिए ये अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्मा को तत्व से नहीं जानते हैं।





दो बातें इस सूत्र में कृष्ण कह रहे हैं। एक, साकार शरीर में मैं खड़ा हूं, आकार लिया है। जो नहीं जानते हैं, वे सोचते हैं, मेरा आकार ही मैं हूं। वे मेरे भीतर छिपे निराकार को नहीं देख पाते हैं। रूप लिया है मैंने। जिनके पास देखने की आंखें नहीं हैं, सोचने के लिए मेधा नहीं है, वे मेरे रूप को ही देख पाते हैं। उस अरूप को, जो भीतर छिपा है, उससे अपरिचित रह जाते हैं। मेरा वह सच्चिदानंद रूप है जो, मेरा वह जो सच्चिदानंद स्वभाव है, वह उनकी आंखों से ओझल रह जाता है।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

पहली बात, परमात्मा जब भी प्रकट होगा, तब रूप में प्रकट होगा, आकार में प्रकट होगा। प्रकट होने का अर्थ है, रूपायित होना, टु बी इन दि फार्म। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, रूप लेना। प्रकट होने का अर्थ ही होता है, आकार लेना। प्रकट होने का अर्थ होता है, सीमा में खड़े होना। प्रकट होने का अर्थ है, पृथ्वी पर, शरीर में, देह में अभिव्यक्त होना। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई होती है।

यह बल्ब है बिजली का, जलता है। बिजली प्रकट नहीं हो सकती है बिना इस बल्ब के। बल्ब का तो रूप होगा, आकार होगा; बिजली का कोई रूप और आकार नहीं है। वह आदमी नासमझ है, जो बल्ब को बिजली समझ ले। लेकिन वह नासमझ भी तर्क दे सकता है। वह डंडा उठाकर टयूब के ऊपर पटक दे, तो टयूब फूट जाए और बिजली बंद हो जाए। तो वह कहे कि देखो, मैंने कहा था न कि यह बल्ब ही बिजली है। मारा डंडा, टूट गया बल्ब; नहीं बची बिजली।

फिर भी हम जानते हैं कि बल्ब बिजली नहीं है। बल्ब पूरी तरह बना रहे और बिजली जा सकती है; और बल्ब पूरी तरह मिट जाए, तो भी बिजली रहती है। बल्ब केवल अभिव्यक्त होने की व्यवस्था है, मैनिफेस्टेशन है। जब भी किसी शक्ति को प्रकट होना हो, तो रूप और आकार के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, वे मेरी देह को ही समझ लेते हैं कि यह मैं हूं।

इन नासमझों में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे नासमझ, जो कृष्ण को प्रेम करने लगेंगे, लेकिन वे कृष्ण की देह को ही प्रेम करते चले जाएंगे। वे कृष्ण को, वह जो अरूपी भीतर छिपा है, उसको नहीं देख पाएंगे। और एक वे नासमझ, जो दुश्मन हो जाएंगे। वे कहते रहेंगे कि यह आदमी तो शरीरधारी है, यह भगवान कैसे हो सकता है? यह आदमी उठता है, बैठता है, सोता है, भूख लगती है, खाना खाता है। यह भगवान कैसे हो सकता है?

उन दोनों की बुद्धि में बहुत भेद नहीं है। जो कृष्ण को प्रेम करेंगे, वे इस शरीर को ही भगवान मान लेंगे। फिर वे कृष्ण की मूर्ति बना लेंगे, फिर वे उस कृष्ण की मूर्ति को सुबह दातुन कराएंगे, पानी पिलाएंगे, स्नान करवाएंगे, फिर वे उस कृष्ण की मूर्ति को शयन करवाएंगे; दोपहर को द्वार बंद करके बिस्तर पर लिटाएंगे; फिर उस मूर्ति को कपड़े पहनाएंगे।

फिर यह सब चलेगा। इस बात को भूल जाएंगे कि जिस कृष्ण का हमने आविर्भाव देखा था, वह यह मूर्ति नहीं है। वह आविर्भाव तो अमूर्त का था; इस मूर्ति से हुआ था, इस रूप में हुआ था। इस मूर्ति का उपयोग किया जा सकता है। इस मूर्ति के प्रति श्रद्धा भी प्रकट की जा सकती है। लेकिन इसी मूर्ति के आस-पास जो घूमने लगे, और अमूर्त को भूल जाए, वह नासमझ है।

एक तो नासमझी यह है, जो प्रेमी कर लेता है। दूसरी नासमझी यह है कि लोग पूछेंगे कि भगवान कैसे हैं! धूप पड़ती है, तो पसीना आता है; दौड़ें, तो सांस चढ़ जाती है; थक जाते हैं, तो इन्हें भी नींद आती है। हम आदमियों जैसे ही हैं। इसलिए हम कैसे स्वीकार करें कि ये भगवान हैं? वह एक दूसरा वर्ग है जो कहेगा, हम स्वीकार नहीं कर सकते। उसकी भी नासमझी वही है, जो उस भक्त की है, जो आकार में देख रहा है। वह भी आकार में देख रहा है।

कृष्ण कहते हैं, निराकार को जो देख पाए, वही बुद्धिमान है। असल में बुद्धि की परीक्षा ही यही है कि वह निराकार को देख पाए। आकार को तो निर्बुद्धि भी देख पाता है। आकार को देखने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। आकार तो सभी को दिखाई पड़ता है। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह जो पीछे छिपा खड़ा है, उसे जो देख पाए, उसे जो पहचान पाए, वही बुद्धिमान है। लेकिन कृष्ण में ही कोई निराकार को देख लेगा, यह संभव नहीं है, जब तक वह सब जगह निराकार को देखना शुरू न कर दे।

जब आप एक वृक्ष को देखते हैं, तो आपको आकार ही दिखाई पड़ता है। आपको वह जीवन ऊर्जा, जो वृक्ष के भीतर बहती है और आकार लेती है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ती। जब एक फूल खिलता है, तो आकार ही दिखाई पड़ता है। उस फूल के भीतर जो ऊर्जा खिलती है और पंखुड़ियों में फैलती है, और जिस शक्ति के कारण पंखुड़ियां बंद थीं और खुल जाती हैं, उस शक्ति को आप नहीं देख पाते। जब एक बीज टूटता है, तो आप बीज को देखते हैं; लेकिन जो उसके भीतर भरा था और टूटना चाहता था, और तोड़ दिया बीज को और बाहर आया, वह आपको नहीं दिखाई पड़ता।

हम देखते ही आकार को हैं सब तरफ। जब हम सब तरफ आकार को देखते हैं, तो यह संभव नहीं है कि विशेष रूप से कृष्ण या क्राइस्ट या मोहम्मद के संबंध में हम आकार को न देखें और निराकार को देख लें। आकार को देखने की हमारी जड़बद्ध आदत है। हम जो चौबीस घंटे देखते हैं, वही हम कृष्ण में भी देख पाएंगे। हम दूसरी बात न देख पाएंगे।

दिखाई पड़ जाए, तो बात खुल गई। वह हमारा पुराना तर्क टूट गया। वह हमारे पुराने देखने का ढांचा, व्यवस्था मिट गई। अब हमने नए ढंग से चीजों को देखा। अब हमें आकार दिखाई पड़ेगा, लेकिन आकार के पीछे निराकार सदा ही छिपा हुआ मालूम पड़ेगा। उसका एहसास होगा, उसकी एक छाया हर आकार का पीछा करेगी।

किसी व्यक्ति को हम गले मिलाएं, हड्डियां ही गले मिलेंगी, लेकिन फिर हम भीतर से जानेंगे कि कुछ और निराकार भी मिल रहा है। तब वह आत्मा का मिलन बन जाएगा।

कृष्ण कहते हैं, बुद्धिहीन जो हैं, वे मेरे शरीर को ही देख पाते, रूप को ही देख पाते, आकार को ही देख पाते। वे मेरी निराकार विभूति का अनुभव नहीं कर पाते। और उस निराकार में ही मैं छिपा हूं; वही मैं हूं।

अब यह कठिनाई है। अभिव्यक्त होने की कठिनाइयां हैं। सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अभिव्यक्त होते ही आकार लेना पड़ेगा। आकार के बिना कोई अभिव्यक्ति संभव नहीं है।

अगर मुझे बोलना है, तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन शब्द का उपयोग करते ही डर यह है कि अर्थ आपके पास पहुंचे ही नहीं, सिर्फ शब्द पहुंच जाए। जैसा कि रोज होता है; शब्द ही पहुंच जाते हैं, अर्थ नहीं पहुंचता। अर्थ तो पीछे पड़ा रह जाता है। अर्थ निराकार है; शब्द साकार है।

जब मैं एक शब्द बोलता हूं, आपके पास शब्द जाकर आपकी मेमोरी में, आपकी स्मृति के बैंक में जमा हो जाता है। आप समझे कि समझ गए; शब्द पास आ गया; अब आप उसका उपयोग कर सकते हैं। कोई चाहे तो आप बता सकते हैं कि मैं क्या-क्या बोला।

आप बता भी दें कि मैं क्या-क्या बोला, तब भी जरूरी नहीं है कि आप वह समझ गए हों, जो मैंने बोला है। क्योंकि वह अर्थ है, वह पीछे छिपा पड़ा है। उस अर्थ को जानने के लिए निराकार की पकड़ चाहिए।

अब बोलना है, तो शब्द का उपयोग करना पड़ेगा; और जो बोलना है, वह निःशब्द है। कठिनाई है, अड़चन है, मुसीबत है। लेकिन ऐसा तथ्य है; जीवन का ऐसा तथ्य है। यहां सभी चीजें जब भी प्रकट होंगी, रूप लेंगी। रूप लेते ही रूप दिखाई पड़ेगा, अरूप छिप जाएगा। वह अरूप नहीं दिखाई पड़े, तो हमारे जीवन में भागवत चैतन्य का कोई संस्पर्श नहीं हो पाता है।

कृष्ण कहते हैं, मुझ सच्चिदानंद को जानना हो, तो रूप से आंखें उठानी पड़ें, आकार से ऊपर उठना पड़े, शरीर के पार झांकने की कोशिश करनी पड़े। यह कहीं से भी शुरू की जा सकती है। जरूरी नहीं है कि कोई कृष्ण के पास ही जाए, क्योंकि अब कैसे जाएंगे कृष्ण के पास! कहीं से भी शुरू कर सकते हैं। एक गेस्टाल्ट है मस्तिष्क में। हम जिस ढंग की देखने की आदत से बंध गए हैं, उसी तरह देखे चले जाते हैं। हमें दूसरी चीज दिखाई नहीं पड़ती।

हम सब कंडीशंड हैं। एक मजबूत यंत्र की तरह हमारा मन काम करता है। कृष्ण इस यंत्र को तोड़ने के लिए कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि कोई भी प्रेमी, कोई भी भक्त, जो मुझे जानना चाहता हो, उसे मेरे सच्चिदानंद रूप की, अरूप की, निराकार की दिशा में खोज करनी चाहिए। मेरे रूप पर मत रुक जाना। मेरे शब्द पर मत रुक जाना। मेरे शरीर पर मत ठहर जाना। थोड़ा हटना, ट्रांसेंड करना, पार, थोड़े ऊपर उठकर जाने की कोशिश करना।

अरूप की खोज करनी पड़ेगी। और सबसे सरल है कि अपने भीतर शुरू करें। दूसरे के पास जाकर अरूप को खोजना बहुत कठिन होगा। अपने भीतर आसानी से खोज हो सकती है। कभी आंख बंद करके भीतर देखने की कोशिश किया करें कि क्या मैं शरीर के रूप में बंधा हूं? कभी आंख बंद करके कोशिश करें कि मेरी सीमा क्या है? और आप बहुत हैरान हो जाएंगे। अगर आप तीन महीने एक छोटा-सा प्रयोग करें, तो यह सूत्र आपको खुल जाएगा। तीन महीने आधा घंटा रोज आंख बंद करके यही केवल सोचें कि मेरी सीमा कहां है?

आज सोचेंगे तो आपको शरीर ही अपनी सीमा मालूम पड़ेगी। लेकिन पंद्रह दिन से ज्यादा नहीं लगेगा कि आपको एक अदभुत अनुभव होना शुरू हो जाएगा। कभी शरीर बहुत बड़ा होता हुआ मालूम पड़ेगा, कभी बहुत छोटा होता हुआ मालूम पड़ेगा, सिर्फ पंद्रह दिन के भीतर। कभी लगेगा, शरीर पहाड़ जैसा हो गया और सीमा बड़ी हो गई। और कभी लगेगा, शरीर चींटी जैसा हो गया, सीमा बड़ी छोटी हो गई। घबड़ा मत जाना, क्योंकि बहुत घबड़ाहट का अनुभव होता है।

जब पहली दफा सीमा का भाव टूटता है, तो फ्लक्चुएशन होता है। कभी लगता है, बहुत बड़ा हो गया; कभी लगता है, बिलकुल छोटा हो गया। अगर आप पीछे पड़े ही रहे, तो एक महीना पूरा होते-होते अचानक कभी-कभी ऐसे क्षण आ जाएंगे, जब लगेगा कि शरीर है ही नहीं--न छोटा, न बड़ा। और तब आपको पहली दफा पता चलेगा कि मेरी कोई सीमा नहीं। मैं हूं, और सीमा कोई भी नहीं है। अपने ही भीतर अगर तीन महीने इस प्रयोग को करें, तो आप असीम की और निराकार की छोटी-सी झलक को पा लेंगे।

और जिस दिन आप अपने भीतर जान लेंगे, उस दिन आप दूसरे के भीतर भी जान लेंगे। क्योंकि हम दूसरे के भीतर जो भी जानते हैं, वह अनुमान है, इनफरेंस है। ज्ञान तो अपने भीतर होता है, दूसरे की तरफ तो अनुमान होता है।

आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो आंखें लाल हो जाती हैं, मुट्ठी भिंच जाती है। तो दूसरा आदमी अगर क्रोध में न भी हो--जैसा कि फिल्म का एक्टर या नाटक का पात्र क्रोध में नहीं होता--आंखें लाल कर लेता है, मुट्ठी भींच लेता है; आप समझ जाते हैं कि यह क्रोध में है। भीतर क्रोध बिलकुल नहीं होता।

क्योंकि आपको पता है कि जब आप मुट्ठी बांधते हैं और आंखें मींचते हैं, और दांत दबाते हैं, और लहू उतर आता है, चेहरा लाल हो जाता है, तब आप जानते हैं कि आप क्रोध में हैं। फिल्म का अभिनेता या नाटक का पात्र वही करके दिखला रहा है; आप समझ जाते हैं कि वह क्रोध में है। क्रोध आपका अनुमान है। वह है नहीं क्रोध में। लेकिन जो-जो घटना क्रोध में घटती है, वह घट रही है; आप अनुमान कर लेते हैं।

दूसरे के बाबत हम अनुमान करते हैं। ज्ञान तो अपने ही बाबत होता है।

अपने भीतर निराकार की थोड़ी-सी खोज हो...। कई तरह से हो सकती है। जैसे मैंने कहा कि शरीर की सीमा का चिंतन करें, मनन करें, मेडिटेट आन इट; ध्यान करें। तीन महीने में आपकी सीमा खो जाएगी और आपके असीम का अनुभव हो जाएगा।

अगर इसमें कठिनाई मालूम पड़े, तो शरीर की उम्र, अपनी उम्र का भीतर अनुभव करें कि मेरी उम्र कितनी है? तो अभी आज आप बैठेंगे, तो पता लगेगा कि चालीस साल है, तो चालीस साल है। लेकिन यह असली पता नहीं है। यह तो सिर्फ आदत है रोज की कि आप चालीस साल के हैं। पंद्रह दिन बैठकर देखने पर आप डांवाडोल होने लगेंगे। कभी लगेगा कि छोटा बच्चा हो गया, और कभी लगेगा कि बिलकुल बूढ़ा हो गया, यह फ्लक्चुएशन शुरू हो जाएगा।

एक महीना पूरा होते-होते आपके भीतर यह सफाई हो जाएगी कि न मैं बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। तीन महीने प्रयोग करने पर आप पाएंगे कि आप अजन्मा हैं; आपका कभी कोई जन्म नहीं हुआ। और आप अमृत हैं; आपकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती।

कहीं से भी शुरू करें, किसी भी आकार से शुरू करें, और धीरे-धीरे आप निराकार में उतर जाएंगे। ध्यान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा।

कृष्ण वही कह रहे हैं। ज्ञान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा।

जो बुद्धिहीन है, वह आकार में अटक जाता है। जो बुद्धिमान है, वह निराकार में डुबकी लगा लेता है। और एक बार निराकार की झलक मिल जाए, तो इस जगत में सब आकार मिट जाते हैं और निराकार ही रह जाता है। और जहां निराकार है, वहां आनंद है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह मेरा सच्चिदानंद स्वरूप है, वहां सत, चित, आनंद, तीनों का वास है।

लेकिन निराकार में है। आकार में अगर खोजने जाएंगे, तो आकार में सत नहीं मिलेगा, मिलेगा असत।

सत का अर्थ होता है, एक्झिस्टेंस, अस्तित्व। असत का अर्थ होता है, आभास; दिखता है कि है, और नहीं है। अगर आकार में खोजने जाएंगे, तो चित नहीं मिलेगा। चित का अर्थ होता है, कांशसनेस, चैतन्य। आकार में खोजने जाएंगे, तो जड़ मिलेगा, चैतन्य नहीं मिलेगा। और तीसरा तत्व है, आनंद। आकार में खोजने जाएंगे, तो सुख मिलेगा, दुख मिलेगा, आनंद नहीं मिलेगा। आनंद तो निराकार में मिलेगा।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे सच्चिदानंद स्वरूप को वे बुद्धिमान जान पाते हैं, जो मेरे आकार और आकृति में नहीं उलझ जाते। जो पार चले जाते हैं, गहरे उतर जाते हैं और निराकार को खोज लेते हैं।

यह निराकार हमारे चारों तरफ सब तरह से मौजूद है; यहीं मौजूद है। लेकिन हम सबको आकार दिखाई पड़ते हैं। हमारी सिर्फ आदत है देखने की।

इसे ऐसा समझें कि एक आदमी अपने घर के भीतर बैठा है। कभी घर के बाहर नहीं गया। खिड़की से आकाश को देखता है। तो उसे आकाश निराकार दिखाई पड़ेगा कि साकार?

उसे साकार दिखाई पड़ेगा। क्योंकि खिड़की का ढांचा आकाश पर बैठ जाएगा। वह जो खिड़की का पैटर्न है, वह जो खिड़की का चौखटा है, आकाश उतना ही मालूम पड़ेगा, जितना खिड़की का चौखटा है। और अगर वह आदमी अपने घर के बाहर कभी न गया हो, तो क्या वह सोच सकेगा कि यह जो चौखट दिखाई पड़ रही है, मेरे मकान की है, आकाश की नहीं! कभी नहीं सोच सकेगा। इसके लिए बाहर जाना जरूरी है।

हम अपने मकान के बाहर कभी नहीं गए। शरीर के भीतर हैं। और हर चीज पर चौखट है। हमारी आंख की चौखट चीजों को आकार दे देती है। कान की चौखट चीजों को आकार दे देती है। हमारी इंद्रियां आकार का निर्माण करती हैं। और हम अपने शरीर के बाहर कभी नहीं गए। शरीर के भीतर से ही सब चीजें देखते हैं। और इंद्रियां आकार देती हैं हरेक चीज को। एक दफा हम शरीर के बाहर जाकर देख लें, तो भी काम हो जाए।

तो आपको एक दूसरा प्रयोग भी कहता हूं। वह भी अगर संभव हो सके, तो जैसे मैंने दो प्रयोग आपको कहे, एक प्रयोग और आपको कहता हूं। वह भी एक रास्ता है कि आप घर के बाहर जाकर देख लें।

आप पंद्रह दिन तक आधा घंटा रोज, पड़ जाएं जमीन पर मुर्दे की भांति और एक ही बात सोचते रहें कि मैं मर गया। कठिन पड़ेगा। खुद ही को डर लगेगा। बीच में एकाध दफे कह देंगे कि नहीं-नहीं; ऐसा नहीं; मैं जिंदा हूं!

नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। कहते रहें, मैं मर गया, मैं मर गया। इसको मंत्र की तरह भाव करते रहें। पंद्रह दिन में आप अचानक पाएंगे कि कई बार आपको ऐसा लगेगा कि थोड़ा-सा आप शरीर के बाहर गए। कभी बाहर निकल गए हैं, कभी भीतर आ गए हैं। कभी बाहर गए हैं, कभी भीतर आ गए हैं।

एक महीना पूरा होते-होते आप इस स्थिति में आ जाएंगे कि आपको कई बार अपने शरीर को बाहर से देखने का मौका मिल जाएगा। एक क्षण को आप देखेंगे कि शरीर पड़ा है मुर्दे की तरह। आप पड़े हैं। घबड़ाकर आप फिर भीतर चले जाएंगे।

तीन महीने आप प्रयोग करते रहें और आप उस स्थिति में आ जाएंगे कि बराबर बाहर खड़े होकर अपने शरीर को देख पाएं कि यह पड़ा है शरीर।

और एक दफा आप अगर अपने शरीर के बाहर होकर अपने शरीर को देख पाएं, उस वक्त जरा लौटकर चारों तरफ देखना, सब निराकार दिखाई पड़ेगा, कहीं कोई आकार नहीं है। क्योंकि सब आकार शरीर की इंद्रियों के चौखटों का आकार है।

आंख का आकार है, इसलिए आंख निराकार नहीं देख सकती। कान का आकार है, इसलिए कान निराकार को नहीं सुन सकता। हाथ का आकार है, इसलिए हाथ निराकार को कैसे स्पर्श करे!

शरीर के बाहर,  आपको खबर दिलाएगा कि सब निराकार है। उस दिन के बाद आपकी जिंदगी दूसरी हो जाएगी।

कृष्ण जो भी ये कह रहे हैं, ये योग के गहरे प्रयोगों की तरफ इशारे हैं। निराकार को जो देख ले, वही बुद्धिमान है। आकार में जो उलझा रह जाए, वह बुद्धिहीन है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल


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