मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 14

 मुखौटों से मुक्ति


उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। 19।।


यद्यपि ये सब ही उदार हैं अर्थात श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति-स्वरूप मेरे में ही अच्छी प्रकार स्थित है। और जो बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी, सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।


प्रभु को जो जानता है, वह उस जानने में ही उसके साथ एक हो जाता है। सब दूरी अज्ञान की दूरी है। सब फासले अज्ञान के फासले हैं। परमात्मा को दूर से जानने का कोई भी उपाय नहीं है, परमात्मा होकर ही जाना जा सकता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह ज्ञानी, वासुदेव ही हो गया, वह भगवान ही हो गया, वह कृष्ण ही हो गया, वह मैं ही हो गया।

लेकिन कैसा ज्ञानी कृष्ण को जानता है? दो बातें कही हैं। कहा है, युक्त आत्मा, जिसकी आत्मा युक्त हो  गई।

हम सबकी आत्मा खंड-खंड है, अयुक्त है, टुकड़े-टुकड़े है। हम एक आदमी नहीं हैं; बहुत आदमी हैं एक साथ। नाम हमारा एक है, इससे भ्रम पैदा होता है। एक नाम के लेबिल के पीछे बहुत निवासी हैं। क्षण-क्षण में हमारे भीतर बदलते रहते हैं लोग। हम एक भीड़ हैं, एक समूह--प्रत्येक आदमी--क्योंकि बहुत खंड हैं हमारे। खंड ही हैं, ऐसा नहीं, विपरीत खंड भी हमारे भीतर हैं। जो हम एक हाथ से करते हैं, उसे ही दूसरे हाथ से मिटा देते हैं।

एक क्षण हम प्रेम से भर जाते हैं, दूसरे क्षण घृणा से भर जाते हैं। वह जो प्रेम में मंदिर बनाया था, घृणा में मिट्टी में मिल जाता है। एक क्षण क्रोध में जलते हैं, और फिर क्षमा से भर जाते हैं। वह जो आग जलाई थी अपने ही प्राणों की, उसे अपने ही प्राणों के पानी से बुझाते हैं। क्षण-क्षण हमारे भीतर बदलता रहता है सब कुछ। हम एक प्रवाह हैं।

युक्त पुरुष इससे विपरीत होता है। युक्त पुरुष का अर्थ है, वह जो भीतर एक ही है। कहीं से चखो उसे, स्वाद उसका एक। कहीं से बजाओ उसे, आवाज उसकी एक। कहीं से खोजो उसे, वही मिलेगा। किसी द्वार से, किसी दरवाजे से, किसी स्थिति में, वही मिलेगा।

यहां जरा-सी धूप बदल जाती है और छाया हो जाती है, तो हम बदल जाते हैं। यहां जरा-सा अंतर पड़ता है परिस्थिति में, और हमारे भीतर का आदमी दूसरा हो जाता है। खीसे में पैसे हों थोड़े, तो हृदय की धड़कन और कुछ होती है। खीसे में पैसे थोड़े कम हो जाएं, हृदय की धड़कन और कुछ हो जाती है। हम हैं, ऐसा कहना ही शायद ठीक नहीं है।

लेकिन एक मजे की बात है कि हमारे पास एक चेहरा हो, तो भी ठीक। झूठा ही सही; एक हो, तो भी ठीक। झूठे चेहरे हैं, वे भी बहुत हैं। और कितनी कुशलता से हम उन्हें बदलते हैं कि हमें कभी पता नहीं चलता कि हमने चेहरा बदल लिया। क्षणभर में बदल जाता है।




कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, स्थिर बुद्धि हुई जिसकी, ऐसा व्यक्ति ही मुझे जान पाता है।

परमात्मा के पास झूठे चेहरे लेकर नहीं जाया जा सकता। हां, कोई चाहे तो बिना चेहरे के भला पहुंच जाए; लेकिन झूठे चेहरों के साथ नहीं जा सकता। पर बिना चेहरे के वही जा सकता है, जिसके पास भीतर एक युक्त आत्मा हो। तब शरीर के चेहरों की जरूरत नहीं रह जाती।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि हम सब झूठे चेहरे लगाकर जीते हैं। हमें अच्छी तरह पता है कि हम झूठे चेहरे लगाकर जिंदगी में जीते हैं। और हमारे पास कई चेहरे हैं, हमारे पास एक व्यक्तित्व नहीं, एक आत्मा नहीं।

महावीर ने कहा है, मल्टी-साइकिक, बहुचित्तवान है आदमी। बहुत चित्त हैं उसके भीतर। यह मल्टी-साइकिक शब्द तो अभी जुंग ने विकसित किया, लेकिन महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले जो शब्द उपयोग किया है, वह ठीक यही है। वह शब्द है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त वाला है आदमी।

कृष्ण भी वही कह रहे हैं कि जब वह एक चित्त वाला हो जाए, तभी मुझ तक आ सकता है; उसके पहले मुझे न जान पाएगा।

हम दूसरे को तो धोखा देते हैं, लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि हमें कभी यह खयाल नहीं आता है कि दूसरे भी ऐसे ही चेहरे लगाकर हमें धोखे दे रहे हैं। और हम चेहरों के एक बाजार में हैं, जहां आदमी को खोजना बहुत मुश्किल है। जब हम हाथ बढ़ाते हैं, तो हमारा एक चेहरा हाथ बढ़ाता है; दूसरी तरफ से भी जो हाथ आता है, वह भी एक चेहरे का हाथ है। सिर्फ इमेजेज, प्रतिमाएं मिलती हैं; आदमी नहीं मिलते। मुलाकात अभिनय में होती है; मुलाकात प्राणों की नहीं होती। बातचीत दो यंत्रों में होती है--सधे-सधाए, रटे-रटाए जवाब-सवालों में। भीतर की आत्मा का सहज आविर्भाव नहीं होता। लेकिन हम खुद अपने को धोखा देते-देते इतने धोखे में डूब गए होते हैं कि यह खयाल ही नहीं होता कि दूसरे लोग भी ऐसा ही धोखा दे रहे हैं।

हम सबकी हालत वैसी ही है। आप ही झूठा चेहरा लगाकर घूम रहे हैं, ऐसा नहीं है। आप जिससे बात कर रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिससे मिल रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिससे डर रहे हैं, वह भी घूम रहा है। आप जिसको डरा रहे हैं, वह भी घूम रहा है।

आप ही अकेले नहीं हैं, यह पूरा का पूरा समाज, चेहरों का समाज है। इतने चेहरों की जरूरत इसलिए पड़ती है कि हमें अपने पर कोई भरोसा नहीं। हम भीतर हैं ही नहीं। अगर हम इन चेहरों को छोड़ दें, तो हम पैर भी न उठा सकेंगे, एक शब्द न निकाल सकेंगे। क्योंकि भीतर कोई है तो नहीं मजबूती से खड़ा हुआ, कोई क्रिस्टलाइज्ड बीइंग, कोई युक्त आत्मा तो भीतर नहीं है। तो हमें सब पहले से तैयारी करनी पड़ती है।

हमें सब पहले से तैयारी करनी पड़ती है। नाटक में ही रिहर्सल नहीं होता, हमारी पूरी जिंदगी रिहर्सल है। पति घर लौटता है, तो तैयार करके लौटता है कि पत्नी क्या पूछेगी और वह क्या जवाब देगा। पत्नी भी तैयार रखती है कि पति क्या जवाब देगा और किस तरह से उसके जवाबों को गड़बड़ करेगी। सब तैयार है। और रोज यह हो रहा है, और रोज यह होगा।

जिंदगी में भी रिहर्सल! पहले से तैयार करना पड़ता है कि मैं क्या जवाब दूंगा। क्या पूछा जाएगा, फिर मैं क्या कहूंगा। फिर क्या बचाव निकालूंगा। देर तो हो गई है रात घर लौटने में। अब क्या-क्या मुसीबत आने वाली है, वह सब जाहिर है। वह सब तैयार है।

भीतर हमारे पास कोई ऐसी चेतना नहीं है क्या, जो स्पांटेनियस, सहज हो सके! जब सवाल उठे, तब जवाब दे सके! और जब मुसीबत आए, तब हमारे भीतर से उत्तर आ सके! और जब घटना घटे, तब हमारे भीतर से कर्म पैदा हो सके! और जब जैसी जरूरत हो, हमारे प्राण वैसा कर सकें!

लेकिन हमें भरोसा नहीं है कि भीतर कोई है। हमें तैयारी करनी पड़ती है; चित्त में ही तैयारी करनी पड़ती है।

कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, थिर हो गई जिसकी चेतना, जिसकी लौ चेतना की ठहर गई, वही केवल मुझे उपलब्ध हो पाता है। जो एक हो गया भीतर, जो यूनि-साइकिक हो गया, मल्टी-साइकिक नहीं रहा; बहुचित्त न रहे, एक चेतना का जन्म हो गया; एक विराट चेतना ने उसे सब ओर से घेर लिया--वैसा व्यक्ति मेरे पास आ पाता है। और वैसे व्यक्ति को कृष्ण ने कहा है ज्ञानी। और वैसे व्यक्ति को कहा है कि ऐसा व्यक्तित्व पाने में अनेक-अनेक जन्म लग जाते हैं अर्जुन!

न मालूम कितने जन्मों की यात्रा के बाद आदमी को यह अनुभव उपलब्ध हो पाता है कि मैं कब तक धोखा देता रहूंगा? मैं आथेंटिक, प्रामाणिक कब बनूंगा? मैं वही कब घोषणा कर दूंगा जगत के सामने, जो मैं हूं? कब तक मैं छिपाऊंगा? कब तक मैं प्रवंचना दूंगा? और मैं किसको धोखा दे रहा हूं? सब धोखा अपने को ही धोखा देना है; सब वंचनाएं आत्मवंचनाएं हैं।

लेकिन अनंत जन्मों के बाद भी याद आ जाए, तो जल्दी याद आ गई। अनंत जन्मों के बाद भी आ जाए, तो जल्दी आ गई याद। क्योंकि अनंत जन्म हम सबके हो चुके हैं। वह याद अब तक आई नहीं है। कहीं से कोई पीका नहीं फूटता भीतर से, कि वह हमें कहे कि उतार फेंको इस सब धोखेधड़ी को, जिसे तुमने जिंदगी बना रखा है। उतार दो इन नकली चेहरों को; अलग कर दो इनको, जो तुमने पहन रखे हैं। हटा दो यह सब जाल अपने आस-पास से, जो बेईमानी का है। बेईमानी का, जिसमें कि हम दूसरों को धोखा दिए जा रहे हैं वह होने का, जो हम नहीं हैं। दूसरे भी हमें दिए चले जा रहे हैं।

धार्मिक आदमी वह है, जो एक छलांग लगाकर इस सब उपद्रव के बाहर हो जाता है और जिंदगी जैसी है, उसकी सहज स्वीकृति की घोषणा कर देता है। उस स्वीकृति के साथ ही भीतर आत्मा युक्त हो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी अपने होने को अंगीकार कर लिया, जैसा है स्वीकार कर लिया; जैसा है, बुरा-भला, स्वीकार कर लिया।

इसका यह मतलब नहीं है कि बुरा आदमी अपने को स्वीकार कर लेगा, तो बुरा ही रह जाएगा। यह बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति, जैसा है, अपने को स्वीकार कर लेता है, तत्क्षण उसके जीवन में वह क्रांति घटित हो जाती है, जिसमें सब बुराइयां जल जाती हैं।

बुराइयां बचती हैं चेहरों की आड़ में, नग्नता में कोई बुराई नहीं बच सकती। जब कोई आदमी प्रकट अपने को, सहज जैसा है, जाहिर कर देता है सब भय छोड़कर...। क्योंकि सब भय ही तो है कि हम चेहरे लगाए फिरते हैं। डर ही तो है कि कोई क्या कहेगा, तो हम लगाए फिरते हैं।

संन्यासी मैं उसी को कहता हूं, जो इस बात की घोषणा कर दे जीवन के प्रति कि अब मैं धोखा नहीं दूंगा अपने चेहरे से; मास्क, कोई मुखौटा नहीं लगाऊंगा। जैसा हूं, हूं; उसकी खबर कर दूंगा। मैं जैसा हूं, वैसा होने की तैयारी करता हूं। ऐसा व्यक्ति एक दिन युक्त आत्मा को उपलब्ध हो जाता है।

युक्त आत्मा परमात्मा के साथ एक हो जाती है। यह दूसरी बात इसमें समझने जैसी है। जो अपने साथ एक हुआ, वह सर्व के साथ एक हो जाता है। जिसने इस भीतर के एक के साथ एकता बांधी, उसकी बाहर की, विराट यह जो ऊर्जा का विस्तार है, इससे भी एकता सध जाती है। जो अपने भीतर टूटा है, वही परमात्मा से टूटा रहता है।

इसलिए भक्त भगवान को जब जानता है, तो भक्त नहीं रहता, भगवान ही हो जाता है। कोई संधि नहीं बचती बीच में, जरा-सा कोई सेतु नहीं बचता। सब टूट जाता है। कोई फासला नहीं रह जाता। फासला है भी नहीं। हमने फासला बनाया है, इसलिए दिखाई पड़ता है। झूठा फासला है। हमारा बनाया हुआ फासला है।

कृष्ण कहते हैं, वह वासुदेव ही हो जाता है।

बड़े हिम्मत के लोग थे। आदमी को भगवान बनाने की इतनी सहज बात! आदमी प्रभु को भजे और प्रभु ही हो जाए! जो जानते थे, वही कह सकते हैं ऐसा। हमारा मन मानने को राजी नहीं होता। नहीं होता इसीलिए कि हमने सिवाय अपनी क्षुद्रता के और कुछ भी नहीं देखा है। हमारे भीतर वह जो विराट का बीज छिपा है, वह छिपा ही पड़ा है। तो जब भी हम सोचते हैं कि आदमी, और भगवान हो जाएगा, तो हमें भरोसा नहीं आता। क्योंकि हम अपने भीतर जिस आदमी को जानते हैं, वह शैतान तो हो सकता है, भगवान नहीं हो सकता।

हम अपने को अच्छी तरह जानते हैं। हमें पक्की तरह पता है कि अगर कोई कहे कि आदमी शैतान है, तो हमारी समझ में आता है। लेकिन कोई कहे, आदमी भगवान है, तो समझ में बिलकुल नहीं आता। क्योंकि हमारे पास जो नापने का आयोजन है, वह अपने से ही तो नापने का आयोजन है। हम अपने से ही तो नाप सकते हैं। और हम जब अपनी तरफ देखते हैं, तो सिवाय शैतान के कुछ भी नहीं पाते।

लेकिन मैं आपसे कहता हूं--और सारे धर्मों का यही कहना है--कि वह जो आपको अपने भीतर शैतानियत दिखाई पड़ती है, वह आप नहीं हैं। वह शैतानियत केवल इसीलिए है कि जो आप हैं, उसका आपको पता नहीं है। जिस क्षण आपको अपने असली होने का पता चलेगा, उसी दिन आप पाएंगे कि शैतानियत कहां खो गई! कभी थी भी या नहीं, या कि मैंने कोई सपना देखा था!

बुद्ध को जब ज्ञान हुआ है, और कोई उनसे पूछता है कि अब आप क्या कहते हैं कि इतने दिनों तक आप अज्ञान में कैसे भटके? तो बुद्ध कहते हैं, आज तय करना मुझे मुश्किल है कि वह जो अनंत जन्मों का भटकाव था, वह असली में घटा या मैंने कोई लंबा सपना देखा! कोई लंबा सपना! क्योंकि आज मैं तय ही नहीं कर पाता कि वह घट सकता है। वह असलियत में घट कैसे सकता है? क्योंकि आज मैंने जिसे अपने भीतर जाना है, उसे देखकर अब मैं मान नहीं सकता कि वह कभी भी घट सकता है।

जैसे ही हम उस भीतर के विराट को जानते हैं, वैसे ही सब क्षुद्रताएं उसमें खोकर ऐसे ही शुद्ध हो जाती हैं, जैसे कितनी ही गंदी नदी सागर में आकर गिर जाए और शुद्ध हो जाए। सागर चीख-पुकार नहीं करता कि गंदी नदी मुझमें मत डालो, गंदा हो जाऊंगा। और सागर में गिरते ही गंदगी कहां खो जाती, नदी कहां खो जाती, कुछ पता नहीं चलता। विराट ऊर्जा में जब भी हमारे क्षुद्र मन की बीमारियां गिरती हैं, तो ऐसे ही खो जाती हैं, जैसे सागर में नदियां खो जाती हैं।

बड़ी शक्ति छोटी शक्ति को पवित्र करने की सामर्थ्य रखती है। लेकिन हमें बड़े का कोई पता ही नहीं है। हम तो छोटे में ही जीते हैं। हम बड़ी छोटी पूंजी से काम चलाते हैं। सच बात यह है कि जितनी जीवन ऊर्जा से शरीर चलता है, हम उतने को ही अपनी आत्मा समझते हैं। और शरीर को चलाने के लिए तो जीवन ऊर्जा का अत्यल्प, छोटा-सा अंश काफी है। शरीर को चलाने के लिए तो सुई काफी है, तलवार की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और शरीर जितनी जीवन ऊर्जा से चलता है, उसके साथ ही हम तादात्म्य कर लेते हैं कि यह मेरी आत्मा है। फिर शैतान पैदा हो जाता है।

क्षुद्र के साथ संबंध शैतान को पैदा कर देता है; विराट के साथ संबंध भगवान को पैदा कर देता है। संबंध पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं। अगर आपने क्षुद्र से संबंध बांधा, तो शैतान। अगर विराट से संबंध बांधा, तो भगवान। आप वही हो जाते हैं, जिससे आप संबंध बांधते हैं; वही हो जाते हैं, जिसके साथ जुड़ जाते हैं।

कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जान लेता है, वह वासुदेव ही हो जाता है। वह मैं ही बन जाता है। जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।

यह जानना भी बहुत अदभुत है, जिसमें जानने से आदमी एक हो जाता है उससे, जो ज्ञेय है।

हमने बहुत चीजें जानी हैं। आपने गणित जाना है, लेकिन आप गणित नहीं हो गए। आपने भूगोल पढ़ी है, लेकिन आप भूगोल नहीं हो गए। आप हिमालय को देखकर जान आएंगे, लेकिन हिमालय नहीं हो जाएंगे। अगर कोई आकर कहे कि मैंने हिमालय को देखा और मैं हिमालय हो गया, तो आप उसे पागलखाने में बंद कर देंगे।

हम जिंदगी में जो भी जानते हैं, उसमें जानना दूर रहता है; हम कभी जानने वाली चीज के साथ एक नहीं हो पाते। इसलिए हमें कृष्ण के इस वचन को समझने में बड़ी कठिनाई पड़ेगी। क्योंकि हमारे अनुभव में यह कहीं भी नहीं आता कि जो भी हम जानें, उसके साथ एक हो जाएं। हमारा सब जानना, द्वैत का जानना है। हम दूर ही खड़े रहते हैं।

इसलिए अगर कृष्ण से पूछें, तो कृष्ण कहेंगे, जिसे तुम जानना कह रहे हो, वह जानना नहीं है, केवल परिचय है। हमारा सब जानना, मात्र परिचय है-- ऊपरी, बाहरी।

जैसे किसी के घर के बाहर से हम उसका घर घूमकर देख आएं और सोचें कि हमने उसके घर को जान लिया। और उसके भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं हुआ। जैसे हम सागर के किनारे खड़े होकर सोचें कि हमने सागर को जान लिया। और सागर के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं हुआ। यह जानना जानना नहीं है,  सिर्फ परिचय मात्र है--थोथा, ऊपरी, बाह्य।

ज्ञान हमारी जिंदगी में कोई है नहीं । और अगर आपकी जिंदगी में कोई ज्ञान है, तो आप कृष्ण की बात समझ पाएंगे। तो मैं दोत्तीन आपसे बात कहूं, शायद किसी की जिंदगी में वैसा ज्ञान हो, तो उसकी उसको झलक मिल सकती है।


अगर आपने कभी किसी को प्रेम किया है, तो किन्हीं-किन्हीं क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो गए, जिसे आपने प्रेम किया है। और अगर आपको ऐसा नहीं लगा, तो आपने कभी प्रेम नहीं किया है। किन्हीं क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो गए, जिसे आपने प्रेम किया है। और अगर ऐसा न लगा हो, तो आप प्रेम के नाम पर परिचय को ही जान रहे हैं। अभी प्रेम की नोइंग, प्रेम का ज्ञान अभी घटित नहीं हो पाया।

यह जो हमारी जानने की दुनिया है, वहां परिचय ही जानना समझा जाता है। कृष्ण तो उस बात को उठा रहे हैं, जहां होना ही ज्ञान है; । उसके अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, फिर वह ज्ञानी, वह मुझे भजने वाला, वह युक्त चित्त हुआ, वह स्थिर बुद्धि हुआ भक्त, वासुदेव हो जाता है। वह भक्त नहीं रहता, भगवान हो जाता है।

और एक क्षण को भी आपको अपने भगवान होने का स्मरण आ जाए, तो आपकी सारी जिंदगी, अनंत जिंदगियां स्वप्नवत हो जाएंगी।

इसे आप व्यवस्था भी दे सकते हैं। अभी आप जिस जिंदगी में जीते हैं, अगर उसे आप स्वप्नवत मानकर जीने लगें, तो दूसरे छोर से यात्रा हो सकती है। या तो परमात्मा के साथ एक होने के अनुभव की यात्रा पर निकलें, तो यह जिंदगी स्वप्नवत हो जाएगी। या इस जिंदगी को स्वप्नवत मानकर जीना शुरू कर दें, तो आप अचानक पाएंगे कि आप परमात्मा के साथ एक हो गए हैं।

लेकिन इसे आप सिर्फ बुद्धि से समझने चलेंगे, तो समझ तो जाएंगे, लेकिन वह समझ नासमझी से ज्यादा न होगी। समझ तो जाएंगे, लेकिन एक न हो पाएंगे। और जब तक एक न हो जाएं, तब तक मत मानना कि वह समझ है।


वह जो हमारे भीतर नशा है, बहुत तरह का है। पद का भी होता है, ज्ञान का भी होता है, त्याग का भी होता है। सब शराब बन जाती है, भीतर आदमी अकड़कर खड़ा हो जाता है। वह अकड़ अगर है, तो परमात्मा से मिलन न होगा। और परमात्मा से मिलन हुआ, तो वह अकड़ तो बह जाती है। उस अकड़ की जगह, परमात्मा ही शेष रह जाता है। लहरें खो जाती हैं और सागर ही बचता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल


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