मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 12

 जीवन अवसर है


न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। 

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।। 15।।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। 16।।


माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण किए हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग तो मेरे को नहीं भजते हैं।

और हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, उत्तम कर्म वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात निष्कामी, ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं।


कौन करता है प्रभु का स्मरण, इस संबंध में कृष्ण ने कुछ बातें कही हैं।

मनुष्य जाति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। और जब दुनिया से सारे वर्ग मिट जाएंगे, तब भी वही विभाजन अंतिम सिद्ध होगा।

बहुत तरह से आदमी को हम बांटते हैं। धन से बांटते हैं; गरीब है, अमीर है। शिक्षा से बांटते हैं; शिक्षित है, अशिक्षित है। चमड़ी के रंगों से बांटते हैं; गोरा है, काला है। हजार तरह से आदमी को हम बांटते हैं। लेकिन जो परम विभाजन है, जो अंतिम विभाजन है, वह न तो चमड़ी से तय होता, न धन से तय होता, न यश से तय होता, न शिक्षा से तय होता। ये सब बातें बहुत ऊपर और बहुत बाहर हैं, बहुत सतह पर। अंतिम विभाजन तो एक ही है, वे जो प्रभु-उन्मुख हैं, और वे जो प्रभु-उन्मुख नहीं हैं। वे जिनकी आंखें परमात्मा की तरफ उठ गई हैं; और वे जो पीठ किए हुए परमात्मा की तरफ खड़े हुए हैं।

कृष्ण कहते हैं, मूढ़जन मुझे नहीं भजते हैं।

कठिन लगेगा यह शब्द। और कृष्ण किसी को मूढ़ कहें, तो लगेगा, गाली दे रहे हैं। लेकिन जहां तक कृष्ण का संबंध है, वे केवल एक तथ्य की सूचना कर रहे हैं। और मूढ़ कहना गाली नहीं है, मूढ़ कहना केवल एक तथ्य की घोषणा है।

सच ही वह आदमी मूढ़ है, जो परमात्मा की तरफ पीठ किए खड़ा है। इसलिए नहीं कि इससे परमात्मा की कोई हानि है और इसलिए कृष्ण नाराज होकर उसे मूढ़ कह रहे होंगे। बल्कि इसलिए कि वह अपना ही घात कर रहा है, आत्मघात कर रहा है।

मूढ़ किसे कहते हैं? मूढ़ विशेष शब्द है। मूढ़ का अर्थ सिर्फ मूर्ख नहीं होता। इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। मूढ़ पारिभाषिक शब्द है। अगर मनसविद से पूछेंगे, तो मनसविद जिसे ईडियट कहता है, उसे संस्कृत में मूढ़ कहा जाता है। उसका मतलब फुलिश नहीं है, उसका मतलब मूर्ख नहीं है। क्योंकि मूर्ख और बुद्धिमान में जो अंतर होता है, वह गुणात्मक होता है, डिग्री का होता है। जिसको आप मूर्ख कहते हैं, वह थोड़ा कम बुद्धिमान है; बस। और जिसको आप बुद्धिमान कहते हैं, वह थोड़ा कम मूर्ख है; बस। उन दोनों के बीच जो अंतर है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं है। क्वालिटी का नहीं है, क्वांटिटेटिव है।

फिर दो शब्द और हैं, एक जिसको हम कहते हैं मूढ़; और दूसरा, जिसको हम कहते हैं मेधावान। उनके बीच जो अंतर है, वह क्वालिटी का है, गुण का है, क्वांटिटी का नहीं है।

मूढ़ से मतलब है, ऐसा आदमी, जो जिस शाखा पर बैठा हो, उसी को काटता हो।

कालिदास की कथा हमने पढ़ी है। वे मूढ़ के प्रतीक हैं। बैठे हैं वृक्ष पर, शाखा को काट रहे हैं। और जिस शाखा को काट रहे हैं, उसी पर बैठे हुए हैं। गिरेंगे ही। और कोई और जिम्मेवार न होगा। खुद ही शाखा को काट रहे हैं। और जितनी शाखा कटती है, कालिदास उतने प्रसन्न हो रहे होंगे, क्योंकि सफलता मिल रही है। हालांकि सफलता कुल इसमें मिल रही है कि वे थोड़ी देर में गिरेंगे और हाथ-पैर तोड़ लेंगे।

मूढ़ से मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो आत्मघात में लगा हो; स्युसाइडल। मेहनत भी करता हो, तो अपने को ही नुकसान पहुंचाता हो। श्रम भी करता हो, तो अपना ही घात करता हो।

निश्चित ही, परमात्मा के खिलाफ जो पीठ करके खड़े हैं, उनसे बड़ा मूढ़ कोई भी नहीं हो सकता। क्योंकि शाखाओं पर से कोई काटकर गिर भी पड़े, तो कितना नुकसान होने वाला है! लेकिन परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़ा हुआ आदमी तो सब भांति के नुकसान में पड़ जाएगा।

इसलिए कृष्ण जब मूढ़ कहते हैं, तो आप मत सोचना कि गाली दे रहे हैं। वे केवल सूचना दे रहे हैं कि ऐसे व्यक्ति को हम मूढ़ कहते हैं। क्योंकि परमात्मा है हमारी परम संपदा। उसके बिना हम दरिद्र ही रहेंगे, चाहे हम कितनी ही संपत्ति इकट्ठी कर लें। और परमात्मा है परम यश। उसके बिना हम पदहीन ही रहेंगे, क्योंकि वह है परम पद, चाहे हम कितने ही बड़े पदों पर पहुंच जाएं। और परमात्मा के बिना हम कहीं भी नहीं पहुंच सकते हैं, चाहे हम कितनी ही यात्रा करें। हम आखिर में पाएंगे कि हम वहीं खड़े हैं, जहां जन्म ने हमें खड़ा किया था। मौत के वक्त हम वहीं खड़े हुए मिलेंगे। हमारी सब दौड़ व्यर्थ जाने वाली है।


कृष्ण कह रहे हैं, वह आदमी मूढ़ है।

वह आदमी जो परमात्मा का भजन नहीं कर रहा है। भजन का अर्थ है, जो परमात्मा और अपने बीच कोई सेतु नहीं बना रहा है; जो परमात्मा की शक्ति को अपनी शक्ति नहीं मान रहा है; जो परमात्मा और अपने बीच किसी तरह का विरोध और रेजिस्टेंस खड़ा कर रहा है, वह आदमी मूढ़ है। क्योंकि वह किसी और से नहीं लड़ रहा है, वह अपने से ही लड़ रहा है। और हारेगा, क्योंकि बड़ी विराट ऊर्जा से लड़ रहा है। लहर सागर से लड़ने चल पड़ी!

तो कृष्ण एक तथ्य की बात कहते हैं। कहते हैं, मूढ़ है वह आदमी। मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं।

इसमें कई दफे पढ़कर ऐसा लगता है कि जो कृष्ण को नहीं भजता है, कृष्ण उसको गाली दे रहे हैं कि तुम मूढ़ हो। नहीं, ऐसा नहीं है। नहीं भजते हो, इसलिए मूढ़ हो, ऐसा नहीं। मूढ़ हो, इसलिए नहीं भजते हो। और इस मूढ़ता में आत्मघात छिपा है, अपना ही विनाश छिपा है। सेल्फ-डिस्ट्रक्टिव, आत्मविनाश की वृत्ति छिपी है। और हम सबके भीतर आत्मविनाश की वृत्ति है।


इस खोज ने सारे पश्चिम में हैरानी पैदा कर दी थी। लेकिन पूरब इसे सदा से जानता है। सदा से जानता है कि आदमी के भीतर जीवन की आकांक्षा भी है, और मरने की आकांक्षा भी है। स्वस्थ आदमी वह है, जो जीवन की आकांक्षा पर यात्रा करता है। अस्वस्थ, रुग्ण आदमी वह है, जो मृत्यु की आकांक्षा पर यात्रा करने लगता है।

ध्यान रहे, जो आदमी जीवन की आकांक्षा से जीता है, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख हो जाता है; और जो आदमी मृत्यु की आकांक्षा से भर जाता है, वह परमात्मा की तरफ विमुख हो जाता है।


मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो जिंदगी में दस-पांच बार स्वयं की हत्या का विचार न करता हो। यह दूसरी बात है कि आप हत्या न करते हों, क्योंकि हत्या करने के लिए और सब इंतजाम चाहिए, जो आपके पास न हो। हिम्मत चाहिए, जो न हो। लेकिन हत्या का विचार आदमी करता है। और ऐसा नहीं कि बूढ़े ही करते हैं। छोटे-से बच्चे को बाप जोर से डांट दे और बच्चा अपने भीतर सोचता है, इससे तो मर ही जाऊं। छोटा-सा बच्चा, अभी जो जीवन की यात्रा पर निकला भी नहीं है; उसके भीतर भी मरने का भाव पकड़ता है। वह भी सोचता है, खतम कर दो अपने को, नष्ट कर दो।

अगर मनुष्य के भीतर कोई मरने की वृत्ति न हो, तो इतनी जल्दी मरने का खयाल नहीं आ सकता है। और जो गहरे खोजते हैं, वे कहते हैं कि हम दूसरे को भी मारने के लिए इसलिए उत्सुक हो जाते हैं, क्योंकि हमें डर है कि अगर हम दूसरे को न मारें, तो कहीं अपने को मारना शुरू न कर दें। यह बहुत उलटा लगेगा।


इसलिए हर आदमी दूसरे की हत्या का विचार करता रहता है कि कहीं अपनी हत्या का विचार न करने लगे। और हर आदमी दूसरे को नुकसान पहुंचाने की धारणा बनाता रहता है, ताकि अपने को नुकसान न पहुंचाने लगे। हर आदमी आक्रामक है, ताकि कहीं आत्महिंसा में न लग जाए।

और यह बड़े मजे की बात है, जो लोग आक्रमण छोड़ देते हैं, या जो लोग चेष्टा करके दूसरे की हिंसा छोड़ देते हैं, वे आत्महिंसा में फौरन लग जाते हैं। इसलिए तथाकथित अहिंसा के साधक आत्म-हिंसा में लग जाते हैं, वे अपने को सताने लगते हैं।

यह बहुत मजे की बात है कि जो आदमी दूसरे को सताना छोड़ता है, वह फौरन अपने को सताने के उपाय करने लगता है। दो में से कोई और रास्ता दिखाई नहीं पड़ता।

कृष्ण उसे मूढ़ कहते हैं, जो अपने को सता रहा है। और अपने को सताने के लिए सबसे बड़ी विधि अगर जगत में कोई है, तो वह प्रभु को भूल जाना है।

आप कहेंगे, यह कैसी विधि? छाती में छुरा भोंक लो, ज्यादा तकलीफ होगी। कांटों पर लेट जाओ। जहर पी लो।

नहीं। परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इस जगत में कोई भी नहीं हो सकती है। परमात्मा के विस्मरण से बड़ी तकलीफ इसलिए नहीं हो सकती है, क्योंकि परमात्मा के विस्मरण के साथ ही जीवन के सब आनंद की धाराएं अवरुद्ध हो जाती हैं। आदमी जीता भी है मरा हुआ। ध्यान रहे, मर जाना उतना बुरा नहीं है, जितना मरे हुए जीना बुरा है।


मौत इतनी बुरी नहीं है, जीवन जितना बुरा हो सकता है। जीवन के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा है। मौत के बुरे होने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं है। मौत तो सिर्फ द्वार का बंद हो जाना है।

जीवन, प्रभु से हीन, ऐसा जीवन है, जिसमें चारों तरफ हमारे सब तरह के दुश्मन इकट्ठे हो जाते हैं।  क्रोध इकट्ठा हो जाता है, बेईमानी इकट्ठी हो जाती है, चोरी इकट्ठी हो जाती है, हिंसा इकट्ठी हो जाती है, सब उपद्रव इकट्ठे हो जाते हैं। और उनके बीच हमें जीना पड़ता है।

एक प्रभु का साथ छूटा कि चारों तरफ जीवन में सिवाय उपद्रव के और कुछ नहीं बचता। क्योंकि जो आदमी प्रभु की तरफ पीठ करेगा, उसने अपने आप अंधेरे की तरफ आंखें कर लीं। अब वह अंधेरे में, और अंधेरे में, और अंधेरे में उतरेगा। जिसने प्रभु का साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से दुर्गुणों को निमंत्रण दिया। जिसने प्रभु का साथ छोड़ा, उसने अपने हाथ से गङ्ढों में, पतन में और नर्कों में उतरने का इंतजाम किया।

तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ हैं जगत में ऐसे, दुष्टजन हैं वे, नासमझ हैं, असात्विक भावनाओं से भरे हुए हैं, वे मेरी प्रार्थना नहीं करते।

लेकिन आपसे मैं एक बात कह दूं। इससे आप यह मत समझना कि जो-जो प्रार्थना करते हैं, वे इन मूढ़ों में नहीं हैं। क्योंकि जरूरी नहीं है कि आप प्रार्थना करते वक्त प्रार्थना ही कर रहे हों। प्रार्थना करनी बड़ी कठिन है। इसलिए आप एकदम निश्चिंत होकर मत बैठ जाना कि यह किसी और की बात हो रही है, मैं तो रोज मंदिर जाता हूं। मैं तो प्रार्थना करता हूं। जरूरी नहीं है, आपकी प्रार्थना प्रार्थना हो।


असली सवाल यह नहीं है कि आप प्रार्थना करते हो; असली सवाल यह है कि किसलिए करते हो। अगर परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी मांग बीच में है, तो वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं है। अगर बीच में धन है, पद है, यश है, स्वास्थ्य है, सुख है, तो आपको परमात्मा से कोई भी प्रयोजन नहीं है। आपको प्रयोजन अपने सुख से है। प्रार्थना करते हैं कि शायद परमात्मा से मिल जाए, तो परमात्मा को भी एक इंस्ट्रूमेंट, एक साधन--सच, परमात्मा से भी थोड़ी सेवा लेने की उत्सुकता है, और कुछ भी नहीं है।

प्रार्थना कर लेने से प्रार्थना नहीं हो जाती। तो इसलिए जरूरी नहीं है कि मूढ़ लोग प्रार्थना न करते हों। मूढ़ लोग प्रार्थना करते हैं, लेकिन प्रार्थना कभी नहीं करते। कुछ मांग ही होगी उनकी, छोटी-मोटी, क्षुद्र। और कभी सोचेंगे भी नहीं कि क्या मांगने परमात्मा के सामने खड़े हैं!

असल में कुछ भी मांगने अगर कोई परमात्मा के सामने खड़ा है, तो प्रार्थना नहीं होगी; क्योंकि प्रार्थना मांग नहीं है। प्रार्थना का अर्थ ही है, बिना मांगा धन्यवाद; मांग नहीं है। प्रार्थना बड़ी उलटी चीज है। वह किसी चीज की मांग नहीं है; बल्कि जो परमात्मा ने दिया है, उसके लिए धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है, ग्रेटिटयूड है। जितना दिया है, वह इतना ज्यादा है कि उसे धन्यवाद देने की बात है, वह थैंक्स गिविंग।

लेकिन उसको धन्यवाद देने हम कभी नहीं जाते कि तूने हमें इतना दिया है। हम जाते हैं कहने कि क्या मारे डाल रहा है! कुछ भी नहीं है पास। लड़के की नौकरी नहीं लग रही। लड़की की शादी नहीं हो रही। परीक्षा में फेल हुए जा रहे हैं। धंधा बिगड़ा जा रहा है। सब इस तरह की बातें लेकर हम परमात्मा के सामने जाते हैं।

मूढ़ भी प्रार्थना करता है, लेकिन कृष्ण उसकी प्रार्थना को प्रार्थना नहीं मानते। क्योंकि वह परमात्मा को नहीं भजता, वह परमात्मा के बहाने जगत की चीजों को ही भजता है; वह जगत को ही भजता है।

कठिनाई है। हमारा चित्त जैसा है, वह केवल सांसारिक वस्तुओं को ही भज पाता है। कभी देखा, एक आदमी एक नई कार खरीदने की सोचता है, तो रातभर नींद नहीं आती। करवटें बदलता है, फिर कार दिखाई पड़ने लगती है। फिर करवट बदलता है, फिर कार दिखाई पड़ने लगती है। हजार रंग दिखाई पड़ते हैं, हजार ढंग दिखाई पड़ते हैं। महीनों सो नहीं पाता।

यह जो चित्त है, अगर इसको आप मंदिर में ले जाएं, तो प्रार्थना तो जरूर करेगा, लेकिन इसे दिखाई कार ही पड़ेगी। इसे कुछ और दिखाई नहीं पड़ सकता। चित्त की भाषाएं हैं।

अगर परमात्मा भी मिल जाए अचानक हमारे चित्त को, तो हम वही चीजें मांगेंगे, जो हम मांगते रहे हैं। उस मौके को भी हम खो देंगे। अगर ठीक परमात्मा...। सोचें जरा अपने मन में कि आज रात परमात्मा आपके बिस्तर के पास आकर खड़ा होकर जगाए कि उठिए। क्या चाहिए? तो जरा सोचें अपने मन में। आपको फौरन पता चल जाएगा कि आप क्या मांगेंगे। परमात्मा को कोई मांगेगा, इसमें बहुत संदेह है। क्योंकि जिसने कभी नहीं मांगा उसे, वह अचानक आज रात नहीं मांग पाएगा।

कृष्ण कहते हैं, मूढ़ है वह व्यक्ति। मूढ़ मुझे नहीं भजते हैं। फिर मुझे कौन भजता है? जिज्ञासु, मुमुक्षु, वे सात्विक लोग, वे सदाचरण वाले लोग, बुद्धिमान मुझे भजते हैं।

सच में ही, वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जगत के अवसर का उपयोग प्रभु की झलक पाने में कर ले। उसके अलावा कोई भी बुद्धिमान नहीं है। वही आदमी बुद्धिमान है, जो इस जीवन के अवसर का उपयोग जीवन के परम सत्य की खोज में कर ले। बाकी कोई आदमी बुद्धिमान नहीं है। बाकी सभी बुद्धिहीन हैं।

जीवन उन चीजों को इकट्ठा करने में भी गंवाया जा सकता है, जिन चीजों को पाकर कुछ भी नहीं मिलता। और हम सब वैसा ही गंवाते हैं। जीवन उन चीजों की खोज में नष्ट किया जा सकता है, जिन्हें हम न पाएंगे, तो भी दुखी होंगे; और पा लेंगे, तो भी दुखी होंगे।


परमात्मा के अतिरिक्त वह अमृत कहीं और नहीं है। परमात्मा से क्या मतलब?

परमात्मा से मतलब है, जीवन का जो गहनतम सत्य है, वही। जन्म के पहले भी जो मेरे भीतर था, और मृत्यु के बाद भी जो मेरे भीतर होगा, वही। जब मैं जागता हूं, तब भी जो मेरे भीतर है; और जब मैं सो जाता हूं, तब भी मेरे भीतर होता है--वही। जब मैं बच्चा हूं तब, और जब मैं जवान हूं तब, और जब बूढ़ा हो जाऊंगा तब, तब भी जो नहीं बदलता मेरे भीतर--वही। वह जो सारे परिवर्तन के बीच शाश्वत है; वह जो सारी उथल-पुथल के बीच स्थिर है; वह जो सारी गतियों के बीच, सारी आंधियों के बीच अडिग है; वह जो सब जीवन और मृत्यु के बीच सदा एक-सा है--उस एक की खोज परमात्मा की खोज है।

निश्चित ही, बुद्धिमान वही है, वाइज वही है, मेधावी वही है, जो इस जीवन से उसे पा ले।

हम करीब-करीब ऐसे लोग हैं कि सागर के तट पर गए हों, अवसर मिला हो, और सागर में हीरे पड़े हों, लेकिन हम किनारे पर रेत में जो सीप और चमकदार पत्थर पड़े रहते हैं, उनको बीनने में बिता रहे हैं। वह हम सब बीनकर इकट्ठा ढेर कर लेंगे। जीवन हाथ से खो जाएगा! ढेर वहीं पड़ा रह जाएगा।

क्या खोज रहे हैं हम? हमारी खोज वैसी है, रामकृष्ण कहा करते थे कि चील अगर आकाश में भी उड़ रही हो, तब भी तुम यह मत सोचना कि वह आकाश में उड़ती है। उसकी नजर तो नीचे कचरेघरों में कोई मांस का टुकड़ा पड़ा हो, कोई हड्डी पड़ी हो, उस पर लगी रहती है। आकाश में उड़ती चील के धोखे में मत आ जाना कि वह आकाश में उड़ रही है, इसलिए आकाश में उड़ रही होगी। उसका चित्त तो किसी हड्डी पर लगा रहता है, जो किसी कचरेघर पर पड़ी होगी।

जीवन का विराट आकाश मिलता है हमें, जिसमें हम परमात्मा के आलिंगन को उपलब्ध हो सकते हैं। बड़ी संपदा हमारी हो सकती है, जिसका कोई अंत नहीं। कुबेर के खजाने चुक-चुक जाएं और सोलोमन के खजाने छोटे पड़ जाएं। सीपियां सिद्ध होते हैं। नदी के किनारे बीने गए कंकड़-पत्थर रंगीन, बच्चों के खिलौने! लेकिन एक और संपदा है, जिसे पाते ही जीवन उस रौनक को उपलब्ध होता है, जिसका कोई अंत नहीं है; जिसे मृत्यु नहीं बुझाती; जिसे अंधेरा नहीं मिटाता; जिसे दुख नहीं मिटाता; जिसे पीड़ा नहीं छूती; जो अस्पर्शित रह जाती है। उस संपदा को पाया जा सकता है इसी जीवन में।

निश्चित ही, जो उस दिशा में न चले, उसे कृष्ण कैसे बुद्धिमान कहें? वे कहेंगे, बुद्धिमान हैं वे, वे ही हैं बुद्धिमान, जो मुझे भजते हैं।

यह भजने का, प्रभु को स्मरण करने का इतना आग्रह! क्या चाहते हैं? क्या इशारा है उनका? 


कृष्ण कहते हैं, दो तरह के लोग हैं इस जगत में। मूढ़जन हैं, जो मेरी तरफ आंख नहीं उठाते, जब कि मैं उन्हें निहाल कर दूं। बुद्धिमान हैं, जो मेरे अतिरिक्त और कहीं नजर नहीं ले जाते। क्योंकि मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कोई जगह देखने योग्य नहीं रह जाती। मेरी तरफ नजर उठी कि फिर और कुछ पाने योग्य नहीं रह जाता। मुझे जिन्होंने पा लिया, उन्होंने सब पा लिया है।

यह कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि अर्जुन समझे, कि मूढ़ के जगत से यात्रा करे बुद्धिमान के जगत की तरफ।

कोई मूढ़ ऐसा नहीं है कि बुद्धिमान न हो सके; और कोई बुद्धिमान ऐसा नहीं है कि कभी न कभी मूढ़ न रहा हो। सब संतों का अतीत है, और सब पापियों का भविष्य है। और पाप से गुजरे बिना कोई संतत्व तक नहीं पहुंचा है। और संतत्व तक जो भी पहुंचा है, पाप की अग्नि से निकला है।

इसलिए कभी ऐसा मन में सोचकर मत बैठ जाना कि मैं तो मूढ़ हूं। दुनिया में कोई मेधा नहीं है, जो मूढ़ता से न गुजरी हो। वह अनिवार्य शिक्षा है। और दुनिया में कोई ऐसा मूढ़ नहीं है, जिसके भीतर वह बीज न छिपा हो, जो मेधा बन जाए, प्रतिभा बन जाए; खिल जाए और बुद्धिमानी हो जाए। फर्क सिर्फ रूपांतरण का है, एक छलांग का। एक अबाउट टर्न, एक पूरा घूम जाना। जिस तरफ मुंह है, उस तरफ पीठ; और जिस तरफ पीठ है, उस तरफ मुंह हो जाना। बस, इतने में ही मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है। इतनी-सी घटना से मूढ़ बुद्धिमान हो जाता है। जड़ता गिर जाती है, और चैतन्य का जन्म हो जाता है। पर्दे हट जाते हैं, और रहस्य के द्वार खुल जाते हैं।

लेकिन हम हिप्नोटाइज्ड हैं, हम बिलकुल सम्मोहित हैं चीजों से। हम इस बुरी तरह से सम्मोहित हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं! हाथ कुछ नहीं लगता; अनुभव तक नहीं लगता हाथ। जिंदगीभर इस उपद्रव के बाद अनुभव भी हाथ नहीं लगता।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मेरी माया में डूबे हुए, मेरे सम्मोहन में डूबे हुए; प्रकृति की दुस्तर माया में डूबे हुए मूढ़जन, मेरा भजन नहीं कर पाते हैं। हिप्नोटाइज्ड बाई नेचर। बिलकुल हिप्नोटाइज्ड हैं; प्रकृति के गुणों से सम्मोहित हो गए हैं। और मेरा स्मरण नहीं कर पाते। बस, प्रकृति का ही स्मरण करते हैं। उन्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। लेकिन अगर अनुभव भी मिल जाए, तो बहुत। और जिसे अनुभव मिल जाता है, वह तत्काल रूपांतरित हो जाता है।



सम्मोहन से बंधे रहना मूढ़ता है। प्रभु की ओर आंखों का उठ जाना, उसका भजन शुरू हो जाए, उसका नर्तन शुरू हो जाए, उसका कीर्तन भीतर जग उठे, जीवन एक नृत्य बन जाए--प्रभु को समर्पित, उसके चरणों में झुका हुआ--तो परम आनंद की उपलब्धि होती है। लेकिन वह सम्मोहन टूटे, तभी संभव है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...